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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 01

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. प्रभु से मत कहें कि हमारी समस्‍या कितनी बड़ी है, समस्‍या से कहें कि हमारे प्रभु कितने बड़े हैं ।
002. प्रभु की कृपा को कोई धन से आंकता है, कोई परिवार के सुख से आंकता है, कोई पद-प्रतिष्ठा से आंकता है पर जिसकी भीतर की आँखें खुल गईं हैं वह जीवन में प्रभु की कृपा को केवल और केवल भक्ति से आंकता है ।
003. कैसी विडंबना और दुर्भाग्य है कि हम प्रभु के समक्ष हाथ जोड़कर भी संसार का ही सुख मांगते हैं, भक्ति नहीं मांगते ।
004. समस्त श्रीग्रंथों का सार प्रभु की भक्ति है ।
005. प्रभु की भक्ति का प्रतिपादन सभी श्रीग्रंथों में हुआ है ।
006. सभी संतों ने जिस तथ्य का प्रतिपादन किया है वह भक्ति ही है ।
007. सभी श्रीग्रंथों में और सभी संतों ने भक्ति को ही सर्वोपरि माना है ।
008. भक्ति से श्रेष्ठ मानव जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।
009. मनुष्य जीवन की सार्थकता केवल भक्ति में ही है ।
010. भक्ति आत्मशुद्धि का परम साधन है ।
011. प्रभु ने कृपा करके सभी योनियों में श्रेष्ठ मनुष्य जन्म हमें दिया है इसलिए भक्ति करके हमें इस जीवन का सदुपयोग करना चाहिए ।
012. भक्ति करने पर जीवन के बाद हमारी सद्गति निश्चित ही होगी ।
013. उसी का जीवन सार्थक है जो प्रभु की भक्ति करता है ।
014. जीवन में कितना भी संग्रह करें उसका नाश होगा, जीवन में कितना भी संयोग हो एक दिन वियोग होगा, जीवन को कितना भी अच्छी तरह जिएं उसका अंत मृत्यु में होगा । इसलिए जीवन में भक्ति करके प्रभु तक पहुँचना ही श्रेष्ठ है ।
015. हम पृथ्वी पर रहकर भक्ति की कमाई कर सकते हैं जो कि मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहेगी ।
016. भक्ति करके हमने जो भी कमाया है वह कभी नष्ट होने वाला नहीं है ।
017. मानव जीवन में परम कल्याणकारी कार्य प्रभु की भक्ति करना ही है ।
018. प्रभु तक पहुँचने के सारे मार्ग अच्छे होने पर भी कोई परिपूर्ण नहीं है । प्रभु तक पहुँचने का परिपूर्ण मार्ग तो केवल और केवल भक्ति ही है । सभी अन्य मार्ग अपूर्ण हैं, केवल भक्ति मार्ग ही पूर्ण है ।
019. सभी शास्त्रों में जिस एक चीज को मानव कल्याण के लिए सबसे जरूरी बताया गया है वह एकमात्र भक्ति ही है ।
020. भक्ति का ही अवलंबन सदैव जीवन में लेना चाहिए ।
021. भक्ति जीव का परम कल्याण करने वाला साधन है ।
022. भगवत् प्राप्ति केवल भक्ति से ही संभव है ।
023. भक्तों को संसार के भोगों में से एक भी भोग नहीं चाहिए, यहाँ तक कि स्वर्ग का भोग भी नहीं चाहिए क्योंकि उन्हें केवल प्रभु की भक्ति चाहिए ।
024. प्रभु को हम केवल निष्काम भक्ति से ही रिझा सकते हैं ।
025. प्रभु के मंदिर कभी मांगने के लिए नहीं जाना चाहिए । मंदिर केवल प्रभु दर्शन और आशीर्वाद लेने के लिए जाना चाहिए ।
026. भक्तों को इहलोक और परलोक दोनों में से कुछ नहीं चाहिए होता । उन्हें केवल प्रभु ही चाहिए ।
027. इंद्रियों को कभी चंचल नहीं होने देना चाहिए, तभी हम प्रभु की भक्ति कर पाएंगे ।
028. जीवन का अंतिम कल्याणकारी साधन केवल भक्ति ही है ।
029. अन्त में सभी आचार्य प्रभु की भक्ति का ही वर्णन करते हैं । सभी पंथ और संत अन्त में भक्ति के लिए ही पथ प्रदर्शन करते हैं ।
030. शास्त्रों का मत है कि भक्ति ही अकेला और एकमात्र पूर्ण साधन है ।
031. यदि कोई अन्य साधन भक्ति से नहीं जुड़ते तो भी भक्ति अपने आपमें अकेली ही परिपूर्ण साधन है ।
032. अन्य कोई भी मार्ग हमें अपूर्णता तक ही पहुँचाएगा । अंतिम कल्याण और परिपूर्णता तो केवल भक्ति से ही संभव है ।
033. भक्ति के बिना जीव का पूर्ण समाधान नहीं हो सकता ।
034. मन को सही मार्ग पर ले जाने का एक ही उपाय है, भक्ति, केवल भक्ति और केवल भक्ति ।
035. भक्ति हमें जो प्रभु को प्रिय लगता है वह करने के लिए प्रेरित करती है ।
036. भक्ति हमें प्रभु के लिए नियम पालन करना सिखाती है ।
037. गलत कार्य करना तो दूर, गलत कार्य करने की इच्छा भी नहीं होती जब हम भक्ति करते हैं ।
038. भक्ति जीव को पूरा परिवर्तित कर देती है । केवल भक्ति के जागरण होने पर ही पूर्ण परिवर्तन संभव है ।
039. भक्ति में जीव प्रभु को रिझाने के लिए ही कार्य करता है ।
040. तीव्र भक्ति हमारे भीतर प्रभु के लिए पूर्ण प्रेम का भाव जागृत कर देती है ।
041. शास्त्रों का निष्कर्ष है कि उद्धार के लिए अंत में भक्ति का ही अवलंबन लेना पड़ेगा । इसलिए प्रारंभ से ही भक्ति मार्ग पर चलना श्रेष्ठ है ।
042. भक्ति हमें जीवन के बाद मुक्ति भी देती है और साथ ही जीवन में परमानंद की अनुभूति भी कराती है ।
043. परमानंद की अनुभूति के लिए तो हमें प्रभु की भक्ति ही करनी पड़ेगी । भक्ति के बिना जीवन में परमानंद पाने का अन्य कोई विकल्प नहीं है ।
044. मानव जीवन को कृतार्थ करने के लिए सबसे जरूरी केवल प्रभु की भक्ति ही है ।
045. जीवन में सब कुछ कर लिया और प्रभु की भक्ति नहीं की - यह गलत है । जीवन में कुछ भी नहीं किया और केवल प्रभु की भक्ति की - यह श्रेष्ठ है ।
046. संपत्ति नहीं कमाई, ज्ञान नहीं प्राप्त किया पर डट कर प्रभु की भक्ति की तो उस जीव ने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य प्राप्त कर लिया ।
047. प्रभु एकमात्र भक्ति से ही सुलभ होते हैं ।
048. अपना सब कुछ प्रभु के कार्य में लग जाए तो उससे बड़ी सार्थकता और कुछ भी नहीं है ।
049. प्रभु की सेवा के लिए हमें सदैव उपयोगी बनना चाहिए ।
050. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष भी भक्त को नहीं चाहिए होता क्योंकि भक्ति इतनी श्रेष्ठ है कि वह मोक्ष से भी ऊपर है ।
051. भक्ति सभी पुरुषार्थों से ऊपर है क्योंकि भक्ति का स्थान धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के मस्तक पर है ।
052. मनुष्य जन्म पाकर कुछ किया या नहीं किया तो भी ठीक पर भक्ति नहीं की तो सम्पूर्ण मनुष्य जीवन ही बेकार चला गया ।
053. जीव की पूर्णता केवल प्रभु की भक्ति में ही है ।
054. चित्त की परिपूर्ण तृप्ति केवल भक्ति से ही संभव है ।
055. भक्ति का प्रतिपादन सनातन धर्म की पूरी परम्परा ने किया है ।
056. अंतःकरण में प्रभु के साथ एकरूप होने का कार्य भक्ति कराती है ।
057. शास्त्र और संत भक्ति का प्रवाह जनमानस तक पहुँचाते हैं ।
058. भक्ति की प्रेरणा देने में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी सबसे आगे हैं । उन्होंने ही प्रभु श्री वेदव्यासजी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण लिखने के लिए और ऋषि श्री वाल्मीकिजी को श्री रामायणजी लिखने के लिए एवं इन श्रीग्रंथों में भक्ति का प्रतिपादन करने के लिए प्रेरित किया । भक्ति का ऐसा प्रतिपादन करने पर ही प्रभु श्री वेदव्यासजी और ऋषि श्री वाल्मीकिजी को आत्म शांति मिली ।
059. सभी प्रभु की भक्ति में तल्लीन हों यही प्रयास सभी संत करते हैं ।
060. श्रीग्रंथ वही जिसका श्रवण करते हुए भक्ति के रस का उदय हो जाए ।
061. भक्ति हमारे चित्त की वृत्ति को अनायास और बिना परिश्रम के प्रभु की तरफ प्रवाहित कर देती है ।
062. प्रभु की कथा हमें प्रभु में मन लगाना सिखाती है ।
063. भक्ति का रस हमारे अन्तःकरण को प्रभावित करता है ।
064. हमारे चित्त की वृत्ति प्रभु के श्रीकमलचरणों तक बहनी चाहिए ।
065. अन्त:करण में हमारा एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि जीवन में भक्ति की प्राप्ति हम कर सकें ।
066. भक्ति को प्राप्त करने का सत्संग एक साधन है क्योंकि सत्संग में हम प्रभु के प्रभाव और स्वभाव के बारे में सुनते हैं जिससे प्रभु के लिए प्रेम का भाव हमारे हृदय में उदित होता है ।
067. प्रभु के भक्तों के विचारों का सेवन करना चाहिए, इससे जीवन में भक्ति बढ़ती है ।
068. भक्ति प्राप्त हो गई तो अन्तःकरण में सदैव के लिए परमानंद टिक जाएगा ।
069. भक्ति में अखंड परमानंद है क्योंकि भक्ति का परमानंद कभी खंडित नहीं होता ।
070. परमानंद का मूल एकमात्र भक्ति में ही है ।
071. जीवन की बगिया में भक्ति का बीज पड़ जाए इसके लिए प्रभु से सदा अरदास करनी चाहिए ।
072. मन को सात्विक बनाकर परिवर्तित करना हो तो यह सामर्थ्य केवल और केवल भक्ति में ही है ।
073. मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य भगवत् भक्ति ही होनी चाहिए ।
074. प्रभु कथा का श्रवण करते रहने से मन के मैल धुलते चले जाते हैं, इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु कथा का श्रवण करते रहना चाहिए ।
075. भक्त प्रभु के स्मरण में निरंतर मग्न रहता है ।
076. प्रभु कथा का श्रवण हमारे जीवन को ही परिवर्तित कर देता है ।
077. प्रभु तक पहुँचने का सबसे सुलभ रास्ता केवल भक्ति का ही है ।
078. हमें प्रभु का दास बनकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए ।
079. हमारे अन्तःकरण में भक्ति के बीज अंकुरित होने चाहिए ।
080. जब हमारा प्रभु के बारे में सोचने, पढ़ने, बोलने और लिखने का मन करे तो ही यह समझना चाहिए कि भक्ति के बीज हमारे भीतर अंकुरित होने लगे हैं ।
081. प्रभु का निरंतर नाम लेने की आदत जीवन में लग जानी चाहिए ।
082. प्रभु नाम लिए बिना रहना ही असंभव हो जाना चाहिए ।
083. नेत्रों की बार-बार यही इच्छा होनी चाहिए कि वे प्रभु के दर्शन करें ।
084. प्रभु के श्रीअंगों का दर्शन करने से भक्ति भाव की जागृति हमारे मन में होती है ।
085. प्रभु के माधुर्य रूप में भक्त आसक्त हो जाता है ।
086. संसार में केवल प्रभु ही एकमात्र अनुपम और सुंदर हैं ।
087. हमारा मन प्रभु को छोड़कर अन्यत्र कहीं जाना ही नहीं चाहिए ।
088. प्रभु के दिव्य रूप का मन को सदैव आस्वादन करते रहना चाहिए ।
089. जैसे एक माता अपने विवाह के पच्चीस वर्षों बाद एक लड़के को जन्म देती है तो वह उससे कितना प्रेम करती है और लाड़ लड़ाती है उससे कोटि-कोटि गुना ज्यादा हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए और प्रभु को लाड़ लड़ाना चाहिए ।
090. हमें यह आत्म-परीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या हमें रोजमर्रा के जीवन में प्रभु की लगातार याद आती रहती है या सुबह की पूजा के बाद दिनभर के लिए हम प्रभु को भूल जाते हैं ।
091. भक्ति का यही उद्देश्य होता है कि हमारे हर संकल्प के विषय प्रभु बन जाने चाहिए ।
092. प्रभु को भूलना ही असंभव हो जाए तो ही समझना चाहिए कि हमारे भीतर भक्ति का जागरण हुआ है ।
093. अगर पूर्ण भावना से प्रभु का नाम जप होता है तो वह निश्चित ही फलीभूत होता है ।
094. प्रभु के पूजन में संत किसी बाहरी वस्तु की जरूरत नहीं मानते थे । वे अपने भीतर से ही प्रभु के लिए निष्ठा के साथ मानसिक पूजन करते थे ।
095. प्रभु के नाम जपते समय हमारा मन जिह्वा के साथ जुड़ जाए, प्रभु दर्शन के समय हमारा मन नेत्रों के साथ जुड़ जाए, तात्पर्य यह है कि मन का अपनी इंद्रियों के साथ जुड़ना सबसे जरूरी है तभी हमारी भक्ति साकार होती है ।
096. प्रभु की भक्ति हमें प्रभु की अनुभूति तक पहुँचा देती है ।
097. हमें सारा जीवन संसारी प्रपंच में नहीं गंवाना चाहिए अपितु अपना पूरा जीवन प्रभु की भक्ति में अर्पण करना चाहिए ।
098. संसार के बंधनों से मुक्त होकर हमें प्रभु की भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए ।
099. प्रभु के समक्ष हमें जल्दी पहुँचने की ललक होनी चाहिए ।
100. अपना जीवन केवल प्रभु के लिए ही हमें अर्पण करना चाहिए ।
101. हमें अन्तःकरण में पक्की धारणा बनाकर रखनी चाहिए कि मैं किसी का भी नहीं हूँ, मैं केवल प्रभु का ही हूँ ।
102. बाहर का संसारी प्रपंच का नाटक चलता रहे पर भीतर से केवल प्रभु के बन जाना चाहिए ।
103. हमें स्वयं को केवल प्रभु का ही मान कर रखना चाहिए, इसी पक्की मान्यता का नाम भक्ति है ।
104. केवल एक रिश्ता मन से प्रभु के साथ होना चाहिए । केवल एक ही स्वर मन के भीतर चलते रहना चाहिए कि मैं किसी का नहीं, केवल और केवल प्रभु का ही हूँ ।
105. जीवन में कभी अपने आपको अकेला नहीं मानें, अपने आपको प्रभु का मानें और प्रभु को अपना मानें ।
106. जब हमें प्रभु के पास पहुँचने की ललक होती है तो प्रभु हमें अपने पास पहुँचने का मौका जीवन में निश्चित रूप से प्रदान करते हैं ।
107. सच्चा भक्त हर प्रतिकूलता में भी प्रभु की कृपा का ही दर्शन करता है । जब श्री नरसी मेहताजी की पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई तो उस दिन भी उन्होंने उसे प्रभु का अनुग्रह माना और प्रभु का खूब कीर्तन किया ।
108. एक प्रभु के लिए ही पूरा-पूरा प्रेम हमारे हृदय में बसना चाहिए ।
109. भक्ति हमारे मन की रुग्णता को नष्ट कर देती है ।
110. भक्ति हमारे मनोबल और सतोगुण की वृद्धि करती है ।
111. हमारा किया हुआ भक्ति का साधन हमें प्रभु की कृपा दिलवा कर ही रहता है ।
112. हमें संसार के किसी संबंध को अपना नहीं मानना चाहिए, केवल प्रभु के साथ ही अपने संबंध को सनातन मानना चाहिए ।
113. प्रभु की श्रीलीलाओं का नित्य चिंतन जीवन में करते रहना चाहिए ।
114. प्रभु भक्तों की व्याकुलता के कारण ही भक्तों से मिलते हैं ।
115. प्रभु का आत्म-साक्षात्कार किए हुए संत कहते हैं कि प्रभु अदभुत, अदभुत और अदभुत ही हैं । जो भी हम भक्ति करके प्रभु की कल्पना करते हैं प्रभु उससे अनंत गुना अदभुत हैं ।
116. प्रभु साक्षात्कार के वक्त केवल परमानंद, परमानंद और परमानंद की ही लहरें भक्त के हृदय में उठती हैं और भक्त परमानंद के सागर में डूब जाता है ।
117. प्रभु की अनुभूति होने पर सभी संप्रदायों, सभी धर्मों और सभी संतों को परमानंद की अनुभूति ही हुई है ।
118. भक्ति के कारण प्रभु और भक्त एक हो जाते हैं, वे भिन्न नहीं रहते ।
119. प्रभु सदैव और निरंतर अपने भक्तों के साथ रहते हैं ।
120. प्रभु की भक्ति का प्रचार देवर्षि प्रभु श्री नारदजी एवं सभी ऋषियों, संतों और भक्तों ने करके अपने जीवन को धन्य किया है ।
121. प्रभु के अंग-प्रत्यंग का दर्शन करके यह लगना चाहिए कि दर्शन करने योग्य केवल मेरे प्रभु ही हैं ।
122. मंदिर में और घर की ठाकुरबाड़ी में बार-बार प्रभु के दर्शन करने की इच्छा होनी चाहिए ।
123. हमारा मन प्रभु को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी जाना ही नहीं चाहिए ।
124. तीव्र भक्ति हो तो प्रभु तक पहुँचने के लिए अन्य किसी भी साधन की जीव को कभी आवश्यकता ही नहीं होती है ।
125. भक्ति की तीव्रता को कभी भी खोना नहीं चाहिए । भक्ति में तीव्रता ही भक्ति का गौरव है ।
126. जीवन में जितने नियम प्रभु के लिए बढ़ते चले जाएंगे उतना ही हम प्रभु को प्रिय होते चले जाएंगे ।
127. प्रभु की भक्ति का अहंकार कभी नहीं होना चाहिए क्योंकि जितना रास्ता हमने भक्ति में तय किया है उससे आगे का भी रास्ता है ।
128. अपने आचार-विचार के माध्यम से अपना शरीर और मन इतना पवित्र रखना चाहिए कि हम प्रभु की अनुभूति के योग्य हो जाए ।
129. मन की बुराइयों को दूर करने का और मन को शुद्ध करने का एकमात्र साधन भक्ति है ।
130. सभी दुःखों को दूर करने का स्थाई उपाय प्रभु की भक्ति है ।
131. परमानंद की प्राप्ति केवल भक्ति ही कराती है । परमानंद से भरपूर जीवन केवल भक्ति ही देती है । ऐसी परमानंद की अवस्था में पहुँचने का निश्चित साधन केवल प्रभु की भक्ति है ।
132. अगर भक्ति होती है तो जीवन में किसी भी चीज की शिकायत नहीं रहती ।
133. भक्ति केवल जीवन में चर्चा का विषय बन कर नहीं रहना चाहिए अपितु हमारा जीवन ही भक्तिमय होना चाहिए ।
134. हमें भक्ति का प्रचार करते हुए सबको भक्ति के लिए अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए ।
135. सबको भक्ति के लिए अनुकूल करना और भक्ति के लिए प्रेरित करना भक्ति के प्रचारक का उद्देश्य होना चाहिए ।
136. हमारे द्वारा की जाने वाली चिंता प्रभु के प्रति हमारा अविश्वास दर्शाती है । इसलिए जो भक्ति करता है उसे कभी चिंताक्रांत नहीं होना चाहिए ।
137. जो शरणागत हो जाता है उसकी पूरी चिंता प्रभु करते हैं । उसे अपनी स्वयं की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
138. प्रभु की भक्ति करने वाला सदैव प्रसन्न चित्त रहता है ।
139. हमें प्रभु की कृपा और प्रभु की क्षमता के बारे में कभी भी तनिक भी आशंका नहीं होनी चाहिए ।
140. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु का अमर वाक्य है कि जीव को प्रभु पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए और कभी चिंता नहीं करनी चाहिए ।
141. भक्तों का एक ही काम होता है प्रभु की भक्ति करना ।
142. भारतवर्ष धन्य है क्योंकि भारतवर्ष के हर प्रांत में, हर संप्रदाय में प्रभु के भक्त हुए हैं । यह भारतवर्ष का गौरव है ।
143. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्ति माता को वचन दिया कि सारे संसार में वे भक्ति का प्रचार करेंगे और ऐसा नहीं कर पाए तो अपने को प्रभु का दास नहीं कहलवाएंगे । इस प्रतिज्ञा के बाद देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने अपना पूरा जीवन भक्ति माता के प्रचार में ही लगा दिया और केवल हर जगह भक्ति माता का ही प्रचार किया ।
144. भक्ति करने की योग्यता भी प्रभु कृपा से ही जीव में आती है ।
145. भक्ति के अधिकारी सभी होते हैं इसलिए जो भी चाहे वह प्रभु की भक्ति कर सकता है ।
146. भक्ति अपने आप में स्वतन्त्र और परिपूर्ण साधन है । भक्ति कभी भी अन्य किसी साधन पर निर्भर नहीं होती ।
147. केवल भक्ति ही हमारे चित्त को शान्त करके आनंदित कर सकती है । ऐसा करने के लिए अन्य कोई भी विकल्प नहीं है ।
148. भक्ति जब पराकाष्ठा तक पहुँचती है तो भक्त को प्रभु से एकाकार करा देती है और भक्त को प्रभु सानिध्य का रसास्वादन करवाती है ।
149. प्रभु अपने भक्तों पर सदैव महती कृपा बरसाते रहते हैं ।
150. जीव को जीवन में भक्ति की सदा आवश्यकता रहती है इसलिए जीव को जीवन में सदैव भक्ति करते रहना चाहिए ।
151. प्रभु श्री महादेवजी की कृपा से ही जीव को भक्ति की प्राप्ति होती है ।
152. मनुष्य जीवन की सार्थकता के लिए भक्ति की परम आवश्यकता है ।
153. सभी समृद्धि और संपत्ति प्राप्त कर ली तो भी जीवन में शांति प्राप्त नहीं होती । यह शांति केवल और केवल भक्ति से ही मिलती है ।
154. भक्ति के बिना जीवन की कोई गति ही नहीं है । सार्थक जीवन के लिए भक्ति परम अनिवार्य है ।
155. भक्ति के बिना जीवन सार्थक कभी हो ही नहीं सकता ।
156. अन्य सब कुछ उपयोगी पर अनिवार्य कुछ भी नहीं । अनिवार्य तो एकमात्र भक्ति ही है ।
157. भक्ति का कभी कोई विकल्प हो ही नहीं सकता ।
158. प्रभु की भक्ति जागृत हो गई तो जीव सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो अन्य किसी भी साधन से नहीं मिल सकता । यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी का एकमत सिद्धांत है ।
159. जीवन में प्रभु की चर्चा सदैव होती ही रहनी चाहिए ।
160. भक्तों की भक्ति के संकल्प को प्रभु स्वयं सिद्ध करते हैं ।
161. प्रभु का रूप देखने की सदैव लालसा होनी चाहिए । प्रभु के रूप में सदैव आसक्ति होनी चाहिए । सभी भक्त प्रभु की रूपासक्ति में उलझे रहते हैं ।
162. प्रभु जैसा दयालु और कृपालु जगत में अन्य कोई भी नहीं है ।
163. श्रीमद् भागवतजी महापुराण से एक ही चीज प्राप्त होती है और वह है भक्ति । जिस किसी को भी संसार में भक्ति की प्राप्ति हुई है उस पर श्रीमद् भागवतजी महापुराण का कहीं-न-कहीं प्रभाव जरूर रहा है । बिना इस श्रीग्रंथ के भक्ति मिल ही नहीं सकती ।
164. सारा सांसारिक प्रपंच करके देखने के बाद भी शांति कभी मिल नहीं सकती । शांति केवल और केवल भक्ति से ही मिल सकती है ।
165. जीवन में रस और परमानंद केवल भक्ति से ही प्राप्त हो सकता है ।
166. श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ संतों तथा ऋषियों को आकर्षित करने वाला एक ही साधन है - भक्ति ।
167. भक्ति जीवन में आनंद रस का प्रवाह बहा देती है ।
168. भक्ति किए बिना ऋषि, संत और भक्त रह ही नहीं सकते ।
169. भक्ति इतनी अदभुत है कि भक्ति का कोई विकल्प है ही नहीं ।
170. प्रभु सिंधु हैं और हम प्रभुरूपी सिंधु के बिंदु हैं ।
171. भक्त केवल प्रभु के होते हैं । भक्त प्रभु का कहलाता है, यही भक्त का एकमात्र परिचय होता है ।
172. भक्ति करने वाले जीव को प्रभु के पास जाना नहीं पड़ता, प्रभु स्वयं भक्तों के पास चलकर आ जाते हैं ।
173. प्रभु एकमात्र भक्ति के बंधन को मानते हैं ।
174. प्रभु सर्वत्र हैं पर उनको प्रकट करने के लिए और उनका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए एक ही साधन है - भक्ति ।
175. ऐसा कोई कण नहीं, ऐसा कोई क्षण नहीं जहाँ पर प्रभु नहीं हों ।
176. प्रभु एकमत से कहते हैं कि प्रभु केवल भक्ति से ही प्राप्त होने वाले हैं ।
177. भक्ति के अभाव में हमारे द्वारा किए जाने वाले सभी साधन निष्प्राण हो जाते हैं । सभी साधनों की चेतना भक्ति से ही है ।
178. प्रभु भक्ति करने वाले के पीछे-पीछे घूमते हैं ।
179. प्रभु कहते हैं कि भक्तों को मुझे बुलाना नहीं पड़ता, मैं स्वयं उनके पीछे-पीछे चला आता हूँ ।
180. प्रभु कहते हैं कि मैं भक्तों के पीछे-पीछे इसलिए चलता हूँ ताकि भक्तों के चरणों से उड़ी धूल मेरे ऊपर पड़ने से मैं पवित्र हो जाऊँ । जरा सोचें यह कौन कह रहा है । यह प्रभु कह रहें हैं जो पवित्रता की पराकाष्ठा हैं । भक्तों को इतना बड़ा मान प्रभु देते हैं ।
181. प्रभु सर्वत्र हैं और सर्वदा रहते हैं ।
182. प्रभु को जीवन में अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए ।
183. भक्ति करने से प्रभु भक्त के वश में हो जाते हैं और ऐसा करके प्रभु बहुत राजी होते हैं ।
184. श्री अर्जुनजी को प्रभु कहते हैं कि श्रीमद् भगवद् गीताजी में कही गई सब बातों को छोड़ो, केवल मेरी भक्ति का चयन करो ।
185. भक्ति ही केवल एकमात्र परिपूर्ण प्रभु प्राप्ति का मार्ग है ।
186. प्रभु सदैव यह कहने को तैयार हैं कि मैं तुम्हारा हूँ पर हम ही हैं जो ऐसा मानते नहीं ।
187. प्रभु की भक्ति का मतलब है कि अपने सभी व्यवहार को प्रभु के अनुकूल होकर करना ।
188. जो स्वयं को प्रभु के हिस्से में रखता है और प्रभु को अपने हिस्से में मानता है, ऐसा करने वाला ही सच्चा भक्त होता है ।
189. हम जहाँ भी रहें प्रभु को सदैव अपने पक्ष में रखें ।
190. जीवन में कभी भी यह कल्पना भी नहीं करनी कि हम प्रभु के बिना कभी एक पल भी रह सकते हैं । हमें प्रभु के सानिध्य के बिना रहने की कभी कल्पना तक नहीं करनी चाहिए ।
191. जिस दिन श्री अर्जुनजी ने अपने रथ की बागडोर प्रभु के श्रीहाथों में सौंपी उसी दिन युद्ध से पहले ही युद्ध का निर्णय हो गया क्योंकि प्रभु जिसके पक्ष में होते हैं विजयश्री सर्वदा उसी के पक्ष में होती है । प्रभु श्री वेदव्यासजी ने ऐसी व्याख्या श्री महाभारतजी में की है ।
192. हमारे सर्वस्व का समर्पण प्रभु के लिए होना चाहिए ।
193. जीवन का संग्राम सफलता के साथ जीतना हो और जीवन को सफल बनाना हो तो यह उसी के लिए संभव होता है जो प्रभु को अपने पक्ष में रखता है और खुद प्रभु के पक्ष में रहता है ।
194. भक्ति का लक्षण है कि संसार की आसक्ति धीरे-धीरे बिलकुल खत्म हो जाती है ।
195. भक्ति हमारे भीतर के दोषों का पूर्णतया नाश कर देती है ।
196. भक्ति संसार के रस को समाप्त कर देती है । भक्त को फिर संसार में रस नहीं आता ।
197. हमें चित्त में दृढ़ कर लेना चाहिए कि हम सिर्फ प्रभु के ही हैं ।
198. सभी शास्त्र और संत केवल भक्ति की ही बात करते हैं ।
199. जीव का प्रथम रिश्ता सिर्फ प्रभु से हो जाना चाहिए । जीव सबसे पहले सिर्फ और सिर्फ प्रभु का है ।
200. सभी संत एकमत से कहते हैं कि भक्ति ही प्रभु को पाने का सर्वोत्तम मार्ग है ।
201. भक्ति की गहराई में हमें उतरना चाहिए ।
202. प्रभु के लिए अत्यन्त प्रेम का निर्माण हमारे हृदय में होना चाहिए ।
203. प्रभु के श्रीकमलचरणों की तरफ हमारे चित्त का प्रवाह बहना चाहिए ।
204. प्रभु से कोई कार्य करवाने के लिए हम मन को प्रभु में एकाग्र करें - यह गलत । बिना किसी हेतु के मन को प्रभु में एकाग्र करना चाहिए ।
205. भक्ति का स्थान मोक्ष से भी ऊपर है ।
206. प्रभु के अनुकूल होकर ही हमें अपना जीवन जीना चाहिए ।
207. जीवन में प्रधानता सदैव प्रभु की ही होनी चाहिए ।
208. भक्ति में प्रभु से कुछ भी मांगना नहीं चाहिए ।
209. जीवन का उपयोग प्रभु को रिझाने में करना चाहिए ।
210. हमारे चित्त की वृत्ति सदैव प्रभु में लगनी चाहिए ।
211. हमें हमारे घर को प्रभु का घर मानना चाहिए और हमारी अभिलाषा होनी चाहिए कि प्रभु सुखपूर्वक उस घर में विराजें और हमारी सेवा स्वीकार करें ।
212. प्रभु हमारे दिनभर के चिंतन के केंद्र-बिंदु बने रहने चाहिए ।
213. प्रभु सेवा में केवल और केवल भाव की प्रधानता होनी चाहिए ।
214. प्रभु के लिए यह निरंतर भाव रहे कि प्रभु सिर्फ मेरे हैं और मैं सिर्फ प्रभु का ही हूँ ।
215. हमें निरंतर प्रभु की शरण में ही रहना चाहिए ।
216. सदैव यह मानना चाहिए कि प्रभु अनुग्रह से ही हमारा जीवन चल रहा है ।
217. प्रभु की कथा में प्रभु के सद्गुणों का श्रवण करने से हम प्रभु की तरफ आकर्षित होते हैं । इसलिए प्रभु के सद्गुणों का निरंतर श्रवण करते रहना चाहिए ।
218. प्रभु से परम प्रेम करना ही भक्ति है ।
219. अगर हमारे हृदय में सच्ची भक्ति का उदय होगा तो हमारे घर की ठाकुरबाड़ी में विराजे प्रभु के लिए हमारे अंदर सर्वाधिक प्रेम स्वतः ही जागृत हो जाएगा ।
220. जीवन में प्रभु के लिए तीव्र प्रेम की जागृति होनी चाहिए ।
221. भक्तों को सदैव अपना आत्म-परीक्षण करते रहना चाहिए ।
222. प्रभु का सच्चा भक्त कभी भी मूर्ति शब्द का प्रयोग नहीं करता क्योंकि वह मूर्ति के रूप में साक्षात प्रभु के ही दर्शन करता है ।
223. जब कोई भक्त प्रभु की प्रतिमा की सेवा करता है तो वहाँ भगवत् तत्व जागृत हो जाता है । इसलिए घर की ठाकुरबाड़ी में नित्य सेवा करते रहना चाहिए जिससे वहाँ भगवत् तत्व की जागृति हो जाए ।
224. घर की ठाकुरबाड़ी में समस्त तीर्थों के दर्शन करना हमें सीखना चाहिए ।
225. सबसे जरूरी है कि हम अपने घर की ठाकुरबाड़ी के श्री ठाकुरजी से प्रेम करना सीखें ।
226. अपनी भक्ति को बीच-बीच में जांचते रहना चाहिए ।
227. प्रभु के विग्रह में हमारा परम प्रेम जागृत होना चाहिए ।
228. अगर घर की ठाकुरबाड़ी में पूर्ण श्रद्धा नहीं रहेगी तो फिर कहीं भी प्रभु में पूर्ण श्रद्धा नहीं रह पाएगी ।
229. घर की ठाकुरबाड़ी में ही हमें विशेष अनुभूति होनी चाहिए ।
230. हमें देखना चाहिए कि क्या प्रभु की अनुभूति की क्षमता और कला हमने अपने अंदर विकसित की है ।
231. भगवत् साक्षात्कार केवल और केवल भक्ति से ही संभव है ।
232. घर की ठाकुरबाड़ी में प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा नहीं बल्कि भाव प्रतिष्ठा करनी चाहिए ।
233. घर की ठाकुरबाड़ी के प्रभु विग्रह को शास्त्रों ने अर्चा अवतार कहा है । यह भी प्रभु का एक अवतार माना गया है ।
234. प्रभु ने भगवती करमाबाई के लिए प्रकट होकर उनके द्वारा अर्पण प्रसाद को ग्रहण किया था । क्या आज प्रभु ने आना बंद कर दिया है या प्रसाद ग्रहण करना बंद कर दिया है । ऐसा कदापि नहीं है । प्रभु आज भी आने को तैयार हैं पर हम प्रभु को बुलाने के लिए भगवती करमाबाई जैसी भावना अपने अंदर नहीं रख पाते ।
235. ऐसा विश्वास हृदय में दृढ़ करके रखना चाहिए कि हम भी प्रभु को इस जीवन में कभी-न-कभी प्राप्त करके रहेंगे ।
236. भक्ति भाव में अखण्डता रहे तो प्रभु की अनुभूति एक-न-एक दिन जरूर होकर रहेगी ।
237. हमें सदैव प्रभु के लिए अपना भाव परिपूर्ण रखना चाहिए ।
238. प्रभु हमारे सबसे समीप के स्थान में मौजूद हैं, यानी हमारे भीतर मौजूद हैं ।
239. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने अपना पता जीव के भीतर का ही दिया है ।
240. हमें सबसे अधिक प्रेम प्रभु से ही होना चाहिए । संसार से तो प्रेम का केवल नाटक करना चाहिए पर सच्चा प्रेम केवल और केवल प्रभु से ही होना चाहिए ।
241. हमारे भीतर चेतना के रूप में प्रभु ही विराजमान हैं इसलिए प्रभु ही हमारे सबसे समीप हैं ।
242. परम प्रेम केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
243. अंतःकरण में सिर्फ प्रभु के लिए ही प्रेम होना चाहिए ।
244. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु को पाने के लिए अंतःकरण में अंतर्यात्रा की बात कही गई है । हम बाहर मंदिर जीवन भर जाते हैं पर अपने भीतर की अंतर्यात्रा कभी नहीं करते ।
245. हम मंदिर में प्रभु के पट कब खुलेंगे इसकी प्रतीक्षा करते हैं । दूसरी तरफ जब प्रभु अपने भक्त श्री ध्रुवजी के तप से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देने जाते हैं तो प्रभु भी श्री ध्रुवजी जैसे भक्त के नेत्र कब खुलेंगे इसकी प्रतीक्षा करते हुए खड़े होते हैं ।
246. हम अपनी दैनिक ऊर्जा का प्रयोग प्रभु की भक्ति में करते हैं या उसका प्रयोग सांसारिक दुनियादारी में करते हैं, यह हमें देखना चाहिए । हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी ऊर्जा का व्यय केवल प्रभु की भक्ति में ही हो ।
247. जीवन में भक्ति के आते ही प्रभु का प्राकट्य हमारे हृदय में स्वतः ही हो जाता है ।
248. भक्ति करने पर प्रभु स्वतः ही हमारे समीप आ जाएंगे जैसे कमल खिलने पर भंवरे स्वतः ही उसके निकट आ जाते हैं ।
249. प्रभु को हम जिस रूप में पूजते हैं प्रभु हमारे समक्ष उसी रूप में प्रकट होंगे । श्री ध्रुवजी ने प्रभु के चतुर्भुज रूप का ध्यान किया तो प्रभु चतुर्भुज रूप में उनके समक्ष प्रकट हुए ।
250. हमारा मन भक्ति करने पर प्रभु से एकाकार हो जाता है ।
251. भक्ति करने वाले को अंतर्यामी प्रभु भीतर ही दर्शन देते हैं ।
252. स्‍वयं प्रभु भी सदैव भक्ति की ही महिमा बताते हैं ।
253. भक्ति जीव के लिए अनिवार्य साधन है ।
254. प्रभु से अनन्यता से प्रेम करना सीखना चाहिए । इसी अनन्य होकर प्रभु से प्रेम करने का नाम भक्ति है ।
255. प्रभु में हमारा परम प्रेम का उदय होना चाहिए तभी भक्ति साकार होगी । ऐसा होना ही भक्ति का लक्षण है ।
256. सभी के अन्तःकरण में प्रभु का निवास है । प्रभु किसी एक के भीतर नहीं बल्कि सबके भीतर हैं ।
257. प्रभु का साक्षात अनुभव हमें अपने घर की ठाकुरबाड़ी में होना चाहिए ।
258. हमारा चित्त प्रभु के लिए भावना से भर जाना चाहिए ।
259. जीवन में प्रभु ही हमारी एकमात्र प्राथमिकता होने चाहिए ।
260. घर की ठाकुरबाड़ी में बैठकर सब कुछ भुलाकर हमें प्रभु की सेवा करनी चाहिए ।
261. घर की ठाकुरबाड़ी में पूजा करते वक्त पूरे संसार को प्रभु में देखना चाहिए । पूजा पूर्ण होने के बाद प्रभु को पूरे संसार में देखना चाहिए ।
262. पूरी सृष्टि में प्रभु को देखकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
263. भूले-चूके भी हमें प्रभु के अलावा अन्य कुछ भी नहीं दिखना चाहिए ।
264. हर जीव और हर पदार्थ में प्रभु का अंश देखना ही भक्ति है ।
265. सभी श्रीग्रंथों में भक्तों को सर्वोच्च माना गया है । भक्तों के ऊपर कोई भी नहीं है ।
266. प्रभु कहीं भी नहीं कहते कि मैं योगी, ज्ञानी के पीछे घूमता हूँ । पर प्रभु जगह-जगह पर कहते हैं कि मैं भक्तों के पीछे हरदम घूमता रहता हूँ ।
267. द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, लालच जीवन में आया तो भक्ति का ह्रास होगा ।
268. अवगुणों को अपने जीवन से इसलिए हटाना चाहिए क्योंकि यह अवगुण प्रभु को अच्छे नहीं लगते । प्रभु के लिए अपने जीवन के अवगुणों को हटाने पर प्रभु को बहुत प्रसन्नता होती है ।
269. जो सत्कर्म प्रभु के लिए किया और उससे यश नहीं लिया गया यानी किसी को बताया नहीं गया तो वह श्रेष्ठ सत्कर्म बन जाता है ।
270. भक्ति का एक प्रधान धर्म हमारे स्वभाव को बदलना भी है ।
271. प्रभु की भक्ति अमृत स्वरूपा है ।
272. भक्ति जीवन में जितनी-जितनी बढ़ती जाएगी, उतना-उतना जीवन में अखंड परमानंद बढ़ता जाएगा ।
273. सभी अन्य साधनों का समापन है पर भक्ति का कभी भी समापन नहीं होता क्योंकि भक्ति निरंतर चलती ही रहती है ।
274. सभी दोषों का निवारण प्रभु भक्ति से ही संभव है ।
275. भक्ति के अलावा कोई भी अन्य साधन परिपूर्ण नहीं है ।
276. अंत:करण से जो श्रद्धापूर्वक प्रभु की भक्ति करने में लगा हुआ है वही श्रेष्ठ है ।
277. प्रभु में पूर्णतया तल्लीन होने का नाम ही भक्ति है ।
278. ज्ञान, योग, कर्मकांड सबमें बंधन है एवं सबके विसर्जन का विधान है । केवल भक्ति में कोई बंधन नहीं एवं भक्ति का कभी भी विसर्जन नहीं होता ।
279. श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी से प्रभु कहते हैं कि केवल मुझसे प्रेम करो । यहाँ “केवल” शब्द बहुत महत्वपूर्ण है ।
280. भक्ति हमें प्रभु तक ले ही जाती है ।
281. प्रभु के नाम के उच्चारण का फल अद्वितीय है ।
282. भक्ति करने वाले को पहले दिन से ही आनंद मिलता है ।
283. भक्ति आनंद की यात्रा है । भक्ति आनंद का प्रसंग है ।
284. प्रभु का संकीर्तन संपूर्ण आत्मा के लिए अमृत का स्नान है ।
285. दु:खों की निवृत्ति करके भक्ति हमें परमानंद तक पहुँचा देती है ।
286. एकमात्र भक्ति से ही जीव परमानंद की प्राप्ति कर सकता है ।
287. मुक्ति के बाद भी भक्त प्रभु की भक्ति करते रहते हैं । भक्ति के रस का रसास्वादन करने के लिए मुक्ति के पश्चात भी भक्त कभी भी भक्ति का त्याग नहीं करते ।
288. जैसे कोई नदी सागर से मिल चुकी है फिर भी नई तरंगें लेकर रोजाना सागर से मिलती रहती है वैसे ही भक्त मोक्ष के बाद भी प्रभु से निरंतर मिलते रहते हैं ।
289. वैसे हम प्रभु के दास हैं और प्रभु हमारे स्वामी हैं पर भक्ति प्रभु और भक्त को एकरूप कर देती है ।
290. हम कितनी बार जन्म लेते हैं, कितनी बार स्वर्ग और नर्क जाते हैं और फिर लौटकर कितनी बार अलग-अलग योनियों में मृत्युलोक में वापस आते हैं पर अगर हम अपने जीवन में भक्ति करके प्रभु तक पहुँच जाते हैं तो फिर दोबारा संसार में आवागमन नहीं होता ।
291. प्रभु के नाम उच्चारण करने से हमारे हृदय में प्रेम और आनंद की लहर उठनी चाहिए ।
292. प्रभु के सानिध्य में जो परमानंद है वह धरती पर, स्वर्ग में या अन्य कहीं भी कभी नहीं मिल सकता ।
293. प्रभु अपने भक्तों के सामने कितनी सिद्धियां भेजते हैं पर वे भक्त सिद्धियों की तरफ ध्यान नहीं देते और प्रभु की भक्ति में ही रमते रहते हैं ।
294. प्रभु के सामने कभी भी अपनी कामनाओं को नहीं रखना चाहिए । भक्ति सदैव निष्काम होनी चाहिए ।
295. हमारी वासनाओं के कारण जीवन में अतृप्ति आती है । भक्ति की विशेषता है कि वह हमारी वासनाओं को भी जला देती है जिससे हमारे जीवन में सदैव के लिए तृप्ति आ जाती है ।
296. प्रभु की भक्ति जीवन का सबसे उत्तम लाभ है ।
297. श्री उद्धवजी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु से पूछा कि जीवन का सबसे बड़ा लाभ क्या है तो प्रभु ने कहा कि भक्ति से बड़ा जीवन का कोई भी लाभ नहीं है । प्रभु कहते हैं कि अगर जीवन में भक्ति नहीं की तो जीवन बेकार, बेकार और बेकार चला गया ।
298. भक्ति के अलावा जीवन में बाकी जो कुछ भी अर्जित किया वह सब नश्वर है यानी नष्ट हो जाने वाला है ।
299. जो तृप्ति जीवन में प्राप्त होनी है वह केवल भक्ति से ही हो सकती है ।
300. भक्ति का किया हुआ साधन कभी नष्ट नहीं हो सकता क्योंकि यह न तो बंटता है भाइयों के बीच में, न इसकी चोरी होती है किसी चोर के द्वारा । जिसने भी प्रभु की भक्ति की उस भक्ति का पूरा फल उसे ही मिलता है ।
301. भक्त के द्वारा की गई भक्ति को भक्त भूल भी जाए तो भी प्रभु उसे सदैव याद रखते हैं ।
302. प्रभु का नाम लेना हमारा काम और उस नाम को गिनना प्रभु के पार्षदों का काम । पर हम यह गलती कर बैठते हैं कि हम नाम लेकर गिनने लगते हैं कि हमने कितने नाम लिए ।
303. सच्चा परमानंद केवल भक्ति से ही आता है । दुनिया का सुख कुछ समय के बाद खत्म हो जाने वाला है पर भक्ति का परमानंद सदैव बना रहता है ।
304. महात्माओं ने जीवन में कोई भी संग्रह नहीं किया पर फिर भी वे अत्यंत परमानंद में मग्न रहते थे क्योंकि उन्होंने प्रभु की भक्ति की ।
305. भक्ति जीवन में बढ़ती जाती है तो वह परमानंद की निरंतर बढ़ती हुई अनुभूति करवाती जाती है ।
306. हमें प्रभु का प्रेमी बनकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए ।
307. हमें प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए ।
308. भक्ति से हमारा चित्त पिघलता है ।
309. भक्ति में अन्य सभी बातें भुला दी जाती हैं ।
310. भक्ति करने वाला प्रभु के अलावा अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता ।
311. भक्ति करने वाले पूर्ण रूप से इतने तृप्त हो जाते हैं कि उनकी कोई भी चाहत नहीं बचती ।
312. भक्ति के कारण संसार में हमारी भोग बुद्धि नष्ट हो जाती है ।
313. भक्त किसी प्रकार की कोई भी चिंता नहीं करता क्योंकि उसकी चिंता प्रभु करते हैं ।
314. भक्ति करने वाला भूतकाल का शोक, वर्तमान का मोह और भविष्य का भय नहीं रखता ।
315. भक्त भविष्य की चिंता प्रभु पर छोड़ देता है । उसे स्वास्थ्य की चिंता, जीवनयापन की चिंता और अन्य कोई भी चिंता नहीं रहती क्योंकि उसे प्रभु पर पूर्ण विश्वास होता है कि प्रभु उसकी सभी चिंताओं का निवारण करेंगे ।
316. भगवती मीराबाई राजमहल छोड़कर गईं तो भी उन्हें कोई चिंता नहीं थी क्योंकि उन्हें प्रभु पर पूर्ण विश्वास था । उनके एक भी भजन में किसी भी चिंता की झलक तक हमें नहीं मिलेगी ।
317. हम प्रभु के लिए कुछ छोड़ते हैं तो उसे कितनी बार दूसरों के सामने गिनाते हैं । भक्त ऐसा कभी भी नहीं करता ।
318. हमने प्रभु के लिए जो संसार छोड़ा वह कंकड़ था और जो उसके बदले भक्ति पाई वह अनमोल रत्न है ।
319. भक्त के हृदय में प्रभु के अलावा किसी भी अन्‍य चीज के लिए कोई स्थान ही नहीं होता ।
320. भक्ति का सात्विक परिणाम हमारे स्वास्थ्य और हमारे शरीर पर भी होता है । प्रभु की कृपा से ही हमारा शरीर स्वस्थ रहता है ।
321. भक्त किसी से द्वेष कर ही नहीं सकता । भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने वाला किसी से भी द्वेष नहीं करता क्योंकि उसे सबमें प्रभु के ही दर्शन होते हैं ।
322. जिसका मन प्रभु के चिंतन में रमा हुआ है वह संसार के चिंतन में कभी नहीं रमेगा ।
323. भक्त कभी सांसारिक बातों में और जिह्वा के स्वाद में नहीं रमता ।
324. भक्तों का उत्साह संसार की तरफ नहीं होता । उनके उत्साह की दिशा प्रभु की तरफ बदल जाती है ।
325. भक्तों का उत्साह प्रभु कार्यों के लिए सर्वोपरि रहता है ।
326. भक्त सारी लौकिक और सांसारिक बातों से स्वयं को काट लेता है ।
327. भक्त अकेले रहना ही ज्यादा पसंद करते हैं । संत श्री रामकृष्ण परमहंसजी जब भगवती काली माता की भक्ति के कारण इतने विख्यात हो गए तब उन्होंने माँ से कहना शुरू किया कि मेरी इस लोकप्रियता को खत्म कर दो क्योंकि इसके कारण मेरी भक्ति की एकाग्रता भंग न हो जाए इसका डर सदैव मुझे बना रहता है । भक्त कभी भी विख्यात होना नहीं चाहता ।
328. हमें हमेशा प्रभु के सानिध्य का अनुभव होना चाहिए ।
329. प्रभु की करुणा और प्रभु की दया का विचार हमें जीवन में सदैव करते रहना चाहिए ।
330. हमें भगवत् दर्शन कब होगा इसका रोजाना चिंतन करते रहना चाहिए ।
331. जीवन में जो कुछ भी प्राप्‍त करने योग्‍य है वह सब कुछ जीव को प्रभु की भक्ति से प्राप्त हो जाता है ।
332. जीवन में जितनी-जितनी भक्ति बढ़ेगी उतना-उतना संसार का एवं बाहर का रस खत्म होता जाएगा ।
333. भक्ति हमें आंतरिक रस एवं आंतरिक परमानंद प्रदान करती है ।
334. भक्त प्रभु मिलन के परमानंद का अनुभव करता है ।
335. सच्चा भक्त आत्मलीन होता है । आत्मलीनता भक्त की निशानी होती है ।
336. भक्त किसी भी चीज के लिए संसार पर निर्भर नहीं होता । वह तो केवल प्रभु पर ही निर्भर होता है ।
337. भक्त प्रभु की श्रीलीला का चिंतन करते वक्त भाव की समाधि में चला जाता है ।
338. हमें प्रभु के साथ अत्यंत प्रेम की वृत्ति जोड़कर रखनी चाहिए ।
339. हमें अपना स्थान प्रभु के श्रीकमलचरणों में रखना चाहिए और प्रभु को अपने हृदय में विराजमान करके रखना चाहिए ।
340. हमें निरंतर प्रभु के चिंतन में ही रहना चाहिए । मन को निरंतर प्रभु चिंतन में ही लगाए रखना चाहिए ।
341. भक्ति का अभ्यास जीवन भर चलते रहना चाहिए ।
342. जागृत अवस्था में भी भक्त प्रभु का चिंतन करते हुए भाव की समाधि में चला जाता है ।
343. हमारा मन जितना प्रभु का चिंतन करता है उतना ही प्रभु के सद्गुणों को ग्रहण करता जाता है । इसलिए मन को संसार के चिंतन में नहीं लगाना चाहिए अपितु मन से केवल प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए ।
344. अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए कभी भी भक्ति का उपयोग नहीं करना चाहिए । कामनाओं के साथ भक्ति का कोई संबंध नहीं होना चाहिए ।
345. कामनाओं के दलदल से हमें बाहर निकलना चाहिए और प्रभु के समक्ष सदैव निष्काम बनकर ही रहना चाहिए ।
346. भक्ति से मन के सांसारिक संकल्प-विकल्प थम जाते हैं ।
347. मन का वेग सबसे तेज होता है । आधे क्षण में मन कहीं का कहीं पहुँच जाता है । भक्ति मन के वेग को थामने का काम करती है ।
348. प्रभु में आसक्ति का नाम ही भक्ति है ।
349. भक्ति व्यापार नहीं होना चाहिए । भक्ति में प्रभु से लेने-देने का संबंध कभी नहीं होना चाहिए ।
350. भक्त सदैव प्रभु का प्रेमी होता है ।
351. हिसाब लगाए बिना व्यापार नहीं होता और हिसाब लगाकर भक्ति नहीं होती ।
352. प्रभु बार-बार श्री प्रह्लादजी से कहते हैं कि कुछ तो ले लो पर श्री प्रह्लादजी मांगते हैं कि मुझे ऐसा मन दे दें जिसमें कभी कुछ मांगने की लालसा ही न हो । सच्चा भक्त अपने मन की कामनाओं का भक्ति में विसर्जन कर देता है ।
353. भक्त प्रभु से अपनी कामनाओं का विसर्जन मांगते हैं और संसारी प्रभु से अपनी कामनाओं की पूर्ति मांगते हैं । यह कितना बड़ा फर्क है ।
354. भक्ति जीवन में जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी आरंभ कर देनी चाहिए ।
355. एक सुई की नोक पर लाखों बैक्टीरिया (जीवाणु) होते हैं । प्रभु की अदभुत रचना देखें कि इतने छोटे से जीव का भी निर्माण प्रभु ने किया है ।
356. प्रभु के प्रेम में रोजाना अतिवृद्धि होती रहनी चाहिए ।
357. प्रभु की भक्ति ही कामनाओं का शांति के साथ विसर्जन करने का एकमात्र उपाय है ।
358. भक्ति हमें सिखाती है कि प्रभु से प्रेम कैसे करना चाहिए ।
359. भक्ति सच्ची तभी है जब उसमें सकामता नहीं हो ।
360. सकाम भक्ति पहला पायदान है जबकि निष्काम भक्ति उसका शिखर है ।
361. भक्ति प्रभु से एकरूपता करवा देती है ।
362. भक्त संसार की जिम्मेदारी का धीरे-धीरे त्याग कर देता है क्योंकि उसकी रुचि उसमें खत्म हो जाती है ।
363. भक्ति हमारे मन को निर्मल कर देती है और हमारे दोषों को नष्ट कर देती है ।
364. जो आज दिन में पाप हुए वह शाम की प्रभु की पूजा में नष्ट हो जाते हैं और जो रात को पाप हुए वह सुबह की प्रभु की पूजा में नष्ट हो जाते हैं । इसलिए दोनों समय प्रभु की पूजा करना बहुत जरूरी है ।
365. प्रभु के भक्त देवताओं के ऋणी, संसार के ऋणी और पितरों के ऋणी नहीं होते । भक्त सभी ऋणों से मुक्त होते हैं ।
366. भक्ति की बात करना और श्रीमद् भागवतजी महापुराण का उल्लेख नहीं करना यह तो संभव हो ही नहीं सकता ।
367. हम कोई भी कर्म या पूजा करते हैं तो अंत में मंत्र कहलाया जाता है कि यह कर्म या यह पूजा मैंने प्रभु को अर्पण कर दिया क्योंकि यह कर्म या पूजा मैंने प्रभु की प्रसन्नता के लिए किया है । यह शास्त्र मत है कि सभी कर्म, पूजा और साधन का हेतु प्रभु की प्रसन्नता है ।
368. हमारा हर आचरण प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही होना चाहिए ।
369. शास्त्र प्रभु की वाणी हैं और प्रभु की आज्ञा हैं । जो प्रभु की आज्ञा का पालन करते हैं प्रभु की कृपा उन पर होती है ।
370. भक्तिमय बुद्धि प्रभु ही हमें देते हैं ।
371. भक्ति प्रभु को रिझाने के लिए ही करनी चाहिए ।
372. धर्म के सभी आचरणों से हमें अंत में प्रभु को ही प्रसन्न करना होता है ।
373. प्रभु के लिए भक्ति के कारण जब प्रेम इतना बढ़ जाता है तो भक्तों के लिए लौकिक कर्तव्यों की उपेक्षा होना स्वाभाविक हो जाता है ।
374. लौकिक कर्म, वैदिक कर्म तब छूट जाते हैं जब प्रभु की भक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है ।
375. श्रीमद् भगवद् गीताजी के अन्त में प्रभु ने कह दिया कि सब कर्मों और धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ यानी एक प्रभु की पूर्ण शरणागति हो जाए और सब कुछ छूट जाए यही प्रभु का आदेश है ।
376. एक प्रभु के प्रेम के अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए इतनी तैयारी जिसके जीवन में हो गई उसके लिए प्रभु के दरवाजे तत्काल खुल जाते हैं ।
377. भक्तिरस में तल्लीन होने के कारण पूजा छूट भी जाए तो भी प्रभु उसका पूरा फल दे देते हैं ।
378. भगवत् भक्ति में तल्लीन होने पर अगर कोई कर्तव्य पालन नहीं हुआ तो भी प्रभु कहते हैं कि उसका कोई दोष उस जीव को नहीं लगेगा ।
379. प्रभु ने केवल भक्ति की महिमा नहीं बताई है प्रभु ने अनन्य भक्ति की महिमा को बताया है ।
380. उत्तम भक्ति वही है जो अनन्यता से की जाए ।
381. हमारे जीवन के एकमात्र केंद्र हमारे प्रभु हो जाने चाहिए ।
382. हमें जीवन में केवल प्रभु को ही रिझाना चाहिए ।
383. मेरे आश्रय तो केवल मेरे प्रभु ही हैं यह भावना मन में होनी चाहिए और अन्य सारे आश्रयों का मन से त्याग हो जाना चाहिए ।
384. मैं केवल मेरे प्रभु का ही हूँ - यह अनन्यता हमारे जीवन में होनी चाहिए ।
385. सही अनन्यता यही है कि हम प्रभु के हर रूप में अनन्य हो जाएं । उत्तम भक्त वही है जो कहता है कि मेरे प्रभु कोई भी रूप लेकर मेरे सामने आ जाएं मैं उस रूप को स्वीकारता हूँ क्योंकि मेरी अनन्यता तो मेरे प्रभु से है जो सभी रूपों में एक ही हैं ।
386. सच्चे भक्तों को देखकर यह ध्यान में नहीं आता कि वे प्रभु के किस रूप के भक्त हैं क्योंकि वे प्रभु के सभी रूपों में अनन्य हो जाते हैं ।
387. भक्त ऐसा मानते हैं कि सभी रूपों में एक ही परमात्मा का दर्शन उन्हें होता है ।
388. प्रभु में एकरूपता देखना भक्तों का स्वभाव होता है ।
389. अनन्य वह जीव है जो सर्वत्र एक ही प्रभु को देखता है और एक प्रभु को छोड़कर किसी अन्‍य का आश्रय नहीं लेता ।
390. अपने धन, अपने प्रभाव, अपनी पहुँच का भक्त कभी भरोसा नहीं करता क्योंकि वह केवल प्रभु का ही भरोसा करता है और प्रभु का ही आश्रय लेकर जीवन जीता है ।
391. अगर कोई संसारी किसी भक्त पर उपकार भी करता है तो भी भक्त यही कहेगा कि यह मेरे प्रभु ने कराया है । वह संसारी को मात्र निमित्त मानता है और कराने वाला केवल प्रभु को ही मानता है ।
392. अपना रोना प्रभु के सामने ही रोना चाहिए, अपना कहना प्रभु से ही कहना चाहिए ।
393. प्रभु के अलावा अन्य को जीवन में आश्रय के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
394. उत्तम भक्त अपने प्रभु को इतना कोमल मानते हैं कि अपनी कामना पूर्ति का भार भी प्रभु पर नहीं डालते ।
395. प्रभु की सभी रूपों में स्तु‍ति करनी चाहिए और प्रभु से यही अनुग्रह मांगना चाहिए कि प्रभु की अनन्य भक्ति सदैव बनी रहे ।
396. स्वर्ग के देवताओं को माध्यम बनाकर प्रभु ही हम पर अनुग्रह करते हैं इसलिए अंतिम रूप से देने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
397. अपनी सारी आशाएं प्रभु से रखनी चाहिए और जीवन में अंतिम रूप से प्रभु पर ही निर्भर रहना चाहिए ।
398. प्रभु में अनन्यता का मतलब है अन्य आश्रयों का एकदम त्याग ।
399. सारे भौतिक आश्रयों का त्याग करना चाहिए । केवल प्रभु और केवल प्रभु को ही एकमात्र आश्रय के रूप में मानना चाहिए ।
400. प्रभु के बिना हमें जीवन में कुछ भी मिलता है तो वह हमें स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
401. हमारा लक्ष्य भगवत् प्राप्ति ही होना चाहिए और उसका साधन भक्ति ही होनी चाहिए ।
402. भक्ति प्रभु के लिए हमारी भावनाओं को सुदृढ़ बनाती है ।
403. भगवत् प्राप्ति के अनुकूल जो कुछ भी क्रियाएँ हैं उनका जीवन में स्वीकार और भगवत् प्राप्ति के प्रतिकूल जो भी क्रियाएँ हैं उनका जीवन में त्याग होना चाहिए ।
404. हमारे संकल्प और हमारा व्यवहार प्रभु के लिए सदैव अनुकूल होना चाहिए ।
405. प्रभु का प्रेम और प्रभु की कृपा पाने के लिए जो अनुकूल है वही जीवन में करना चाहिए ।
406. जिस आचरण से हम प्रभु को प्रिय हो जाएं वही आचरण हमें करना चाहिए ।
407. भक्त प्रभु को अपनी सेवा से वश में कर सकता है ।
408. शास्त्रों के विपरीत आचरण करके शास्त्रों का अपराध कभी भी नहीं करना चाहिए ।
409. क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसके बारे में शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण होते हैं । यह बात प्रभु ने स्वयं श्रीमद् भगवद् गीताजी में कही है ।
410. जीवन सहज ही पतनशील है । इसलिए भक्ति करके ही इसको बचाना एकमात्र उपाय है ।
411. अपने जीवन को अपवित्रता से बचाना हो तो भक्ति ही एकमात्र साधन है ।
412. आजीवन भक्ति करनी पड़ती है जैसे आजीवन हमें भोजन करना पड़ता है । एक बार भोजन कर लिया और एक महीना नहीं किया ऐसा नहीं होता । इसी प्रकार भक्ति नित्य निरंतर होती रहनी चाहिए ।
413. भक्त जीने के लिए खाता है और संसारी खाने के लिए जीता है ।
414. एकांत में रहना श्रेष्ठ है । भक्त को एकांत सेवन करना चाहिए ।
415. जितना परमानंद भक्ति में है उसकी किंचित कल्पना भी संसार के आडंबर में कतई भी नहीं की जा सकती है ।
416. वाणी का कम-से-कम प्रयोग भक्त के लिए उत्तम है ।
417. भक्ति हमारे चित्त को सदैव प्रसन्न रखती है ।
418. नित्य प्रभु की पूजा करने में खूब रस आना चाहिए । प्रभु की पूजा में अत्यंत आस्था होनी चाहिए और पूजा का कर्म हमारे द्वारा अति प्रेम से निरंतर होते रहना चाहिए ।
419. यह विश्वास होना चाहिए कि प्रभु हमारी पूजा को ग्रहण करने के लिए साक्षात पधारते हैं ।
420. स्वयं को धन्य उस दिन मानना चाहिए जिस दिन प्रभु के सगुण साकार रूप में अविचल आस्था हमारे हृदय में निर्माण हो जाए ।
421. प्रभु को रोजाना साष्टांग दंडवत प्रणाम करना चाहिए । यह एकोपचार पूजा है ।
422. पूजा कितनी लंबी-चौड़ी करते हैं उससे मतलब नहीं, मतलब है पूजा में प्रभु के लिए प्रेम, आस्था और अनुराग कितना है ।
423. प्रभु के लिए उत्सव करने में अनुराग होना चाहिए ।
424. भक्ति का अर्थ है केवल प्रभु को ही अपना मानना ।
425. भक्त अंत में प्रभु में लीन हो जाते हैं ।
426. प्रभु में अपनी आस्था सदैव दृढ़ करके रखनी चाहिए ।
427. भक्ति में स्थिरता होनी चाहिए । आज भक्ति की, कल नहीं की, ऐसा नहीं होना चाहिए ।
428. जिनका हम चिंतन करते हैं हमारा ध्यान उनकी तरफ ही जाता है । इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु का ही चिंतन होना चाहिए ।
429. प्रभु की भक्ति करनी है तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए तभी भक्ति में मन लगेगा ।
430. सांसारिक प्रपंच को कभी भी भक्ति के आड़े नहीं आने देना चाहिए ।
431. भक्ति जैसा सरल साधन अन्य कुछ भी नहीं है ।
432. भक्ति में हमारा अनुराग निर्माण होना चाहिए ।
433. भक्ति में प्रभु के लिए प्रेम और आस्था निर्माण होनी चाहिए ।
434. जीवन में भक्ति करने की ललक हमारे भीतर सदैव होनी चाहिए ।
435. भक्ति करते-करते हमारा मन प्रभु से कभी भी हटना नहीं चाहिए । इसके लिए हमें सदैव सावधान रहना चाहिए । सच्ची भक्ति होती है तो ऐसा कभी नहीं हो सकता ।
436. प्रभु की कथा श्रवण से प्रभु के लिए प्रेम निर्माण हो जाए यह भी भक्ति का एक लक्षण है । इसलिए कथा की गहराई में उतरना चाहिए और कथा में पूर्ण आस्था रखनी चाहिए ।
437. संत श्री तुकारामजी कहते थे कि प्रभु की कथा सुनते-सुनते ही प्रभु से प्रेम होगा । वे कहते थे कि प्रभु से प्रेम का अन्य कोई रास्ता है ही नहीं । कथा श्रवण किए बिना प्रभु के लिए प्रेम निर्माण हो ही नहीं सकता ।
438. प्रभु का नाम उच्चारण बड़ा सरल साधन है । नाम जप से अधिक सरल साधन कुछ भी नहीं है इसलिए सभी संतों ने इसका महत्व बतलाया है ।
439. प्रभु के लिए हृदय में प्रेम जगाना ही भक्ति है ।
440. कथा से प्रभु के प्रभाव का पता चलता है कि प्रभु कितने ऐश्वर्यवान और कितने महान हैं । जब हम कथा में सुनते हैं कि प्रभु ने बालगोपाल रूप में माता को अपने श्रीमुख में कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड के दर्शन कराए और श्री अर्जुनजी को विराट विश्वरूप दिखाया तो प्रभु कितने महान हैं यह हम समझ पाते हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभावशाली चीज हमें आकर्षित करती है इसलिए प्रभु के प्रभाव को कथा के माध्यम से जानना अति आवश्यक है ।
441. कथा से प्रभु के स्वभाव का भी पता चलता है कि प्रभु कितने दयालु, कितने कृपालु और कितने करुणामय हैं ।
442. प्रेम के कारण श्रीरामावतार के मर्यादा अवतार में भी प्रभु ने अपने नियम तोड़ दिए । प्रभु का नियम था कि प्रभु अपने स्वयं के और श्री लक्ष्मणजी के हाथों से वनवास में कंद मूल ग्रहण करते थे पर यह नियम तोड़कर प्रभु ने प्रेम के कारण भगवती शबरीजी के बेर खाए ।
443. प्रभाव में प्रभु कितने भी बड़े क्यों न हों पर स्वभाव में प्रभु एकदम कोमल हैं ।
444. प्रभु की श्रीलीला सुनते-सुनते हमें लगने लगता है कि हमारी पहुँच भी प्रभु तक हो सकती है क्योंकि अगर प्रभु ने भक्ति के कारण भगवती शबरीजी के बेर खाए तो अगर हमारे अंदर भी भक्ति जागृत हो गई तो प्रभु हमारे द्वारा लगाए भोग को भी ग्रहण करेंगे ।
445. हमारा संबंध प्रभु से क्या है यह हमें कथा बताती है । प्रभु हमसे दूर नहीं बल्कि हमारे एकदम समीप हैं यह कथा के माध्यम से हमें पता चलता है ।
446. पूरे संसार में हमारे सबसे ज्यादा समीप प्रभु ही हैं । हमारा मन भी हमसे जितना समीप नहीं है प्रभु उससे भी ज्यादा हमारे समीप हैं ।
447. प्रभु से ही हमारा अस्तित्व है । इसलिए हम प्रभु से कभी भी भिन्न नहीं हो सकते ।
448. प्रभु ही हमारे एकमात्र आधार हैं ।
449. शास्त्र इतने महान हैं कि हमने कितनी भी ऊँ‍‍ची शिक्षा क्यों न ले ली हो फिर भी शास्त्रों के सामने हम सदैव बच्चे ही रहते हैं ।
450. प्रभु को वैसे कोई भी जीत नहीं सकता पर जो प्रभु की सच्ची भक्ति करते हैं प्रभु को वे जीत लेते हैं । प्रभु का नियम है कि प्रभु सदैव अपने भक्तों से हारते हैं ।
451. प्रभु की कथा पूरी तल्लीनता से सुननी चाहिए ।
452. प्रभु की कथा का श्रवण करना भी भक्ति का एक अंग है ।
453. प्रभु के बारे में लिखने का, बोलने का अपने जीवन में अवसर मिलने पर वह हमारा बहुत बड़ा भाग्य है ऐसा मानना चाहिए ।
454. प्रभु के बारे में बोलना और लिखना भी कीर्तन भक्ति मानी गई है । इस कीर्तन भक्ति का आदर्श प्रभु श्री शुकदेवजी को माना गया है ।
455. प्रभु के बारे में लिखने में हमारा प्रेम होना चाहिए ।
456. प्रभु कथा का रसास्वादन हमें अपने जीवन में सदैव करना चाहिए । जितने भी संत हुए हैं उन सब ने प्रभु की कथा से प्रेम किया है ।
457. संत कथा से इतना प्रेम करते हैं कि वे कहते हैं कि जब तक वे जीवित रहें कथा सुनते या कहते रहें और जब जीवन में शरीर से कथा नहीं हो पाए तो उनका शरीर ही छूट जाए ।
458. प्रभु के बारे में लिखने का जितना लाभ पढ़ने वाले को होता है उतना ही लाभ लिखने वाले को होता है ।
459. कथा विद्वान, कलाकार और संत के मुँह से सुनी जा सकती है पर संत के मुँह से सुनी कथा ही हमारा सबसे ज्‍यादा कल्याण करती है ।
460. कथा सुनने वाले को कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सभी तीर्थ कथारूप में स्वतः ही चलकर वहाँ आ जाते हैं ।
461. प्रभु तो हमसे प्रेम कर ही रहे हैं पर क्या हम भी प्रभु से प्रेम करते हैं, यह हमें जांचना चाहिए ।
462. प्रभु सदैव कहते हैं कि जीव मेरा है पर क्या जीव भी कभी कहता है कि प्रभु मेरे हैं ।
463. कथा वैसे सुननी चाहिए जैसे एक माँ मेले में खोए अपने बच्चे को पाने के लिए पूरी तल्लीनता से खोया और पाया की उद्घोषणा सुनती रहती है ।
464. सभी को कथा सुनने का समान फल नहीं मिलता । जो जितनी तल्लीनता से कथा सुनता है उसे वैसा ही फल मिलता है ।
465. भगवत् प्रेम की धारा जीवन में बहना ही भक्ति है ।
466. प्रभु ही हमारे अस्तित्व के एकमात्र आधार हैं ।
467. सारे आनंदों के मूल आधार प्रभु हमारे अन्तःकरण में विराजते हैं ।
468. प्रभु केवल बाहर ही नहीं हैं वे हमारे भीतर भी हैं ।
469. हम हमारे अन्तःकरण में जहाँ प्रभु हैं वहाँ तो उन्हें देखते नहीं और खोजते नहीं और बाहर प्रभु को ढूँढ़ते रहते हैं ।
470. हमें अपने भीतर स्थित प्रभु की पूजा करनी चाहिए यानी मन में स्थित मनोमय प्रभु की पूजा करनी चाहिए । धीरे-धीरे बाहर की पूजा छूट जाए और भीतर की पूजा आरंभ हो जानी चाहिए ।
471. अपने जीवन की हर धड़कन प्रभु के नाम हो जानी चाहिए ।
472. हमारा उठना, सोना, जागना, आहार ग्रहण करना, चलना, फिरना सब कुछ प्रभु के लिए हो जाए, यही भक्ति है ।
473. भक्ति तभी भक्ति कहलाती है जब वह चौबीस घंटे होती है । इसलिए भक्ति करें तो पूरी तरह से करें ।
474. भक्ति जब होती है तो वह हमारे पूरे जीवन को ही प्रभावित करती है ।
475. जो कुछ हम कर रहे हैं वह सब कुछ प्रभु को अर्पण करना चाहिए । शरीर, मन और इंद्रियों द्वारा की जाने वाली हमारी प्रत्येक क्रिया प्रभु को अर्पण हो जानी चाहिए ।
476. शरीर, इंद्रियां, मन सभी को प्रभु के सन्मुख कर देना चाहिए ।
477. अपने अन्तःकरण को प्रभु को अर्पित करके रखना चाहिए ।
478. हमारा सब कुछ भगवत् अर्पित हो जाना चाहिए ।
479. प्रभु का विस्मरण जीवन में तनिक भी नहीं होना चाहिए । अगर ऐसा तनिक भी हो तो हमारे चित्‍त में तुरंत वेदना निर्माण हो जानी चाहिए ।
480. मैं कभी प्रभु को भूल नहीं जाऊँ यही सावधानी जीवन में सदैव रखना ही भक्ति है ।
481. जितनी शांति प्रभु के सानिध्य में मिलेगी वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकती ।
482. प्रभु हमें कब मिलेंगे यह भाव सदैव हमारे हृदय में होना चाहिए ।
483. भक्ति साकार तभी होती है जब प्रभु के लिए व्याकुलता निरंतर और स्थाई रूप से हमारे अन्तःकरण में बन जाती है ।
484. भक्त के जीवन का हर आचार-विचार केवल प्रभु के लिए ही समर्पित होता है ।
485. प्रभु के वियोग के आभास से ही जिनका अन्तःकरण व्याकुलता से भर जाता है वे ही सच्चे भक्त होते हैं ।
486. भक्ति के अनेक प्रसंगों के दर्शन हमें श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करते वक्त होते हैं ।
487. भक्ति सदैव परिपूर्ण होनी चाहिए ।
488. हमारे मन में केवल और केवल प्रभु बसने चाहिए ।
489. कोई संकल्प-विकल्प और विचार हमारे मन में प्रभु के अलावा आना ही नहीं चाहिए ।
490. प्रभु की भक्ति करते हुए इतने तल्लीन रहना चाहिए कि अन्य किसी भी चीज की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाए ।
491. प्रभु से आसक्ति युक्त प्रेम होना ही भक्ति है ।
492. हमसे परम प्रेम करने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
493. हम स्वयं से जितना प्रेम करते हैं उससे भी कहीं अधिक हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए ।
494. प्रभु के अलावा हमारा मन कहीं भी नहीं लगना चाहिए ।
495. प्रभु बंधन में केवल और केवल भक्ति से ही आते हैं ।
496. प्रभु को प्रेम बंधन में बांधने का भाग्य किसी बिरले भक्त को ही प्राप्त होता है ।
497. प्रभु सहजता से जीवों को मुक्ति बांटते हैं पर भक्ति किसी बिरले भक्त को ही देते हैं ।
498. प्रभु को बांधने वाला साधन केवल और केवल भक्ति है । अन्य किसी भी साधन से प्रभु को बांधा नहीं जा सकता ।
499. प्रभु जितना अनुग्रह भक्त पर करते हैं उतना अनुग्रह अन्य किसी पर नहीं करते ।
500. प्रभु भक्त को वैसे ही मिलते हैं जैसा भक्त चाहता है । यह भाग्य केवल भक्त का ही होता है ।
501. भक्तों को प्रभु द्वारा दिया हुआ विशेषाधिकार प्राप्त होता है ।
502. भक्त के समक्ष प्रभु अपने बड़प्पन को भूल जाते हैं ।
503. भक्ति में केवल भाव का ही साम्राज्य है ।
504. भाव से ही हम अजीत प्रभु को जीत सकते हैं ।
505. प्रभु के पास भी प्रभु से प्रेम करने वालों की बहुत कमी है ।
506. प्रभु केवल प्रेम से ही प्रभावित होते हैं ।
507. एक ही बल है जिससे प्रभु को पाया जा सकता है और वह है प्रेमबल ।
508. प्रभु को खोजने के लिए कहीं भी प्रवास करके जाने की जरूरत नहीं है । श्री ध्रुवजी को, श्री प्रह्लादजी को और आधुनिक काल में श्री रामकृष्ण परमहंसजी को जहाँ वे थे वहीं प्रभु प्रकट हुए और मिले ।
509. प्रभु के समीप जाने पर आंतरिक सुख, आनंद और परमानंद मिलता है ।
510. जीवन की कृतार्थता केवल और केवल प्रभु की भक्ति में ही है ।
511. जीवन में प्रभु के लिए प्रेम नहीं है तो वह जीवन एकदम अधूरा ही है ।
512. प्रभु भक्तों के चित्‍त को चुरा लेते हैं तभी तो प्रभु का एक नाम चित्तचोर पड़ा है ।
513. हम प्रभु को याद करने की चेष्टा करते हैं और श्रीगोपीजन प्रभु को भूलने की चेष्टा करती थीं । श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम इतना श्रेष्ठ है ।
514. श्रीगोपीजन की हर क्रिया प्रभु की प्रसन्नता के लिए होती थी । वे रसोई करती थीं, सजती थीं, हँसती थीं, रोती थीं, सब कुछ प्रभु के लिए करती थीं ।
515. श्रीगोपीजन के मन में प्रभु रमे हुए थे । अंतःकरण में वे सदैव प्रभु को ही निहारती थीं । उनकी जिह्वा पर भी सदैव प्रभु का ही नाम होता था ।
516. हमारे प्राणों के आधार केवल प्रभु होने चाहिए ।
517. प्रभु के लिए हमारे अंतःकरण में व्याकुलता होनी चाहिए ।
518. शुद्ध जीवन जीने पर भक्ति में जल्दी सफलता मिलती है ।
519. हमें कभी भावशून्य नहीं होना चाहिए नहीं तो हम भक्ति में अधूरे रह जाएंगे । भक्त का मन सदैव प्रभु के लिए भाव से भरा हुआ होना चाहिए ।
520. प्रभु की भक्ति सीखनी हो तो प्रभु श्री हनुमानजी से सीखें । प्रभु के लिए प्रेम सीखना हो तो भगवती राधा माता से सीखें ।
521. ज्ञान मार्ग, योग मार्ग और कर्म मार्ग में सबसे बड़ा भक्ति का मार्ग है ।
522. श्री उद्धवजी ने श्रीबृज में जब प्रवेश किया तो प्रवेश करते वक्त उन्होंने श्रीबृज को प्रणाम भी नहीं किया । पर कुछ महीने रुकने के बाद जब वे श्रीबृज से लौटे तो भक्ति और प्रेम से इतने लबालब भर गए थे कि वे श्रीबृज रज में लोटने लगे ।
523. प्रभु सभी की अन्‍तरात्‍मा में स्थित हैं ।
524. उत्तम ज्ञान पढ़कर नहीं आता, वह केवल प्रभु कृपा से ही आता है । जिस दिन प्रभु हमें अपनाएंगे और अपना श्रीकरकमल हमारे मस्तक पर रखेंगे उस दिन सभी शास्त्र हमारे लिए अपने आप खुल जाएंगे ।
525. श्री उद्धवजी प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि प्रभु उन्हें मुक्ति नहीं दें । प्रभु उन्हें श्रीबृज में जन्म दें और कोई बेल बना दें जिससे श्रीगोपीजन की चरणरज आते-जाते उनके ऊपर पड़े । श्रीगोपीजन के चरणों की धूल वे अपने मस्तक पर धारण करना चाहते हैं जिससे कि वे धन्य हो जाएं । प्रभु के प्रेमी श्रीगोपीजन को इतना बड़ा मान श्री उद्धवजी देते हैं ।
526. ज्ञान सबसे ऊँ‍‍ची चीज है यह श्रीगोपीजन को बताने श्री उद्धवजी आए थे और प्रभु प्रेम सबसे बड़ा है यह गुणगान करते हुए श्री उद्धवजी श्रीबृज से लौटे ।
527. सभी प्रकार के धर्म का पालन प्रभु को रिझाने के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही होता है ।
528. श्रीगोपीजन का सारा भाव केवल प्रभु के लिए ही उमड़ता था ।
529. प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही श्रीगोपीजन अपना प्रत्येक कर्म करती थी ।
530. पूरा जीवन ही भगवतमय हो जाए ऐसा संबंध प्रभु के साथ स्थापित हो जाना चाहिए ।
531. प्रभु के साथ जीव को एकरस हो जाना चाहिए ।
532. प्रभु के साथ एकरूपता का सबसे सरल साधन भक्ति है । अन्य किसी मार्ग से ऐसा होगा यह सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह केवल भक्ति से ही संभव हो सकता है ।
533. परिपूर्ण ज्ञान भी भक्ति के बिना अधूरा है ।
534. श्री उद्धवजी को प्रभु कहते हैं कि मैं सब कुछ भूल सकता हूँ पर श्रीबृज के श्रीगोपीजन को कभी नहीं भूल सकता । प्रेम प्रभु को इस कदर बांध देता है ।
535. किसी का प्रसंग चल रहा है तो उस व्यक्ति की याद आ जाए यह तो सामान्य बात है पर प्रभु को बिना किसी प्रसंग के सदैव श्रीगोपीजन की याद आती रहती थी ।
536. श्रीगोपीजन कुल की मर्यादा तोड़कर, लोक लज्जा छोड़कर प्रभु से प्रेम करती थीं । भगवती मीराबाई ने भी ऐसा ही किया ।
537. जिस प्रकार नदियां सागर में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती हैं और सागररूप हो जाती हैं वैसे ही हमें भी प्रभु से मिलकर अपना अस्तित्व भूल जाना चाहिए ।
538. प्रभु कहते हैं कि मैं कितने भी अवतार लेकर श्रीगोपीजन की सेवा करता रहूँ तो भी जो प्रेम का ऋण उन्होंने मेरे ऊपर चढ़ा दिया है उसको चुका नहीं सकता । प्रभु के द्वारा किसी के लिए कही गई इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ।
539. प्रभु भी अपने भक्तों को याद करके भावुक हो जाते हैं ।
540. भक्ति एक बहुत ऊँ‍‍ची स्थिति का नाम है ।
541. जीवन में प्रबल प्रेम केवल प्रभु के लिए ही होना चाहिए ।
542. सच्चा भक्त प्रभु से सुख लेना नहीं चाहता । वह अपने आचरण से प्रभु को सुख देना चाहता है ।
543. श्रीगोपीजन ने कभी भी प्रभु से सुख नहीं मांगा । उन्होंने प्रभु से सुख नहीं मांगा यह कहना भी गलत होगा । उन्होंने प्रभु से सुख चाहा ही नहीं यह कहना सही होगा क्‍योंकि मांगने और चाहने में भी बहुत फर्क होता है । पहले किसी चीज की चाहत होगी तभी वह मांगी जाएगी । श्रीगोपीजन को प्रभु से सुख की चाहत भी नहीं थी उल्टा वे तो सदैव अपनी प्रत्‍येक क्रिया से प्रभु को सुख देना चाहती थीं ।
544. श्रेष्ठ ऋषि, मुनि और भक्तगण ही श्रीगोपीजन के रूप में श्री कृष्णावतार में प्रभु के साथ प्रेम की लीला करने के लिए पधारे थे ।
545. प्रभु की अनुभूति में आयु का कोई महत्व नहीं होता । किसी भी आयु में प्रभु की अनुभूति होना संभव है । श्री ध्रुवजी को मात्र पांच वर्ष की अवस्था में प्रभु का साक्षात्कार हो गया ।
546. प्रभु की भक्ति का उपयोग कभी भी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए ।
547. हमारा अंतःकरण पूरी तरह इच्छा रहित और वासना शून्य हो जाना चाहिए तभी परम शांति मिलेगी । यह केवल भक्ति से ही संभव है ।
548. श्रीगोपीजन की कृपा आज भी संत चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि श्रीगोपीजन की कृपा होने पर प्रभु स्वतः ही कृपा कर देंगे ।
549. प्रभु नींद में भी श्रीगोपीजन का नाम लेते थे । यह बात भगवती रुक्मिणी माता ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को बताई थी । प्रभु प्रेम इतनी ऊँ‍‍ची अवस्था का नाम है ।
550. सच्चे भक्त के लिए प्रभु के बिना एक क्षण भी काटना असंभव हो जाता है ।
551. अपनी इच्छा का हमें विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि हमें सदैव अपने प्रभु की इच्छा का ही विचार करना चाहिए ।
552. भक्तों का सदैव यह भाव होता है कि जीवन में वही होना चाहिए जो प्रभु चाहते हैं न कि वह जो वे चाहते हैं ।
553. भक्त का प्रभु प्रेम अलौकिक होता है । प्रभु से किए जाने वाले अतुल्य प्रेम की तुलना संसार के प्रेम से कदापि की ही नहीं जा सकती ।
554. भक्त के जीवन के केंद्र में एकमात्र प्रभु ही होते हैं ।
555. भक्त सदैव अपने आपको प्रभु के उपयुक्त बनाने का प्रयत्न करता रहता है ।
556. भक्ति के साधन मार्ग में चलने पर अपने अहंकार का बलिदान करना होता है ।
557. भक्ति के साधन और सिद्धांतों को सभी संतों ने सर्वोपरि माना है ।
558. जीवन में पूर्णता की प्राप्ति के लिए भक्ति के अलावा अन्य कोई भी विकल्प नहीं है ।
559. कितना भी योग किया, कितना भी ज्ञान अर्जित किया, कितना भी कर्मकांड किया पर भक्ति नहीं की तो सब कुछ अपूर्ण रहेगा ।
560. भक्ति सभी साधनों में सर्वश्रेष्ठ साधन है ।
561. भक्ति अंतिम पुरुषार्थ है क्योंकि भक्ति के आगे कुछ भी नहीं है ।
562. भक्ति के अलावा प्रभु को प्राप्त करने के लिए कुछ भी अनिवार्य नहीं । प्रभु प्राप्ति के लिए एकमात्र भक्ति ही अनिवार्य है ।
563. जीवन में जो भी कर्म करें उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पण कर देना चाहिए ।
564. किसी भी सात्विक कर्म की पूर्ति और उसका फल भक्ति के बिना संभव नहीं है ।
565. सभी साधन मार्गों में दिक्कत आ सकती है पर अगर भक्ति साथ में है तो ही हम उन मार्गों में सफल हो पाएंगे ।
566. जो भक्ति करता है उसके भक्ति करने के निश्चय को प्रभु अपना बल प्रदान करते हैं ।
567. अहंकार जीव का अंतिम शत्रु है और उसे सभी शत्रुओं का सेनापति कहा जाता है । अहंकार से निवृत्त होने के लिए भी भक्ति अति आवश्यक है ।
568. केवल और केवल भक्ति ही हमें जीवन में कृतार्थ कर सकती है ।
569. भक्ति सबसे बड़ी और सबसे अनिवार्य साधन है ।
570. जीवन में भक्ति की महत्ता को हमें सदैव ध्यान में रखना चाहिए ।
571. भक्ति प्रभु तक पहुँचने के लिए अनिवार्य है इस तथ्य को सदा ध्यान में रखना चाहिए ।
572. भक्ति का कोई भी विकल्प नहीं है इसलिए भक्ति सबके लिए अनिवार्य साधन है ।
573. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि साधन के वृक्ष में लगने वाला अंतिम फल भक्ति है । फल सबसे अंत में आता है और फल के बाद कुछ नहीं होता ऐसे ही भक्ति के बाद कुछ भी नहीं है ।
574. भक्ति हमारे मानव जीवन में जरूर साकार होनी ही चाहिए ।
575. जो भी करना है कर लें पर अगर प्रभु को पाना है तो आखिर में भक्ति करनी ही पड़ेगी । यह परम सिद्धांत है ।
576. सगुण साकार प्रभु की भक्ति ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए ।
577. प्रभु सबके लिए समान हैं इसलिए प्रभु समान रूप से सबके लिए उपलब्ध हैं ।
578. अपने कर्म के अनुसार सबको उसका फल अवश्य मिल कर रहेगा । कोई कर्म हमने किया नहीं उसका फल हमें कभी भी भोगना नहीं पड़ेगा और जो कर्म हमने किया है उसका फल भोगे बिना हम कभी भी बच नहीं सकते ।
579. कर्म करने का जीव को अधिकार है पर उस कर्म का फल कब, कहाँ और कैसे मिलेगा यह केवल प्रभु के ही नियंत्रण में है ।
580. प्रभु भक्तों के लिए पक्षपात करते हैं ऐसा संतों का मत है क्योंकि प्रभु भक्तों को उनके किए कर्म से भी ज्यादा फल देते हैं ।
581. हमें प्रभु सदैव अपने एकमात्र आश्रय रूप में लगने चाहिए ।
582. प्रभु भक्तों को सबसे जल्दी अपनाते हैं ।
583. भक्ति का अहंकार बड़ा घातक है । इसलिए भक्ति का अहंकार कभी भी नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रभु किसी भी प्रकार के अहंकार को कभी भी पसंद या मान्य नहीं करते ।
584. रावण, हिरण्यकशिपु के बल के अहंकार को प्रभु ने चूर-चूर किया । यहाँ तक कि श्रीगोपीजन के क्षणिक समय के लिए आए प्रेम के अहंकार को भी प्रभु ने नहीं सहा और प्रभु रास के बीच से अंतर्ध्यान हो गए ।
585. प्रतिकूलता में हमारा व्यवहार प्रभु से अलग होता है और अनुकूलता के आते ही हमारा व्यवहार प्रभु से बदल जाता है । ऐसा कतई नहीं होना चाहिए ।
586. हमारा ध्यान कभी भी अपनी विशेषताओं की तरफ नहीं जाना चाहिए । हम विशेष हैं यह भाव जीवन में अगर हमारे मन में आया तो हम प्रभु से दूर हो जाएंगे ।
587. प्रभु कभी भी भक्तों के अहंकार को नहीं सह सकते । यही एक बात है जो प्रभु भक्‍त की नहीं सहते ।
588. अपने सद्गुणों का अहंकार भी कभी हमारे अंतःकरण में जागृत नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रभु इसे भी नहीं सहते ।
589. सदैव प्रभु से कहना चाहिए कि मैं अवगुणों की खान, अज्ञानी और मूढ़ हूँ ।
590. प्रभु को स्तोत्र और स्तुति अति प्रिय हैं ।
591. भक्ति करनी है तो सबसे पहले हमें अपने भीतर से अकड़ और अहंकार को निकालना चाहिए ।
592. अहंकार जिसने त्याग दिया वह प्रभु को अति प्रिय लगने लगता है ।
593. जीवन में प्रभु का सदैव प्रिय बने रहने का प्रयास करना चाहिए ।
594. मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री रामजी का किसी से भी अहंकार से किया व्यवहार पूरी श्री रामचरितमानसजी में कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा ।
595. प्रभु से भक्ति की पावन भिक्षा मांगनी चाहिए ।
596. प्रभु को विनम्रता बहुत प्रिय लगती है इसलिए भक्तों को सदैव विनम्र होना चाहिए ।
597. प्रभु को पाने की आरंभिक और अंतिम कसौटी भक्ति है ।
598. प्रभु को परमपिता कहने से और जगदंबा माँ को माता कहने से प्रभु का पितृत्व और माता का मातृत्व जागृत हो जाता है ।
599. प्रभु के जिस भी रूप को देखें उस रूप के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाना चाहिए और प्रभु के उस रूप की वंदना करनी चाहिए ।
600. प्रभु से सदैव कहना चाहिए कि मैं आपका हूँ, सिर्फ आपका ही हूँ ।
601. हम संसार के नहीं हैं, संसार के लोगों के नहीं हैं, हम केवल प्रभु के ही हैं । इसलिए सपने में भी यह विचार खत्म हो जाना चाहिए कि हम संसार के हैं ।
602. संसार सागर में डूबे बिना मनुष्य नहीं रह सकता पर जो प्रभु की शरण में आ जाता है वह संसार सागर में डूबने से बच जाता है ।
603. प्रभु की शरण में जाने पर प्रभु सदैव हमें विपत्ति से बाहर निकाल लेते हैं ।
604. हमारी पुकार सुनने पर प्रभु किसी-न-किसी रूप में हमारी सहायता किए बिना नहीं रहते ।
605. हमारी विनम्रता प्रभु को बहुत प्रभावित करती है ।
606. हमेशा छोटे बन कर रहें तो प्रभु जरूर अपना लेंगे क्योंकि प्रभु को छोटापन बहुत प्रिय है । इसलिए सच्चे संत सदैव प्रभु से मांगते हैं कि जीवन में उन्हें कभी भी बड़ा नहीं बनाएं ।
607. जीवन का सर्वोच्च फल भक्ति ही है ।
608. प्रभु के बारे में सुनने से, प्रभु के बारे में जानने से प्रभु के स्‍वभाव और प्रभाव से प्रभावित होकर हमारा प्रभु के लिए प्रेम बढ़ जाता है ।
609. भक्ति से प्रभु के लिए प्रेम बढ़ता है और प्रेम बढ़ने से प्रभु के लिए भक्ति बढ़ती है ।
610. भक्ति और प्रभु का जो शाश्वत संबंध है वह सभी संतों ने अपने जीवन में अनुभव किया है ।
611. जितना-जितना हम श्रीग्रंथों से प्रेम करेंगे उतना-उतना श्रीग्रंथ अपने आपको हमारे सामने खोलते जाएंगे । इसलिए छोटे बच्चे बनकर श्रीग्रंथ रूपी माँ की गोद में चले जाना चाहिए तभी श्रीग्रंथ अपना रहस्य हमारे समक्ष खोलेंगे ।
612. जितना-जितना जीवन में छोटा बनना सीखेंगे उतना-उतना परमार्थ में लाभ-ही-लाभ मिलता जाएगा ।
613. श्रीग्रंथ और श्लोकों को इतनी जल्दी नहीं पढ़ना चाहिए कि उनका भाव कहीं-का-कहीं छूट जाए । जीवन में प्रभु के लिए भाव जागृत करना सबसे जरूरी और सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
614. भक्ति में जितना-जितना प्रभु के बारे में सुनेंगे उतनी हमें अनुभूति होगी कि हमें प्रभु का प्रिय बनना है और संसार का प्रिय बनकर नहीं रहना है ।
615. भक्ति का कोई फल नहीं होता क्योंकि भक्ति अपने आप में ही फलरूप है ।
616. भक्ति में प्रभु के लिए भाव की प्रगाढ़ता होनी चाहिए ।
617. प्रभु के लिए भाव होना अनिवार्य है । भक्ति में प्रभु के लिए भाव का बहुत बड़ा महत्व होता है ।
618. भक्ति में प्रभु के लिए प्रेम की अनुभूति होना अति आवश्यक है ।
619. जिसकी तर्क बुद्धि नहीं होती उस पर प्रभु की कृपा जल्दी हो जाती है ।
620. प्रभु के लिए जागृत भावना के प्रवाह में भक्त सदैव बहता रहता है ।
621. जिसको अपने जीवन को सफल करने की इच्छा हो उसे जीवन में केवल और केवल भक्ति का ही आश्रय लेना चाहिए ।
622. बहुत भाग्यशाली होते हैं वे लोग जो जीवन में केवल भक्ति का ही आश्रय लेते हैं ।
623. जिन्हें केवल प्रभु की प्राप्ति करनी है उन्हें जीवन में केवल भक्ति पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।
624. अगर हम अपना कल्याण चाहते हैं तो हमें जीवन में केवल प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए ।
625. भक्ति हमारे अंतःकरण में संसार के लिए वैराग्य की जागृति कराती है ।
626. जीवन में भक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।
627. अपने कल्याण के लिए जीवन में जितनी जल्दी हो सके भक्ति का आश्रय लेना चाहिए ।
628. भक्ति को कभी भी कल के लिए नहीं टालना चाहिए ।
629. प्रभु की अनुभूति के लिए भक्ति में समय व्यतीत करना अनिवार्य है ।
630. शरीर अनित्य और अशाश्वत है इसलिए मनुष्य शरीर के सफल उपयोग के लिए भक्ति ही अनिवार्य है ।
631. सभी संत प्रभु की दिव्य भक्ति का प्रतिपादन करते हैं और जीव से प्रभु की भक्ति करने का आग्रह करते हैं ।
632. भक्ति जैसा परिपूर्ण साधन अन्य कोई भी नहीं है इसलिए देवर्षि प्रभु श्री नारदजी सबसे आग्रह करते हैं कि जीवन में केवल भक्ति को ही स्वीकार करना चाहिए ।
633. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में जीव से कहा है कि तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ और केवल मेरी भक्ति में रम जाओ ।
634. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में जीव से कहा है कि सब झंझटों को छोड़ो और केवल मेरी भक्ति करो ।
635. सब कुछ कहने के बाद अंत में प्रभु ने श्री उद्धवजी को और श्री अर्जुनजी को क्रमश: श्रीमद् भागवतजी महापुराण में और श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा कि सब कुछ छोड़ो और मेरी शरण में आ जाओ । इससे पता चलता है कि प्रभु की शरणागति जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
636. केवल भक्ति को स्वीकार करें यह प्रभु की आज्ञा, आदेश और उपदेश भी है ।
637. आधा क्षण भी जिसने अपने जीवन में भक्ति के बिना गंवाया उसने अपना बहुत बड़ा नुकसान कर लिया ।
638. जीवन में केवल संसारी प्रपंच में फंसे रहना एकदम गलत है ।
639. असंख्य लोगों में से कुछ को ही लगता है कि वे सांसारिक प्रपंच को छोड़ें, उसमें से भी कुछ ही ऐसा कर पाते हैं और उनमें से भी कुछ ही ऐसा करने पर उस समय का उपयोग प्रभु की भक्ति में करते हैं ।
640. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी जीव से कहते हैं कि तुम कुछ मत करो केवल प्रभु की भक्ति करो ।
641. न तो वेदांत, न तो योग और न ही कर्मकांड भक्ति के आगे टिकता है ।
642. भक्ति का मार्ग एकदम सरल है । आँखें मूंद कर भी जो साधक भक्ति के मार्ग पर दौड़ता है वह न तो इस मार्ग से कभी भटकता है और न ही इस मार्ग में कभी गिरता है क्योंकि उसे संभालने के लिए प्रभु सदैव तैयार रहते हैं ।
643. भक्ति में क्रिया की प्रधानता नहीं है । भक्ति में प्रधानता इस भाव की है कि मैं सिर्फ प्रभु का ही हूँ ।
644. मैं सिर्फ प्रभु का ही हूँ यह बात जीवन में स्वीकारनी सबसे जरूरी है और यही भक्ति हमें सिखाती है ।
645. भक्ति में चौबीस घंटे की यही भावना है कि मैं सिर्फ प्रभु का ही हूँ । इसी भाव का नाम ही भक्ति है ।
646. संसार के सारे बंधनों से छूटकर केवल प्रभु से बंध जाना चाहिए ।
647. जीव के लिए प्रभु प्राप्ति का सबसे सुलभ मार्ग भक्ति ही है ।
648. जो मार्ग भक्तों ने हमें दिखाया है वही भक्ति मार्ग हमारे जीवन में मार्गदर्शक बन जाना चाहिए ।
649. भक्ति का गुणगान सभी भक्तों ने किया है ।
650. भक्ति का प्रवाह हमारे अंतःकरण की गहराई से बहना चाहिए ।
651. हम पराभक्ति तक पहुँच सकते हैं । यह बहुत बड़ी और ऊँ‍‍ची स्थिति है पर हमें जीवन में यही लक्ष्य बनाना चाहिए कि हमें वहाँ तक पहुँचना है ।
652. भक्ति मार्ग पर चलना है तो संसारी विषयों पर नियंत्रण करना पड़ेगा और संसारी विषयों को त्यागना भी पड़ेगा ।
653. मन को केवल प्रभु भक्ति की ही आदत लगानी चाहिए ।
654. इंद्रियों के झरोखों से मन को विषयों की ओर दौड़ने नहीं देना चाहिए । मन को भीतर प्रभु की तरफ ही मोड़ना चाहिए ।
655. भक्ति की जागृति के लिए विषय वासना को जीवन में त्यागना अनिवार्य है ।
656. अनावश्यक चीजों को और विषय वासनाओं को जीवन से त्याग देना चाहिए तभी वह जीवन भक्ति के लिए उपयुक्त बनता है ।
657. विषयों को त्यागने के लिए और विषयों का प्रवेश अपने भीतर रोकने के लिए भी भक्ति अनिवार्य है ।
658. भक्ति जीवन में चौबीस घंटे करनी चाहिए और मृत्यु तक करनी चाहिए ।
659. कभी-कभी भक्ति की, कभी-कभी प्रभु को याद किया - यह भक्ति नहीं है । भक्ति अखंड होनी चाहिए । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है कि भक्ति अखंड रूप से करनी चाहिए ।
660. मंगलमय प्रभु की भक्ति से ही हमारा जीवन कृतार्थ होता है ।
661. सफल मानव जीवन में एकमात्र करने योग्य केवल भक्ति ही है ।
662. भक्ति के कारण जैसे-जैसे भीतर से परमानंद की अनुभूति होगी वैसे-वैसे बाहर के विषयों का सुख गौण होता चला जाएगा ।
663. भक्ति के लिए जीवन में प्रयास करते रहना चाहिए क्योंकि प्रयास करते रहने पर प्रभु एक-न-एक दिन कृपा अवश्य करेंगे और जीवन में भक्ति उस दिन फलीभूत हो जाएगी जब प्रभु कृपा करेंगे ।
664. प्रभु में मन लगाना और अपने मन को प्रभु में एकाग्र करना प्रभु कृपा से ही संभव होता है । हमें प्रयास करना चाहिए और प्रभु कृपा की प्रतीक्षा करनी चाहिए ।
665. अपने मन को सदैव प्रभु की भक्ति में ही लगे रहने दीजिए क्योंकि मन कभी निठल्ला नहीं बैठता । उसे किसी में रमना होता है इसलिए उसे भक्ति में ही रमने दीजिए ।
666. मन को अखंड भक्ति में लगाकर रखना चाहिए ।
667. प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि भक्ति कभी-कभी नहीं करनी होती है । भक्ति प्रयासपूर्वक अखंड रूप से सदैव करनी होती है ।
668. प्रभु के सद्गुणों का स्मरण और श्रवण निरंतर जीवन में करते रहना चाहिए ।
669. अभ्यास से और प्रभु प्रेम के कारण प्रभु का नाम अपनी जुबां पर सदैव चलते रहना चाहिए ।
670. जब भक्ति उच्चतम स्तर तक पहुँच जाती है तो सब नियम शांत हो जाते हैं । श्रीगोपीजन के लिए कोई नियम नहीं थे ।
671. नवधा भक्ति के द्वारा प्रभु की भिन्न-भिन्न प्रकार की भक्ति करने का प्रयास करना चाहिए ।
672. नवधा भक्ति के सभी प्रकार की भक्ति को अपने जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिए । इससे हमारी भक्ति अखंड हो जाती है ।
673. चौबीस घंटे प्रभु का नाम जप, पूजा, भजन, कीर्तन, श्रवण नहीं हो सकता पर चौबीस घंटे प्रभु का स्मरण तो जरूर हो सकता है । इसलिए चौबीस घंटे प्रभु का स्मरण जीवन में होना चाहिए । प्रभु का स्मरण भक्ति का एक बहुत श्रेष्ठ अंग है । श्रीगोपीजन ने निरंतर प्रभु स्मरण किया और इसलिए वे प्रभु को अत्यंत प्रिय हो गईं ।
674. भक्ति की किसी एक प्रकार की प्रधानता जीवन में रखनी चाहिए पर भक्ति के सभी नौ प्रकारों को जीवन में अपनाना चाहिए ।
675. प्रभु स्मरण सभी नौ प्रकार की भक्ति में जरूरी है । नवधा भक्ति में से कुछ भी करें प्रभु का स्मरण होगा ही इसलिए प्रभु स्मरण भक्ति का सबसे श्रेष्ठ प्रकार है ।
676. प्रभु के बारे में लगातार सुनते और पढ़ते रहेंगे तो जीवन में भक्ति जागृत होगी और जीवन बदलता जाएगा ।
677. पढ़ने वाले से भी सुनने वाले ज्यादा श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि पढ़ने पर तो हम एक श्रीग्रंथ एक बार में पढ़ सकते हैं पर सुनने बैठेंगे तो बहुत सारे श्रीग्रंथों का सार एक जगह पर सुनने को मिल जाता है । इसलिए श्रवण करना बहुत श्रेष्ठ क्रिया है ।
678. प्रभु कथा के श्रवण के साथ उसका मनन भी होना चाहिए । प्रभु की कथा खूब सुननी चाहिए और उसमें प्रभु के श्रीचरित्रों का खूब मनन करना चाहिए ।
679. मनन करना कथा श्रवण का एक महत्वपूर्ण अंग है । मनन के बिना कथा श्रवण पूर्ण नहीं माना जाता । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री गोकर्णजी और धुंधकारी की कथा आती है । धुंधकारी ने दिन में कथा श्रवण किया और रात को मनन किया इसलिए कथा विश्राम होने के बाद उन्हें प्रभु के धाम ले जाने के लिए प्रभु का विमान आया । जब श्री गोकर्णजी ने प्रभु के पार्षदों से पूछा कि दूसरे श्रोताओं के लिए भी विमान क्यों नहीं आया तो उन्होंने कहा कि अन्य लोगों ने केवल कथा श्रवण किया था, मनन नहीं किया ।
680. कीर्तन का अर्थ है कि प्रभु का गुणानुवाद करना फिर चाहे वह गाकर, बोलकर या लिखकर किया जाए ।
681. हमेशा सावधान होकर प्रभु कथा का श्रवण करना चाहिए तभी कथा का बाद में मनन संभव हो पाएगा ।
682. कथा सुनने में गहराई तभी आएगी जब हम प्रभु कथा सुनने के बाद उसका मनन किया करेंगे ।
683. प्रभु स्मरण मन से होना चाहिए और यह चौबीस घंटे की क्रिया होनी चाहिए ।
684. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने जीव से उसके मन और बुद्धि के अलावा कुछ भी नहीं मांगा । प्रभु को केवल हमारा मन और हमारी बुद्धि चाहिए यानी हमारा मन और हमारी बुद्धि प्रभु में लगी रहे, प्रभु केवल यही चाहते हैं ।
685. नाम स्मरण में नाम के आधार से नामी (प्रभु) का स्मरण होता है ।
686. जैसे एक माँ को विदेश पढ़ने गए हुए उसके बेटे का नाम लिए बिना उसकी याद आती है ऐसे ही लगातार प्रभु का स्मरण नाम से होता जाएगा तो एक अवस्था ऐसी आएगी कि प्रभु का नाम लिए बिना भी प्रभु की याद हमें जीवन में आती रहेगी और प्रभु का स्मरण जीवन में निरंतर होता रहेगा ।
687. प्रभु स्मरण के आधार मंत्र और नाम हैं पर एक अवस्था ऐसी आनी चाहिए जब स्मरण को मंत्र और नाम की आवश्यकता ही नहीं रहे और प्रभु का स्मरण जीवन में निरंतर चलता रहे ।
688. नाम अनेक पर नामी (प्रभु) तो एक हैं । एक नामी (प्रभु) के अनंत नाम हैं ।
689. प्रभु का सदैव भावुकता से स्मरण होना चाहिए ।
690. स्मरण भक्ति का सही अर्थ है कि नाम लिए बिना भी प्रभु स्मरण हो जाए । श्री प्रह्लादजी और श्रीगोपीजन बिना नाम लिए प्रभु का निरंतर स्मरण करते रहते थे ।
691. प्रभु की पूजा की परिचर्या जैसे कि फूल लाना, माला बनाना, भोग बनाना भी स्वयं करना चाहिए । राजा श्री अम्बरीषजी चक्रवर्ती राजा होते हुए भी किसी को अपने महल की ठाकुरबाड़ी का काम नहीं करने देते थे । वे स्वयं अपने हाथों से ठाकुरबाड़ी की झाड़ू और पोछा भी करते थे । इस तरह पूजा की सभी परिचर्या करना भी भक्ति का एक बहुत बड़ा अंग है ।
692. परिचर्या भक्ति का एक श्रेष्ठ अंग है क्योंकि इससे अहंकार घटता है और अंत में खत्म हो जाता है ।
693. प्रभु की कोई भी प्रतिमा हो उसमें धातु बुद्धि कभी नहीं होनी चाहिए । उसमें केवल प्रभु को ही देखना चाहिए ।
694. मानस पूजा एक श्रेष्ठ पूजन का प्रकार है पर यह एक बहुत ऊँ‍‍ची अवस्था है । प्रभु मानस पूजा को बहुत अधिक पसंद करते हैं ।
695. हम शरीर से जो पूजा करते हैं उसकी श्रेष्ठतम भावना मन से करना यही मानस पूजा का सही अर्थ है ।
696. मैंने प्रभु को स्वर्ण से बने और रत्नों से जड़ित सिंहासन पर विराजमान किया है । अब मैं भगवती गंगा माता के श्री गंगोत्रीजी से स्वर्ण कलश में लाए अमृत तुल्य जल से प्रभु की पूजा कर रहा हूँ और प्रभु का कोमल रेशम के वस्त्रों से श्रृंगार कर रहा हूँ और छप्पन भोग का स्‍वयं शुद्ध भोग बनाकर प्रभु को अर्पित कर रहा हूँ । ऐसी मानस पूजा करनी चाहिए और कल्पना में कभी भी कंजूस नहीं होना चाहिए ।
697. जहाँ भी प्रभु का मंदिर देखें प्रभु को प्रणाम करें । प्रभु का कोई श्रीचिह्न देखें तो व्याकुलता से गदगद होकर प्रणाम करें । श्री अक्रूरजी ने जैसे ही श्री गोकुलजी को देखा दंडवत प्रणाम करके भूमि पर लोटने लगे ।
698. भक्ति में लज्जा का त्याग करना पड़ता है । प्रभु को दंडवत प्रणाम करने में लज्जा आए कि कोई देख तो नहीं रहा तो यह भक्ति नहीं है ।
699. जितना-जितना प्रभु को दंडवत प्रणाम करेंगे उतना-उतना प्रभु हमारे वश में हो जाएंगे ।
700. प्रभु को प्रणाम करना हमारा स्वभाव ही बन जाना चाहिए ।
701. प्रभु को निरंतर प्रणाम करते रहने से जीवन में आयु, विद्या, धन, यश और बल बढ़ता है ।
702. हाथों का यही अभ्यास होना चाहिए कि वे प्रभु के सामने जाते ही जुड़ जाएं ।
703. प्रभु की भक्ति ही सभी शास्त्रों का सार है ।
704. भक्ति पूर्ण साधन है । भक्ति किसी भी अन्य साधन पर निर्भर नहीं करती क्योंकि भक्ति अकेली ही और स्वयं में ही एकमात्र परिपूर्ण है ।
705. प्रभु के साथ अपने शाश्वत संबंध का हमें नित्य भान होना चाहिए ।
706. प्रभु का स्मरण हर समय हमारे हृदय पटल पर बना रहना चाहिए ।
707. प्रभु को हम कभी भूले नहीं और हमारी बुद्धि सदैव प्रभु में स्थिर रहे, यह केवल भक्ति ही करवाती है ।
708. भक्तों को यह स्वतंत्रता होती है कि वे प्रभु से किसी भी प्रकार के संबंध का भाव अपने जीवन में निर्माण कर सकते हैं ।
709. पूर्वकाल के राजाओं ने अपने राज्य को प्रभु का माना और प्रभु के सेवक के रूप में वे राज्य का संचालन करते रहे । प्रभु सेवक के रूप में उन राजाओं ने स्वयं को देखा और प्रभु सेवक बनकर राज्य का कार्य किया । इस प्रथा की शुरुआत नंदीग्राम के उन महान संत श्री भरतलालजी ने की थी जब श्री अयोध्याजी के राज्य का संचालन उन्होंने प्रभु श्री रामजी का दास बनकर और दासभाव से किया था ।
710. प्रभु को सदैव अपना स्वामी मानना चाहिए और स्वयं को सदैव प्रभु का तुच्छ सेवक मानना चाहिए ।
711. प्रभु के मंदिर में प्रवेश करते ही हमारे हाथ जुड़ जाने चाहिए और हमारा मस्तक झुक जाना चाहिए ।
712. हृदय में अगर भक्ति की भावना होगी तो प्रभु की कृपा जीवन में हमें अवश्य प्राप्त होकर रहेगी ।
713. हमारी भक्ति की धारणा के अनुसार ही हमें जीवन में परमार्थ का फल मिलता है ।
714. भक्ति के कारण प्रभु की प्रतिमा में प्रभुत्व के भाव की पूर्ण जागृति हो जाती है ।
715. प्रभु की भक्ति में कभी भी स्वार्थ की भूमिका को नहीं आने देना चाहिए ।
716. भक्ति सदैव मन की गहराई से ही होनी चाहिए ।
717. हमारी वृत्ति सदैव प्रभु का दास बनकर रहने की ही होनी चाहिए ।
718. मानसिक पूजा और मानसिक रूप से प्रभु की सेवा का बहुत बड़ा महत्व होता है ।
719. प्रभु सेवा शरीर से करनी चाहिए और बड़ी प्रभु सेवा मन से करनी चाहिए । पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि सिर्फ मानसिक सेवा ही करें क्योंकि शरीर से भी प्रभु की सेवा होना बहुत जरूरी है ।
720. प्रभु को जो व्यवहार प्रिय है उसको अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
721. अगर घर की ठाकुरबाड़ी में प्रभु की सेवा में किसी से भी कोई कमी होती है तो हमें स्वयं को उसके लिए जिम्मेदार मानना चाहिए ।
722. जीवन में प्रभु का गुणगान सतत रूप से होना चाहिए ।
723. जीवन में ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जीवन में प्रभु का साक्षात अनुभव हमें प्राप्त हो सके ।
724. जो भी हम प्रभु के लिए करते हैं प्रभु उससे अनंत गुना हमारे लिए करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं ।
725. प्रभु की अगर भक्ति करनी है तो प्रभु जो कि सद्गुणों की पराकाष्ठा हैं उनमें से हमारे भीतर भी कुछ मात्रा में गुण होना अनिवार्य है ।
726. आत्मनिवेदन भक्ति को संतों ने भक्ति की पराकाष्ठा माना है ।
727. सर्वस्व (अपना सब कुछ) का समर्पण और फिर स्व (स्‍वयं) का भी समर्पण ही आत्मनिवेदन भक्ति है । राजा श्री बलिजी ने प्रभु से कहा था कि जो मेरे पास था वह आपने (दो श्रीकमलचरणों में) ग्रहण कर लिया अब मुझे भी (तीसरे श्रीकमलचरण में) ग्रहण कर लें, यही आत्मनिवेदन भक्ति है ।
728. शरणागत की सारी चिंता प्रभु को सदैव होती है ।
729. आत्मनिवेदन भक्ति कर जीव प्रभु में लीन होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है ।
730. अंतःकरण से और दृढ़ता के साथ सब कुछ प्रभु का मानें और स्वयं को भी प्रभु का मानें । सिर्फ कहने के लिए मत कहें कि मैं प्रभु का हूँ, अंतःकरण की दृढ़ता से ऐसा मानें ।
731. दिन भर में ऐसा एक क्षण नहीं हो जिस समय हम प्रभु से जुड़े हुए नहीं हों ।
732. नींद के समय भी भक्ति खंडित नहीं होनी चाहिए । रात्रि में हमारा अंतिम कर्म प्रभु स्मृति में शयन और सुबह जागते ही पहला कार्य प्रभु का स्मरण । ऐसा करने पर नींद में भी हमारी भक्ति खंडित नहीं होती । यह संतों का अनुभव है ।
733. जागते ही प्रभु को याद करना चाहिए । यदि जागने के बाद, सब काम के बाद में प्रभु का स्मरण हो तो यह गलत है, उठते ही सबसे पहले प्रभु का स्मरण होना चाहिए ।
734. शयन के लिए लेटने पर प्रभु का स्मरण हो और जब तक नींद ना लगे तब तक प्रभु का स्मरण होता रहे ।
735. सुबह नेत्र खुलते ही अगर प्रभु अपने आप याद आ गए तो इसका मतलब यह है कि रात्रि में निद्रा में भी प्रभु हमारे स्मरण में थे ।
736. निद्रा के आने के पहले क्षण तक प्रभु को याद करते रहें और उठते ही पहले क्षण प्रभु को याद करें तभी बीच के निद्रा के समय भी प्रभु याद रहेंगे । निद्रा में भी प्रभु को याद रखने का यह मार्ग संतों ने बताया है ।
737. भक्ति अखंड होनी चाहिए तभी वह हमारा उद्धार करेगी ।
738. जीवन में भगवत् अनुभूति प्राप्त करनी ही चाहिए तभी हमारा जीवन सफल माना जाएगा ।
739. प्रभु के लिए भक्ति का भाव जीवन में कभी भी खंडित नहीं होने देना चाहिए ।
740. भक्ति की जागृति सभी के जीवन में अवश्य हो इसका प्रयास सभी को करना चाहिए ।
741. प्रभु के सानिध्य में रहने पर जीवन में सारा-का-सारा परमानंद का वातावरण तैयार हो जाता है ।
742. भक्तिमय वातावरण जीवन में बनाकर उसके बीच जीवन जीना चाहिए ।
743. प्रभु की भक्ति से अत्यंत विलक्षण परमानंद की प्राप्ति होती है ।
744. प्रभु के सानिध्य में रहने में जो परमानंद है उसके आगे संसार का सारा सुख बहुत फीका है ।
745. अत्यंत आस्था से श्रीग्रंथों की वाणी का श्रवण करना चाहिए ।
746. प्रभु के लिए सच्ची श्रद्धा का उदय हमारे अंतःकरण में होना चाहिए । साधारण श्रद्धा सबके मन में होती है पर सच्ची श्रद्धा का उदय होना हमारे कल्याण के लिए सबसे जरूरी है ।
747. प्रभु के लिए श्रद्धा कभी भी ढीली-ढाली नहीं होनी चाहिए ।
748. भक्ति हमारे अंतःकरण में प्रभु के लिए श्रद्धा को डगमगाने नहीं देती, उसे पुष्ट करके रखती है ।
749. केवल भक्ति ही जीवन में प्रभु के लिए सच्ची श्रद्धा का निर्माण करती है ।
750. भक्ति जीव को जीवन में प्रभु की सीधी कृपा प्राप्त करवाती है ।
751. भक्ति करने वाले ऐसे महापुरुष वर्तमान में भी हुए हैं जिनको उनके आसपास के लोग भी नहीं पहचानते थे क्योंकि उन्होंने कभी भी अपनी भक्ति का प्रचार या विज्ञापन नहीं किया ।
752. सच्चे संत के लक्षण होते हैं कि वे कभी भी अपना प्रचार नहीं करते और सदैव अपने आपको गुप्त रखते हैं ।
753. संत अपने भीतर के आचार से पहचाने जाते हैं और यह आचार भक्ति के कारण ही जीवन में आते हैं ।
754. शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य को जीवन में प्रभु की कृपा प्राप्त करके ही रहना चाहिए ।
755. जीवन में प्रभु भक्ति से अधिक प्राप्त करने योग्य कुछ भी नहीं है ।
756. अखंड परमानंद सिर्फ भक्ति से ही मिल सकता है ।
757. भक्ति हमारे मनुष्य जीवन की पूर्णता के लिए अनिवार्य है ।
758. भक्ति जीव को कृतार्थ करने वाला साधन है ।
759. भक्ति को जीवन में बहुत ही सहजता से अपनाना चाहिए ।
760. माया के चक्कर में भटका हुआ जीव जब प्रभु के पास भक्ति के द्वारा जाता है तभी उसका कल्याण होता है ।
761. सभी शास्त्रों का आदेश है कि जीवन में हमें भक्ति मार्ग में ही आगे बढ़ना चाहिए ।
762. जीवन में की गई भक्ति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, यह प्रभु की घोषणा है ।
763. भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने का प्रयास हमें जीवन में सदैव करना चाहिए ।
764. जीवन में प्रभु कृपा होने पर ही भक्ति की प्राप्ति संभव है । इसलिए जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
765. हमें जीवन में प्रभु ही सदैव अति प्रिय लगने चाहिए ।
766. हमारा मन केवल प्रभु की तरफ ही झुकता रहे ऐसा प्रयास जीवन में करते रहना चाहिए ।
767. प्रभु भक्त को इतना मान देते हैं कि प्रभु कहते हैं कि मुझमें और मेरे भक्त में कोई भेद नहीं है ।
768. हमें सब कुछ प्रभु पर ही छोड़ देना चाहिए, यही शरणागति का मर्म है ।
769. सारा संसार प्रभु के श्रीहाथों में होता है पर प्रभु अपने भक्तों के वश में होते हैं ।
770. भक्तों को याद करके प्रभु का हृदय भी व्याकुल हो जाता है ।
771. भक्ति का इतना सामर्थ्य है कि प्रभु भी भक्‍त का नाम जपते हैं ।
772. संत प्रभु को याद करते हैं तो प्रभु भी संतों को याद करते हैं ।
773. भक्त प्रभु के प्रेमी होते हैं और प्रभु भी अपने भक्तों के प्रेमी होते हैं ।
774. सच्चा भक्त वही है जिसको एक प्रभु को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं चाहिए ।
775. भक्त का संपूर्ण प्रेम केवल प्रभु और प्रभु से ही होता है । भक्त का प्रेम कहीं भी बंट नहीं सकता । यही पराभक्ति का लक्षण है ।
776. भक्त का एकमात्र दृढ़ संबंध केवल प्रभु के साथ ही होता है ।
777. प्रभु के सिवा सच्चे भक्त को अन्य किसी बात का पता भी नहीं होता ।
778. भक्त अपना पूरा जीवन प्रभु के लिए ही दांव पर लगा देता है ।
779. सच्‍चा भक्त प्रभु से कहता है कि धन-दौलत और किसी को दे दें, मुझे तो केवल अपनी भक्ति और प्रेम दे दें ।
780. भक्त प्रभु से कुछ मांगता तो है ही नहीं । प्रभु जबरदस्ती देना चाहते हैं तो भी वह नहीं लेता । भक्त प्रभु से केवल भक्ति का ही दान चाहता है ।
781. भक्त अपनी भक्ति से प्रभु को वश में करके रखते हैं । ऐसा प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहा ।
782. प्रभु कहते हैं कि भक्तों को वे कभी भी, किसी भी हालत में अकेला नहीं छोड़ सकते ।
783. स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में भी सबसे ऊँ‍चा शब्द है भक्त । प्रभु कहते हैं कि भक्त मुझसे भी ऊँ‍चा है ।
784. संत प्रभु की भक्ति प्राप्त करने के लिए माता की आराधना करते हैं । गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने भगवती सीता माता को कहा कि मैं प्रभु श्री रामजी को प्रिय लगूँ ऐसी कृपा माता आप कर दें ।
785. जीवन में भक्ति लाने के लिए सत्संग जरूर करना चाहिए । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने यह बात एक जगह नहीं, बहुत जगह बहुत जोर देकर कही है कि भक्ति प्राप्त करनी हो तो जीवन में सत्संग कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए ।
786. श्री उद्धवजी ने प्रभु से पूछा कि अनेक साधनों को छोड़कर एक ऐसा साधन बता दें जो जीव को कभी नहीं छोड़ना चाहिए । प्रभु ने कहा कि सत्संग वह साधन है जो जीव को किसी भी हालत में कभी नहीं छोड़ना चाहिए ।
787. प्रभु ने राक्षसों के कुल में जन्म लेने वाले श्री विभीषणजी, श्री प्रह्लादजी, राजा श्री बलिजी का नाम लेकर बताया कि सत्संग के कारण उन सब ने प्रभु को प्राप्त किया ।
788. संत मुक्ति भी नहीं चाहते वे तो जीवन में सत्संग ही चाहते हैं ।
789. सत्संग हमारे जीवन में अंदर और बाहर दोनों की शुद्धता लाता है ।
790. भक्ति से अधिक प्रभु से कुछ भी नहीं मांगा जा सकता ।
791. केवल भक्ति के लिए जीवन में प्रयत्नपूर्वक प्रयास करना चाहिए । भक्ति हमें जीवन में प्राप्त हो इसी दिशा में हमारा प्रयास होना चाहिए ।
792. प्रभु की कृपा होगी तो ही भक्ति की प्राप्ति जीवन में हो सकती है ।
793. हमें भक्ति प्रयत्नवादी होकर करनी चाहिए, प्रारब्धवादी हो कर नहीं करनी चाहिए । प्रारब्‍ध होगा तो हम भक्ति कर पाएंगे ऐसा हमें कभी नहीं सोचना चाहिए, उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
794. भक्ति जब होगी तब करेंगे यह सोचना गलत है । भक्ति का आरम्भ जीवन में तुरंत करने के लिए प्रयास करना चाहिए ।
795. सत्संग का वेग प्रबल हो जाए तो संसार के विषयों में से जीव निकलता ही चला जाता है ।
796. भक्ति को प्राप्त करना है तो जीवन में सदैव सत्संग का संग करना चाहिए ।
797. प्रभु की भक्ति ही जीव का सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है ।
798. भक्ति अपने में फलस्वरूप है यानी भक्ति ही भक्ति का फल है ।
799. जीव प्रभु का अंश होने के कारण सत, चित और आनंद स्वरूप है पर जीव ने माया में फंसने के कारण इस तथ्य को भुला दिया है । हमारे सत, चित और आनंद स्वरूप को माया ने ढक दिया है ।
800. हम संसार में जो सुख भोगते हैं उससे हमें क्या मिला यह हमें सोचना चाहिए क्योंकि हमें उससे कोई भी आध्यात्मिक लाभ कभी नहीं मिलता है ।