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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 12

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. सत्संग का सच्चा स्वाद चख लेने वाला जीव फिर संसार की गलियों में नहीं भटकता है ।
002. सत्संग हमें आध्यात्मिक सुरक्षा प्रदान करता है ।
003. भक्तों के पास भक्ति के भाव का बल होता है ।
004. जब हमारी भक्ति पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है तो हमारी श्वास-श्वा‍स प्रभु का सिमरन करती है ।
005. संत कहते हैं कि भक्त का प्राणायाम यह होता है कि जब वह श्वास लेता है तो उस श्वास के साथ प्रभु नाम लेता है । दूसरा अर्थ यह है कि प्रभु नाम जब भी लेता है तभी वह श्वास लेता है यानी बिना प्रभु नाम के कोई श्वास नहीं लेता ।
006. प्रभु को समर्पित किए बिना जल की एक बूंद और खाने का एक दाना भी कंठ के भीतर नहीं जाए यह भक्त का प्रत्याहार होता है ।
007. हमारे मन की दृष्टि बिना इधर-उधर जाए प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगी रहनी चाहिए ।
008. जीवन का सच्चा आनंद लेना है तो शरीर से संसार के लगते रहें और हृदय से प्रभु के बन जाएं ।
009. भक्त कभी भी संसार में उलझता नहीं है ।
010. भक्त कभी भी स्वयं को संसार के सामने प्रकट नहीं करना चाहता । उसकी भक्ति प्रकट हो संसार में यह सच्चा भक्त कभी नहीं चाहता ।
011. भक्त अपने प्रभु प्रेम की नुमाइश संसार वालों के सामने नहीं करता ।
012. जीव दीन बनकर प्रभु का सेवक होकर ही संसार में सुख पा सकता है ।
013. प्रभु के श्रीकमलचरणों का दास होकर जीवन जीने पर जीव प्रभु कृपा से संसार सागर को सरलता से पार कर लेता है ।
014. जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग करने के दो विकल्प हमारे पास होते हैं । पहला, प्रभु का चिंतन और प्रभु का स्मरण करना । दूसरा, संसार के विषयों का चिंतन करना । यह हमें देखना है कि हम कौन-सा विकल्प चुनते हैं ।
015. संसार करके जीवन मात्र व्यतीत होता है जबकि भक्ति करके जीवन सच्चे मायने में जिया जाता है ।
016. भक्त अपना मन श्रीहरि से जोड़कर संसार के विषयों से तोड़ लेता है ।
017. नाम रटन जप बन जाता है, जप फिर पुकार बन जाता है और पुकार प्रभु तक तुरंत पहुँचती है ।
018. भक्तों ने अनुभव किया है कि प्रभु को पुकारने का आनंद सबसे ज्यादा है ।
019. भक्त की दौड़ सदैव और केवल प्रभु तक ही होती है ।
020. हमें अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित करना चाहिए ।
021. भक्त को कभी भी कोई संसार की तरफ नहीं ले जा पाता । संसार भक्त को कभी आकर्षित ही नहीं करता ।
022. हमारे जैसे प्रभु के पास बहुत हैं पर प्रभु जैसा हमारे पास केवल और केवल प्रभु ही हैं ।
023. अगर प्रार्थना करने के बाद भी स्थिति अनुकूल नहीं होती तो भी हमें मौन रहकर अपनी आस्था प्रभु पर पूर्ण रूप से रखनी चाहिए ।
024. प्रभु के होते हुए हमें अपनी आशा की बेल को कभी मुरझाने नहीं देना चाहिए ।
025. हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने को सदा प्रभु के श्रीकमलचरणों का दास मानना चाहिए ।
026. प्रभु अपने श्रीकमलचरणों तक अंत में हमें ले जाएंगे, इतना भरोसा भक्त अपने हृदय में सदैव रखता है ।
027. कितनी भी जीवन में पथरीली राह क्यों न हो प्रभु कभी भी साथ चलने के लिए मना नहीं करते । कठिन-से-कठिन मार्ग पर भी प्रभु साथ चलने को सदैव तैयार रहते हैं ।
028. जीव प्रभु से विमुख हो जाते हैं पर प्रभु कभी भी जीव से विमुख नहीं होते ।
029. जीवन में प्रतिकूलता हमें प्रभु मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए आती है ।
030. प्रभु जैसा भी हमारे जीवन में करना चाहें प्रसन्न मन से प्रभु को वैसा करने दें ।
031. भक्त या तो प्रभु को अपनी तरफ ले आता है या स्वयं प्रभु की तरफ चला जाता है ।
032. यदि हम सच्चे मन से प्रभु की भक्ति करना चाहते हैं तो प्रभु प्रकृति के विधान को बदल कर भी हमारे लिए मार्ग बनाते हैं । भगवती मीराबाई का विवाह सांसारिक रूप से महाराज श्री भोजराजजी के साथ हुआ पर भगवती मीराबाई ने फेरे के समय भी प्रभु की मूर्ति को अपने साथ रखा और मन में प्रभु के साथ फेरे लिए । फल यह हुआ कि उनका विवाह अपने साथ प्रभु ने मान्य किया और महाराज श्री भोजराजजी की बुद्धि को प्रभु ने ऐसी प्रेरणा दी कि महाराज श्री भोजराजजी ने मीराबाई से स्वतः ही कह दिया कि मेरे हाथ कभी भी भगवती मीराबाई को स्पर्श नहीं करेंगे । महाराज श्री भोजराजजी ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया प्रभु ने भगवती मीराबाई के लिए प्रकृति का नियम बदल दिया । भगवती मीराबाई सांसारिक पति के साथ रहीं पर पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहीं ।
033. यदि कोई सत्य में प्रभु को चाहता है तो प्रभु उसके लिए प्रकृति का विधान तक बदल देते हैं ।
034. प्रभु ने महाराज श्री भोजराजजी की बुद्धि को ऐसी प्रेरणा दी कि पत्नी होने के बावजूद उनकी नजर कभी भी भगवती मीराबाई के चरणों से ऊपर नहीं गई ।
035. प्रभु का आश्रय लेकर और प्रभु को आधार मानकर जीवन की प्रतिकूलता का स्वागत करना चाहिए ।
036. प्रतिकूलता जीवन में हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में लाकर खड़ा कर देती है ।
037. पत्थर में मूर्ति समाई हुई होती है । अनावश्यक पत्थर हट जाए तो मूर्ति प्रकट हो जाती है । वैसे ही हमारे हृदय के अनावश्यक भाव हट जाए तो प्रभु हृदयमूर्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं ।
038. अपना तन, मन और प्राण सब प्रभु को समर्पित करना चाहिए ।
039. जीव के पास एक मन होता है जिसे केवल और केवल प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए ।
040. प्रभु केवल भक्ति से नहीं बल्कि अनन्य भक्ति से ही मिलते हैं ।
041. जीवन में प्रभु के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय कभी नहीं रखना चाहिए ।
042. केवल प्रभु, केवल प्रभु और केवल प्रभु - यही अनन्य भक्ति है ।
043. प्रभु के अलावा हमारा मन किसी अन्य जगह विश्राम नहीं पा सकता ।
044. अपना मन और चित्त प्रभु के अतिरिक्त अन्य कहीं भी नहीं लगाना चाहिए ।
045. इस जीवन का अंतिम विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों में होना चाहिए ।
046. मानव जीवन तो केवल भगवत् प्राप्ति के लिए ही मिला है । इस सिद्धांत को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता ।
047. प्रभु स्वयं कहते हैं कि भगवत् प्राप्ति का मार्ग केवल भक्ति का मार्ग ही है ।
048. भक्ति से की गई प्रभु की उपासना हमारी सांसारिक कामनाओं का नाश कर देती है ।
049. भक्ति ही हमारे मन को पूर्ण रूप से निर्मल करती है ।
050. केवल भक्ति ही है जो मन को वह तृप्ति देती है जिसके लिए जीव सदैव अनंत जन्मों से लालायित रहता है ।
051. भक्त कभी भी संसार के किसी भी व्यक्ति को रिझाने का या अपना बनाने का प्रयास नहीं करता । वह केवल और केवल प्रभु को रिझाता है और प्रभु को ही अपना बनाता है ।
052. कितना तिरस्कार, कितनी वेदना, कितनी प्रतिकूलता, कितना अपमान, कितनी पीड़ा के बावजूद भी भगवती मीराबाई भक्ति के कारण सदैव आनंदित रहतीं थीं ।
053. भक्त को एक जन्म नहीं, कितने भी जन्म लेने पड़ें पर वह प्रतीक्षा सदैव प्रभु की ही जीवन में करता है ।
054. प्रभु की चाकरी अगर हम जीवन में करने लग जाए तो उसका आनंद बयान नहीं किया जा सकता ।
055. किसी भी परिस्थिति के उपस्थित होने पर अपनी प्रभु सेवा किसी दूसरे को कभी नहीं सौंपना चाहिए ।
056. प्रभु तक पहुँचने के लिए हमें केवल एक भक्ति के मार्ग को ही चुनना चाहिए ।
057. प्रभु को अपने यश से भी अधिक प्रिय अपने भक्तों का यश होता है । इसलिए प्रभु सदैव अपने भक्तों को यश प्रदान करते हैं ।
058. जैसे-जैसे हम लघु होते चले जाते हैं वैसे-वैसे वे विराट प्रभु हमारे होते चले जाते हैं ।
059. सच्चे भक्त का प्रभु को पाने का प्रयास कभी विफल नहीं हो सकता ।
060. हमें कर्म से, धर्म से, तन से, मन से, वचन से प्रभु का हो जाना चाहिए ।
061. प्रेम भाव से भरा भक्त भगवान को भी आकर्षित कर लेता है ।
062. प्रभु मीठे लगने लग जाए, भगवत् कथा मीठी लगने लग जाए तो मानना चाहिए कि हमारे भीतर भक्ति जागृत हो गई है ।
063. भक्तों के हृदय में भक्ति के कारण भगवद् भाव ठहर जाता है ।
064. जीवन की सफलता, जीवन की सार्थकता, जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल भक्ति करने में ही है ।
065. प्रभु प्रेम का अनुभव करना और उसका रसास्वादन करना प्रभु कृपा से ही संभव होता है ।
066. वाणी प्रभु प्रेम का वर्णन नहीं कर सकती । कोई श्रीग्रंथ प्रभु प्रेम को लिपित नहीं कर सकते । इसलिए प्रभु प्रेम की अभिव्यक्ति और प्रभु प्रेम को जागृत करने के लिए प्रभु भक्तों को भूमंडल पर भेजते हैं ।
067. भक्ति की अभिव्यक्ति, प्रभु प्रेम की अभिव्यक्ति बिना भक्तों के संभव नहीं है ।
068. सत्संग जीवन में मिलता रहे यह जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है ।
069. हमें अपने भक्ति भाव को शिखर पर रखने का अभ्यास करना चाहिए । इसका दूसरा अर्थ यह है कि भक्ति भाव को कभी जीवन में खंडित नहीं होने देना चाहिए, ऐसा प्रयास जीवन में होना चाहिए ।
070. भक्ति हमारे अवगुणों के और दुर्बलता के बंधन को खोल देती है ।
071. जीवन में सतत सत्संग होते रहना चाहिए । कभी सत्संग हो, कभी नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए ।
072. सत्संग के प्रवाह में बहते-बहते एक दिन हम प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँच जाएंगे ।
073. जब तक प्रभु नहीं मिल जाते तब तक भक्ति के प्रवाह में बहते चले जाना चाहिए ।
074. भक्तों के पास प्रभु प्रेम का जो वैभव होता है वह अमूल्य होता है ।
075. पग-पग पर भटकने का, बिगड़ने का अवसर जीवन में मिल जाता है पर जीवन को भक्ति के द्वारा संवारने का अवसर बहुत कम लोगों को मिलता है । इसलिए जब भी वह अवसर हमारे जीवन में आए उसे दोनों हाथों से पकड़ लेना चाहिए ।
076. संसार अनुकूल हो भी जाए तो भी प्रशंसा के दो शब्द के अलावा हमें कुछ नहीं दे सकता । प्रभु अनुकूल हो जाए तो हमें अपने श्रीकमलचरणों में स्थान दे देते हैं ।
077. प्रभु अपने भक्तों में कुछ रहने दें या न रहने दें पर अहंकार कदापि नहीं रहने देते ।
078. शुभ कर्म करने का अवसर जीवन में उपस्थित हो तो उसे तत्काल करना चाहिए ।
079. हमें संसार में उपलब्धि कर संसार को प्रसन्न करना है या हमें संसार को भुलाकर प्रभु को प्रसन्न करना है यह हमें देखना चाहिए और निर्णय करना चाहिए । भक्त सदैव संसार को भुलाकर प्रभु को प्रसन्न करने के मार्ग को ही चुनते हैं ।
080. एक मार्ग हमें संसार की तरफ ले जाएगा और एक मार्ग हमें प्रभु की तरफ ले जाएगा । दोनों मार्गों में चुनाव हमें ही करना होता है ।
081. प्रभु की तरफ जाने वाले सही मार्ग को चुनने का विवेक सत्संग हमारे भीतर जगा देता है ।
082. हम प्रभु मार्ग पर चलने लगे और चलते रहे तो प्रभु कृपा करके अपने श्रीकमलचरणों तक हमें पहुँचा देते हैं ।
083. भक्त के जीवन का उद्देश्य निश्चित होता है कि उसे इसी जन्म में प्रभु को पाना है । इसलिए संसार के अवरोध उसके ऊपर कोई परिणाम नहीं कर पाते ।
084. हमें प्रभु को पुकारते रहना है जब तक प्रभु की तरफ से उत्तर न आए ।
085. जो सच्चा भक्त है वह प्रतिकूलता में भी प्रभु की कृपा को सदैव पहचान जाता है ।
086. अगर हम भजन मार्ग पर हैं तो प्रतिकूलता हमारे जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों के प्रति हमारा प्रेम निर्माण कराने के लिए आती है ।
087. कुम्हार के चाक पर चढ़ने के बाद मिट्टी को जो ठोकर मारी जाती है वह उसकी आकृति निर्माण करने के लिए मारी जाती है । वैसे ही भक्ति के चाक पर चढ़ने के बाद भक्त को जो प्रतिकूलता की ठोकर मारी जाती है वह उसके हृदय में प्रभु से प्रीति निर्माण कराने के लिए मारी जाती है ।
088. सच्ची भक्ति होगी तो प्रतिकूलता में हम कभी आहत नहीं होंगे, कभी टूटेंगे नहीं ।
089. एक बालक अपनी माँ के साथ मेले में जाता है तो भीड़ ज्यादा होने पर वह अपनी माँ का हाथ कसकर पकड़ लेता है । वैसे ही जब प्रतिकूलता की भीड़ आती है तो भक्त प्रभु के श्रीहाथ को कसकर पकड़ लेता है । तात्पर्य यह है कि प्रतिकूलता इसलिए आई कि हम प्रभु के श्रीहाथ को कसकर पकड़ लें ।
090. भक्ति और भजन कोई सूरमा ही कर सकता है । कामी, क्रोधी, लोभी से कभी भक्ति नहीं हो सकती ।
091. भक्त की जाति, कुल, वर्ण कुछ भी नहीं होता । उसकी एकमात्र पहचान यह होती है कि वह केवल प्रभु का भक्त होता है ।
092. पात्र उल्टा हो तो वर्षा के बरसने पर भी वह भरेगा नहीं । इसी प्रकार जो जीव प्रभु के सन्मुख नहीं बल्कि विमुख है प्रभु की कृपा उस पर सदैव बरस रही है फिर भी वह उससे लाभान्वित नहीं हो पाएगा ।
093. एक संत का भाव है कि कोई एक प्रतिशत भक्ति भी प्रभु के पास लेकर आता है तो पचास प्रतिशत प्रभु अपनी कृपा से उसे दे देते हैं । इस तरह इक्यावन प्रतिशत हो जाता है और बहुमत के कारण प्रभु की कंपनी उसकी हो जाती है । पर प्रभु की कंपनी अपनी करने के लिए सर्वप्रथम एक प्रतिशत हमारा प्रयास परम आवश्यक है ।
094. भक्त अपने प्रभु से खूब बातें करते हैं और प्रभु भी सच्चे भक्त के हृदय में प्रकट होकर उसका उत्तर देते हैं ।
095. पूर्ण या अपूर्ण कोई भी भाव हो पर जीवन में प्रभु का भजन निरंतर करते रहना चाहिए । ऐसा करते-करते अपूर्ण भाव से अपने आप एक दिन प्रभु के लिए पूर्ण भाव बन जाएगा ।
096. अपूर्ण भाव से भी आरंभ करेंगे तो भी करते-करते एक दिन वह अपने आप पूर्ण भाव हो जाएगा और उस पूर्ण भाव से हम भक्ति करने योग्य बन जाएंगे ।
097. भजन का साधन भी भजन है । प्रभु स्मरण का साधन भी प्रभु स्मरण करना है ।
098. भक्ति का साधन भी भक्ति करना ही है ।
099. प्रभु सर्वसमर्थ हैं और परम स्वतंत्र हैं ।
100. हमारे जैसे प्रभु के पास कई हैं पर प्रभु जैसा हमारे पास सिर्फ एक प्रभु ही हैं ।
101. अपने आपको प्रभु का सबसे छोटा भक्त मानना चाहिए ।
102. सच्चा भक्त सदैव भक्ति के योग्य बनने का प्रयास करता है । सच्चा भक्त कभी यह नहीं कहता कि मैं भक्त बन चुका हूँ ।
103. प्रभु भक्तों के चरित्र के माध्यम से भक्ति का मार्ग हमारे लिए बनाकर भेजते हैं और आशा करते हैं कि हम उस मार्ग पर चलें ।
104. हम भक्ति भाव से प्रभु के निकट आ जाएं तो प्रभु हमसे मिलने के लिए तत्पर रहते हैं ।
105. भक्ति का मार्ग बिलकुल सीधा-सीधा है ।
106. भक्ति मार्ग हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों तक ले जाता है । जहाँ भक्ति मार्ग का विश्राम है वहाँ प्रभु के श्रीकमलचरण होंगे ही, यह पक्का है ।
107. जब धरती तपती है तो मेघ बरसते हैं । वैसे ही जब भक्ति में भक्त तपता है तो उसके जीवन में प्रभु प्रेम बरसता है ।
108. भक्त हुए बिना भक्ति के भाव को कोई नहीं जान सकता ।
109. संत कहते हैं कि भक्तों का सांचा अलग ही होता है जिसमें ढालकर प्रभु भक्तों को संसार में भेजते हैं ।
110. भक्त के लक्षण ही संसारी से विलग होते हैं ।
111. भक्ति का संबंध तन से भी कहीं अधिक मन से होता है ।
112. भक्तों के हृदय में भक्ति के कारण अभूतपूर्व आनंद होता है ।
113. प्रभु के लिए रोने में भी बहुत सुख है । कोई सौभाग्यशाली ही होता है जिसकी आँखें प्रभु के लिए रोती हैं ।
114. न जाने कितने जन्मों का पुण्य संचित होता है तब प्रभु के लिए प्रीति हमारे हृदय में निर्माण होती है ।
115. हमें प्रभु के लिए प्रेम भाव के शिखर तक पहुँचना चाहिए ।
116. जन्मों के सौभाग्य के बाद वह घड़ी आती है जब हम भक्ति के कारण अपनी आँखों से निकले प्रेम जल से प्रभु के श्रीकमलचरणों का अभिषेक करने योग्य बन जाते हैं ।
117. संसार के लिए रोने वाले बहुत मिलेंगे पर प्रभु के प्रेम में प्रभु के लिए रोने वाला कोई बिरला ही मिलेगा ।
118. भक्ति बढ़ती चली जाएगी तो संसार छूटता चला जाएगा ।
119. प्रभु को अपने निज यश से अधिक अपने भक्तों का यश प्यारा होता है । इसलिए प्रभु अपने भक्तों को सदैव यश प्रदान करते हैं ।
120. भगवती मीराबाई ने अपने सांसारिक पति महाराज श्री भोजराजजी के अंतिम समय में अपनी दृष्टि से जब उन्हें देखा तो महाराज श्री भोजराजजी ने अनुभव किया मानो भगवती मीराबाई की दृष्टि से प्रभु ने ही उन्हें देखा हो । संत सूत्र बताते हैं कि भक्तों की दृष्टि से भगवान देखते हैं ।
121. जीवन में भक्ति बड़ी अदभुत सहनशीलता और धैर्य प्रदान करती है । भगवती मीराबाई के जीवन में यह तथ्य स्पष्ट देखने को मिलता है ।
122. भक्ति हमारे अवगुणों से हमें मुक्ति दिलाती है और सद्गुणों का विकास हमारे भीतर करती चली जाती है ।
123. प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति सदैव हमारे हृदय में होनी चाहिए ।
124. आहार, निद्रा और मैथुन जो हम करते हैं वह एक पशु भी करता है । केवल एक प्रभु भजन ही है जो प्रभु कृपा से केवल मनुष्य ही कर सकता है, पशु नहीं कर सकता ।
125. सच्चे भक्तों के हृदय कुंज में प्रभु के अतिरिक्त अन्य कोई भी आ ही नहीं सकता ।
126. भक्त अपना मन संसार से हटाकर प्रभु से जोड़ लेता है ।
127. भक्त सच्ची प्रीति संसार से नहीं करके प्रभु से करता है ।
128. भक्ति जीवन में निर्भयता ला देती है क्योंकि हम प्रभु की छत्रछाया में आ जाते हैं ।
129. भक्त का भाव होता है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में उसने अपना सिर अगर रख दिया तो हमेशा के लिए रख दिया, फिर वह सिर वहाँ से कभी नहीं उठाता ।
130. भक्ति के अलावा प्रभु तक पहुँचने का अन्य कोई सुगम साधन नहीं है ।
131. कुछ भी जीवन में कर लें पर अंत में जब भक्ति हमारे जीवन में होगी तभी बात बनेगी और प्रभु मिलेंगे । यह सत्य सिद्धांत है कि प्रभु मिलेंगे तो भक्ति से ही मिलेंगे ।
132. जब भगवती मीराबाई के महल में भूखा शेर राजा विक्रम ने भेजा और दासियाँ चिल्लाते हुए भगवती मीराबाई के पास आईं तो भगवती मीराबाई ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि उनके द्वार पर प्रभु के अलावा कोई नहीं आ सकता । उनको भूखे शेर के रूप में भी प्रभु श्री नृसिंहजी ही दिखे ।
133. अगर हमारे अंदर भक्ति है और प्रभु के लिए समर्पण है तो प्रभु कोई भी निषेध कर्म हमसे नहीं होने देंगे ।
134. प्रभु अपने भक्त को कभी भी विपरीत या गलत मार्ग पर नहीं जाने देते ।
135. भक्त जीवन में केवल प्रभु के भरोसे ही रहता है ।
136. अनिष्ट और अशुभ होने का भय कभी भक्त अपने हृदय में नहीं रखता क्योंकि उसे प्रभु पर अटूट विश्वास जो होता है ।
137. भय से मुक्ति का केवल एक ही मार्ग है कि भक्ति करके प्रभु पर अटूट विश्वास हृदय में दृढ़ करके रखना ।
138. हम कितना प्रयास करते हैं कि संसार को लगे कि हम भक्त हैं और श्रेष्ठ हैं पर सच्चा भक्त ऐसा कोई प्रयास कदापि नहीं करता ।
139. जो सच्चा भक्त होता है उसे संसार से अपने को भक्त कहलवाने की अपेक्षा नहीं होती ।
140. एक हजार साधन भी भक्ति के अभाव में प्रभु प्रेम हमारे हृदय में प्रकट नहीं कर सकते ।
141. एक हजार पर्दे भी भक्ति होने पर प्रभु प्रेम को छिपा नहीं सकते ।
142. अगर हम भक्त बन जाएंगे तो प्रकृति सहयोग करने के लिए दौड़ी चली आएगी जैसे फूल खिलता है तो हवा दौड़कर उसकी सुगंध का प्रसार स्वतः ही करने आ जाती है ।
143. जब भगवती मीराबाई को दासियों ने समझाया कि राणाजी रूठ जाएंगे तो देश निकाला दे दिया जाएगा तो भगवती मीराबाई बोलीं कि मैं दूसरे देश चली जाऊँगी पर प्रभु रूठ गए तो मैं तीनों लोकों में कहीं जाने लायक नहीं रहूंगी ।
144. प्रभु निर्मल दर्पण जैसे हैं । जो जैसा भाव लेकर प्रभु तक आता है वैसा ही भाव प्रभु से पा लेता है ।
145. संत कहते हैं कि प्रभु की भक्ति करके देखें जीवन जीने में बड़ा आनंद आएगा ।
146. प्रभु का आश्रय जीवन में है तो ही हम जीवन जीने का सच्चा आनंद ले सकते हैं ।
147. प्रभु से निष्कपट प्रीति होनी चाहिए । उस प्रीति के पीछे कोई स्वार्थ या कपट नहीं होना चाहिए ।
148. भक्ति प्रभु को प्रेम डोर से बांधने वाला साधन है ।
149. भक्त भक्ति के द्वारा परम स्वतंत्र प्रभु को भी अपने वश में कर लेता है ।
150. भक्ति करने का अवसर प्रभु सबको नहीं देते, कुछ बिरलों को ही देते हैं जो प्रभु प्राप्ति की इच्छा अपने हृदय में रखते हैं । प्रभु सबको धन, वैभव, परिवार देते हैं पर भक्ति कुछ बिरलों को ही देते हैं ।
151. संसार के दृष्टिकोण से जीवन की दिशा कुछ और होती है पर आध्यात्म के दृष्टिकोण से जीवन की दिशा प्रभु के श्रीकमलचरणों की तरफ होती है ।
152. संसार और आध्यात्म के दृष्टिकोण की दिशाएं बिल्कुल विपरीत हैं ।
153. संत कहते हैं कि उस सुख के माथे पत्थर पड़े जो प्रभु का नाम ही हृदय से भुला देता है और उस दुःख की बलिहारी है जो पल-पल प्रभु का नाम रटा देता है ।
154. जीव का स्वभाव है कि बहुत अनुकूलता में उससे प्रभु का भजन नहीं होता ।
155. बहुत अधिक सुख सुविधा में हम प्रभु को भूल जाते हैं ।
156. जो भक्ति प्रभु को चाहिए वह संसार को नहीं चाहिए । इसलिए संसार के लिए कभी भी अपनी भक्ति को छोड़ना नहीं चाहिए ।
157. संसार को आपका तन चाहिए और धन चाहिए । प्रभु ने ऐसी व्यवस्था की है कि संसार को आपका मन नहीं चाहिए पर प्रभु को न आपका तन चाहिए, न धन चाहिए, केवल आपका मन चाहिए ।
158. जब तक आशा की डोर संसार से बंधी रहेगी तब तक हमारी आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है ।
159. इस मिथ्या भाव का हमें तत्काल त्याग कर देना चाहिए कि संसार में हमसे कोई सच्चा प्रेम करता है । संसार का प्रेम सच्चा प्रेम नहीं बल्कि स्वार्थ का प्रेम है । सच्चा और निस्वार्थ प्रेम तो हमसे केवल प्रभु ही करते हैं ।
160. भक्त संसार को भक्ति सिखाने के लिए प्रभु द्वारा भेजे जाते हैं ।
161. अगर हम ईमानदारी से भक्ति मार्ग पर चलते जाएंगे तो प्रभु हर पल हमारी सहायता करेंगे ।
162. प्रकृति को देखकर कभी नहीं कहना चाहिए कि ऐसा होता तो ठीक होता । यह प्रभु के विधान को देखने की दोष दृष्टि हो जाती है जो कि एक पातक है ।
163. प्रतिकूलता को जीवन में सहर्ष स्वीकार करना चाहिए ।
164. मंदिर में प्रभु की मूर्ति के समक्ष खड़ा व्यक्ति भी उस समय अपने मन से प्रभु के सन्मुख नहीं हो पाता ।
165. प्रभु को बाहर खोजेंगे तो निश्चित भटकेंगे-ही-भटकेंगे । प्रभु को अपने भीतर खोजने पर ही हम प्रभु को पा सकेंगे ।
166. प्रभु को मन से तब तक पुकारते रहना चाहिए जब तक प्रभु मन में उत्तर नहीं देते ।
167. जिस पर प्रभु की कृपा होती है उसे कोई भी मिटा नहीं सकता ।
168. जिसको प्रभु प्रिय नहीं हो वह संसारी आपसे कितना भी स्नेह करने वाला क्यों न हो उसका मन से त्याग कर देना चाहिए ।
169. जो हमारे भजन में सहायक नहीं या जो हमारे भजन में बाधक बन रहा है चाहे वह कोई भी हमारा प्रेमीजन क्यों न हो उसका उसी समय मन से त्याग कर देना चाहिए ।
170. भक्त का जीवन कैसा होना चाहिए यह भक्त जीवन जीकर संसार को बताकर जाते हैं ।
171. भक्त की एक-एक चेष्टा केवल प्रभु के लिए ही होती है ।
172. जीवन में प्रभु से ही सर्वोपरि प्रेम करना चाहिए और प्रभु का ही सर्वोपरि आदर होना चाहिए ।
173. यह भावना हममें दृढ़ हो जानी चाहिए कि मैं मेरे प्रभु का ही हूँ और मेरे प्रभु ही केवल मेरे हैं ।
174. भक्त जो भी अपनी भक्ति का भाव प्रभु को निवेदन करता है प्रभु उस भाव को सहर्ष स्वीकार करते हैं ।
175. प्रभु से मांगना न आए तो मौन रहना चाहिए क्योंकि प्रभु को पता है कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है और हमें क्या देना हमारे हित में है ।
176. प्रभु से भूलकर भी संसार कभी नहीं मांगना चाहिए ।
177. प्रभु से अगर हमने संसार मांग लिया और प्रभु ने हमें संसार दे दिया तो हम उस संसार में उलझकर रह जाएंगे और उससे मुक्ति पाना लगभग असंभव हो जाएगा ।
178. भक्ति द्वारा प्रभु से मिलन के बाद संसार में कोई लौटकर नहीं आया ।
179. यह शाश्वत सत्य है कि जब तक हमारा मन प्रभु को अर्पण नहीं होगा तब तक मन संसार में लगता रहेगा और हमारे पुनरपि जन्म-मरण का अंत नहीं होगा ।
180. प्रभु की प्रतीक्षा में मन कभी भी थकना नहीं चाहिए । प्रभु की प्रतीक्षा में मन सदा उत्साहित रहना चाहिए ।
181. हमारी भक्ति थोड़े समय के बाद प्रभु प्राप्ति के लिए हमारी तड़प बन जाती है ।
182. अपने भक्तों के प्रति किसी का भी अपराध प्रभु कभी भी सहन नहीं करते ।
183. प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्वयं को अर्पण करके रखना चाहिए और पल-पल प्रतीक्षा करनी चाहिए उस घड़ी की जब प्रभु हमें स्वीकार कर लें ।
184. भक्ति के बाद संसार की गली में भक्त के लिए लौट आना असंभव होता है ।
185. प्रभु अपने भक्तों से इतना प्रेम करते हैं कि अपने भक्तों की प्रेम भरी उलाहना भी बड़े चाव से सुनते हैं ।
186. भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान चाहता है पर करुणामय प्रभु अपने भक्तों को अपने श्रीकमलचरणों में नहीं बल्कि अपने हृदय में स्थान देते हैं ।
187. प्रभु भक्ति में भक्त को रुलाते तो हैं पर भक्त के एक-एक आंसू की अपने प्रेम से कीमत देना भी जानते हैं ।
188. जीवन के सौभाग्य का उदय तब होता है जब जीवन में हम भक्ति करते हैं ।
189. सभी के लिए प्रभु कृपा की अलग-अलग कसौटी होती है । किसी के लिए धन पाना प्रभु कृपा है, किसी के लिए प्रतिष्ठा पाना प्रभु कृपा है पर प्रभु की सच्ची कृपा शास्त्र और संत के अनुसार भक्ति मिलना है ।
190. मनुष्य की कितनी बड़ी भूल है कि जो प्रभु हमारे सबसे सम्मुख हैं उन्हें वह मनुष्य देख नहीं पाता ।
191. प्रभु हमें तभी दिखेंगे जब हम अपने भीतर की आँखों को खोलेंगे ।
192. भीतर की आँखें सद्गुरुदेव और सत्संग की कृपा से ही खुलती हैं ।
193. मनुष्य जीवन इतना दुर्लभ है कि देवतागण भी इसे पाने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह उनके लिए भी अति दुर्लभ है ।
194. मनुष्य जीवन की कई विशेषताएं हैं । मनुष्य जीवन मोक्ष रूपी साधन का द्वार है । मनुष्य जीवन पाकर जीव अपने परलोक को संवार सकता है ।
195. प्रभु कृपा की जीवन में एकमात्र कसौटी यही है कि हमारे जीवन में भक्ति है या नहीं ।
196. जो प्रभु ने लिख दिया उससे न रत्ती-भर बढ़कर हमें मिलता है और न ही तिल-भर घटकर हमें मिलता है ।
197. प्रभु अपने भक्तों के जीवन में आनंद भेजने में कभी चूक नहीं करते ।
198. भक्ति प्राप्त करना जन्मों-जन्मों की कमाई के फलस्वरूप ही होता है ।
199. प्रभु जीव पर अहेतु की कृपा करते हैं यानी बिना कारण देखे कृपा करते हैं । अगर प्रभु कारण देखकर कृपा करें तो जीव अनंत काल तक भी प्रभु कृपा पाने का पात्र नहीं बन सकता । इसलिए प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु जीव पर अकारण ही कृपा करते हैं ।
200. जीव स्वभाव से इतना दुष्ट है कि जीव संसार में आकर सब कुछ करता है पर प्रभु का भजन नहीं करता ।
201. जीवन में पूरा प्रयास करके अपने मन को प्रभु की भक्ति में लगाना चाहिए ।
202. जन्मों से हमारा मन संसार में लगा हुआ है इसलिए संसार में हमारे मन को लगने का पूरा अभ्यास है । अब इस अभ्यास से विपरीत प्रयास करके उस मन को हमें प्रभु में लगाना होगा ।
203. सबको एक-न-एक दिन संसार का कटु अनुभव सहना ही पड़ता है ।
204. जब तक जीवन में भक्ति नहीं आएगी तब तक हम प्रभु से संसार ही मांगते रहेंगे । भक्ति आने पर ही हम प्रभु से प्रभु को मांगेंगे ।
205. संसार के सुख से ऊपर उठकर हमें भक्ति जागृत करके भक्ति का भाव प्रभु को निवेदन करना चाहिए ।
206. जीव का जीवन छोटा-सा होता है और उसमें भी जीव का अल्प सामर्थ्य होता है । इसलिए भक्ति के अलावा प्रभु तक पहुँचने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
207. प्रभु अपने स्वभाव से ही कृपा करने वाले हैं ।
208. भक्तों ने कभी भी प्रभु से याचना की है तो केवल भक्ति की ही की है ।
209. भक्तों ने सदैव प्रभु से यही मांगा है कि इतनी कृपा प्रभु की उस पर हो कि वह जीवन में सतत भक्ति करता रहें ।
210. जिसने जीवन में भक्ति का आश्रय ले लिया है उसका एक-न-एक दिन कल्याण होकर ही रहेगा ।
211. हमारे जीवन का कोई तो उद्देश्य होना चाहिए । मानव जीवन हमें आहार, निद्रा और मैथुन के लिए नहीं मिला है । मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य प्रभु प्राप्ति ही है ।
212. हम जन्मों से भटक रहे हैं पर हम प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाएं हैं । यह मानव जीवन भी इसी तरह हमें बेकार नहीं करना चाहिए और इसमें प्रभु को प्राप्त करना चाहिए ।
213. संसार में सुख की प्राप्ति के लिए जीव जन्म से अंत तक प्रयास करता रहता है पर प्रभु प्राप्ति के लिए वह जीवन में कतई प्रयास नहीं करता ।
214. प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचने का मार्ग भक्ति हमें देती है ।
215. सत्संग हमें प्रभु के निकट जाने का एक सुंदर अवसर प्रदान करता है ।
216. भक्ति ही मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए ।
217. हमें प्रभु को भूलने का रोग हो गया है और इस विस्मरण के कारण ही हमें संसार के दुःख और क्लेश को भोगना पड़ रहा है ।
218. प्रभु का वह कृपा पात्र जीव बहुत भाग्यवान होता है जिसके जीवन में प्रभु का संग करने की लालसा जग जाती है ।
219. संसार में कितने ही लोग ऐसे हैं जिनका मन विचार ही नहीं कर पाता कि जीवन में उन्हें प्रभु को प्राप्त करना है ।
220. प्रभु हमारे जीवन की सबसे पहली प्राथमिकता बन जाने चाहिए ।
221. भक्ति में जो परमानंद है वह कहीं भी नहीं है ।
222. भक्ति और भगवान का जिन शब्दों में वर्णन हो वही शब्द हमें सुनने चाहिए ।
223. सत्संग का कौन-सा शब्द हमारे अंतःकरण में चोट कर देगा और हमारी दशा और दिशा दोनों बदल जाएगी ।
224. कभी भी जीवन की वृत्ति संसार से हटकर प्रभु की तरफ जाएगी तो वह केवल भक्ति के कारण ही जाएगी ।
225. जीवन में परिवर्तन भक्ति के कारण ही आएगा और भक्ति प्रभु कृपा से ही हमें मिलेगी ।
226. जीवन में जीव में भजन का संस्कार दुर्लभ से भी दुर्लभ मिलता है ।
227. सत्संग हमारे भक्ति के भाव का पोषण करता है ।
228. भक्ति हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों की प्राप्ति करवा कर ही रहती है ।
229. भक्ति करने से हमारा कल्याण निश्चित होता है ।
230. सत्संग वही जो विषय छुड़ाए और श्रीहरि का नाम जपाए ।
231. भक्ति हमारे जीवन में आती है तो प्रभु की स्मृति हमारे हृदय में अंकित कर देती है । फिर जीवन में प्रभु की याद सदैव आने लगती है ।
232. भक्ति संसार का विस्मरण कराती है और प्रभु की स्मृति हमारे हृदय पटल पर अंकित कर देती है ।
233. हमें अपने जीवन की गति और दिशा को प्रभु की तरफ मोड़ देना चाहिए ।
234. सभी श्रीग्रंथ, ऋषि, संत, भक्त और पंथ एक बात सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि मानव जीवन का उद्देश्य प्रभु प्राप्ति है जिसके लिए भक्ति अनिवार्य है ।
235. एक बात तो अकाट्य सत्य है कि अनंत जन्मों में भटकने के बाद जीव को विश्राम केवल भक्ति से ही मिलता है ।
236. भक्ति शब्द भगवान से जुड़ा हुआ है । इसलिए भक्ति केवल और केवल भगवान की ही होती है ।
237. भगवान के अलावा अन्य किसी का आदर हो सकता है पर भक्ति केवल और केवल भगवान की ही होती है ।
238. प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कहते हैं कि वे भक्ति से नहीं केवल भक्ति से ही प्राप्त होते हैं । यहाँ "केवल" शब्द बहुत महत्वपूर्ण है ।
239. भक्त हर अवस्था में प्रभु की सेवा में रहना चाहता है ।
240. भक्ति हमारे हृदय में संसार के प्रति उपेक्षा का भाव जगा देती है और फिर हमें संसार नहीं बल्कि प्रभु अच्छे लगने लगते हैं ।
241. प्रभु तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग भक्ति का है जिसका प्रतिपादन प्रभु स्वयं नवधा भक्ति बताकर करते हैं ।
242. भक्ति मार्ग बताकर प्रभु ने अपने तक पहुँचने का मानो सीधा-सीधा रास्ता बता दिया है ।
243. सौभाग्यशाली व्यक्ति ही भक्ति करके अपने जीवन का एक क्षण जीता है वरना भक्ति नहीं करने वाले व्यक्ति तो मात्र जीवन काट रहे हैं ।
244. अपनी एक-एक श्वास को प्रभु के श्रीकमलचरणों के स्मरण में न्यौछावर कर देना चाहिए ।
245. जीवन में प्रभु के निकट जाने की चाह होनी चाहिए ।
246. अनंत-अनंत जन्मों से संसार में भटकते हुए जीव को कहाँ सुध आती है कि इस जन्म में तो उसे प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
247. जब भक्ति करने की लालसा जीवन में जगे तो पक्का मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा दृष्टि हम पर पड़ गई है ।
248. श्रीगिरधर को पाना है तो हमें मीराबाई बनना पड़ेगा ।
249. जीवन में जीव सभी पुरुषार्थ कर सकता है पर अपने मन, चित्त को संसार से हटाकर प्रभु की तरफ ले जाए यह पुरुषार्थ जीव के वश में नहीं है । यह प्रभु कृपा से ही संभव होती है ।
250. भक्ति के मार्ग का कोई विकल्प ही नहीं है ।
251. श्रीगोपी हुए बिना प्रभु के प्रेम का आस्वादन कर पाना असंभव है । श्रीगोपी हुए बिना प्रभु का प्रेम पात्र बनना असंभव है ।
252. हम जिस स्थिति में हैं, जैसे भी हैं उसी स्थिति से भक्ति का आरंभ कर सकते हैं ।
253. प्रभु को अपना प्रेम भाव निवेदन करने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए और ऐसे प्रेम भाव व्यक्त करने में कभी अपने मन को दरिद्र नहीं बनाना चाहिए ।
254. हम प्रभु को अपना प्रेम भाव निवेदन करने में शिथिल पड़ जाते हैं ।
255. सत्संग हमें प्रभु की कृपा को धारण करने की पात्रता प्रदान करता है । प्रभु की कृपा तो सदैव बरसती रहती है पर ग्रहण करने का हमारा पात्र ही उल्टा पड़ा है । सत्संग हमारे उस उल्टे पात्र को सुलटा कर देता है ।
256. प्रभु से संसार की व्यर्थ की याचना नहीं करनी चाहिए । याचना प्रभु से हो तो केवल भक्ति की ही होनी चाहिए ।
257. भक्ति हम अपने पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं कर सकते । यह केवल प्रभु कृपा से ही मिलती है पर उस कृपा को प्राप्त करने के लिए हमें पात्र बनना पड़ता है ।
258. प्रभु से प्रभु की भक्ति, प्रभु का सुमिरन और प्रभु का सत्संग ही मांगना चाहिए ।
259. प्रभु से अपनापन का और आत्मीयता का रिश्ता होना चाहिए ।
260. भक्ति वह साधन है जहाँ श्री ठाकुरजी अपनी ठकुराई को भूल जाते हैं और ठकुराई को छोड़कर भक्तों के साथ रम जाते हैं ।
261. जीवन में जो भी मिले उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवेदन कर देना चाहिए ।
262. संसारिक विषय भोग सदैव जीव का पतन ही कराते है ।
263. प्रभु के दर्शन से हमारे भीतर पवित्रता का भाव जगता है ।
264. संत कहते हैं कि प्रभु अपने भक्तों के लिए सीधा-सीधा पक्षपात करते हैं ।
265. भक्तों के चरित्र में हमें देखने को मिलता है कि प्रभु सीधा-सीधा अपने भक्तों का पक्ष लेते हैं पर यह केवल भक्ति के कारण ही संभव होता है ।
266. प्रभु भक्तों के लिए पक्षपात करते हैं इसका जीवंत उदाहरण ऋषि श्री दुर्वासाजी के प्रसंग में देखने को मिलता है । श्री रामचरितमानसजी में प्रभु कहते हैं कि कोटि-कोटि विप्र की हत्या करके भी जो प्रभु की शरण में आता है उसे भी प्रभु कभी नहीं त्यागते । यह प्रभु का व्रत है । फिर ऋषि श्री दुर्वासाजी ने तो विप्र की हत्या भी नहीं की बस केवल एक भक्त राजा श्री अम्बरीषजी का अपराध किया था । पर प्रभु ने अपने व्रत को तोड़ते हुए उन्हें शरण नहीं दी । प्रभु ने अपने प्यारे भक्त राजा श्री अम्बरीषजी का पक्ष लिया और ऋषि श्री दुर्वासाजी से साफ कह दिया कि प्रभु अपने भक्त के पराधीन हैं । प्रभु ने कहा कि प्रभु अपना अपराध सह सकते हैं पर अपने भक्तों का अपराध नहीं सहते । प्रभु भूल गए कि प्रभु शरणागतवत्सल है और कोटि-कोटि विप्र की हत्या का अपराध करने वाले को भी शरण देते हैं । प्रभु यहाँ सीधे-सीधे भक्त और भक्ति के लिए पक्षपात करते हैं ।
267. भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि है । ज्ञान, कर्म, योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत, पूजा कोई भी साधन हो पर भक्ति के सन्मुख सभी गौण हैं ।
268. विश्राम है तो भक्ति में ही है और भक्ति से ही है ।
269. भक्ति माता की कृपा और अनुग्रह से ही जीव प्रभु को प्राप्त कर पाता है ।
270. संत कहते हैं कि सबसे सुंदर दर्शन श्री वृंदावनजी में प्रभु का उस समय होता है जब मंगला में बिना श्रृंगार, बिना आभूषण के केवल एक झीने-से वस्त्र में प्रभु दर्शन देते हैं । सूत्र यह है कि श्रृंगार और आभूषण को प्रभु शोभा प्रदान करते हैं । श्रृंगार और आभूषण प्रभु को शोभा प्रदान करने की क्षमता नहीं रखते ।
271. संत कहते हैं कि वस्त्र और आभूषण तो प्रभु के रोम-रोम से छलकने वाले सौंदर्य को छिपाने के लिए धारण कराए जाते हैं कि कहीं प्रभु को नजर नहीं लगे । प्रभु के श्रीअंग पर किसी की दृष्टि न पड़ जाए इसलिए प्रभु को वस्त्र, उपवस्त्र और आभूषण धारण करवाए जाते हैं । संतों का कितना सुंदर और अदभुत भाव है प्रभु के श्रृंगार के पीछे ।
272. प्रभु का श्रृंगार करने से हमारे मन के विकार अवश्य दूर होते हैं ।
273. ज्ञान और कर्मकांड वाले साधक का पतन हो सकता है पर भक्तों का कभी पतन नहीं होता क्योंकि प्रभु कभी उनका पतन होने नहीं देते ।
274. ज्ञान निष्फल हो सकता है, कर्म निष्फल हो सकता है पर भक्ति कभी भी निष्फल नहीं हो सकती ।
275. भक्ति का उत्तर प्रभु को देना ही पड़ता है ।
276. प्रभु सब कुछ करने में सर्वसमर्थ हैं पर अपने भक्तों को बिसारने में असमर्थ हैं । भक्ति की कितनी बड़ी महिमा है ।
277. प्रभु कहते हैं कि वे अपने भक्तों के भक्त हैं ।
278. भक्तों द्वारा की हुई प्रभु की भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती ।
279. प्रभु के निकट जाने से सरल इस संसार में कुछ भी नहीं है पर केवल भक्ति ही यह कराने में सक्षम है ।
280. भक्ति का मार्ग एकदम सीधा-सीधा है इसलिए इसमें कोई भी साधक सरलता से चल सकता है ।
281. संसार मन को चंचल करता है । भक्ति मन को प्रभु में एकाग्र करती है ।
282. मन की चंचलता मन का मेल है और मन की एकाग्रता ही मन की निर्मलता है ।
283. संत कहते हैं कि एक प्रभु में ही हमारी निष्ठा होनी चाहिए यानी हमें प्रभु में एकनिष्ठ हो जाना चाहिए ।
284. जो योग से नहीं होगा, जो तप से नहीं होगा, जो अन्य साधनों से भी नहीं होगा वह केवल और केवल भक्ति से ही संभव होगा ।
285. वे नादान हैं जिन्होंने दुनिया में आकर सब कुछ देखा और मौज-मस्ती की पर दुनिया में आकर प्रभु की भक्ति करने का सुअवसर चूक गए ।
286. प्रभु के एक-एक श्रीअंग के रूप की मानसिक परिक्रमा करनी चाहिए ।
287. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपने मन को सदैव के लिए निवेदन कर देना चाहिए ।
288. जिस दिन श्री ठाकुरजी के रूप में हमारा मन उलझ गया उसी दिन हमारे जीवन के सब बंधन सुलझ जाएंगे ।
289. प्रभु से प्रिय हमारे जीवन में न पहले कोई होना चाहिए और न आगे ही कोई होना चाहिए ।
290. जीव के मन को मोहने का सामर्थ्य केवल मनमोहन प्रभु में ही है ।
291. एक घड़ी में कब भक्ति के कारण अपरिचित प्रभु का पूर्ण परिचय हमें प्राप्त हो जाता है यह हमें पता भी नहीं चलता । भक्ति के कारण अपरिचित प्रभु से हमारा पूर्ण परिचय हो जाता है ।
292. संसार के सुख और भोग की सामग्री प्रभु की भक्ति आने पर कब छूट जाती है यह हमें पता भी नहीं चलता ।
293. हमारा मन कभी संसार की इस डाली पर बैठकर फल चखता है कभी उस डाली पर बैठकर फल चखने का प्रयास करता है । कभी किसी संबंध, वस्तु या व्यक्ति से सुख पाने का प्रयास करता है पर क्या हमारे मन ने कभी प्रभु को पाने का प्रयास किया है । ऐसा प्रयास हमारा मन कभी नहीं करता ।
294. प्रभु के रूप की आभा और प्रभा का रसपान जीवन में करना चाहिए ।
295. प्रभु पर अपने मन को न्यौछावर कर देना चाहिए । प्रभु में अपने मन को उलझा लेना चाहिए ।
296. एक लोहा मंदिर से आया और दूसरा लोहा कसाई के यहाँ से आया पर पारस फर्क नहीं जानता क्योंकि वह दोनों को ही सोना कर देता है । ऐसे ही प्रभु के समक्ष सदाचार और व्यभिचार वाले दो जीव आते हैं तो प्रभु फर्क नहीं करते और दोनों का ही उद्धार कर देते हैं ।
297. एक मैला पानी भी श्रीगंगा जल में मिलता है तो पवित्र और पूज्य हो जाता है । वैसे ही भक्ति एक दुराचारी को भी पवित्र कर देती है और प्रभु के सम्मुख प्रस्तुत कर देती है ।
298. धूल वायु का संग करे तो आसमान छू सकती है पर जल का संग करे तो कीचड़ हो जाती है और पांव तले रौंदी जाती है । ऐसे ही जीव को सत्संग का संग करना चाहिए जिससे वह उत्थान प्राप्त कर प्रभु तक पहुँच सके ।
299. हमारे मन को अंत में प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही पहुँचना चाहिए ।
300. जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों में आकर ही सनाथ होता है । जब तक जीवन में प्रभु की शरणागति न हो तब तक हम सनाथ नहीं होते ।
301. जैसे सांसारिक रीति रिवाज में सिंदूर एक पतिव्रता के सौभाग्य का सूचक माना जाता है वैसे ही आध्यात्म में प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज हमारे सौभाग्य का सूचक मानी जाती है ।
302. सत्संग जीव का कल्याण करता है क्योंकि सत्संग प्रभु की भक्ति हमारे भीतर जगा देता है ।
303. अपनी कीर्ति और अपने यश का जो सबसे बड़ा रोग है वह भी हमारे कान से हमारे भीतर जाता है और भवरोग को मिटाने वाली सबसे बड़ी औषधि जो प्रभु कथा है वह भी हमारे कान से हमारे भीतर जाती है । हमारे कान हमारा पतन भी करा सकते हैं और हमारा उद्धार भी करा सकते हैं । इसलिए अपने कानों से सदैव प्रभु का गुणगान का ही श्रवण करना चाहिए जिससे हमारी भक्ति बढ़ती है और हमारा संबंध प्रभु से जुड़ जाता है ।
304. एक व्यक्ति परिवार, धन-संपत्ति छोड़कर साधु भी हो जाए फिर भी यश और कीर्ति की लालसा नहीं छूटती ।
305. श्रीहरि के बारे में श्रवणरूपी सबसे बड़ी औषधि मुँह से नहीं, आँखों से नहीं अपितु कानों से ग्रहण की जाती है ।
306. श्रीहरि चर्चा निरंतर हमारे कानों में आती रहनी चाहिए ।
307. हमारी वाणी से केवल प्रभु के विमल यश का विस्तार होते रहना चाहिए ।
308. हमें केवल भक्ति में ही आनंद आना चाहिए पर जीव का दुर्भाग्य देखें कि उसे संसार में सुख लेने की आदत हो गई है ।
309. जो मैल मन के दर्पण पर चढ़ गया है वह मैल सत्संग से ही धोया जा सकता है ।
310. प्रभु के यशगान के अलावा प्रभु कथा का कोई दूसरा उद्देश्य होना ही नहीं चाहिए ।
311. सत्संग का केवल एक उद्देश्य होना चाहिए कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति हो जाए और संसार का हमारा मोह नष्ट हो जाए ।
312. हम जो संसारी बनके कमाएंगे वह एक दिन नष्ट होगा यह निश्चित है पर हम जो भक्त बनके कमाएंगे वह कभी नष्ट नहीं हो सकता । इस जन्म का भक्त या तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचेगा या अगर उसकी भक्ति का प्रयास कम रह गया तो अगला जन्म भी उसे मानव का मिलेगा और वह अपनी भक्ति की यात्रा उस जन्म में पूर्ण कर लेगा ।
313. संसार से जो मिलता है वह नष्ट हो जाता है पर प्रभु की कृपा से जो मिलता है वह कभी नष्ट नहीं होता ।
314. भजन की भूख और भजन की इच्छा हमारे अंतःकरण में सदैव होनी चाहिए ।
315. भक्त के पास श्रीहरि चर्चा के अलावा कुछ नहीं होता ।
316. भक्त के मांगने पर भी प्रभु उसे संसार नहीं देते ।
317. प्रभु में श्रद्धा और विश्वास की हानि जो कराए उस तत्व को सदैव के लिए अपने जीवन से दूर कर देना चाहिए ।
318. हमें प्रभु के नाम, रूप और श्रीलीला की कमाई जीवन में करनी चाहिए ।
319. प्रभु का नाम कैसे भी जपें वह कल्याण-ही-कल्याण करेगा ।
320. प्रभु भक्त की सांसारिक कामना की पूर्ति नहीं करते अपितु सांसारिक कामनाओं का विसर्जन कर देते हैं ।
321. जीवन कट जाना, बीत जाना यह संसारी करते हैं । जीवन को आनंद से जीना यह केवल भक्त किया करते हैं ।
322. जीवन का आनंद और उल्लास कहीं छिपा है तो वह केवल भक्ति में ही छिपा है ।
323. हमारा प्रभु के बारे में श्रवण श्री समुद्रदेवजी के समान होना चाहिए । जैसे श्री समुद्रदेवजी असीम हैं, उनकी कोई सीमा नहीं और नदियों का जल स्वीकार करने में वे कभी मना नहीं करते, वैसे ही कथा श्रवण की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए और कथा श्रवण के लिए हमारा मन कभी भी हमें मना नहीं करना चाहिए ।
324. श्रवण ऐसा हो जिसके पश्चात श्रवण की लालसा और अधिक बढ़ जाए ।
325. जो प्रभु के बारे में सुनने की लालसा की मन में अभिवृद्धि करा दे वही सच्चा श्रवण है ।
326. जिसे सत्संग से तृप्ति हो जाए उसे सत्संग का सही आस्वादन अभी हुआ नहीं है ।
327. प्रभु तक पहुँचने का मार्ग प्रभु ही जानते हैं और प्रभु ही जीव को बताते हैं । प्रभु ने ही श्री रामचरितमानसजी में भगवती शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का प्रतिपादन किया है ।
328. भक्ति मार्ग पर अगर हम पहला कदम रखेंगे तो प्रभु कृपा करेंगे और हमारा आगे का कदम अपने आप ही आगे बढ़ता जाएगा ।
329. श्रवण वही है जो भीतर जाए और प्रभु के लिए और अधिक श्रवण की लालसा बढ़ा दे ।
330. जैसे आग में घी की आहुति दी जाती है तो आग की ज्वाला और अधिक प्रज्वलित हो जाती है वैसे ही प्रभु वार्ता का श्रवण ऐसा होना चाहिए जो कान के रास्ते हृदय में जाते ही श्रवण की लालसा को और बढ़ा दे ।
331. हमारे जीवन में कामना संसार की भी हो सकती है और भगवान को पाने की भी हो सकती है । जीवन है तो कामना होगी ही इसलिए जरूरी है कि जीवन में प्रभु प्राप्ति की ही कामना हो ।
332. कामना संसार की होगी तो वह पतन करवाएगी और वही कामना प्रभु के लिए होगी तो वह भक्ति है जिससे हमारा उत्थान-ही-उत्थान होगा ।
333. हमारा मन संसार की जगह प्रभु की कामना करे तो वह भावना हमें प्रभु तक पहुँचा देगी । प्रभु भावना के ही भूखे हैं ।
334. प्रभु भक्ति के कारण हमारे भाव से बंध जाते हैं ।
335. संसार सत्य प्रतीत होता हुआ भी कल्पना है और प्रभु कल्पना में हो कर भी परम सत्य हैं ।
336. अपने भाव से हमें प्रभु के निकट चले जाना चाहिए ।
337. एक समय में मन एक ही जगह लगता है, यह वैज्ञानिक सिद्धांत है । इसलिए अपने मन को प्रभु में लगाना चाहिए । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में जीव से केवल उसके मन की ही मांग की है ।
338. मन में कभी भी जगत और श्रीजगन्नाथ एक साथ नहीं रह सकते । या तो मन में संसार रहेगा और या मन में प्रभु रहेंगे ।
339. यह प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है कि मन एक ही जगह लग सकता है नहीं तो अगर मन के पास ऐसी युक्ति होती कि मन एक साथ दो जगह लग सकता तो जीव इतना कुटिल है कि 95% मन संसार में लगा देता और 5% मन ही प्रभु को देता ।
340. अनंत-अनंत जन्मों में भटकने के बाद भी जीव का दुर्भाग्य देखें कि उसे जीवन में भक्ति की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती ।
341. संसार से ठोकर लगती है तभी हमारा मन प्रभु की तरफ मुड़ता है ।
342. सुख जीवन में आते ही हम प्रभु को भूलने लगते हैं ।
343. हमारे मन का स्वभाव है कि सुख जीवन में आते ही हमारा मन प्रभु को बिसार देता है ।
344. येन केन प्रकारेण जीवन में भगवत् स्मरण सदैव बना रहना चाहिए ।
345. प्रभु की याद जीवन में निरंतर आती रहनी चाहिए ।
346. भजन करने का प्रयास तो बहुत करते हैं पर भजन का आनंद केवल सच्चे भजनानंदी को ही आता है ।
347. जिन्होंने प्रभु को खोजा है उन्होंने प्रभु को पाया भी है ।
348. प्रभु से बात करेंगे, बात करने लगेंगे तो उत्तर अवश्य मिलेगा ।
349. भक्ति का परमानंद संसार के सुख से कितने ही गुना प्रगाढ़ है, सुदृढ़ है, टिकने वाला है और सदा बना रहने वाला है ।
350. भक्ति में परमानंद लेने वाला मन कभी भी संसार के सुख में नहीं डूबता है ।
351. हम कहते हैं कि हम भक्ति और भजन करते हैं और फिर संसार में भी रम जाते हैं, हमें संसार में भी रस आता है तो यह मिथ्या है । संसार में रस लेने वाला कभी सच्चा भक्त या भजनानंदी हो ही नहीं सकता ।
352. जिसने भक्तिरूपी श्री कामधेनुजी का दूध पिया हो उसे क्या संसाररूपी बकरी का दूध सुहाएगा ।
353. जिसका मन प्रभु के नाम, रूप, सद्गुण का आस्वादन करने में लग गया उसका मन फिर कभी संसार में नहीं लग सकता । यह भक्ति की कसौटी है ।
354. संत कहते हैं कि अपने मन को सदैव श्रीहरि में लगाकर रखना चाहिए ।
355. प्रभु की कथा सुनना एक बात है और कथा सुनने में प्रीति हो जाना दूसरी बात है ।
356. संसार के व्यवहार में हम कितनी बार असफल होते हैं पर सच्ची भक्ति करने वाला भक्त भक्ति मार्ग में कभी भी असफल नहीं होता क्योंकि उसकी सफलता की जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं ।
357. संसार के जिन संबंध पत्नी, पुत्र, कुटुम्बी के लिए हम अपना तन, मन, धन न्यौछावर करते हैं उनसे अंत में हमें प्रतिकूल उत्तर ही मिलता है यानी जिन संबंधों के लिए हमने अपना सब कुछ न्यौछावर किया वह अंत में हमें दुःख और क्लेश ही देते हैं ।
358. शास्त्रों में संसार को दुःखालय और साथ में शाश्वतम कहा गया है यानी संसार में दुःख के अलावा कुछ है ही नहीं और यह दुःख हरदम रहता है यानी शाश्वत है ।
359. जितना आनंद प्रभु के नाम में है उतना कहीं अन्यत्र नहीं है फिर भी संसारी को प्रभु नाम लेना बोझ-सा लगता है ।
360. प्रभु के पास सदा आनंद है, आनंद के अतिरिक्त भी प्रभु के पास आनंद-ही-आनंद है ।
361. जिसको प्रभु कथा श्रवण में आनंद आने लगा उसे अपने ऊपर प्रभु की विशेष कृपा माननी चाहिए क्योंकि प्रभु कृपा से ही प्रभु कथा में हमारा मन स्थिर होता है ।
362. हमें कुछ नहीं करना है, केवल प्रभु की कथा अधिकारी व्यक्ति से सुनना है । कथा के शब्द अपने आप हमारे हृदय में जाकर प्रभु के लिए प्रेम निर्माण करके उपयुक्त स्थान बना देंगे ।
363. सच्चा वैभव तो प्रभु प्रेम का वैभव ही है ।
364. प्रभु कथा कान के रास्ते हृदय में जाकर प्रभु के लिए प्रेम निर्माण करती है । हमारा हृदय अंधकारमय है, उसमें प्रभु प्रेम का प्रकाश प्रभु की कथा करती है ।
365. जब तक हमें भजन के आनंद का अनुभव नहीं हो जाता, तब तक भजन में मन नहीं लग सकता ।
366. भक्ति का आनंद अनुभव होना हमारे साधन के फलस्वरूप नहीं हो सकता । यह केवल प्रभु की कृपा से ही होता है पर जब हम भक्ति करते रहेंगे तभी प्रभु की ऐसी कृपा हमें मिलती है ।
367. प्रभु से सदैव सत्संग की मांग करनी चाहिए । जीवन में सत्संग सदैव मिलता रहे प्रभु से यही चाह रखनी चाहिए ।
368. प्रभु कथा सुनने का लोभ जीवन में जग जाना चाहिए ।
369. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि पिछले जन्मों के पापों के कारण जीव को इस जन्म में श्रीहरि चर्चा नहीं सुहाती है ।
370. संसार की चर्चा करने में हमारा दिन-रात बीत जाता है । इस तरह संसार के व्यवहार में हमारा जीवन बीत जाता है और हमें पता भी नहीं चलता ।
371. कर्म का बंधन कभी कर्म से नहीं खुल सकता । कर्म का बंधन केवल प्रभु कृपा से ही खुलता है ।
372. प्रभु कृपा करेंगे तो हमें केवल भक्ति मिलेगी । धन-संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा तो कंकड़ हैं और भक्ति मोती रूपी मणि है । प्रभु की सच्ची कृपा कंकड़ नहीं दिलाती अपितु मोती रूपी मणि दिलाती है ।
373. सत्संग में जाना एक बात है और सत्संग में प्रीति हो जाना दूसरी बात है जो सबसे श्रेष्ठ है ।
374. राजा श्री परीक्षितजी के पास सात दिन का समय था । उन्होंने सोचा और पूछा कि सात दिन में ऐसा कौन-सा उपक्रम किया जाए जिससे आवागमन के बंधन से सदैव के लिए वे मुक्त हो जाए । उन्हें प्रभु कथा श्रवण का एकमात्र विकल्प मिला और उन्होंने पूरी आस्था के साथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण किया और मुक्त हो गए ।
375. राजा श्री परीक्षितजी को सात दिन में योग, यज्ञ, तप, व्रत, पूजा, संयम या अन्य कोई भी साधन मुक्त कराने में समर्थ जान नहीं पड़े । उन्हें प्रभु कथा का श्रवण ही एकमात्र समर्थ जान पड़ा जिससे उनका उद्धार हुआ ।
376. राजा श्री परीक्षितजी ने क्या साधन किया । उन्होंने केवल पूर्ण आस्था से प्रभु कथा का श्रवण किया और वे तर गए ।
377. हम प्रभु के श्रीकमलचरणों को तो पकड़ना चाहते हैं पर संसार को छोड़ना नहीं चाहते इसलिए विफल हो जाते हैं ।
378. हम भक्ति मार्ग पर चलना नहीं चाहते अपितु संसार की गलियों में ही भटकते रहना चाहते हैं ।
379. प्रभु उन पर कृपा करते हैं जो सभी आश्रयों का परित्याग करके केवल प्रभु की शरण में आ जाते हैं । ऐसा प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कहा है ।
380. विपत्ति में हमारे एकमात्र रखवाले प्रभु ही होते हैं ।
381. संसार के सभी संकल्पों और विकल्पों को छोड़कर हमें प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
382. एकाग्र होकर और एकनिष्ठ होकर हमें प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
383. भक्ति का हमें सहज और नित्य अभ्यास होना चाहिए ।
384. हमारे मन में ही अगर संसार भरा है और उसमें भगवान के लिए जगह ही नहीं है तो उसमें भगवान कहाँ से आएंगे । अपने मन को संसार से रिक्त करने पर ही उसमें भगवान आकर विराजेंगे ।
385. अपने को सभी तरफ से समेट कर हमें केवल एक पग प्रभु की तरफ तन्मयता से चलना होता है । प्रभु इतने करुणानिधान हैं कि बाकी सभी दूरी प्रभु तय करके आते हैं ।
386. केवल प्रभु की कथा सुनने के परिणाम स्वरूप जीवन में भक्ति आ जाती है । ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कोई साधन नहीं किया, केवल तन्मयता से प्रभु की कथा सुनी और श्रेष्ठ भक्त बन गए ।
387. राजा श्री परीक्षितजी साक्षी हैं जिन्होंने कुछ नहीं किया केवल तन्मयता से प्रभु की कथा सुनी और तर गए ।
388. प्रभु का नाम एक जहाज के समान है । जो उस पर चढ़ जाता है वह भवसागर से पार उतर जाता है ।
389. संसार के विषय का जितना संग करेंगे उतना-उतना मन व्याकुल होगा । भक्ति से प्रभु का जितना संग करेंगे मन उतना-उतना शांत और आनंदित होगा ।
390. संतवाणी में प्रभु की भक्ति का अनुभव भरा हुआ होता है ।
391. प्रभु नाम का दीपक अपनी जिह्वा पर रख लेना चाहिए । इससे भीतर और बाहर दोनों तरफ प्रकाश हो जाता है ।
392. जीवन में प्रभु का स्मरण निरंतर होते रहना चाहिए ।
393. सत्संग हमारा सहज स्वभाव बन जाना चाहिए । सत्संग बिना हम रह ही नहीं पाएं, ऐसा हो जाना चाहिए ।
394. सत्संग करने से प्रभु के लिए हमारा भाव शिखर पर होता है । पर जब हम सत्संग रोज नहीं करते तो वही भाव शिथिल पड़ना आरंभ हो जाता है । इसलिए सत्संग निरंतर करना चाहिए जिससे प्रभु के लिए भाव जीवन में कभी खंडित न हो, शिथिल न पड़े ।
395. सत्संग हमारी आत्मा की खुराक है । हमारी आत्मा को नित्य सत्संग चाहिए ।
396. भजन करने का संकल्प हमारे जीवन में होना चाहिए पर हमारे जीवन में संसार करने का संकल्प होता है ।
397. भक्ति का संकल्प जीवन में करने के लिए बहुत ऊँ‍चा आत्मबल चाहिए । यह आत्मबल सत्संग से आता है ।
398. संत कहते हैं कि प्रभु के बारे में सुनिए, सुनिए और सुनते ही रहिए ।
399. प्रभु के बारे में सुनने का हमें व्यसन लग जाना चाहिए ।
400. जो रति हमारी संसार के विषय, वस्तु और व्यक्ति में है वह हमें संसार से हटाकर प्रभु में लगा देनी चाहिए तो ही हमारा कल्याण होगा ।
401. प्रभु की कथा सुनने का कोई सांसारिक लाभ नहीं चाहना चाहिए । कथा सुनते-सुनते प्रभु से प्रीति हो जाए, यही कथा का फल प्रभु से मांगना चाहिए ।
402. प्रभु के बारे में सुनने की लालसा जीवन में निरंतर बढ़ती जाए, यही कथा सुनने का सच्चा फल है ।
403. प्रभु के बारे में श्रवण करने में हमें रस आने लग जाए तभी हमारा श्रवण सफल माना जाना चाहिए ।
404. जीवन में विशुद्ध लालसा केवल प्रभु प्राप्ति की ही होनी चाहिए ।
405. गिनती के भाग्यशाली लोग संसार में होते हैं जिनके मन में केवल प्रभु को पाने की विशुद्ध लालसा होती है ।
406. जीव का दुर्भाग्य देखें कि जीव प्रभु से भी चाहता और मांगता संसार ही है ।
407. हमारे हृदय का पात्र शुद्ध हो तभी भक्ति से प्रभु का अभिषेक होता है ।
408. केवल प्रभु के बारे में श्रवण करें । सुनते-सुनते प्रभु के नाम में, रूप में, गुण में आसक्ति हो जाएगी और प्रभु प्राप्ति की लालसा जीवन में जग जाएगी ।
409. अन्य किसी भी साधन में बहुत लंबे काल के बाद भी प्रभु को पाने की विशुद्ध कामना नहीं जगती । यह केवल और केवल भक्ति का सामर्थ्य है कि भक्ति के साधन से प्रभु को पाने की यह विशुद्ध कामना जग जाती है ।
410. जीव का दुर्भाग्य देखिए कि जीव चाहता भी संसार ही है और प्रभु से मांगने का जब अवसर आता है तो मांगता भी संसार ही है ।
411. संसार की आस और अभिलाषा जीव का पतन कराती है ।
412. कोई भाग्यशाली ही होता है जो प्रभु से संसार नहीं मांगता और भक्ति ही मांगता है ।
413. भक्ति ही साधक का एकमात्र धन होना चाहिए ।
414. सत्संग से सभी संशय का निवारण हो जाता है ।
415. भक्त अपने जीवन में न तो धन संग्रह करता है और न ही जन संग्रह करता है यानी न तो धन चाहता है और न ही कीर्ति चाहता है ।
416. जीवन का उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति और प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान होना चाहिए । इस उद्देश्य से हमें कभी भी भटकना नहीं चाहिए ।
417. संत वही है जो हमसे संसार छुड़ाकर हमें भजन मार्ग पर ले आए ।
418. किसी के जीवन में प्रयास करके प्रभु के भजन की लालसा जगा देना, यह कार्य संत करते हैं ।
419. हमारे मन में प्रभु के निकट जाने की विशुद्ध लालसा होनी चाहिए । यह लालसा केवल भक्ति ही जागृत करती है ।
420. प्रभु को बांध लेने के लिए भक्ति का एक भोला-सा भाव ही पर्याप्त है ।
421. प्रभु के अतिरिक्त कोई भी भाव हमारे चित्त में आना ही नहीं चाहिए ।
422. संसार के चिंतन और संसार की कामना से हृदय में जड़ता आती है । इसलिए जीवन में प्रभु का चिंतन और प्रभु की कामना ही होनी चाहिए ।
423. कोसों दूर बैठा कोई व्यक्ति अगर भगवती गंगा माता का चिंतन कर रहा है तो उसे माता के स्मरण मात्र से ही पुण्य की प्राप्ति हो जाती है ।
424. जीव की कुटिलता जब छूट जाए और जीव जब सरल हो जाए तो ही वह प्रभु को प्रिय हो पाता है ।
425. हमारा भोला भाव देखकर प्रभु को दया आती है और प्रभु की कृपा जागृत हो जाती है ।
426. प्रभु अपने भक्तों को अपने हृदय से लगा लेते हैं यानी उनका अंगीकार करके पूर्ण रूप से उन्हें स्वीकार कर लेते हैं ।
427. भक्ति का उत्तम स्वरूप यह है कि भक्त के हृदय में प्रभु को सुख देने के अलावा कोई कामना नहीं हो ।
428. प्रभु के सुख के अतिरिक्त अगर हमारे हृदय में कोई कामना न हो तो यह भक्ति की श्रेष्ठतम स्थिति है । इस स्थिति को प्रभु के प्रिय भक्तों ने पाया है ।
429. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में बैठेगा उसी पर प्रभु की कृपा दृष्टि पड़ेगी । श्री अर्जुनजी और दुर्योधन प्रभु से युद्ध में सहायता मांगने आए । श्री अर्जुनजी प्रभु के श्रीकमलचरणों की तरफ बैठे और प्रभु विश्राम से उठे तो सबसे पहले प्रभु की दृष्टि स्वाभाविक रूप से श्री अर्जुनजी पर पड़ी । इस कारण प्रभु ने श्री अर्जुनजी को सबसे पहले मांगने का अवसर दिया और श्री अर्जुनजी ने प्रभु को ही मांग लिया ।
430. हमारा स्थान केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही होना चाहिए ।
431. सत्संग हमें प्रभु कृपा को धारण करने योग्य बनाता है । सत्संग हमारे पात्र को प्रभु कृपा बटोरने के योग्य बनाता है ।
432. प्रभु के दरबार में दीन का आदर होता है । इसलिए दीन बनकर जाने से ही प्रभु हम पर कृपा करते हैं ।
433. प्रभु के लिए सदैव हमारे जीवन में भाव रहना चाहिए, कभी भी अभाव नहीं आना चाहिए ।
434. जिन प्रभु के नाम से सेतुबंधन के समय पत्थर तैरे उन प्रभु के नाम से जीव का तरना तो और भी आसान है ।
435. पत्थर जड़ता के सूचक हैं । प्रभु नाम से जड़ वस्तु भी तैर गई । प्रभु नाम की कितनी भारी महिमा है ।
436. जीवन कभी भी प्रभु सेवा से खाली नहीं हो । जीवन को संसार में उलझाकर कभी भी प्रभु सेवा से रिक्त नहीं करना चाहिए ।
437. प्रभु सेवा जीव का सर्वोपरि धर्म है ।
438. प्रभु सेवा सीधे-सीधे जीव को प्रभु के निकट ला देती है ।
439. हमारे हाथ से की गई प्रभु सेवा हमें स्वयं को पवित्र करती है ।
440. प्रभु को हमारी सेवा की आवश्यकता नहीं पर हमें अपने कल्याण के लिए प्रभु की सेवा करने की आवश्यकता है ।
441. प्रभु को हम दीपक दिखाते हैं इसलिए कि उससे हमारे मन का अंधकार दूर होता है ।
442. प्रभु को अर्पण प्रसाद जो हमारे भीतर जाता है वह हमारे भीतर भजन की रुचि को बढ़ाता है । अन्य वस्तु जो बिना प्रभु अर्पण हमारे भीतर जाती है वह भोग की कामना जगाती है । इसलिए जो भी खाया-पिया जाए वह प्रभु को अर्पण करके प्रभु के प्रसाद रूप में ही ग्रहण किया जाए ।
443. जो बिना प्रभु को अर्पित वस्तु खाता है, जो बिना प्रभु को निवेदन किए खाता है, जो बिना प्रभु को मानस भोग लगाए खाता है वह उस आहार के द्वारा अपने तन और मन दोनों को अशुद्ध करता है और उन्हें विकारों से भर देता है ।
444. जो वस्तु प्रभु को निवेदन हो जाती है और प्रभु की दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ जाती है वो प्रसाद बन जाती है जो हमारा कल्याण करती है ।
445. जिसकी आँखें झुकी हों वह जीव प्रभु को प्रिय लगता है, जिसका सिर झुका हो वह जीव प्रभु को प्रिय लगता है ।
446. हमने आज तक जीवन में जितना भी संसारी धन कमाया उससे भी अनंत-अनंत गुना ज्यादा जिन्होंने भी पूर्व में धन कमाया है उनका आज नाम भी कोई नहीं जानता । पर भजन और भक्ति की कमाई जिसने की है उन भक्तों को प्रभु ने जगत में सदैव के लिए अमर कर दिया ।
447. प्रभु की सेवा की आवश्यकता प्रभु को नहीं अपितु हमें अपने कल्याण के लिए होती है ।
448. प्रभु की सेवा से प्रभु को जो सुख मिलता है उससे अनंत-अनंत गुना ज्यादा सुख सेवा करने वाले सेवक को मिलता है ।
449. ऐसा क्या है इस दरिद्र जगत में जो वैभवयुक्त प्रभु को हमारे द्वारा निवेदन किया जा सके । प्रभु को हम केवल अपना भाव ही निवेदन कर सकते हैं ।
450. जरा सोचें कि सारे जगत को सब कुछ देने वाले प्रभु को हम क्या भेंट चढ़ा सकते हैं ।
451. भक्त और संत प्रभु के नाम की खुशबू को जगत में फैला देते हैं ।
452. प्रभु को जो भी निवेदन करें इस भाव से करना चाहिए कि हमारा रोम-रोम प्रभु से यह कहे कि यह वस्तु किसी भी दृष्टि से आपके योग्य नहीं है । गर्व से कभी प्रभु को निवेदन नहीं करना चाहिए चाहे आप सोने, हीरे और मोती से जड़ित सिंहासन, जो संसार की दृष्टि में बहुत बहुमूल्य है, वही निवेदन कर रहे हैं । सदैव कृतज्ञता से भरकर ही प्रभु को निवेदन करना चाहिए ।
453. जीव के पास सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु का स्मरण कर सके । प्रभु कृपा से ही वह प्रभु का स्मरण जीवन में कर पाता है ।
454. सत्संग के क्षण मिले तो प्रभु का आभार मानना चाहिए कि प्रभु ने हम पर कृपा की है ।
455. अनमोल मानव जीवन को संसार के प्रपंच में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए ।
456. संसार के प्रपंच का कभी भी अंत होने वाला नहीं है । इसलिए संसार के प्रपंच को नजरअंदाज करके ही हमें जीवन में भक्ति करनी चाहिए ।
457. प्रभु का सानिध्य प्रभु की कोटि-कोटि कृपा होने पर ही मिलती है ।
458. हमें प्रभु का शुक्रगुजार जरूर होना चाहिए क्योंकि प्रभु ने हमें सब कुछ दिया है, हमें सबसे अनमोल सांसें दी हैं ।
459. एक कृतज्ञ हृदय ही जीवन में प्रभु का भजन कर सकता है ।
460. शास्त्र कहते हैं कि एक संतुष्ट हृदय ही प्रभु का भजन कर सकता है ।
461. जीवन में अगर संतोष है तो इसे प्रभु की बहुत बड़ी कृपा माननी चाहिए । जीव स्वभाव से संतोषी नहीं हो सकता, ऐसा प्रभु कृपा से ही संभव हो पाता है ।
462. संतोष दैवीय गुण है जो प्रभु कृपा से ही जीवन में आता है ।
463. मन में या तो संसार रहेगा और या प्रभु रहेंगे । दोनों एक साथ नहीं रह सकते । अब यह हमें देखना है कि हमें अपने मन में संसार को जगह देनी है या प्रभु को जगह देनी है ।
464. मन से कभी प्रभु के लिए शिकायत नहीं, सदैव धन्यवाद ही निकलना चाहिए ।
465. जिसकी आँखें प्रभु के विधान में दोष देखती हैं वह जीव कैसे प्रभु का भजन कर पाएगा ।
466. पूर्व के पुण्य हृदय में संचित होते हैं तो ही जीवन में भगवत् भाव जागृत होता है ।
467. हमारे अंतःकरण में भक्ति का भाव प्रतिपल बढ़ते रहना चाहिए ।
468. श्रवण वह है जो और अधिक प्रभु के लिए श्रवण की लालसा हमारे हृदय में बढ़ा दे ।
469. सत्संग की इच्छा जीवन में नित्य बढ़ती ही रहनी चाहिए ।
470. प्रभु संसार पर अहैतुकी कृपा करते हैं और अपने भक्तों को भक्ति का प्रचार करने के लिए धरती पर भेजते हैं ।
471. पूरी प्रभु कृपा हो जाए तो उसके तो क्या कहने पर अगर प्रभु कृपा का जीवन में छींटा भी पड़ जाए तो भी हमारा कल्याण और उद्धार हो जाता है ।
472. सभी साधनों का फल केवल भक्ति है । यह तथ्य प्रभु श्री महादेवजी ने भगवती पार्वती माता को कहा है ।
473. संतोष धन हम जीवन में कमा नहीं सकते । यह केवल प्रभु कृपा से ही हमें मिलता है ।
474. भक्तों के द्वारा प्रभु सृष्टि का कल्याण करवाते हैं ।
475. हमारे पास जो भी है वह प्रभु का है और प्रभु का ही दिया हुआ है । उसे हम अगर प्रभु की सेवा में लगाते हैं और अपना नाम लिखवाते हैं तो इसे शास्त्रों में कीर्ति अपराध माना गया है ।
476. कीर्ति के लिए और भक्त कहलाने के लिए भजन नहीं करना चाहिए । भजन केवल अपने अंतःकरण के सच्चे सुख के लिए ही करना चाहिए ।
477. भक्त को सदैव अपनी क्रिया से भगवान को सुख देने वाला बनना चाहिए ।
478. भक्त सदैव भगवान का भजन करते हैं पर प्रभु श्री हनुमानजी और प्रभु श्री नारदजी ऐसे भक्त हैं जिनका भजन भगवान करते हैं ।
479. हमारा व्यवहार, हमारा चिंतन प्रभु को सुख देने वाला होना चाहिए ।
480. भक्त ही भगवान को सबसे बड़ा आनंद देने वाला होता है ।
481. प्रभु खूब देते हैं और सहज में देते हैं पर जिसको कुछ नहीं देते उसे अपनी निष्काम भक्ति देते हैं । यह केवल कुछ बिरलों को ही मिलती है ।
482. श्री अर्जुनजी को प्रभु कहते हैं कि लाखों में कोई एक होता है जिसकी प्रभु में रुचि होती है और उनमें से भी कोई बिरला होता है जो केवल प्रभु को चाहता है और प्रभु से कुछ नहीं चाहता ।
483. श्री अर्जुनजी से प्रभु कहते हैं कि जो केवल प्रभु प्राप्ति के लिए प्रभु का भजन करता है ऐसा तो कोई बहुत दुर्लभ जीव ही होता है ।
484. स्वयं के यश और भक्त कहलाने की स्वयं की कीर्ति की इच्छा भक्ति में बहुत बड़ी बाधक है ।
485. कंचन, कामिनी को छोड़ना सहज है पर कीर्ति के लोभ को छोड़ना उससे भी कठिन और दुर्लभ है ।
486. भक्त श्री सूरदासजी अपने एक पद में कहते हैं कि जीव इतना नमक हराम है कि जिन प्रभु ने उसे सब कुछ दिया है उन प्रभु को ही उसने अपने जीवन से बिसरा दिया है ।
487. भक्त श्री सूरदासजी अपने एक पद में अपना परिचय देते हैं और कहते हैं कि वे सभी पतितों के नायक हैं । इतनी दीनता से भरे हुए होने के कारण ही वे प्रभु को अति प्रिय हैं ।
488. भक्ति में भक्त की दृष्टि कभी भी प्रभु के श्रीकमलचरणों से ऊँ‍‍ची नहीं जाती ।
489. हमारा मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही सदैव लगा रहना चाहिए ।
490. जिसने भी आज तक प्रभु को पाया है उसने प्रभु का होकर यानी प्रभु का बनकर ही प्रभु को पाया है ।
491. भक्ति में साधन संपन्न होने पर भी प्रभु को भक्त की दीनता ही भाती है । प्रभु अपने भक्त की दीनता पर ही रीझते हैं ।
492. प्रभु की करुणा देखें कि दीन, हीन साधनशून्य को भी प्रभु कृपा करके अपने श्रीकमलचरणों के समीप आने देते हैं ।
493. हमें कभी सोचना चाहिए कि हमने जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मद के अलावा क्या कमाया है । क्या हमने जीवन में भक्ति की कमाई की है ?
494. दीनता युक्त जीव ही प्रभु की कृपा का पात्र होता है ।
495. भक्तों के संसार में आने का हेतु प्रभु प्रेम को जगत में प्रत्यक्ष कर देना होता है ।
496. हमारा जीवन प्रभु को अर्पण हो जाना चाहिए ।
497. श्वास-श्वास से हमें प्रभु का सुमिरन करना चाहिए ।
498. हमारा जीवन प्रभुमय हो जाना चाहिए ।
499. जीवन में भक्ति आने पर संसार हमें फीका लगने लगता है ।
500. हमारे जीवन में एकमात्र आशा केवल और केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान पाने की होनी चाहिए ।
501. सच्चा प्रताप उसका होता है जो अपने जीवन में श्रीहरि का गुण गाता है ।
502. पहले हम प्रभु से संसार मांगते थे पर भक्ति हमें प्रभु से प्रभु को मांगना सिखा देती है । मांगना छूटता नहीं पर मांगने की दिशा भक्ति बदल देती है ।
503. प्रभु की जय बोलने से संसार में हमारी कभी पराजय नहीं होती ।
504. निर्मल चित्त से प्रभु के सद्गुणों को गाने से प्रभु के उन सद्गुणों के अंश धीरे-धीरे हमारे भीतर आने लगते हैं ।
505. प्रभु का गुणगान प्रभु का प्रेम पाने की इच्छा के अलावा अन्य किसी भी इच्छा से करना कपट है । जैसे प्रभु का गुणगान श्रीहरि कथा में होता है पर वह श्रीहरि कथा धन कमाने के उद्देश्य से की जाए या प्रतिष्ठा कमाने की इच्छा से की जाए तो यह गलत है ।
506. भगवत् कथा अमृत है और विषयों के विष को नाश करने के लिए परम औषधि है ।
507. कोई भी भूला-भटका हो या संसार से मोहित हुआ हो तो उसे प्रभु कथा ने ही जगाया है ।
508. कथा कहने वाले और कथा सुनने वाले को भगवत् स्मरण का एक जैसा लाभ मिलता है ।
509. कथा का सच्चा लाभ तब मिलता है जब वक्ता और श्रोता दोनों उसके अधिकारी हों ।
510. प्रभु का यश विस्तार करने के अलावा अन्य कोई भी कामना हमारे मन में नहीं होनी चाहिए ।
511. कपट का कपाट यानी द्वार खुलता है तो हमारे लिए प्रभु का द्वार बंद हो जाता है ।
512. प्रभु की कथा सुनने के बाद उसे गुनना चाहिए यानी उसे जीवन में उतारना चाहिए । प्रभु की कथा में भक्ति के बारे में सुना तो भक्ति को जीवन में लाना चाहिए ।
513. उसी वक्ता की कथा सुननी चाहिए जिनकी कथा में प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति का प्रतिपादन होता हो ।
514. प्रभु की कथा हमारे भीतर प्रभु स्मरण का भाव जगा देती है ।
515. प्रभु का स्मरण करते हैं तो प्रभु कृपा से एक विशेष प्रकार का उल्लास हमारे हृदय में जागृत हो जाता है ।
516. सच्चा भक्त वह है जिसको देखकर अनायास ही प्रभु का स्मरण हो जाए ।
517. सच्ची कथा वह है जो कान में जाए तो हृदय में भजन की रुचि को बढ़ा दे ।
518. अपनी श्वासों की माला पर प्रभु का नाम पिरोना चाहिए ।
519. संत वह है जिसकी बात सुनने से हमें प्रभु प्रिय लगने लगें ।
520. जीवन में प्रभु का सुमिरन, प्रभु की सेवा और प्रभु का सत्संग होना चाहिए ।
521. भगवत् वार्ता को कहने का अधिकारी वह है जिसके भीतर प्रभु की प्रीति जगाने के अलावा धन, कीर्ति या सम्मान की अन्य कोई कामना न हो ।
522. प्रभु से प्रीति यानी अनुराग के अलावा हमारे हृदय में अन्य कोई भी भावना नहीं होनी चाहिए ।
523. हमें प्रभु की कथा सुनकर किसी सांसारिक मनोरथ को पूर्ण करने की अभिलाषा प्रभु से नहीं रखनी चाहिए । ऐसी शुद्ध भावना रखने वाले जीव को ही कथा का सच्चा लाभ मिलता है ।
524. प्रभु की कथा कभी भी सांसारिक कामना पूर्ति का साधन नहीं होना चाहिए ।
525. कथा में कभी भी श्रेष्ठ बनकर और अपनी पद, प्रतिष्ठा, धन, कीर्ति का गौरव लेकर नहीं जाना चाहिए । सदैव दीन भावना रखकर ही कथा सुननी चाहिए ।
526. व्यासपीठ से केवल भगवत् वार्ता हो, प्रभु की प्रशंसा हो । व्यासपीठ से संसार की चर्चा को शास्त्रों ने पाप चर्चा माना है ।
527. व्यासपीठ केवल और केवल प्रभु के गुण गाने के लिए होती है ।
528. हमारे और प्रभु के बीच में कभी भी, कोई भी नहीं होना चाहिए ।
529. हमारे और प्रभु के बीच में किसी को आने का अधिकार नहीं है और न ही यह अधिकार किसी को कभी भी देना चाहिए ।
530. प्रभु जितने भगवती मीराबाई, श्री तुलसीदासजी, श्री सूरदासजी के हैं उतने ही हमारे भी हैं । प्रभु के यहाँ प्रभु ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि प्रभु सबके लिए समान रूप से उपलब्ध हैं । एक रूप से प्रभु पूर्ण रूप से सिर्फ और सिर्फ हमारे हो सकते हैं ।
531. अपनी मन की लालसा और कामना को केवल प्रभु के लिए आरक्षित करके रखना चाहिए ।
532. प्रभु का आश्रय लेकर जो प्रभु के लिए भक्ति मार्ग पर निकला है उसको कभी गिरना या भटकना नहीं पड़ेगा ।
533. जैसे बालक को उसकी माँ रखती है वैसे ही उससे भी बहुत-बहुत अधिक जतन से प्रभु अपने भक्तों को रखते हैं ।
534. प्रभु के रंग में रंगते ही संसार धीरे-धीरे अपने आप ही छूट जाता है ।
535. जब भक्त को प्रभु का सहारा मिल जाता है तो उसको फिर दुनिया से कोई काम नहीं रहता ।
536. प्रभु नाम का आश्रय लेना कलियुग का धर्म है । कलियुग में प्रभु नाम से श्रेष्ठ कोई साधन नहीं है । कलियुग में प्रभु नाम लेना ही भक्ति है, प्रभु का गुणगान करना ही भक्ति है और प्रभु की चर्चा सुनना ही भक्ति है ।
537. प्रभु नाम की कृपा से हमें जो मिलेगा वह कभी खत्म होने वाला नहीं है ।
538. माया की रचना होने के कारण दुनिया झूठी है और दुनिया के बंधन भी झूठे हैं । सच्चे केवल और केवल प्रभु ही हैं ।
539. प्रभु के लिए साधन इच्छारहित और निष्काम होना चाहिए ।
540. अगर हम प्रभु से चाहते हैं तो हमें प्रभु द्वारा संसार मिल जाएगा । पर अगर हम सच्चे मन से कपट रहित होकर प्रभु से कुछ भी नहीं चाहते हैं और प्रभु को ही चाहते हैं तो हमें केवल और केवल प्रभु ही मिलेंगे ।
541. वही संसार में भटकता है जिसका परमार्थ का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ।
542. भगवत् कृपा से प्राप्त मनुष्य जीवन में सत्संग का नित्य लाभ लेना चाहिए ।
543. हमारे पास प्रभु की वार्ता, प्रभु की बात के अतिरिक्त और कुछ भी चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए ।
544. भक्ति प्रभु की प्रीति यानी प्रेम और प्रभु की प्रतीति यानी अनुभव दोनों करवाती है ।
545. प्रभु की कथा प्रभु के निकट जाने की चाह हमारे हृदय में उत्पन्न कर देती है ।
546. प्रभु के भरोसे का बल लेकर और प्रभु के नाम का बल लेकर हमें अपना जीवन जीना चाहिए ।
547. प्रभु जो कृपा करके हमें अपने आप देंगे वही हमारे लिए हितकर होगा । हम जो प्रभु से संसार मांगेंगे वह हमारे लिए हितकर नहीं होगा ।
548. प्रभु का नाम भी जीव पर कृपा करता है ।
549. प्रभु का नाम जपने से जीव को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह प्रभु का सानिध्य प्राप्त कर सके ।
550. भगवत् प्राप्ति की लालसा जीवन में होनी चाहिए ।
551. भक्ति के मार्ग पर भक्ति के अधिकारी जीव को कभी भी वंचित नहीं रखा जाता ।
552. प्रभु के दर पर देर भी नहीं होती और अंधेर भी नहीं होता । हमें लगता है कि देर होती है पर वह देर अनन्य होकर हमारे पुकारने में ही होती है ।
553. जीवन में भजन की रुचि बढ़ती ही जानी चाहिए ।
554. प्रभु के सद्गुणों का गान करते समय हमारा कंठ अवरुद्ध हो जाए, हम गदगद हो जाए । जिस भक्त के साथ ऐसा होता है वह स्वयं तो तरता ही है और संसार को भी भक्ति के मार्ग पर लाकर तार देता है ।
555. प्रभु अपने श्रीवचन में कहते हैं कि मेरा भक्त त्रिभुवन को पवित्र करने वाला होता है । भक्ति की इतनी बड़ी महिमा प्रभु बताते हैं ।
556. जहाँ-जहाँ तक साधनों का श्री वेदजी में बखान हुआ है उन सभी साधनों का एक ही फल है - प्रभु की भक्ति ।
557. ज्ञान, कर्म, योग जितने भी साधन हैं उन सबके मूल में प्रभु के लिए प्रेम जागृत करना ही है ।
558. भक्ति से श्रेष्ठ और भक्ति से परिपूर्ण कोई भी साधन नहीं है ।
559. प्रभु को कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सत्य कहते हैं क्योंकि प्रभु तो सत्य स्वरूप हैं । फिर भी भगवती शबरीजी से प्रभु कहते हैं कि प्रभु शपथ लेकर सत्य कहते हैं कि प्रभु एकमात्र भक्ति के नाते को ही मानते हैं ।
560. जो प्रभु ने कहा है वही सत्य है । प्रभु कथन के अलावा सत्य की अन्य कोई परिभाषा हो ही नहीं सकती । फिर भी प्रभु सत्य का आश्वासन देकर कहते हैं कि प्रभु एक भक्ति के नाते को ही मानते हैं ।
561. प्रभु को एक ही संबंध, एक ही भाव स्वीकार है और वह भक्ति का है ।
562. भक्त का चित्त और वृत्तियां संपूर्ण रूप से प्रभु में स्थित हो चुकी होती हैं ।
563. प्रभु का नाम अनंत सुख का धाम है ।
564. प्रभु का रूप अनंत सुख की सीमा है ।
565. प्रभु की श्रीलीला रूपी कथा अमृत सिंधु है ।
566. संसारी का मन प्रभु कथा में, प्रभु सेवा में और प्रभु भजन में सुख नहीं पाता । यह उसका कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
567. सतत भगवान का चिंतन, भगवान का स्मरण और भगवान का हृदय से भजन होते रहना चाहिए ।
568. भक्ति हमें भगवत् भाव का स्पर्श और अनुभूति करवाती है ।
569. श्री अर्जुनजी से प्रभु कहते हैं कि भक्ति करने वाला महात्मा संसार में अति दुर्लभ मिलता है ।
570. श्री विभीषणजी लंका में कितनी प्रतिकूल परिस्थितियों में रहकर भी प्रभु का भजन करते थे । प्रभु उनकी इसी बात पर रीझ गए ।
571. राजा श्री परीक्षितजी ने सात दिनों में कोई साधन नहीं किया, केवल प्रभु की कथा तन्मय होकर सुनी और उनका उद्धार हो गया ।
572. भजन में हमारा मन भी बाधा उत्पन्न करता है, हमारा तन भी बाधा उत्पन्न करता है और हमारा धन भी बाधा उत्पन्न करता है । तन की बाधा भूख, निद्रा, प्यास और आलस्य है । मन की बाधा मन की चंचलता है और धन की बाधा अहंकार है ।
573. धन अपने स्वभाव से ही अपने साथ दुर्गुणों को लेकर आता है ।
574. धन के मद वाला तो अहंकार में सदा ही डूबा रहता है और इस तरह प्रभु से दूर ही रहता है ।
575. श्री उद्धवजी को श्रीगोपीजन कहतीं हैं कि उन्हें आठों याम केवल प्रभु से ही काम है ।
576. श्री उद्धवजी से श्रीगोपीजन कहतीं हैं कि प्रभु ही उनकी गति, प्रभु ही उनकी मति और प्रभु ही उनके प्राणपति हैं ।
577. प्रभु की भक्ति हमें एक विलक्षण तृप्ति देती है ।
578. भक्त को प्रभु से भक्ति के अलावा कुछ भी नहीं चाहिए होता है । प्रभु कहते हैं कि उनके देने की इच्छा जाहिर करने के बाद भी भक्त उनसे भक्ति के अलावा कुछ भी नहीं लेता ।
579. संसार की सभी अभिलाषाओं का त्याग करके हमें श्रीहरि का गुणगान करना चाहिए ।
580. प्रभु के पास जाने के लिए प्रभु गुण गाने से सरल, श्रेष्ठ, सुगम, सुमधुर कोई भी साधन नहीं है ।
581. प्रभु कृपा बिना सपने में भी जीव को विश्राम नहीं मिल सकता ।
582. बिना प्रभु में विश्वास और आस्था के भक्ति नहीं हो सकती ।
583. संसारी जीव को प्रभु के निकट जाने की कोई अभिलाषा ही नहीं होती । वह प्रभु को केवल अपनी इच्छापूर्ति के लिए ही मानते हैं और पूजते हैं ।
584. शास्त्र, संत और भक्त हमारा भरोसा प्रभु में जगाने का कार्य करते हैं ।
585. कलियुग में प्रभु ने अपनी समस्त शक्तियां अपने नाम में रख दी हैं ।
586. सभी शास्त्रों ने, सभी संतों ने और सभी भक्तों ने एकमत से कलियुग में प्रभु नाम जपने की महिमा गाई है ।
587. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्री रामचरितमानसजी में कहते हैं कि वे प्रभु नाम की बड़ाई कहाँ तक करें क्योंकि प्रभु श्री रामजी भी अपने श्रीराम नाम की बड़ाई नहीं गा सकते । प्रभु नाम की इतनी बड़ी महिमा है ।
588. प्रभु श्री रामजी ने जिस सागर को सेतु बनाकर पार किया, प्रभु श्री हनुमानजी उसी सागर को श्रीराम नाम लेकर लांघ गए ।
589. प्रभु के समकक्ष प्रभु का नाम है । संतों ने तो विनोद में यहाँ तक कह दिया कि प्रभु से भी बड़ा प्रभु का नाम है ।
590. जिस भक्ति मार्ग पर भक्तजन चले हैं उसी पर चलकर हम भी प्रभु की प्राप्ति कर सकते हैं ।
591. प्रभु के पास जाना है तो भक्ति का भोला सा भाव जीवन में लेकर ही जाना पड़ेगा ।
592. बार-बार यह संयोग नहीं बनेगा कि मनुष्य तन मिले और भारतवर्ष में जन्म मिले । इसलिए हमें इस बार ही प्रभु की भक्ति करके इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए ।
593. भजन सही हो रहा है या नहीं इसे जांचने की सबसे सरल विधि यह है कि क्या हमारे मन में संसार के लिए संकल्प-विकल्प कम हुए हैं ।
594. कितने जन्मों से हमने मन का मैल ही कमाया है । अब मनुष्य जन्म में भक्ति के जल से इसे धोकर मन को निर्मल करके प्रभु के श्रीकमलचरणों में मन को अर्पण करने का हमें अवसर मिला है ।
595. भक्ति के साधन के फल को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता ।
596. भक्ति के साधन में कोई कष्ट या क्लेश नहीं है ।
597. भक्ति ही एकमात्र साधन है जिसके फलस्वरूप प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमें स्थान मिल जाता है ।
598. जितने भी सद्गुण हैं वे प्रभु कृपा से धीरे-धीरे भक्तों के हृदय में आकर स्वतः ही बस जाते हैं ।
599. हमें अपने जीवन में अपने लक्ष्य के रूप में प्रभु प्राप्ति को मानना चाहिए और यही लक्ष्य हमें जीवन भर रखना चाहिए ।
600. जीवन में भक्ति का एक उद्देश्य निर्धारित हो जाए तो यह अपने ऊपर प्रभु की बहुत बड़ी कृपा माननी चाहिए ।
601. हमारा भजन और साधन संसार पाने के उद्देश्य से अगर होता है तो यह एकदम गलत है । हमारा भजन और साधन प्रभु को पाने के उद्देश्य से ही होना चाहिए ।
602. जीवन में उद्देश्य होना चाहिए कि मुझे इसी जन्म में ही भगवत् प्राप्ति करनी है ।
603. प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं कि पात्र, अपात्र सभी को स्वीकार करते हैं ।
604. हमारे मन में प्रभु के अतिरिक्त और कोई कामना नहीं होनी चाहिए ।
605. अगर हम केवल प्रभु को चाहे तो हमें कोई भी भटका नहीं सकता क्योंकि ऐसा होने पर हमें संभालने की जिम्मेदारी प्रभु के ऊपर आ जाती है ।
606. सच्चा सद्गुरु वह है जो हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रित होना सिखाएं ।
607. कंचन, कामिनी और कीर्ति का लोभ केवल प्रभु की भक्ति ही मिटा सकती है । अन्य कोई साधन नहीं जो यह लोभ जीवन से मिटा सके ।
608. तीनों लोकों की प्रतिकूलता मिल जाए तो भी वह हमें एक क्षण के लिए भी दुःखी नहीं कर सकती अगर हम प्रभु की सच्ची भक्ति करते हैं ।
609. भक्ति और भजन इसलिए है कि प्रभु में हमारा भरोसा दृढ़ और स्थिर हो जाए ।
610. प्रभु का सच्चा भक्त प्रत्येक अवस्था में प्रसन्न रहता है ।
611. भगवती मीराबाई को जब विष भेजा गया और सबने उन्हें मना किया कि उसे मत पिएं पर भगवती मीराबाई ने कहा कि उनके गिरधर कहीं चले थोड़ी न गए हैं, वे तो सदैव उनके साथ हैं और उनकी रक्षा करने का दायित्व उनका है । इस भरोसे पर भगवती मीराबाई ने उस विष को पी लिया ।
612. भक्ति से प्रभु पर भरोसा प्रगाढ़ हो जाता है ।
613. कभी मन विचलित हो जाए, हम अपनी राह भूल जाएं, जीवन में भटक जाए तो घबराना नहीं चाहिए और प्रभु पर भरोसा रखना चाहिए तो प्रभु जरूर हमें संभालेंगे ।
614. भजन की इच्छा ही हमसे भजन करवा सकती है । इसलिए भजन की इच्छा मन में प्रबल रखनी चाहिए ।
615. मन में भजन की इच्छा न हो ऐसा कभी नहीं होना चाहिए ।
616. जिस दिन भजन की इच्छा न हो उस दिन और अधिक भजन करना चाहिए क्योंकि उस दिन भजनरूपी औषधि की हमें सबसे ज्यादा आवश्यकता है ।
617. भजन हमारी प्रीति प्रभु से करवा देता है ।
618. जब तक प्रभु में प्रीति नहीं होगी तब तक हमारी भक्ति भी दृढ़ नहीं होगी ।
619. प्रभु में प्रीति होगी तभी प्रभु में हमारा विश्वास दृढ़ होगा ।
620. प्रभु में विश्वास है, यह कह देना बहुत सरल है पर प्रभु में विश्वास कितना दृढ़ है यह उस विश्वास की कसौटी होती है जो प्रतिकूलता में देखने को मिलती है ।
621. भक्ति ही वह संपत्ति है जो जीवनभर के साधन के बाद हमें अर्जित करनी होती है ।
622. संसार का आश्रय छूट जाए और केवल प्रभु का ही आश्रय जीवन में रह जाए तभी हमारा जीवन धन्य होता है ।
623. संसार के आश्रय की चाह जीवन में अनुभव ही नहीं होनी चाहिए ।
624. हमारे मन को संसार का, संसार के रिश्तों का, तिजोरी में रखे रुपयों का आसरा होता है जो एकदम गलत है । आसरा केवल और केवल प्रभु का ही होना चाहिए ।
625. केवल प्रभु पर भरोसा करना कितना कठिन होता है यह भगवती द्रौपदीजी के प्रसंग में देखने को मिलता है । पहले उनको अपने पांच पतियों पर भरोसा था, फिर दादाजी श्री भीष्मजी पर भरोसा था, फिर गुरु श्री द्रोणाचार्यजी पर भरोसा था, फिर काकाजी श्री विदुरजी पर भरोसा था, फिर अपने बल पर भरोसा था जिस बल से उन्होंने अपनी साड़ी पकड़ रखी थी । सभी ओर से भरोसा टूटने के बाद अंत में उन्होंने प्रभु पर अपने भरोसे को दृढ़ किया । इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि आरंभ से ही भरोसा केवल और केवल प्रभु का ही रखना चाहिए ।
626. विपत्ति में एक प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही अपना माथा टेकना चाहिए ।
627. प्रभु ज्ञान और कर्म से नहीं बल्कि भक्ति भाव से ही रीझते हैं ।
628. भक्त जिस मार्ग पर चलकर प्रभु तक गए हैं हमें भी उसी मार्ग को चुनना चाहिए और उसी मार्ग पर चलना चाहिए ।
629. प्रभु की शरण में आ जाने से हमारे सभी अमंगल नष्ट हो जाते हैं ।
630. एक बार तो जीवन में केवल प्रभु पर भरोसा करके देखना चाहिए पर हम जीवन भर संसार पर ही भरोसा करते हैं ।
631. भक्ति की सच्ची कमाई यही है कि प्रभु में हमारा अटूट भरोसा और विश्वास जग जाए ।
632. प्रभु पर किया भरोसा कभी भी हमें हारने नहीं देता । श्री अंगदजी ने लंका की भरी सभा में अपना पांव जमा दिया और कहा कि कोई उसे हिला दे तो श्रीराम सेना यहीं से हार मानकर लौट जाएगी । श्री अंगदजी को पता था कि वे तो हार सकते हैं पर उनका प्रभु पर जो भरोसा है वह कभी नहीं हार सकता ।
633. प्रभु पर जो भक्त का भरोसा होता है वह अपराजेय होता है यानी उसे कोई भी हरा नहीं सकता और कोई भी डिगा नहीं सकता ।
634. ऐसी कोई जिज्ञासा हो ही नहीं सकती जिसका उत्तर हमारे मनमंदिर में बैठे अंतर्यामी प्रभु हमें नहीं देते ।
635. प्रभु से कुछ भी कहने और सुनने की आवश्यकता नहीं है । प्रभु अंतर्यामी हैं और सब कुछ जानते हैं । हमें केवल भक्ति कर प्रभु पर अपना भरोसा दृढ़ रखना है ।
636. जीवन में हमें यह ठान लेना चाहिए कि हमें प्रभु की भक्ति करके प्रभु के निकट जाना है ।
637. प्रभु पर भरोसा रखिए कि जिन्होंने आज तक हमारी राह बनाई है वे प्रभु आगे भी हमारे लिए राह बनाएंगे ।
638. जो जीव प्रभु का गुणगान करता है उसको प्रभु संभालते हैं । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को ऐसा कहा है ।
639. बालक को कभी अपनी माँ से याचना नहीं करनी पड़ती कि अब खाने का समय हो गया तो मुझे भोजन दो, मैले हो गए तो मेरे कपड़े बदलो । बालक कोई प्रार्थना पत्र अपनी माँ को नहीं देता । माँ स्वयं अपनी जिम्मेदारी समझकर सब कुछ करती है । ऐसे ही प्रभु अपने भक्तों के लिए भक्तों के बिना बोले अपनी जिम्मेदारी समझकर सब कुछ करते हैं ।
640. जब भक्ति का भाव हमारे भीतर प्रबल हो जाएगा तो हमारे मन में प्रभु से कोई याचना नहीं रहेगी क्योंकि हमारा भरोसा प्रबल हो जाएगा कि प्रभु स्वतः ही बिना कहे सब कुछ हमारे लिए करेंगे ।
641. सभी सांसारिक आश्रयों को छोड़कर विपत्ति में केवल प्रभु को ही पुकारना चाहिए ।
642. प्रभु और हमारे बीच कोई नहीं होना चाहिए और किसी को आने भी नहीं देना चाहिए ।
643. प्रभु पर हमारा पूरा-पूरा अधिकार है और प्रभु के अतिरिक्त हमारा अधिकार किसी पर भी नहीं होना चाहिए । हमें प्रभु के अतिरिक्त किसी पर भी अपना अधिकार रखना ही नहीं चाहिए ।
644. संतों ने कहा है कि अधिकार रखिए पर केवल प्रभु पर ही रखिए तभी हमारा मंगल होगा ।
645. प्रभु के अतिरिक्त संसार में जहाँ-जहाँ और जिस-जिस रिश्ते में हम अपना अधिकार जमाते हैं वहीं से हमें निराशा मिलती है और यही हमारी सबसे बड़ी भूल होती है ।
646. भक्त प्रभु के भरोसे से अपने जीवन को निर्भयता से जीते हैं ।
647. प्रभु पर दृढ़ विश्वास होने पर हमारी भक्ति भी दृढ़ होती है ।
648. भक्ति को शुद्ध और भावयुक्त ही रखना चाहिए ।
649. भक्ति को कभी कर्म के रूप में नहीं देखना चाहिए । कर्म बनाएंगे तो भक्ति भी हमें बोझ की तरह लगेगी । इसलिए भक्ति को भक्ति ही रहने देना चाहिए ।
650. शास्त्रों में आहार का संयम बताया गया है जिसका तात्पर्य यह है कि मुँह से, कानों से, आँखों से जो भी हम आहार लेते हैं उसका संयम होना चाहिए यानी कुछ भी बुरा नहीं खाना, कुछ भी बुरा नहीं सुनना और कुछ भी बुरा नहीं देखना ।
651. संयम देह के धरातल पर भी होना चाहिए और मानसिक धरातल पर भी होना चाहिए तभी वह सच्चा संयम है ।
652. अपने साधन के बल पर कोई भी जीव संयम नहीं कर सकता । यह प्रभु कृपा के बल पर ही होगा ।
653. तन का, मन का, वाणी का, चिंतन का संयम हमें प्रभु कृपा के प्रसाद स्वरूप ही मिलता है ।
654. कोई भी संयम हम करते हैं या कोई चीज भी हम छोड़ते हैं तो उसका अहंकार आ जाता है । इस अहंकार से बचने का तरीका यह है कि उस संयम में अपना कोई योगदान नहीं देखें और उसमें स्पष्ट रूप से प्रभु की कृपा ही देखें ।
655. केवल प्रभु के लिए विशुद्ध प्रेम का उद्देश्य लेकर भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए तभी हमें सफलता मिलेगी ।
656. कोई भी त्याग या संयम जीवन में प्रसन्नता पूर्वक तब होता है जब हम उसके पीछे प्रभु की कृपा देखना सीख जाते हैं ।
657. यह प्रेम का सिद्धांत है कि जिनसे हम प्रेम करते हैं उनके लिए दुनिया के सारे सुख भी छोड़ने को हम तैयार हो जाते हैं । इसी प्रेम के सिद्धांत को प्रभु से जोड़ दिया जाए तो वह भक्ति बन जाती है ।
658. प्रेम का बल बहुत बड़ा होता है इसलिए जीवन में सच्चा प्रेम केवल और केवल प्रभु से ही करना चाहिए । प्रभु से किया ऐसा परिपक्व प्रेम भक्ति कहलाती है ।
659. संसार से वैराग्य करने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता । प्रभु की भक्ति जागृत होती है तो संसार स्वतः ही छूटता जाता है ।
660. संत भाव देते हैं कि जो गुण उनमें हैं वे सब प्रभु कृपा से और प्रभु के कारण ही हैं पर जो अवगुण उनके भीतर हैं वे सब उनके स्वयं के कारण और उनके अपने हैं । यही सच्चा भाव जीवन में होना चाहिए ।
661. हमारे जैसा बिगाड़ने वाला कोई नहीं है और प्रभु जैसा हमारी बिगड़ी को संवारने वाला कोई नहीं है ।
662. प्रभु के लिए किया कोई भी त्याग प्रभु के सुख के लिए हम कर रहे हैं, उसके पीछे यही भावना होनी चाहिए ।
663. जब तक हमें अपने त्याग का स्मरण है तब तक यह मानना चाहिए कि उस त्याग को प्रभु ने स्वीकार नहीं किया ।
664. हमारी दृष्टि सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों पर ही लगी रहनी चाहिए ।
665. प्रभु पग-पग पर अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और क्षण-क्षण अपने भक्तों की संभाल रखते हैं ।
666. भक्त श्री प्रह्लादजी को जब प्रभु ने बार-बार आग्रह करके कहा कि प्रभु उन्हें कुछ देना चाहते हैं और प्रभु के सुख के लिए ही वे प्रभु से कुछ मांग लें तो भक्त श्री प्रह्लादजी ने बहुत सुंदर मांग मांगी । उन्होंने मांगा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति के अतिरिक्त अनंत-अनंत काल तक उनके हृदय में अन्य कुछ मांगने की कामना ही उत्पन्न न हो ।
667. मन से, वचन से, कर्म से स्वप्न में भी प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति के अतिरिक्त हमारी प्रभु से कोई चाह नहीं होनी चाहिए ।
668. प्रभु के संग हमारा सहज स्नेह होना चाहिए ।
669. प्रभु के लिए किए कोई भी त्याग में हमारी पूर्ण विनम्रता झलकनी चाहिए । कभी भी त्याग का अहंकार जीवन में नहीं आने देना चाहिए ।
670. प्रभु से हम कोई भी भाव निवेदन करें तो उसमें पूर्ण मर्यादा होनी चाहिए और पूर्ण गरिमा होनी चाहिए ।
671. संतों और भक्तों ने अपना जीवन प्रभु को न्यौछावर किया है और हमें भी ऐसा करने की प्रेरणा दी है और ऐसा करने का मार्ग दिखाया है ।
672. प्रभु की भक्ति, प्रभु की सेवा कभी भी निष्फल नहीं जा सकती ।
673. प्रभु जिसे अपना बनाते हैं तो उसका सब कुछ लूट लेते हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु जिसको स्वीकार कर लेते हैं उसके पास प्रभु संसार नहीं रहने देते । प्रभु पूर्ण पुरुषोत्तम हैं और उन्हें रहने के लिए पूरा स्थान चाहिए ।
674. प्रभु को पूरा 100 प्रतिशत भक्त चाहिए, भक्त का प्रेम चाहिए, भक्त की भक्ति चाहिए, भक्त का सानिध्य चाहिए । 99.99 प्रतिशत में भी प्रभु का काम नहीं चलता ।
675. प्रभु अपने भक्त के पास संसार नहीं रहने देते ।
676. साधक जब दूसरे का दोष देखता है तो यह बात प्रभु को प्रिय नहीं लगती ।
677. अपना दोष जीव को तब दिखता है जब उस जीव पर प्रभु की कृपा दृष्टि पड़ती है ।
678. हम मंदिर में जाकर प्रभु को देखकर दर्शन करते हैं पर जब प्रभु भी हमें देखें और प्रभु की कृपा दृष्टि भक्ति के कारण हम पर पड़ जाए तभी दर्शन पूरा होता है ।
679. हमारा संयम हमें प्रसन्नता देना चाहिए । हमारा संयम हमारा बंधन बनकर हमें दुःख नहीं देना चाहिए ।
680. प्रभु के लिए भाव के शिखर का नाम ही भक्ति है ।
681. सच्चे भक्तों को देखकर ही भगवान का स्मरण हो जाता है । भक्ति की इतनी बड़ी महिमा है ।
682. भक्ति के अलावा किसी अन्य साधन को महत्व दें या किसी अन्य साधन में ऊर्जा लगाएं तो यह प्रभु को स्वीकार नहीं होता ।
683. हमें केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही भरोसा होना चाहिए ।
684. प्रभु के अतिरिक्त कोई भी अन्य आश्रय जीवन में होना यह भक्ति में बाधा करता है । प्रभु पर भरोसा न रखकर हम संसार पर भरोसा करते हैं तो यह व्यभिचार कहलाता है ।
685. एक स्त्री अपने पति के अलावा अन्य किसी में अपना चित्त लगाए तो यह व्यभिचार है, वैसे ही प्रभु के अलावा हम किसी अन्य का आश्रय लेने की सोच भी लें तो यह भी व्यभिचार होता है ।
686. भक्ति के अलावा अन्य किसी भी साधन का आश्रय जीवन में नहीं लेना चाहिए क्योंकि केवल भक्ति से ही प्रभु प्राप्त होते हैं ।
687. संसार का धन कमाएंगे तो उसका उपयोग पत्नी, पुत्र, पौत्र करेंगे । भक्ति की कमाई का उपयोग कोई नहीं कर पाएगा । हमारे द्वारा की गई भक्ति की कमाई हमारे पास ही रहेगी ।
688. संसार की अंधी दौड़ और अंधी होड़ में हमें कभी नहीं पड़ना चाहिए ।
689. हमें अपने जीवन को प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से निहित करना चाहिए ।
690. भक्ति के अलावा अन्य किसी भी साधन से जीव प्रभु के निकट नहीं जा सकता । ऐसा स्‍वयं प्रभु ने श्री उद्धवजी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कहा है ।
691. प्रभु ने भगवती शबरीजी के जूठे बेर खाने के बाद श्रीराम राज्य में जहाँ-जहाँ भी भोजन किया, यहाँ तक कि भगवती सीता माता के श्रीहाथ का बनाया हुआ भोजन भी राजमहल में किया तो प्रभु कहने से कभी नहीं चूके कि यह सब अच्छा है पर मेरी शबरी के बेर जैसी मिठास नहीं है । प्रभु भक्तों के भाव को इस प्रकार ग्रहण करते हैं और भक्त के ऋणी बन जाते हैं ।
692. प्रभु को अनंत काल से जीव भोग लगा रहे हैं और आगे भी लगाते रहेंगे पर प्रभु उन सबके बीच भगवती शबरीजी और भगवती विदुरानीजी को कभी नहीं भूल पाए । इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि दोनों के पदार्थ भले ही श्रेष्ठ नहीं थे पर भाव श्रेष्ठतम थे ।
693. सब ओर से मन को हटा कर हमें उसे प्रभु में लगाना चाहिए ।
694. भक्त संसार की कामना नहीं करते, वे प्रभु प्रेम की कामना ही जीवन में करते हैं ।
695. प्रभु जब हमारे संग हैं तो हमें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
696. प्रभु हमारे हर समय के साथी बनने को तैयार हैं पर चूक हमसे ही हो जाती है कि हम ऐसा नहीं करते ।
697. प्रभु की रजा में ही सदैव राजी रहना चाहिए ।
698. एक प्रभु के नाम का ही आश्रय जीवन में ले लेना चाहिए तो उससे हमारा कल्याण हो जाएगा ।
699. हमें प्रभु के उपकरण बन जाना चाहिए यानी प्रभु की इच्छा से हम चलें, प्रभु जैसा हमें चलाएं वैसा ही हम चलें ।
700. प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव जीवन में होना चाहिए ।
701. जैसे एक चिड़िया का बच्चा अपनी माँ पर आश्रित रहता है वैसे ही हमें प्रभु पर आश्रित रहने का भाव अपने हृदय में जगाना चाहिए ।
702. प्रभु की सबसे बड़ी सेवा यही है कि हम अपना कल्याण, जो कि प्रभु से जुड़ने पर ही होगा, उसके लिए जीवन में प्रयासरत हो जाएं ।
703. स्वयं को सर्वसाधनहीन जानकर दीन बनकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
704. प्रभु का नाम दसों दिशाओं से हमारा मंगल करता है ।
705. प्रभु का नाम पूरे भरोसे के साथ जपना चाहिए ।
706. निष्काम भाव से प्रभु की भक्ति करें क्योंकि यही प्रभु की सबसे श्रेष्ठ भक्ति होती है ।
707. संत कहते हैं कि जो आनंद भक्ति में है वह श्रीबैकुंठ के वास में भी नहीं है ।
708. सीधे-सीधे प्रभु को भजना चाहिए, यही मूल भक्ति का स्वरूप है ।
709. भक्ति का ही सामर्थ्‍य है कि वह जीव के एक-एक कर्म को प्रभु सेवा बना देती है ।
710. अगर हम नहाने के बाद तुरंत और तत्काल प्रभु के मंदिर में जाकर पूजा करते हैं तो हमारे नहाने का कर्म भी प्रभु सेवा बन जाता है ।
711. जिसकी दृष्टि में ही प्रभु बसे हैं वह जहाँ भी देखेगा वहाँ मंदिर होगा और जहाँ भी जाएगा वहीं तीर्थ होगा ।
712. प्रभु पर भरोसा रखें तो प्रभु हमें कभी भी गिरने नहीं देंगे । प्रभु के होते मैं गिर नहीं सकता, यह भरोसा हृदय में दृढ़ करके रखना चाहिए ।
713. प्रभु को अपने यश से अधिक अपने भक्तों का यश प्यारा होता है । प्रभु अपने से भी ज्यादा यश सदैव अपने भक्तों को दिलाते हैं ।
714. अपने हृदय में केवल तीनों लोकों के नाथ को ही बसाना चाहिए ।
715. प्रभु श्री रामजी श्री रामचरितमानसजी में कहते हैं कि जिन पर प्रभु श्री महादेवजी कृपा करते हैं उन्हें ही भक्ति प्राप्त होती है ।
716. प्रभु की कृपा से ही भजन के मार्ग की सभी बाधाएं दूर होती हैं ।
717. प्रभु श्री महादेवजी की कृपा से ही जीव को विशुद्ध भक्ति प्राप्त हो सकती है ।
718. भक्ति के भाव में प्रवेश केवल प्रभु कृपा से ही संभव है ।
719. मनुष्य जन्म में आकर करने योग्य कोई एकमात्र कर्म है तो वह प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति है ।
720. भगवती पार्वती माता की प्रभु भक्ति देखें कि जब श्री सप्तऋषिगण आते हैं तो माता उनसे कहती हैं कि अगर प्रभु श्री महादेवजी भी साक्षात आकर सौ बार उनसे कह दें तो भी वे प्रभु श्री महादेवजी की भक्ति करना नहीं छोड़ेंगी ।
721. श्रीमद् भगवद् गीताजी का परम ज्ञान प्रभु के श्रीमुख से लोक कल्याण हेतु प्रकट हुआ है ।
722. पर का दोष नहीं देखना चाहिए सिर्फ ऐसा ही प्रभु ने नहीं कहा है । प्रभु कहते हैं कि जागृत अवस्था में तो छोड़ो सपने में भी पर का दोष नहीं देखना चाहिए ।
723. पर की निंदा के सम दूसरा कोई पाप नहीं है ।
724. जब-जब दूसरे के दोष हमें दिखाई पड़े तब-तब प्रभु से क्षमा याचना करनी चाहिए कि हमने दूसरे का दोष देखा क्योंकि दूसरों के दोष देखने वाला प्रभु को प्रिय नहीं लगता ।
725. भक्ति का उद्देश्य यही है कि अपने जीवन को प्रभु के अनुकूल करना ।
726. प्रभु से और माता से हमें यही निवेदन करना चाहिए कि हमें वैसा कर दें जैसा उन्हें प्रिय लगे ।
727. भक्त को सदैव प्रभु के अनुकूल बनकर ही रहना चाहिए ।
728. दूसरों का दोष नहीं देखना चाहिए और दूसरों की निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह दोनों प्रभु को प्रिय नहीं लगते । ऐसा नहीं करने के लिए इतना कारण ही पर्याप्त है ।
729. प्रभु को प्रिय लगने वाले एक-एक सिद्धांत को भक्ति हमारी बुद्धि में बैठा देती है ।
730. प्रभु को अपने तन और मन का समर्पण करना चाहिए क्योंकि प्रभु को पाने के लिए यही सबसे श्रेष्ठ उपाय है ।
731. प्रभु की शरणागति लेने के बाद हमारे हृदय को कितना बड़ा बल मिलता है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
732. भक्ति जीव को सरल कर देती है । सरल हुआ जीव ही प्रभु को प्राप्त कर सकता है ।
733. प्रभु का भरोसा सहज ही प्राप्त नहीं हो जाएगा । उसे प्राप्त करने के लिए भक्ति की कमाई करनी पड़ेगी ।
734. प्रभु में हमारा भरोसा अविचल होना चाहिए ।
735. प्रभु में हमारी श्रद्धा अटूट होनी चाहिए ।
736. जिनको भक्ति के अलावा किसी चीज की कोई चाह नहीं वे ही धरती पर सच्चे शहंशाह हैं ।
737. प्रभु के अलावा हमारी कोई चाह नहीं होनी चाहिए और प्रभु के गुण गाने के अलावा हमें कोई काम नहीं होना चाहिए ।
738. हमें झुक-झुककर प्रभु का हुक्म बजाना चाहिए क्योंकि प्रभु ही हमारे ठाकुर हैं और हम प्रभु के नौकर हैं ।
739. प्रभु की गुलामी करना सबसे अच्छी बात होती है ।
740. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों के नीचे दबकर ही रहना चाहिए ।
741. प्रभु की अनुभूति करना जीव के सामर्थ्य के बाहर की बात है । जीव अपने सामर्थ्य से नहीं अपितु केवल प्रभु कृपा से ही प्रभु की अनुभूति कर सकता है ।
742. हमें अपना जीवन ऐसा बनाना चाहिए कि हम प्रभु के होकर जीवन यापन करें ।
743. प्रभु की कृपा और दया से ही हम प्रभु को किंचित जान सकते हैं ।
744. जिस जीव का प्रभु प्राप्ति करने का उद्देश्य जीवन में बन गया वह आध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ है ।
745. प्रेम से प्रभु का आत्मचिंतन करना चाहिए ।
746. मनुष्य शरीर प्रभु तक पहुँचने की सीढ़ी है । इसका उपयोग भक्ति साधन करके प्रभु तक पहुँचने के लिए ही करना चाहिए ।
747. एक संत से उनके एक शिष्य ने पूछा कि जीवन का मूल्य क्या है । संत ने उस शिष्य को एक अनमोल हीरा दिया और कहा इसे बेचना नहीं और शहर में जाकर इसका मूल्य लगाकर आओ । शिष्य हीरा लेकर शहर पहुँचा । पहले एक फल वाला मिला, उसने कहा कि इसके बदले कुछ फल दे दूँगा । फिर एक व्यापारी मिला, उसने हीरे को देखकर कहा कि इसके बदले 100 मोहरें दे दूँगा । फिर एक जौहरी मिला, उसने उस अनमोल हीरे को देख कर कहा कि यह तो बहुत अनमोल है, अपना सब कुछ समर्पित करके भी वह इसे नहीं खरीद सकता । शिष्य ने वापस आकर पूरी बात संत को बताई । संत ने कहा कि यही उसके प्रश्न का उत्तर है । सूत्र यह है कि हमारे लिए जीवन का मूल्य थोड़ा-सा धन, थोड़ी सम्पत्ति, थोड़ी पद प्रतिष्ठा, थोड़ा सम्मान हो सकता है । दूसरे के लिए बहुत सारी धन सम्पत्ति, बड़ी भारी पद-प्रतिष्ठा, बड़ा मान सम्मान हो सकता है । पर सच्चे जौहरी के लिए जीवन का मूल्य अनमोल है और प्रभु प्राप्ति से कम इसका उपयोग नहीं होना चाहिए ।
748. कीर्ति और यश हमें साधन मार्ग से पथभ्रष्ट कर देते हैं ।
749. बड़ा सुख मिलता है जब हमें प्रतिष्ठा मिलती है और लोग हमारी प्रशंसा करते हैं पर यह एक साधक के लिए आत्मघातक है ।
750. स्वयं अपना मूल्यांकन करके प्रभु प्राप्ति का जीवन में अपना उद्देश्य सुनिश्चित करना चाहिए ।
751. प्रभु हमारे भीतर हैं और हम प्रभु को सदैव बाहर ही खोजते रहते हैं ।
752. हमारे मन में यह भी अहंकार नहीं होना चाहिए कि हम प्रभु के दास हैं क्योंकि अहंकार किसी भी रूप में प्रभु को प्रिय नहीं होता ।
753. प्रेम केवल और केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
754. जैसे प्रभु के लिए मिष्ठान्न भोग बना लिया पर उसमें चीनी डालना भूल गए तो सब फीका हो जाएगा वैसे ही प्रभु से संबंध जोड़ लिया और प्रभु से प्रेम करना भूल गए तो वह संबंध अपूर्ण रह जाएगा ।
755. प्रभु को कहीं भी भोग लगे पर भगवती शबरीजी के जूठे बेर और भगवती विदुरानीजी के छिलके प्रभु अपनी स्मृति से कभी नहीं भुला पाते । इसका सूत्र यह है कि प्रभु को भाव बहुत प्रिय है और भगवती शबरीजी और भगवती विदुरानीजी के भाव का आज तक प्रभु आस्वादन करते हैं ।
756. श्रीगोपीजन को श्री मथुराजी की तरफ से बहने वाली वायु, जल सब प्रभु का संदेश देते थे । श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम और प्रभु के लिए भाव इतना प्रबल था ।
757. प्रभु का विशेष अनुग्रह अपने भक्तों पर सदैव होता है ।
758. सिर्फ प्रभु की भक्ति में ही प्रभु की माया को जीत लेने की क्षमता है ।
759. अगर खाना खाते समय प्रभु को, जो हमारे हृदय में विराजे हैं, उन्हें खिलाने का भाव जागृत हो जाता है तो उस भोजन का हमारे ऊपर प्रभाव ही कुछ और हो जाता है ।
760. जो भी वस्तु प्रभु के श्रीअंग का स्पर्श पा लेती है वह प्रसाद बन जाती है । इसलिए प्रभु की धारण की हुई माला को प्रसाद माला माना जाता है ।
761. हमारा कल्याण करने का बड़ा अतुलनीय सामर्थ्य प्रभु प्रसाद में होता है ।
762. प्रभु की माया प्रभु के सच्चे भक्त की ओर देखते हुए भी भयभीत होती है । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है ।
763. यह सिद्धांत है कि प्रभु का जूठन खाने से प्रभु का प्रेम हमारे हृदय में बढ़ता है ।
764. प्रभु का प्रसाद भी भगवत् स्वरूप होता है ।
765. ज्ञानरूपी श्री उद्धवजी भक्ति से युक्त श्रीगोपीजन के चरणों में नत होकर झुक गए ।
766. अकारण कृपा करने का प्रभु का सदैव से स्वभाव रहा है और रहेगा ।
767. सत्संग वह वायु है जो प्रभु की तरफ बहती है । जैसे नाव के मल्लाह को हवा अनुकूल दिशा में बहने पर नौका को पार करने में आसानी होती है वैसे ही सत्संग के जीवन में आने पर जीवन नौका प्रभु की तरफ ले जाने में आसानी होती है ।
768. संत कहते हैं कि सत्संग में प्रभु की कृपा की वायु बहती है और यह कृपा की वायु साधक को प्रभु की तरफ ले जाती है ।
769. जिसको किसी के समक्ष प्रकट नहीं किया जाए, वही सच्ची भक्ति है ।
770. स्वयं के मन को कथा में बैठाना बड़ा कठिन होता है । कथा में आकर तन से स्वयं बैठ जाना आसान है पर अपने मन को कथा में बैठाना कठिन है ।
771. हमें अंतर्मुख होना आना चाहिए और स्वयं को देखना आना चाहिए ।
772. आधुनिक समय में जड़ वस्तुओं ने जीवन में कितना बिखराव ला दिया है । हम जड़ वस्तुओं में अपना कितना समय व्यतीत करने लग गए हैं ।
773. सत्संग हमारे मन के दर्पण पर जमी धूल को हटा देता है ।
774. प्रभु के नाम में प्रभु का सारा माधुर्य, सारा ऐश्वर्य और समस्त भगवत्ता भरी होती है ।
775. प्रभु हमारे शुभ संकल्पों को सदैव सिद्ध करते हैं ।
776. प्रभु के लिए अपने भाव प्रभु से निवेदन करने में कभी दरिद्र नहीं होना चाहिए ।
777. जब तक हमारे जीवन में प्रभु रूपी आनंद का अभाव है तब तक जीव संसार में रोता ही रहेगा ।
778. भय मुक्त और द्वंद मुक्त केवल भक्त ही होता है और भक्त के अलावा ऐसा कोई नहीं हो सकता ।
779. इच्छा के रहते जिसके प्राण चले जाएं वह तो मर गया और प्राण जाने से पहले जिसकी इच्छाएं चली जाएं वह मुक्त हो गया ।
780. भक्त श्री कबीरदासजी को पता था कि श्री काशीजी में प्राण त्यागने पर प्रभु मुक्त करते हैं पर श्री काशीजी के समीप एक जगह थी जहाँ की मान्यता थी कि वहाँ प्राण त्यागने पर नर्क मिलता है । तो भक्त श्री कबीरदासजी ने उस जगह जाकर प्राण छोड़े और प्राण छोड़ने से पहले अपने शिष्यों को कहा कि वे देखते हैं कि कोई कैसे उन्हें नर्क ले जा सकता है क्योंकि उनको अपनी प्रभु भक्ति पर इतना पक्का भरोसा था । उन्हें भरोसा था कि उस जगह में भी प्राण छूटने पर भी वे मुक्त ही होंगे क्योंकि उनके दयालु प्रभु उन्हें मुक्ति के अलावा कुछ नहीं देंगे ।
781. जब तक जीवन में प्रभु प्रेम का अभाव है तब तक तीनों लोकों की संपत्ति भी हमें आनंद नहीं दे सकती ।
782. अपनी सभी इंद्रियों से प्रभु रस का पान करना चाहिए । आँखों से प्रभु विग्रह के दर्शन, कान से प्रभु कथा का श्रवण, जिह्वा से प्रभु का गुणानुवाद, हाथों से प्रभु की सेवा करनी चाहिए ।
783. मन जब भी जाए केवल प्रभु के निकट ही जाए । मन को ऐसी आदत लगा देनी चाहिए ।
784. जीवन की एक-एक चेष्टा प्रभु के निकट जाने के लिए हो, यही श्रीगोपी भाव है ।
785. भक्त सदैव अपनी भक्ति से प्रभु को सुख देना चाहता है ।
786. भक्ति समर्पण का भी मार्ग है और विसर्जन का भी मार्ग है यानी प्रभु को समर्पण और स्वयं का विसर्जन ।
787. भक्ति में हमें हर तरफ प्रभु की ही अनुभूति होती है ।
788. प्रभु के पास सब कुछ है समग्र एश्वर्य, समग्र माधुर्य पर फिर भी प्रभु को एक प्रेम का अभाव सदैव रहता है । इसलिए प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के प्यासे रहते हैं ।
789. प्रभु की भूख प्रेम की है । यह भूख सोने, चांदी, हीरे, मोती से नहीं मिट सकती ।
790. प्रभु को अपने भक्तों की आत्मीयता सबसे प्यारी लगती है ।
791. प्रभु जब श्री वेदजी की स्तुति सुनते-सुनते थक जाते हैं जिसमें उनके लिए आदर है, सत्कार है जो बड़े के लिए होना चाहिए तो फिर प्रभु छोटे बन जाते हैं और अपने भक्तों को गले लगाते हैं क्योंकि प्रभु के प्रेम की भूख को तो भक्त ही मिटा सकते हैं ।
792. हमारी सांसें प्रभु सुमिरन का सुअवसर है जो प्रभु ने कृपा करके हमें दी है ।
793. मनुष्य देह मिलना ही इस बात का सूचक है कि प्रभु की कृपा दृष्टि हम पर पड़ी है ।
794. जैसे बीज का ढेर पड़ा हो और उसमें से एक किसान मुट्ठी भर बीज बोने के लिए हाथ में चुन लेता है वैसे ही इतने असंख्य जीवात्मा में प्रभु ने मुट्ठी भर जीवात्मा को कृपा करके चुन लिया उन्हें मनुष्य बनाने के लिए ।
795. यह भाव हमारे भीतर होना चाहिए कि हमारे प्रभु सबमें हैं और सब कुछ हमारे प्रभु में है । ऐसा प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कहा है ।
796. प्रभु केवल प्रेम की भाषा बोलते हैं और समझते हैं और अपने भक्तों के प्रेम का उत्तर देते हैं ।
797. भक्ति केवल प्रभु प्रेम की ही बात करती है ।
798. प्रभु प्रेम पाने के लिए अपने भक्तों के अधीन हो जाते हैं ।
799. सदैव और सर्वदा सत्संग के निकट बने रहने का प्रयास करना चाहिए ।
800. जो समय हमने सत्संग में दिया वही तो समय है जो हमने सार्थक कर लिया ।