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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 23

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. प्रभु की श्रीलीला का चिंतन करना चाहिए । किसी दिन प्रभु की श्रीगोवर्धन श्रीलीला, किसी दिन प्रभु की भगवती शबरीजी के आश्रम पहुँचने वाली श्रीलीला - इस प्रकार प्रभु की अलग-अलग श्रीलीलाओं का चिंतन अलग-अलग दिन करना चाहिए ।
002. मन को प्रभु में एकाग्र करना सबसे उत्तम और सबसे लाभकारी है ।
003. संत अपने मन को तीर्थों से श्रद्धा से बांध देते हैं यानी वे मन से तीर्थ भ्रमण करके आ जाते हैं ।
004. मूर्ति में प्रभु को जड़ रूप में कभी भी नहीं देखना चाहिए, सदैव चेतन रूप में ही देखना चाहिए । प्रभु की मूर्ति जड़ नहीं चेतन है, यह आभास हमें सदैव होना चाहिए ।
005. भगवद् चेतन को सर्वत्र देखना हमें सीखना चाहिए ।
006. प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा मन रमा रहे और कभी भी प्रभु के श्रीकमलचरणों से दूर न जाए ।
007. भक्त के मन में प्रभु के लिए निरंतर प्रेम भाव जागृत रहता है ।
008. बिना प्रभु की भक्ति का भाव लिए आप कुछ भी करें, आपका चित्त शांत नहीं होगा ।
009. प्रभु को दूर रखकर किया गया योग और ध्यान पागलपन है । प्रभु को केंद्र में रखकर ही योग और ध्यान किया जाना चाहिए तभी वह हमारा कल्याण करेगा और सफल भी होगा ।
010. प्रभु की भक्ति का जीवन में आलंबन लेना ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ लाभ है ।
011. जैसे एक सेठ अपने नौकर को देते वक्त हिसाब करता है और हिसाब अनुसार ही देता है पर वही सेठ अपने बालक को देते वक्त करुणा से भर जाता है और ज्यादा देता है । वैसे ही प्रभु दूसरे को उसके कर्म अनुसार हिसाब करके देते हैं पर अपने भक्त को बहुत अधिक देते हैं ।
012. शांति का खजाना केवल प्रभु के पास ही है, अन्यत्र कहीं नहीं है । प्रभु कहते हैं कि मैं शांति उसे प्रदान करता हूँ जो मेरी भक्ति करता है ।
013. प्रभु शांताकारम हैं इसलिए प्रभु की आराधना करने पर शांति प्रभु के प्रसाद के रूप में हमें प्राप्त होती है ।
014. प्रभु अपने भक्त से कहते हैं कि अपना चित्त प्रभु में लगाना चाहिए ।
015. एक घंटा भी मन प्रभु में लगाना है तो 23 घंटे मन का संसार में रमण से नियंत्रण करना आवश्यक है । अगर 23 घंटे अपने इंद्रियों को संसार के विषयों में विहार करने के लिए छोड़ देंगे तो एक घंटा भी प्रभु में मन लगना संभव नहीं होगा ।
016. जिसको प्रभु की अनुभूति की ललक है उसे अपने संपूर्ण जीवन को अनुशासित करने की आवश्यकता है ।
017. एक छात्रा को भी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अनुशासित पढ़ाई करनी पड़ती है वैसे ही प्रभु को प्राप्त करने के लिए अनुशासन में रहकर भक्ति करनी पड़ती है ।
018. प्रभु की सच्ची भक्ति करने वाले को प्रभु के सिवाय जीवन में अन्य किसी चीज की याद भी नहीं आती है ।
019. भक्ति की पराकाष्ठा पर भक्त प्रभु के लिए महाभाव प्राप्त कर लेता है ।
020. पूरी श्रीमद् भगवद् गीताजी की एक विशेष बात है कि पूरी तौर पर यह सबके लिए नहीं है । हम किस सोपान पर हैं इसको जाँचकर, देखकर, सोचकर निर्णय करके श्रीमद् भगवद् गीताजी का कौन-सा अंश हमारे उस स्थिति के लिए उपयोगी है उसे ग्रहण करना चाहिए । उदाहरण के तौर पर जिसे प्रभु की भक्ति करनी है उसके लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग और ध्यानयोग नहीं है ।
021. श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्रीमद् भागवतजी महापुराण और श्री रामचरितमानसजी का एक-एक अक्षर अनमोल है और परम उपयोगी है । धन्य है भारतवर्ष के वासी जिन्हें यह प्राप्त हुई है ।
022. स्वस्थ शरीर से ही हम साधन कर सकते हैं । इसलिए साधन के लिए शरीर को स्वस्थ रखना जरूरी है ।
023. हमारा भोजन, भोजन नहीं होकर जठराग्नि में यज्ञ रूप होना चाहिए । इसलिए भोजन सात्विक होना अति आवश्यक है ।
024. जो भारतीय शास्त्रों और ऋषियों ने कहा है उसे जीवन में अपनाने से हमारा जीवन परिपूर्ण हो जाएगा ।
025. भक्ति जब जीवन में स्थिर होती है तो संसार का आकर्षण हट जाता है ।
026. भक्त को भक्ति के कारण जो परमानंद मिलता है वह कल्पना में भी दूसरे द्वारा सोचा भी नहीं जा सकता ।
027. प्रभु के लिए जितना प्रेम होगा, जितना समर्पण होगा, उतनी दृढ़ता से हम प्रभु की भक्ति कर पाएंगे ।
028. भक्ति के साधन में हमारी परिपूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए ।
029. प्रभु के लिए धारण किए मेरे नियम से अच्छा संसार में कुछ भी नहीं, यह विचार जीवन में स्थिर रहेगा तो ही हमारे नियम भंग नहीं होंगे ।
030. भक्ति का साधन मेरे लिए, मेरे जीवन के लिए, सबसे महत्वपूर्ण है यह निश्चय जीवन में दृढ़ होना चाहिए ।
031. हमारे भीतर से हमें विषयों के रस को त्यागने की जरूरत है तभी हम आध्यात्मिक उन्नति कर पाएंगे ।
032. प्रभु को दिया जाने वाले समय में से एक भी क्षण व्यर्थ जाने वाला नहीं है, यह सिद्धांत है ।
033. प्रभु के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम में अपने मन को लगाकर अन्य किसी भी बात का चिंतन ही नहीं करना चाहिए ।
034. जीवन में केवल प्रभु का ही आधार लेकर रहना चाहिए ।
035. मन को इतना विकसित कर लेना चाहिए कि प्रभु के अलावा मन में कोई बात आवे ही नहीं, कोई संकल्प-विकल्प उठे ही नहीं ।
036. प्रभु के प्रति रखी हुई श्रद्धा जीव को तार देती है और प्रभु के श्रीकमलचरणों तक जीव को पहुँचा देती है ।
037. शास्त्र का नियम है कि ब्रह्म-बुद्धि कहीं पर भी, किसी भी वस्तु पर की जा सकती है । पर प्रभु में वस्तु-बुद्धि या मनुष्य-बुद्धि करना महापाप है ।
038. श्री तुलसीजी में वृक्ष-बुद्धि नहीं करना, सद्गुरुदेव में मनुष्य-बुद्धि नहीं करना, भगवती गंगाजल में जल-बुद्धि नहीं करनी चाहिए ।
039. संसार की सभी कलाएं अर्जित करना आसान है पर अपने मन पर विजय प्राप्त करने की कला सबसे कठिन है, कुछ बिरले ही ऐसा कर पाते हैं ।
040. संसार में किसी के साथ भी लड़ना आसान है पर स्वयं के मन के साथ लड़ना सबसे कठिन है ।
041. भक्ति धीरे-धीरे मन की चंचलता को कम करती है और अवांछित विचारों के प्रवाह को रोकती है ।
042. भक्ति हमें प्रभु के साथ एकरूप करवाती है और फिर प्रभु के पास जो शांति है वह हमारे भीतर भी प्रवेश करती है ।
043. भक्ति निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है ।
044. एक प्रभु में सब दिखने लगे और सबमें एक प्रभु दिखने लगे, तब भक्ति सिद्ध हो गई - यह समझना चाहिए ।
045. प्रभु के लिए साधन करते वक्त संसार को भूल जाना चाहिए ।
046. संत बनने के लिए वेष को बदलने की आवश्यकता नहीं है, विचारों को बदलने की आवश्यकता है ।
047. जब हम साधन करते वक्त संसार को अपनी दृष्टि से हटा देते हैं तो यह साधन प्रक्रिया की पूर्णता होती है ।
048. शरीर के कारण हम जिन्हें अपना मानते हैं उस भावना का त्याग करके भक्ति में हमें प्रभु के समक्ष उपस्थित होना चाहिए क्योंकि प्रभु ही सच्चे अपने हैं ।
049. मेरा कौन है और मैं किसका ? इसका एक ही उत्तर है कि मैं केवल श्रीभगवान का हूँ और श्रीभगवान ही केवल मेरे हैं ।
050. कोई भी चीज हमें भगवान से दूर नहीं कर सके, ऐसी अवस्था को प्राप्त होना चाहिए ।
051. प्रभु का द्वार केवल मानव जन्म लिए जीवों के लिए ही खुलता है । मानव जन्म के पूर्ण होते ही यह द्वार बंद हो जाता है । फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के बाद यह द्वार दोबारा मानव जन्म में ही खुलेगा ।
052. मानव जन्म प्रभु द्वारा दिया गया प्रभु प्राप्ति का सर्वोच्च अवसर है ।
053. मानव जन्म में ही प्रभु तक जाने का द्वार उपलब्ध है । एक संत ने इस तथ्य को सुंदर उपमा देकर समझाया है । जैसे एक बड़ा गोलाकार कमरा है जिसमें बाहर जाने का मात्र एक दरवाजा है । उसमें एक अंधे व्यक्ति को छोड़ दिया जाए तो वह ढूँढ़ते हुए दीवार तक पहुँच जाएगा । फिर वह दीवार पर हाथ फेरता हुआ गोलाकार घूमने लगेगा । पर जैसे ही दरवाजा आने वाला होता है उसे पीठ पर खुजली आ जाती है और उसका हाथ दीवार से हट जाता है और वह दरवाजा चूक जाता है । दोबारा हाथ लगाता है तो फिर दीवार ही मिलती है । फिर वह गोलाकार चक्कर लगने लगता है । हमारे साथ भी मानव जन्म में ऐसा ही होता है । जब प्रभु तक पहुँचने का दरवाजा आने वाला होता है तो हमें भी संसार की खुजली आती है और हम दरवाजा चूक जाते हैं । फिर हमें दीवार के सहारे चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है ।
054. भगवद् बुद्धि का जीवन में होना बहुत महत्वपूर्ण है ।
055. प्रभु के कोई एक आकार के आग्रही नहीं बनना चाहिए । प्रभु के सभी रूपों को स्वीकार करना चाहिए ।
056. प्रभु चराचर में व्याप्त हैं यानी जड़ और चेतन दोनों में समान रूप से व्याप्त हैं ।
057. प्रभु सेवा का एक नियम अपने लिए अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए जिसके एवज में हमें प्रभु से कुछ भी नहीं चाहना चाहिए ।
058. संसार से अपने सत्कर्मों की शाबाशी नहीं चाहनी चाहिए । यह भावना अगर जीवन में रहेगी तो प्रभु से शाबाशी नहीं मिलेगी ।
059. श्रीमद् भगवद् गीताजी का मूल स्वर भक्ति और शरणागति का है - यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए ।
060. भक्ति के साथ किसी भी संत ने कभी भी समझौता नहीं किया है ।
061. मन इतना चंचल है कि एक दिशा में बैठता नहीं, बड़ी वेग से सब ओर घूमता है, सारे संतोष और संयम को ढ़हा देता है । ऐसा श्री अर्जुनजी प्रभु से कहते हैं ।
062. प्रभु कहते हैं कि मन चंचल तो है पर इससे जो चाहे वह कराया जा सकता है । प्रभु कहते है कि इसके दो उपाय हैं - अभ्यास और वैराग्य । (अभ्यास का अर्थ है कि एक क्रिया को बार-बार करना और उसकी आदत डालना) ।
063. श्रीग्रंथ पर जब हम श्रद्धा रखते हैं तो वे अपने रहस्यों को हमारे लिए खोल देते हैं ।
064. प्रभु कहते हैं कि धीरे-धीरे अभ्यास करते रहने से मन वश में होकर ही रहता है ।
065. अभ्यास से मन को वश में करना आरंभ में तो बहुत कठिन होगा पर कुछ समय बाद वह संभव हो जाएगा ।
066. वैराग्य का अर्थ यह नहीं है कि घर छोड़कर कहीं जाना । वैराग्य का सच्चा अर्थ है कि संसार में रहते हुए संसार के पदार्थ में रस लेना छोड़ देना ।
067. अपने साधन से विपरीत जो-जो बातें हैं उनका जीवन से त्याग होना चाहिए ।
068. जैसे नारियल अपने भीतर के जल के सूखने के बाद कवच से छूटकर गोला रूप में बाहर आता है वैसे ही संसार का रस वैराग्य से सूखने के बाद हमारा आत्म-गोला संसार के कवच से छूटकर बाहर आ जाता है ।
069. पूरे संसार को जीतना जितना कठिन है उससे भी कई गुना ज्यादा कठिन स्वयं को जीतना है ।
070. स्वयं पर नियंत्रण करना बहुत कठिन है पर जो ऐसा कर पता है वह आत्म-विजय कर लेता है ।
071. आत्म-विजय के बाद शांति-ही-शांति है ।
072. संत कहते हैं कि हर जीवात्मा को कहीं भी फिसलन दिखे तो श्रीभगवान को पुकारने की कितनी बड़ी सुविधा उसे मिली हुई है ।
073. जब जीव फिसलता है तो प्रभु ही उसे संभालते हैं ।
074. जीव को भगवत् प्राप्ति के मार्ग पर ही जीवन में चलना चाहिए ।
075. सत्कर्म करने वाले का कभी बुरा नहीं हो सकता - यह प्रभु के श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्रीवचन हैं ।
076. निराशा में आशा की किरण दिखाने वाला श्रीग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीताजी है ।
077. भक्ति करते हुए जो भक्ति के साधनरूपी धन को इकट्ठा किया उसे कोई भी, कभी भी नष्ट नहीं कर सकता । क्योंकि प्रभु उसे सुरक्षित रखते हैं और अगले जन्म में उसे वापस उस जीवात्मा को संभला देते हैं जिससे वह आगे का साधन कर सके और प्रभु की प्राप्ति कर सके ।
078. अपने मन को प्रभु में एकाग्र करना, यही मूल योग है ।
079. भगवत् भक्ति ही श्रीमद् भगवद् गीताजी में सर्वोच्च मानी गई है । प्रभु भक्ति के साथ एकदम भी समझौता नहीं करते ।
080. सबसे बड़ा योग वह है जो अत्यंत श्रद्धा के साथ प्रभु से हमें एकरूप कर दे ।
081. प्रभु जीव के कल्याण के लिए भक्ति से किसी भी प्रकार का किंचित समझौता करने को भी तैयार नहीं हैं ।
082. ज्ञान योग, कर्म योग, ध्यान योग, राज योग, हठ योग, मंत्र योग और लय योग का प्रतिपादन श्रीमद् भगवद् गीताजी में है पर प्रभु ने भक्ति योग को ही सबसे श्रेष्ठ माना है ।
083. समस्त योगों में शिरोमणि और सबसे ऊँ‍चा योग भक्ति-योग ही है ।
084. जो श्रद्धापूर्वक प्रभु की भक्ति करता है उसे ही प्रभु सबसे बड़ा योगी मानते हैं ।
085. श्रीमद् भगवद् गीताजी का मुख्य स्वर भक्ति है । कोई भी बात किसी भी अध्याय में कही गई हो उसका लक्ष्य भक्ति ही है । प्रभु अंत में भक्ति की तरफ ही सबको मोड़ना चाहते हैं ।
086. जो श्रद्धापूर्वक प्रभु में मन लगाकर प्रभु की भक्ति करते हैं प्रभु उन्हें सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं ।
087. बाकी सभी बातें गौण हैं, केवल भक्ति ही सर्वोपरि है - ऐसा प्रभु का मत है ।
088. क्या हमारे जीवन का उद्देश्य प्रभु की भक्ति करना है - यह तथ्य हमें जाँचना चाहिए ।
089. जीवन की सार्थकता और पूर्णता भक्ति करने में ही है ।
090. भक्ति हमारी चेतना को प्रभु से एकरूप कर देती है ।
091. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु कहते हैं कि हमारी चेतना केवल प्रभु के साथ ही जुड़नी चाहिए ।
092. प्रभु में श्रद्धा नहीं बल्कि प्रगाढ़ श्रद्धा होनी चाहिए ।
093. सर्वश्रेष्ठ लोग वे होते हैं जिन्हें केवल भगवान में रस होता है, ऐसा प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कहते हैं ।
094. संपूर्ण श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने भक्ति को ही सर्वोत्तम करार दिया है ।
095. जीवन में कभी भी भक्ति से मन नहीं हटना चाहिए, यह प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में आग्रह है ।
096. जीवन की अंतिम सार्थकता केवल और केवल भक्ति में ही है । वह न ज्ञान में है, न कर्म में है और न ही योग में है ।
097. प्रभु में पूर्ण आसक्ति का नाम ही भक्ति है ।
098. हम संसार में, परिवार में आसक्त हैं । संत कहते हैं कि आसक्ति के विषय को बदल लेने से और वह आसक्ति प्रभु से हो जाने से वह भक्ति हो जाती है ।
099. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानसजी में प्रभु से प्रभु के प्रति आसक्ति मांगी है । कितनी आसक्ति, जितनी कामी को स्त्री से और लोभी को धन से होती है ।
100. श्रीगोपीजन प्रभु में पूर्ण रूप से आसक्त थीं ।
101. श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से प्रभु के श्रीकमलचरणों की आसक्ति मांगी जितनी आसक्ति विषयी पुरुषों को संसार के विषयों में होती है ।
102. भक्ति करने में भी आश्रय प्रभु का ही लिया जाना चाहिए तभी हम भक्ति करने में सफल होंगे ।
103. भक्ति करने वाले के लिए सब कुछ संभव होता है, कुछ भी असंभव नहीं होता क्योंकि उसे प्रभु की कृपा जो प्राप्त हो चुकी होती है ।
104. प्रभु की कृपा से सब कुछ मेरे जीवन में ठीक होने वाला है, यह भक्त को पूर्ण विश्वास होता है ।
105. कितना भी प्रभु के विषय में जानने पर और पढ़ने पर भी जानने और पढ़ने का बहुत विषय शेष रह जाता है ।
106. प्रभु के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है ।
107. प्रभु का पूर्ण वर्णन कभी भी वाणी या लेखनी से नहीं किया जा सकता है ।
108. प्रभु ने अपने शरणागत की योगक्षेम वहन करने की इतनी बड़ी प्रतिज्ञा श्रीमद् भगवद् गीताजी में की है ।
109. हजारों में कोई एक ही भाग्यवान प्रभु प्राप्ति का उद्देश्य लेकर जीवन में चलता है - यह श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु कहते हैं ।
110. प्रभु से ही हमारा संबंध बहुत ही बहुमूल्य है ।
111. जब हम प्रभु तत्व को जान लेते हैं तो प्रभु कितने बहुमूल्य हैं यह हमें पता चलता है ठीक वैसे ही जैसे किसी को पता चलता है कि उसके प्रभु लड्डू गोपालजी की प्रतिमा पीतल की नहीं होकर पूर्ण रूप से स्वर्ण की है ।
112. प्रभु से बढ़कर हमें संसार में कुछ भी प्रिय नहीं लगना चाहिए ।
113. भक्त के विरोध में चाहे पूरा संसार खड़ा हो जाए पर उससे प्रभु की भक्ति छूटती नहीं । भगवती मीराबाई और भक्त श्री प्रह्लादजी की भक्ति छुड़ाने के लिए कितने प्रयास हुए पर उनकी भक्ति नहीं छुड़ा पाए ।
114. हमारे भीतर प्रभु के लिए प्रेम की कितनी गहराई है, यह आकलन हमें जरूर करना चाहिए ।
115. चाहे पूरा संसार विरोध में खड़ा हो जाए तो भी हमारी भक्ति इतनी दृढ़ होनी चाहिए कि हम पलभर के लिए भी भक्ति छोड़े नहीं ।
116. प्रभु हमारे अस्तित्व के मूल आधार हैं ।
117. प्रभु हमारे प्राणों के भी प्राण हैं ।
118. हमारे सबसे समीप प्रभु ही हैं । हमारे शरीर और मन से भी कहीं ज्यादा हमारे समीप प्रभु हैं ।
119. प्रभु को आँखों से नहीं देखा जा सकता पर हमारे आँखों को देखने की जो शक्ति देते हैं, वे प्रभु ही हैं ।
120. प्रभु हैं इसलिए ही हमारा अस्तित्व है ।
121. भक्ति का फल क्या है, यह सोचना ही गलत है क्योंकि भक्ति स्वयं ही फलरूप है ।
122. श्री वेदजी में भक्ति कांड नहीं है । वहाँ सभी कांड के फल रूप में भक्ति का दर्शन है । (श्री वेदजी में कर्म कांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड, यह तीन कांड हैं ।)
123. भक्ति का स्वर सर्वत्र सनातन धर्म के हर श्रीग्रंथ में मिलेगा ।
124. जो कुछ भी है वह प्रभु का स्वरूप है और प्रभु में स्थित है इसलिए किसी की भी निंदा कभी नहीं करनी चाहिए ।
125. तुरंत प्रसन्न होने के कारण प्रभु श्री महादेवजी को आशुतोष कहा जाता है । सबका कल्याण करने के कारण उन्हें श्री शंकरजी कहा जाता है । पवित्रता की पराकाष्ठा होने के कारण उन्हें श्री शिवजी कहा जाता है ।
126. सतोगुण का लक्षण है ज्ञान, प्रकाश और शांति । रजोगुण का लक्षण है क्रिया और चंचलता । तमोगुण का लक्षण है अज्ञान, जड़ता और आलस्य । तीनों गुण किसी-न-किसी अनुपात में सभी में होते हैं । जिस गुण की जिसमें अधिकता होती है उसका परिणाम उसमें ज्यादा दिखता है ।
127. माया में मोहित होकर हम अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते हैं ।
128. परिवर्तनीय दृश्य जो माया दिखाती है उसके पीछे अपरिवर्तनीय सत्य प्रभु हैं पर हमारा ध्यान उनके तरफ जाता ही नहीं ।
129. संसार को दुखालय, यह प्रभु का दिया हुआ नाम है ।
130. भक्ति सर्वश्रेष्ठ है इस बाबत किसी भी श्रीग्रंथों और आचार्यों में मतभेद नहीं है ।
131. प्रभु की माया से कर्मकांड, योग और ज्ञान मार्ग से तरा नहीं जा सकता पर प्रभु कहते हैं जो उनकी शरण में आ जाता है मायारुपी नदी उसके जीवन से ही अंतर्ध्यान हो जाती है ।
132. माया से तरने का एक ही उपाय है कि मायापति प्रभु के संग हमारा परिचय हो जाए ।
133. प्रभु कहते हैं कि जीव जैसे ही प्रभु के श्रीकमलचरणों में आ जाता है और माया को देखता है तो माया अंतर्ध्यान हो जाती है, फिर उसे दिखती ही नहीं ।
134. असुर उसे कहते हैं जो देह के भोगों का ही केवल विचार करता है । ऐसे लोग कभी भी प्रभु की भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने का विचार ही नहीं करते ।
135. जीव के पूर्व पाप उसके वर्तमान बुद्धि में जागरण होने नहीं देते ।
136. असंख्य लोगों को प्रभु की तरफ बढ़ने की इच्छा ही नहीं होती ।
137. बड़ी मात्रा में संचित पापों का नाश हुए बिना व्यक्ति के पग परमार्थ की ओर बढ़ते ही नहीं ।
138. भगवान ही हमारे सब कुछ होने चाहिए ।
139. एक प्रभु के अलावा किसी अन्य को जीवन में मान्य ही नहीं करना चाहिए ।
140. हमारा सारा जीवन माया के चक्कर में फंसे हुए अवस्था में ही समाप्त हो जाता है ।
141. पूर्व जन्मों के पुण्यों का संचय हो तो ही इस जन्म में हम प्रभु की तरफ बढ़ पाएंगे ।
142. पुण्य की पूंजी के बिना प्रभु में रति यानी प्रीति नहीं होती ।
143. हमें प्रभु के लिए व्याकुल हो जाना चाहिए । व्याकुल भक्त को ही प्रभु मिलते हैं ।
144. जब सहायता के सब मार्ग बंद हो जाते हैं तब भी प्रभु का मार्ग खुला रहता है ।
145. अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में भी हमारे केवल प्रभु ही होते हैं ।
146. संसार की यात्रा में तो बहुत सारे लोग हमने जुटा लिए पर मृत्यु के बाद की यात्रा में हमारे साथ केवल हमारी प्रभु की करी हुई भक्ति ही होगी ।
147. विपत्ति में अब मेरा कौन, यह विचार मन में आए तो दूसरा विचार तुरंत यह आना चाहिए कि अब मेरे केवल प्रभु हैं ।
148. चाहे सारे लोग छोड़कर जाएं, एक प्रभु हमारे सनातन साथी होते हैं और सदैव साथ रहते हैं क्योंकि प्रभु हमें कभी नहीं छोड़ते ।
149. प्रभु हमारा हित करते ही रहते हैं ।
150. हमने दुनिया के साथ मेलजोल बढ़ाया जिसकी जगह हमें प्रभु से मेलजोल बढ़ाना चाहिए था ।
151. सारा संसार भी जब हमारे साथ नहीं रहेगा उस समय भी हमें विश्वास रखना चाहिए कि हमारे प्रभु हमारे साथ रहेंगे ।
152. जिसको प्रभु पर पूर्ण विश्वास होता है वह कभी भी और कहीं पर भी अशांत नहीं होता ।
153. विपत्ति या बिना विपत्ति हमारा ध्यान केवल प्रभु की तरफ ही जाना चाहिए ।
154. संत कहते हैं कि श्री गजेंद्रजी ने जितनी व्याकुलता से प्रभु को पुकारा, प्रभु उससे भी कहीं ज्यादा व्याकुल हो गए उनको बचाने के लिए ।
155. प्रभु हमारे कौन हैं, प्रभु से हमारा क्या संबंध है - इसका हमें पता होना चाहिए ।
156. हमें प्रभु का होकर ही जीवन जीना चाहिए ।
157. हम जिस कामना को लेकर प्रभु की भक्ति करते हैं प्रभु को वह कामना पहले से ही पता होती है ।
158. प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज के भी दर्शन प्रभु कृपा बिना संभव नहीं है ।
159. मोक्ष के बाद भी प्रभु भक्तों की भक्ति चलती ही रहती है ।
160. भक्त भगवान को जानने के बाद भी भजन का त्याग कभी नहीं करते । वे और ज्यादा भजन में लग जाते हैं ।
161. भक्ति के बारे में बोलते समय प्रभु भी गदगद हो जाते हैं ।
162. जीवन का उद्धार करना हो तो प्रभु को कभी भी भूलना नहीं चाहिए ।
163. कोई कैसी भी भक्ति कर रहा है उसकी कभी आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह बड़ा पातक होता है ।
164. प्रभु इतने कृपालु हैं कि अपने नाम का गलत उच्चारण करने वाले अज्ञानी को भी और सही उच्चारण करने वाले पंडित-ज्ञानी को भी समान फल दे देते हैं ।
165. प्रभु पाठ में व्याकरण नहीं देखते, प्रभु हमारे अंतःकरण का भाव देखते हैं ।
166. आप प्रभु के बारे में श्रवण करेंगे तो आपका प्रभु प्रेम प्रगाढ़ होगा ।
167. प्रभु भक्त को अपना निज स्वरूप मानते हैं ।
168. भक्त अंतरंग से नित्य प्रभु के साथ जुड़ा हुआ रहता है ।
169. प्रभु का नाम जप कलियुग का सर्वोच्च भक्ति का साधन है ।
170. मैं केवल प्रभु का ही हूँ - यह भाव जीवन में स्थिर होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
171. भक्ति का गौरव है कि भक्त कभी भगवान से अलग हो ही नहीं सकता ।
172. प्रभु और माता अपने भक्तों का बहुत लाड़ करते हैं ।
173. भक्त प्रभु की आत्मा होते हैं ।
174. श्रीमद् भगवद् गीताजी का सर्वोच्च सिद्धांत भक्ति का सिद्धांत है ।
175. भक्ति अनुभव की बात है, बोलने जैसा नहीं है क्योंकि यह अंतरंग का रस है ।
176. जीव मात्र पर प्रभु की करुणा और कृपा होती है ।
177. किसी-न-किसी निमित्त से प्रभु सानिध्य जीवन में लगातार बना रहे, भक्त यही प्रयास करता है ।
178. सांसारिक समृद्धि नहीं होने पर भी परमार्थ की दृष्टि से भक्त श्री सुदामाजी परम समृद्ध थे ।
179. अंतःकरण में हमें प्रभु के साथ पूरी तरह एकरूप होना चाहिए ।
180. जीवन में प्रभु की नित्य प्रतीति होती रहनी चाहिए ।
181. जो आत्मीय व्यवहार प्रभु ने भक्त श्री सुदामाजी के साथ किया वह किसी अन्य के साथ किया हुआ नहीं मिलेगा । पूरा यदुवंश नष्ट होने पर भी जो प्रभु एक आंसू नहीं रोए, वे प्रभु श्री सुदामाजी के पग के प्रक्षालन करते वक्त अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए और जल की जगह अपने आंसुओं से प्रक्षालन कर दिया ।
182. प्रभु ने अपने भक्त श्री सुदामाजी को लौटते हुए कुछ नहीं दिया तो भी उनके चेहरे पर दुःख के कारण एक भी रेशा का परिवर्तन नहीं हुआ । प्रभु के हर व्यवहार में प्रभु की कृपा देखने में भक्त श्री सुदामाजी माहिर जो थे ।
183. धन-संपत्ति कभी भी हमारे और प्रभु के बीच व्यवधान नहीं बननी चाहिए । भक्त श्री सुदामाजी ने यही प्रभु से मांगा जब प्रभु ने उन्हें सुदामापुरी का ऐश्वर्य प्रदान किया ।
184. जब प्रभु ने भक्त श्री सुदामाजी को श्री द्वारकापुरी से लौटते हुए कुछ नहीं दिया तो भी कोई प्रतिकूल भावना प्रभु का वैभव देखने के बाद भी और उसमें से कुछ नहीं मिलने पर भी उनके मन में नहीं आई ।
185. प्रभु श्री शुकदेवजी राजा श्री परीक्षितजी से कहते हैं कि एक लंबी परीक्षा भक्त श्री सुदामाजी की प्रभु ने ली और फिर निर्णय आया कि अजीत प्रभु हार गए और प्रभु का परम प्रिय भक्त श्री सुदामाजी जीत गए । भक्त की जीत के सामने प्रभु को सौ बार हारना स्वीकार होता है और प्रभु बड़े हर्ष से अपने भक्तों के हाथों हारते हैं ।
186. भक्त के प्रेम के आगे, भक्त की श्रद्धा के आगे प्रभु हार मानने में भी आनंद और गौरव मानते हैं ।
187. संत श्री ज्ञानेश्वरजी कहते हैं कि मैं श्रीमद् भगवद् गीताजी की व्याख्या करने बैठा, यह कितने कल्पों का पुण्य प्रभाव है तभी यह संभव हुआ । (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग का एक चक्र एक चातुर्युगी और ऐसी चातुर्युगी जब हजार बार होती है तो प्रभु श्री ब्रह्माजी का एक दिन होता है पर ऐसे प्रभु श्री ब्रह्माजी के सौ वर्ष होने पर एक कल्प होता है) । आप सोचिए कि श्रीमद् भगवद् गीताजी की व्याख्या करना कितने कल्पों का पुण्य फल है, ऐसा संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने कहा है ।
188. प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम रोज कई बार करना चाहिए ।
189. शरणागति देह की क्रिया नहीं है, शरणागति मन के स्तर पर होती है, बुद्धि के स्तर पर होती है और अहम के स्तर पर होती है ।
190. शरणागति से ऊँ‍चा कुछ भी नहीं है । भक्ति हमें प्रभु की शरणागति प्रदान करवाती है । शरणागति भक्ति का गौरव है ।
191. भक्ति के बिना जीवन शुद्धि संभव ही नहीं है ।
192. एक-एक दिन को भक्ति करके सार्थक करते हुए एक-एक वर्ष को सार्थक करना पड़ता है तब हमारा पूरा जीवन सार्थक होता है ।
193. भक्ति हमें प्रभु के साथ एकरूपता का अनुभव करवा देती है ।
194. पहला भाव, मैं केवल प्रभु का हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं पर हमें तो पूरा कुटुंब ही अपना लगता है । मैं और किसी का नहीं हूँ, केवल प्रभु का हूँ - यह मान्यता शरणागति का पहला भाव है ।
195. न मेरा कोई स्थान, न मेरा कोई व्यक्ति, न मेरा कोई पदार्थ, मेरे तो केवल प्रभु - यह शरणागति का परम मंत्र है ।
196. प्रभु की कथा मात्र श्रवण करने के लिए नहीं, कथा को अनुभव करना चाहिए और कथा का चिंतन करना चाहिए ।
197. मैं केवल प्रभु का हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं - इस भाव में रोजाना थोड़ी देर के लिए जाने पर यह भाव जीवन में एक दिन पूरी तरह से दृढ़ हो जाता है ।
198. हमारा प्रभु के अलावा कोई भी नहीं, यह भाव प्रभु को अत्यंत प्रिय है ।
199. मैं प्रभु के अलावा किसी का नहीं - यह दृढ़ भावना मन में पक्की होनी चाहिए ।
200. हम पूजा करते वक्त थोड़े समय के लिए प्रभु से संयुक्त होते हैं पर बाकी समय संसार के साथ ही संयुक्त रहते हैं जो बिलकुल गलत है ।
201. संसार की प्रतीति भक्त के लिए नष्ट हो जाती है ।
202. कर्मकांड, उपासना, योग और ज्ञान की समाप्ति है पर भक्ति की कोई समाप्ति नहीं है । प्रभु अनुभूति के बाद भी भक्ति निरंतर चलती ही रहती है ।
203. प्रभु स्वयं को तो सुलभ कहते हैं पर निष्काम भक्त को दुर्लभ कहते हैं । यानी प्रभु तो सुलभता से मिलते हैं पर निष्काम भक्त बड़ी दुर्लभता से कोई बिरला ही मिलता है, ऐसा प्रभु का मत है ।
204. जीव की कामना उसके पैरों में रस्सी बांधकर उसे प्रभु से दूर खींच ले जाती है ।
205. परमात्मा बोध की तरफ नहीं जाकर हमारा पूरा जीवन कामना पूर्ति के प्रयास में व्यर्थ चला जाता है ।
206. जिसका मन कामनाओं से भरा हुआ है उसका मन प्रभु में लग ही नहीं सकता । वह प्रभु की तरफ देखेगा तो भी कामना पूर्ति के लिए ही देखेगा ।
207. श्री वेदजी विश्व की माता हैं । श्री वेद माता प्रेम तो सभी से एक जैसा करती हैं पर अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग क्रियाएं बताती हैं । सात्विक, राजस, तामस लोग एवं तीनों गुणों से अतीत संतों के लिए अलग-अलग दिशा-निर्देश देती हैं ।
208. सभी देवताओं की करी हुई आराधना के फल प्रभु ही भेजते हैं ।
209. जिसकी श्रद्धा जिन देवी-देवता में होती है प्रभु कहते हैं कि मैं उनकी उन देवी-देवता में श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ ।
210. प्रभु के विधान के अंतर्गत ही सभी देवी-देवताओं को प्रभु ने अधिकार दिए हैं ।
211. निराकार प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के कारण साकार हो जाते हैं ।
212. प्रभु अवतार का मुख्य अर्थ है कि जो प्रभु इंद्रिय अतीत हैं (जो हमारी इंद्रियों से नहीं जाने जा सकते) वे प्रभु इंद्रिय गोचर हो जाते हैं (यानी इंद्रियों से देखने और जानने योग्य हो जाते हैं) ।
213. जिसकी बुद्धि को शास्त्र का संस्कार नहीं, प्रभु में श्रद्धा का अवलंबन नहीं और सद्गुरु कृपा नहीं, वे पतित जीव कहलाते हैं । यह तीन बातें जिसकी बुद्धि से जुड़ती हैं वही सद्बुद्धि जीव कहलाते हैं और वे ही अपनी बुद्धि प्रभु को अर्पित कर पाते हैं ।
214. पूरे ब्रह्मांड में एकमात्र सर्वज्ञ कोई भी अगर है तो वे प्रभु ही हैं ।
215. भक्ति से बुद्धि में नम्रता आ जाती है ।
216. प्रभु का पूरा ज्ञान होना किसी को भी संभव नहीं है । जिसको थोड़ा बहुत ज्ञान हो भी गया उसको उसका वर्णन करना संभव नहीं है ।
217. श्री वेदजी में एक बात आई है कि प्रभु का वैभव और ऐश्वर्य इतना विलक्षण है कि प्रभु भी उसे नहीं जानते तो जीव कैसे जान सकता है ।
218. भक्ति की वृत्ति जगाने के लिए ही सभी शास्त्र हैं ।
219. जिनका पाप समाप्त हो गया वे ही डटकर प्रभु का जीवन में भजन करते हैं ।
220. जीवन में कभी प्रभु के सामने यह शिकायत नहीं करना कि प्रभु आपने हमें क्या दिया ? दो हाथ दिए, दो पग दिए, इतना बढ़िया हृदय दिया, मस्तिष्क दिया, जिह्वा दी, दो नेत्र दिए । इतने के बल पर तो भक्तों ने प्रभु को प्राप्त कर लिया ।
221. जिसने प्रभु के दिए मानव जन्म का सदुपयोग किया उसे कहते हैं पुण्यात्मा और जिसने नहीं किया या गलत कार्य में किया उसे कहते हैं पापात्मा ।
222. मनुष्य जन्म देकर प्रभु ने तो हमें देने में कोई कसर नहीं छोड़ी पर हमने उस जन्म का गलत उपयोग किया ।
223. शास्त्रों के लिए शास्त्र निंदा, अश्रद्धा, आलोचना और आस्था नहीं रखने वाले के पुण्य तत्काल नष्ट हो जाते हैं ।
224. श्री देवतागण, श्री वेदजी, शास्त्र, गौ-माता, ब्राह्मण, साधु पुरुष, सज्जन पुरुष की धर्म से सेवा जो करेगा उसके पुण्य की संपत्ति बढ़ेगी और जो इनका विरोध करेगा उसके पुण्य की संपत्ति नष्ट होगी ।
225. भक्तों से भगवत् भक्ति कभी भी, किसी भी हालत में छूटती नहीं, चाहे कितनी भी अड़चन या प्रतिबंध जीवन में आ जाए ।
226. प्रभु की भक्ति का पुरुषार्थ जीवन में करना चाहिए ।
227. प्रभु के साथ घुल-मिल जाने की प्रक्रिया को ही भक्ति कहते हैं ।
228. मुक्ति भी मिल जाए तो भी कृतज्ञता दिखाने के लिए प्रभु का भजन करते रहना चाहिए ।
229. जो मृत्यु बेला पर शरीर त्यागते समय प्रभु का स्मरण करता है वह सीधा प्रभु के पास पहुँच जाता है । यह बात प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कही है ।
230. जीवन का अंतिम क्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है । जिसका चिंतन उस समय होगा वही रूप में अगला जन्म मिलेगा । अंतिम क्षण चिंतन प्रभु के श्रीकमलचरणों का हो तो हम वहाँ पहुँच जाएंगे । पर यह ऐसे ही नहीं होगा । जीवन भर प्रभु चिंतन का अभ्यास करना होगा तभी अंतिम क्षण यह संभव होगा ।
231. जीवन में ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि अंत समय प्रभु की निश्चित स्मृति बनी रहे ।
232. जीवन की सार्थकता का सिद्धांत है कि उसका जीवन सार्थक है जिसने अंतकाल में प्रभु को याद कर लिया ।
233. जितनी दुनियादारी ज्यादा, उतना अध्यात्म में व्यवधान भी ज्यादा ।
234. उत्तम व्यक्ति वह है जिसकी आवश्यकताएं और व्यवस्थाएं अध्यात्म मार्ग में कम-से-कम हो ।
235. यह अकाट्य सिद्धांत है कि अंत की मति हमारी गति (यानी अगले जन्म की गति) का निर्धारण करती है ।
236. अंतिम समय हमारी बुद्धि में जो वस्तु होगी उसी रूप में हमारा पुनर्जन्म होगा ।
237. शास्त्रों ने देह के त्याग के अंतिम समय को बहुत महत्व दिया है क्योंकि वही हमारे अगले जन्म का निर्धारण करता है ।
238. प्रभु द्वारा किए श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रतिपादन का निष्कर्ष प्रभु की भक्ति और उसके अंतर्गत प्रभु की शरणागति है ।
239. हम वहीं पर होते हैं जहाँ पर हमारा मन होता है इसलिए मन को प्रभु में ही लगाकर रखना चाहिए ।
240. प्रभु का अंतःकरण में सदैव स्मरण करने के लिए हमें सर्वदा प्रयास करना चाहिए ।
241. प्रभु को स्मरण करने की आदत अपने दिनचर्या के साथ जोड़ लेनी चाहिए । दिन में जो भी उपक्रम हमारा हो, उसके साथ प्रभु का स्मरण जुड़ जाए ।
242. परमात्मा से इतना प्रेम होना चाहिए कि उनका नाम जिह्वा पर आते ही शरीर रोमांचित और पुलकित हो जाए ।
243. सर्वदा प्रभु को याद रखना है तो दो बातें करनी होगी जिसका उपदेश प्रभु ने श्री अर्जुनजी को दिया है । पहला बुद्धि और दूसरा मन प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए ।
244. मन का कार्य है प्रेम करना और बुद्धि का कार्य है विचार करना । इसलिए स्मरण प्रभु का हो तो बुद्धि अर्पण होने पर यह संभव है और प्रेम प्रभु से हो तो मन अर्पण होने पर यह संभव है । कितना सरल उपाय श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु बताते हैं ।
245. प्रभु भाषा और व्याकरण नहीं देखते । प्रभु केवल शब्द के पीछे छिपा भाव देखते हैं ।
246. अगर मन और बुद्धि हमने प्रभु को अर्पण कर दिया तो प्रभु कहते हैं श्री अर्जुनजी से कि विश्वास रखो वह जीव निश्चित रूप से प्रभु के पास जाकर पहुँचेगा ।
247. सतत स्मरण प्रभु का करते रहने की जरूरत इसलिए है कि प्राण कब निकल जाएं इसका किसी को पता नहीं । इसलिए जिस समय प्राण निकलें उस समय प्रभु का स्मरण होता हुआ ही निकलें ।
248. मृत्यु हमें कभी भी बिना तैयारी के नहीं मिलनी चाहिए । मृत्यु की तैयारी है कि प्रभु स्मरण की आदत लगातार हमारे जीवन में हो जाए ।
249. अंतकाल में केवल प्रभु की स्मृति होनी चाहिए तभी हमारा उद्धार और कल्याण संभव है ।
250. प्रभु तो हमें लगातार याद करते हैं, हम ही प्रभु को याद करना भूल जाते हैं ।
251. जैसे एक पत्नी के चौबीस घंटे यह भाव जागृत रहता है कि मेरा पति अमुक है, उस भाव के जागरण के लिए उसे अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता । वैसे ही हमारे मन में चौबीस घंटे बिना प्रयास के यह भाव जागृत रहना चाहिए कि हम प्रभु के ही हैं ।
252. मन से हमने अपने आपको संसार का मानकर रखा है । भक्ति उसी मन से यह पक्की भावना करवा देती है कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं ।
253. मन की बिखरी हुई वृत्तियां राई के दाने के जैसे होती है । उसे भक्ति बिना समेटना बहुत कठिन है, लगभग असंभव है ।
254. भक्ति का मार्ग निश्चित ही प्रभु तक जीव को पहुँचा देता है ।
255. अपनी आध्यात्मिक यात्रा की रोज समीक्षा करनी चाहिए कि आज मैं आगे बढ़ पाया या नहीं ।
256. हम मन और विचार के लिए सावधान हैं कि नहीं । अगर सावधान होंगे तो ही मन एकाग्र होगा और विचार सात्विक रहेंगे ।
257. पुनः पुनः प्रभु का चिंतन होता रहेगा तो हमारा मन प्रभु तक पहुँच जाएगा ।
258. प्रभु के लिए साधन में सबसे जरूरी बात कोई है तो वह प्रभु का चिंतन करना है ।
259. हमारे भीतर चिंतन किसका चल रहा है यह देखना बहुत जरूरी है । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ।
260. हम वास्तव में वहीं पर होते हैं जहाँ पर हमारा चिंतन में मन टिका हुआ होता है ।
261. श्री गोपीजन ने बहुत पूजा की, बहुत माला फेरी, इसका वर्णन नहीं है पर उन्होंने सदैव और निरंतर प्रभु का चिंतन किया जिस कारण वे श्रेष्ठतम आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँच गई ।
262. श्री गोपीजन की दिनभर में एक भी क्रिया ऐसी नहीं होती थी जब वे प्रभु को याद नहीं कर रही होतीं ।
263. हमारे मस्तिष्क पर प्रभु का कब्जा हो जाने देना चाहिए ।
264. मन प्रभु को छोड़कर अन्यत्र जाए ही नहीं तो यह जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि होती है ।
265. हमें परमार्थ में मन लगाना पड़ता है पर भक्तों का मन परमार्थ में लगा हुआ ही होता है ।
266. प्रभु का चिंतन हमें प्रभु के साथ एकरूप कर देता है ।
267. भक्तों के साहित्य जैसे श्री भक्तमालजी को पढ़कर प्रभु से प्रेम करना सीख जाना चाहिए ।
268. विचार करें तो प्रभु का, प्रेम करें तो प्रभु से ।
269. प्रभु जब भक्त श्री सूरदासजी का हाथ छुड़ाकर जाने लगे तो उन्होंने कहा कि निबल जानकर हाथ छुड़ाकर तो जा रहे हैं पर हृदय से जाकर दिखाएं तब मानूंगा कि आप चले गए । अंतरंग में उन्होंने प्रभु को पकड़ रखा था ।
270. जीव अल्पज्ञ है और प्रभु सर्वज्ञ हैं ।
271. प्रभु सबका पालन करते हैं इसलिए उनका एक नाम पालनहार है ।
272. प्रभु इतने व्यापक हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
273. श्रीमद् भगवद् गीताजी का अर्थ समझें तो उससे मधुर अनुभव कोई नहीं पर नहीं समझ पाएं तो भी उच्चारण मात्र भी कितना मधुर होता है ।
274. प्रभु को अपने जीवन का मुख्य अवलंबन बनाकर ही संसार के सब व्यवहार करने चाहिए ।
275. साधक को अपने चित्त की वृत्तियों का निरोध करना आना चाहिए ।
276. अगर नियम से किसी ने प्रभु का पूजन किया होगा, जप किया होगा, प्रभु में मन लगाया होगा, प्रभु की सेवा की होगी तो प्रभु कहते हैं कि उसका ऋण प्रभु पर चढ़ जाता है और प्रभु उसके ऋण को उतारने के लिए कृपा करते हैं । अंत समय अगर रुग्णता के कारण उस जीव को प्रभु का स्मरण नहीं होता तो प्रभु उसके भीतर प्रवेश करके उसे अपना स्मरण कराते हैं और गोदी में लेकर उसे अपने धाम ले जाते हैं ।
277. जिसने जीवन भर प्रेम से प्रभु की सेवा की और अब बुढ़ापे में पराधीन हो गया तो प्रभु कहते हैं कि अब मैं उसकी अदृश्य रूप से सेवा करता हूँ ।
278. जीवन भर जो अनन्य चित्त से प्रभु को याद करता है प्रभु कहते हैं क्या मृत्यु बेला पर मैं उसे भूल सकता हूँ ?
279. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु भक्ति के साथ बिलकुल भी समझौता नहीं करते । भक्ति सर्वोपरि है इसका प्रतिपादन प्रभु करते ही हैं । प्रभु कहते हैं कि भक्ति कभी नहीं छूटनी चाहिए ।
280. जीव का अंतकाल भी एक उत्तम उत्सव होना चाहिए, यह हमारे शास्त्र हमें सिखाते हैं । शास्त्र उसे प्राण-पारायण उत्सव का नाम देते हैं ।
281. जन्म पर रोते-रोते हमने मानव जीवन में प्रवेश किया और हमें अपना जीवन ऐसा सार्थक करना चाहिए कि मृत्यु बेला पर नर्क के भय से हमें फिर से रुदन नहीं करना पड़े ।
282. भक्ति के अलावा प्रभु प्राप्ति के लिए प्रभु ने किसी भी साधन को अनिवार्य नहीं बताया । भक्ति को ही एकमात्र अनिवार्य साधन बताया है बाकी सबको सहायक साधन बताया है ।
283. श्री अर्जुनजी को श्रीमद् भगवद् गीताजी के उपदेश में प्रभु समझाते हैं कि इन सभी बातों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात भक्ति ही है ।
284. एक प्रभु का ही स्मरण हमारे अंतःकरण में सतत होना चाहिए ।
285. हम प्रभु के प्रति अनन्य हो जाएं और प्रभु हमारे सतत स्मरण में रहें तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
286. प्रभु के अलावा अन्य कुछ की इच्छा भी करना, यह भक्ति का दोष माना गया है ।
287. जीव का प्रभु के श्रीकमलचरणों में विलीन होना ही जीवन की सार्थकता है ।
288. हमारे भीतर कामनाओं का बोझ लेकर हम प्रभु के पास नहीं जा सकते ।
289. जिस चीज को पाने के लिए हम हाय-हाय करते हैं, भक्ति से हमारी मनोवृत्ति बदल जाती है और फिर उस वस्तु की हमें आवश्यकता ही नहीं लगती ।
290. इतने विशाल संसार में किसे परवाह है कि हमने क्या किया या क्या नहीं किया । इसलिए संसार के लिए करने की जगह प्रभु के लिए करना चाहिए ।
291. प्रभु का पूर्ण विश्वास करके हमें अपना जीवन जीना चाहिए ।
292. प्रभु के अनन्य होना है तो प्रभु के अलावा अन्य का आसरा पहले ही छोड़ देना चाहिए ।
293. कामनाओं को रखकर हम संसार की तलहटी में मजे कर सकते हैं पर कामनाओं का बोझ को त्यागे बिना प्रभु प्राप्ति के लिए ऊपर नहीं चढ़ सकते ।
294. मैं संसार में किसी का नहीं हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं है, मुझे संसार में किसी से कुछ नहीं चाहिए । भक्त की भावना यह होती है कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं ।
295. जब हम संसार के होने का बोझ उतार देते हैं और पूर्ण रूप से केवल प्रभु के बन जाते हैं तो यह भावना ही हमारे भीतर से हमें बहुत आनंदित करती है ।
296. आनंद बाहर से आएगा यह हमारा मुख्य अज्ञान है । आनंद हमारे भीतर है और वहीं से जागृत होगा ।
297. संसार में बाहर आनंद का भ्रम है । आनंद हमारे भीतर ही है ।
298. जिन्हें प्रभु के पास पहुँचना है उन्हें यह जीवन में दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि मुझे एक प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं चाहिए ।
299. सच्चे भक्त प्रभु से कुछ नहीं मांगने का व्रत जीवन में लेकर रखते हैं ।
300. हमारा जीवन प्रभु को अर्पण किया हुआ जीवन होना चाहिए ।
301. अनन्य भक्त एक प्रभु को छोड़कर अन्य किसी बात का स्मरण ही नहीं करते हैं ।
302. अंतःकरण में एकमात्र प्रभु को ही बसाकर रखना चाहिए ।
303. प्रभु की कृपा प्राप्त करने वाले पर देवतागण स्वतः ही कृपा करते हैं ।
304. हमारा चित्त एक प्रभु को छोड़कर अन्य किसी में भी लगा हुआ नहीं होना चाहिए ।
305. संसार के विषय हमारे भीतर घुस जाएं, यह ठीक नहीं है ।
306. पानी में नौका रहे, यह ठीक है पर नौका में पानी घुस जाए तो नौका डूब जाएगी । वैसे ही हम संसार में रहे, यह ठीक है पर संसार हमारे भीतर घुस जाए तो वह हमारा पतन करा देगा ।
307. भक्तों के चित्त में संसार के विषयों के लिए अवकाश ही नहीं होता । वे प्रभु तत्व से लबालब भरे रहते हैं ।
308. प्रभु का अखंड स्मरण जीवन में होना चाहिए ।
309. भक्त का मन प्रभु से चिपका हुआ ही रहता है । अंतःकरण से प्रभु से चिपकना ही योग है ।
310. भक्ति में बहुत सहजता से प्रभु से प्रेम हो जाता है ।
311. भक्त को सर्वत्र प्रभु का ही बोध होता है ।
312. केवल नित्य स्मरण के बल पर भक्त प्रभु को अपना बना लेता है ।
313. अन्य सभी योग से भक्ति योग सबसे ऊँ‍चा है और सर्वोपरि है ।
314. प्रभु के अलावा अन्य किसी के अस्तित्व को भक्त कभी स्वीकार ही नहीं करता ।
315. भक्त संसार चक्र से छूट जाते हैं । उन्हें लौटकर दोबारा संसार में नहीं आना पड़ता ।
316. दुःख संसार का स्वरूप है जैसे आनंद प्रभु का स्वरूप है । इसलिए प्रभु ने संसार को दुखालय कहा है । संसार में आकर दुःख नहीं पाया हो, ऐसा आज तक कोई जन्मा ही नहीं है ।
317. संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है, सब अशाश्वत है । केवल प्रभु ही शाश्वत और सनातन हैं ।
318. जीव के रूप में अनन्य भक्तों का दोबारा संसार में आना संभव ही नहीं क्योंकि वे प्रभु से एकरूप हो जाते हैं ।
319. साधारण लोगों का जन्म उनके कर्मों के कारण होता रहता है पर संत कभी-कभी प्रभु द्वारा जनमानस के मार्गदर्शन और भक्ति के प्रचार के लिए भेजे जाते हैं ।
320. जैसे नदी सागरदेवजी में मिल गई तो वापस लौटकर नहीं आती वैसे ही जो भक्त प्रभु से मिल जाते हैं वे वापस लौटकर संसार में नहीं आते ।
321. धरती का एक वर्ष देवतागणों का एक दिव्य दिन होता है । एक दिव्य दिन के हिसाब से देवतागणों के दिव्य वर्षों की गिनती करें । उस दिव्य वर्षों के हिसाब से चार युग सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग जब निकल जाते हैं तो उसको चातुर्युगी कहते हैं । एक हजार चातुर्युगी यानी एक हजार बार जब चारों युग निकल गए तो प्रभु श्री ब्रह्माजी का एक दिन होता है । ऐसे दिन की गणना के हिसाब से उतने समय प्रभु श्री ब्रह्माजी की एक रात्रि होती है । विराट प्रभु को जानने के लिए इस विराट गणना को जानना जरूरी है तभी हम प्रभु की भव्यता की किंचित मात्र भी कल्पना कर पाएंगे ।
322. जितना-जितना हम प्रभु के लिए ऊँ‍‍ची कल्पना कर सकेंगे उतना-उतना हमारी चेतना का विस्तार होगा ।
323. प्रकाश किरण एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील यात्रा करती है । अब सेकेंड को मिनट, मिनट को घटा, घंटे को दिन, दिन को वर्ष में गणना करें । इस तरह चार हजार प्रकाश वर्ष एक तारा धरती से दूर होता है । प्रभु की रचना की भव्यता देखें ।
324. अध्यात्म हमारी चेतना को बहुत ऊँचे स्तर पर ले जाता है ।
325. अंतकाल में प्रभु धाम जाने के लिए हम सिद्ध रहें इसके लिए जीवन काल में भक्ति करके हमें तैयारी करनी चाहिए ।
326. अनन्य भक्ति के द्वारा हमें प्रभु के साथ सदैव जुड़कर रहना चाहिए ।
327. एक प्रभु को छोड़कर अन्य कुछ ब्रह्मांड में है ही नहीं, इस भूमिका में हमारा चित्त हो जाए, यह केवल भक्ति से ही संभव है ।
328. ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसा कोई कण नहीं जहाँ प्रभु की परम सत्ता विराजमान नहीं हों ।
329. प्रभु हमें कृपा करके बहुत संभावनाओं से भरा हुआ मानव जीवन प्रदान करते हैं । मानव जीवन का श्रेष्ठ उपयोग अनन्य प्रभु की भक्ति करके किया जा सकता है । हम करते हैं कि नहीं यह अलग बात है ।
330. हमारा प्रभु प्राप्ति का साधन उत्साहपूर्ण होना चाहिए ।
331. अंतिम समय जीव का बहुत ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंतकाल बिगड़ गया तो वह जीव संसार चक्र में ही फंसा रहेगा ।
332. हमारी जिह्वा पर प्रभु का मंगलमय नाम ही होना चाहिए ।
333. अंतिम समय प्रभु का स्मरण हो इसलिए हमें जीवन भर प्रभु का स्मरण करते रहना होगा ।
334. उत्तम गति के लिए सावधान होकर प्रभु स्मरण करते हुए शरीर त्यागना अनिवार्य है ।
335. इतना प्रभु से प्रेम हो जाए, इतना प्रभु में मन से तल्लीन हो जाएं कि प्रभु के अतिरिक्त हमें कुछ सूझे ही नहीं ।
336. भक्ति करने वाले का शरीर चाहे चांडाल के घर का हो और चाहे अमावस्या के दिन भी उसका शरीर छूटता है तो भी उसकी की हुई भक्ति के कारण उसकी गति उत्तम-से-उत्तम ही होगी, इसमें कोई शंका नहीं है ।
337. हर समय यह भाव रहे कि मैं संसार का नहीं हूँ, मैं केवल प्रभु का ही हूँ ।
338. प्रभु में चित्त लगाकर रखने वाले भक्त को परम और दिव्य गति प्राप्त होती है ।
339. प्रभु से अंतःकरण से जुड़कर इस मानव जीवन को सार्थक और धन्य करना चाहिए ।
340. जिसमें प्रभु के लिए अश्रद्धा का भाव होगा वह कभी भी प्रभु तक नहीं पहुँच सकता ।
341. प्रभु के हृदय में हमारे कल्याण को छोड़कर अन्य कोई स्वार्थ का लेश भी नहीं होता है ।
342. शास्त्र वाक्य को सदैव अंतिम प्रमाण के रूप में मानना चाहिए ।
343. प्रभु की तरफ यात्रा को प्रभु के लिए अंतःकरण में परम श्रद्धा धारण करके आरंभ करना चाहिए ।
344. जो प्रभु तक पहुँचता नहीं वह अन्यत्र कहीं भी पहुँचकर आराम और विश्राम नहीं प्राप्त कर सकता ।
345. सारे संसार का सुख मात्र आभास जैसा है मगर असल में नहीं है ।
346. जो जीव संसार के सुख के पीछे भी दौड़ता है और चाहता है प्रभु को भी प्राप्त कर ले तो ऐसा होना कतई संभव नहीं है ।
347. एक भी स्थान से हमारा चित्त चिपका हुआ है तब तक हमारी आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है ।
348. भाग्यवान वे हैं जिनका ध्यान केवल एक प्रभु की ओर ही जाता है ।
349. प्रभु सर्वदा और सर्वत्र हैं । संसार का कण-कण केवल प्रभु से भरा हुआ है ।
350. प्रभु कहीं नहीं हैं यह एक नास्तिक का दृष्टिकोण है । प्रभु अभी और यहीं हैं यह दृष्टिकोण एक आस्तिक का होता है ।
351. प्रभु को खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता क्योंकि प्रभु हर जगह एक समान रूप से स्थित हैं ।
352. प्रभु सर्वत्र हैं पर संसार के व्यवधानों के कारण हमें प्रभु में मन लगाने की फुर्सत ही नहीं मिलती ।
353. प्रभु इतने व्यापक हैं कि उनके एक-एक रोमावली में कोटि-कोटि ब्रह्मांड बसते हैं । एक ब्रह्मांड में पृथ्वी का आकार एक धुली कण जितना है । अब आप कल्पना करें ब्रह्मांड कितना बड़ा और ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्मांड प्रभु की एक-एक रोमावली में स्थित हैं ।
354. संसार के पीछे पड़ने वाले को प्रभु नहीं मिला करते हैं, यह प्रभु ने श्री अर्जुनजी को श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है ।
355. विश्वरूप दिखाकर भी प्रभु सीमित नहीं हो गए । विश्वरूप के पार भी प्रभु ही हैं, यह प्रभु का ऐश्वर्य योग है ।
356. प्रभु के बिना जगत में कुछ भी नहीं हो सकता ।
357. समस्त ब्रह्मांड के प्राणियों के प्रभु ही ईश्वर हैं ।
358. हमने अपनी-अपनी प्रभु के लिए कल्पना की हुई है और उस कल्पना में हम प्रभु को बांधना चाहते हैं पर प्रभु सभी कल्पनाओं से अतीत हैं ।
359. मैं जिनकी आराधना करता हूँ वे मेरे ठाकुरजी हैं पर दूसरा जिनकी आराधना करता है (यानी दूसरे धर्म के या दूसरे पंथ के) वे भी मेरे ठाकुरजी का ही रूप है ।
360. अपने दृष्टिकोण से प्रभु को कभी भी बांधना नहीं चाहिए ।
361. अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने प्रभु की सेवा बहुत अच्छी तरह से करना पर किसी दूसरे की श्रद्धा को चोट पहुँचाने का कार्य कभी नहीं करना चाहिए ।
362. दूषित दृष्टिकोण का व्यक्ति प्रभु द्वारा बताए अपने रहस्यों को उनके द्वारा की गई अपनी बड़ाई मान सकता है इसलिए प्रभु अपना गुह्यतम ज्ञान उन्हें बताते नहीं और केवल अपने भक्त को ही बताते हैं ।
363. हमारा सीमित आध्यात्मिक ज्ञान सत्य ज्ञान को ढक देता है । वैसे ही हमारे सीमित सांप्रदायिक ज्ञान से सच्चा ज्ञान ढक जाता है ।
364. विश्व का कल्याण करने वाले सनातन धर्म के विचार से ऊँ‍चा कोई विचार नहीं है ।
365. जीवन में संयम, सदाचार, परोपकार और सद्गुण होना चाहिए तभी मानव जीवन की ऊँचाइयाँ हम छू पाएंगे ।
366. श्रीग्रंथों के विचार में डूब जाना ही हमारे उद्धार का साधन होता है ।
367. श्रीमद् भगवद् गीताजी प्रभु की साक्षात वाणी होने के कारण श्रेष्ठतम है ।
368. श्रीमद् भगवद् गीताजी पुरातन भी है और सनातन भी है । पुरातन यानी सबसे पुरानी है (क्योंकि श्री अर्जुनजी को कहने से पहले आदिकाल में प्रभु ने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी से यही कहा था) और सनातन है यानी हमेशा के लिए उपयोगी है ।
369. जैसे श्री अर्जुनजी ने अपने रथ के घोड़े की लगाम प्रभु के श्रीहाथों में सौंप दी थी वैसे ही हमें भी अपनी इंद्रियों की लगाम प्रभु को सौंप देनी चाहिए ।
370. श्री अर्जुनजी श्रीमद् भगवद् गीताजी के प्रथम अध्याय में विषाद से प्रभु के सामने रोए । प्रभु के सामने रोने से उनका रोना भी योग बन गया । इसलिए रोना भी है तो संसार के सामने नहीं, प्रभु के समक्ष ही रोना चाहिए ।
371. विषाद और अवसाद से श्री अर्जुनजी को निकाल कर प्रभु उन्हें प्रसन्नता के शिखर तक ले गए ।
372. अवसाद और विषाद की स्थिति में सबसे सहायक कोई श्रीग्रंथ है तो वह श्रीमद् भगवद् गीताजी ही है ।
373. श्रीमद् भगवद् गीताजी के सिद्धांत भक्त हृदय में दौड़कर आते हैं और भक्त का मार्गदर्शन करते हैं ।
374. भक्ति का साधन कभी भी जीवन में व्यर्थ नहीं जा सकता, यह प्रभु की घोषणा है ।
375. प्रभु से एकरूप होने का विज्ञान सीखने वाला ज्ञान गुह्यतम योग है ।
376. प्रभु अपने भक्तों का कल्याण-ही-कल्याण करते हैं ।
377. प्रभु अपने भक्तों को अपना सर्वोच्च देना चाहते हैं । प्रभु इतना आत्मीय रिश्ता अपने भक्तों से मानते हैं ।
378. मन का बाहर का किवाड़ बंद हुए बिना भीतर का किवाड़ खुलता नहीं है जहाँ असली खजाना छिपा हुआ है यानी अंतर्मुखी हुए बिना आत्म-धन नहीं मिल सकता ।
379. प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा गया एक-एक वचन अमूल्य है और अदभुत है ।
380. संपूर्ण जीवन के प्रबंधन का श्रीग्रंथ है श्रीमद् भगवद् गीताजी ।
381. सनातन धर्म हमें दुराचार से बाहर निकाल कर सदाचार युक्त बनाने का मार्ग दिखाता है, प्रेरणा देता है, प्रक्रिया सिखाता है और व्यवस्था करता है ।
382. सारे धर्म का सार जीवन में सात्विकता लाना ही है ।
383. हमें प्रभु के समीप पहुँचने की साधन यात्रा जीवन में करनी चाहिए ।
384. भक्ति से हमारे भीतर अच्छे सद्गुण धीरे-धीरे विकसित होते जाते हैं ।
385. श्रेष्ठ सत्पुरुष प्रभु की भक्ति करते हैं । यह मूल बात प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को बताते हैं ।
386. आध्यात्मिक उन्नति होने पर ही जीव को शांति प्राप्त हो सकती है ।
387. प्रभु कहते हैं कि सद्गुण जीव में कभी-कभी झलके ऐसा नहीं बल्कि सद्गुण जीव का स्वभाव ही बन जाना चाहिए ।
388. प्रभु की भक्ति केवल प्रभु के लिए ही की जानी चाहिए ।
389. प्रभु को ही अपना सर्वस्व मानना चाहिए ।
390. प्रभु ही हमारे जीवन का एकमात्र आश्रय, एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र गंतव्य और एकमात्र प्राप्तव्य होने चाहिए ।
391. जीवन में उठने वाले सारे विचार प्रभु को केंद्र में रखकर ही उठने चाहिए ।
392. प्रभु का विचार भोगों को केंद्र में रखकर नहीं उठाना चाहिए । प्रभु को कभी भी भोग की वस्तु प्राप्त करने का साधन नहीं बनना चाहिए ।
393. प्रभु की भक्ति ही जीवन में प्रधान होनी चाहिए ।
394. भक्तों का ध्यान प्रभु को छोड़कर अन्यत्र कहीं जाता ही नहीं ।
395. भगवत् भजन भी कामना पूर्ति के लिए नहीं, केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए करना चाहिए ।
396. प्रभु को छोड़कर अन्य का आश्रय जीवन में नहीं रखना चाहिए ।
397. सृष्टि में सब कुछ प्रभु के अधीन है ।
398. सृष्टि में सब कुछ प्रभु की इच्छा से निर्माण हुआ है ।
399. अशाश्वत संसार का सहारा लेने से कहीं अच्छा है शाश्वत प्रभु का आश्रय जीवन में लिया जाए ।
400. हमें यह निर्णय लेना है कि नाशवान संसार की तरफ दौड़े या सबके नियंता प्रभु को प्राप्त करें ।
401. भक्त के जीवन का सबसे बड़ा अवलंबन प्रभु की भक्ति होती है और वे जीवन में भक्ति का आनंद लेते हैं ।
402. यह शास्त्रों का सिद्धांत है कि जो सच्ची और निष्काम भक्ति करेगा उसे आनंद-ही-आनंद प्राप्त होगा ।
403. ज्ञानी को प्रभु के ज्ञान की अनुभूति हो जाती है पर आनंद की अनुभूति केवल उन्हें होती है जो प्रभु की भक्ति करते हैं । आनंद की प्राप्ति भक्ति के बिना कतई संभव नहीं है ।
404. जीवन में सबसे बड़ा और सच्चा सौंदर्य होता है हमारे भीतर के सद्गुण । जिसमें जितने सद्गुण अधिक वह उतना सुंदर अधिक ।
405. उस कंठ की शोभा है जो प्रभु का गुणानुवाद करती है ।
406. उन कानों की शोभा है जिसने शास्त्रों में वर्णित प्रभु के गुणानुवाद का श्रवण किया है ।
407. भक्त आनंद के सागर में निरंतर विहार करते हैं ।
408. कुछ लोग सामान्य वस्तु प्राप्त करने के लिए भक्ति करते हैं और कुछ मोक्ष प्राप्त करने के लिए । पर सच्चा भक्त केवल प्रभु की प्रसन्नता और परमानंद के लिए ही भक्ति करता है ।
409. भक्ति का परमानंद मोक्ष से भी ऊँ‍चा है ।
410. भक्त के मुख से निरंतर प्रभु का नाम, प्रभु का मंत्र और प्रभु के पद निकलते ही रहते हैं ।
411. भक्त के पास जो परमानंद की अनुभूति होती है उससे अधिक अन्य किसी के पास नहीं होती ।
412. भक्त बोलते हैं तो प्रभु के बारे में, देखते हैं तो प्रभु के विग्रह की ओर यानी उनके सभी इंद्रियों के विषय प्रभु हो जाते हैं ।
413. भक्त अखंड प्रभु स्मरण में लीन रहते हैं ।
414. जहाँ भगवत् नाम लिया जाता है वहाँ सभी अनुकूलता होने लग जाती है ।
415. किसी के जीवन में सुख देखें तो यह किसी-न-किसी जन्म में उसके द्वारा किए पुण्य का परिणाम है । किसी के जीवन में दुःख देखें तो वह किसी-न-किसी जन्म में उसके द्वारा किए पाप का ही परिणाम है ।
416. पापों को नाश करने का सर्वोत्तम उपाय जो बताया गया है वह भगवत् नाम का जप और कीर्तन है । यही पाप नाश का कलियुग में निश्चित उपाय है ।
417. हमारे द्वारा जानकर या अनजाने में किए गए छोटे-से-छोटे अच्छे या बुरे कर्म का फल हमें मिले बिना नहीं रहता । यह अकाट्य सिद्धांत है ।
418. प्रभु का नाम किसी भी निमित्त से लिया गया हो वह तो कल्याण-ही-कल्याण करके रहेगा । इसलिए प्रभु के नाम जप को अपने दिनचर्या में सदैव शामिल करके रखना चाहिए ।
419. प्रभु का किया नाम जप इन नाम अपराधों से नष्ट हो जाता है । इसलिए नाम जप करते हुए यह अपराध न हो इसके लिए सदैव सचेत रहना चाहिए । पहला, संत निंदा नहीं करनी चाहिए । दूसरा, जिनको नाम में निष्ठा नहीं है उनके सामने नाम की महिमा नहीं गाना, श्रद्धावान के सामने ही नाम की महिमा गाना चाहिए । तीसरा, प्रभु के अनेक रूपों में भेद बुद्धि नहीं रखना और सभी रूप हमें मान्य होने चाहिए । चौथा, श्री वेदजी और शास्त्रों का पूर्ण रूप से विश्वास रखना चाहिए । पांचवा, प्रभु नाम की हुई प्रशंसा पर कभी भी तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिए । छठा, नाम ले रहे हैं कि नाम से पाप नष्ट होंगे और पाप भी करते जा रहे हैं नाम के भरोसे यानी नाम के भरोसे पापाचरण नहीं करना चाहिए । सातवां, जिनका शास्त्र ने निषेध किया है उन कर्मों को नाम के भरोसे नहीं करना चाहिए । आठवां, प्रभु का नाम जप के साथ किसी मंत्र की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए ।
420. भक्त दैवी संपत्ति यानी सद्गुणों से अलंकृत होते हैं ।
421. भक्त सदैव प्रभु के बारे में ही बोलना चाहते हैं ।
422. प्रभु उपासना के लिए पांच अवलंबन भक्त के पास होते हैं । प्रभु का नाम, प्रभु का रूप, प्रभु का धाम, प्रभु के सद्गुण और प्रभु की श्रीलीला ।
423. श्रीराम नाम को सहस्त्रनाम तुल्य माना गया है । कभी इसमें तनिक भी संदेह रखकर यह नहीं सोचना चाहिए कि यह बढ़ा चढ़ाकर की गई श्रीराम नाम की प्रशंसा है क्योंकि यह परम सत्य है ।
424. जिसको नाम पर विश्वास हो गया उसके लिए अन्य कोई योग की कभी भी आवश्यकता नहीं है ।
425. भक्त काम भी करते हैं पर उनके हृदय में प्रभु का नाम लेना बंद नहीं होता । उनकी इंद्रियों को ऐसा अभ्यास हो जाता है ।
426. भक्त हृदय में प्रभु प्रेम लबालब भरा होता है । वे कहेंगे तो प्रभु के बारे में, गाएँगे तो प्रभु का नाम और सोचेंगे तो प्रभु की श्रीलीला ।
427. भक्त अधिक-से-अधिक समय संसार के प्रपंच से निकलकर प्रभु भक्ति में लगाते हैं ।
428. हमारे भीतर भक्ति के लिए दृढ़ता होती है तभी भक्ति मार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है ।
429. भक्त की चित्त वृत्ति प्रभु में लीन होती है ।
430. भक्ति प्रभु से जुड़े रहने के लिए एक कवच का काम करती है ।
431. हमें प्रभु से निरंतर जुड़े हुए ही रहना चाहिए ।
432. जितना हम संसार की ओर देखेंगे उतना संसार हमारे भीतर घुसेगा और जितना संसार भीतर आएगा उतना हम प्रभु से दूर होते जाएंगे ।
433. अगर प्रभु हमारे जीवन के लक्ष्य हैं तो हमें संसार में उलझने की आवश्यकता नहीं है ।
434. जो मन सच्चे रूप से प्रभु का चिंतन करता है उस मन में संसार के विषय घुस नहीं सकते ।
435. प्रभु को नित्य दंडवत प्रणाम करने की एक आदत हमारे जीवन में चमत्कार ला सकती है ।
436. भक्ति प्रभु के साथ हमारा एकत्व करवा देती है ।
437. संसार इतना हमारे भीतर चिपका हुआ है कि वैराग्य न होने पर हम भक्ति में सफल नहीं हो सकते ।
438. प्रभु के पास कोई भी रिश्ता लेकर जाएं, प्रभु उस रिश्ते को स्वीकारते हैं और निभाते हैं ।
439. प्रभु को जब हम पुकारते हैं तो प्रभु की कृपा की हमें अनुभूति होती है ।
440. आप प्रभु की भक्ति करते रहे तो प्रभु आपकी रक्षा किए बिना नहीं रुकेंगे, रक्षा करके ही रहेंगे ।
441. प्रभु से संबंध अपनी ओर से जोड़ना पड़ता है । प्रभु तो हर संबंध निभाने को सदैव तैयार ही खड़े हैं ।
442. जीव जिस प्रकार की भूमिका लेकर प्रभु के पास जाता है प्रभु उस भूमिका में आने को सदैव तैयार रहते हैं ।
443. प्रभु के साथ किसी भी तरह जुड़ने का नाम ही भक्ति है ।
444. भक्ति करने वाले का प्रभु भी सहयोग करते हैं कि वह भक्ति में सफल हो पाए ।
445. प्रभु अपने भक्तों को अपने बहुत समीप ले लेते हैं ।
446. प्रभु को भी अपने भक्तों का आकर्षण होता है ।
447. भक्ति करने वाले का प्रकृति भी सहयोग करती है ।
448. प्रभु हमारे समस्त कर्मों के साक्षी होते हैं ।
449. आपत्ति आने पर प्रभु की शरण में जाने पर ही हमें सुरक्षा मिलेगी ।
450. प्रभु हर जीव का परम हित ही करना चाहते हैं और करते हैं ।
451. किसी भी अवस्था में चाहे पूरा संसार हमारा साथ छोड़ दे पर प्रभु हमें कभी नहीं छोड़ेंगे ।
452. प्रभु हमारे साथ हैं, इसका भान और ज्ञान सतत बने रहने से हमें मन में कितनी शांति मिलती है ।
453. प्रभु सर्वदा हमारे साथ हैं पर हम परेशान इसलिए होते हैं कि हम विपत्ति में भूल जाते हैं कि प्रभु हमारे साथ हैं ।
454. जीव की उन्नति के भी मूल कारण प्रभु ही हैं ।
455. विश्व का सबसे मूल्यवान खजाना प्रभु हैं । इसलिए जीवन को प्रभुमय करके इस खजाने से हमें अपने आपको भरना चाहिए क्योंकि यह खजाना कभी कम नहीं होगा ।
456. प्रभु को खोजने के लिए हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रभु हमारे भीतर और हमारे सबसे समीप निवास करते हैं ।
457. प्रभु हमारे इतने पास हैं इसका हमें पता भी नहीं होता और विश्वास भी नहीं होता ।
458. प्रभु की खोज में हमें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम जहाँ चाहे प्रभु का अनुभव ले सकते हैं ।
459. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु भक्ति के साथ समझौता करने को बिलकुल भी तैयार नहीं हैं ।
460. तीर्थ यात्रा से पुण्य मिलता है पर शांति और प्रभु की प्राप्ति के लिए हमें भीतर की अंतर्यात्रा ही करनी पड़ती है ।
461. अगर हमें पता चल जाएगी प्रभु हमारे इतने समीप हैं तो हमारी आत्मीयता प्रभु के लिए कितनी बढ़ जाएगी ।
462. संसार के भोगों को प्रभु ने त्याज्य कहा है । केवल भोग भोगने के लिए ही जीने वाले को दुःख से छुटकारा कभी नहीं मिल सकता । इसलिए भोग-इच्छा हमारा स्वभाव नहीं होना चाहिए ।
463. प्रभु की पूजा केवल मांगने के लिए नहीं करना, कभी धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए भी करना चाहिए कि प्रभु अब कुछ नहीं चाहिए सिर्फ मेरा मन यही चाहता है कि आपको सब कुछ के लिए धन्यवाद देना है ।
464. प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करने का भाग्य प्राप्त हो, यह प्रभु से मांगना चाहिए ।
465. सकामता की पूर्ति के लिए हम जितना कष्ट उठाते हैं उसका आधा भी प्रभु की निष्काम भक्ति के लिए उठाते तो प्रभु हमें अपने श्रीकमलचरणों का अखंड सुख दे देते जिसका नाश कोई नहीं कर सकता ।
466. सकामता से स्वर्ग के भी सुख प्राप्त करने के प्रयास ने हमें प्रभु से दूर कर दिया । इसलिए संत श्री ज्ञानेश्वरजी कहते हैं कि ऐसा पुण्य भी पाप जैसा ही हो गया ।
467. प्रभु की भक्ति से हम परमानंद प्राप्ति के योग्य बन जाते हैं ।
468. अस्थाई सुख की प्राप्ति के प्रयास में हम स्थाई प्रभु से दूर चले जाते हैं, यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
469. जीवन में सकामता हमें शाश्वत प्रभु तक नहीं पहुँचने देता ।
470. मानव जन्म में हमें प्रभु की प्राप्ति हो सकती थी पर हमने सारा प्रयास नश्वर वस्तुओं के लिए किया ।
471. हम संसार और स्वर्ग के नश्वर भोगों के लिए सकाम कर्म कर प्रभु से दूर होते जाते हैं । यह तो वैसा ही है जैसे फसल के बाद हम धान को छोड़कर भूसा घर में ले आए ।
472. मनुष्य जन्म को प्राप्त करके अंतकाल तक हमने क्या पाया, यह हमें देखना चाहिए ।
473. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु कहते हैं कि भक्त की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ ।
474. प्रभु भक्त का योगक्षेम उठते हैं और दो बातों का आश्वासन भक्त को देते हैं । पहला, जिस समय जो कुछ चाहिए वह मिलता रहेगा । दूसरा, जो आज भक्त के पास है उसका नाश प्रभु कभी नहीं होने देंगे । योग कहते हैं जो आज भक्त के पास नहीं है पर समय पर उसकी आवश्यकता रहेगी उसे प्राप्त करवाने की प्रभु की घोषणा है । क्षेम कहते हैं जो उपलब्ध है भक्त के पास उसके संरक्षण करने की प्रभु की घोषणा है । यह दोनों प्रभु का कितना बड़ा आश्वासन है जो आज भक्त के पास है उसे प्रभु नष्ट नहीं होने देंगे और जो भक्त के जीवन यात्रा में अगले वर्ष, पांच वर्ष, दस वर्ष, पचास वर्ष बाद जो आवश्यकता होगी वह आवश्यकता जहाँ पर जैसी होगी उस अनुसार जो चाहिए वह वहाँ पर मिल जाएगा । यह आश्वासन, प्रभु, जो अनंत कोटि ब्रह्मांड के नियंता हैं, वे दे रहे हैं । प्रभु कहते हैं कि भक्तों को चिंता ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह सब प्रभु उनके लिए करेंगे ।
475. भक्त का सारा दायित्व प्रभु अपने ऊपर ले लेते हैं ।
476. प्रभु सदैव भक्त का परम हित करते हैं ।
477. योगक्षेम प्रभु उनका उठाते हैं जो प्रभु से अनन्य हो गए । ऐसा करने के लिए प्रभु कटिबद्ध हैं ।
478. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु का असाधारण वचन है योगक्षेम वहन करने का ।
479. अनन्य का अर्थ है एक प्रभु के अलावा अन्य किसी का आश्रय नहीं लेना यानी जीवन के सारे आधारों को छोड़ देना ।
480. जीवन का एक ही आधार केवल प्रभु होने चाहिए ।
481. जीवन का एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि प्रभु बस हमारे होने चाहिए ।
482. हमारे जीवन का लक्ष्य संपत्ति, सत्ता, कीर्ति, बड़प्पन, सुख, उपभोग है या केवल प्रभु ही जीवन के अकेले लक्ष्य हैं - यह हमें देखना चाहिए ।
483. भक्त को केवल प्रभु कृपा का ही भरोसा होता है ।
484. हमारे जीवन के आधार और लक्ष्य दोनों एकमात्र प्रभु ही होने चाहिए ।
485. जहाँ हम बैठे वहाँ हम नहीं होते, जहाँ हमारा चित्त चला जाता है वहाँ हम होते हैं । इसलिए जहाँ भी रहें चित्त से प्रभु का चिंतन करते रहें ।
486. बुद्धि का कार्य है विचार करना, मन का काम है प्रेम करना । इसलिए बुद्धि से प्रभु का विचार और मन से प्रभु से प्रेम करना चाहिए ।
487. प्रभु विग्रह में मूर्ति बुद्धि नहीं बल्कि चेतन बुद्धि रखनी चाहिए तभी हमारी आराधना सार्थक होगी ।
488. भक्त केवल प्रभु के लिए ही समर्पित हो जाता है ।
489. भक्त अपनी इंद्रियों से प्रभु को ही ग्रहण करने में लग जाता है । भक्त को प्रभु के अलावा कुछ सुनना, बोलना और देखना अच्छा ही नहीं लगता ।
490. भक्त वह है जो किसी भी प्रकार से प्रभु से अलग हो ही नहीं सकता । जो इतना प्रभु से चिपक गया वही सच्चा भक्त है ।
491. प्रभु के भक्त नित्य अंतरंग से प्रभु के साथ एकरूपता का अनुभव करते हैं ।
492. भक्त के लिए एक प्रभु को छोड़कर अन्य कोई भी विषय नहीं रहता ।
493. भक्ति की पहली शर्त है अनन्यता यानी मुझे एक प्रभु को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं चाहिए ।
494. भक्त अपना जीवन भक्ति करने के लिए दांव पर लगा देता है । अब कैसे रखना है, क्या खिलाना है - यह सब प्रभु के ऊपर छोड़ देता है ।
495. भक्त कभी अपनी चिंता नहीं करते, वे भगवत् चिंतन ही करते हैं । हमारा समय अपनी चिंता में जाता है, भगवत् चिंतन में नहीं जाता । यह कितना बड़ा फर्क है ।
496. जितना-जितना अपनी चिंता उतना-उतना जीवन में पतन । जितना-जितना भगवत् चिंतन उतना-उतना जीवन में उत्थान ।
497. अन्य आश्रयों को त्यागना ही अनन्यता है ।
498. समाधि अंतःकरण की प्रभु के साथ एकरूपता का नाम है ।
499. हम चित्त में प्रभु को क्षण भर लाने का प्रयास करते हैं पर श्रीगोपीजन का चित्त ही प्रभुमय हो गया था ।
500. जो प्रभु के चिंतन में डूब गया, अन्य आश्रयों को छोड़ दिया, प्रभु कहते हैं ऐसे अनन्य भक्त की जितनी एक माँ अपने नवजात शिशु की चिंता करती है उससे कोटि गुना ज्यादा मैं चिंता करता हूँ ।
501. जैसे एक माँ अपने नवजात बालक को संभालती है, उस बालक को कुछ भी नहीं करना पड़ता क्योंकि वह माँ के अधीन होता है । वैसे ही प्रभु अपने भक्त को संभालते हैं जो प्रभु के अधीन होते हैं ।
502. प्रभु के अधीन होकर ही जीवन जीना चाहिए ।
503. भक्त अन्य किसी वस्तु का चिंतन करते नहीं, कर सकते नहीं । अगर करते हैं तो वह अनन्य भक्त नहीं कहलाते क्योंकि अनन्य भक्त केवल और केवल प्रभु का ही चिंतन करता हैं । अन्य का चिंतन आया तो अनन्यता गई ।
504. हमारे जीवन का सर्वस्व केवल प्रभु ही होने चाहिए ।
505. भक्त को संभालने की व्यवस्था प्रभु ही करते हैं ।
506. प्रभु के अधीन जीवन जीना ही श्रेष्ठ जीवन होता है ।
507. भक्त को विश्वास होता है कि प्रभु उसका लौकिक जीवन भी चलाएंगे ।
508. श्री अर्जुनजी को प्रभु कहते हैं कि मैंने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपना हृदय उड़ेल कर दिखाया है ।
509. प्रभु ही एकमात्र हमारे चिंतन का अवलंबन रह जाएं ।
510. प्रभु कभी अपने आश्रितों के दुःख से अनजान नहीं होते और सदैव उनके लिए व्यवस्था करते हैं ।
511. एक प्रभु के भरोसे, एक प्रभु पर विश्वास रखकर श्री अर्जुनजी ने प्रभु की दिव्य नारायणी सेवा को छोड़कर निशस्त्र प्रभु को चुना ।
512. हमें अपना सब सुख-दुःख प्रभु के श्रीकमलचरणों में चढ़ा देना चाहिए ।
513. जैसे एक पक्षी का छोटा बच्चा जिसके पंख उगे नहीं, नेत्र आए नहीं वह सब कुछ के लिए अपनी माँ पर अनन्य रहता है, अपनी माता पर ही निर्भर होता है । हमें भी इस भाव को ग्रहण करके प्रभु के इतने अनन्य बनना चाहिए तो प्रभु भी हमारी उस पक्षी की माँ की तरह हमारी सभी व्यवस्था स्वयं करेंगे ।
514. हमें अपनी बुद्धि, धन, कुटुंबी, पद, प्रतिष्ठा का भरोसा होता है, जो गलत है । हमें भरोसा केवल और केवल प्रभु का ही होना चाहिए ।
515. अन्य किसी का भी भरोसा हमारे भगवत् सानिध्य में व्यवधान बन जाता है ।
516. प्रभु के सामने सदैव दीन होकर ही रहना चाहिए क्योंकि दीनता प्रभु को अतिशय प्रिय है ।
517. सभी संतों ने प्रभु को रिझाने के लिए दीनता के पद यानी काव्य और भजन लिखे हैं ।
518. भक्त प्रभु को आंसुओं से जीतता है जैसे छोटा बालक अपनी माँ को तर्क से नहीं बल्कि आंसुओं से जीतता है ।
519. जैसे पंद्रह वर्ष का बेटा माँ को कुछ कार्य के लिए कहता है तो माँ कह देती है कि खुद करना नहीं आता क्या । पर वही कार्य के लिए जब उसके दो वर्ष का बेटा कहता है तो माँ झटपट कर देती है । ऐसे ही प्रभु के सामने बड़े बनकर गए तो गड़बड़ है इसलिए प्रभु के सामने सदैव छोटे ही बनकर जाना चाहिए ।
520. आयु, विद्या, संपत्ति में चाहे बड़े बन जाए पर प्रभु के समक्ष जाते समय भाव और वृत्ति से सदैव छोटे ही बने रहना चाहिए ।
521. प्रभु से मिलन में धन, संपत्ति, कीर्ति, पद, प्रतिष्ठा, कुटुंब एवं संसार में कमाई हुई चीज व्यवधान का काम करती है ।
522. प्रभु हम पर कृपा करने के लिए लालायित और उत्सुक हैं पर हमारी सांसारिक उपलब्धि की अकड़ के कारण हम प्रभु कृपा पाने से चूक जाते हैं । प्रभु कृपा प्राप्त करने के लिए दैन्य यानी दीनता अति आवश्यक है ।
523. संसार की कोई चीज हमारे लिए भरोसे की नहीं हो सकती । भरोसे के एकमात्र हमारे लिए प्रभु ही हैं ।
524. सारे ब्रह्मांड में सर्वत्र एक प्रभु का ही प्रकाश है ।
525. सभी देवी-देवता की करी जाने वाली पूजा अंत में प्रभु को ही प्राप्त होती है क्योंकि देवी-देवता प्रभु से भिन्न नहीं हैं, वे प्रभु के ही अंश हैं ।
526. हमारा जीवन ही भक्तिमय बनना चाहिए ।
527. प्रभु एक ही हैं । शास्त्रों में प्रभु एक से ज्यादा होने की बात कहीं भी नहीं मिलेगी ।
528. प्रभु एक ही हैं, उनके रूप असंख्य हैं, उनके अंश असंख्य हैं ।
529. प्रभु के एकत्व से कभी भी हमें अपने मन को हटने नहीं देना चाहिए ।
530. किसी भी देवी-देवता को अनदेखा कभी नहीं करना चाहिए ।
531. सनातन धर्म कितना सरल धर्म है जो सबका आदर करना सिखाता है ।
532. हम जहाँ का चिंतन करेंगे वहाँ अंत में पहुँचेंगे इसलिए चिंतन केवल और केवल प्रभु का ही होना चाहिए ।
533. हमारी अतृप्त वासना हमें खींचकर किसी-न-किसी हल्के जन्म में पहुँचा देती है ।
534. जैसी जीव की वासना प्रबल होती है वैसा ही अगला जन्म उस जीव को मिलता है ।
535. सृष्टि का नियम कभी भी हमने तोड़ा तो उसके लिए हमें भुगतना उसी समय निश्चित हो गया ।
536. ज्ञानी भक्त कभी भी अपने भीतर वासनाओं को नहीं रहने देते ।
537. प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु की भक्ति करता है, अपना चित्त प्रभु में लगाता है वह प्रभु तक जाकर पहुँचता-ही-पहुँचता है ।
538. जिसे प्रभु के पास पहुँचना है उसे शुद्ध भाव से प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
539. प्रभु ही हमारे जीवन के एकमात्र विषय होने चाहिए ।
540. जीवन में चिंतन तो केवल प्रभु का ही करना चाहिए ।
541. चिंतन के अनुसार ही हमें लाभ मिलता है । इसलिए संत और शास्त्र कहते हैं कि चिंतन प्रभु का ही करना चाहिए ।
542. भगवती गंगा माता की आराधना करते वक्त हमारा चिंतन क्या था ? अगर माता का चिंतन है तो पुत्र की तरह माता का अनुग्रह निश्चित मिलेगा ।
543. सनातन धर्म यह छूट देता है कि ब्रह्म-दृष्टि कहीं पर भी की जा सकती है ।
544. भक्ति में मूल बात प्रभु के लिए भावना ही है ।
545. भक्ति से जीव जीते जी प्रभु से एकरूप हो सकता है । मरने के बाद नहीं, जीवन रहते ही एकरूप हुआ जा सकता है ।
546. प्रभु के चिंतन को ही जीवन का लक्ष्य बना लेना चाहिए ।
547. हमारा ध्यान सदैव प्रभु की तरफ ही होना चाहिए । अन्य चीज की तरफ भक्त का ध्यान जाने की उन्हें फुर्सत ही नहीं होती ।
548. भक्त हर बात में प्रभु को मिला लेता है, प्रभु को जोड़ लेता है ।
549. हमारी भावना प्रभु के लिए तीव्र और विशुद्ध होनी चाहिए ।
550. भक्त लोगों को प्रणाम नहीं करते, लोगों में प्रभु को देखकर प्रभु को ही प्रणाम करते हैं ।
551. भक्त जीवित भी तब तक ही रहना चाहते हैं जब तक वे प्रभु का काम करते रहें । एक संत, जो प्रभु की कथा कहते थे, वे प्रभु से रोज मांगते थे कि जब तक मैं कथा कहता रहूँ तब तक ही जीवित रखें । जब शरीर से कथा न हो तो प्रभु संसार से बुला लें ।
552. भक्त के मन में कामनाएं उठती नहीं, ऐसी बात नहीं है । उनके मन में भी कामनाएं उठती हैं पर वह प्रभु सेवा की ही उठती है ।
553. जीवन में जो भी कामनाएं प्रभु सेवा की होगी तो वह कामना भी हमारा उद्धार ही करेगी ।
554. भक्त का शरीर कहीं भी छूटता है वह सीधे प्रभु के श्रीकमलचरणों में जाकर ही पहुँचता है ।
555. पूजन शब्द का अर्थ है प्रभु के लिए आदर की अभिव्यक्ति करना ।
556. प्रभु के प्रति हमारे अंतःकरण में अत्यंत आदर का भाव होना चाहिए ।
557. प्रभु को दृष्टिगोचर रखकर प्रभु के लिए ही कर्म करना चाहिए ।
558. प्रभु का ध्यान हमारे भाव की तरफ होता है, वस्तु की तरफ नहीं होता ।
559. प्रभु न हमारी भाषा देखते हैं, न व्याकरण देखते हैं । प्रभु तो केवल और केवल हमारी स्तुति में छिपे प्रेम भाव को देखते हैं ।
560. विपत्ति में प्रभु आएंगे, प्रभु ही हमें बचाएंगे, प्रभु कोई-न-कोई रास्ता निकालेंगे - यह दृढ़ भावना और विश्वास हमारे भीतर होना चाहिए ।
561. भक्त प्रभु पर विश्वास करता है तो प्रभु उस विश्वास का भी ऋण मानने लगते हैं ।
562. प्रभु भक्त के हृदय में केवल अपने लिए भक्ति, विश्वास और प्रेम देखते हैं कि उस भक्त में कितनी भक्ति, विश्वास और प्रेम प्रभु के लिए है ।
563. भक्ति के अंतर्गत श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और समर्पण सब आता है और यह सब प्रभु के लिए होना चाहिए तभी भक्ति सिद्ध होती है ।
564. प्रभु वस्तु के पीछे कितना भाव भक्त का चिपका हुआ है, वही देखते हैं ।
565. प्रभु के लिए हमारे मन में उत्साह और प्रभु जीवन में हैं इसलिए हमारा जीवन उत्सव है, यह दोनों भाव होने चाहिए ।
566. भक्ति का मूल कार्य है प्रभु का विश्वास जीवन में रखना ।
567. जिनके मन में प्रभु का एकछत्र विश्वास नहीं होता और संसार का विकल्प होता है, उनके लिए प्रभु नहीं आते ।
568. पता नहीं क्या होगा, ऐसा संशय प्रभु में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्त कभी नहीं रखता । जिसके मन में संशय है वह सच्चा भक्त नहीं है ।
569. प्रभु का दर्शन पहले अंतःकरण में होगा फिर बाहर होगा । यह प्रभु साक्षात्कार की प्रक्रिया है ।
570. सब लोग के साथ एक जैसा व्यवहार प्रभु का नहीं होता क्योंकि भक्त प्रभु के लिए विशेष होते हैं । प्रभु का भक्त से व्यवहार एकदम आत्मीय होता है और एकदम भिन्न होता है ।
571. अंतःकरण का भाव जब हम प्रभु को अर्पण करते हैं तो वह प्रभु को सबसे प्रिय लगता है ।
572. हमारे मन के भाव से ही प्रभु रीझते हैं इसलिए जीवन में सदैव प्रभु के लिए भाव की ही प्रधानता रखनी चाहिए ।
573. प्रभु भक्त के हृदय में भरे हुए प्रेम और भाव को ही मात्र देखते हैं ।
574. वस्तु मूल्यवान है कि मूल्यहीन है, छोटी है या बड़ी है, प्रभु का ध्यान उस तरफ कभी नहीं जाता ।
575. प्रभु की निश्छल भक्ति ही प्रभु को प्रिय है ।
576. भक्ति से भक्त प्रभु को जीत लेते हैं ।
577. ढुलमुल श्रद्धा होना पर्याप्त नहीं है, तीव्र श्रद्धा प्रभु के लिए होने पर ही प्रभु मिलते हैं ।
578. हमें कितने जप करने पड़ेंगे जब हम यह पूछते हैं तो मानो प्रभु को हम संख्या में बांधते हैं, जो बिलकुल गलत है ।
579. प्रभु की प्राप्ति कब होगी यह हमारे मन की तीव्रता पर निर्भर है ।
580. भक्त श्री ध्रुवजी पांच वर्ष के बालक थे और साढ़े पांच महीने की तीव्र साधन से प्रभु को पा लिया ।
581. धन्य वही जीव है जो मानव जीवन का उपयोग करके प्रभु तक पहुँच जाता है ।
582. जीवात्मा परमात्मा का अंश है । किसी भी अंश की अंतिम गति अपने अंशी से मिलकर ही होती है ।
583. जो प्रभु कृपा का पात्र हो जाता है वही हमारे श्रीग्रंथों को जान और समझ पाता है ।
584. प्रभु का ध्यान केवल भक्ति की तरफ ही होता है जब भी प्रभु जीव को देखते हैं । उस जीव में कितनी भक्ति है प्रभु यही देखते हैं ।
585. प्रभु को छोटी-से-छोटी चीज अर्पण करें पर उसके पीछे भाव श्रेष्ठ रखें तो प्रभु को वह बहुत प्रिय लगती है । बड़ी-से-बड़ी चीज प्रभु को अर्पण करते वक्त भाव नहीं है तो प्रभु का उस बड़ी चीज की तरफ ध्यान ही नहीं जाता ।
586. भगवती शबरीजी के बेर का मूल्य जो प्रभु के लिए बढ़ा वह भक्ति के कारण बढ़ा और प्रभु राज्याभिषेक होने के बाद भी उसे कभी भूल नहीं पाए और सदैव याद करते रहे ।
587. जो प्रभु का नाम जप कलियुग में नहीं करता वह अपने जीवन को व्यर्थ ही गंवा रहा है ।
588. श्रीग्रंथ को पढ़ते समय हमारे मन में भाव की जागृति होती है क्या ? क्या हम श्रीग्रंथ को भक्ति से पढ़ते हैं ?
589. भक्ति हमारे साधन की हर विधा में लग जानी चाहिए ।
590. साधन कभी नियम पूरा करने के लिए नहीं करके भक्ति और प्रेम भाव से करना चाहिए ।
591. प्रभु के साधन में प्रेम का पहला स्थान होता है और नियम का दूसरा स्थान होता है । हर नियम की पालना प्रभु के लिए हृदय में लबालब प्रेम भाव रखकर करना श्रेष्ठ है ।
592. हमारे प्रभु के लिए नियम हमारे अंतःकरण में प्रभु के लिए प्रेम जागृत करने में सफल हो जाए तभी उस नियम की सार्थकता है ।
593. कभी प्रभु के नाम जप की संख्या नहीं गिननी चाहिए क्योंकि यह संख्या प्रभु भी नहीं गिनते । प्रभु यही देखते हैं कि एक-एक नाम के बाद प्रेम की जागृति कितनी हुई ।
594. हमें अपनी हर क्रिया प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए यानी दैनिक जीवन की हर क्रिया प्रभु को अर्पण होनी चाहिए ।
595. हर क्रिया प्रभु को अर्पण करके उस क्रिया से अपना संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए, तभी वह सही रूप का अर्पण मानी जाएगी ।
596. हमें मनाना चाहिए कि हमारे सहित हमारे पास जो कुछ भी है वह सब प्रभु का ही है ।
597. हमारे हाथों को हिलने की शक्ति, हमारी जिह्वा को उच्चारण करने की शक्ति, हमारे हृदय को धड़कने की शक्ति सब प्रभु ने ही दी हुई है ।
598. जब प्रभु ने भक्त श्री ध्रुवजी को कहा कि इतनी छोटी अवस्था में इतना तीव्र तप तुमने किया तो श्री ध्रुवजी बोले कि मेरा अनुभव है कि आप ही भीतर बैठकर यह सब करवा रहे थे । वे बोले प्रभु से कि आपके कारण ही यह संभव हुआ । यह भगवत् सत्ता का सही आकलन है ।
599. हमारा कुछ है ही नहीं, सब कुछ आपका (प्रभु का) है इस भूमिका में हमें आना चाहिए । ऐसी भूमिका में आने वाला सभी अशुभों से छूट जाता है ।
600. जो किया उसको प्रभु को अर्पण करने से भी बड़ी बात है यह स्वीकारना कि यह प्रभु ने करवाया, मैंने किया ही नहीं, यह भावना होनी श्रेष्ठ है ।
601. वस्तु और क्रिया से भोग बुद्धि और कर्ता बुद्धि हट जानी चाहिए ।
602. हमें प्रभु के अधिकाधिक समीप जाना चाहिए ।
603. हमारा अंतःकरण प्रभु के साथ एकाकार होना चाहिए, जो भक्ति कराती है ।
604. प्रभु को अर्पित कर्म भुने हुए अन्न के समान होते हैं जो अंकुरित ही नहीं होते यानी प्रभु को अर्पित कर्मों के न तो पाप और न ही पुण्य हमें भोगने पड़ते हैं ।
605. श्रीमद् भगवद् गीताजी का सबसे ऊंचा भाष्य श्री ज्ञानेश्वरजी द्वारा रचित श्रीज्ञानेश्वरी है । इससे ऊँ‍चा कोई भाष्य नहीं ।
606. भगवती गंगा माता सबके लिए एक खुला मंदिर है ।
607. भक्त के अंतःकरण में भक्ति होती है जो प्रभु को प्रेम करने के लिए बाध्य कर देती है ।
608. अत्यंत प्रेम से जो प्रभु की सेवा करते हैं उनसे प्रभु का विशेष प्रेम होता है ।
609. सबके लिए समान प्रभु भी भक्त के लिए विशेष बन जाते हैं ।
610. जो प्रभु से अत्यंत प्रेम करते हैं प्रभु को बाध्य होकर प्रेम के कारण उनका पक्ष लेना पड़ता है ।
611. जब श्री अर्जुनजी ने श्रीनारायणी सेना को छोड़कर निशस्त्र प्रभु को चुना तो प्रभु ने परीक्षा लेने के लिए कहा कि दोबारा सोच समझकर विचार करो । तब श्री अर्जुनजी ने ने बहुत सुंदर जवाब दिया कि पूरा जीवन उन्हें दोबारा विचार नहीं करना पड़ेगा क्योंकि उन्होंने प्रभु को चुना है । विचार उन्हें करना पड़ता है जो प्रभु को छोड़कर अन्य को चुनते हैं ।
612. प्रभु मेरे हैं और मैं केवल प्रभु का हूँ - यह हमारी भूमिका होनी चाहिए ।
613. हम प्रभु का अंतःकरण भक्ति से जीत सकते हैं ।
614. भक्ति और प्रेम प्रभु को भी निष्पक्ष रहने नहीं देता क्योंकि प्रभु को भी अपने प्रेमी भक्त का पक्ष लेना ही पड़ता है ।
615. भक्त पर कृपा करने के लिए प्रभु भी बाध्य हो जाते हैं ।
616. पापी से भी पापी से भी पापी से भी महापापी, प्रभु यहाँ तक कहते हैं कि विश्व में जितने पाप हो सकते हैं उनकी सूची बनाओ और उतने पाप भी अकेले जिसके द्वारा हो गए हो, ऐसा मान लो, वह भी इस जन्म में अपना उद्धार कर सकता है । उसे केवल अनन्य होकर प्रभु की भक्ति करनी पड़ेगी ।
617. जानी हुई गलती को जो जीवन में दोहराता नहीं और अनन्य होकर प्रभु की भक्ति में लग जाता है, प्रभु उसे अपना निज जन बताते हैं और साधु कहते हैं ।
618. प्रभु के सानिध्य में ही हमें प्रगाढ़ शांति प्राप्त हो सकती है ।
619. प्रभु प्रतिज्ञा करके कहते हैं कि मेरी भक्ति करने वाले का नाश किसी भी हालत में नहीं होता ।
620. प्रभु के व्यक्तित्व से केवल करुणा, करुणा और करुणा ही झलकती है ।
621. भक्ति हमारे मन को कभी दुर्बल नहीं बनने देती । भक्ति प्रभु का बल प्रदान करती है और हमारे मन को सबल बनाती है ।
622. कितने भी संचित पापों को भक्ति के जल से धोया जा सकता है । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्‍य है ।
623. पतितों को भी तारने वाली एकमात्र भक्ति है ।
624. कितने-कितने पतितों के उद्धार के उदाहरण हमें अपने श्रीग्रंथों में, श्री भक्तमालजी की कथाओं में मिलेंगे ।
625. ज्ञान, कर्म और योग में अधिकार यानी पात्रता और योग्यता चाहिए पर केवल भक्ति ही ऐसा मार्ग है जहाँ पर प्रभु अधिकार का विचार बिलकुल भी नहीं करते । कोई भी भक्ति कर सकता है, यह इसका सीधा अर्थ है ।
626. भक्ति और प्रभु की शरणागति के सभी अधिकारी हैं, पतित-से-पतित और अधम-से-अधम ।
627. भक्ति मार्ग का कोई भी आलंबन लेकर प्रभु तक पहुँचा जा सकता है ।
628. पूर्व पाप हुआ भी हो पर सच्चा पश्चाताप होकर अब पाप त्याग हो गया और अनन्य होकर प्रभु की भक्ति करने लगे तो प्रभु उस जीव को तुरंत अपना लेते हैं ।
629. पश्चाताप से भरा जीव का हृदय जब प्रभु से प्रार्थना करता है तो प्रभु के हृदय की करुणा जागृत हो जाती है ।
630. प्रभु केवल न्याय करने वाले नहीं, वे हमारे माता-पिता भी हैं । इसलिए वे ममता से भरकर न्याय करते हैं ।
631. प्रभु को अपने पराधीन जीव की बड़ी चिंता होती है । जो केवल प्रभु पर आश्रित हो गया उसकी पूर्ण चिंता प्रभु करते हैं ।
632. जो अपने पापों के पश्चाताप में सच्चे हृदय से प्रभु के समक्ष रोते हैं तो वे प्रभु को परम प्रिय हो जाते हैं ।
633. प्रभु को राजा और न्यायाधीश के रूप में नहीं देखना चाहिए, प्रभु को करुणा भरी माँ के रूप में देखना चाहिए ।
634. जब कोई पापी पाप छोड़कर भक्ति मार्ग पर आता है तो प्रभु अति प्रसन्न होते हैं और आनंद मनाते हैं ।
635. भक्ति की गंगा में धुल कर पापी-से-पापी शुद्ध हो जाता है और फिर प्रभु उसको प्रेम से स्वीकार करते हैं ।
636. पापी-से-पापी, पतित-से-पतित लेकिन पाप का सच्चा पश्चाताप होकर अगर वह अपनी जीवन शैली को बदलता है और आगे पाप नहीं करता और पिछले पाप के पछतावे के कारण व्याकुल होकर प्रभु से प्रार्थना करता है तो अपने आप उसके सारे पाप का नाश प्रभु कृपा से होकर वह प्रभु के समीप पहुँचकर प्रभु का प्रिय हो जाता है ।
637. भक्ति के मार्ग पर जो आ गया उसका विनाश संभव नहीं क्योंकि प्रभु कभी ऐसा होने नहीं देते ।
638. जीवन में किसी भी बात को भूल जाए पर कभी भक्ति को न भूले ।
639. सभी शास्त्रों, सभी संतों की वाणी का निचोड़ अगर एक शब्द में निकालना है तो वह शब्द है भक्ति, भक्ति और केवल भक्ति ।
640. सारे आचार्यों का दार्शनिक चिंतन में एक दूसरे के साथ बहुत स्थानों में मतभेद है पर एक चीज में सभी-के-सभी एकमत हैं और वह है भक्ति ।
641. मनुष्य जीवन प्राप्त करने के बाद हम कितना पढ़ेंगे, कितना कमाएंगे, कैसे जिएंगे यह सब बेकार है अगर जीवन में हमने भक्ति नहीं की ।
642. भक्ति के अलावा हम जो भी करते हैं वह अशाश्वत है, भक्ति ही केवल शाश्वत है ।
643. भक्ति करने वाले का नाश और पतन नहीं होता । भक्ति करने वाले का कभी जीवन व्यर्थ नहीं हो सकता ।
644. ऐसा कोई साधन प्रभु प्राप्ति का नहीं है जो हम कर लें और बिना भक्ति के प्रभु की प्राप्ति हो जाए । भक्ति प्रभु प्राप्ति के लिए अनिवार्य है, एकदम अनिवार्य है ।
645. सभी शास्त्रों और श्रीग्रंथों में प्रभु की भक्ति की महिमा का ही वर्णन है ।
646. भक्ति रहित कोई भी साधन पूर्ण नहीं और हमें प्रभु तक नहीं पहुँचाएगा ।
647. भक्ति माता समस्त साधनों की महारानी हैं ।
648. बिना किसी भी अन्य साधन के सहयोग के भी भक्ति पूर्ण है और प्रभु तक हमें पहुँचा देती है ।
649. श्रीमद् भगवद् गीताजी का पूर्ण विचार करने पर भगवत् भक्ति ही निष्कर्ष के रूप में निकलती है ।
650. प्रभु ने यह नहीं कहा कि ज्ञानी और योगी का नाश नहीं होगा पर प्रभु कहते हैं कि प्रभु के भक्त का कभी नाश नहीं होगा क्योंकि प्रभु उनके रक्षक हैं और उनका संरक्षण करने का दायित्व प्रभु लेते हैं ।
651. भक्ति के बिना जीवन में आई आपत्ति में हम अनाथ होते हैं । भक्ति प्रभु का सानिध्य प्रदान करके हमें सनाथ करती है ।
652. जो प्रभु का आश्रय लेकर जगत में अपना संपूर्ण व्यवहार करते हैं वे अंत में प्रभु को प्राप्त हो जाते हैं ।
653. प्रभु से इतना प्रेम करें कि प्रभु के बारे में बोलना, सुनना और लिखना हमारे जीवन का ध्येय बन जाए ।
654. भक्त प्रभु की छवि को अपने हृदय में बड़े प्रेम से निहारते हैं ।
655. प्रभु की भक्ति करें, इससे बड़ा और बढ़िया भाग्य क्या हो सकता है ।
656. वाणी पर प्रभु का दिव्य नाम, अंतरंग में प्रभु का चिंतन और नेत्रों में प्रभु का दिव्य रूप, इससे बड़ा कोई भाग्य हो ही नहीं सकता ।
657. भक्ति हमें सभी दोषों से बाहर निकाल कर प्रभु प्राप्ति के लिए योग्य बना देती है ।
658. हमारे अंतःकरण में उठने वाला हर संकल्प प्रभु के विषय में ही होना चाहिए ।
659. चारों ओर से हमें प्रभु के आश्रय में ही रहना चाहिए ।
660. जिनका हम चिंतन करते हैं हमारा चित्त का स्वभाव है कि वह उसी अनुरूप भाव हमारे अंदर ले आता है । इसलिए जीवन में चिंतन केवल प्रभु का ही करना चाहिए ।
661. प्रभु के सगुण स्वरूप का चिंतन हमारा उद्धार करेगा-ही-करेगा । इसलिए भावना और श्रद्धा के साथ ऐसा चिंतन करना चाहिए ।
662. प्रभु नाम की शक्ति है कि जैसे भी नाम लिया जाए वह हमारा कल्याण करके ही रहेगा ।
663. जैसे अंगार को छुआ तो हमें पता हो या न हो वह हमारे हाथ को जलाएगा वैसे ही प्रभु का नाम लिया तो हमें पता हो या न हो वह हमारा कल्याण करके ही रहेगा ।
664. पाप का दहन करना यह प्रभु के नाम की शक्ति होती है ।
665. सामान्य-से-सामान्य लोगों को भी इतना बड़ा फल केवल भक्ति ही देती है ।
666. प्रभु कहते हैं कि मानव जीवन में भक्ति ही एकमात्र सारभूत साधन है ।
667. जीवन से भक्ति का त्याग कभी भी, किसी भी परिस्थिति में नहीं होना चाहिए ।
668. आनंद स्वरूप प्रभु को जीवन में साथ रखकर जो जीवन जीता है उसका जीवन ही आनंदमय बन जाता है ।
669. भगवत् भक्ति को छोड़कर किसी भी वस्तु में, प्रक्रिया में, स्थिति में स्थाई आनंद नहीं है ।
670. प्रभु से जुड़ जाना ही भक्ति है ।
671. हमारे मन को प्रभु में लगाना चाहिए जिससे मन में निरंतर प्रभु ही रहें ।
672. प्रेम से प्रभु को निरंतर याद करते रहना भक्ति है ।
673. भक्ति के अलावा बाकी जीवन की सभी उपलब्धि गौण होती हैं, केवल प्रभु के लिए अखंड प्रेम होना ही मुख्य बात है जो जीवन में होनी चाहिए ।
674. प्रभु को प्रणाम किया, प्रभु का पूजन किया, प्रभु से प्रेम किया और प्रभु का चिंतन किया तो फिर प्रभु उस जीव से दूर नहीं रह सकते ।
675. सदैव यह भाव रखना चाहिए कि जो भी मेरे पास है या संसार में उपलब्ध है मेरे प्रभु के आगे कुछ भी नहीं है । मेरे प्रभु ही मेरे लिए सर्वोपरि हैं और मेरे लिए सबसे अनमोल हैं ।
676. हमारी भावना यह होनी चाहिए कि हमें प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए ।
677. जीवन में उठने वाले सभी मन के संकल्पों को प्रभु की महत्वता को ध्यान रखते हुए विराम दे देना चाहिए ।
678. प्रभु के अतिरिक्त हमारे सभी संकल्प खत्म हो जाने चाहिए ।
679. प्रभु को अपने जीवन का गंतव्य बना लेना चाहिए ।
680. प्रभु से बड़ा मेरे लिए कुछ भी नहीं है, यह भाव जीवन में स्थिर होना चाहिए ।
681. हम प्रभु के प्रिय हो जाएं प्रभु भी यही चाहते हैं ।
682. प्रभु जीव से प्रेम करते हैं इसलिए जीव के कल्याण की भावना प्रभु के हृदय में सदैव रहती है ।
683. भारतीय ऋषियों ने जो कुछ भी कहा है वह पूरे विश्व के मंगल के लिए कहा है ।
684. प्रभु सदैव अपने भक्तों का परम हित और परम कल्याण की बात श्रीमद् भगवद् गीताजी में करते हैं ।
685. भक्त जब भक्ति करता है तो प्रभु उसका सुख अनुभव करते हैं ।
686. प्रभु की सत्ता सभी पर समान रूप से चलती है ।
687. प्रभु ही कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के एकमात्र नियंता हैं ।
688. प्रभु ही कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के एकमात्र स्वामी हैं ।
689. प्रभु की महानता को इसलिए जानना चाहिए कि हम जीवन में निश्चिंत हो जाए कि मैं उन महान प्रभु के साथ जुड़ा हुआ हूँ और वे मेरे हैं और वे सर्वसामर्थ्यवान हैं ।
690. प्रभु के सर्वसामर्थ्यवान होने का जितना-जितना अनुभव हमें आता है उतनी-उतनी हमारी श्रद्धा प्रभु में सुदृढ़ होती चली जाती है ।
691. प्रभु की छोटी-छोटी अनुभूति भक्तों को भक्ति काल में होनी आरंभ हो जाती है फिर भक्ति की परिपक्व अवस्था में पहुँचने पर आत्म-साक्षात्कार होता है ।
692. प्रभु से ममत्व होना चाहिए कि प्रभु मेरे हैं ।
693. भक्ति तब तक भक्ति नहीं होती जब तक हमें उसमें रस नहीं आता । जब तक रस नहीं तब तक भक्ति यांत्रिक यानी यंत्र की तरह रह जाती है । प्रभु की भक्ति में प्रधानता रस की ही है ।
694. प्रभु प्रेम के बिना भक्ति में रस नहीं आ सकता । प्रभु से परम प्रेम (सामान्य प्रेम नहीं) होना इसके लिए अनिवार्य है ।
695. प्रभु के लिए परम प्रेम के बहने वाले प्रवाह का नाम ही भक्ति है ।
696. प्रभु की विशेषताओं और सद्गुणों को सदैव याद रखना चाहिए ।
697. भक्ति का पक्का लक्षण यह है कि भक्ति में क्रिया यानी जप, पूजा, कथा कुछ भी हो पर अंतःकरण में प्रभु प्रेम की धारा प्रभु के लिए बहती है क्या ?
698. मन में जब प्रभु बसते हैं तो असंभव लगने वाली बात भी संभव हो जाती है ।
699. भक्त को प्रभु ही चाहिए होते हैं क्योंकि उसका परम लक्ष्य प्रभु की ही प्राप्ति होती है ।
700. भक्त के लिए भगवत् प्रेम ही सर्वोपरि होता है ।
701. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु कहते हैं कि भक्त पूर्णतया संतुष्ट होता है और पूर्णतया परमानंद का अनुभव करता है ।
702. कथा केवल श्रीहरि कथा ही है बाकी सभी व्यथा-ही-व्यथा है ।
703. प्रभु की चर्चा करने और सुनने से चित्त आनंद की अनुभूति में डूब जाता है ।
704. भक्ति से हमारा चित्त प्रभु से जुड़ जाता है ।
705. चित्त जितना शांत प्रभु के सानिध्य में होता है उतना कहीं भी अन्यत्र नहीं हो सकता, यह सिद्धांत है ।
706. भक्ति हमारी बुद्धि की ऐसी जागृति करती है कि हम प्रभु से जुड़ जाते हैं ।
707. हमारे हृदय में प्रभु के लिए प्रेम का जितना कंप होगा उतनी अनुकंपा प्रभु की हमें मिलेगी । सिद्धांत यह है कि जितना कंप उतनी अनुकंपा । प्रभु की तरफ से कृपा से भरा अनुकंपन ही अनुकंपा कहलाती है ।
708. भक्त के जीवन में प्रभु के अलावा कोई विषय ही नहीं होता ।
709. श्री वेदजी कहते हैं कि पता नहीं प्रभु को भी पता है क्या कि प्रभु कितने महान हैं ? इसलिए प्रभु की महानता का हमें पता होने का कोई सवाल ही नहीं है ।
710. हमारे लिए प्रभु सबसे समीप हमारे अंतःकरण में स्थित हैं ।
711. प्रभु में मन लगाना बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
712. यह सिद्धांत है कि जहाँ पर हमारा मन होता है वहीं पर हम होते हैं । इसलिए हम कहीं भी हो पर हमारा मन प्रभु में लगा रहे, यह श्रेष्ठ अवस्था है ।
713. संसार में जितना ऐश्वर्य, सौंदर्य और प्रभाव है वह सब प्रभु से ही आया है और प्रभु का ही है ।
714. प्रभु जितना उदार जगत में अन्य कोई भी नहीं है ।
715. प्रभु का स्वाधीन और सबसे सरल साधन नाम जप है ।
716. जप से क्या होगा यह प्रश्न ही गलत है क्योंकि नाम जप से सब कुछ हो सकता है । नाम जप पूर्ण समर्थ साधन है ।
717. हमारे संतों ने जो कुछ भी प्राप्त किया है उसमें उनका मुख्य साधन जप ही रहा है ।
718. प्रभु नाम जप करने वाले का उद्धार कोई भी टाल नहीं सकता ।
719. कुछ भी छूट जाए पर जप कभी नहीं छूटे, इसका विशेष ध्यान सदैव रखना चाहिए ।
720. जितना जप होगा उतना हम प्रभु के समीप पहुँचते चले जाएंगे ।
721. स्वयं को उसी दिन धन्य मानना चाहिए जिस दिन हमारी प्रभु नाम जप में पूर्ण आस्था हो जाए ।
722. प्रभु के एक-एक नाम में उतनी शक्ति है जितनी की हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
723. किया हुआ जप कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता, यह सिद्धांत है ।
724. प्रभु का अनुग्रह देखें कि जो प्रभाव उनका है, वही प्रभाव उनके नाम का है ।
725. इतना नाम जप जीवन में हो कि नाम हमारे ऊपर हावी हो जाए और अपने आप नाम जप होने लग जाए ।
726. प्रभु ने अपने असंख्य नाम प्रकट कर दिए और उन एक-एक में अपनी पूरी शक्ति भर दी । यह प्रभु की हमारे ऊपर कितनी बड़ी कृपा और अनुग्रह है ।
727. कोई भी, कहीं भी, कैसे भी और कभी भी प्रभु का नाम जप कर सकता है ।
728. नाम जितना सरल साधन और कोई भी नहीं है ।
729. नाम की इतनी बड़ी कृपा प्रभु द्वारा की जाने पर भी हमारा दुर्भाग्य देखें कि हमें नाम छोटा साधन लगता है जिस कारण उसमें पूरी आस्था और अनुराग निर्माण नहीं होता ।
730. नाम का जप करते-करते ही नाम जप से प्रेम होगा, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
731. नाम जप पहले पुराने पापों का नाश करेगा, फिर चित्त को शुद्ध करेगा ।
732. पहले हमें नाम को पकड़ना पड़ता है फिर एक दिन ऐसा आता है कि नाम ही हमें पकड़ लेता है । फिर नाम कभी भी जीवन से छूटता नहीं ।
733. जीवन में कभी भी जप का त्याग नहीं करना चाहिए ।
734. जप गौण साधन नहीं बल्कि जप सर्वोपरि साधन है ।
735. सारे त्रिलोकी में सबसे पूज्य और सबसे प्रिय देवर्षि प्रभु श्री नारदजी हैं । प्रायः देखा गया है कि जो पूज्य होता है वह प्रिय नहीं होता जो प्रिय होता है वह पूज्य नहीं होता । पर देवर्षि प्रभु श्री नारदजी में अकेले यह दोनों बातें हैं । प्रियता और पूज्यता दोनों एक जगह देवर्षि प्रभु श्री नारदजी में ही मिलेंगे । यह प्रभु श्री कृष्णजी का मत है और श्री महाभारत के शांति पर्व में प्रभु ने बीस श्लोकों में उनकी महिमा बताई है ।
736. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने ही ऋषि श्री वाल्मीकिजी को श्री रामायणजी और प्रभु श्री वेदव्यासजी को श्री भागवतजी लिखने की प्रेरणा दी । उन्होंने ही भक्त श्री ध्रुवजी और गर्भ में भक्त श्री प्रह्लादजी को भक्ति का उपदेश देकर उनका कल्याण किया ।
737. प्रभु की भक्ति का प्रचार सारे संसार में हो इस एकमात्र उद्देश्य को लेकर सभी प्रकार के लोगों का देवर्षि प्रभु श्री नारदजी मार्गदर्शन करते हैं ।
738. प्रभु कथा का श्रवण एक कान से सुनकर दूसरे से छोड़ देने के लिए नहीं होना चाहिए ।
739. भक्ति करनी है तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को रोज याद करें क्योंकि भक्ति के सबसे बड़े प्रचारक वे ही हैं, उनके बहुत उपकार हमारे ऊपर हैं ।
740. संत अलग-अलग समय में भक्ति की प्रतिष्ठा और प्रतिपादन करने के लिए प्रभु द्वारा धरती पर भेजे जाते हैं ।
741. पुण्यात्माओं के लिए जो प्रभु श्री धर्मराजजी हैं वे ही पापियों के लिए प्रभु श्री यमराजजी हैं ।
742. आधुनिक शिक्षा का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि प्रभु भक्ति का उसमें स्थान ही नहीं है, जो पक्का होना चाहिए । भक्ति विहीन विद्या किसी काम की नहीं क्योंकि मानव जीवन के उद्देश्य की उससे पूर्ति नहीं होती, सिर्फ पेट पालने की पूर्ति होती है ।
743. भक्ति की शिक्षा होने से सेवा का भाव आएगा, स्वयं की मर्यादा आएगी, पूज्य जनों के लिए आदर भाव आएगा ।
744. काल केवल प्रभु के ही अधीन है ।
745. गौ-माता असाधारण हैं क्योंकि उनके आसपास का वायुमंडल ही अलग है, इतना पवित्र है कि हमें अत्यंत लाभ देने वाला है ।
746. प्रभु श्री रामजी आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श स्वामी, आदर्श भाई, आदर्श राजा, आदर्श मित्र और आदर्श शत्रु बने यानी सब कुछ में वे आदर्श हैं । आदर्श पुत्र श्री दशरथजी और भगवती कौशल्या माता के लिए, आदर्श पति भगवती सीता माता के लिए, आदर्श स्वामी प्रभु श्री हनुमानजी के लिए, आदर्श भाई श्री भरतलालजी, श्री लक्ष्मणलालजी और श्री शत्रुघ्नलालजी के लिए, आदर्श राजा श्री अयोध्यावासियों के लिए, आदर्श मित्र श्री सुग्रीवजी और श्री विभीषणजी के लिए, आदर्श शत्रु रावण के लिए ।
747. प्रभु श्री रामजी ने सबसे प्रेम किया और सबके लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह किया ।
748. भारत देश सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं है, इसका कण-कण धन्यता और पवित्रता लिए हुए अध्यात्म से जुड़ा हुआ है, प्रभु से जुड़ा हुआ है ।
749. सभी प्रचलित विद्या में अध्यात्म विद्या को प्रभु ने अपनी विभूति बताया है । हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि अध्यात्म विद्या हमारे विद्या अध्ययन का हिस्सा ही नहीं रही ।
750. सारी विद्या व्यर्थ है अगर जीवन में अध्यात्म विद्या नहीं आई क्योंकि अध्यात्म विद्या हमारे मानव जीवन में उद्धार के लिए एकमात्र अनिवार्य विद्या है । अन्य विद्या आजीविका कमाने के लिए ठीक है पर हमारे मानव जीवन में उद्धार और कल्याण के लिए केवल अध्यात्म विद्या ही जरूरी है ।
751. जीवन में शांति के लिए और जीवन के बाद उद्धार के लिए अध्यात्म विद्या के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है ।
752. जीवन से विदा होते समय हताश न हों इसलिए जीवन काल में प्रभु का भजन करना अति आवश्यक है ।
753. आज जो व्यक्ति और पदार्थ हमारे पास हैं वे सदा हमारे साथ रहने वाले नहीं हैं । वे संसार में ही छूट जाने वाले हैं ।
754. अध्यात्म विद्या न जानकर जीव संसार में मोहग्रस्त होता है और आनंदस्वरूप प्रभु का होकर भी आनंद का अनुभव नहीं कर पाता ।
755. शरीर के कारण संसार में जिनके साथ हमारा संबंध है वे एक जन्म के हैं इसलिए सत्य नहीं है । आत्मा से हमारा संबंध प्रभु से है, जो सनातन है, वही सत्य संबंध है ।
756. प्रभु के साथ ही हमारा शाश्वत संबंध है और केवल प्रभु ही एकमात्र हमारे हैं । यह समय रहते ही जीवन में जान लेना चाहिए और जीवन में उतार लेना चाहिए जैसे भगवती मीराबाई ने उतारा था ।
757. अंतःकरण के साथ प्रभु के साथ जुड़े रहें यानी हृदय की गहराई से प्रभु के बनकर रहें ।
758. हमारा दुर्भाग्य देखें कि आध्यात्मिक ज्ञान पाने का हम कोई भी प्रयास नहीं करते, केवल आजीविका का ज्ञान ही हम प्राप्त करना चाहते हैं ।
759. मैं कौन हूँ ? मैं केवल प्रभु का ही हूँ । मैं संसार में क्यों आया हूँ ? मैं प्रभु प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए संसार में आया हूँ । यह दो बातें हमें आध्यात्मिक ज्ञान सर्वप्रथम सिखाती है ।
760. भगवती गायत्री माता के श्रीगायत्री मंत्र में इतनी शक्ति और सामर्थ्‍य है कि जिसकी जो भी इच्छा होती है वह पूरी हो जाएगी ।
761. प्रभु केवल एक भक्ति के नाते को ही मानते हैं ।
762. जो-जो जीव प्रभु की भक्ति करता है प्रभु उसे ही अपना मानते हैं ।
763. मौन प्रभु की विभूति है । जीवन में मौन की यात्रा हमें सीधे प्रभु की गोद में बैठा देती है ।
764. हर दिन को जीवन का अंतिम दिन मानकर भक्ति में लग जाएं तो ही हमारा कल्याण है ।
765. भारतवर्ष अनादि काल से ज्ञान और प्रकाश में रत रहा है ।
766. चराचर में प्रभु को देखने की दृष्टि विकसित होनी चाहिए ।
767. एक भी कण और एक भी क्षण प्रभु बिना नहीं है क्योंकि प्रभु सर्वत्र और सर्वदा हैं ।
768. भारतवर्ष दिव्यता से भरा हुआ देश सदा से रहा है ।
769. भारतवर्ष के ऋषियों, आचार्यों और संतों का गौरव विलक्षण रहा है जिनकी ज्ञान की ज्योति पर हमें गर्व होना चाहिए ।
770. प्रभु अपने भक्तों से सीमातीत यानी जिसकी कोई सीमा नहीं है उतना प्रेम करते हैं ।
771. श्रीमद् भागवतजी का सिद्धांत है कि प्रभु का अवतार अपने प्रिय भक्तों को भक्ति और प्रेम का रसास्वादन करवाने के लिए होता है । दुष्टों को मारने के लिए नहीं होता क्योंकि कौन इतना बड़ा दुष्ट है जो प्रभु के आए बिना मरेगा नहीं । प्रभु संकल्प मात्र से दुष्टों का नाश अपने धाम में बैठे-बैठे ही कर सकते हैं ।
772. जिनको संसार के बाकी रसों में कोई रस नहीं होता उन्हें ही प्रभु अपने प्रेम का रस प्रदान करते हैं ।
773. प्रभु अपने भक्तों पर महती कृपा करते रहते हैं ।
774. प्रभु की महानता अदभुत है ।
775. प्रभु अखिल कोटि ब्रह्मांड के एकमात्र नियंता हैं और प्रभु की आज्ञा और इच्छा से ही ब्रह्मांड़ो का संचालन होता है ।
776. हमारी पात्रता नहीं होने पर भी उतनी पात्रता हमारे भीतर निर्माण करके प्रभु हमें दर्शन दें - यह प्रभु से की जाने वाली सच्ची प्रार्थना है ।
777. प्रभु अपने भक्तों का बहुत लाड़ करते हैं ।
778. जैसे श्री समुद्रदेवजी के विशाल जल में बुलबुल होते हैं वैसे ही एक-एक ब्रह्मांड एक-एक बुलबुल जैसे प्रभु की रोमावली में श्री अर्जुनजी को प्रभु के विश्वरूप में दिखाई दिए । कल्पना करें जब ब्रह्मांड बुलबुल जितने हैं तो प्रभु का विशाल विश्वरूप कितना विशाल होगा ।
779. प्रभु का नाम ही हमारे जीवन का परम धन होना चाहिए ।
780. प्रभु का जितना तेज विश्वरूप में प्रकट हुआ वह प्रभु के मूल तेज का एक अंश भी नहीं है । एक प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को हम तेज युक्त नहीं देख पाते वैसे हजारों प्रभु श्री सूर्यनारायणजी जितना तेज लिए प्रभु का विश्वरूप स्वरूप और वह भी प्रभु का असल तेज का अंश मात्र भी नहीं तो प्रभु का असल तेज की जरा कल्पना करें ।
781. प्रभु को वही किंचित समझ सकता है जिस पर प्रभु अनुकंपा करते हैं । अपनी बुद्धि से प्रभु को नहीं समझा जा सकता ।
782. जीव अपने पुरुषार्थ से प्रभु को नहीं जान सकता । वह प्रभु कृपा से ही प्रभु को किंचित जान पता है । प्रभु जिनको जनाना चाहते हैं वही किंचित प्रभु को जान पाते हैं ।
783. प्रभु अपनी कृपा के लिए हमारा चयन करें, हमें उस लायक बनना चाहिए ।
784. प्रभु हमारी कल्पना में भी नहीं समा सकते, इतने व्यापक हैं ।
785. श्री महाभारतजी के युद्ध से पहले श्रीमद् भगवद् गीताजी में विश्वरूप दिखाकर श्री अर्जुनजी से प्रभु कहते हैं कि युद्ध में मरने वालों को कालरूप में मैंने पहले ही मार दिया है । अब इसका श्रेय दुनिया के सामने मैं तुम्हें (श्री अर्जुनजी) दिलाना चाहता हूँ ।
786. जब प्रभु विश्व में कोई परिवर्तन करना चाहते हैं तो वह होकर ही रहता है पर प्रभु कुछ लोगों का चयन कर लेते हैं कि उसका श्रेय उन्हें प्राप्त हो ।
787. श्रीमद् भगवद् गीताजी के अठारहवें अध्याय का श्लोक - सब धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जाओ, मैं सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत करो - यह श्लोक हमें जीवन के हर भय से मुक्त करने वाला श्लोक है ।
788. प्रभु का विश्वरूप और विभूति का वर्णन सुनकर भक्त क्रमशः रोमांचित और आनंदित होते हैं ।
789. प्रभु की महानता की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता ।
790. प्रभु हमारा पालन करने वाले परमपिता हैं ।
791. न्यायाधीश के रूप में प्रभु पापियों को दंड देते हैं पर परमपिता के रूप में वे ही अपने प्रियजनों को क्षमा भी कर देते हैं । यह प्रभु का अपने प्रियजनों के लिए वात्सल्य भाव है ।
792. करुणानिधान प्रभु अपने भक्तों की गलती को सह लेते हैं, यह प्रभु की कितनी विलक्षण करुणा है ।
793. संसार में रूप देखना है तो भगवान के सगुण साकार रूप को ही देखना चाहिए ।
794. सभी आचार्यों का अन्य किसी भी विषय में मतभेद हो पर भक्ति सर्वोपरि है इसमें सभी का एकमत हैं ।
795. भक्ति ही परम पुरुषार्थ है ।
796. भक्ति का गौरव सभी संतों और आचार्यों ने गाया है ।
797. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु भी भक्ति को ही गौरव प्रदान करते हैं ।
798. किसी के द्वारा की जा रही किसी भी साधना की आलोचना कभी नहीं करनी चाहिए ।
799. भक्ति साधन में दिया एक क्षण भी कभी व्यर्थ नहीं जाएगा ।
800. कोई भी साधन भक्ति के आसपास भी नहीं पहुँचता ।