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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 08

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. विपत्ति में सबसे ज्यादा भजन होता है ।
002. भजन से बड़ी संपत्ति कुछ भी नहीं है ।
003. जहाँ संसार हाथ छोड़ देता है प्रभु वहीं से हमारा हाथ पकड़ लेते हैं ।
004. संसार का कुछ भी हमारे अंत समय में काम नहीं आएगा, सिर्फ प्रभु ही हमारे काम आएंगे ।
005. अंत में हमारी अंगुली पकड़ने वाले सिर्फ प्रभु ही होते हैं ।
006. पाप हमें संसार छोड़ते समय घबराहट देंगे इसलिए पाप जीवन में कभी नहीं करने चाहिए ।
007. बिना प्रभु के जीवन बिलकुल नीरस होता है ।
008. जहाँ भी रहें पर रिश्ता सिर्फ प्रभु से ही बनाकर रखें ।
009. एक श्रीग्रंथ करोड़ों का कल्याण कर देता है । श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्री रामचरितमानसजी ने आज तक कितनों को तारा है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
010. हमारा मुख्य कर्तव्य प्रभु का भजन करना ही होना चाहिए ।
011. जीवन के बाकी कर्मों में फेरबदल कर सकते हैं पर भजन जीवन का अनिवार्य कर्म होना चाहिए ।
012. जिसका मन श्रीहरि में लग गया उसका मन फिर संसार में नहीं लगता ।
013. भजन करने वाले को संसार के ताप नहीं लगते क्योंकि उन्हें प्रभु की कृपा जो लग जाती है ।
014. जब कोई नहीं बचा सकता तो हमें प्रभु को ही पुकारना पड़ता है ।
015. पहले लोग धर्म से प्रेम करते थे पर आज लोग धन से प्रेम करते हैं ।
016. धन को जीवन में सबसे ज्यादा महत्व देने से हमारा नैतिक, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है ।
017. जो धर्म को जीवन में धारण करता है धर्म उसकी रक्षा करता है ।
018. संसार से प्रेम करेंगे तो हमें अंत में दुःख उठाना ही पड़ेगा ।
019. जैसे पेड़ को जड़ से काटा जाए और पानी से भरी नदी के अंदर भी डाल दें तो भी वह हरा-भरा नहीं होगा वैसे ही जो प्रभु से कट जाएगा वह जीवन में कभी हरा-भरा नहीं हो पाएगा । जैसे पेड़ जड़ से जुड़ा रहे तो थोड़े से पानी से भी वह तृप्त रहेगा वैसे ही जो प्रभु से जुड़ा रहेगा वही जीवन में तृप्त रहेगा ।
020. प्रभु अनंत हैं इसलिए प्रभु की श्रीलीला और कथा भी अनंत है ।
021. जीवन को भक्ति करके ऐसा बनाना चाहिए कि हमें प्रभु को नहीं ढूंढ़ना पड़े, प्रभु स्वयं हमें ढूंढ़ते हुए हमारे पास आ जाएं ।
022. जिसने समय रहते प्रभु को पकड़ लिया उसे इतना दिव्य परमानंद मिलेगा जिसकी तुलना संसार की किसी वस्तु से नहीं की जा सकती । जो प्रभु को नहीं पकड़ पाए उनका जीवन में अर्जित किया सब कुछ एक दिन छूट जाएगा ।
023. सत्संग में प्रेम होने के कारण प्रभु श्री शिवजी ने भगवती पार्वती माता को अपने में मिला लिया और प्रभु और माता अर्धनारीश्वर के रूप में स्थापित हुए ।
024. प्रभु प्रेम के कारण प्रभु से मानसिक और आत्मा का मिलन हो जाता है ।
025. प्रभु की भक्ति करने वाले को कभी दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता ।
026. जो प्रभु के हो जाते हैं उनकी एक-न-एक दिन संसार में भी जय-जयकार होती है । प्रभु मिलन के बाद भक्त श्री ध्रुवजी का उन्हीं लोगों ने सम्मान किया, जय-जयकार किया जिन्होंने पहले उनका अपमान किया था ।
027. भक्त बने-बने ही हमें संसार का काम करना चाहिए । संसार का काम करने की मनाही नहीं है पर प्रभु भक्त बनकर ही संसार का काम करना चाहिए ।
028. प्रभु पूरे संसार में व्याप्त हैं । संसार का कोई ऐसा कोना नहीं जहाँ प्रभु नहीं हों ।
029. जिसको जीवन में सच्चा सत्संग मिल जाता है उसके जीवन में आनंद-ही-आनंद हो जाता है ।
030. प्रभु से जिसका संबंध हो जाता है वही जीवन में सच्चे परमानंद का अनुभव करता है ।
031. संत और भक्त प्रभु को अपने हृदय में छिपाकर रखते हैं ।
032. हमें मेरा-मेरा नहीं करना चाहिए क्योंकि कुछ भी हमारा नहीं, सभी कुछ परमात्मा का ही है ।
033. अपने मन, वाणी और शरीर को हमें प्रभु को समर्पित करना चाहिए ।
034. हमें भक्तियोग में निष्ठा रखनी चाहिए क्योंकि यह परमात्मा प्राप्ति के लिए सर्वोच्च साधन है ।
035. भक्ति में जीवन जीकर ही हमें परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है ।
036. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का रसास्वादन होने के बाद जीवन में कुछ भी जानना या पाना शेष नहीं बचता ।
037. जो जीव प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण और चिंतन करते हैं वे एक-न-एक दिन प्रभु प्रेम में डूबकर प्रभु को प्राप्त कर ही लेते हैं ।
038. प्रभु से मिलने के लिए पूर्व आध्यात्मिक तैयारी की आवश्यकता होती है ।
039. एक बच्चा जैसे खेल में गंदा हो जाता है तो वह अपनी माँ को पुकारता है वैसे ही जीव संसार के खेल में अवगुणों से गंदा होता है तो उसे प्रभु को पुकारना चाहिए ।
040. प्रभु सदैव वात्सल्य रस से भरे रहते हैं ।
041. जीव को उसकी गलती का अंतिम दंड देने का अधिकार सिर्फ प्रभु का है ।
042. प्रभु में निष्ठा रखना जीवन में बहुत बड़ा लाभ देती है । निष्ठा के कारण प्रभु अपने भक्त को उपलब्ध हो जाते हैं ।
043. प्रभु को किया प्रणाम बहुत सुखद फल देता है । प्रभु को प्रणाम करना हमारे दुःखों को खत्म करता है ।
044. जो जीव प्रभु भक्ति और सेवा में लग जाते हैं उनके सामने प्रकृति भी झुक जाती है ।
045. जो जीव प्रभु श्री हनुमानजी की शरण ग्रहण कर लेते हैं उन्हें प्रभु श्री रामजी के पास पहुँचने में कोई परेशानी नहीं होती ।
046. जिनको प्रभु श्री हनुमानजी ने आश्रय दे दिया, उन्हें प्रभु श्री रामजी एक दिन जरूर आश्रय देंगे ।
047. जिन्हें प्रभु अपनी बांहों में उठा लेते हैं उन्हें फिर कभी भी, किसी माता के गर्भ में गिरना नहीं पड़ता ।
048. हमारे सारे काम करने वाले सिर्फ प्रभु होते हैं । इसलिए सीधे-सीधे जीवन में हमें प्रभु के साथ जुड़ जाना चाहिए ।
049. जीवन में गिरना ही है तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही गिरना चाहिए ।
050. जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भक्ति ही है ।
051. भक्ति से हमारा जीवन वैसा बन सकता है जैसा अन्य किसी भी साधन से कभी संभव नहीं है ।
052. अपनी श्वासों का सदुपयोग हमें प्रभु भजन के लिए करना चाहिए ।
053. प्रभु क्रिया नहीं देखते, हमारी भावना देखते हैं । अगर हमारी क्रिया में गलती हो जाए पर भावना सही है तो प्रभु हमें तत्काल हमें माफ कर देंगे । क्रिया की गलती को प्रभु नहीं देखते पर भावना की गलती प्रभु को पसंद नहीं ।
054. जीवन में एक लक्ष्य निश्चित करना चाहिए कि हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचना है ।
055. भक्ति मार्ग पर चलने से रास्ते में संसार विरोध करने के लिए आएगा पर हमें उस विरोध को नजरअंदाज करना चाहिए और भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते रहना चाहिए ।
056. हमें अपने मन को प्रभु रंग में ही रंगना चाहिए ।
057. जितनी बाधाओं को पार करके हम प्रभु के पास पहुँचते हैं उतनी ही उत्सुकता से प्रभु हमें स्वीकारते हैं ।
058. हम प्रभु के हैं इसलिए हमें प्रभु के पास ही जाना चाहिए ।
059. जो प्रभु के पास आ जाते हैं उन्हें फिर वहाँ से लौटकर कहीं नहीं जाना पड़ता ।
060. भगवान के पास लोक, लाज और मर्यादा को त्यागकर भी आना चाहिए जैसे भगवती मीराबाई आईं थीं ।
061. प्रभु के पास कोई भी पहुँच सकता है । चौरासी लाख योनियों में कोई भी जीव प्रभु तक जा सकता है । सबके लिए प्रभु के द्वार सदैव खुले रहते हैं ।
062. भक्ति का मार्ग अकेले चलने वाला मार्ग है ।
063. हमें स्वयं को सेवक और प्रभु को अपना स्वामी मानना चाहिए ।
064. प्रभु के लिए हम संसार को नहीं छोड़ेंगे तो एक दिन काल हमारा संसार छुड़वा देगा ।
065. जीवन में भक्ति जितनी भी बढ़े फिर उतनी ही सावधानी रखनी जरूरी है कि कहीं हमारा अभिमान नहीं पनप जाए ।
066. जीवन में सदैव प्रभु का आश्रय लेकर ही रहना चाहिए ।
067. यह सिद्धांत है कि भगवत् मिलन भगवत् कृपा के कारण ही संभव होता है ।
068. कोई बिरला ही प्रभु के भक्ति मार्ग पर चल पाता है ।
069. मानव जीवन लेकर स्वयं को प्रभु का बनाकर रखना चाहिए ।
070. माया सबको नचाती है इसलिए जीवन में नाचना ही है तो प्रभु के लिए नाचें ।
071. संसार के रस को नहीं पीना चाहिए । प्रभु के प्रेम के रस को ही पीना चाहिए ।
072. जिसने प्रभु प्रेम के रस का पान कर लिया उसे फिर संसार में लौटना नहीं पड़ता ।
073. भक्त को बोलने के लिए कुछ नहीं बचता क्योंकि वह प्रभु का नाम ही रटता रहता है । जुबां से लेने के लिए अगर कुछ है तो वह प्रभु का नाम ही है ।
074. प्रभु से ही हमें प्रीति बढ़ानी चाहिए ।
075. प्रभु नाम का रस पीकर देखें । ऐसा करने पर हमारा जीवन ही सुधर जाएगा ।
076. प्रभु के दास के लिए मुक्ति तो उनके हाथ में ही होती है ।
077. भक्त अन्य जीवों को प्रभु का बनाता है जिससे प्रभु अति प्रसन्न होते हैं ।
078. प्रभु की भक्ति का प्रचार करना चाहिए जिससे सभी प्रभु के बन सकें । इससे बड़ा दान, उपकार, सेवा संसार में और कुछ भी नहीं हो सकता ।
079. भक्त बनते ही जीवन में शास्त्र आज्ञा पालन होना प्रारंभ हो जाती है । शास्त्र आज्ञा पालन करने पर भक्तों को गर्व होता है ।
080. भक्त बनने के बाद भी जीवन में परेशानी आ सकती है पर यह हमारी परीक्षा होती है । ऐसा हो तो प्रभु को निरंतर याद करते रहना चाहिए ।
081. हमसे कितना भी बड़ा अपराध क्यों न हो जाए प्रभु उसे सुधारने का मौका हमें जरूर देते हैं ।
082. प्रभु कभी भी अपने भक्तों को अपनी कृपा से वंचित नहीं रखते ।
083. हम जो अपने लिए चाहते हैं प्रभु उससे ज्यादा हमारे लिए करते हैं ।
084. प्रभु अपने भक्तों को विपत्ति में कभी अकेला नहीं छोड़ते ।
085. जो प्रभु को भजते हैं प्रभु भी उनको भजते हैं । यह प्रभु की श्रीमद् भगवद् गीताजी में घोषणा है ।
086. हम मन के वश में हैं तो वह हमें संसार में अटका देगा और हमें नर्क जाना पड़ेगा । मन हमारे वश में है तो वह हमसे भक्ति करवाएगा और हमें प्रभु के पास पहुँचा देगा ।
087. प्रभु हमें धन देकर हमारी परीक्षा लेते हैं कि हमें धन आकर्षित करता है या प्रभु आकर्षित करते हैं ।
088. प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि जहर देने आई पूतना को भी माता की गति दे दी ।
089. प्रभु श्री कृष्णजी ने बालरूप में जिस दिन करवट बदली उस दिन करवट बदलने के उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया गया । प्रभु की एक-एक क्रिया का उत्सव मनाना चाहिए ।
090. प्रभु को लाड़ लड़ाना चाहिए । लाड़ लड़ाना सबसे बड़ी प्रभु सेवा है ।
091. प्रभु श्री कृष्णजी के नाम का अर्थ यह है कि जो भक्तों के अंतःकरण को अपनी ओर आकर्षित कर लें ।
092. प्रभु श्री कृष्णजी अपने प्रेमी भक्तों के अंतःकरण में जाकर अटक जाते हैं और प्रेम के कारण उनसे वापस बाहर आना बनता ही नहीं ।
093. प्रभु अपनी माया से जगत को नचाते हैं, उन प्रभु को प्रेम के कारण श्रीगोपीजन नचाती हैं । प्रेमा भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है ।
094. प्रभु नामरूपी धन जीवन में अर्जित करना चाहिए ।
095. प्रभु पहले अपने भक्तों को भोग लगाते हैं फिर स्वयं पाते हैं । प्रभु श्री कृष्णजी की श्रीलीला में प्रभु पहले श्री काकभुशुण्डिजी को माखन मिश्री का भोग खिलाते हैं फिर स्वयं पाते हैं ।
096. स्वयं को तिनके से भी छोटा मानकर फिर बिना अभिमान के प्रभु की सेवा करनी चाहिए तभी वह सेवा प्रभु स्वीकार करते हैं ।
097. प्रभु ने माखन की नहीं अपितु श्रीगोपीजन के प्रेम की चोरी की ।
098. जीव भक्ति का पुरुषार्थ करे और प्रभु कृपा करें तभी दो अंगुली छोटी रस्सी पूर्ण होती है और प्रभु बंधन में आ जाते हैं । दो अंगुली का मतलब है जीव का पुरुषार्थ और प्रभु की कृपा ।
099. प्रभु प्रेम से बंधते हैं, प्रभु शक्ति से नहीं बंधते । पहले भगवती यशोदा माता प्रभु को शक्ति से बांधना चाहती थीं पर प्रभु नहीं बंधे फिर प्रभु प्रेम के कारण ऊखल से स्‍वयं ही बंध गए ।
100. प्रभु को हमसे संबंध जोड़ने में एक पल भी नहीं लगता क्योंकि प्रभु से हमारा सनातन संबंध जो है ।
101. जीव किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म का हो, धनवान हो या निर्धन हो बस प्रभु के लिए भाव हो तो प्रभु उसे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं ।
102. बालरूप में प्रभु पर संकट न आए इसलिए अपने बसे बसाए घरों को क्षणभर में त्याग कर सभी गोप और गोपियां श्री वृंदावनजी जाकर बस गए । इतना प्रेम गोप और गोपियां प्रभु से करते थें ।
103. हम प्रभु के बिना मूल्य के अशुल्क दास हैं ।
104. प्रभु कथा का जगत को दान करना चाहिए । इस दान से प्रभु रीझ जाते हैं ।
105. सर्वोत्तम भक्त वह है जो अपना सब कुछ प्रभु को प्रदान कर देता है और स्वयं प्रभु का बन जाता है ।
106. हम किसी भी भाव से प्रभु को भजें तो भी हमारा बेड़ा पार हो जाएगा ।
107. ऋषि, संत और भक्तजन श्रीगोपीजन बनकर आए और लौकिक शरीर से श्रीरास में नहीं गए, अलौकिक शरीर से श्रीरास में प्रवेश किया ।
108. श्रीरास के श्रवण से काम वासना नष्ट हो जाती है ।
109. प्रभु जिसमें खुश रहें भक्त को वही करना चाहिए ।
110. हमारी जैसी भावना होती है उसी अनुरूप प्रभु हमसे संबंध जोड़ लेते हैं ।
111. अपने चित्त को चित्तचोर प्रभु में लगाना चाहिए ।
112. सब प्रकार से अपनी वृत्ति को प्रभु की तरफ ले जाना चाहिए ।
113. मन कहीं-न-कहीं तो लगेगा इसलिए उसे प्रभु में ही लगा लेना चाहिए नहीं तो वह संसार के विषयों में लग जाएगा ।
114. विष से शरीर मरता है पर विषयों से आत्मा मर जाती है ।
115. आध्यात्म में जो स्वयं को मिटा देता है वही प्रभु प्राप्ति की यात्रा में चल सकता है ।
116. संतों का भाव है कि प्रभु की श्रीलीला नित्य श्रीबृज में हो रही है ।
117. प्रभु की श्रीलीलाओं का कोई प्रमाण हमें कभी नहीं मांगना चाहिए । उनकी सत्यता पर कभी भी तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करना बहुत बड़ा अपराध होता है ।
118. प्रभु की सेवा में स्वयं को समर्पित करके रखना चाहिए ।
119. प्रभु जीवन में न हो तो यह मानव जीवन का सबसे बड़ा अपराध है ।
120. संत और भक्त समाज को जगाकर उन्हें प्रभु की भक्ति में लगाने का कार्य करते हैं ।
121. हमें अपने हृदयरूपी गर्भगृह में प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए ।
122. प्रभु दर्शन के लिए भक्ति की दृष्टि चाहिए । भक्ति की दृष्टि का दान प्रभु कृपा से श्रीसद्गुरुदेव करते हैं ।
123. प्रभु की कथा सुनना श्रवण भक्ति है और नवधा भक्ति में से यह एक प्रकार की भक्ति है ।
124. प्रभु को अपने हृदय में स्थिर रखना चाहिए जो कार्य भक्ति करती है ।
125. प्रभु पर पूरा भरोसा रखना चाहिए कि प्रभु ही हमारा कल्याण करेंगे ।
126. आँखों और कानों से संसार हमारे भीतर आता है और आँखों और कानों से ही प्रभु हमारे भीतर आते हैं । यह हमारे ऊपर है कि हम किन्हें भीतर लाते हैं ।
127. ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिए जिसके कारण दोबारा हमें मानव जीवन मिले ही नहीं ।
128. गौ-माता की तुलना विश्व में किसी से भी नहीं की जा सकती । गौ-माता इतनी महान हैं ।
129. प्रभु श्री कृष्णजी को संत रसावतार कहते हैं क्योंकि प्रभु ने भक्तों को प्रेम रस का दान दिया ।
130. जिस भाव से हम प्रभु को भजते हैं, प्रभु भी उसी भाव से भक्त को भजते हैं ।
131. प्रभु अपने भक्तों पर सदैव कृपा करते रहते हैं ।
132. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करने से प्रभु के लिए हमारे हृदय में प्रेम जागृत होता है ।
133. प्रेम के कारण जब प्रभु हमारे जीवन में प्रकट होते हैं तब जीवन के सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं ।
134. प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम गुप्त रखने का विषय है । यह सिर्फ साधक और प्रभु के मध्य की बात है । इसे संसार के सामने कभी प्रकट नहीं करना चाहिए ।
135. भक्त जितना जनकल्याण के लिए भक्ति का प्रचार करते हैं उतना उनका पात्र भक्ति से बढ़ता ही जाता है ।
136. प्रभु की सबसे बड़ी प्राथमिकता अपने भक्तों का ख्याल रखना, उन्हें प्रेम करना और उनका योगक्षेम उठाना है ।
137. प्रभु की कृपा दृष्टि सदैव अपने भक्त पर बनी रहती है ।
138. भगवती राधा माता ने श्रीकृष्ण रस गोपियों को दिया, गोपियों ने यह श्रीकृष्ण रस गोपों को दिया, गोपों ने यह श्रीकृष्ण रस बृजवासियों को दिया और बृजवासियों ने पूरे विश्व को दिया । इस तरह श्रीकृष्ण रस का मुख्य स्त्रोत भगवती राधा माता हैं ।
139. हमारे भीतर गोपियों की भूमिका होनी चाहिए । अगर गोपीभाव है तो पुरुष भी श्रीरास में प्रवेश कर सकते हैं । श्रीरास में गोपीभाव प्रधान है चाहे शरीर पुरुष का क्यों न हो ।
140. प्रभु को श्री वेदजी ने स्वयंप्रकाश कहा है जो स्वयं भी प्रकाशित हैं और उनके द्वारा अन्य सभी प्रकाशित होते हैं ।
141. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में सत्यम् परम धीमहि कहा गया है । इसलिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण सभी धर्मों और समुदायों का है क्योंकि सत्य सभी धर्मों और समुदायों को मान्य है ।
142. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का मुख्य उद्देश्य है कि सभी जीव प्रभु के प्रेम से युक्त हो जाए ।
143. जो प्रभु चर्चा में अपना दिन व्यतीत करते हैं उन्हें संसार के दोष बांध नहीं सकते ।
144. संसार में लगा मन ही बंधन का कारण है और प्रभु में लगा मन ही मुक्ति का कारण है ।
145. हमारा यह मानव शरीर हमें प्रभु भक्ति करने के लिए मिला है ।
146. भक्ति हमारी सद्गति करवा देती है ।
147. धर्म बदलने से कोई लाभ नहीं है । धर्म से स्वयं को बदलना चाहिए ।
148. अपने अवतार में मानव रूप लेने के कारण प्रभु की प्रभुता कभी कम नहीं होती ।
149. हमारी बुद्धि का उपयोग प्रभु के लिए होना चाहिए ।
150. प्रभु के लिए अपने हृदय में प्रेम जागृत करना चाहिए । यही भगवत् धर्म है ।
151. श्रीमद् भागवतजी महापुराण जीव को भीतर से बदलने की बात करती है ।
152. धर्म का काम बहकाना नहीं है, धर्म का काम महकाना है ।
153. भगवत् धर्म के सिद्धांत पूरे विश्व के लिए मान्य है ।
154. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी पूरी मानवता के लिए है । ये सिर्फ हिंदू धर्म ग्रंथ नहीं है क्योंकि कहीं भी इनमें लिखा हुआ नहीं है कि यह केवल हिंदुओं के लिए है । इसलिए ये पूरे विश्व के कल्याण के लिए है ।
155. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु श्री कृष्णजी की वाणी को समझने के लिए संत अपना पूरा जीवन लगा देते हैं । फिर भी कोई पक्का नहीं कह सकता कि उन्होंने श्रीमद् भगवद् गीताजी को पूरी तरह से समझ लिया है ।
156. हम कोई गलती करते हैं तो हमारी आत्मा जो प्रभु का स्वरूप है हमें कहती है कि क्षमा मांग लो पर हमारा अहंकार कहता है क्षमा नहीं मांगना और हम अपने अहंकार की बात मान लेते हैं ।
157. दुनिया के काम कभी खत्म नहीं होंगे, दुनिया में इच्छाएं कभी पूरी नहीं होंगी, इसलिए भजन करने का समय अभी ही है ।
158. मौन एक बहुत बड़ा व्रत है ।
159. श्रीबृज भूमि साक्षात प्रभु का स्वरूप है ।
160. जो प्रभु से मिलन करा दे उन्हीं का नाम सद्गुरु है ।
161. अपने हृदयरूपी प्रभु को देखने के लिए हमें प्रभु को ही अपना सद्गुरु बनाना चाहिए ।
162. जिनके लिए प्रेम होता है उनके लिए परिश्रम करने में आनंद आता है । इसलिए प्रेम प्रभु के लिए होना चाहिए जिससे प्रभु का कार्य करने में हमें आनंद आए ।
163. मनुष्य के द्वारा किया भजन ही उसके साथ आगे जाता है । पत्नी द्वार तक जाती है, बेटा श्मशान तक जाता है और हमारा शरीर चिता तक जाता है । पर हमारा किया भजन ही हमारे साथ परलोक जाता है ।
164. संसार की वस्तु क्षणभर का सुख देती है फिर वह सुख कम होता जाता है पर प्रभु का सानिध्य हमें सदैव आनंद देता है और उस आनंद में कभी कमी नहीं होती ।
165. प्रत्येक जीव का पालन प्रभु ही करते हैं ।
166. भक्ति वह पवित्र से पवित्र और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ साधन है जो कलियुग में भी हमें प्रभु की प्राप्ति करवा देती है ।
167. सद्गुरुदेव प्रसन्न हो जाए तो उस जीव को वे श्री बैकुंठजी की प्राप्ति करवा देते हैं ।
168. मनुष्य इतना भाग्यशाली है कि उसे श्रीमद् भागवतजी महापुराण सुलभ है जो देवतागणों के लिए भी दुर्लभ है ।
169. मनुष्य जन्म के बाद अगर हम प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँच गए तो हम सफल हो गए पर अगर मनुष्य जन्म के बाद भी हमें दूसरी योनि में जन्म लेना पड़ा तो हम विफल हो गए ।
170. भक्ति प्रभु को सबसे ज्यादा प्यारी है इसलिए मुक्ति को भी भक्ति माता की दासी बनाकर प्रभु ने भेजा है और ज्ञान वैराग्य को भक्ति माता के पुत्र बनाकर प्रभु ने भेजा है ।
171. भक्ति पथ पर चलना है तो प्रभु के भक्तों ने जो किया है वही हमें करना चाहिए ।
172. जब जीवन में संकट आए तो प्रभु का ध्यान लगाकर प्रभु से पूछना चाहिए कि अब मैं क्या करूं । सच्चे मन से ऐसा करने पर हृदय के भीतर बैठे प्रभु हमें भीतर से उत्तर देंगे ।
173. द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, कर्म यज्ञ आदि सभी यज्ञों से भी बड़ा ज्ञान यज्ञ है । प्रभु कथा श्रवण करना सबसे बड़ा यज्ञ माना गया है ।
174. श्री वेदजी कल्पवृक्ष है और श्रीमद् भागवतजी महापुराण उस वृक्ष का पका हुआ फल है । रस चाहिए तो फल ही खाना पड़ेगा, वृक्ष खाने से रस नहीं मिलता ।
175. जब हमारे भाग्य का उदय होता है तब हमें सत्संग मिलता है ।
176. श्री सनतकुमारों की दिनचर्या यह है कि एक भाई नित्य कथा कहते हैं और तीन भाई कथा सुनते हैं । फिर कथा सुनाने वाले भाई नीचे आकर बैठ जाते हैं और एक भाई फिर व्यास आसन पर बैठकर कथा सुनाने लगते हैं । इस तरह नित्य प्रभु कथा चलती रहती है, यही उनकी दिनचर्या है ।
177. जितना हो सके श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सेवन करना चाहिए क्योंकि इससे श्रीहरि हृदय में प्रकट हो जाते हैं ।
178. श्रीमद् भागवतजी महापुराण ज्ञान से भरा हुआ सागर है ।
179. भगवत् प्राप्ति के लिए जो भक्ति रूपी कर्म बताया गया है वही हमारा परम धर्म है ।
180. हम काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार से मैले हुए हैं इसलिए परमपिता प्रभु पहले हमें भक्ति माता के पास भेजते हैं । माता हमें शुद्ध करती है फिर परमपिता प्रभु की गोद में लाकर बैठा देती है ।
181. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु कृपा होती है तो ही सत्संग मिलता है ।
182. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमारा संबंध प्रभु से करवा देती है ।
183. भक्त जब रूठ जाते हैं तो प्रभु उन्हें मनाने के लिए आते हैं ।
184. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करने की इच्छा जागृत होने पर ही प्रभु उस जीव पर प्रसन्न हो जाते हैं । श्रवण करने पर प्रभु उस जीव को गले लगा लेते हैं ।
185. श्रीमद् भागवतजी महापुराण अति मीठा फल है और यह मीठा फल प्रभु श्री शुकदेवजी के श्रीमुँह से निकलने पर अमृत बन गया है ।
186. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमारे जीवन को पवित्र करता है ।
187. प्रभु भक्ति का प्रचार भक्त पूरे विश्व में करते हैं जिससे सबका कल्याण हो सके ।
188. ऋषि और संत लोकमंगल हेतु शास्त्रों में प्रश्न पूछा करते हैं ।
189. जीवन में प्रश्न ऐसे करने चाहिए जिससे प्रभु के बारे में चर्चा हो सके ।
190. जीवन में दुःख आए तो ही प्रभु को याद करना भक्ति नहीं है । हर परिस्थिति में हर समय प्रभु को याद करना ही भक्ति है ।
191. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से अमंगल का नाश होता है ।
192. प्रभु की भक्ति करने वाले को भवरोग कभी सता नहीं सकते ।
193. आदिकाल से ही ऋषि, संत और भक्त प्रभु की भक्ति का प्रचार करते आए हैं ।
194. प्रभु की भक्ति करने वाला प्रभु को कभी उलाहना नहीं देता, किसी भी बात का दोष प्रभु को नहीं देता । वह हर परिस्थिति में प्रभु की दृढ़ भक्ति करता रहता है ।
195. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी जिन्हें मिलते हैं उन्हें प्रभु अवश्य मिलते हैं क्योंकि देवर्षि प्रभु श्री नारदजी भक्ति के सबसे बड़े प्रचारक हैं ।
196. जीवन में लिखना ही है तो प्रभु के विषय में लिखना चाहिए । प्रभु के बारे में लिखकर प्रभु की महिमा का दर्शन सबको कराना चाहिए ।
197. सुलभता से प्रभु प्राप्ति का भक्ति से बड़ा साधन कोई भी नहीं है ।
198. जीव के जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवत् मिलन ही होना चाहिए ।
199. प्रभु का गुणानुवाद ही लिखना और बोलना चाहिए ।
200. कथा पंडाल में एक चींटी के कान में भी अगर कथा के शब्द चले जाएं तो उसका भी कल्याण निश्चित हो जाता है ।
201. जीव को विजय प्रभु ही दिलाते हैं । पांडवों को महाभारत युद्ध में प्रभु ने ही विजय दिलाई थी ।
202. करोड़ों काम छोड़कर भी श्रीहरि का भजन करना चाहिए, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ।
203. मन प्रभु में नहीं अटका तो हमारा जीवन बेकार है । चाहे जीवन में हमने कितना ही धन, सुंदर पत्नी और स्वस्थ शरीर अर्जित कर लिया हो पर वह सब बेकार है ।
204. भगवती कुंतीजी कहती हैं कि आज सुख आया तो प्रभु छोड़कर श्री द्वारकाजी जा रहे हैं इसलिए उन्होंने प्रभु से विपत्ति मांगी जिससे प्रभु सदैव साथ ही रहें । यह सिद्धांत है कि दुःख में प्रभु भक्तों को कभी अकेला नहीं छोड़ते ।
205. धन में बड़ा या आयु में बड़ा सच्चा बड़ा नहीं होता । जो आध्यात्मिक ज्ञान में बड़ा है वही सच्चा बड़ा है ।
206. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का एक-एक अक्षर मंत्र हैं और एक-एक श्लोक का हमें जीवन में आनंद लेना चाहिए ।
207. बिना प्रभु के भजन के हम भवसागर पार नहीं कर सकते, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
208. हम जो भी सत्कर्म करते हैं उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पित करना चाहिए । यही भगवत् धर्म है ।
209. अपने सत्कर्म का बखान दुनिया के सामने कभी नहीं करना चाहिए ।
210. अपनी मति यानी बुद्धि को प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पण करना चाहिए । मति प्रभु को चढ़ाने पर वह भ्रष्ट नहीं होती । जैसे हम लड्डू का भोग प्रभु को लगाते हैं तो वह फिर प्रसाद बन जाता है लड्डू नहीं रहता वैसे ही मति प्रभु को चढ़ाने पर वह शुद्ध हो जाती है और अशुद्ध नहीं रहती ।
211. मति प्रभु को अर्पण करने पर प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी रति हो जाती है ।
212. प्रभु से मांगना चाहिए कि अंतिम श्वास निकलते समय प्रभु हमारे सामने खड़े हों । ऐसे भाग्य की चाह हमें प्रभु से करनी चाहिए ।
213. श्री परीक्षितजी जन्म लेते ही सब तरफ देखकर परीक्षा लेने लगे कि जिन्होंने मेरी गर्भ में रक्षा की वे प्रभु कहाँ हैं । इसलिए उनका नाम परीक्षित पड़ा ।
214. प्रभु पल-पल हमारी रक्षा करते हैं ।
215. अपना जीवन अपने प्राणप्यारे प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित करना चाहिए ।
216. प्रभु से न कोई शिकायत करनी चाहिए, न प्रभु को कोई अर्जी देनी चाहिए । जो प्रभु अपनी मर्जी से करें उसे जीवन में स्वीकार करना चाहिए ।
217. भक्त को जो भी कहना होता है वह अपने प्रभु से ही कहता है ।
218. दुनियादारी का त्याग करने पर कोई हमें भला कहे या बुरा कहे हमें उसकी परवाह न करते हुए केवल प्रभु का बन जाना चाहिए ।
219. बिना प्रभु के श्रीकमलचरणों में रति के जीव भवसागर से तर नहीं सकता ।
220. अगर हमारी प्रभु में रति नहीं है तो हमारे जीवन का मूल्य एक कौड़ी का भी नहीं है ।
221. हमारी भक्ति भगवत् श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति करवाती है ।
222. अगर हमें जीवन में अपनी कामनाओं की पूर्ति करनी है तो भी उसके लिए प्रभु की सकाम भक्ति ही करनी चाहिए ।
223. परम भगवत् भक्तों के लिए भी भक्ति से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है ।
224. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में भगवान और उनके भक्त की कथा है इसलिए इस श्रीग्रंथ का नाम भागवत पड़ा ।
225. भक्त मिलने पर आपस में प्रभु की ही चर्चा किया करते हैं ।
226. वे भक्त भाग्यवान होते हैं जिनको भक्ति के कारण प्रभु याद करते हैं ।
227. संसार में सुख है ही नहीं क्योंकि संसार दुखालय है । थोड़े समय के लिए दुःख कम होने को ही हम सुख मान लेते हैं ।
228. जो प्रभु का भजन नहीं करता उसे जीवन में दुःख भोगना ही पड़ता है ।
229. प्रभु का भजन सिर्फ मानव ही कर सकते हैं । बाकी योनियों में कर्म कर सकते हैं पर भक्ति नहीं कर सकते ।
230. प्रभु कृपा के सिंधु की एक बिंदु भी हमको मिल जाए तो हमारा कल्याण हो जाता है ।
231. प्रकृति का कोई दृश्य हमें सुंदर लगता है तो हमें सोचना चाहिए कि उसकी रचना करने वाले प्रभु कितने सुंदर होंगे ।
232. जब तक भक्ति जीवन में नहीं आएगी तब तक प्रभु हमारे जीवन में नहीं आएंगे ।
233. प्रभु मिलन के बाद भी भक्ति और भजन नहीं छूटना चाहिए ।
234. इंद्रियों की इच्छाओं को पूर्ण नहीं करना चाहिए । उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने का मतलब है आग में घी डालना । उनकी इच्छाओं को जितना पूर्ण करेंगे उतनी ही वे बलवान हो उठेंगी ।
235. सद्ग्रंथों का संग करना भी सत्संग है ।
236. मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगाएं तो वह मुक्ति देता है । अगर उसी मन को संसार के भोगों में लगाएं तो वह बंधन देता है ।
237. जीवन में सेवक बनना चाहिए, मालिक बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए । मालिक प्रभु को ही रहने देना चाहिए तो सभी चीजों की चिंता का वहन मालिक के रूप में प्रभु करेंगे ।
238. सत्संग हमें सब कुछ प्रदान करता है । लौकिक और अलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति सत्संग करता है ।
239. प्रभु नाम का रसायन हमारे पास है । रसायन वह होता है जो रोग को सदैव के लिए जड़ से समाप्त कर देता है ।
240. संसार के विषयों से अपने मन को हमें हटाना चाहिए ।
241. प्रभु के श्रीकमलचरणों का सदैव दर्शन करना चाहिए । प्रभु के श्रीकमलचरणों का सदैव चिंतन और सदैव ध्यान करना चाहिए ।
242. प्रभु जिस पर कृपा करते हैं वह भक्त सदैव संसार के बंधनों से मुक्त रहता है ।
243. प्रभु का नाम लेने वाला प्रभु का प्यारा होता है ।
244. जो प्रभु मिलन में बाधा बने उसका जीवन में तत्काल त्याग कर देना चाहिए ।
245. भक्ति, जो प्रभु का प्रिय व्रत है, वह हमें प्रभु की प्रसन्नता के लिए करनी चाहिए ।
246. प्रभु के किसी भी कार्य पर हमें कभी भी संदेह नहीं करना चाहिए ।
247. सतयुग में तप से प्रभु मिलते थे, त्रेता में यज्ञ से प्रभु मिलते थे, द्वापर में पूजा से प्रभु मिलते थे पर कलियुग में भजन और कीर्तन से प्रभु मिलते हैं ।
248. नर्क वही जाते हैं जिनकी जिह्वा से प्रभु नाम का गुणानुवाद नहीं होता, जिनका चित्त प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्मरण नहीं करता और जिनका शीश प्रभु के श्रीकमलचरणों में नहीं झुकता ।
249. अंतिम श्वास में भगवत् नाम जिह्वा पर आ जाए तो भगवत् प्राप्ति निश्चित है ।
250. मन प्रभु का चिंतन करे, जिह्वा प्रभु का गुणानुवाद करे, ऐसा भाग्य प्रभु के भक्तों का होता है ।
251. प्रभु के मिलन की तड़पन में भी आनंद आता है । भक्त प्रभु मिलन हेतु तड़पते हैं ।
252. जगत हमारे काम की मजदूरी देता है तो फिर प्रभु का कार्य करने पर प्रभु मजदूरी क्यों बाकी रखेंगे । प्रभु तुरंत भरपूर मजदूरी देते हैं ।
253. संत कहते हैं कि सतयुग में छह अक्षर वाला राक्षस था हिरण्यकशिपु, त्रेता में तीन अक्षर वाला राक्षस हुआ रावण, द्वापर में दो अक्षर वाला राक्षस हुआ कंस और कलियुग में एक अक्षर वाला राक्षस है "मैं" यानी अहंकार ।
254. जब राक्षस भक्त श्री प्रह्लादजी को हाथियों से मरवाने के लिए लेकर आए तो वे श्रीहरि स्मरण का नाम जप करने लगे । हाथियों ने भक्त श्री प्रह्लादजी को प्रणाम किया और उनके सामने दंडवत हो गए ।
255. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों का चरणामृत रोजाना ग्रहण करता है उसके पुनरपि जन्म और मरण का चक्र मिट जाता है ।
256. जीव की महाविपत्ति को प्रभु ही दूर करते हैं ।
257. जिन्होंने प्रभु के लीलामृत का अपने कानों से पान नहीं किया उन्हें बहुत बड़ा धिक्कार है, ऐसा शास्त्र कहते हैं ।
258. बचपन से ही भक्ति करना भागवत् धर्म है । भक्ति बचपन का विषय है बुढ़ापे का विषय नहीं है । बचपन से भक्ति करेंगे तो बुढ़ापे तक प्रभु से मिलन हो जाएगा ।
259. न तप से, न दान से, न व्रत से, न अन्य किसी साधन से प्रभु मिलते हैं । प्रभु सिर्फ भक्ति से ही मिलते हैं । इसलिए चाहे जीवन सुखमय हो या दुःखमय हो प्रभु की भक्ति निरंतर जीवन में होती रहनी चाहिए ।
260. पूरे ब्रह्मांड में प्रभु समाए हुए हैं ।
261. संत विनोद में व्याख्या करते हैं कि प्रभु ने जब हिरण्‍यकशिपु को मारने के लिए सिंह का स्वरूप धारण किया तो उन्हें भक्त श्री प्रह्लादजी की याद आई कि वे इस रूप को देखकर डर जाएंगे तो प्रभु ने मनुष्य शरीर धारण किया । फिर उन्हें हिरण्‍यकशिपु की याद आई और उन्होंने सिंह रूप धारण किया फिर भक्त श्री प्रह्लादजी की याद आई तो उन्होंने मनुष्य शरीर धारण किया । ऐसा बार-बार होता रहा और इतने में ही खंभा हिरण्‍यकशिपु की गदा मारने से फट गया और प्रभु आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का लेकर प्रकट हो गए ।
262. प्रभु ने भक्त श्री प्रह्लादजी को अपनी गोद में बैठाया, अपनी जीभ से चाटा और अपने हस्त को प्रभु ने श्री प्रह्लादजी के सिर पर रख दिया । ऐसी कृपा एक साथ प्रभु ने किसी पर नहीं की ।
263. भक्त श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से मांगा कि मेरे हृदय में प्रभु से मांगने की इच्छा ही नहीं रहे, ऐसा वरदान प्रभु उन्हें दें ।
264. जितना प्रेम हम अपने परिवार से करते हैं उतना प्रभु से करते तो प्रभु हमें निश्चित मिल जाते, यह भाव श्री गजेंद्रजी के मन में विपत्ति बेला पर आया जब उनके परिवार ने उनका साथ छोड़ दिया ।
265. प्रभु से कुछ मांगेंगे तो प्रभु कुछ देंगे । प्रभु से आत्मीय संबंध बना लेंगे तो प्रभु सब कुछ दे देंगे ।
266. कभी भी अविश्वास करके प्रभु से अपना संबंध नहीं तोड़ना चाहिए ।
267. जैसे एक तोता एक पोली नली को पकड़ता है और नली को हम उल्टा भी कर देते हैं तो तोता उसे छोड़ता नहीं और वह भी उल्टा हो जाता है । इसी तरह जीव ने संसार को पकड़ा हुआ है और उल्टा हो जाने पर भी वह संसार को छोड़ता नहीं ।
268. जीव प्रभु का आश्रय लेता है तो वह संसार के जंजालों से मुक्त हो जाता है ।
269. प्रभु के जन्म के बाद जब प्रभु मथुराजी से गोकुलजी गए तो जीव जंतु वैर भुलाकर दौड़कर प्रभु के दर्शन करने लगे । चूहा सांप के ऊपर चढ़कर दौड़ा, हिरण शेर के साथ चलकर दौड़ा । सभी ने प्रभु के दर्शन के लिए वैर को भुला दिया ।
270. मन पवित्र सिर्फ श्रीहरि के भजन से ही होता है ।
271. प्रभु कभी सम्मान के भूखे नहीं हैं । प्रभु सम्मान नहीं चाहते पर भक्तों को अपने परमपिता प्रभु का सम्मान निश्चित रूप से सदैव करना चाहिए ।
272. प्रभु जैसा हम हैं वैसा ही हमें स्वीकार करते हैं और हमसे प्रेम करते हैं ।
273. प्रभु की कृपा दृष्टि जिस पर पड़ जाती है उसके सभी पापों का नाश प्रभु कर देते हैं ।
274. जीव जब प्रभु की तरफ बढ़ता है तो संत कहते हैं कि पग-पग पर उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलना शुरू हो जाता है ।
275. प्रभु को अपने भक्तों को पकड़ना ही आता है, छोड़ना नहीं आता ।
276. प्रभु के अलावा इतने दयालु और कौन होंगे कि विष पिलाने आई पूतना को भी माता की गति दे दी ।
277. प्रभु ने बाल रूप में करवट ली और श्री नंदबाबा ने उत्सव मनाया । श्रीबृज में प्रभु की हर क्रिया पर उत्सव मनाया जाता था ।
278. प्रभु श्री कृष्णजी हमेशा हंसते हुए मिलेंगे । बचपन से बड़े होने तक इतना संघर्ष हुआ पर फिर भी प्रभु सदैव हंसते हुए रहे । प्रभु की सबको शिक्षा है कि जीवन में हंसते रहो और दुःख से दुःखी मत हो क्योंकि दुःख जीवन में आते-जाते रहेंगे ।
279. जब आचार्य श्री गर्गाचार्यजी प्रभु श्री कृष्णजी का नामकरण करने लगे तो वर्णमाला के शब्द आपस में लड़ने लगे कि हमारे अक्षर से प्रभु के नाम की शुरुआत होनी चाहिए । इसलिए प्रभु के अनेक नाम पड़े और सभी अक्षरों को सम्मान मिला ।
280. प्रभु सदैव सबका सुख और सबका हित चाहते हैं ।
281. हमें अपना समय प्रभु में ध्यान लगाने के लिए मिला है ।
282. प्रभु से ऐसा वरदान मांगें कि हमारे हाथ सदैव प्रभु की सेवा करते रहें, हमारा मन सदैव प्रभु का स्मरण करता रहे, हमारी दृष्टि सदैव प्रभु का दर्शन करती रहे और हमारी वाणी सदैव प्रभु का गुणानुवाद गाती रहे ।
283. प्रभु सभी जीवों से एक समान प्रेम करते हैं क्योंकि सभी प्रभु की संतानें हैं ।
284. प्रभु का दर्शन ही हमारी आँखों का फल है । भक्त श्री सूरदासजी को प्रभु ने स्वयं दर्शन दिए और आँखें प्रदान कीं । आँखों को पाकर उन्होंने प्रभु को खूब निहारा और प्रभु के रूप का खूब दर्शन किया । फिर उन्होंने प्रभु से कहा कि अब आँखों को वापस ले लेवें क्योंकि अब वे उन आँखों से प्रभु को निहारने के बाद फिर संसार देखना नहीं चाहते ।
285. गौ-माता की रक्षा करने के कारण प्रभु का एक नाम श्रीगोविंद पड़ा ।
286. पानी में डूबे तो मृत्यु निश्चित है पर भक्ति में डूबें तो मुक्ति निश्चित है ।
287. प्रभु को आखिरी उम्मीद नहीं बल्कि पहला भरोसा बनाना चाहिए । हम प्रभु को केवल आखिरी उम्मीद के रूप में देखने की गलती कर बैठते हैं जबकि हमें प्रभु को अपना पहला भरोसा बनाना चाहिए ।
288. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को पुस्तक मानना पाप है, दोष है क्योंकि यह साक्षात प्रभु का स्वरूप है ।
289. प्रभु का जीवात्मा से मिलन ही श्रीरास है ।
290. श्रीरास पंचाध्यायी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्राण हैं ।
291. गोपी कोई स्त्री नहीं है, यह एक भाव है । पुरुष भी गोपीभाव रख सकते हैं और श्रीरास में प्रवेश कर सकते हैं । प्रभु श्री महादेवजी ने गोपीभाव रखकर श्रीरास में प्रवेश किया था ।
292. प्रभु श्री शुकदेवजी ने श्रीरास पंचाध्यायी के एकदम आरंभ में सबसे पहले प्रभु को भगवान कहकर संबोधित किया मानो यह कह रहे हैं कि यह मनुष्य लीला नहीं भगवान की श्रीलीला है ।
293. एक संत ने बहुत सुंदर भाव दिया है कि प्रभु परमपिता हैं और गोपियां बालक हैं । परमपिता ने अपने बालकों की प्रसन्नता के लिए श्रीरास का मन बनाया ।
294. एक संत ने बहुत सुंदर भाव दिया है कि श्रीगोपीजन ने श्रीरास के लिए मन बनाया क्योंकि उन्हें पता है कि अगर वे प्रभु के साथ श्रीरास में चक्कर लगा लेंगी तो वे चौरासी लाख योनियों के चक्कर से बच जाएंगी ।
295. प्रभु इतनी सुंदर बांसुरी बजाते हैं कि श्रीरास से पहले प्रभु की बांसुरी बजने पर सब गोपीजन को लगा कि मानो उनका नाम ही बांसुरी पर बजाया जा रहा है ।
296. प्रभु हमारे रूप को नहीं देखते बल्कि हमारे मन को देखते हैं कि हमारा मन कितना पवित्र है ।
297. प्रभु को हमारी धन-संपत्ति नहीं चाहिए । प्रभु हमारी बुद्धि और मन को चाहते हैं । भक्तों से प्रभु कहते हैं कि मुझे अपना मन और अपनी बुद्धि प्रदान कर दो ।
298. संतों का भाव है कि सभी श्रीगोपीजन प्रभु से श्रीरास में मिलने के लिए अपनी देह अपने घर में छोड़कर गईं । प्रभु की योगमाया ने सभी गोपियों का देह धारण किया और श्रीबृज में सभी गोपियों के घर में रहीं ।
299. किसी भी प्रकार से हमारा मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगना चाहिए ।
300. श्रीरास को कामलीला मानना एक घोर पाप है । श्रीरास कामलीला नहीं है क्योंकि श्रीगोपीजन ने अपना शरीर अपने घर पर छोड़ा जिसे प्रभु की योगमाया ने धारण किया । गोपियों की आत्मा प्रभु के पास श्रीरास में गई और उनका शरीर श्रीबृज में रहा जिसे योगमाया ने धारण किया ।
301. भक्त बनना आसान नहीं क्योंकि जब प्रभु के वियोग में जीव तप जाता है तभी वह भक्त बनता है ।
302. श्रीगोपीजन को जब प्रभु ने श्रीरास से वापस जाने को कहा तो गोपियों ने प्रभु से कहा कि हमारा मन हमें वापस दे दें क्योंकि श्रीगोपीजन का मन तो प्रभु के पास था ।
303. एक संत ने व्याख्या की कि प्रभु ने श्रीगोपीजन को वापस जाने का कहकर विनोद क्यों किया । ऐसा प्रभु ने इसलिए किया क्योंकि तब तक भगवती राधा माता श्रीरास में नहीं आईं थीं । भगवती राधा माता का इंतजार करते हुए समय बिताने के लिए प्रभु ने विनोद किया । भगवती राधा माता के आते ही श्रीरास प्रारंभ हो गया ।
304. श्रीरास में एक प्रभु श्री कृष्णजी और अनेक गोपियां थीं पर जब महारास प्रारंभ हुआ तो अनेक प्रभु श्री कृष्णजी और अनेक गोपियां यानी जितनी गोपियां थीं प्रभु ने उतने ही रूप ले लिए ।
305. श्रीरास के समय वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था । सभी गोपियों को क्षणभर के लिए अभिमान आ गया कि हम कितनी विशेष हैं कि प्रभु हमारे साथ श्रीरास कर रहे हैं और हमारी सेवा कर रहे हैं । अपनी प्रिय गोपियों में अभिमान को देखते ही प्रभु श्रीरास के मध्य से अंतर्ध्‍यान हो गए ।
306. जीव में अभिमान प्रभु को बिलकुल प्रिय नहीं है । इसलिए जीव को अभिमान रहित होकर ही प्रभु के समक्ष जाना चाहिए ।
307. प्रभु ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को कहा कि जहाँ प्रभु के भक्त भाव विभोर होकर प्रभु का भजन और कीर्तन गाते हैं वहाँ प्रभु रहते हैं ।
308. जो प्रभु से अनन्य प्रेम करते हैं वही प्रभु को जान पाते हैं ।
309. प्रभु की कथा हमारे जीवन के लिए अमृत के समान है ।
310. प्रभु की कथा हमारे संसार के तापों का नाश करती हैं ।
311. प्रभु की कथा श्रवण करने पर वह हमें मंगल प्रदान करती है ।
312. श्रीगोपीजन विधाता को उलाहना देती है कि आँखों पर पलकें क्यों बनाईं जिससे नेत्रों को पलकें गिरने पर प्रभु दर्शन करने में क्षण भर के लिए बाधा आती है । वे क्षण भर का भी प्रभु का अदर्शन सहन नहीं कर सकतीं ।
313. भक्त प्रभु के विरह में रोते हैं । प्रभु के विरह में रोना भी आनंदमय होता है और भाग्यवान को ही ऐसा करने का अवसर मिलता है ।
314. प्रभु से सब कुछ सहन होता है पर अपने भक्तों के आंसू सहन नहीं होते ।
315. प्रभु को अपने भक्तों से ज्यादा प्रिय कोई भी नहीं है ।
316. प्रभु ने श्रीगोपीजन को कहा कि वे उनके प्रेम से कभी उऋण नहीं हो सकते ।
317. जो हमें प्रभु से मिला दे वे ही सद्गुरु हैं ।
318. प्रभु जब गौ चारण के लिए जाते तो उनके श्रीकमलचरणों से जो श्रीचरण चिह्न चलते वक्त बन जाते थे गोप, गौ-माता और बछड़े उनको बचाते हुए चलते थे । कोई भी प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचरण चिह्न पर पैर नहीं रखता था । इतना परम आदर का भाव प्रभु के लिए था ।
319. जब सभी बृजवासियों, गोपियों, गायों और बछड़ों को पता चला कि प्रभु तीन दिन के लिए श्री मथुराजी जा रहे हैं तो वे सभी ने विलाप किया और नंदभवन में आकर धरना दे दिया । वे तीन दिन का वियोग भी नहीं सह पाए क्योंकि वे प्रभु से इतना प्रेम जो करते थे ।
320. प्रभु के श्री मथुराजी जाते वक्त जब तक श्री अक्रूरजी के रथ की धूलि उड़ती रही तब तक गोपियां यह उम्मीद लगाई खड़ी रहीं कि क्या पता प्रभु मन बदल कर लौटकर वापस आ जाएं । इतना प्रेम प्रभु से गोपियां करती थीं ।
321. प्रभु श्री रामजी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । प्रभु श्री कृष्णजी लीला पुरुषोत्तम हैं ।
322. श्री मथुराजी में माली ने प्रभु से कहा कि आज के सभी फूल कंस के महल में जा चुके हैं । प्रभु ने कहा कि एक बार बाग में जाकर देख तो लो । वृक्षों को जब पता चला कि प्रभु आए हैं तो उनमें प्रभु के स्वागत के लिए तत्काल नए फूल उग आए । प्रभु के स्वागत के लिए सभी फूलों में होड़ मच गई कि पहले हम जाएंगे ।
323. एक संत ने हिंदू शब्द की बहुत सुंदर वाक्य की है कि हिंसा से जिसके मन में पीड़ा हो वह हिंदू ।
324. धन को शास्त्रों ने वंदनीय कहा है पर उसमें जीव की होने वाली आसक्ति को निंदनीय कहा है ।
325. उत्तम व्यक्ति को चाहिए कि धन का पिता बन कर रहे और अपनी बेटी यानी धन का विवाह प्रभु से करे यानी धर्म कार्यों में ही धन का व्यय करे ।
326. संत कहते हैं कि पाप के बाप का नाम लोभ है । जीवन में लोभ होगा तो पाप अवश्य होंगे ।
327. भक्त बनने के बाद भी काम, क्रोध, मद और लोभ फिर से हम पर धावा बोलेंगे पर फिर इनसे हमारी भक्ति के कारण हमें प्रभु बचाएंगे ।
328. जिनको कोई नहीं स्वीकार करता उन्हें प्रभु सहर्ष स्वीकार करते हैं । प्रभु ने 16100 कन्याओं को भौमासुर के यहाँ से मुक्त कराया और उन 16100 कन्याओं को जगत में कोई स्वीकार नहीं करता इसलिए प्रभु ने उन्हें स्वीकार करके अपनी पत्नी का दर्जा दिया ।
329. प्रभु जो सोचते हैं वही होता है ।
330. जो कोई नहीं कर सकता उसे जो कर दे वही ईश्वर हैं ।
331. जो संभव नहीं है उसे भी संभव करने वाले सिर्फ ईश्वर हैं ।
332. गुरु के आश्रम पर विद्या ग्रहण करते वक्त गुरु माता द्वारा दिए चावल को ऋषि श्री दुर्वासाजी का श्राप था कि उसे खाने वाला दरिद्र हो जाएगा । जब भक्त श्री सुदामाजी ने यह सुना कि यह चावल खाने वाला दरिद्र हो जाएगा तो मित्रता निभाते हुए उन्होंने स्वयं के चावल के साथ प्रभु श्री कृष्णजी के हिस्से के भी चावल खा लिए और स्वयं के हिस्से के भी चावल खा लिए जिससे वे दरिद्र हुए और प्रभु को श्रापयुक्त चावल नहीं खाने पड़े । भक्त श्री सुदामाजी प्रभु से इतना प्रेम करते थे ।
333. मांगने की भावना से प्रभु के पास नहीं जाना चाहिए, सिर्फ दर्शन की भावना से जाना चाहिए ।
334. प्रभु से मांगने जाने वाले को प्रभु कुछ देते हैं पर कुछ नहीं मांगने वाले को प्रभु सब कुछ दे देते हैं ।
335. भगवती राधा माता के हृदय में प्रभु श्री कृष्णजी का निवास है और प्रभु श्री कृष्णजी के हृदय में भगवती राधा माता का निवास है ।
336. सभी को जीवन में गोपी भाव धारण करना चाहिए ।
337. जो अपनी प्रत्येक इंद्रिय से श्रीकृष्ण रस का पान करे वही गोपी है ।
338. रूप और संपत्ति अगर विवेकहीन पुरुष के पास होगी तो वह उसके पतन का कारण बन जाती है ।
339. भक्ति पथ का निरूपण ही श्रीमद् भागवतजी महापुराण का मुख्य विषय है ।
340. प्रभु ने अपनी प्राप्ति के लिए जो भी बताया है वही भागवत् धर्म है ।
341. भक्ति मार्ग में जो आँखें बंद करके भी दौड़ता है वह भी नहीं गिरता क्योंकि उसे संभालने के लिए प्रभु सदैव उसके साथ उपस्थित रहते हैं ।
342. अपनी इंद्रियों से हम जो भी कर्म करते हैं उसे प्रभु को अर्पण करना ही भागवत् धर्म है ।
343. भक्ति और भगवान दो अलग-अलग नहीं, एक ही है ।
344. हम अपनी काया, अपनी बुद्धि, अपनी इंद्रियों और अपने स्वभाव से जो भी सत्कर्म करें उसे प्रभु को समर्पित करते हुए करें ।
345. मन से भी प्रभु श्री गोवर्धनजी की परिक्रमा लगाने पर भी और उसे प्रभु को समर्पित करने पर उसका पूरा फल मिलता है ।
346. सबके अंदर प्रभु का दर्शन करना भागवत् धर्म है ।
347. भक्ति पथ पर चलने वाले को महाभागवत कहा गया है ।
348. प्रभु से प्रेम करने के तीन नियम हैं, प्रभु का विश्वास, प्रभु से संबंध और प्रभु को समर्पण ।
349. पहले प्रभु में विश्वास जगता है फिर प्रभु से एक संबंध बनता है फिर जीव प्रभु को समर्पित हो जाता है ।
350. प्रभु से सब कुछ सहन होता है पर भक्त के आंसू कभी सहन नहीं होते ।
351. प्रभु कितना भी प्रयास कर लें पर अपने भक्तों से कभी छुप नहीं सकते ।
352. परमार्थ कर्म हमें प्रभु तक पहुँचाता है ।
353. सद्गुरु वही जो हमारी प्रभु जिज्ञासा को दूर करे ।
354. प्रभु से मिलन का उपाय बताने वाला ही सच्चा सद्गुरु होता है ।
355. जब प्रभु से मिलने की व्याकुलता होगी तभी प्रभु मिलेंगे । एक बार स्वामी विवेकानंदजी ने श्री रामकृष्ण परमहंसजी को प्रभु से मिलने की इच्छा जताई । श्री रामकृष्ण परमहंसजी के कहने पर स्वामीजी ने भगवती गंगा माता में डुबकी लगाई और श्री रामकृष्ण परमहंसजी ने स्वामीजी के सिर को जल में दबाकर रखा । स्वामीजी की सांस फूल गई और वे एक मिनट में ही पानी से बाहर निकलने के लिए व्याकुल हो उठे । तब श्री रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा कि ऐसी व्याकुलता प्रभु के लिए हृदय में होगी तो ही प्रभु मिलेंगे ।
356. बड़े भाग्य के कारण मनुष्य तन हमें मिला है । अन्य योनि के जीव मनुष्य को देखकर सोचते हैं कि कब हमें मनुष्य योनि मिलेगी ।
357. सद्गुरुदेव का आश्रय लेकर प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए ।
358. सद्गुरुदेव का कार्य खुद की पूजा करवाना नहीं है । सच्चे सद्गुरुदेव खुद को सदैव पीछे रखकर प्रभु को आगे करते हैं ।
359. कैसे भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में मन लगना चाहिए । कैसे भी लगे पर लगना ही चाहिए ।
360. हमारा शरीर एक पिंड है जिसका पिंडदान जीते जी प्रभु को कर देना चाहिए ।
361. प्रभु से प्रेम करना भक्ति का सबसे बड़ा आयाम है ।
362. जो हमारे मन को भजन से हटाए उसे जीवन से त्यागना चाहिए ।
363. बुढ़ापे से पहले ही भक्ति में लग जाना चाहिए । बचपन से ही भक्ति करना सर्वश्रेष्ठ है ।
364. भक्ति करने पर शरीर जब छूटता है तो हमारी आत्मा परमात्मा से मिल जाती है ।
365. जिस दिन मरने का डर दूर हो जाए उस दिन हमारा जीवन सार्थक हुआ, ऐसा मानना चाहिए ।
366. शरीर मेरा है पर मैं शरीर नहीं हूँ । मैं आत्मा हूँ । आत्मा का नाश कभी नहीं होता ।
367. एक संत ने एक बहुत सुंदर भाव श्रीमद् भागवतजी महापुराण के लिए रखा । वे कहते हैं कि सात दिन श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा सुनने से, सोमवार को सुनी कथा से इस जन्म और सभी पूर्व जन्मों के सोमवार के पाप नष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार मंगलवार की कथा सुनने से हर जन्म के मंगलवार में हुए संचित पाप नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार सात दिवस की कथा सुनने से सातों दिन के इस जन्म और पूर्व जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
368. सत्य थक सकता है पर कभी भी पराजित नहीं हो सकता ।
369. हमें सर्वदा ईश्वरीय सत्ता के ही अधीन रहना चाहिए ।
370. हमें सुबह प्रभु के नाम उच्चारण के साथ ही जगना चाहिए ।
371. धर्मग्रंथों का नित्य स्वाध्याय करने वाला कभी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता ।
372. जो भगवान का हो गया वह फिर अन्य किसी का संसार में हो ही नहीं सकता ।
373. भक्तों को कितनी भी प्रभु की कथा सुनने को मिले वे प्रभु का आभार मानकर प्रेम से सुनते हैं ।
374. जो प्रभु को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं प्रभु उनके हृदय में निवास करते हैं ।
375. हम जो भी वस्त्र लाते हैं उसे प्रभु को निवेदन करके फिर इस्तेमाल करना चाहिए ।
376. जो मंदिर को देखते ही अपना सिर झुका देते हैं वे प्रभु को प्रिय होते हैं ।
377. जो अपने इष्ट की रोज पूजा करते हैं और अपनी इष्ट पर पूर्ण भरोसा रखते हैं प्रभु उनके हृदय में वास करते हैं ।
378. जिनके चरण मंदिर और तीर्थों में चलकर जाते हैं वे प्रभु की कृपा दृष्टि में आ जाते हैं ।
379. प्रभु एक रूप से आगे और एक रूप से पीछे कवच बनकर अपने भक्तों के साथ चलते हैं ।
380. प्रभु से प्रभु को ही मांगना चाहिए । प्रभु से कंकड़ पत्थर यानी धन, पुत्र, पौत्र नहीं मांगना चाहिए ।
381. जो प्रभु के मंत्र का जप करते हैं प्रभु उनके अनुकूल रहते हैं ।
382. जो अपने घर के मंदिर में प्रभु की सेवा करते हैं और घर के मंदिर में प्रभु को प्रणाम करते हैं प्रभु उनसे प्रसन्न रहते हैं ।
383. सभी सत्कर्म करने के बाद प्रभु से यही मांग होनी चाहिए कि उस सत्कर्म के फलस्वरूप प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति बढ़ती जाए ।
384. जो प्रभु का नाम लेकर सोते हैं और उठते ही प्रभु का नाम लेते हैं प्रभु को वे प्रिय होते हैं ।
385. श्री चित्रकूटजी में जब प्रभु श्री रामजी से मिलने श्री भरतलालजी आए तो वे प्रभु के श्रीकमलचरणों से लिपट गए और रक्षा करो, रक्षा करो कहने लगे । वे उस कलंक और पाप से रक्षा करने के लिए कहने लगे जो उनकी माता ने प्रभु को वन भेजकर किया था ।
386. प्रभु जीव के हृदय में बैठे हैं यह तब मानना चाहिए जब प्रभु कथा सुनकर हमारी आँखें छलक जाए । प्रभु कथा सुनते-सुनते आंसू निकल पड़े तो मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा हमारे जीवन में है ।
387. नित्य प्रभु कथा सुनना नवधा भक्ति में एक भक्ति है ।
388. प्रभु का गुणानुवाद करना भी नवधा भक्ति में एक भक्ति है ।
389. जीवन में प्रभु पर ही पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ।
390. जैसे एक अंकुश हाथी को वश में कर देता है वैसे ही एक मंत्र प्रभु को हमारे अनुकूल कर देता है ।
391. जो भगवान को भोग नहीं लगी वैसी वस्तु को जीवन में कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
392. इष्ट एक होना चाहिए पर भक्ति हम सबकी कर सकते हैं, यह नवधा भक्ति की एक भक्ति है । जन्माष्टमी में प्रभु श्री कृष्णजी, महाशिवरात्रि में प्रभु श्री शिवजी, रामनवमी में प्रभु श्री रामजी की पूजा करना मतलब प्रभु के सभी रूपों की भक्ति करना ।
393. सर्वत्र कण-कण में प्रभु का दर्शन करना नवधा भक्ति में एक भक्ति है ।
394. जो मिला है उसमें संतोष रखना और दूसरों के गुण देखना और अपने दोष देखना यह नवधा भक्ति में एक भक्ति है ।
395. सभी प्रकार से प्रभु पर भरोसा रखना यह नवधा भक्ति में एक भक्ति है ।
396. जीव का अंक "शून्य" हैं और परमात्मा का अंक "एक" हैं । जब एक आगे लग जाता है तो वह शून्य को भी दस गुना कर देता है । इसलिए प्रभु से जुड़ना चाहिए क्योंकि शून्यरूपी हम एक परमात्मा के साथ जुड़ते ही दस गुना बन जाते हैं ।
397. अधर्म के रास्ते पर जाने पर रावण को उसके सगे भाई विभीषण ने छोड़ दिया और धर्म के रास्ते पर होने पर प्रभु श्री रामजी के साथ भालू और वानर भी आ गए ।
398. जिसको प्रभु एक बार अपना मान लेते हैं उसे प्रभु सदैव अपनाए रखते हैं ।
399. भजन के समय हमें भोगों में नहीं उलझना चाहिए ।
400. गृहस्थ में आना बहुत आसान है पर गृहस्थाश्रम से निकलना बहुत कठिन है ।
401. प्रभु जिन पर कृपा करते हैं भगवती सरस्वती माता उनके हृदय में बैठकर उन्हें प्रभु कथा का रसास्वादन करवाती हैं ।
402. प्रभु का कीर्तिवर्धन और यश विस्तार करना भक्ति का अंग है ।
403. प्रभु कथा श्रवण करने से जन्मों-जन्मों की व्यथा मिट जाती है ।
404. प्रभु कथा सदैव सुख देने वाली है । जिसे जीवन में सुख चाहिए उसे प्रभु कथा जीवन में अवश्य श्रवण करनी चाहिए ।
405. प्रभु के सभी नामों में श्रीराम नाम श्रेष्ठ हों, ऐसा वरदान देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु से मांगा और प्रभु ने तथास्तु कहा । इसलिए प्रभु के सभी नामों में श्रीराम नाम श्रेष्‍ठतम है, ऐसा संतों का मत है ।
406. भक्ति में छल, कपट और छिपाव नहीं होना चाहिए ।
407. प्रभु श्री रामजी एकवचनी हैं यानी जो कह दिया उसका पालन करते हैं ।
408. कितना भी बड़ा अपराधी या दुराचारी हो पर जो अनन्य भाव से प्रभु शरण में आ जाता है प्रभु उसे स्वीकार कर अभय कर देते हैं । यह प्रभु का स्वभाव है ।
409. परमार्थ ही हमारा निज धन है क्योंकि यही धन मृत्यु बाद हमारे साथ जाएगा ।
410. भजन के समय जगत के सब कामों को भुलाकर प्रभु का भजन करना चाहिए ।
411. जगत में रहकर भी हमारा भगवान का भजन और भगवत् प्रेम बढ़ते ही रहना चाहिए ।
412. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों का अनुरागी बनना चाहिए ।
413. हमें संसार में आसक्त होकर श्रीहरि के विमुख नहीं होना चाहिए ।
414. हमें सर्वत्र भगवत् चर्चा ही करनी चाहिए ।
415. वह जीव निंदनीय है जिसे प्रभु का भजन नहीं अपितु संसार के भोग प्रिय हों ।
416. हमारा हित तो प्रभु की सेवा करने में ही है ।
417. प्रभु का जप, सेवा और पूजा की पर प्रभु में विश्वास नहीं है तो सब व्यर्थ है । प्रभु में दृढ़ विश्वास होना अनिवार्य है ।
418. जैसे-जैसे जीवन में भजन बढ़ेगा वैसे-वैसे आसपास के लोग हमारा विरोध करेंगे ।
419. प्रभु की श्रीलीला का नित्य श्रवण और गान करने से प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीति बढ़ती है ।
420. प्रभु की कथा का चिंतन करना बहुत जरूरी और बहुत बड़ा साधन है ।
421. प्रभु कथा श्रवण करने पर ही हमें जीवन में विश्राम मिलेगा ।
422. जीवन में विश्राम धन से नहीं मिलता वह तो प्रभु सानिध्य से ही मिलता है ।
423. रावण भी अपने स्तोत्र में स्वीकार करता है कि सुकून और विश्राम तो प्रभु श्री महादेवजी के भजन में ही है ।
424. प्रभु भजन बिना विश्राम नहीं, प्रभु नाम बिना आराम नहीं ।
425. मन को विश्राम केवल और केवल श्रीहरि स्मरण से ही मिलता है ।
426. कालों के काल और महाकाल प्रभु श्री महादेवजी भी श्रीराम नाम जपते रहते हैं । श्रीराम नाम इतना दिव्य है ।
427. हमें अपने मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगाना चाहिए ।
428. श्रीराम कथा के प्रथम रचयिता प्रभु श्री महादेवजी हैं ।
429. प्रभु श्री महादेवजी विश्वंभर हैं यानी पूरे विश्व के मालिक हैं ।
430. प्रभु कथा में हमें तन और मन दोनों को लेकर बैठना चाहिए । कथा सुनते वक्त मन को कहीं अन्यत्र भागने नहीं देना चाहिए ।
431. श्रीराम कथा अमूल्य है । इसका मोल कोई भी और कभी भी चुका नहीं सकता ।
432. प्रभु अपने शरणागत भक्तों को अपने गले से लगाते हैं ।
433. प्रभु के श्रीकमलचरणों में अति अनुराग होना चाहिए । प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग होगा तभी हमें प्रभु की प्राप्ति होगी ।
434. संसार के मोह को त्यागकर हमें अपने मन को प्रभु में लगाना चाहिए ।
435. आँखों का काम है देखना तो उन्हें दुनिया नहीं दिखा कर प्रभु की छवि दिखानी चाहिए । कानों का काम है सुनना तो उन्हें दुनिया की बातें नहीं सुना कर प्रभु कथा सुनानी चाहिए । वाणी का काम है बोलना तो उनसे व्यर्थ संसार की बातें नहीं बोलकर प्रभु का गुणगान करवाना चाहिए ।
436. मन कहीं-न-कहीं तो लगेगा इसलिए उसे संसार में ना लगाकर प्रभु में लगाना श्रेष्ठ है ।
437. प्रभु कथा सुनने से प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति होती है ।
438. सभी साधन प्रभु को पाने के लिए ही करना चाहिए ।
439. जो भी प्रभु के प्रिय रहे हैं उनकी एक ही मांग प्रभु से रही है कि उन्हें प्रभु की भक्ति मिले ।
440. जीवन में प्रभु से प्रीति निरंतर बनी रहनी चाहिए और बढ़ती रहनी चाहिए ।
441. प्रभु कथा में प्रभु के लिए व्यक्त भाव सुनने में हमें अति आनंद होना चाहिए ।
442. प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम, अनुराग और प्रीति निरंतर बनी रहनी चाहिए । सबसे जरूरी बात यह है कि निरंतर बनी रहनी चाहिए ।
443. भक्ति हमारी पहचान बन जानी चाहिए ।
444. प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीति प्रभु कृपा के कारण ही होती है ।
445. भगवती सीता माता ने अशोक वाटिका में प्रभु श्री हनुमानजी को कई आशीर्वाद दिए पर प्रभु श्री हनुमानजी प्रसन्न नहीं हुए । फिर भगवती सीता माता ने कहा कि प्रभु श्री रामजी उनसे प्रीति करेंगे तब प्रभु श्री हनुमानजी प्रेम मग्न हो गए और अति प्रसन्न हुए ।
446. प्रभु प्रीति और प्रभु भक्ति सबसे दुर्लभ है जो हमें जीवन में अर्जित करनी चाहिए ।
447. हमारा मन पूरा का पूरा परमात्मा में लग जाना चाहिए ।
448. सभी संत जीव को परमार्थ की राह ही दिखाते हैं ।
449. प्रभु कथा में इतना रस आना चाहिए कि कथा की इच्छा नित्य बनी रहनी चाहिए ।
450. प्रभु के देने में कभी कोई कमी नहीं होती है ।
451. प्रभु से सिर्फ लेना ही मत सीखें, प्रभु को भक्ति और सेवा अर्पण करना भी सीखें ।
452. प्रभु को हम जो भी देते हैं उसे कई गुना करके प्रभु वापस लौटा देते हैं । प्रभु कोई ऋण अपने ऊपर नहीं रखते ।
453. हमें अनमोल मानव जन्म मिला है इसे व्यर्थ में बर्बाद नहीं करना चाहिए ।
454. जीवन में जब गड़बड़ हो जाए तो प्रभु को ज्यादा याद करना चाहिए ।
455. संत कहते हैं कि कोई तन से दुःखी, कोई मन से दुःखी तो कोई धन से दुःखी पर सुखी सिर्फ श्रीहरि के दास होते हैं ।
456. जीवन में तकलीफ आए तो इसे प्रभु कृपा माननी चाहिए । यह मानना चाहिए कि प्रभु ने हमें अपनी तरफ बुलाने के लिए ऐसा किया है ।
457. शांति सिर्फ प्रभु शरण में आने पर ही मिलती है । अन्य किसी भी उपाय से शांति नहीं मिल सकती ।
458. सुख सिर्फ प्रभु नाम जपने में ही है ।
459. संसार में किसी को भी सच्चा सुख और परम शांति है तो वह प्रभु की भक्ति के कारण ही है ।
460. प्रभु दीनों के दुःख को हरने वाले हैं ।
461. प्रभु से कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए, केवल प्रार्थना करनी चाहिए । हम लोग प्रार्थना कम करते हैं और शिकायत ज्यादा करते हैं ।
462. प्रभु से कुछ नहीं मांगना चाहिए । अगर मांगना ही है तो सिर्फ इतना मांगना चाहिए कि जो प्रभु की इच्छा हो वह दे दें पर यह जरूर दें कि हमारा प्रभु के श्रीकमलचरणों में निरंतर प्रेम बढ़ता रहे ।
463. जीवन में अपना दुःख किसी को कहेंगे तो वह दिखावे के लिए हमें सांत्वना देगा, इससे ज्यादा वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि दुःख हरने का काम केवल प्रभु ही कर सकते हैं ।
464. प्रभु की कथा सुनने से प्रभु के स्वभाव और प्रभाव पर हमारा विश्वास बढ़ेगा ।
465. प्रभु श्रीचरित्र का गुणगान करना ही कथा है । इससे प्रभु में हमारी प्रीति दृढ़ होती है ।
466. धन, पद, प्रतिष्ठा पाकर ऐसा कोई नहीं हुआ जिसको अहंकार न आया हो । अहंकार हमें तत्काल प्रभु से दूर कर देता है । इसलिए प्रभु से धन, पद, प्रतिष्ठा की मांग नहीं करनी चाहिए ।
467. दुनिया साथ छोड़ दें तो कोई बात नहीं पर प्रभु की कृपा जीवन से कभी नहीं हटनी चाहिए ।
468. दुनिया रूठ जाए तो रूठने दें पर प्रभु की भक्ति कभी नहीं छोड़ें क्योंकि हमें काम सिर्फ प्रभु से ही होना चाहिए ।
469. भजन का सही समय युवापन है क्योंकि बुढ़ापा हमें भजन करने लायक रहने नहीं देता । युवापन में अगर हम भजन करेंगे तो बुढ़ापे में भी हम भजन करने लायक बने रहेंगे ।
470. प्रभु हमें अपनी ओर खींच लेते हैं यह प्रभु की कितनी बड़ी अनुकंपा है ।
471. जब प्रभु श्री महादेवजी प्रभु श्री कृष्णजी एवं प्रभु श्री रामजी के बालपन में दर्शन करने गए थे तो वे प्रभु को रिझाने के लिए सज संवर के गए । सूत्र यह है कि अगर सजना संवरना भी हो तो वह भी प्रभु के लिए होना चाहिए ।
472. दुनिया को खुश नहीं करें, इसका प्रयत्न भी नहीं करें । खुश करना है तो प्रभु को करें और प्रभु को ही रिझाएं ।
473. प्रभु सद्गुणों की खान हैं । ऐसा कोई सद्गुण नहीं जो प्रभु में नहीं हो ।
474. हमारा मन प्रभु में स्थित होना चाहिए ।
475. हमारा मन प्रभु भक्ति से युक्त होना चाहिए ।
476. प्रभु आनंद के सागर हैं । प्रभु के करीब आते ही हमारा मन आनंदित हो जाता है ।
477. प्रभु को अहंकार एकदम प्रिय नहीं है । इसलिए प्रभु को पाने के लिए पूर्ण अहंकार रहित होना पड़ेगा ।
478. संसार का स्मरण नहीं करना चाहिए, संसार को बनाने वाले का स्मरण करना चाहिए ।
479. घर से दस दिन दूर रहने पर हमें घर की याद आती है और हम रोते हैं । क्या हमें प्रभु की याद में रोना आता है जिनसे बिछड़े कितने जन्म निकल गए ।
480. प्रभु का भजन जवानी से ही होना चाहिए तभी वह बुढ़ापे में हो पाएगा ।
481. काल हमें प्रभु का भजन करने का भी अवसर नहीं देगा । हम जिस अवस्था में होंगे काल हमें उसी अवस्था से ले जाएगा ।
482. संसार में हमारा हित करने वाला कोई हितैषी नहीं । सिर्फ प्रभु ही हमारे एकमात्र हितैषी हैं ।
483. जब संसार के भोगों में हम लिप्त हो जाते हैं तो प्रभु से हम दूर हो जाते हैं ।
484. प्रभु नामरूपी धन ही इकट्ठा करें जिसे मौत भी छीन नहीं पाए ।
485. प्रभु से कुछ मत मांगें, प्रभु से पूरे के पूरे प्रभु को ही मांग लें ।
486. एक प्रभु नहीं मिले और बाकी सब कुछ जीवन में मिल गया तो भी वह जीवन बेकार है ।
487. एक संत का भाव है कि जैसे प्रभु श्री रामजी स्वयंवर में भाग लेने के लिए श्री जनकपुरजी की तरफ चले तो श्री जनकपुरजी चलकर निकट आ गए । प्रभु को पहुँचने के लिए चलना न पड़े और प्रभु को कष्ट न हो इसलिए श्री जनकपुरजी नगर चेतनमय हो उठे और चलकर प्रभु की राह के निकट आ गए ।
488. सब कुछ छोड़ने के बाद ही प्रभु मिलते हैं ।
489. अपना अस्तित्व भूलने पर ही प्रभु मिलन संभव होता है ।
490. प्रभु के लिए कुछ त्याग करने के बाद उस त्याग को कभी याद नहीं रखना चाहिए ।
491. त्याग का अहंकार हमारे अंदर कभी नहीं आने देना चाहिए ।
492. जीवन में भजन करें तो ऐसा करें कि किसी को पता भी नहीं चले ।
493. प्रभु प्रेम के वश में ही रहते हैं ।
494. प्रभु से महाराज श्री दशरथजी इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने ऋषि श्री विश्वामित्रजी से कहा कि मेरे प्राण ले लें पर मुझसे प्रभु को देते नहीं बनता ।
495. एक संत का भाव है कि प्रभु को ऋषि श्री विश्वामित्रजी इसलिए लेकर आए कि राक्षसों का उद्धार हो जाए और हमेशा के लिए भी वे मुक्त हो जाएं । उन्हें दोबारा असुर योनि में जन्म नहीं लेना पड़े और हरदम के लिए उन्हें असुर योनि से मुक्ति मिल जाए ।
496. प्रभु से प्रेम हो तो हमें प्रभु को खोजने कहीं नहीं जाना पड़ता । प्रभु स्वयं भक्तों को खोजते हुए भक्तों से मिलने आ पहुँचते हैं ।
497. प्रभु की माया से बचना है तो प्रभु के श्रीकमलचरणों के पास पहुँच जाना चाहिए क्योंकि प्रभु का मायाजाल वहाँ प्रभाव नहीं करता । जैसे जो मछली मछुआरे के पैर के पास होती है वह मछुआरे के जाल से बच जाती है पर जो मछुआरे से दूर होती है वही मछली जाल में फंसती है ।
498. हमारा इतना भाग्य कहाँ कि हम प्रभु की सेवा कर पाएं । प्रभु हम पर अनुग्रह करते हैं तभी हम प्रभु की किंचित सेवा कर पाते हैं ।
499. प्रभु श्री रामजी अपनी जन्मभूमि श्री अयोध्याजी को श्री चित्रकूटजी में भी याद करके रोने लग जाते थे । अपनी जन्मभूमि से हमें भी इतना प्रेम होना चाहिए ।
500. भक्त श्री सूरदासजी का भाव है कि प्रभु श्री कृष्णजी के श्री वृंदावनजी से जाने के बाद जैसे बृजवासियों की आँखों में वर्षा ऋतु आ गई । वैसे ही प्रभु श्री रामजी के वनवास जाने के बाद अवधवासियों की आँखों में वर्षा ऋतु ने मानो प्रवेश कर लिया ।
501. जब प्रभु श्री रामजी का वनवास हुआ और महाराज श्री दशरथजी का निधन हुआ तो ऋषि श्री वशिष्ठजी ने दूतों को श्री भरतलालजी को ननिहाल से बुलाने के लिए कैकई देश भेजा । ऋषि श्री वशिष्ठजी ने दूतों से कहा कि श्री भरतलालजी को कुछ भी बताए नहीं क्योंकि श्री भरतलालजी प्रभु से इतना प्रेम करते हैं कि श्रीराम विरह की आंधी में भरतरूपी दीप कहीं बुझ न जाए ।
502. जिसको प्रभु के दर्शन की लालसा जीवन में निरंतर होती रहती है वही सच्चा मानव कहलाने योग्य है ।
503. जो जीव को प्रभु से जोड़ दे वही संत है । कहीं से भी, कैसे भी, किसी को भी प्रभु से जोड़ना सच्चे संत का कार्य है ।
504. सच्चा भक्त प्रभु से कुछ भी नहीं मांगता । यह सच्चे भक्त की निशानी होती है ।
505. हमें प्रभु की निरंतर याद आती रहनी चाहिए ।
506. प्रभु कथा का जीवन में नित्य श्रवण होते रहना चाहिए ।
507. हम भोजन जीवन भर करते हैं तो भजन भी जीवन भर करते रहना चाहिए ।
508. रोज प्रभु का नाम पुकारने से एक-न-एक दिन प्रभु अवश्य हमारी पुकार सुनेंगे ।
509. प्रभु अनंत हैं और प्रभु की कथाएं भी अनंत है । हम अपनी मति अनुसार कुछ का ही श्रवण कर पाते हैं ।
510. जिसके जीवन में भोग की प्रधानता है उसका पतन निश्चित है ।
511. जिसको प्रभु से प्रीति होती है उसको संसार के विषयों से मोह नहीं होता ।
512. प्रभु अपने लिए हुए अपराध को माफ कर देते हैं पर अपने भक्तों पर हुए अपराध को सहन नहीं करते । इसलिए प्रभु के भक्तों का अपराध जीवन में कभी नहीं करना चाहिए ।
513. अगर हम अपना कल्याण चाहते हैं तो निरंतर जीवन में प्रभु को प्रणाम करते रहना चाहिए ।
514. प्रभु हमारे भीतर विद्यमान हैं पर जब तक हम अपने मन का मंथन नहीं करेंगे तब तक प्रभु प्रकट नहीं होंगे । जैसे घी दूध में है पर जब तक दही बनाकर उसका मंथन नहीं होता है तब तक घी प्रकट नहीं होता ।
515. किसी भी तरह से अपने मन को प्रभु में लगाना चाहिए ।
516. मन के बिगड़ जाने से सब कुछ बिगड़ जाता है और मन के सुधर जाने से सब कुछ सुधर जाता है ।
517. मन को पवित्र करना चाहते हैं तो श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करना एक श्रेष्ठ उपाय है ।
518. जब जन्म-जन्मांतर के इकट्ठा किए हुए पुण्य भाग्य बनकर उदय होते हैं तो प्रभु कथा सुनने की इच्छा जागृत होती है ।
519. प्रभु श्री शुकदेवजी ने देवताओं को कहा स्वर्ग का अमृत कांच है और श्रीमद् भागवतजी महापुराण मणि है । कांच से मणि की क्या तुलना हो सकती है ।
520. प्रभु की शरण में जाने की देरी है, फिर प्रभु की कृपा मिलने में कोई देरी नहीं होती ।
521. प्रभु कलियुग में भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होते हैं ।
522. वेद वेदांत से भी बढ़कर श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । जैसे गन्ने से भी महंगी चीनी होती है जबकि चीनी गन्ने से बनती है । वैसे ही वेद वेदांत का सिद्धांत श्रीमद् भागवतजी महापुराण में है फिर भी श्रीमद् भागवतजी महापुराण वेद वेदांत से श्रेष्ठ है ।
523. जिसने अपना मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगा दिया वह फिर जीवन में कभी दुःखी नहीं हो सकता ।
524. पूरी पृथ्वी माता को कागज, सारे वृक्षों को कलम और समुद्रदेवजी के पूरे जल को स्याही बना दिया जाए और भगवती सरस्वती माता एवं प्रभु श्री गणेशजी लिखने बैठे तो भी प्रभु चरित्र पूरा नहीं लिख सकते ।
525. प्रभु से बढ़कर दयालु और कृपालु ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है ।
526. संत कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्णजी पूतना के स्तनों का पान नहीं कर रहे थे अपितु पूतना के जन्म-जन्मांतर के पापों का पान कर रहे थे और ऐसा करके उन्होंने पूतना को पापमुक्त करके अपना श्रीबैकुंठ धाम दे दिया ।
527. प्रभु की आदत है कि एक बार जिसको पकड़ लेते हैं फिर उसे छोड़ते नहीं ।
528. पाप नष्ट होने के कारण पूतना के शरीर को जलाने पर उससे सुगंध आई क्योंकि प्रभु ने पूतना के सभी पापों को नष्ट कर दिया था । प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं ।
529. प्रभु की कथा श्रवण से हमारी तृप्ति कभी नहीं होनी चाहिए ।
530. प्रभु के भक्त धन्यत्तम होते हैं । उनके भाग्य की सराहना कोई नहीं कर सकता ।
531. प्रभु की पूजा होते ही समस्त संसार की पूजा हो गई । प्रभु को भोग लग गया तो संसार तृप्त हो जाता है । इसलिए अनन्यता से प्रभु का ही भजन करना चाहिए ।
532. प्रभु से बढ़कर भक्तवत्सल और कोई नहीं है ।
533. प्रभु के अनेकों नाम हैं । भक्तों को जो नाम अच्छा लगता है उस नाम से भक्त प्रभु को पुकारने लगते हैं और प्रभु उस नाम को स्वीकार कर लेते हैं ।
534. प्रभु का कोई भी नाम हम अपने मुँह से ले लें तो उससे हमारा निश्चित कल्याण ही होगा ।
535. प्रभु श्री कृष्णजी जब बालरूप में भगवती पृथ्वी माता पर पहली बार चले तो भगवती पृथ्वी माता आनंदित हो उठीं । भगवती पृथ्वी माता समझ गईं कि अब असुरों का भार उतारने प्रभु आ गए और माता आनंद से झूम उठीं ।
536. भगवती यशोदा माता के पास सैकड़ों दासियाँ थीं पर माता उन्हें अन्य कामों में लगाती । प्रभु के लिए माखन खुद निकालती थीं और प्रभु की सेवा माता स्वयं अपने हाथों से करती थीं । सूत्र यह है कि हमें भी प्रभु सेवा स्वयं ही करनी चाहिए ।
537. हमारा जीवन प्रभु के कार्य के लिए काम आना चाहिए ।
538. प्रभु सदैव अपने प्रेमी भक्तों के आधीन रहते हैं ।
539. शास्त्रों द्वारा बताई मर्यादा में हमें सदैव रहना चाहिए ।
540. सद्गुरु सिर्फ प्रभु की भक्ति प्राप्त कराने के लिए बनाए जाते हैं ।
541. प्रभु का सानिध्य मिलने पर हम परम पवित्र हो जाते हैं ।
542. प्रभु परम स्नेही हैं यानी अपने भक्तों को परम स्नेह करने वाले हैं ।
543. जब राजा श्री बलिजी ने तीसरे श्रीकमलचरण में खुद का दान प्रभु को कर दिया तो प्रभु ने भी बदले में स्वयं का दान द्वारपाल के रूप में राजा श्री बलिजी को कर दिया । राजा श्री बलिजी के प्रभु द्वारपाल बन गए ।
544. जीवन में प्रभु पर जबरदस्त भरोसा होना चाहिए ।
545. भक्त स्वयं को प्रभु पर न्यौछावर कर देते हैं ।
546. हमें दर्शन करते हुए अपनी आँखों में प्रभु को बैठाना चाहिए । हमें कथा और कीर्तन श्रवण करते हुए अपने कानों में प्रभु को बैठाना चाहिए । हमें भजन और जप करते हुए अपने मुँह में प्रभु को बैठाना चाहिए ।
547. संत कहते हैं कि जो हमने गधे, घोड़े बनकर और जो कूकर, शूकर बनकर किया है वही हम अब मनुष्य बनकर कर रहे हैं । आहार, निद्रा, मैथुन में ही हम अपना मानव जीवन व्यर्थ कर रहे हैं ।
548. प्रभु के परम भक्तों का चरित्र हमें जीवन की दिशा देती है इसलिए उनका चरित्र शास्त्रों में वर्णित है ।
549. हमारी जिह्वा प्रभु का नाम लेने लग जाए तो हमारा इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाता है ।
550. हमें रोटी नहीं खाना चाहिए केवल प्रभु का प्रसाद पाना चाहिए यानी प्रभु को अर्पण करके ही रोटी को प्रभु के प्रसाद रूप में खाना चाहिए । यह भाव हमारे जीवन में होना चाहिए ।
551. भक्तों के लिए प्रभु सदैव सब कुछ करने के लिए तत्पर रहते हैं ।
552. प्रभु अपने भक्तों पर हुए अपराध को बहुत बड़ा मानते हैं । भक्तों पर हुए अपराध को प्रभु सहन नहीं कर पाते ।
553. हमें यह मानना चाहिए कि केवल प्रभु हमारे थे, हमारे हैं और सदैव हमारे रहने वाले हैं ।
554. हमें प्रेम सिर्फ प्रभु से करना चाहिए । यहाँ "सिर्फ" शब्द सबसे महत्वपूर्ण है ।
555. हमें संसार की कोई चाह और संसार का कोई चिंतन नहीं होनी चाहिए । बस एक ही चाह और चिंतन होनी चाहिए कि प्रभु कब मिलेंगे ।
556. जीवन में प्रभु से कभी वियोग होना ही नहीं चाहिए ।
557. संत कहते हैं कि भक्तों को अपलक होकर यानी प्रभु के दर्शन ऐसे करने चाहिए जैसे आँखों पर पलकें हैं ही नहीं । प्रभु को निहारने में पलक झपकने जितनी भी अदृष्टि और व्यवधान नहीं होनी चाहिए ।
558. प्रभु को कीर्तन प्रिय है । जहाँ प्रभु का कीर्तन होता है वहाँ प्रभु स्वयं चले आते हैं ।
559. अगर वास्तव में हम चाहते हैं कि प्रभु से वियोग न हो तो प्रभु के बारे में नियमित श्रवण करना ही इसका एकमात्र उपाय है ।
560. श्रीबृज रज का इतना महात्म्य है कि वह भक्तों के चरण से उड़कर मस्तक पर पड़े तो जीव मुक्त हो जाता है ।
561. प्रभु को लाड़ लड़ाने का सुख अनमोल है ।
562. प्रभु से निवेदन करना चाहिए कि प्रभु हमें अपने श्रीकमलचरणों में स्थान दें ।
563. प्रभु का नाम जीवन में गाते रहना चाहिए और संसार के विषयों से मन हटाते रहना चाहिए ।
564. प्रभु की सत्ता ही सदैव रहने वाली एकमात्र सत्ता है ।
565. प्रभु बालरूप में अपने श्रीकमलचरणों के अंगूठे का पान करते थे । संत कहते हैं कि यह संकेत है कि प्रभु नीचे-से-नीचे का भी लाड़ करते हैं ।
566. जो हम हैं नहीं वह बनने का प्रभु के सामने प्रयास करना कपट है । प्रभु को कपट रहित व्यक्ति ही प्रिय है ।
567. संसार के मूल में प्रभु ही हैं ।
568. श्रीग्रंथ प्रभु से परिचय कराने वाले साधन होते हैं ।
569. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से कलियुग में अनेक दोषों से युक्त और अनेक पापों से युक्त जीव भी दोषमुक्त और पापमुक्त हो जाता है ।
570. श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा प्रभु को हमारे हृदय पटल पर स्थापित कर देती है ।
571. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के अमृत का नित्य पान करते रहना चाहिए ।
572. जो श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा का नित्य पान करते हैं वे प्रभु को प्रिय हो जाते हैं ।
573. प्रभु कथा सुनने से भक्त को कभी तृप्ति नहीं होती ।
574. हमें अपने मन और अपने चित्त को प्रभु की कथा में बैठाना चाहिए । अक्सर मन कथा में नहीं होता और संसार के विषयों में घूमता रहता है ।
575. कलियुग में प्रभु प्राप्ति के लिए जीव में अन्य साधन करने की क्षमता और सामर्थ्य नहीं है । इसलिए प्रभु श्री वेदव्यासजी ने प्रभु की कथा प्रकट की जिससे कलियुग में जीव के कल्याण का यही एकमात्र साधन बन सकें ।
576. हमारे पास सब चीजों के लिए समय है पर कथा और भजन के लिए समय नहीं जबकि सत्य ठीक इसके उल्टा होना चाहिए ।
577. प्रभु कथा प्रभु को पाने का सबसे सरल और सहज साधन है ।
578. इतने सारे सद्ग्रंथों में एक श्रीग्रंथ जिसका आश्रय लेकर जीव का निश्चित कल्याण होता है वह श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
579. प्रभु अपने भक्तों को संतुष्ट करने के लिए अवतार लेते हैं ।
580. निष्काम भक्ति ही मनुष्य के लिए सबसे श्रेष्ठ साधन है ।
581. सद्ग्रंथ प्रभु प्राप्ति और प्रभु मिलन के साधन हैं ।
582. हमने अपने मन को चंचल धन में लगाया जबकि उसको स्थिर प्रभु में लगाना चाहिए था ।
583. हमने अपने मन को अपूर्ण संसार में लगाया जबकि उसे पूर्ण प्रभु में लगाना चाहिए था ।
584. हम अपने चित्त को प्रभु में लगाएंगे तभी हमें अखण्ड शांति मिलेगी ।
585. हम पूर्णता का अनुभव तभी कर सकेंगे जब पूर्ण प्रभु में हमारा मन लगेगा ।
586. अगर प्रभु से मांगना है तो यही मांगना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन प्रभु का भजन बढ़े जिसके कारण प्रभु का अनुग्रह बढ़ता रहे ।
587. हम जीवन में भजन कर सकें इसका निवेदन प्रभु से करते रहना चाहिए ।
588. प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु कृपा करें कि हमारा चित्त प्रभु से कभी हटे नहीं । हम अपने बल पर ऐसा करने में समर्थ नहीं पर प्रभु ऐसा करवाने में सर्वसमर्थ हैं ।
589. प्रभु के स्मरण में और प्रभु के चिंतन में ही जीवन व्यतीत हो यह गोपीभाव जीवन में रखना चाहिए ।
590. जब मन प्रभु में लग जाएगा तो संसार अच्छा लगेगा ही नहीं ।
591. प्रभु में मन लग जाए तो परिवार, संपत्ति, कीर्ति कुछ भी अच्छी नहीं लगेगी । केवल और केवल प्रभु ही अच्छे लगेंगे ।
592. पुण्य के कार्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है पर भक्ति से भगवत् प्राप्ति होती है ।
593. प्रभु की प्राप्ति सहज करनी है तो हमें एकदम निष्काम बन जाना चाहिए ।
594. जैसे एक माँ अपने बच्चे की पूरी चिंता रखती है वैसे ही प्रभु अपने भक्तों की पूर्ण चिंता रखते हैं ।
595. भक्ति में निष्काम नहीं होकर भक्ति करना केवल श्रम मात्र है क्योंकि सच्ची भक्ति निष्काम ही होती है ।
596. श्रीगोपीजन सदैव प्रभु का स्मरण करती ही रहती थीं । उन्होंने कभी भी घंटा भर बैठ कर प्रभु का चिंतन नहीं किया क्योंकि वे काम करते वक्त भी लगातार प्रभु का चिंतन ही करती रहती थीं । यही भक्ति है ।
597. प्रभु कथा ने ही सबसे ज्यादा प्रभु भक्त बनाए हैं । कथा की महिमा इसलिए सबसे अधिक है ।
598. अपनी मनोवृत्ति में किसी भी तरह प्रभु को ले आना चाहिए ।
599. प्रभु भी सच्चे भक्तों को प्राप्त करना चाहते हैं ।
600. भक्ति से प्रभु के श्रीकमलचरणों का वास मिल जाता है ।
601. चित्त को भगवत् प्राप्ति के अनुकूल बनाना है तो निरंतर प्रभु की कथा सुनते रहना चाहिए ।
602. प्रभु की छवि को अपने हृदय में बसाना, यह ध्यान का सही अर्थ है । प्रभु के श्रीकमलचरणों से लेकर मुखमंडल तक का ध्यान करना चाहिए ।
603. प्रभु की जिस छवि को हम निरंतर अपने मन में बसाएंगे, जीवन में भक्ति परिपक्व होने पर प्रभु साक्षात्कार के समय उसी रूप में हमें दर्शन देंगे ।
604. जीवन में सब कुछ प्रभु की प्रसादी के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए ।
605. अपना मन प्रभु में ही लगाना चाहिए, यही सभी शास्त्रों और भक्तों का एकमत आदेश है ।
606. प्रभु का अनुभव भक्ति के माध्यम से ही होता है ।
607. प्रभु एक भाव और रूप से सबके लिए सदैव उपलब्ध हैं ।
608. प्रभु का नाम दयानिधि है इसलिए प्रभु कभी-न-कभी तो दया अवश्य करेंगे ।
609. प्रभु की कृपा में भीगने के लिए सत्संग के मंडप में आना पड़ेगा ।
610. दो भगवती गंगा माता हैं जो प्रभु श्री महादेवजी ने प्रकट की । एक भागीरथी गंगा माता जो प्रभु श्री महादेवजी की जटा से प्रकट हुई । दूसरी श्री रामायणजी रूपी गंगा माता जो प्रभु श्री महादेवजी के मुखारविंद से निकली ।
611. हमारा जीवन व्यवहार और व्यापार में ही बीत जाता है । प्रभु भक्ति के लिए हम जीवन में समय ही नहीं निकाल पाते ।
612. जीवन मंगलमय करने के लिए और मृत्यु को सुधारने के लिए हमें प्रभु की कथा का श्रवण करना चाहिए ।
613. प्रभु का नाम गाना और प्रभु का नाम श्रवण करना जीवन में अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
614. दवा के साथ परहेज नहीं करने पर दवा कम असर करती है । वैसे ही प्रभु की सकाम भक्ति करने पर और काम, क्रोध, मद, लोभ का त्याग नहीं करने पर असर कम होता है ।
615. जीवन के विकार हमारे अंत को बिगाड़ देते हैं ।
616. जीवन का परम लाभ यही है कि अंत समय में जगत की जगह जगदीश का स्मरण हो ।
617. जो श्रीमद् भागवतजी महापुराण का आश्रय लेते हैं उनका अंत निश्चित ही सुधर जाता है ।
618. प्रभु इतने कृपालु हैं कि प्रभु की कृपा का वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है ।
619. अपने जीवन को हमें प्रभु के हवाले कर देना चाहिए । अपने जीवन की डोर को प्रभु के श्रीकमलचरणों से बांध देना चाहिए ।
620. अपने हृदय का आसन बनाना चाहिए और प्रभु को वहाँ विराजने के लिए निवेदन करना चाहिए ।
621. प्रभु का भजन करने बैठें तो सभी चिंताओं का त्याग करके बैठना चाहिए ।
622. जीवन में सिर्फ उन्हीं का संग करना चाहिए जो हमें प्रभु की तरफ ले जाए ।
623. चाहे वे हमारे कितने भी प्यारे हों पर अगर वे प्रभु से प्रेम नहीं करते तो उन परिजनों का जीवन में तुरंत मानसिक त्याग कर देना चाहिए ।
624. पवित्र मन वही होगा जो अभोगी होगा यानी जिसको भोगों की इच्छा नहीं होगी ।
625. सत्संग प्रभु की माया के पर्दे को हटाने का काम करता है ।
626. हम जिस संसार के मार्ग पर चलकर आनंद खोजते हैं उस मार्ग में आनंद है ही नहीं । आनंद सिर्फ प्रभु के मार्ग में है ।
627. संसार दुःखालय है, सुखालय नहीं है ।
628. संसार में सत्संग ही सुख देने वाला है ।
629. हमें प्रभु कथा में डूबने की कला आनी चाहिए तभी कथा हमें लाभ देगी ।
630. अपवित्र धन का अन्न खाकर मनुष्य दूषित हो गया है इसलिए उसमें सात्विक भावना और पवित्रता नहीं रही ।
631. अपवित्र धन से कभी सद्गति नहीं होती ।
632. संसार प्रभु भजन में बाधक बनता है ।
633. प्रभु के भक्तों का यश अमिट होता है यानी कभी नहीं मिटता ।
634. भगवत् शरणागति के द्वारा भक्त जो यश प्राप्त करता है वह कभी नष्ट नहीं होता ।
635. सतयुग के भक्त, द्वापर के भक्त, त्रेता के भक्त और कलियुग के भक्त सदैव अपनी भक्ति के कारण श्रीग्रंथों के पृष्ठों पर अमर रहते हैं ।
636. जो प्रभु कथा से जुड़ जाता है वही सच्चा भाग्यशाली होता है ।
637. जो धर्म के मार्ग पर चलेगा वह अभाव में भी खुश रहेगा और जो धर्म के मार्ग पर नहीं चलेगा वह वैभव पाकर भी दुःखी रहेगा ।
638. श्रीग्रंथों ने और संतों ने जो परंपरा बनाई है वही श्रेष्ठ है ।
639. भगवत् प्राप्ति का संकल्प जीवन में लेना चाहिए ।
640. समाज को रास्ता श्रीग्रंथ और संत ही दिखाते हैं ।
641. मंदिर में परिक्रमा करने का एक कारण यह है कि हम प्रभु को चारों तरफ से नमस्कार कर सकें ।
642. भक्त को कभी भी स्वाद के पीछे चलने वाला नहीं होना चाहिए ।
643. कथा के माध्यम से प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण जीवन में करते रहना चाहिए ।
644. प्रभु की कथा सुनने के साधन को दृढ़ता से जीवन में पकड़ना चाहिए ।
645. प्रभु का जहाँ प्रेम से नाम लिया जाता है प्रभु वहाँ दौड़े चले आते हैं ।
646. प्रभु सबको क्षमा करते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि ऋषि श्री भृगुजी के चरणों के प्रहार के बाद भी प्रभु ने उन्हें क्षमा कर दिया ।
647. भोजन करने वाले मर गए पर भजन करने वाले अमर हो गए ।
648. प्रभु धन से प्रसन्न नहीं होते केवल भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं ।
649. भाव से प्रभु को भजने से वह भाव हमारा बेड़ा पार करा देता है ।
650. प्रभु को केवल प्रेमाभक्ति ही रिझाती है ।
651. प्रभु केवल एक भक्ति के नाते को ही मानते हैं ।
652. भक्त केवल यही चाहता है कि प्रभु की कृपा का श्रीहस्त सदा उसके सिर पर रहे ।
653. दुःख में केवल प्रभु ही काम आते हैं और कोई भी काम नहीं आता ।
654. अपने चित्त को प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगाना चाहिए ।
655. प्रभु भक्तों के कष्टों को हरने के लिए वे कष्ट स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं । कष्ट तो भोग कर ही कटते हैं इसलिए प्रभु अपने ऊपर ले कर उसे भोगते हैं ।
656. जब हम प्रभु के आगे झुककर प्रभु की शरणागति ग्रहण करते हैं तो हमारी सारी चिंताएं हमारे मस्तिष्क से निकलकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँच जाती हैं और हम चिंताओं के बोझ से मुक्त हो जाते हैं ।
657. प्रभु का जो आश्रय ले लेता है प्रभु श्री बैकुंठजी छोड़कर उसके पास आ जाते हैं ।
658. हमारे सच्चे हितैषी केवल और केवल प्रभु ही हैं ।
659. हमें कभी भी अपने व्यवहार के कारण प्रभु को कष्ट नहीं देना चाहिए ।
660. प्रभु ही हमारे एकमात्र प्राणपति हैं ।
661. अपने मन को इधर-उधर नहीं लगाना चाहिए, सिर्फ प्रभु में ही लगाना चाहिए ।
662. जो चरण संसार की तरफ ले जाए वे पूज्य नहीं है । पूज्य वही चरण है जो हमें प्रभु की तरफ ले जाए ।
663. प्रभु की प्रेम निधि जिसको प्राप्त हो गई वह प्रभु के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हो जाता है ।
664. भक्ति में आज तक कोई बर्बाद नहीं हुआ, कभी हुआ नहीं और कभी हो नहीं सकता ।
665. प्रभु को अर्पित किया कभी व्यर्थ नहीं जाता, चाहे वह तन हो, चाहे मन हो, चाहे धन हो ।
666. जो ब्रह्म से पहचान नहीं कराए वही अविद्या है ।
667. अविद्या संसार के प्रति हमारा आकर्षण पैदा कर देती है और ब्रह्म से हमारी पहचान नहीं होने देती ।
668. प्रभु जीव पर अकारण ही कृपा करते रहते हैं ।
669. पूतना ने मौसी बनकर प्रभु से झूठा नाता बनाया और प्रभु ने उसे भी सद्गति दे दी । अगर हम प्रभु से सच्चा नाता बना लें तो प्रभु जरूर उस नाते को निभाते हैं और हमारा कल्याण करते हैं ।
670. भक्तों ने प्रभु से सदैव नाता बनाया है और प्रभु ने सदैव उस नाते को निभाया है ।
671. वैष्णव कभी यह नहीं कहता कि यह मेरा घर है, वह कहता है कि यह श्री ठाकुरजी का घर है । वैष्णव कभी घर को अपना नहीं मानते, वे सब कुछ प्रभु का मानते हैं ।
672. भगवत् सेवा को अपना परम भाग्य मानना चाहिए ।
673. हमें भगवत् कार्य करने से प्रसन्नता होती है तो यह मानना चाहिए कि श्री ठाकुरजी हमें चाहते हैं ।
674. भगवत् सेवा उसी को प्राप्त होती है जिस पर श्री ठाकुरजी को विश्वास होता है कि वह भगवत् सेवा कर सकता है । श्री ठाकुरजी के विश्वास को कभी नहीं तोड़ना चाहिए ।
675. भगवत् सेवा का कार्य आए तो खूब आनंद अनुभव करना चाहिए ।
676. मृत पूतना के ऊपर से बाल प्रभु को हटाने के बाद भगवती यशोदा माता ने गौ-माता के गोमूत्र से प्रभु को स्नान कराया और गौ रज से प्रभु के श्रीअंगों का लेपन किया । गौ-माता इतनी पूज्या हैं जो श्रीलीला में परम पवित्र प्रभु को भी पवित्र करती हैं ।
677. जिसने प्रभु का संग कर लिया और जिसने प्रभु का स्पर्श पा लिया उसका शरीर महक जाता है, उसका जीवन महक जाता है और उसका नाम महक जाता है । इसलिए पूतना के शरीर के जलने पर उससे दिव्य सुगंधी निकली ।
678. संबंध जोड़ना है तो सिर्फ प्रभु से जोड़ना चाहिए ।
679. प्रभु की हर श्रीलीला में कोई-न-कोई उपदेश छिपा हुआ होता है ।
680. प्रभु अपना निजी स्वार्थ कभी नहीं रखते, वे हमेशा अपने भक्तों के स्वार्थ के लिए ही कार्य करते हैं ।
681. जो प्रभु का हो जाता है उसकी सब परेशानियों को प्रभु अपनी परेशानी मानते हैं ।
682. प्रभु हमारे सब कष्टों को समझने वाले और उनको हरने वाले हैं ।
683. हम प्रभु का दिया ही खाते हैं इसलिए अपने खाने को प्रसाद मानकर और उसे देने के लिए प्रभु की प्रशंसा करते हुए उसे ग्रहण करना चाहिए ।
684. बृजवासी धन्य थे कि वे बचपन से ही प्रभु से इतना प्रेम करते थे कि प्रभु पर कोई कष्ट न आवे इसलिए वे अपने जमे जमाए घर को त्यागकर प्रभु के लिए नई जगह जा बसे जिससे की प्रभु पर वहाँ कोई कष्ट न आए ।
685. प्रभु सेवा का मतलब है कि प्रभु के सुख की कामना स्वयं से भी ज्यादा रखना । हम अपने सुख की कामना रखते हैं पर प्रभु के सुख की कामना हम कभी नहीं करते ।
686. कर्तापन का भाव ही दुःख का कारण होता है ।
687. मैं और मेरा सब कुछ प्रभु का है, प्रभु के द्वारा है और प्रभु के लिए है ।
688. हमारे हृदय की भक्ति की धारा को संसार के विषयों ने घेर लिया है । जीवन में छिपे हुए विषय को प्रभु ही निकाल सकते हैं जैसे प्रभु ने भगवती यमुना माता में से कालिया नाग को बाहर निकाल फेंका ।
689. अपने द्वारा किए पाप दूसरों को बताने से पाप घटते हैं और अपने द्वारा किए पुण्य दूसरों को बताने से पुण्य भी घटते हैं । इसलिए पाप सबके सामने बताना चाहिए पर पुण्य सबसे छुपाना चाहिए ।
690. हमारे सच्चे हितैषी सिर्फ प्रभु ही हैं ।
691. प्रभु पर हमें पूर्ण विश्वास होना चाहिए । प्रभु पर किया विश्वास ही जीवन में काम आता है ।
692. आँखों का एक ही फल है कि उन्हें प्रभु का दर्शन निरंतर होता रहे । श्रीगोपीजन प्रभु के अलावा अपने नेत्रों से अन्य कुछ देखना ही नहीं चाहती थीं । केवल प्रभु दर्शन करना ही उनके नेत्रों का एकमात्र उद्देश्य था ।
693. जो प्रभु को जी भरकर देख लेता है वह प्रभु के रूप में आसक्त होकर प्रभु का ही हो जाता है । यह सिद्धांत है ।
694. जिसके अच्छे से प्रभु से नेत्र मिल जाते हैं प्रभु उसके पीछे-पीछे चल देते हैं । यह प्रभु की कमजोरी है इसलिए ही श्री वृंदावनजी के श्री बांके बिहारीजी के मंदिर में बार-बार पर्दा करने की प्रथा है जिससे किसी के भी ज्यादा समय तक प्रभु से नेत्र नहीं मिल सके ।
695. प्रभु स्मरण और प्रभु चिंतन से हमारी जीवन की सारी थकान मिट जाती है ।
696. प्रभु हमें सबसे ज्यादा प्रिय हो, यह प्रार्थना प्रभु से रोजाना करनी चाहिए ।
697. प्रभु की भक्ति इसलिए करनी चाहिए कि हम प्रभु के प्रिय हो जाए ।
698. प्रभु को वह व्यक्ति बहुत प्रिय होता है जो प्रभु के भक्तों को प्रभु के समीप लाता है । श्री इंद्रदेवजी ने मूसलाधार वर्षा कराई जिसके कारण प्रभु ने श्री गोवर्धनजी को उठाया और प्रभु के भक्त प्रभु के समीप आए । इसलिए प्रभु ने श्री इंद्रदेवजी की गलती होने पर भी उन्हें माफ कर दिया क्योंकि उनकी गलती के कारण ही क्यों न हो पर प्रभु के भक्त प्रभु के समीप आ गए ।
699. प्रभु को गौ-माता बहुत प्रिय है । श्री इंद्रदेवजी ने माफी मांगने के लिए श्री सुरभि गौ-माता को आगे करके लेकर आए । गौ-माता के कारण प्रभु ने श्री इंद्रदेवजी को तत्काल माफ किया ।
700. जिस जीव ने भगवत् प्राप्ति की इच्छा की उन सबको प्रभु ने गोपी बनाकर उनके साथ श्रीरास किया । सभी ऋषियों, योगियों को प्रभु ने गोपी बनाया । कच्छप अवतार में कछुवी ने प्रभु को कांत भाव से देखा तो प्रभु ने उन्हें गोपी बना दिया । मत्स्य अवतार में नर और मादा मछली को प्रभु के लिए कांत भाव हो गया तो प्रभु ने उन्हें गोपी बना दिया । वामन अवतार में आसुरी स्त्री के मन में प्रभु के लिए कांत भाव आया तो प्रभु ने उन्हें भी गोपी बना दिया और सब के साथ श्रीरास किया ।
701. मनुष्य के अलावा भी कोई भी जीव जंतु अगर प्रभु प्राप्ति की इच्छा करता है तो प्रभु उसे अपनाते हैं । प्रभु सिर्फ मनुष्य को ही अपनाते हैं ऐसी बात नहीं है । हर योनि के जीव को प्रभु अपनाते हैं जैसे श्रीरास के लिए कछुवी, मछली और आसुरी स्त्रियों को गोपी बनाकर प्रभु ने अपनाया ।
702. कांत भाव अगर संसार के लिए हो जाए तो वह काम पैदा करता है पर वही कांत भाव अगर प्रभु के प्रति हो जाए तो वह हमें आनंदित करता है और हमें आदरणीय बना देता है ।
703. जीव को सदैव भगवत् सेवा परायण होना चाहिए ।
704. भक्ति में कभी भी कमी नहीं आने देना चाहिए । भक्ति निरंतर जीवन में बढ़ती ही रहनी चाहिए ।
705. भगवत् भक्त का कभी भी भूल से भी अनादर नहीं करना चाहिए ।
706. हमारी पीड़ा को केवल प्रभु ही सुनते हैं ।
707. अगर प्रभु श्री कृष्णजी को प्राप्त करना है तो भगवती राधा माता की शरण में जाना अनिवार्य है ।
708. प्रभु जब प्रसन्न होते हैं तो भगवती राधा माता भक्त की चर्चा प्रभु के समक्ष चला कर भक्त को प्रभु से मिला देती हैं ।
709. भगवती राधा माता ने भी श्रीरास में मान की श्रीलीला की क्योंकि माता पुनः गोपियों को प्रभु से मिलाना चाहती थीं जब श्रीरास में गोपियों का प्रभु से वियोग हुआ ।
710. बच्चे, परिवार, धन-संपत्ति के लिए हम खूब रोते हैं पर क्या कभी हम प्रभु के साक्षात दर्शन पाने के लिए भी व्याकुल होकर रोते हैं ।
711. संत कहते हैं कि श्रीरास के समय मान की श्रीलीला करने का भगवती राधा माता का यह कारण था कि वे सबको बताना चाहती थीं कि प्रभु सब कुछ सहन कर लेते हैं पर अभिमान सहन नहीं करते । संसार को नसीहत देने के लिए कि हमारे अभिमान के कारण प्रभु हमसे दूर हो जाते हैं ।
712. जीवन में कोई दूसरा लक्ष्य होना ही नहीं चाहिए, सिर्फ प्रभु प्राप्ति का ही जीवन में एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए ।
713. जीवन तभी तक अच्छा है जब तक प्रभु हमारे जीवन में हैं ।
714. प्रभु सभी देहधारियों की अंतरात्मा हैं ।
715. प्रभु ही हमारी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं ।
716. प्रभु के करुणा से भरे श्रीकरकमल अपने सिर पर रखवाना भक्ति का एक उद्देश्य होता है ।
717. प्रभु के श्रीकमलचरण कोमलता की पराकाष्ठा हैं ।
718. श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम निस्वार्थ भाव का था । हमारा प्रभु प्रेम दिखावे का और स्वार्थ का होता है ।
719. श्रीगोपीजन की सदैव एक लालसा रहती थी वह श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा थी ।
720. प्रभु से नित्य प्रेम की चर्चा करते हुए भक्त चलता है ।
721. प्रभु को बैठाना है तो अपने हृदय में प्रेम का सिंहासन लगाकर प्रभु को बैठाना चाहिए । प्रभु को सोने और चांदी के सिंहासन का कतई आकर्षण नहीं ।
722. प्रभु की याद में रोना चाहिए । इससे भगवत् प्राप्ति के बाधक तत्व नष्ट हो जाते हैं ।
723. भगवान की भगवत्ता हमें सदा समझनी चाहिए ।
724. प्रभु को प्राप्त करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए ।
725. जीवन के सभी कर्म प्रभु प्राप्ति के लिए होने चाहिए ।
726. जीवन की शाम होते-होते श्याम मिल जाएं तभी हमारा जीवन सफल है ।
727. कलियुग में प्रभु से भी ज्यादा प्रभु माता की पूजा करवाते हैं ।
728. प्रभु पर दृष्टि जाते ही हमारी दृष्टि स्थिर हो जानी चाहिए यानी प्रभु पर से दृष्टि हटनी नहीं चाहिए ।
729. जो प्रभु को अपनाने की प्रार्थना करते हैं प्रभु उस प्रार्थना को अवश्य पूर्ण करते हैं ।
730. प्रभु किसी धर्म और संप्रदाय विशेष के नहीं बल्कि प्रभु सबके हैं ।
731. काम, क्रोध, मद और लोभ भगवत् आराधना में बाधक हैं ।
732. आध्यात्मिक बुद्धि का स्तर विश्वविद्यालय में नहीं बढ़ सकता । यह सिर्फ सत्संग और भजन से ही बढ़ेगा । विश्वविद्यालय से हमें केवल पेट भरने की बुद्धि मिलती है पर आध्यात्मिक उन्नति और मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति कराने वाली बुद्धि केवल सत्संग देता है ।
733. प्रभु नाम जपने से और प्रभु की कथा श्रवण करने से जीवन के सारे संशय मिट जाते हैं ।
734. मनुष्य के बंधन को खोलने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
735. सतत यानी हमेशा और लगातार सत्संग करते रहना चाहिए ।
736. हमें अपने प्रभु पर विश्वास करना सीखना चाहिए । प्रभु पर किया विश्वास ही जीवन में फल देता है ।
737. दो अक्षर के दो शब्द हैं । नाम और काम । काम प्रभु को हमसे दूर कर देता है और नाम हमें प्रभु से मिलाता है ।
738. प्रभु को जीवन में लाने से ही हमारा जीवन सफल होता है ।
739. रावण, कंस और जरासंध प्रभु श्री महादेवजी की उपासना करते थे । भारतवर्ष का यह गौरव देखें कि यहाँ के असुर भी प्रभु उपासक हुए ।
740. हमारी दृष्टि सदैव प्रभु पर होनी चाहिए । जरासंध से युद्ध करते वक्त श्री भीमजी की दृष्टि जरासंध पर थी और उन्होंने युद्ध किया तो लगभग हारने लगे । फिर श्री भीमजी ने अपनी दृष्टि प्रभु पर की तो प्रभु ने उपाय बताया और एक तिनके को चीरकर उलटी दिशा में फेंका । श्री भीमजी संकेत समझ गए और जरासंध मारा गया । इसलिए दृष्टि सदैव प्रभु पर ही रखनी चाहिए तभी जीवन में विजय मिलती है ।
741. प्रभु के कारण संतों में बहुत बड़ी आध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति विकसित हो जाती है ।
742. बुढ़ापे के कष्ट और रोगों से बचना चाहते हैं तो जवानी में ही प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ लेना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है ।
743. जिन संतों ने भगवत् श्रीकमलचरणों का आश्रय लिया है उनमें जीवन जीने की अदभुत शक्ति आ गई । अभी कलियुग में भी 100 वर्ष पार करने वाले कुछ संत हुए हैं जो इस आयु में भी बच्चों की तरह दौड़ते चलते हैं । उन्हें न तो कोई रोग होता है और न ही बुढ़ापे की वेदना होती है ।
744. प्रभु के श्रीकमलचरणों में नित्य दंडवत प्रणाम करने से जीवन के क्लेश समाप्त होते हैं । जीवन के क्लेशों को मिटाने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
745. प्रभु की शरणागति जीवन में अति आवश्यक है ।
746. हम रोज गलतियां करते हैं और प्रभु हमारी गलतियों को रोज माफ करते रहते हैं ।
747. प्रभु नाम के जप में बहुत बड़ी ताकत होती है । प्रभु नाम का जप हमारे जीवन को सुगम बना देता है ।
748. जीवन में त्याग करने से ही वास्तव में शांति मिलती है ।
749. जितना हम वासनाओं के पीछे भागेंगे उतना ही जीवन अशांत होता चला जाएगा ।
750. सत्संग को जीवन में अपनाना चाहिए । सत्संग में सुनी हुई बातों को जीवन में उतारना चाहिए ।
751. अब तक जो भी मिला है वह प्रभु का दिया हुआ ही हमें मिला है । इसलिए आगे के जीवन के लिए भी प्रभु पर विश्वास करके ही जीवन जीना चाहिए ।
752. हमारे हित को केवल प्रभु ही जानते हैं ।
753. जैसे एक बालक को उसकी माँ लाड़ करती है और सब कुछ देती रहती है पर अगर वह बालक आग के कंडे मांगे तो माँ नहीं देती । इसी प्रकार प्रभु भी हमें गलत चीज मांगने पर नहीं देते ।
754. अगर हमारे चाहने वाली वस्तु हमें नहीं मिल रही है तो हमें यह मानना चाहिए कि प्रभु को हमारी विशेष चिंता है और हमारा हित उसमें नहीं है इसलिए प्रभु ने उसे हमें नहीं दिया है ।
755. अगर मांगी हुई वस्तु जीवन में नहीं मिलती तो भी यह मानना चाहिए कि यह हमारे ऊपर प्रभु की कृपा हुई है कि भविष्य में वह चीज हमारा नुकसान कर सकती है इसलिए प्रभु ने हमें नहीं दी ।
756. जीव को सदैव जीवन में भगवान के भरोसे ही रहना चाहिए ।
757. संसार के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहिए क्योंकि संसार भी भिखारी है । संसार भी प्रभु से ही मांगता है । इसलिए मांगना ही है तो प्रभु से मांगना चाहिए । अच्छा तो यह है कि निष्काम बने रहना और प्रभु से भी कुछ नहीं मांगना ।
758. इंद्रियों की आसक्ति हटेगी तभी जीवन में सच्ची विरक्ति मिलेगी ।
759. जिसकी सांसारिक इच्छाएं मिट जाती है वही सच्चा राजा है ।
760. सांसारिक इच्छाओं के कारण ही हमें जीवन में रोना पड़ता है और उस इच्छा के पूरी नहीं होने का दोष हम प्रभु को देते हैं और ऐसा करके हम पाप के भागी बनते हैं ।
761. प्रभु का नाम जीवन में सदा लेते रहना चाहिए और सदा जीवन में हंसते रहना चाहिए ।
762. खिला हुआ फूल प्रभु को प्रिय होता है और प्रभु को चढ़ाया जाता है । इसलिए हमारा सदा हंसते रहने वाला खिला हुआ चेहरा प्रभु को प्रिय होता है ।
763. सदा आनंद में रहना भी प्रभु की एक प्रकार की भक्ति है ।
764. प्रभु से कोई शिकायत नहीं, प्रभु से कोई चाह नहीं, यह भक्ति का सच्चा स्वरूप है ।
765. भक्ति और धर्म के मार्ग पर चलने की अपने पति को प्रेरणा देने वाली और अपने पति का भक्ति और धर्म के मार्ग पर साथ देने वाली पत्नी को शास्त्रों में धर्मपत्नी कहा गया है ।
766. हमें सदैव प्रभु के भरोसे ही रहना चाहिए । जैसे पर्वत पर हरियाली रहती है तो वहाँ कौन माली जाकर उसे सींचता है पर हरियाली प्रभु के भरोसे रहती है ।
767. सारी दुनिया की संपत्ति भी हमें एक अतिरिक्त सांस नहीं दिला सकती । इतनी बहुमूल्य सांसें जीवन भर के लिए हमें प्रभु ने कृपा करके दी है ।
768. हमारा शरीर कितना कीमती है । एक-एक अंग कितने कीमती हैं । यह सब कुछ प्रभु ने हमें निष्काम भाव से दिया है । प्रभु इसके बदले हमसे कुछ भी नहीं चाहते ।
769. प्रभु यह नहीं देखते कि हम प्रभु के लिए क्या लाए हैं पर हम किस भाव या भावना से लाए हैं यह प्रभु जरूर देखते हैं ।
770. प्रभु का ज्ञान होने से भी ज्यादा प्रभु का अनुभव जीवन में होना जरूरी है ।
771. जिन्होंने जीवन में प्रभु का सानिध्य पा लिया उनके जीवन की उथल-पुथल सदैव के लिए समाप्त हो जाती है ।
772. हमें प्रभु मिलन के लिए जीवन में प्रयास करते हुए आगे बढ़ना चाहिए पर प्रभु कैसे मिलेंगे यह प्रभु पर छोड़ देना चाहिए ।
773. हमें प्रभु का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जल की एक घूंट भी प्रभु के कारण हमें पीने को मिलती है । हमारी क्षमता नहीं कि दो बूंद पानी भी हम बना पाए । पानी प्रभु ने बनाया है, इंसान पानी तक नहीं बना सकता ।
774. जो प्रभु की तरफ चलते हैं उनका मार्ग प्रभु स्वयं बनाते हैं क्योंकि प्रभु को भी अपने भक्तों से मिलन की जल्दी होती है ।
775. जीवन में भक्तिवान बनना चाहिए, धनवान बनने में कोई ज्यादा फायदा नहीं है । सबसे बड़ा फायदा भक्तिवान बनने में ही है ।
776. प्रभु के पास पहुँचने के बाद जीवन के सभी कष्ट मिट जाते हैं ।
777. भगवान को भाव से भजना चाहिए । भाव से भजने पर भगवान जरूर मिलते हैं ।
778. भक्त कभी भी जीवन में प्रभु से बिछुड़ना नहीं चाहते ।
779. हमें अपने मन को प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए ।
780. हमें जीवन में प्रभु का ही गुणगान सुनना चाहिए ।
781. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के पहले अध्याय में प्रभु श्री शुकदेवजी ने नवधा भक्ति की नौ प्रकार की भक्तियों में से भी तीन प्रकार की भक्ति सबसे उपयोगी बताई है । पहला, प्रभु के नाम, गुण और श्रीलीला गान का श्रवण करना । दूसरा, प्रभु के नाम, गुण और श्रीलीला का कीर्तन करना । तीसरा, प्रभु का स्मरण करना ।
782. हमें बस इतना ही करना है जिससे कि जीवन का सबसे बड़ा लाभ हो जाए कि जीवन के अंतिम समय प्रभु का स्मरण हो जाए जिससे हम प्रभु के पास चले जाएं ।
783. किसी भी उपाय से करें पर अंतिम समय प्रभु का स्मरण होना हमारे लिए अनिवार्य होना चाहिए ।
784. जीवन भर हम जिनके स्मरण का अभ्यास करते हैं, अंतिम समय भी उन्हीं का स्मरण होता है । इसलिए जीवनभर प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए ।
785. सच्चा कर्मयोग यही है कि संसार के कर्म करते हुए शरीर से, मन से और बुद्धि से प्रभु की भक्ति करना । संत तो इससे भी आगे जाकर कर्मसंन्यास लेकर यानी कर्मों से संन्यास लेकर प्रभु की भक्ति करते हैं ।
786. प्रभु हमारे चित्त को आकर्षित करके पकड़ लेते हैं ।
787. मृत्यु तो प्रभु के पास जाने का द्वार है । इसलिए जो जीवन में प्रभु की भक्ति करते हैं ऐसे भक्त कभी मृत्यु से डरते नहीं ।
788. महापुरुषों की मृत्यु तो प्रभु से मिलन के लिए होती है । इसलिए महापुरुष मृत्यु के बहाने प्रभु के धाम जाने का और प्रभु से मिलन का इंतजार करते रहते हैं ।
789. प्रभु के लिए जीवन में हमें समय निकालना चाहिए ।
790. मन को भगवान में लगाना यही सभी साधनों का मुख्य उद्देश्य है । सभी साधनों की अंतिम अवस्था यही है ।
791. प्रभु के रूप, गुण और लीला का चिंतन मन से करना चाहिए । मन कुछ-न-कुछ तो करेगा इसलिए मन को प्रभु के रूप, गुण और लीला का चिंतन कराने में लगाना चाहिए ।
792. प्रभु ने हमें स्वतंत्रता दी है कि अपनी रुचि अनुसार प्रभु के किसी भी रूप में हम प्रभु का ध्यान कर सकते हैं । प्रभु उस रूप को हमारे लिए स्वीकार करते हैं और उस स्वरूप का हमें दान दे देते हैं ।
793. प्रभु से कोई भी संबंध स्थापित करें । प्रभु को अपना स्वामी, अपना पिता, अपना सखा या यहाँ तक कि अपना लाला भी हम बना सकते हैं ।
794. प्रभु के सुख के लिए ही हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए । जब हम प्रभु से प्रेम करते हैं तो इससे प्रभु को बहुत सुख मिलता है ।
795. प्रभु के नाम, गुण और श्रीलीला का गान करना ही कीर्तन है ।
796. मन का स्वभाव है कि मन हमेशा परिवर्तन चाहता है । इसलिए मन को कभी प्रभु के नाम का जप, कभी प्रभु के रूप का दर्शन और कभी प्रभु की श्रीलीला का चिंतन करने में बदल-बदल कर हमें लगाना चाहिए ।
797. चारों युगों में, चारों श्रीवेदों में प्रभु के नाम की महिमा बताई गई है । पर कलियुग में इसी प्रभु नाम की सर्वोत्तम महिमा है और यही सर्वोत्तम साधन है क्योंकि योग, यज्ञ, तप, कर्मकाण्ड, व्रत इस कलियुग में आसानी से और विधिपूर्वक हो पाना संभव नहीं है ।
798. कलियुग का युग धर्म यही है कि प्रभु के नाम, गुण और श्रीलीला का श्रवण और कीर्तन किया जाए और प्रभु का स्मरण किया जाए ।
799. श्रीगोपीजन का मन प्रभु में ऐसा लगा कि वह वहाँ से हटने का नाम ही नहीं लेता और हटाए नहीं हटता ।
800. मन को संसार से हटाना और प्रभु में लगाना, यही सच्चे वैराग्य का अर्थ है ।