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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 25

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. जहाँ श्रीमद् भागवतजी महापुराण होती है वहाँ ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को आना ही पड़ता है और उनके पीछे-पीछे प्रभु को भी आना पड़ता है ।
002. परिपूर्ण आलंबन श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी का लेना चाहिए । अन्य श्रीग्रंथों को नहीं पढ़े तो भी यह तीनों श्रीग्रंथ हमारा कल्याण करने का पूर्ण सामर्थ रखते हैं और प्रभु से हमें स्वयं मिला देते हैं ।
003. उत्तम साधक को बहुत अधिक श्रीग्रंथ नहीं पढ़ने चाहिए । प्रभु को प्राप्त करना है तो सीमित श्रीग्रंथ पढ़े तभी वह श्रीग्रंथजी हम पर कृपा करते हैं ।
004. श्री रामचरितमानसजी चलने वाली तुलसी यानी गोस्वामी तुलसीदासजी की मंजरी यानी दोहे का ऐसा संकलन है जो प्रभु श्री रामजी को भंवर बनकर गुनगुनाने हेतु आने पर बाध्य कर देता है ।
005. किसी भी श्रीग्रंथ को जीवन में आधार बना लें तो प्रभु स्वयं आकर मिल जाते हैं ।
006. पुण्य की प्रेरणा देने वाले, पुण्य में सहयोग देने वाले को भी पुण्य करने वाले का एक निर्धारित अंश का लाभ मिलता है ।
007. सर्वदा श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करना चाहिए और चिंतन करना चाहिए ।
008. पुराने काल की माताएं गर्भ में भी अपने बच्चों को श्रीग्रंथ का सेवन कराती थी । माता कथा सुनती थी और गर्भ में पल रहे बालक इसका सेवन करते थे । इसका सबसे जीवंत उदाहरण श्री प्रह्लादजी हैं जो गर्भ में कथा सेवन करने के कारण इतने बड़े भक्त बने ।
009. सरलता से परम तत्व यानी प्रभु को स्पर्श करने का आधार देने वाला श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
010. मानव जीवन त्यागने से पहले श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानस का चिंतन नहीं किया तो मानव जीवन ही बेकार चला गया ।
011. श्रीहरि गुण गाने यानी प्रभु गुण गाने का मौका मानव जीवन में कभी भी अनदेखा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मौका इस जीवन के अलावा कहीं भी मिलने वाला नहीं है ।
012. भक्त प्रभु से कहते हैं कि हे राम, मैं तुम में रम जाऊँ, ऐसी निर्मल बुद्धि मेरी कर दें ।
013. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को प्रभु सानिध्य में ही रहने में सबसे ज्यादा रुचि रहती है ।
014. एक प्रभु की आराधना में प्रभु का सबसे सुंदर रूप नेत्र देखते हैं । प्रभु की वाणी कानों को तृप्त करती है (गौ-माता, गोपियों को प्रभु की बांसुरी ने और श्री अर्जुनजी को प्रभु के गीताजी में वचन ने तृप्त किया) । हमारी इंद्रियां यानी जिह्वा प्रभु वचन कहने से, आँखें प्रभु दर्शन करने से, कान प्रभु की कथा श्रवण करने से और त्वचा प्रभु की सेवा करने से तृप्त होती है । सिद्धांत है कि हमारी पांचों इंद्रियां प्रभु में लगाने पर ही केवल तृप्त होती हैं ।
015. समस्त संप्रदाय से अतीत श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
016. जीवन का आलंबन ही प्रभु को बनाना चाहिए ।
017. जहाँ शरीर है वहाँ विकृति आने ही वाली है । इसलिए विकृति आए उससे पहले अपने शरीर से जितनी प्रभु सेवा हो सके उतनी करनी चाहिए ।
018. विकृति से अतीत और मृत्यु से अतीत एक ही तत्व है और वे प्रभु ही हैं ।
019. हमारी सारी इंद्रियों को सुख और आनंद देने वाला एकमात्र स्वरूप प्रभु का ही है ।
020. श्री गोकुलजी में एक पठान की समाधि है जिसको सभी वैष्णव प्रणाम करते हैं । एक बार प्रभु ने ऐसा संयोग बैठाया कि उन्होंने प्रभु श्री कृष्णजी का चित्र देखा । उन्होंने अपने परिचित से पूछा कहाँ रहते हैं तो पता चला श्री गोकुलजी में । वे श्री गोकुलजी पहुँच गए और गोपी बन कर रहे । जो पद गाए और लिखे उसे वैष्णव सदा गुनगुनाते हैं । वे प्रभु की रूपासक्ति के कारण सर्वप्रथम आकर्षित हुए ।
021. जिसे प्रभु के श्रृंगार में रस आ गया तो श्रृंगार ही उसका ध्यान, पूजा और मंत्र हो जाता है । उसे कोई अलग से ध्यान, पूजा या मंत्र की जरूरत नहीं होती ।
022. सबसे पूज्य और सबसे लोकप्रिय व्यक्तित्व देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का है । यह प्रभु का मत है जो श्री कृष्णावतार में प्रभु ने कहा है । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी प्रभु का निरंतर भजन करते हैं इसलिए सबसे पूज्य और सबको (देवता, राक्षस, राजा, बच्चों) प्रभु के मार्ग पर ले जाते हैं इसलिए सबसे लोकप्रिय ।
023. संत प्रभु सानिध्य का सुख जीवों में बांटने हेतु धरती पर आते हैं ।
024. जो हमारे भीतर प्रभु प्रेम का जागरण करता है उससे बड़ा कोई दानी नहीं है ।
025. वैदिक मंत्र का गलत पाठ या उच्चारण गलत फल भी दे देते हैं । इसलिए वैदिक मंत्र का अनुष्ठान एकदम सटीक होना चाहिए । पर प्रभु की पूजा और सेवा में गलती होने पर भी अनुकूल फल ही मिलता है ।
026. जब खाते और बात करते समय कभी-कभी दांत जीभ को काट देती है तो क्या हम जीभ को वेदना पहुँचाने के दोष में दांत तोड़ देते हैं - नहीं । दांत भी हमारे हैं और जीभ भी हमारी है इसलिए हम दांत को हानि नहीं पहुँचाते । ऐसे ही संत कभी भी वेदना देने वाले का भी भला ही चाहते हैं और भला ही करते हैं क्योंकि वे सबमें परमात्मा को देखते हैं ।
027. देवताओं के साथ जैसा व्यवहार किया जाए वैसा ही वे फल दे देते हैं ।
028. जो प्रभु हमें मोक्ष दे सकते हैं उनसे हम अज्ञान के कारण धन, पुत्र, पौत्र मांगते हैं, यह हमारी कितनी बड़ी मूर्खता है ।
029. हमारे लिए योग्य क्या है यही प्रभु से अगर हम मांगते हैं तो हमें सबसे योग्य देने का दायित्व प्रभु का हो जाता है । पर हम ऐसा नहीं मांगते । हम स्वयं चयन करके रुपए, पुत्र, पौत्र आदि मांगते हैं ।
030. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का पठन, चिंतन, कथन हमारा मांगल्य-ही-मांगल्य करता है ।
031. किसी का भी बुरा करने की भावना भारत ने कभी सोची ही नहीं । यह भारतीय परंपरा ही नहीं है कि किसी का भी बुरा हो ।
032. कथा में श्रोता से भी ज्यादा लाभ वक्ता का होता है क्योंकि प्रभु के गुणों को याद करने और उसका प्रतिपादन करने का मौका उसे जो मिलता है ।
033. श्रीमद् भागवतजी महापुराण से क्या मिलेगा, यह सोचना ही गलत है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण मिल गई तो हमें सब कुछ मिल गया ।
034. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सिद्धांतों का एकांत में बैठकर मनन किया जाना चाहिए ।
035. अध्यात्म में निपुणता नहीं तो बाकी सभी विद्याओं में निपुणता होना बेकार है ।
036. भक्ति के अलावा सभी उपाधियां वैसी हैं जैसे मोर के पंख की आँखें, जो आँखें तो हैं पर देख नहीं सकती । जैसे आँखों का मूल काम देखना होता है वैसे ही सर्वोत्तम विद्या अध्यात्म विद्या ही है ।
037. अध्यात्म विद्या बस इतनी सी है कि जिसमें हमें स्वयं को जानना होता है कि हम प्रभु के अंश हैं और अपने अंशी प्रभु को हमें पहचानना होता है ।
038. अध्यात्म विद्या ही एकमात्र विद्या है जो संसार से तारती है, बाकी विद्या से उद्धार होना, तरना संभव नहीं केवल पेट भरने के लिए वे ठीक हैं ।
039. इस देह को लेकर इतनी खटखटा क्यों ? शरीर भी अपना नहीं है, कुछ समय के लिए ही रहने के लिए हमें मिला है । इसलिए इस शरीर का उपयोग भक्ति का साधन करने हेतु करना चाहिए ।
040. संतों को कभी कोई पराया नहीं लगता क्योंकि सबमें उनको प्रभु दर्शन होते हैं ।
041. श्रीमद् भागवतजी महापुराण केवल संयोग से नहीं मिलती, मिलने का कोई कारण होता है । क्या कारण है ? वह कारण है पूर्व जन्मों के पुण्य ।
042. नश्वर शरीर का लाभ वही लेता है जो उसे शाश्वत तत्व (प्रभु) को पाने में लगा देता है ।
043. मनुष्य जन्म दुर्लभ है और उससे भी अति दुर्लभ सत्संग मिलना है ।
044. सत्संग मनुष्य जीवन की बहुत बड़ी कमाई है ।
045. उत्तर सुनने की मेरी पात्रता अगर हो तो और मेरे प्रश्न का उत्तर आप उचित समझे तो मुझे दें - ऐसे विनम्र होकर पहले लोग संतों से प्रश्न पूछा करते थे ।
046. वेदांत पढ़ने से सगुण परमात्मा से मन हट गया और निर्गुण परमात्मा को समझने की पात्रता नहीं बनी तो दोनों तरफ से हमारी हानि हो गई ।
047. जल्दीबाजी में कभी भी पात्रता नहीं होने पर वेदांत नहीं पढ़ना चाहिए, ऐसा संत कहते हैं ।
048. परम कल्याण यानी सर्वोच्च कल्याण जिसके ऊपर कुछ भी नहीं है और जो सबसे बड़ा भागवत धर्म है वह भक्ति योग से भक्ति मार्ग पर चलना है ।
049. किसी कर्म के फल स्वरूप प्रभु हमें धन, मान, स्वास्थ्य देते हैं पर जो भागवत धर्म का निर्वाह जीवन में करता है उन भक्तों को प्रभु अपने स्वयं को ही प्रदान कर देते हैं ।
050. प्रभु ने मथुरावासी को संरक्षण दिया, द्वारकावासी को वैभव दिया पर बृजवासियों को स्वयं को ही दे दिया ।
051. सच्चा भक्त प्रभु से कहता है कि हे परमपिता, मुझे आपके पुरस्कार नहीं चाहिए मुझे तो आप स्वयं चाहिए ।
052. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी हमेशा मांगते थे कि प्रभु यह एक दिन कह दें कि “तुलसी मेरो” ।
053. भक्ति मार्ग में चलने का फल यह है कि प्रभु स्वयं ही हमारे हो जाते हैं ।
054. हम केवल श्री रामजी के हैं और श्री रामजी केवल हमारे हैं - यह दृढ़ निश्चय हृदय में होना चाहिए ।
055. ऋषियों और संतों का मत है कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सर्वदा सेवन करना चाहिए ।
056. श्रीमद् भागवतजी महापुराण परमार्थ का श्रीग्रंथ है और आत्मज्ञान हेतु सर्वोत्तम उपयोगी है । बाकी लौकिक विद्या मोर के पंख के आँख जैसी नकली आँख वाली होती हैं ।
057. अध्यात्म विद्या के अन्य श्रीग्रंथ पढ़ भी लिया और श्रीमद् भागवतजी महापुराण नहीं पढ़ी तो सब अधूरा है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण का पूर्ण रूप से सही-सही अध्ययन कर लिया तो यह पर्याप्त है, अन्य कुछ भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं ।
058. भक्ति बिना श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रवेश संभव ही नहीं है ।
059. एक हजार अश्वमेध यज्ञ का फल भी कम है एक बार श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण का फल उससे बहुत अधिक है ।
060. सकाम यज्ञ स्वर्ग में सुख का भोग देते हैं, निष्काम यज्ञ चित्त की शुद्धि देते हैं और श्रीमद् भागवतजी महापुराण ज्ञानयज्ञ का फल भगवत् प्राप्ति होता है ।
061. किसी भी यज्ञ से प्रभु नहीं मिलेंगे, कर्मकांड कितना भी श्रेष्ठ करने पर प्रभु नहीं मिल सकते । श्रीमद् भागवतजी महापुराण का ज्ञानयज्ञ ही प्रभु प्राप्ति का साधन है ।
062. संत कठोर भाषा में कहते हैं कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण नहीं करने वाला जीव माता को गर्भ में पीड़ा पहुँचाने हेतु जन्मा है ।
063. संसार का कोई भी संबंध अस्थाई संबंध है, स्थाई संबंध मात्र भीतर विराजे प्रभु से है । इसलिए प्रभु की प्राप्ति हेतु जीवन में साधन नहीं किया तो सब कुछ व्यर्थ है ।
064. संत कठोर भाषा में कलियुग के जीव को गधे की उपमा देते हैं । गधा दूसरे का बोझ ढो-ढोकर मर जाता है वैसे ही मनुष्य दूसरे के कार्य करते-करते मर जाते हैं और जीवन में प्रभु से पहचान ही नहीं बना पाते ।
065. पूरा धर्म, स्वधर्म का ज्ञान देने पर अंत में श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने कहा कि सब धर्मों को छोड़ दो और एक मेरी शरण में आ जाओ तो मैं तुम्हें पापमुक्त कर दूँगा । यही बात प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण के एकादश स्कंध में ज्ञान उपदेश के बाद अंत में श्री उद्धवजी को कही ।
066. एक धर्म होता है, दूसरा प्रभु को पाना परमधर्म होता है । पर प्रभु समस्त धर्मों से भी ऊपर हैं ।
067. कभी-कभी प्रभु पाने के मार्ग में शास्त्र भी बोझ बन जाते हैं । शास्त्रों ने प्रभु से परिचय करा दिया, प्रभु का महत्व समझा दिया तो उनका काम पूरा हो गया । फिर प्रभु मिलन के समय शास्त्रों को भी भूल जाना चाहिए ।
068. प्रभु को छोड़कर बहुत कुछ कर लिया तो वह अगले जन्म काम नहीं आएगा और ऐसा करके इस जन्म में तो प्रभु प्राप्ति का अवसर हमने बेकार कर दिया । अगर इस जन्म में प्रभु को पाने का प्रयास किया और अन्य कुछ नहीं किया तो हमने ठीक किया ।
069. मनुष्य जन्म लेकर प्रभु के मार्ग पर नहीं चला तो मनुष्य जन्म बेकार गया और वह मनुष्य जीवन नहीं होकर पशुतुल्य जीवन हमने जिया ।
070. समय मिलेगा तो श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करेंगे, यह गलत है । यहाँ प्रयत्नवादी होना चाहिए, प्रारब्धवादी नहीं होना चाहिए ।
071. तीर्थों का माहात्म्य जानकर उनका सेवन करना चाहिए । शास्त्रों से उनके माहात्म्य को जानकर ही उनका सेवन करना चाहिए ।
072. परमार्थ में प्रयत्नवादी होना चाहिए । मुझे परमार्थ करना है, यह प्रयत्न करना चाहिए ।
073. परमार्थ प्रयत्न से, खाना-पीना, ओढ़ने के लिए प्रारब्ध पर संत छोड़ देते हैं । संत श्री तुकारामजी, श्री नरसी मेहताजी ने ऐसा ही किया ।
074. श्री नरसी मेहताजी का कथन है कि जिन्होंने मेरे जन्म से पहले मेरे माता के स्तनों में दूध भर दिया वे क्या अब मेरा पोषण नहीं करेंगे । श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने अपने प्रिय भक्तों के योगक्षेम उठाने का प्रण लेकर रखा है ।
075. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सच्चा श्रवण एक ऋतु यानी दो मास की सात्विक कथा के द्वारा होता है ।
076. निर्गुण कथा वह होती है जो निरंतर चलती ही रहती है । सात्विक कथा वह होती है जो दो माह तक चलती है और राजस कथा वह होती है जो सात दिनों के लिए होती है ।
077. चारों पुरुषार्थ यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में मनुष्य की हर इच्छा पूर्ण करने वाला श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
078. श्रीमद् भागवतजी महापुराणरूपी श्रीग्रंथ भगवत् रूप है क्योंकि प्रभु इसमें प्रवेश करके विराजमान हैं ।
079. जब श्री उद्धवजी ने प्रभु से स्वधाम गमन के वक्त कहा कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता तो प्रभु ने कहा कि मैं सगुण रूप को तो पृथ्वी पर त्यागूंगा पर निर्गुण रूप से श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रवेश करूँगा जिससे मेरा एक निवास यहाँ सदैव के लिए रहेगा ।
080. यज्ञोपवीत हमारे शरीर में देवताओं का निवास स्थान है । अगर शरीर पवित्र रहता है तो देवता निवास करते हैं और अगर शरीर अशुद्ध होता है तो देवता चले जाते हैं । इसलिए यज्ञोपवीत को मात्र रस्सी का डोरा कभी भी नहीं मानना चाहिए ।
081. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का अवलंबन जीवन में ले लिया तो ज्ञान अपने आप चला आएगा, वैराग्य अपने आप चला आएगा और उनके पीछे-पीछे भक्ति माता स्वयं चलकर आएंगी ।
082. भारत के सभी प्रांतों में संतों ने भक्ति की श्रीगंगा बहाई है और उन सबका उद्गम स्थान श्रीमद् भागवतजी महापुराण ही रहा है ।
083. भक्ति देवी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रभाव से प्रकट हुई फिर अपने विराजने का स्थान पूछा तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उन्हें श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रोता के हृदय में बैठने का स्थान दिया ।
084. भक्ति प्रभु के साथ हमें एकरूप कर देती है । हमारे सभी दोषों का नाश भक्ति के जागृत होने पर हो जाता है ।
085. प्रभु को बांधने वाली एकमात्र डोर भक्ति की डोर ही है ।
086. ज्ञानी प्रभु को जान सकते हैं पर प्रेम बंधन में बांध नहीं सकते, प्रेम बंधन में बांध तो केवल भक्त ही सकते हैं ।
087. लौकिक धन की चिंता प्रभु भक्तों को कभी नहीं होती । दो रोटी मिली, उसे खाकर वे भक्ति का साधन करते रहते हैं ।
088. भक्त श्री सूरदासजी ने अपने पास आकर भजन सुनने के लिए प्रभु को बाध्य कर दिया था ।
089. प्रभु के भजन से जीवन में जीव को भगवत् स्पर्श होता है ।
090. जिनके नेत्र भी नहीं थे ऐसे भक्त श्री सूरदासजी को भक्ति के आत्मसूर्य की उपमा दी गई है । केवल भक्ति से उनकी प्रतिभा का जागरण हुआ और उनकी भक्ति से रीझकर प्रभु उनके पास आकर विराजते थे ।
091. प्रभु एक ही बंधन जानते हैं और मानते हैं और वह प्रेमाभक्ति का बंधन है ।
092. भक्ति देवी के आने पर वहाँ विराजे संत तो झूमें, साधारण मनुष्य यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी झूमने लगे क्योंकि भक्ति सबका चित्त शुद्ध कर देती है ।
093. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने पूछा कि कौन-सा पापी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से तर जाते हैं तो श्री सनतकुमारजी ने कहा कि आप उल्टा पूछ रहे हैं, आप पूछें कि कौन तर नहीं सकता क्योंकि सभी तर जाते हैं ।
094. मन, वाणी और शरीर से जो पाप पूर्व में हुआ हो, अभी हो रहा है उसका संपूर्ण नाश का सामर्थ्य, श्रीमद् भागवतजी महापुराण में है ।
095. जो प्रभु से प्राप्त हुआ है हमारा मन उसका विचार नहीं करता, जो अप्राप्त है हमारा मन केवल उसका ही विचार करता है ।
096. अपूर्णता संसार का एक सत्य है । संसार कभी पूर्ण हो ही नहीं सकता, पूर्ण तो सिर्फ और सिर्फ प्रभु ही हैं ।
097. सोना कितना सुंदर है पर पूर्ण नहीं क्योंकि उसमें सुगंध नहीं । गन्ना कितना मीठा है पर पूर्ण नहीं क्योंकि उसमें फल नहीं लगता । चंदन का पेड़ कितना सुगंधित है पर पूर्ण नहीं क्योंकि उसमें फूल नहीं होते । इस तरह पूरा संसार ही अपूर्णता से भरा हुआ है ।
098. धन है तो ज्ञान नहीं, ज्ञान है तो धन नहीं, दोनों है तो स्वास्थ्य नहीं । इसलिए जीव में भी पूर्णता नहीं है ।
099. प्रभु भक्त कभी संसार की अपूर्णता को नहीं देखते क्योंकि वे पूर्ण प्रभु से जुड़ जाते हैं ।
100. संसार में पूर्णता देखने का चश्मा केवल भक्ति से ही प्राप्त हो सकता है ।
101. जब संसार की नश्वर वस्तुओं का ज्ञान हमें हो जाता है तो उनके त्याग की भावना हमारे भीतर से उदय होती है ।
102. वस्त्रों का रंग बदलने का नाम संन्यास नहीं है । संपत्ति की कामना, पुत्र-पौत्र की कामना, कीर्ति की कामना का त्याग का नाम ही सन्यास है ।
103. नहीं समझ पाने की अवस्था में धर्म में तर्क करना गलत नहीं पर कहाँ वह कुतर्क बन जाता है, इस बात से हमें सदैव सावधान रहना चाहिए ।
104. सारे पापों के प्रायश्चित संभव है पर आत्महत्या का कोई प्रायश्चित नहीं है । इसलिए कभी भी, कितनी भी विपरीत परिस्थिति में या अवसाद में स्वयं का घात करने का हमें सोचना भी नहीं चाहिए ।
105. एकांत में प्रभु की आराधना कर जीवन को धन्य करना चाहिए । एक उम्र के बाद सिर्फ आत्म-कल्याण में लग जाना चाहिए ।
106. मैं (जीव) आपको (प्रभु) को चाहूं और पाऊं - यही अंतिम समय में हमारी इच्छा होनी चाहिए ।
107. क्षण भर के सत्संग से भी जीवन का कल्याण संभव है ।
108. भगवत् धर्म ही परम कल्याणकारी है ।
109. भक्ति से प्रभु पदार्थ प्रदान नहीं करके स्वयं को प्रदान कर देते हैं । प्रभु प्राप्त होते हैं तो सभी पदार्थ स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं ।
110. हमने संसार के साथ मन जोड़ लिया है इसलिए हमें भयभीत रहना, दुःखी रहना पड़ता है और जीवन में हम निश्चिंत नहीं हो पाते ।
111. पदार्थ का उपयोग करें पर उपभोग न करें यानी पदार्थ में फंसे नहीं ।
112. हमारा चित्त भी इंद्रियों के माध्यम से बढ़िया-बढ़िया दृश्य देखना चाहता है, जिह्वा के माध्यम से बढ़िया-बढ़िया स्वाद लेना चाहता है, नेत्रों के माध्यम से बढ़िया-बढ़िया रूप देखना चाहता है, कानों के माध्यम से बढ़िया-बढ़िया शब्द सुनना चाहता है और चर्म के माध्यम से बढ़िया-बढ़िया स्पर्श करना चाहता है ।
113. संसार के सभी पदार्थ प्राप्त भी हो गए तो भी उससे कोई ज्यादा लाभ नहीं है ।
114. संसार में अप्राप्ति में भी दुःख है और प्राप्ति में भी दुःख है ।
115. जितना-जितना हम अपने मन को नाशवान संसार में लगाएंगे उतना-उतना हम अशांत ही रहेंगे ।
116. हम आधि-व्याधि से ग्रस्त रहते हैं । आधि मन के रोग को कहते हैं और व्याधि शरीर के रोग को कहते हैं ।
117. मैं शरीर हूँ - यह भावना ही हमें चिंताग्रस्त करती है । यह “मैं” हमें चिंता देता है और आनंद एवं मौज में नहीं रहने देता ।
118. प्रभु की भक्ति में रुचि निर्माण होते ही हम अपनी इंद्रियों को प्रभु में लगा देते हैं ।
119. भक्ति मार्ग में देखने से इनकार नहीं है, देखने का रूप बदल दिया जाता है कि प्रभु के रूप को देखो, सुनने से इनकार नहीं है बस सुनने का रूप बदल दिया जाता है कि प्रभु के गुण-लीला की कथा सुनो ।
120. भक्ति योग में एक-एक इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ना होता है जो बहुत सरल है और पूर्ण रूप से संभव भी है ।
121. देखना हो तो प्रभु के रूप के देखो, जिह्वा से प्रभु के मंगलमय नाम का उच्चारण और मंत्र का उच्चारण करो, सुनना हो तो प्रभु की कथा सुनो - यह भक्ति योग का मूल सिद्धांत है ।
122. देखना-सुनना-बोलना बंद नहीं करना, रोकना नहीं, अवरोध नहीं करना । ऐसा करने से यह ज्यादा समय तक यह नहीं हो सकेगा । करना यह है कि उन सब इंद्रियों का विषय बदलकर प्रभु को कर देना है ।
123. मन प्रभु ध्यान में यानी प्रभु को याद करने में लग जाए, यही सच्चा ध्यान है । हमें पुत्र, पत्नी और घर की याद तो आती है पर प्रभु की याद नहीं आती, यही विडंबना है ।
124. मन को रोकें नहीं, बंद नहीं करें बस संसार से हटकर प्रभु में लगा दें ।
125. ध्यान परिवार और पत्नी का नहीं होकर प्रभु का होना चाहिए । गोपियां जहाँ भी होती उनके मन का प्रवाह प्रभु की तरफ ही सदैव दौड़ता था ।
126. एक ही प्रभु भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न जगह पर हैं पर वे हैं एक ही । श्री गोकुलजी में, श्री अयोध्याजी में, श्री पंढरपुरजी में, श्री तिरुमलाजी में एक ही प्रभु भिन्न-भिन्न रूपों में हैं ।
127. कानों को कथा सुनाकर प्रभु की कीर्ति का श्रवण करने में लगाना चाहिए, हाथों को प्रभु की पूजा-अर्चना में लगाना चाहिए ।
128. हम विदेश, क्लब, सिनेमा में जाते हैं पर हमारे चरण हमें प्रभु के तीर्थ और मंदिर में ले जाने चाहिए । भक्त अपने पैरों का उपयोग प्रभु को केंद्र में रखकर ही करता है ।
129. प्रभु के लिए एक ही आसन है और वह हमारे हृदय का आसन है जहाँ पर प्रभु हमारी प्रेमाभक्ति के कारण कैद हो जाते हैं और वहाँ से निकल नहीं पाते ।
130. तुलसी माता के प्रभु पर चढ़े पत्र, प्रभु पर चढ़े बढ़िया-बढ़िया फूल और इत्र की सुगंध हमें अपने नासिका से लेनी चाहिए ।
131. बढ़िया-से-बढ़िया चीज प्रभु को अर्पण करके उसका उपयोग प्रसाद के रूप में करना चाहिए ।
132. प्रभु घर में विराजते हैं तो पूरा घर ही शुद्ध हो जाता है ।
133. प्रभु के सगुण रूप के समक्ष हमारी इंद्रियों को हमें अर्पण करना चाहिए । प्रभु के लिए रसोई बनानी चाहिए फिर वह भोजन प्रभु अर्पण होकर हमारे पेट में प्रसाद के रूप में जाना चाहिए तो हमारा जीवन ही बदल जाएगा ।
134. जितना बढ़िया बनाना है प्रभु के लिए बनाओ और प्रभु को अर्पण करो - ऐसा करके प्रभु के लिए अद्वितीय प्रेम जागृत होता है और हमारा अंतःकरण प्रसन्नता से भर जाता है ।
135. अन्य योगों में नकारात्मक आदेश है कि यह मत करो, वह मत करो पर भक्ति योग में सिर्फ सकारात्मक आदेश है कि सब करो पर प्रभु के लिए करो ।
136. इंद्रियों को बंद करके हम हमेशा चौबीस घंटे बैठ नहीं सकते पर भक्ति योग में इंद्रियों को बंद करने के लिए नहीं अपितु मोड़ने के लिए कहा गया है कि उन्हें प्रभु की तरफ मोड़ दिया जाए ।
137. जैसे ही हम हमारी इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ते हैं हमारे शरीर का विस्मरण हो जाता है और मैं प्रभु का अंश हूँ यह भावना बन जाती है जिससे हम प्रभु से एकरूप हो जाते हैं ।
138. भक्त भीतर इतना परमानंद में लीन रहता है कि वह बाहर के संसार के सुख की अवहेलना कर देता है ।
139. प्रभु के लिए घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, घर में रहकर ही प्रभु के बन जाए तो घर ही मंदिर बन जाएगा ।
140. हमारी इंद्रियों के आलंबन और इंद्रियों के केंद्र प्रभु को ही बनाना चाहिए ।
141. बंगला बनाओ तो श्री ठाकुरजी के लिए और खुद सेवा करने हेतु सेवक बनकर रहो ।
142. जिसका प्रभु में प्रगाढ़ विश्वास हो गया और प्रभु मेरे पर कृपा कर रहे हैं, यह भावना आ गई तो यह भावना कि इतने सर्वसामर्थ्यवान प्रभु मेरे साथ है जीवन में किसी भी डर को नहीं रहने देती ।
143. संसार के परिवर्तनशील और नाशवान पदार्थों को हमने अपना माना और अपरिवर्तनीय और शाश्वत प्रभु को हम अपना नहीं मानते ।
144. मैं (प्रभु) भक्ति से ही मिलूँगा - ऐसा प्रभु ने श्री उद्धवजी को नहीं कहा । प्रभु ने कहा कि मैं केवल और एकमात्र भक्ति से ही मिलूँगा ।
145. योग क्रिया करें, कर्मकांड करें, सब कुछ करें पर भक्ति जीवन में जरूर करनी चाहिए नहीं तो सब किया हुआ व्यर्थ है ।
146. श्रीवेदों और उपनिषदों में क्या कहा गया है ? बस उस आत्मा (प्रभु) को जान लो बाकी बात सब त्याग दो ।
147. ज्ञानियों, कर्मकांड़ियों के लिए अन्य उपाय है पर जो कुछ नहीं जानता उसके लिए क्या उपाय है ? प्रभु के द्वारा स्वयं बताया गया सर्वोत्तम उपाय है - भागवत् धर्म यानी भक्ति योग, जिस मार्ग पर अंधे श्री सूरदासजी ने भी दौड़कर प्रभु को पा लिया ।
148. भक्ति मार्ग में न तो रास्ते में ठोकर लगकर गिरना है और न ही मार्ग भटकना है क्योंकि सँभालने वाले प्रभु जो हैं ।
149. ज्ञान मार्ग यानी वेदांत के चिंतन का मार्ग भटकाता है क्योंकि वेदांतियों में एकमत नहीं है, सब अलग-अलग बातें कहते हैं पर भक्ति मार्ग में कहीं भी भटकाव नहीं है ।
150. ज्ञान का साधन कैसा है तो संत कहते हैं कि बोलने वाले को ज्ञान बोलना कठिन, ज्ञान को समझना कठिन, सुनने वाले को ज्ञान सुनना कठिन, साधन करने वाले को ज्ञान साधना कठिन - ऐसा ज्ञान मार्ग है । पर भक्ति मार्ग में कुछ भी कठिन नहीं है, सब सरल-ही-सरल है ।
151. ज्ञान मार्ग में विवेक चाहिए और योग्यता चाहिए ब्रह्म जिज्ञासा हेतु पर भक्ति मार्ग में सिर्फ भावना चाहिए, कोई योग्यता नहीं चाहिए ।
152. जो कुछ भी नहीं जानते, सामान्य-से-सामान्य लोगों का मार्ग भक्ति मार्ग है । एक अंधा व्यक्ति भी इस मार्ग पर बड़ी वेग से दौड़ने लग जाता है और वह गिरेगा नहीं क्योंकि उसे प्रभु संभालते हैं ।
153. जिन्होंने श्रीवेदों का आधार नहीं लिया पर फिर भी प्रभु के पास पहुँचना चाहते हैं, भाव का बल है और वे भक्ति मार्ग पर चलते हैं तो प्रभु कहते हैं न मैं उनका पतन होने देता हूँ, न उन्हें ठोकर लगने देता हूँ और न उन्हें मार्ग भटकने देता हूँ ।
154. जिनके हृदय में भक्ति नहीं, प्रभु कहते हैं वे मेरे लिए बेकार हैं ।
155. कर्मकांड का फल क्षीण होने वाला फल है पर भक्ति का फल श्रेष्ठतम फल है जो अक्षुण्ण रहता है ।
156. जो भी श्रीवेदजी के अक्षर हैं वे प्रभु के नाम ही हैं ।
157. वैदिक अनुष्ठान भी भक्ति बिना कभी सफल नहीं होते ।
158. जैसे एक बच्चा माँ को देखकर दौड़ता है तो गिरने से पहले माँ उसे उठा लेती है वैसे ही भक्ति मार्ग में दौड़ने वाले को प्रभु स्वयं उठा लेते हैं और उसे गिरने नहीं देते ।
159. बच्चों के साथ माँ ज्यादा समय रहती है वैसे ही प्रभु भी अपने भक्त के पास ज्यादा रहते हैं ।
160. सब जगह नियम होते हैं । राजा का दरबार का नियम है तो राज दरबार में कोई आए तो वह नियम उसपर लागू होता है पर राजकुमार, जो राजा का अत्यंत प्रिय पुत्र है, उसे द्वारपाल बिना नियम के जाने देते हैं । वैसे ही प्रभु भक्ति से युक्त भक्त के बीच में प्रकृति और शास्त्र यह कहकर हट जाते हैं कि यह प्रभु का लाड़ला है । प्रभु का भक्त प्रभु का लाड़ला होता है और उसे प्रभु मिलन से कोई रोकता नहीं ।
161. प्रभु के नाम, गुण, कीर्ति में जो रस लेता है उसके लिए सब शास्त्र हट जाते हैं । भगवती शबरीजी के आगे श्रीवेदजी, उपनिषदजी क्या करेंगे, जहाँ प्रभु ने भी नियम तोड़ दिए ।
162. भक्ति मार्ग पर पतन संभव ही नहीं है, भक्ति करने वाला जीव भटकेगा नहीं, सीधा प्रभु के पास पहुँच जाता है ।
163. भक्ति मार्ग में क्या करना होता है ? भागवत् धर्म क्या है ? हम जो-जो अपने जीवन में करते हैं शरीर से, वाणी से, मन से और इंद्रियों से यानी जो भी कर्म हो रहा है उसे परमात्मा को अर्पण कर दें । यही भक्ति योग का सबसे बड़ा सूत्र है ।
164. वैदिक कर्म यानी पाठ-पूजा, लौकिक कर्म यानी नौकरी-व्यापार, स्वाभाविक कर्म यानी भोजन, निद्रा और सांस लेना - यह सब प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । दिन भर में किया जो कुछ है वह सब प्रभु को अर्पण हो जाए । शरीर से तीन प्रकार की क्रियाएं होती है वैदिक, लौकिक और स्वाभाविक । वाणी से भी तीन प्रकार की क्रियाएं होती है वैदिक, लौकिक और स्वाभाविक । मन से भी तीन प्रकार की क्रियाएं होती है वैदिक, लौकिक और स्वाभाविक । यह नौ क्रियाएं प्रभु को अर्पण कर देना ही भक्ति है ।
165. प्रभु को अर्पण करने के तीन स्तर हैं । हाथ से जल लेकर अर्पण किया, यह शरीर से अर्पण हुआ । मंत्र बोलकर अर्पण किया, यह वाणी से अर्पण हुआ । मन में अर्पण का विचार आया और मन से अर्पण हो गया तो यह मन से अर्पण हुआ । सारा कर्म कौन कर रहा है – “मैं” जो प्रभु का अंश और प्रभु ही मेरे से कर्म करवा रहे हैं, यह भावना आनी चाहिए तो कर्म अर्पण हो जाता है । किसे अर्पण करना है और क्या अर्पण करना है ? प्रभु कराने वाले हैं तो प्रभु को अर्पण करना है और किया जाने वाला कर्म को अर्पण करना है ।
166. जैसे शतरंज में काठ की बनी लकड़ी से राजा, रानी, ऊँट, घोड़ा, प्यादा होते हैं पर होते सब लकड़ी के हैं । इसी तरह कर्म करवाने वाले और करने वाले सब प्रभु ही होते हैं ।
167. प्रभु ही मेरे जीवन के संचालक हैं, वे ही मुझे सब कुछ करवाते हैं ।
168. हर कर्म को भगवत् रूप मान लेते हैं तो प्रभु को उस कर्म में अपना जोर लगाना पड़ता है । प्रभु को उसे सफल करना होता है । प्रभु का नाम जुड़ते ही प्रभु अपना बल लगा देते हैं ।
169. सब परमात्मा ही मुझे करवाते हैं, यह भक्त की भावना आते ही प्रभु उस कर्म को स्वयं अपने श्रीहाथों में ले लेते हैं ।
170. हम सर्वदा-सर्वदा के लिए दुःखों से छूटना चाहते हैं तो पहले विचार यह करना चाहिए, जो अनिवार्य विचार है, कि मैं शरीर नहीं हूँ ।
171. शरीर बदलता रहता है, जन्म के साथ, दो माह की अवस्था, बचपन, जवानी और बुढ़ापा पर अपने भीतर का “मैं” नहीं बदलता । देह के विभिन्न अवस्था में रहने वाला चेतन स्वरूप “मैं” एक ही रहता है ।
172. हमने न बदलने वाले उस तत्व “मैं” को जानने का प्रयास नहीं किया ।
173. नित्य बदलने वाला शरीर “मैं” नहीं हो सकता ।
174. जिसने शरीर को अपना माना वह अखंड सुख कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
175. शरीर का अंत मुट्ठी भर राख में ही है ।
176. हमारी ऊर्जा शरीर को संवारने में, शरीर को सुख देने में ही समाप्त हो जाती है ।
177. जब शरीर “मैं” नहीं है तो शरीर के कारण जिनसे मेरा संबंध है जैसे बेटा, पोता, पत्नी, माता-पिता वह भी सत्य नहीं है ।
178. एक व्यक्ति की सगाई हो गई और टूट गई । किसी ने कहा कि तुम्हारी सास मर गई तो उसने कहा कि मेरी सास नहीं है क्योंकि सगाई टूट गई है । सगाई टूटी तो संबंध भी टूटा । वैसे ही शरीर मेरा नहीं है तो पत्नी मेरी नहीं, बेटा मेरा नहीं । शरीर मेरा नहीं तो संबंध भी मेरे नहीं है, संबंध उस शरीर के संबंध हैं ।
179. घर पर किसी को नहीं कहना चाहिए कि तुम हमारे नहीं हो, यह लोकाचार नहीं है पर एकांत में जब प्रभु के सामने बैठे तो प्रभु से जरूर कहना चाहिए कि मैं किसी का नहीं हूँ, मैं सिर्फ आपका हूँ । केवल कहना नहीं कि तुम मेरे हो पर यह मानना मन से कि कोई मेरा नहीं, सिर्फ प्रभु ही मेरे हैं । भगवती मीराबाई ने कह दिया कि “मेरे तो गिरधर-गोपाल, दूसरो न कोई” । भगवती मीराबाई ने इस बात को जान लिया और जीवन में उतार लिया और फिर अखंड सुख की प्राप्ति की ।
180. संसार के रंगमंच में एक नाटक के पात्र की तरह हमें नाटक करना चाहिए पर मानो सिर्फ यह कि मैं रंगमंच में निमित्त पात्र हूँ, सत्य में तो केवल प्रभु का ही हूँ ।
181. पुत्र, पत्नी, स्थान, संपत्ति, वस्त्र को त्यागने की जरूरत नहीं बस उस वृत्ति का त्याग करने की जरूरत है कि मैं किसी का नहीं, मैं सिर्फ प्रभु का हूँ ।
182. जैसे रेलगाड़ी में सीट दस घंटे के लिए हमारी होती है पर वह अस्थाई सीट है वैसे ही संसार से संबंध भी हमारा अस्थाई है, स्थाई संबंध सिर्फ प्रभु से ही है ।
183. शरणागत की सारी चिंता प्रभु को करनी पड़ती है ।
184. परिवार का त्याग, घर का त्याग करने को शास्त्रों ने नहीं कहा गया बस भावना का त्याग कि यह सब मेरे नहीं हैं । भावना का त्याग करते ही हम सभी बंधन से मुक्त हो जाते हैं । ऐसी भावना के आते ही हम स्वतः संन्यासी बन जाते हैं, वस्त्र बदलकर संन्यासी बनने की जरूरत नहीं पड़ती ।
185. दो बातों में संसार रचा है “मैं और मेरा” । जिसका ममत्व “मैं और मेरा” से गया वह संन्यासी ही है ।
186. संन्यासी के बिना वस्त्र बदले ही यह भावना आ गई कि “मैं केवल प्रभु का” तो काम हो गया पर वस्त्र बदलने पर भी यह भावना नहीं आई तो संन्यासी का वस्त्र बदलना भी बेकार हो गया ।
187. संसार बड़े वेग से बदल रहा है । जो वस्तु बड़े वेग से बदलती है, चलती है उसकी गति ध्यान में नहीं आती पर धीरे चलने वाली की गति ध्यान में आती है । इसलिए संसार की तीव्र गति साधारण मनुष्य के ध्यान में नहीं आती ।
188. निरंतर परिवर्तनशील संसार में मन को नहीं लगाना चाहिए, संसार अस्थिर है उसका सहारा लेकर हम कैसे स्थिर रह सकते हैं ?
189. संसार में एक तत्व प्रभु हैं जिनमें कोई परिवर्तन नहीं, वे एकदम स्थिर हैं । स्थिर प्रभु को पकड़ने से स्थिरता को हम पकड़ लेते हैं तो फिर हम जीवन में स्थिर हो जाएंगे ।
190. समय रहते ही हमें स्थिर आधार प्रभु की तरफ चलना चाहिए ।
191. श्री रामचरितमानसजी का एक अनमोल दोहा है । वर्षा में तालाब बढ़ा, मछली पैदा हुई, ग्रीष्म ऋतु आई, तालाब सूखने लगा । एक बड़ी समझदार मछली ने तालाब से सागर में स्थानांतरण कर लिया और वह बच गई । हम भी प्रभु रूपी सागर में मिल जाए तो हम बच जाएंगे अन्यथा तड़पते रहेंगे जैसे अन्य मछली तालाब सूखने पर तड़पती है और मर जाती है ।
192. स्पर्श, रंग, रूप, गंध, स्वाद का तालाब सूखेगा, जरूरत है हमें अपने को प्रभु प्रेम रूपी महासागर में मिला देना चाहिए जहाँ के सागर का जल कभी सूखेगा नहीं ।
193. संसार से भागने की जरूरत नहीं, अनासक्त होने की जरूरत है ।
194. दिन में एक घंटा मौन । संसार से अनासक्ति और प्रभु से आसक्ति का प्रयास करना । यह एक घंटा का संन्यास है कि मैं किसी का नहीं हूँ, सिर्फ प्रभु का ही हूँ ।
195. हमने अपने आपको परिवार, जाति और देश से जोड़ लिया, सब कुछ छोड़ दें अब सिर्फ प्रभु के बन जाए ।
196. प्रभु के भक्तों को कष्ट नहीं देने का और वहाँ नहीं जाने का निर्देश श्री यमराजजी अपने सेवक को देते हैं क्योंकि भक्त को लेने अंतकाल में स्वयं प्रभु आते हैं ।
197. हमने आज तक आसक्ति का रस लिया है अब अनासक्ति का रस लेकर देखना चाहिए ।
198. भक्ति के मुख्य प्रचारक देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ही हैं ।
199. संसार में कोई रस नहीं, भक्ति में रस-ही-रस भरा हुआ है । प्रपंच को त्यागकर भगवती मीराबाई ने यही रस चखा ।
200. संसार का दृष्टिकोण नकारात्मक है और भक्ति का दृष्टिकोण सकारात्मक है । इसलिए आरंभ से ही भक्ति में आनंद है । भक्ति एक यात्रा है - पूर्ण से पूर्णता तक की ।
201. अज्ञान के अंधकार, भोगों के अंधकार के बीच प्रभु ज्योति को जलाएं तो उजाला-ही-उजाला हो जाएगा ।
202. नेत्र से प्रभु को देखना, चित्त में प्रभु को बसाना क्योंकि जीव ईश्वर-शरण जीव है ।
203. हमारे शास्त्रों में कर्तव्यों का आग्रह है पर सबसे बड़ा आग्रह प्रभु का बनने का है । सच्चा कर्तव्य यह है कि मन प्रभु में लगाया जाए ।
204. धर्म अनुसार अपना स्वधर्म करना और फिर परमधर्म, जो प्रभु में रम जाना होता है, उसे करना चाहिए ।
205. वानप्रस्थ की उम्र आने पर लौकिक कर्तव्यों का धीरे-धीरे त्याग करते चलना चाहिए ।
206. संगति करनी है तो जहाँ भगवत् चर्चा होती है उन लोगों की करनी चाहिए ।
207. जहाँ प्रभु की चर्चा होती है वहीं साधुत्व है, केवल साधु बन जाना ही साधु नहीं है ।
208. सच्चा साधन करना हो तो परचर्चा का तुरंत त्याग करना चाहिए । हमें परचर्चा में बढ़िया रस आता है और बेकार समय खर्च होता है । परचर्चा में बीते समय का लाभ क्या है ? उल्टे दो नुकसान हैं । पहला, अनमोल जीवन का समय गंवाया और दूसरा, पहले से मलिन मन को और मलिन बनाया संसार की गंदगी अपने भीतर डालकर । संतों ने परचर्चा से अत्यंत बड़ा दोष माना है । हम कितना कुछ बिना कारण ही पढ़ते हैं, साधक को सिर्फ संसार की मुख्य बातों को ही जानना चाहिए ।
209. बुराई का त्याग करने के लिए मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं है । जैसे घर में आग लग गई तो भागने हेतु मुहूर्त नहीं देखते, हम तुरंत भागते हैं वैसे जीवन में लगी आग से तुरंत जागना चाहिए और भागना चाहिए । जैसे ही जगे वैसे ही भागना चाहिए यानी जिस दिन वैराग्य हो गया उसी दिन भोगों से संन्यास ले लेना चाहिए ।
210. जीवन में क्या करना चाहिए तो शास्त्र कहते हैं कि प्रभु की सेवा का रस लेना चाहिए । प्रभु की सेवा करने पर शास्त्रों ने बहुत जोर दिया है ।
211. प्रभु की पूजा करना एक बात है और पूजा में रस आना दूसरी बात है ।
212. हमारे हाथों को आदत होनी चाहिए प्रभु सेवा की और मन को रस आना चाहिए प्रभु सेवा में ।
213. मंत्रों से संपादित होती है वह प्रभु सेवा है और जो भाव से संपादित होती है वह भी प्रभु सेवा है ।
214. हम पूजा जल्दी से करते हैं और नाश्ता शांति से करते हैं । कभी-कभी हमारा मन बैठा पूजा में होता है पर हमें रस नाश्ता का आने लगता है ।
215. पूजा पूरी होने पर भी प्रभु के सामने से उठने का मन नहीं हो तो ही मानना चाहिए कि हमें पूजा में रस आने लगा है ।
216. प्रभु बोलते नहीं है तो भी ठीक वैसे ही प्रभु को लाड़ लड़ाओ जैसे एक माँ अपने नवजात बालक को लाड़ लड़ाती है जो बोलता नहीं है । वह माँ जिस प्रेम भावना से लाड़ लड़ाती है उससे भी कोटि गुना प्रेम से हमें प्रभु को लाड़ लड़ाना चाहिए ।
217. प्रभु श्री शुकदेवजी रसमय हो गए और फिर श्री भागवतजी महापुराण का निरूपण किया । इसलिए पीवत भागवतम कहा है यानी श्री भागवतजी महापुराण के रस को पियो, ऐसा उन्होंने कहा ।
218. प्रभु के सानिध्य में आनंद है, परमानंद है और फिर ब्रह्मानंद है ।
219. प्रभु की सेवा का रस, प्रभु की कथा का रस, प्रभु के संकीर्तन का रस - हर तरफ रस-ही-रस है जो हमें जीवन में लेना चाहिए ।
220. स्वाध्याय न हो, सत्संग न हो, कथा श्रवण न हो तो बुद्धि में मलिनता आ जाती है यानी मैल चढ़ जाता है ।
221. धुंधकारी ने पांच वैश्याएं रखी जिन्होंने उसे अंत में मारा । हम भी पांच इंद्रियों में फंसे रहते हैं जो हमारा अंत कर देती है । जैसे वैश्याएं बहका कर धुंधकारी को आसक्त रखती थी वैसे ही हमारी इंद्रियां हमें बहका कर आसक्त बनाए रखती है ।
222. यदि पांच विषयों में आसक्त हुए तो फल क्या है ? सिर धुन-धुन कर पछताना पड़ता है जैसे धुंधकारी सिर पीट-पीट के पछताया । हम दोष प्रारब्ध और समय को देते हैं पर दोष हमारा होता है । ईश्वर, काल और प्रारब्ध में मिथ्या दोष न लगाए यह श्री रामचरितमानसजी की चौपाई में बताया गया है ।
223. परमात्मा की आराधना करने वाला मलिन शक्तियां जैसे भूत, प्रेत, राक्षस से डरे, यह संभव नहीं है क्योंकि यह शक्तियां उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ।
224. भक्तों के पास भूत-प्रेत आते हैं उन्हें डराने के लिए नहीं बल्कि उनसे अपने आत्म-कल्याण के लिए प्रार्थना करने हेतु ।
225. इतना पाप अपने जीवन में धुंधकारी ने किया था कि सौ गया-श्राद्ध करने पर भी उसकी सद्गति संभव नहीं हुई जो फिर श्रीमद् भागवतजी महापुराण से हुई ।
226. नित्य प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की उपासना के प्रभाव से श्री गोकर्णजी ने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी से धुंधकारी के सद्गति का उपाय पूछा और प्रभु श्री सूर्यनारायणजी ने उपाय बताया कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण का ज्ञान यज्ञ करना चाहिए ।
227. रोज-रोज सुबह उठकर की जाने वाली प्रभु की उपासना हमें प्रभु से जोड़ती है ।
228. बहुत सारे महात्मा गुप्त रूप से श्री हिमालयजी में साधना करते हैं और जब हम सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर उपासना करते हैं तो उस समय हमें उनकी अनुभूति मिलना प्रारंभ हो जाती है ।
229. प्रभु के लिए भजन, प्रभु के लिए पूजन, प्रभु के लिए श्रीगंगा स्नान - सब कुछ प्रभु के लिए ही करना चाहिए ।
230. रोज-रोज प्रभु से भक्ति द्वारा संबंध स्थापित होने पर विपरीत समय में याद करने पर प्रभु तुरंत दौड़े चले आते हैं ।
231. अपने घर की श्री ठाकुरबाड़ी में शुद्धता रखनी चाहिए तो ही वहाँ देव तत्व जागृत रहता है ।
232. आठ दिन पहले का प्रेत योनि का धुंधकारी अब प्रभु पार्षद के दिव्य रूप में श्रीमद् भागवतजी महापुराण के पूर्णाहुति के दिन पहुँच गया । यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सप्ताह का प्रभाव था ।
233. धुंधकारी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रभाव से सात दिनों में अपने समस्त पापों को जलते हुए देख लिया था ।
234. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से सब पाप नष्ट हो जाते हैं और हम श्री बैकुंठजी चलने हेतु सिद्ध हो जाते हैं ।
235. एक ही बार जीव के उद्धार हेतु श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा का श्रवण पर्याप्त है बस भाव परम शुद्ध होना चाहिए यही कथा श्रवण के लिए एकमात्र शर्त है ।
236. अपने द्वारा होने वाले हर कर्म मेरे लिए नहीं हैं, यह प्रभु के लिए है - ऐसा मानकर सभी कर्म प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए ।
237. हेतु पूर्वक किए या निहेतु पूर्वक किए कर्मफल का त्याग यानी कर्म का समर्पण प्रभु को हो जाए तो हमारा कल्याण हो जाता है ।
238. हमारे द्वारा होने वाले सभी कर्म, संकल्प, विकल्प प्रभु शक्ति द्वारा हो रहे हैं, हर क्रिया के पीछे परमात्मा की शक्ति है, यह भाव होना चाहिए ।
239. मैं कुछ भी करने वाला नहीं होता, सभी कर्म प्रभु की शक्ति द्वारा संचालित हो रहे हैं ।
240. मन, कर्म, वाणी से किए जाने वाले कर्म प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित करना चाहिए क्योंकि यह सब प्रभु की शक्ति से ही हो रहे हैं ।
241. समर्पण से भी ऊपर स्व-समर्पण होना चाहिए । समर्पण जब होता है तो मैं मानता हूँ कि वह मैं कर रहा हूँ । उसके ऊपर की भावना है प्रभु अपनी शक्ति से करवा रहे हैं यानी प्रभु की शक्ति से हो रहा है इसलिए समर्पण की अवस्था नहीं स्व-समर्पण होना चाहिए । हमने किया ही नहीं तो समर्पण किसका करें । स्व-समर्पण यानी स्वाभाविक समर्पण की भावना जब हम मानने लगेंगे कि हर कर्म के पीछे प्रभु की ही शक्ति है तो हम एक श्रेष्ठ अवस्था पर पहुँच जाएंगे ।
242. श्री ध्रुवजी ने कहा जब प्रभु ने अपना शंख उनके गाल पर लगाया कि प्रभु आप ही मेरे से यह श्लोक और वाणी कहलवा रहे हैं । मैं (ध्रुव) तो बोल ही नहीं पा रहा था, आप ही मेरे भीतर प्रवेश करके मुझसे बुलवा रहे हैं ।
243. यह भक्त मानता है कि बोलने की शक्ति भी उसकी नहीं, प्रभु की ही है ।
244. मेरे द्वारा जो कुछ भी कर्म हो रहा है उन सब कर्मों के पीछे शक्ति प्रभु की ही है ।
245. पैर को हिलने की शक्ति, हाथ को सेवा करने की शक्ति, नेत्र को प्रभु का रूप देखने की शक्ति - यह सब प्रभु द्वारा दी गई शक्ति ही है ।
246. मेरा शरीर, मेरी इंद्रियां, मेरे प्राण, मेरा हृदय जो चल रहा है उसमें शक्ति प्रभु की ही है । असुरी भाव यह है कि मैंने किया, संत भाव यह है कि प्रभु आप ही अपनी शक्ति से करवा रहे हैं ।
247. प्रभु की शक्ति से हुआ तो स्व-अर्पण करना चाहिए क्योंकि मूल में तो वह प्रभु का ही है ।
248. प्रभु के श्रीवामन अवतार में जब राजा श्री बलिजी अपने आपको प्रभु के तीसरे श्रीकमलचरणों में अर्पण कर रहे थे तो राजा श्री बलिजी की पत्नी भगवती विद्यावली ने कहा कि ऐसा मत कहिए कि मैं अर्पण कर रहा हूँ, यह कहिए कि मैं प्रभु का ही हूँ, मेरा कुछ भी नहीं है । उन्होंने कहा कि सूत्र यह है कि मेरी वस्तु मानकर अर्पण किया जाता है पर यह सब कुछ श्री ठाकुरजी का ही है इसलिए “तेरा तुझको अर्पण”, ऐसा कहिए ।
249. अपने कर्म के फल की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । सच्चा भक्त ऐसा नहीं करता । वे अर्पण करने की औपचारिकता भी नहीं करते । उनमें भाव यह होता है मैंने कर्म किया ही नहीं इसलिए उसके फल की मुझे कोई आकांक्षा या अपेक्षा नहीं है ।
250. जो कुछ मेरे शरीर और इंद्रियों से हो रहा है यानी शरीर, वाणी और इंद्रियों से सारी क्रियाएं मैं नहीं कर रहा, यह प्रभु शक्ति से हो रहा है इसलिए उस क्रिया के फल पर मेरा कोई अधिकार नहीं है ।
251. करने का भाव चला गया, फल की अपेक्षा खत्म हो गई, तो वह जीव समाधि अवस्था में है, जो श्रेष्ठ अवस्था होती है । यह उस स्थिर-समाधि से भी उच्चतम समाधि है क्योंकि हठयोगी की स्थिर-समाधि इससे बहुत छोटी है । इस बात की पुष्टि प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में की है और ऐसे साधक को स्थितप्रज्ञ नाम दिया है ।
252. मैंने किया ऐसा लगना बंद हो जाए और फल की अपेक्षा खत्म हो जाए तो हम श्रेष्ठतम अवस्था में पहुँच जाते हैं ।
253. प्रभु की अनुभूति होने के कारण संतों का सब कुछ करके भी भाव यह होता है कि मैंने कुछ भी नहीं किया, प्रभु ने करवाया । संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने श्री ज्ञानेश्वरीजी के अंत में कहा कि मैंने कुछ भी व्याख्या नहीं की, सब प्रभु ने करवाई ।
254. जो वस्तु को अपना मानेगा या कर्म को अपना मानेगा वही अर्पण करेगा । जो ऐसा नहीं मानेगा उसे सिर्फ लोकाचार हेतु अर्पण करने का दिखावा करना पड़ता है । उसका भाव यह होता है कि प्रभु ने करवाया, मैंने कुछ नहीं किया तो अपने आप कर्म स्व-अर्पण हो जाता है ।
255. स्व-अर्पण होने पर दो बातें होती हैं । पहला, कर्म उसके ऊपर प्रभाव नहीं करेगा और कोई कर्मबंधन नहीं बनेगा और दूसरा, प्रभु की अनुभूति उसे सदैव बनी रहेगी ।
256. अर्पण करने का भाव यह है कि मैं अर्पण कर रहा हूँ क्योंकि मैंने किया पर स्व-अर्पण का भाव यह है कि प्रभु ने किया, मैंने किया ही नहीं ।
257. शरीर, मन, वाणी से होने वाले हर कर्म मैं कर रहा हूँ यह भावना नहीं होनी चाहिए । कर्तापन गया, कोई फल की अपेक्षा नहीं रही तो जीवन में प्रभु की अनुभूति साकार हो जाती है इतनी दृढ़ता से कि प्रभु के अलावा हमें कुछ दिखता ही नहीं है ।
258. अर्पण करने में “मैं” का भाव होता है पर स्व-अर्पण करने में “मैं” का भाव चला जाता है ।
259. स्व-अर्पण करने से वह जीव प्रभु से एकरूप हो जाता है ।
260. माया भान कराती है कि प्रभु के अलावा भी कुछ है जिससे हम प्रभु से विमुख हो जाते हैं । माया का पर्दा हटा तो हर तरह प्रभु-ही-प्रभु दिखने लगेंगे । संतों ने ऐसा अनुभव किया है कि प्रभु ही उन्हें सर्वत्र दिखे हैं ।
261. प्रभु से विमुख होते ही हम माया के प्रपंच यानी संसार के प्रपंच में फंस जाते हैं ।
262. जैसे जीवन में पत्नी के आते ही हम स्वतंत्र नहीं रहते, अपने समय की, व्यवहार की सीमा आ जाती है । जब अकेले थे तो कोई सीमा नहीं थी । वैसे ही माया में फंसते ही हम सीमा में बंध जाते हैं, स्वतंत्र नहीं रहते । इसलिए माया का पर्दा हटाते ही वह जीव पुनः स्वतंत्र हो जाता है ।
263. जिन प्रभु के वश में माया है उन प्रभु से अपनी पहचान बनानी चाहिए और बढ़ानी चाहिए तो ही माया का पर्दा हटेगा ।
264. सारा संसार का दृश्य प्रभु की माया शक्ति द्वारा रचित मायाजाल ही है ।
265. माया से निवृत्ति का कोई उपाय नहीं है । बस एक ही उपाय है कि मायापति प्रभु कृपा करेंगे तो ही मायाजाल हटेगा ।
266. माया का काम है कि बिना कारण का दृश्य और मायाजाल हमें दिखा देना ।
267. माया में मात्र काल्पनिक दृश्य ही होते हैं ।
268. माया से छूटना है तो प्रभु से एकाकार हो जाना चाहिए क्योंकि जिसने दृश्य खड़ा किया है वे ही दृश्य हमारे लिए बंद करेंगे ।
269. माया के पार जाकर ही हम प्रभु को जान सकते हैं ।
270. माया से पार जाना है तो प्रभु की भक्ति करनी चाहिए और प्रभु को जीवन में अपनाना चाहिए ।
271. जिसने प्रभु के साथ निर्मल संबंध जोड़ दिया, प्रभु से प्रीति सिखाई, प्रभु के लिए प्रेम निर्माण करवाया - वही सच्चा सद्गुरु है ।
272. परमार्थ की बात में अर्थ यानी रुपया का विचार आ जाए तो सब गड़बड़ हो जाती है ।
273. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का एकादश स्कंध को जो सच्चे मन से सुनेगा उसके बाद उसके सुनने लायक कुछ भी अन्य नहीं बचता ।
274. भगवती गंगा माता में जल बुद्धि, प्रभु मूर्ति में पाषाण बुद्धि, भगवती तुलसी माता में वनस्पति बुद्धि कभी नहीं रखनी चाहिए । ऐसा करना बहुत बड़ा पातक है ।
275. प्रभु भक्ति का हमें कितना फल मिलेगा ? जैसी हमारी भावना होगी उतना ही फल हमें मिलेगा - यह सिद्धांत है ।
276. प्रभु की सृष्टि हमें बाधा नहीं पहुँचाती पर माया की सृष्टि हमारा पतन करवा देती है ।
277. जैसे हम सपना देखते हैं तो उसमें रस लेते हैं पर वह यथार्थ सच नहीं होता वैसे ही माया हमें सपना दिखाती है और हम उसमें उत्तम रस लेते हैं, उसमें खो जाते हैं । केवल कल्पना विलास में हम खो जाते हैं, एक वस्तु वहाँ सत्य नहीं है फिर भी हम रम जाते हैं ।
278. हम माया के फल में ऐसे उलझ जाते हैं कि वहाँ से निकल नहीं पाते, सत्य कुछ भी नहीं फिर भी उलझ गए ।
279. गलत चीज में इंटरनेट की दुनिया में उलझना विज्ञान का दोष नहीं है, हमारी वासनाओं का दोष है ।
280. माया के पर्दे पर दिखने वाले दृश्य सत्य नहीं है फिर भी वे हमें लुभाते हैं और हमारे मन पर परिणाम करते हैं ।
281. एक फिल्म के निर्माता की तीन घंटे की फिल्म हमारे ऊपर परिणाम करती है तो प्रभु के द्वारा निर्माण की गई माया की फिल्म हमारे ऊपर कितना बड़ा परिणाम करती है । तीन घंटे वाली फिल्म परिणाम करती है तो माया की साठ-सत्तर वर्ष तक जीवन के अंत तक चलने वाली वह फिल्म परिणाम करती रहती है ।
282. कल्पना, संकल्प, विकल्प कहाँ उठते हैं, मन में । उपाय बचने का कहाँ करना पड़ेगा, मन से बचाव करना पड़ेगा ।
283. उत्तम ज्ञानी को मन के खेल को रोकना चाहिए तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है ।
284. मन के खेल को रोकने का उपाय क्या है ? कुछ देखना, कुछ स्पर्श करना, कुछ सुनने की इच्छा तो होगी उस देखने, स्पर्श करने, सुनने को बंद नहीं करना, यह समाधान नहीं है । बस उनका विषय बदलकर प्रभु को उनका विषय बना देना है ।
285. उत्तम वेदांती कौन है ? संसार के लिए मुँह होने पर गूंगा, आँखें होने पर भी अंधा, कान होने पर बहरा होना और अपनी सभी इंद्रियों का उपभोग केवल प्रभु के लिए करना ।
286. भागवत धर्म का मूल क्या है जो भक्ति योग है उसमें हर इंद्रियों को प्रभु से जोड़ना । कान बंद नहीं करना, अच्छी तरह खुला रखना, खूब सुनना पर प्रभु की कल्याणकारी कथा सुननी, प्रभु की श्रीलीला और उपदेश को सुनना । अभद्र नहीं सुनना, अकल्याणकारी नहीं सुनना, जो भी प्रभु के बारे में उपलब्ध है उसे सुनना ।
287. जीव का अकल्याण उसकी उत्तेजना में है, भोग लिप्तता में है ।
288. हाथ आग में गया तो वह जलना ही है वैसे ही सब इंद्रियों को मैं बुराई दिखाऊंगा, अकल्याणकारी अश्लील दृश्य दिखाऊंगा तो वह बुरे ही कर्म की प्रेरणा हमें देंगे और हमसे करवाएंगे ।
289. प्रभु के हर दृश्य परम कल्याणकारी होते हैं ।
290. प्रभु के कर्म, प्रभु के अवतार दिव्य होते हैं ।
291. प्रभु के नाम, रूप, धाम, लीला - यह भक्ति के अवलंबन हैं और मूल आधार हैं ।
292. गोपियों को लगता था कि हमारी पलकें विधाता ने क्यों बनाई जिससे एक क्षण के लिए भी प्रभु का अदर्शन क्यों होना चाहिए ।
293. खूब देखो, प्रभु के रूप को खूब देखो । खूब सुनो, प्रभु की मंगलकारी कथा को खूब सुनो ।
294. कथा सुनने का लाभ अलौकिक होता है और हम तीन घंटे के कुसंग से बच गए, यह क्या कम लाभ है ।
295. कथा का श्रवण कैसे करना - संत श्री एकनाथजी की व्याख्या है कि कथा में बैठने पर हमारा चित्त की आतुरता कैसी होनी चाहिए जैसे एक बच्चा का माँ से बिछड़ने पर उसकी अवस्था होती है । जैसे माँ हर आने वाले में वह अपना बच्चा तलाशती है कितनी उत्सुकता, कितनी आशा से वैसे ही उत्सुकता हमारे मन में प्रभु कथा सुनते वक्त होनी चाहिए ।
296. क्षण-क्षण भाव निर्माण होना चाहिए कि मेरे प्यारे प्रभु के बारे में मुझे और सुनने को मिले, खूब सुनने को मिले ।
297. संतों ने कहा है कि और कुछ करने की आवश्यकता नहीं, प्रभु की तीव्र भाव से कथा सुनना और श्रद्धा रखनी और मनन करना चाहिए । कथा में श्रद्धा होनी चाहिए और कथा का मनन हमारे मस्तिष्क में चलना चाहिए तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं करना न योग, न तीर्थ, न कर्मकांड कुछ नहीं । प्रभु उसे बुलाएंगे नहीं बल्कि स्वयं उसके पास आ जाएंगे ।
298. जो प्रभु की रोज कथा सुनते हैं वे प्रभु को जीतकर ही थमते हैं ।
299. कहीं जाना नहीं, कोई कर्मकांड नहीं, कोई तीर्थ नहीं, सिर्फ कथा से सहज और स्वाभाविक समाधि की स्थिति बन जाती है ।
300. इतने साधन करने वाले इतने श्रेष्ठ ऋषि भी आकर कथा सुनने बैठते हैं । प्रभु श्री शुकदेवजी ने कहा कि परीक्षित कोई साधन मत करो, सिर्फ प्रभु की कथा सुनो ।
301. प्रभु कथा का श्रवण इस तरह से करना चाहिए कि बीच में प्रभु के मंगलमय नाम का अपार श्रद्धा से गान करना चाहिए ।
302. प्रभु के नाम गाने के समय किसी संकोच की जरूरत नहीं । अगर ताली नहीं बजे तो मानना पापों ने हाथ को बांध रखा है । मुँह से गान नहीं हो तो पापों ने मुँह को बंद कर रखा है । निर्लज्ज होकर प्रभु के नाम गान करना चाहिए प्रभु को रिझाने के लिए । दुनिया की चिंता हमें नहीं करनी चाहिए नहीं तो हमारे साधन में कमी होती है ।
303. जिन प्रभु का कोई जन्म नहीं उनके जन्म का उत्सव हम मनाते हैं । जिन प्रभु का कोई नाम नहीं उनके नाम का गान हम करते हैं । जिन प्रभु के कोई कर्म नहीं उनके कर्म-गुणों की चर्चा हम करते हैं । यही भक्ति है ।
304. प्रभु नाम लेने में लज्जा आए तो यह पातक माना गया है ।
305. भक्तों का दिव्य नृत्य देखकर प्रभु श्री शिवजी भी नृत्य करने लगते हैं । प्रभु भी नाचने लग जाते हैं । संत श्री तुकारामजी नाचते थे तो प्रभु श्री पांडुरंगजी भी नाचते थे, एक बार तो नृत्य करते वक्त प्रभु का पीतांबर भी गिर गया था ।
306. संकीर्तन बिना लोक लज्जा के हो गई तो हमें मानना चाहिए कि पक्की समाधि में हम पहुँच जाएंगे ।
307. संकीर्तन नहीं कर सकते हैं तो नाम जप तो जरूर करना चाहिए ।
308. प्रभु के मंगलमय नाम में जितना पाप जलाने की शक्ति है उतनी जीव में पाप करने की शक्ति ही नहीं है ।
309. सब नियम छोड़ना पड़े तो छोड़ देना पर प्रभु के नाम जप को जीवन में पकड़ कर रखना चाहिए ।
310. जितनी शक्ति प्रभु की उतनी ही शक्ति प्रभु के नाम की भी है ।
311. प्रभु जब भक्त से प्रेम करने लगते हैं तो फिर भक्त से प्रेम में छेड़छाड़ करना शुरू कर देते हैं । भक्त को परीक्षा हेतु थोड़े-थोड़े दुःख भेजने लगते हैं ।
312. भक्ति का आरंभ प्रभु के लिए चित्त पिघलने के साथ ही होता है ।
313. श्रवण तब पूर्ण है जब दो बातें उस श्रवण से जुड़ती हैं । पहला, उद्धार करने वाला श्रवण हो और दूसरा, श्रद्धा का भाव और मनन जुड़ा हुआ हो श्रवण के साथ । श्रवण की पूर्णता इन दोनों बातों में ही है ।
314. जैसे अन्न को पाचन की आवश्यकता है वैसे ही श्रवण को मनन की आवश्यकता होती है ।
315. धुंधुकारी ने स्थिर चित्त से श्रवण किया फिर मनन भी किया इसलिए तर गया ।
316. ज्ञान वही तारक है जो सुदृढ़ हो जाता है, पक्का हो जाता है । इसलिए अध्यात्म ज्ञान में कभी संदेह नहीं रखना चाहिए ।
317. सारा श्रवण बेकार हो जाता है जब हम श्रवण के समय प्रमाद करते हैं, मन एकाग्र नहीं रखते । श्रवण के समय मन एकाग्र नहीं तो श्रवण बेकार हो जाता है ।
318. जप सबसे सरल साधन है तब जब हम माला फेरते समय मन को एकाग्र रख पाएं ।
319. जप थोड़ा करें पर जब करें तो एकाग्र होकर करें, किसी भी तरह का व्यवधान न हो, दृष्टि जाए तो प्रभु मूरत पर ही जाए ।
320. प्रभु के भक्त और वैष्णव से संपर्क रखने पर हमारे भीतर सद्गुणों के जगने की संभावना होती है । इसलिए हमारे पूर्वज मकान बनाते थे तो गली-मोहल्ले के वैष्णव के घर के पास बनाने का प्रयास करते थे ।
321. उत्तम ब्राह्मण जब भी मिले तभी पितर श्राद्ध कर लेना चाहिए । उत्तम ब्राह्मण होने का सबसे बड़ा लाभ श्राद्ध में मिलता है ।
322. दान किसको देना ? जन्म से ब्राह्मण होना चाहिए, सब ब्राह्मण संस्कारों से युक्त होना चाहिए और शास्त्रों का पठन करने वाला होना चाहिए, वही दान का सच्चा पात्र है ।
323. ब्राह्मण को घर पर बुलाकर दान दिया उससे ज्यादा फल उस ब्राह्मण के घर में जाकर दान देने पर होता है ।
324. जिस कुल का आचार बिगड़ गया उस कुल का मानो नाश ही हो गया ।
325. सब चीज से समझौता करें पर आचार से समझौता कभी नहीं करना चाहिए । आचार के लिए आग्रही बनना चाहिए । आचार से कभी समझौता नहीं करें । चोटी, यज्ञोपवीत रखनी चाहिए और स्त्रियों को सिर ढकना चाहिए । जिसके जीवन में परंपरा का आग्रह नहीं उसके जीवन में तेज कभी नहीं आ सकता ।
326. आचार, आचार रहे तब तक ठीक है अति होते ही वह हमारे लिए अत्याचार भी बन सकता है ।
327. धुंधकारी ने एकाग्रता से श्रवण किया - क्यों किया ? क्योंकि वह प्रेत योनि में बहुत कष्ट भोग रहा था । इसलिए तीव्रता थी कि जो लाभ कथा से उठाना है वह अभी उठाना है । प्रगाढ़ गहराई से श्रवण किया और वह एक बार में ही तर गया ।
328. हर कथा ऐसे सुननी चाहिए कि यह मेरे जीवन की अंतिम कथा है । और सुनने की आशा होने पर श्रवण में गहराई नहीं आती । जैसे पर्यटक दो दिन में सब कुछ देख लेता है जो देखने लायक होता है और उस शहर में रहने वाला भी नहीं देख पाता क्योंकि वह सोचता है कि बाद में देख लेंगे । दूसरा उदाहरण है कि छात्र वह पढ़ाई पूरे साल नहीं करता है जो परीक्षा से आने के पहले गहराई से करता है क्योंकि उसे पता होता है ऐसा नहीं किया तो वह उत्तीर्ण नहीं होगा ।
329. एक बार ही कथा सुनकर श्रोता का उद्धार होना चाहिए जैसे धुंधकारी का हो गया ।
330. ऋषियों द्वारा प्रदान ज्ञान के प्रकाश में हमें अपने जीवन का पुनः अवलोकन करना चाहिए कि हमारी गाड़ी दौड़ तो रही है पर सही मार्ग पर दौड़ रही है क्या ? उदाहरण स्वरूप गाड़ी चालक रात्रि में मील का पत्थर देखकर तय करता है कि उसकी गाड़ी की दिशा सही है या नहीं ।
331. ऋषियों के ज्ञान के प्रकाश में अगर हमारे ध्यान में आता है कि यह बात जीवन में गलत हो रही थी तो उसे तुरंत त्याग देना चाहिए ।
332. जानी हुई भूल का त्याग अगर जीव तत्काल करता है तो उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है । किसी दोष का नाला हमारे भीतर आ रहा है तो उसे बंद कर देना चाहिए तो हमारी पवित्रता बनी रहती है वैसे ही जैसे भगवती गंगा माता में अपवित्र नाले को बंद कर दिया तो माता तो पवित्र ही थी और पवित्र ही रहेगी ।
333. भूल का तुरंत त्याग और पहले हुई भूल हेतु प्रभु से दीन बनकर क्षमा मांगनी चाहिए । नई भूल नहीं होगी तो पुरानी भूल प्रभु क्षमा कर देंगे ।
334. प्रभु का आश्वासन कि जो पाप त्याग कर अनन्य होकर प्रभु की भक्ति करता है प्रभु उसे पाप मुक्त कर देते हैं और पूर्व जन्मों के पापों से भी मुक्त कर देते हैं - यह प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में दो जगह अपने श्रीवचन में कहा हुआ है ।
335. प्रभु न्यायाधीश ही नहीं है अपितु हमारे माता-पिता भी हैं । हर बात की सजा के लिए न्यायाधीश बाध्य होता है पर माता-पिता कभी सजा करने हेतु बाध्य नहीं होते । प्रभु माता-पिता के रूप में हैं इसलिए सजा हेतु बाध्य नहीं ।
336. पापक्षय हेतु एक बार कथा श्रवण करना पर्याप्त होना चाहिए । रसास्वादन हेतु फिर अगली-अगली कथा श्रवण करनी चाहिए जैसा ऋषि और संत करते हैं ।
337. श्री गोकर्णजी के लिए श्री बैकुंठजी ले जाने हेतु श्री विष्णुदूत विमान लेकर नहीं आए । ऐसा इसलिए कि उन्हें लेने स्वयं प्रभु आने वाले थे क्योंकि श्री गोकर्णजी का जीवन दूसरों का उद्धार का हेतु बन गया था ।
338. प्रभु कुछ लोगों को सबके उद्धार हेतु भेजते हैं, भक्ति की स्थापना करने हेतु भेजते हैं । प्रभु के कहने पर देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के आग्रह पर एक गोपी रास के बीच (रास नित्य चल रहा है) से संत श्री गुलाबराव महाराज बनकर आए ।
339. प्रभु ध्यान करते हैं लोक शिक्षा हेतु नहीं तो प्रभु को ध्यान की क्या जरूरत है । संसार जिनका ध्यान करता है उन्हें ध्यान करने की क्या जरूरत है ।
340. धुंधकारी का पापाचरणं गांव वालों ने देखा और उन्होंने कथा श्रवण से उसकी सद्गति भी अपनी आँखों से देखी ।
341. कभी-कभी बड़े लोग अहंकार के वश वह लाभ नहीं उठा पाते जो एक पापी दीन बनकर उठा लेता है ।
342. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के वक्ता के तो लाभ-ही-लाभ है क्योंकि उसके दोनों हाथों में लड्डू-ही-लड्डू है कथन और श्रवण के फलस्वरूप ।
343. श्री गोकर्णजी ने प्रभु को प्रणाम करने हेतु दंडवत करना चाहा पर प्रभु ने उन्हें बाहों में भर लिया और आलिंगन में ले लिया । प्रभु कथा के वक्ता से इतना प्रेम करते हैं ।
344. अत्यंत कठोर तपस्या और भूखे रहकर हिमालय में रहकर भी जो फल प्राप्त नहीं होता वह श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से मिल जाता है ।
345. जीव का सबसे बड़ा और परम सौभाग्य श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण ही है ।
346. अज्ञानी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण का वक्ता बनाया तो वह भ्रमित करता है । ज्ञानी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण का वक्ता बनाया तो वह चकित करता है । संत को श्रीमद् भागवतजी महापुराण का वक्ता बनाते हैं तो वे हमें भाव और कथा के प्रसंग की अनुभूति देते हैं ।
347. वैष्णव का अर्थ वैष्णव संप्रदाय से नहीं अपितु प्रभु की भक्ति करने वाला ही सच्चा वैष्णव है ।
348. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सही-सही निरूपण भक्ति बिना कतई संभव ही नहीं है ।
349. श्रीमद् भागवतजी महापुराण अपनी ग्रंथियाँ सिर्फ उनके लिए खोलती हैं जिनके अंतःकरण में प्रभु के लिए अटूट भक्ति होती है ।
350. संत और भक्त हृदय से ही श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा करवानी चाहिए ।
351. श्रीमद् भागवतजी महापुराण की पूजा करते वक्त हमारी भावना यह होनी चाहिए कि हम साक्षात प्रभु श्री कृष्णजी की ही पूजा कर रहे हैं ।
352. काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या और परनिंदा का कथा श्रवण के वक्त निश्चित त्याग करना चाहिए ।
353. सभी चिंताओं को त्याग कर प्रभु के श्रीकमलचरणों में बैठना चाहिए फिर कथा श्रवण करनी चाहिए ।
354. कथा किसी को दिखाने हेतु नहीं बल्कि आत्म-कल्याण हेतु सुननी चाहिए ।
355. कथा श्रवण के दौरान अपने जीवन को नियमित रखना चाहिए ।
356. कथा श्रवण के दौरान बार-बार प्रभु को याद करके प्रणाम करना चाहिए, पूर्ण भाव से प्रणाम करना चाहिए ।
357. किसी को प्रणाम करना हो तो उस व्यक्ति को प्रणाम नहीं बल्कि उस व्यक्ति के भीतर बसने वाले प्रभु को प्रणाम करना चाहिए । इसे नमस्कार यज्ञ कहते हैं । प्रणाम से हमारे अहंकार की आहुति चली जाती है जैसे यज्ञ में आहुति चली जाती है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अहंकार गले बिना हाथ जुड़ते ही नहीं ।
358. जिसको विश्वास है कि उसकी सेवा के बल पर उसके घर के श्रीठाकुरबाड़ी में साक्षात श्री बैकुंठजी से आकर प्रभु बसे हैं उन्हें श्री बैकुंठजी जाने की जरूरत नहीं पड़ती, श्री बैकुंठजी साक्षात उनके पास आ जाते हैं ।
359. मनुष्य जीवन में सर्वोत्तम बात श्री बैकुंठजी की प्राप्ति करने वाले श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करना है ।
360. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रामाणिक वक्ता यानी मुख्य वक्ता हमेशा प्रभु श्री शुकदेवजी ही होते हैं । जो व्यासपीठ पर वक्ता होते हैं उन्हें श्रीशुक रूप ही माना जाता है ।
361. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्लोकों को गुनगुनाते रहना प्रभु श्री शुकदेवजी का स्वभाव था क्योंकि वे एकरूप हो गए थे श्रीमद् भागवतजी महापुराण से ।
362. कल्पवृक्ष पर लगा और पका हुआ फल श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । श्री वेदजी कल्पवृक्ष हैं । श्री वेद मंत्र कल्पवृक्ष की इच्छा पूरी करवाने वाले वेद मंत्र होते हैं और उनका पका हुआ फल श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
363. पके हुए फल को तोते की चोंच लगने से वह और अधिक मीठा हो जाता है । संत कहते हैं कि प्रभु श्री शुकदेवजी के मुँह से निकलने के कारण यह महापुराण अत्यंत मीठा हो गया ।
364. श्रीमद् भागवतजी महापुराण रस रूप है जिसमें कुछ भी त्याज्य नहीं है इसलिए जीवन भर इसका पान करते रहना चाहिए । यह भक्तों को प्रभु श्री शुकदेवजी का आह्वान है ।
365. ज्ञान श्री वेदजी में भी है, श्रीउपनिषद में भी है पर वह ज्ञान श्रीमद् भागवतजी महापुराण में इतना मीठा हो गया कि इसे भक्त छोड़ना ही नहीं चाहते ।
366. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करने वाले के हृदय में प्रभु आते ही नहीं बल्कि आकर फंस जाते हैं और निकलते नहीं क्योंकि वापस निकालने का मार्ग ही प्रभु स्वयं बंद कर देते हैं ।
367. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण करने से सद्गति, पाठ करने से सद्गति तो चिंतन करने से तो सद्गति-ही-सद्गति है क्योंकि भक्ति जागृत हो जाती है । जीव के मन में प्रभु भक्ति जागृत होते ही वह सब बंधन से स्वतः ही मुक्त हो जाता है ।
368. स्वर्ग में वह रस नहीं, श्री बैकुंठजी में वह रस नहीं जो रस श्रीमद् भागवतजी महापुराण में है ।
369. प्रभु श्री नारायणजी भी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के रसपान हेतु श्री बैकुंठजी से पृथ्वीलोक पर आते हैं ।
370. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रेष्ठ रस की वार्ता श्री बैकुंठजी, श्री कैलाशजी और सत्यलोक पहुँच गई तो भगवती माता लक्ष्मीजी, भगवती माता पार्वतीजी, भगवती माता ब्राह्मणीजी भी प्रभु नारायणजी, प्रभु श्री शिवजी और प्रभु श्री ब्रह्माजी के साथ क्रमशः कथा श्रवण हेतु पहुँचे । सभी ऋषि, मुनि और संत पहुँचे । प्रभु की सभी भक्त देवर्षि प्रभु श्री नारदजी, श्री सनतकुमारजी, श्री प्रह्लादजी, श्री उद्धवजी, श्री अर्जुनजी संकीर्तन करते हुए पहुँचे ।
371. प्रभु को संकीर्तन बहुत प्रिय है । हवन, मंत्र-उच्चारण जब हो तो हो पर संकीर्तन रोज बीस मिनट घर के सदस्यों को मिलकर करना चाहिए । प्रभु इतने में ही एकदम प्रसन्न होकर झूमने लगते हैं ।
372. प्रभु ने वरदान दिया जहाँ श्रीराम कथा होती है वहाँ प्रभु श्री हनुमानजी बिना बुलाए ही पहुँच जाते हैं और जहाँ श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा होती है वहाँ प्रभु श्री लक्ष्मीनारायणजी का पहुँचना एक सुनिश्चित तथ्य है ।
373. हमारी भक्ति तभी पूर्ण और पुष्ट होती है जब माता भक्ति के दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य भी जीवन में आते हैं । जिन प्रभु को मैं मानता हूँ, उनका भजन करता हूँ, उन्हें जानने का प्रयास ज्ञान है और वैराग्य का अर्थ है कि माया के सांसारिक प्रपंच से विरक्त हो जाना ।
374. जैसे एक प्रभु का चित्र स्वर्ण से बना हुआ है इसको जानने पर उस चित्र को हम संभाल कर रखते हैं क्योंकि वह कीमती हो गया है इसी तरह प्रभु तत्व को जान लेने से हमारा दृष्टिकोण भी प्रभु के प्रति बहुत आत्मीय हो जाता है ।
375. भक्ति का आधार ज्ञान और वैराग्य है । भक्ति की कसौटी क्या है ? प्रभु का ज्ञान होना और संसार से वैराग्य हो जाना । वैराग्य से जीवन में क्या-क्या छूट गया यह हमें देखना चाहिए । काम, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या और संसार में रस लेना छूट गया, इसके छूटने का नाम ही वैराग्य है । सच्चा वैराग्य होने पर संसार हमें व्यर्थ लगने लग जाता है ।
376. जहाँ भक्ति ज्ञानयुक्त और वैराग्ययुक्त होती है वहाँ प्रभु दौड़कर चले आते हैं ।
377. हमारा हृदय दोष, दारिद्र, पाप के कारण जलता है क्योंकि माया ने उसे फंसा रखा है । माया को संतों ने पिशाचिनी कहा है । माया में फंसे उन लोगों के परम कल्याण का एक ही हेतु, एक ही उपाय है - श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण किया जाए ।
378. संसार में अनेकों कथाएं हैं पर श्रीमद् भागवतजी महापुराण सबसे अनुपम क्योंकि इसका प्रभाव प्रभु को सबसे प्रिय है और प्रभु स्वयं इसका श्रवण करने वाले के हृदय में चलकर आते हैं ।
379. प्रभु श्री वेदव्यासजी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण के मंगलाचरण में किसी का नाम नहीं लिया और कहा कि मैं उस परम सत्य का ध्यान करता हूँ । हम उस परम सत्य को श्री कृष्णजी, श्री रामजी, श्री महादेवजी, भगवती देवी माता आदि किसी भी रूप में देखने हेतु स्वतंत्र हैं । ऐसा रहस्यमय प्रतिपादन मंगलाचरण में प्रभु श्री वेदव्यासजी ने सबके हित के लिए किया है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण के अंतिम श्लोक में भी यही कहा गया है ।
380. सत्य कौन है ? जिसमें कोई विकृति कभी भी नहीं हो, जो अपरिवर्तनशील हो, जिसकी शक्ति पूरी-पूरी सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने का कारण हो, जिनके कारण सृष्टि हो पर सृष्टि के न होने पर भी जो शाश्वत हो, वही परम सत्य है और वे प्रभु ही हैं ।
381. माया प्रभु की दासी रूप में काम करती है । प्रभु की माया का प्रभु पर कोई प्रभाव कभी नहीं होता ।
382. अज्ञान ने, माया ने कभी भी प्रभु का स्पर्श तक नहीं किया है । जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को अंधकार का पता ही नहीं कि अंधकार क्या चीज है वैसे ही प्रभु को अज्ञान और माया का पता भी नहीं । जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के उदय से दुनिया देखती है कि अंधकार गया वैसे ही प्रभु के सानिध्य में आते ही दुनिया देखती है कि अज्ञान और माया चली गई ।
383. सारे संसार में मेरे एक प्रभु का ही विस्तार और विलास है ।
384. श्रीमद् भागवतजी महापुराण की शुरुआत प्रश्नों से और जिज्ञासाओं से ही हुई है ।
385. मानव जीवन का परम कल्याण किस चीज में निहित है और वह क्या है ? यह पहला प्रश्न श्रीमद् भागवतजी महापुराण का है ।
386. जो इंद्रियों को प्रिय लगता है उसे प्रेयस कहते हैं और जो हमारा कल्याण करती है उसे श्रेयस कहा जाता है । शास्त्रों में श्रेयस के लिए सबसे ज्यादा बल दिया गया है ।
387. प्रेयस की जिज्ञासा कहीं जाकर नहीं करनी पड़ती क्योंकि हमें स्वतः पता चल जाता है कि हमें क्या अच्छा लगता है ।
388. श्रेयस की जिज्ञासा करनी पड़ती है । संपूर्ण जीवन के कल्याण के लिए जिज्ञासा करनी पड़ती है । श्री अर्जुनजी ने यही जिज्ञासा प्रभु से श्रीमद् भगवद् गीताजी में करी थी ।
389. इतने सारे शास्त्र हमारे देश में हैं जिनकी गिनती भी संभव नहीं क्योंकि भारत देश सदैव ज्ञान का पुजारी था ।
390. हमारे बहुत से श्रीग्रंथरूपी संपदा को जलाकर नष्ट कर दी गई फिर भी इतने श्रीग्रंथ बचे हैं जिन्हें पूरे मानव जीवन में पढ़ना हो तो वह असंभव है, उनकी सूची तक हम नहीं पढ़ सकते ।
391. प्रभु अवतार लेकर क्या करते हैं ? पापी को मारने के लिए प्रभु नहीं आते क्योंकि पापियों में इतना सामर्थ कहाँ कि प्रभु को उनके नाश करने हेतु आना पड़े, प्रभु किसी को भी भेजकर उन्हें मरवा सकते हैं । प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के कारण अवतार लेते हैं ।
392. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का चौथा प्रश्न है कि प्रभु क्या करते हैं ? यह प्रश्न प्रभु के बारे में जानकारी देने वाला प्रश्न है ।
393. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का पांचवा प्रश्न है कि प्रभु के कितने अवतार हुए ? फिर श्रीमद् भागवतजी महापुराण में उन सभी अवतारों की संक्षिप्त में और विस्तृत चर्चा है ।
394. प्रभु श्री कृष्णजी के अवतार से अंतर्ध्‍यान होने पर धर्म के लिए अब क्या आधार या सहारा रहेगा, यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण का छठा प्रश्न है ।
395. पूरी श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा छह प्रश्नों के उत्तर के रूप में ही मानी गई है ।
396. हर वृत्ति, हर कर्म उसी समय प्रभु को समर्पित हो जाए तो उस कर्म से हमारा कोई संबंध नहीं रहता, यह भक्ति का मर्म है ।
397. भक्ति का मर्म समझ में आते ही आनंद, आनंद और परमानंद ही सब तरफ हमें मिलेगा ।
398. मन को संतुष्ट रखना हो तो उसे एक सुंदर विकल्प देने की आवश्यकता है । प्रभु का नाम, रूप, लीला, धाम - यह सब विकल्प है प्रभु को अपना बनाने के लिए ।
399. लोग भगवती मीराबाई को कुलनाशिनी कहते थे पर उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा और अपना भक्ति भाव लोकाचार हेतु दबाया नहीं । संत कहते हैं कि हमें अपने भक्ति भाव को दबाना नहीं चाहिए नहीं तो हमारे भाव का नाश कई जन्मों के लिए हो जाता है । इसलिए भक्ति भाव को कभी दबाया नहीं जाता, प्रभु के लिए नाचने का मन हो तो नाचें, लोग क्या कहेंगे या सोचेंगे इसका चिंतन नहीं करें ।
400. प्रभु ही हमारे जीवन के व्रत बन जाने चाहिए तब बाकी के सभी लौकिक व्रत स्वतः ही छूट जाते हैं ।
401. प्रभु का नाम लेने से ऐसा लगना चाहिए कि हम प्रभु को पुकार रहे हैं, प्रभु को बुला रहे हैं, यह भाव आ गया तो फिर जीवन में किसी मंत्र की आवश्यकता नहीं होगी । प्रभु का नाम लेने पर हमारे भीतर का तंत्र हिलना चाहिए यानी आवाज भीतर अंतःकरण से आनी चाहिए ।
402. एक माला केवल व्याकुल होकर फेरना फिर देखें कि अंतःकरण में वह क्या प्रभाव करती है ।
403. जिससे प्रेम होगा, जिसके बिना रहा नहीं जाएगा उन्हें ही पुकारा जाता है । हमारी प्रभु के लिए पुकार ऐसी बन जाए तो जीवन में चमत्कार हो जाएगा ।
404. अत्यंत व्याकुल होकर जब प्रभु को प्रेम से पुकारा जाता है तो हमारा अंतरंग प्रभु प्रेम से लबालब भर जाता है, नेत्रों से प्रेम जल बहने लगते हैं ।
405. जैसे एक आठ वर्ष का बच्चा अपनी माँ से बिछुड़ जाता है और फिर आशा छोड़ने के बाद दोनों का मिलन होता है तो दोनों अपने आपको रोक नहीं सकते । ठीक वैसे ही भक्त और भगवान का मिलन भी ऐसा ही होता है और प्रभु और भक्त दोनों अपने आपको रोक नहीं पाते इस दिव्य मिलन में ।
406. श्री गौरांग महाप्रभु को उनके जीवन के अंतिम अठारह वर्ष में किसी ने भी उनके नेत्र सूखे नहीं देखे, हमेशा नेत्र सजल हुए पाए । संयोग-वियोग प्रभु से उनका चलता रहा और उनके आंसू संयोग और वियोग के आंसू थे । संयोग यानी प्रभु मिलन में भी आंसू आते हैं और वियोग यानी प्रभु से वियोग में भी आंसू आते हैं ।
407. प्राण व्याकुल हो जाते हैं मिलन हेतु फिर प्राणनाथ प्रभु का दर्शन होता है । ऐसे संयोग से नेत्र प्रेम जल से भर जाता है ।
408. प्रभु के लिए अनुराग यानी प्रगाढ़ प्रेम निर्माण होना चाहिए । चित्त प्रभु प्रेम से पिघल जाए - यही भक्ति की व्याख्या है ।
409. प्रभु के लिए कभी रोमांचित नहीं हुए, कभी नेत्र से प्रेम जल नहीं बहा, कभी गला अवरुद्ध नहीं हुआ तो हमने क्या खाक प्रभु से प्रेम किया ।
410. श्री रामायणजी की चौपाई है कि भक्ति में प्रभु प्रेम में शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नयन से नीर गिरने लगे । प्रभु प्रेम की इस अवस्था का नाम ही भक्ति है ।
411. अत्यंत व्याकुल होकर वियोग में रुदन, संयोग में भी आनंद में भरने के कारण रुदन, यह भक्त का हाल होता है ।
412. प्रभु कभी बाहर प्रकट नहीं होंगे, जब भी प्रकट होंगे हमारे भीतर से ही होंगे ।
413. भक्ति को जीवन में दिनों-दिन बढ़ने दें जैसे संतों ने अपने जीवन में करके दिखाया है ।
414. भक्त लोक-दृष्टि से बाहर हो जाता है उसका तालमेल लोगों से मिलता नहीं क्योंकि संसार को देखने की लोगों और भक्तों की दृष्टि अलग-अलग होती है । एक भक्त के दृष्टिकोण और एक भोग-विलासी के दृष्टिकोण में कभी तालमेल नहीं बैठ सकता ।
415. जो प्रभु मार्ग में ले जाकर पति को प्रभु भक्ति में लगाकर तार देती है वह धर्मपत्नी । जो संसार में उलझा कर फंसाती है उन्हें भारत में पत्नी का दर्जा दिया गया है । भारत में धर्मपत्नी की ही परंपरा रही है ।
416. खाओ, पियो और मौज मनाओ तब तक ठीक है जब तक भक्ति की मस्ती नहीं चढ़ जाती । पर जब भक्ति सिर पर चढ़कर बोलती है तो दुनिया के खाने-पीने, मौज-मस्ती में कोई रुचि नहीं रहती क्योंकि भक्ति की मौज, भक्ति की मस्ती सदैव अद्वितीय होती है ।
417. उन्मुक्त भक्त हुए हैं भगवती मीराबाई, श्री चैतन्य महाप्रभु जिनके बारे में संसार का दृष्टिकोण होता था कि वे बावले और पागल हो गए हैं भक्ति में ।
418. भक्तों को पहले लोगों ने पागल कहा, बदनाम किया फिर उन्हीं के पग पूजने संसार के लोग गए ।
419. भक्त के प्रभु किसी मंदिर में नहीं रहते हुए, सर्वत्र रहते हैं इसलिए भक्त कहीं भी चिपक कर नहीं रहता ।
420. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के भक्ति के श्लोकों का संतों के जीवन में आविष्कार और प्रभाव एक-एक संत की जीवनी में देखने को मिलेगा ।
421. दक्षिणेश्वर की भगवती काली माता की ख्याति जो विश्व में फैली उसका कारण वहाँ के एक भक्त और पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंसजी की उत्कृष्‍ट और भावपूर्ण सेवा थी । भावपूर्ण और निस्वार्थ सेवा से ही देव तत्व की विग्रह में जागृति हो जाती है ।
422. भगवती काली माता सब कुछ थी श्री रामकृष्ण परमहंसजी के लिए ।
423. भक्त जहाँ जाता है प्रभु वहीं आकर खड़े हो जाते हैं । भक्त को किसी मंदिर की जरूरत नहीं होती । भक्त के प्रभु सिर्फ एक मूर्ति में नहीं रहते, उसे आकाश में प्रभु दिखते हैं, अग्नि-वायु के झोंके में प्रभु की अनुभूति होती है यानी सर्वत्र प्रभु-ही-प्रभु दिखते हैं । नदी देखते हैं तो लगता है कि प्रभु कृपा बह रही है । पदार्थ दिखते नहीं बल्कि उनमें प्रभु ही दिखते हैं । उदाहरण के तौर पर श्री महाप्रभुजी को नील सागर में प्रभु श्री कृष्णजी का नीलवर्ण दिखा और वे सागर में श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण कहते-कहते कूद पड़े । सर्वत्र श्रीनारायण दर्शन होना, प्रभु के भिन्न-भिन्न रूप पर प्रभु एक ही हैं । हर देश में, हर वेष में, हर काल में, तेरे नाम अनेक तू एक ही है । तेरे रूप अनेक, तू एक ही है । भक्त के प्रभु को देखने का चश्मा ऐसा बदल जाता है जब नेत्रों में प्रभु बस गए तो सर्वत्र प्रभु ही दिखते हैं जैसे हरा चश्मा लगाने पर हर तरफ हरा-ही-हरा दिखेगा ।
424. भक्ति भाव की जागृति पर पूरा संसार ही श्रीहरिमय दिखता है । फिर भक्त एक मुद्रा को पकड़ लेता है और वह है प्रणाम की मुद्रा । सच्चे संतों की कोई भी फोटो हाथ जुड़े बिना और सिर झुकाए बिना आपको नहीं दिखेगी क्योंकि उन्होंने सर्वत्र सबको प्रणाम किया है ।
425. प्रणाम करते समय सज्जन-दुर्जन की भावना नहीं रखें, प्रभु उसमें हैं और हम प्रभु को प्रणाम कर रहे हैं । इसलिए सच्चे संत योग्य-अयोग्य नहीं देखते, यहाँ तक कि चांडाल, कुत्ते, गधे को भी प्रणाम करते हैं ।
426. शास्त्रों का सही तात्पर्य ऋषियों और संतों ने ही जगत को बताया है ।
427. अहंकारी नहीं तरते, साधारण आदमी तर जाता है क्योंकि अहंकारी का अहंकार उसे झुकने नहीं देता ।
428. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में स्पष्ट लिखा है कि जीवन को साधना है तो सबको प्रणाम करने की आदत डालें । प्रभु कहते हैं कि मुझे सबमें देखकर सबको प्रणाम करो, सबको दंडवत करो । संत श्री नामदेवजी कहते हैं कि अपने गांव के गधे को प्रणाम करने में शर्म आती है तो दूसरे गांव जाकर वहाँ के गधे को प्रणाम करो ।
429. भक्ति का एक अर्थ है कि प्रभु से उत्कृष्ट प्रेम यानी बहुत ज्यादा प्रेम करना और सर्वत्र प्रभु को देखकर सबको प्रणाम करने की आदत डालनी ।
430. जितनी भक्ति बढ़ेगी उतना विषयों से वैराग्य स्वतः होगा । विषय छोड़ने के प्रयास से विषय नहीं छूटेंगे पर अगर आपको श्रेष्ठ विषय मिल जाए तो सांसारिक विषय स्वतः ही छूट जाते हैं । जब अंतरंग प्रभु प्रेम से भर जाता है तो संसार में रस आना बंद हो जाता है ठीक उसी तरह जैसे खाने में दाल के साथ अमरस मिल जाए तो दाल छूट जाती है ।
431. छोड़ो-छोड़ो - ऐसा कहने से संसार नहीं छूटेगा पर एक बहुत बढ़िया और श्रेष्ठ आधार यानी प्रभुरूपी आधार मन को दे देंगे तो संसार स्वतः ही छूट जाएगा ।
432. व्यर्थ के सांसारिक कार्यों में रुचि शून्य हो जाए तो उसे विरक्ति कहते हैं ।
433. भक्ति माता को जीवन में लाने पर उनके दोनों बेटे ज्ञान और वैराग्य साथ में जरूर और स्वतः आएंगे । जैसे एक स्त्री को शादी में बुलाते हैं तो उसके छोटे बच्चों को अलग से निमंत्रण की जरूरत नहीं होती है वे स्वतः ही साथ जाते हैं, ऐसी मान्यता है ।
434. जितना-जितना भक्ति के मार्ग पर बढ़ेंगे उतना-उतना ज्ञान और वैराग्य की जागृति हमारे भीतर से स्वतः ही होती चली जाएगी ।
435. जैसे अमरस की दो कटोरी पीने पर ही स्वाद आता है ऐसा नहीं है क्योंकि स्वाद एक-एक ग्रास में आता है वैसे ही भक्ति के मार्ग पर एक-एक कदम में उतना-उतना ज्ञान और वैराग्य जीवन में आता है ।
436. भक्ति में सुख, पोषण और पुष्टि सब कुछ है ।
437. हमारे भीतर में अशांति क्यों ? जो हम चाहते हैं वह नहीं मिलने पर अशांति होती है । भक्ति मार्ग पर चलने से हमारी चाहत ही खत्म हो जाती है । हम कुछ चाहते ही नहीं तो भक्त कभी अशांत नहीं होता । भक्त के चित्त के अशांत होने का कोई कारण ही नहीं बचता ।
438. भक्ति से ऐसी परम शांति मिलती है कि संसार की बात तो छोड़े, देवतागण भी उसे अशांत नहीं कर सकते । इसलिए ही भक्तों को शांति-ब्रह्म कहा गया है ।
439. यदि हमने विनम्रता और उदारता का उदाहरण जीवन में नहीं पढ़ा, सुना और देखा तो हम जीवन में विनम्र और उदार नहीं हो सकते ।
440. भक्त को कुछ भी चाहिए ही नहीं तो वह अशांत होगा ही कैसे ? यह बल सिर्फ भक्ति का है ।
441. कौन आया, कौन गया, कौन मिला, क्या आया - इसकी परवाह भक्त नहीं करता है । यह भक्ति की कसौटी है कि भक्त तो खुद ही भक्ति के मौज में ही लीन रहता है ।
442. कोई अच्छा प्रश्न करने वाला हो तो उसका अभिनंदन करना चाहिए क्योंकि तभी ज्ञानी का ज्ञान प्रकट होकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है ।
443. संतों का जीवन कितने पवित्र धरातल पर जिया जाता है । स्वामी श्री रामसुखदासजी एक बार कहीं गए । जिस दिन पहुँचे उस दिन उनका विश्राम रखा गया था, सत्संग और प्रवचन नहीं था । जब उन्हें पता चला कि आज सत्संग नहीं है तो उन्होंने भोजन नहीं लिया । उन्होंने कहा कि जिस दिन सत्संग नहीं उस दिन भोजन नहीं । आयोजक ने तुरंत सत्संग का प्रबंध किया जिससे स्वामीजी प्रभु प्रसादरूपी भोजन पा सके ।
444. श्रेष्ठ वक्ता के मन में कोई भी लौकिक उद्देश्य नहीं होता । सबका कल्याण हो जाए यही भाव होता है ।
445. संत के मन में करुणा होती है सबके कल्याण हेतु । सभी संतों के जीवन में यह करुणा दिखाई देगी ।
446. अठारह वर्ष की अवस्था प्रभु श्री शुकदेवजी की आयु थी पर उन्हें देखते ही हजार वर्षों की तपस्या करने वाले ऋषि और मुनि उठकर खड़े हो गए । प्रभु श्री शुकदेवजी के पिताजी प्रभु श्री वेदव्यासजी और दादाजी ऋषि श्री पाराशरजी भी उठकर खड़े हो गए । सूत्र यह है कि संसार में पूज्यता गुणों के कारण ही होती है ।
447. मनुष्य रूप में जन्म मिला है तो वह कौन-सी वस्तु प्राप्त करनी चाहिए, जिसको प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं रहता । यह एकमात्र भक्ति ही है । बाकी सब कुछ कर लिया पर भक्ति नहीं की तो सब बेकार, मानव जीवन की सार्थकता और पूर्णता नहीं । डंके की चोट पर महात्मा श्री सूतजी यह बात कहते हैं ।
448. हमें निवास, भोजन और वस्त्र तो चाहिए चाहे संसारी हो, चाहे साधु हो, चाहे योगी हो और चाहे भोगी हो । पर यह तीनों चीज बढ़िया-से-बढ़िया प्राप्त होने पर भी हमारा पेट नहीं भरता, तृप्ति नहीं आती, मन की कभी तृप्ति नहीं होती ।
449. हमारा मन का “लेकिन” और “किंतु” कभी समाप्त नहीं होता । कभी भी मन नहीं कहेगा कि अब मुझे कुछ और नहीं चाहिए ।
450. जीवन में लेने से संत इनकार कर देते हैं और वे दिखाते हैं कि उनका मन भर गया है । उदाहरण के तौर पर श्री केवटजी ने जगजननी माता की अनमोल आभूषण लेने से मना कर दिया, बड़ी वस्तु की आकांक्षा के कारण मना नहीं किया, यह कह दिया कि अब कुछ भी नहीं चाहिए बस आपका अनुराग चाहिए । श्री भरतलालजी ने श्री प्रयागराजजी से कहा कि मुझे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी कोई पुरुषार्थ नहीं चाहिए, सिर्फ दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाला प्रभु श्री रघुनाथजी का प्रेम चाहिए ।
451. सारा वेदांत मोक्ष के लिए है । वेदांत धर्म, अर्थ, काम का त्याग करता है, निषेध करता है पर भक्त मोक्ष का भी त्याग कर देता है । भक्त को मोक्ष भी छोटा लगने लग जाता है । ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसके सामने मोक्ष भी फीका पड़ जाता है - यह सिर्फ भक्ति का ही सामर्थ्य है जो मोक्ष भी छोटा पड़ जाता है ।
452. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्री रामचरितमानसजी में मोक्ष को सर्वोच्च नहीं माना गया है बल्कि भक्ति को ही सर्वोपरि माना गया है । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने कह दिया श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कि मोक्ष यानी मुक्ति तो भक्ति महारानी की दासी है ।
453. सिद्धियां, स्वर्ग सुख, सांसारिक तृप्ति, यहाँ तक कि मोक्ष भी छोटा पड़ जाता है भक्ति के सामने ।
454. हमारा मन सदा-सदा के लिए भर जाए इतनी तृप्ति देने वाला एक ही साधन है - वह है सिर्फ भक्ति ।
455. मोक्ष प्राप्त संत यानी मुक्त लोग भी भक्ति ही करते रहते हैं ।
456. एक धर्म है - जीवन का कर्तव्य पालन करना । एक परमधर्म है - प्रभु की भक्ति करना, भजन करना ।
457. जिन्होंने भक्ति की या भक्ति का जीवन भर प्रयास किया उनका जीवन धन्य होता है । जिन्होंने इसके अलावा कुछ भी किया उनका जीवन बेकार, बेकार और बेकार । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में यह वचन कहा है ।
458. परमार्थ में भी इतने रास्ते हैं कि लोग भटक जाते हैं इसलिए परमार्थ का सिर्फ एक रास्ता चुनें - वह है भक्ति का ।
459. ज्ञान मार्ग, योग मार्ग, कर्मकांड, तंत्र के साधन - सबके ऊपर भक्ति है ।
460. परमार्थ के किसी भी मार्ग से जाएं जीवन में 8-10 कदम आगे बढ़ेंगे तो कुछ लाभ होगा पर प्रभु के सगुण साकार भक्ति मार्ग से हम प्रभु तक ही पहुँच जाएंगे । इससे बड़ा लाभ कुछ हो ही नहीं सकता ।
461. आनंद और परमानंद की अनुभूति के लिए भक्ति के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है । ध्यान करने वालों को शांति प्राप्त होती है पर परमानंद सिर्फ भक्ति से ही संभव है ।
462. प्रभु नाम का संकीर्तन से अंदर-बाहर से चित्त का आनंद-स्नान हो जाता है ।
463. भक्ति हमें आनंद प्रदान नहीं करती बल्कि आनंदमूर्ति ही बना देती है ।
464. शांति की अनुभूति अन्य साधन से आ सकती है पर आनंद की अनुभूति योग, कर्मकांड, वेदांत पढ़ने से नहीं सिर्फ और सिर्फ भक्ति से ही आती है ।
465. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी भक्तों का जीवन देखकर उन्हें धन्य कहते हैं जिन्हें देखकर देवता भी स्वयं उनका आदर करते हैं ।
466. भक्ति की प्राप्ति से मनुष्य जीवन सार्थक होता है । यही हमारा सच्चा धन है बाकी संसार में कमाया सब कंकड़ मात्र है ।
467. मानव जीवन की सर्वोच्च ऊँचाई केवल भक्ति से ही संभव है ।
468. सारे शास्त्रों का सार क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कहा गया है कि असंख्य शास्त्रों को उलट-पलट कर पढ़ें सार सिर्फ एक है - वह है प्रभु की भक्ति करना । सभी संतों का एकमत है कि भक्ति ही करनी चाहिए । सारे शास्त्रों का सार श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने स्वयं निकालकर अठारहवें अध्याय के अंत में रख दिया । कर्मयोग, ध्यानयोग, सबको भगवान ने कहा कि त्याग दो और गोपनीय रहस्य का भी परम गोपनीय रहस्य दो श्लोक में प्रभु ने जो निकालकर दिया जो मात्र अंतिम है और वह भक्ति है । सब धर्म त्याग दो, मेरी शरण में आ जाओ और मेरी भक्ति करो ।
469. सब ज्ञान में उत्तीर्ण हो गए पर भक्ति नहीं की तो हमारी अवस्था वैसे ही है जैसे हमने खाना बनाने के शास्त्र में बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली पर हाथ से रसोई बनाना नहीं सीखा ।
470. शास्त्र सब पढ़े पर भक्ति नहीं की तो सब बेकार और सब कुछ नहीं पढ़ा और भक्ति की तो वह श्रेष्ठ है क्योंकि सभी शास्त्रों का सार ही भक्ति है ।
471. प्रभु की भक्ति करने में रस आता है तो एक पंक्ति भी शास्त्र की पढ़ने की जरूरत नहीं है ।
472. एक महिला के हाथ से रसोई श्रेष्ठ बनती है, वह उससे ज्यादा अच्छी है जो पाक शास्त्र में उत्तीर्ण हो गई पर उसके हाथ से रसोई ठीक से नहीं बनती । ऐसे ही भक्ति के अलावा सब कुछ पा लिए तो वह बेकार है और कुछ नहीं पाया केवल भक्ति पा ली तो वह सर्वोत्तम है ।
473. श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार याद रखें, प्रभु पूरी श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार कुछ शब्दों में कहते हैं – अर्जुन, मेरी भक्ति करो, मेरा भजन करो, मुझसे प्रेम करो, मेरी सेवा करो । सारे शास्त्रों का सार श्रीमद् भगवद् गीताजी में इन श्लोकों में और इन श्लोकों का सार एक शब्द में - भक्ति ।
474. सारा जीवन पढ़ने से चला गया और साधन कुछ हुआ नहीं तो वह जीवन बेकार हो गया ।
475. इतने सारे शास्त्रों को सिर्फ इतना ही आदेश देना है कि जीवन में भक्ति करें ।
476. अलग-अलग लोग, सबकी रुचि, क्षमता, प्रारब्ध एक नहीं । एक ही तरीका से समझाने से बात उनके गले उतरने वाली नहीं इसलिए इतने सारे शास्त्र अलग-अलग तरीके से एक ही बात समझाते हैं कि जीवन में प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
477. एक दुकान पर दादाजी, उनका बेटा और उनका पोता बैठा है और एक हिसाब का जोड़ लगाना है । दादाजी मुँह जवानी जोड़ लेते हैं, बेटा कागज और कलम से जोड़ता है और पोता कैलकुलेटर से जोड़ता है । जोड़ करने का तीनों का रास्ता अलग-अलग है पर सही उत्तर तो एक ही होगा । ऐसे ही सभी श्रीग्रंथ हैं पर उन सबका उत्तर एक ही है और वह भक्ति है ।
478. असंख्य प्रक्रियाओं से प्राप्त होने वाला एक ही सार है - भक्ति ।
479. जीवन का एक ही लक्ष्य हो कि प्रभु मुझ पर रीझ जाएं, प्रभु मुझ पर प्रसन्न हो जाएं ।
480. अपने जीवन के हर व्यवहार का हेतु प्रभु को प्रसन्न करना होना चाहिए ।
481. मैं हर कर्म का पालन प्रभु को रिझाने हेतु कर रहा हूँ, ऐसा भाव हमारे मन में हरदम होना चाहिए ।
482. प्रभु के बारे में और सुनने की इच्छा एवं श्रद्धा रखनी चाहिए तो प्रभु कथा में प्रेम जागृत हो जाएगा । जितना-जितना कथा में प्रेम बढ़ेगा उतना-उतना प्रभु हमारे समीप आते चले जाएंगे ।
483. प्रभु पहले क्षण भर के लिए आना शुरू करेंगे फिर स्थाई रूप से आ जाएंगे ।
484. हमारे हृदय के आसन को प्रभु ने स्वीकार कर लिया तो हमारा अज्ञान का नाश करने का काम प्रभु का, हमें जो भी चाहिए वह देने का काम प्रभु का हो जाता है । हमारा काम सिर्फ प्रभु के लिए हृदय में आसन तैयार करने का है ।
485. भक्ति का आसन देने पर प्रभु कभी भी हृदय से नहीं जा पाएंगे ।
486. जैसे एक बड़ा अधिकारी सबके लिए अधिकारी होता है पर ऑफिस जाते वक्त उसका छोटा बच्चा उसके पैर पकड़ लेता है तो वह अधिकारी को रोक लेता है । वैसे ही प्रभु सबसे बड़े हैं पर भक्तरूपी बच्चा उनके श्रीकमलचरणों को पकड़कर उन्हें रोक लेता है ।
487. प्रभु के अवतार का प्रयोजन क्या है ? कौन दुष्ट ऐसा हो सकता है जो प्रभु को उसके नाश हेतु आने पर विवश कर दे । उनका नाश तो प्रभु के संकल्प मात्र से ही संभव हो जाता है । प्रभु आते हैं दूसरे कारण से पर जब आते हैं तो दुष्टों का भी लगे हाथ नाश करके उन्हें मोक्ष दे देते हैं । उदाहरण स्वरूप रावण बलवान था पर उसी समय उससे भी बलवान और भी थे । बालि और सहस्त्रार्जुन उस युग में थे जिन्होंने रावण को बांधकर, पीटकर रखा था । प्रभु के अंश अवतार प्रभु श्री परशुरामजी भी उस समय थे । इन तीनों में से कोई भी रावण को मारता तो प्रभु श्री ब्रह्माजी का वरदान भी पूरा हो जाता था क्योंकि यह तीनों या तो मनुष्य थे या वानर थे । रावण मनुष्य या वानर के हाथों ही मारा जा सकता था, ऐसा उसे वरदान प्राप्त था ।
488. प्रभु पधारते हैं भक्तों से मिलने हेतु । अत्यंत श्रेष्ठ परमहंस महात्मा को भक्ति का रसास्वादन करवाने हेतु क्योंकि परमहंस महात्माओं की एक ही आकांक्षा होती है कि हमें समाधि में नहीं, साक्षात प्रभु के दर्शन हो, हम प्रभु का स्पर्श करें । संतों को कुछ नहीं चाहिए होता, उन्हें प्रभु के दर्शन ही चाहिए होते हैं । प्रभु को वे अपने आँखों के सामने देखना चाहते हैं, संतों की यही एक चाह होती है ।
489. सर्वशक्तिमान प्रभु भक्तों की इच्छा से भक्तों के अनुरूप रूप लेकर पधारते हैं ।
490. दुष्टों को मारने का काम प्रभु किसी को भेजकर भी कर सकते हैं पर संतों की तृप्ति के लिए प्रभु को स्वयं आना पड़ता है । भगवती शबरीजी को प्रभु स्वयं आए बिना कैसे तृप्त कर सकते थे ?
491. प्रभु कब आएंगे और किस दिशा से आएंगे यह पूछना अपने गुरुजी से भूल गई थी भगवती शबरीजी और इसलिए पूरा जीवन लगा दिया हर दिशा से प्रभु की प्रतीक्षा करने में ।
492. जो स्वयं को बहुत छोटा समझता है वह भक्ति साधन में सफल होता है ।
493. भगवती शबरीजी को तृप्त करने प्रभु किसे भेज सकते थे ? वह तो श्री रामजी की प्यासी थी इसलिए प्रभु को स्वयं उनसे मिलने आना पड़ा । उन्हें प्रेम का रसास्वादन करने हेतु और उनको लाड़ लड़ाने हेतु प्रभु स्वयं पधारते हैं क्योंकि प्रेम में एवजी से काम नहीं चलता । उदाहरण स्वरूप सेठजी अपने मुनीम को अपनी जगह फैक्ट्री कार्य करने हेतु भेज सकते हैं पर सासूजी ने प्रेम से ससुराल बुलाया तो उन्हें स्वयं ही जाना पड़ेगा, क्या मुनीम जी को भेज सकते हैं - नहीं ।
494. प्रभु प्रलय के समय सबको खुद में विलीन कर लेते हैं फिर खुद से सबको वापस प्रकट करते हैं ।
495. प्रभु के अवतार की निश्चित संख्या कौन गिन सकता है ? आकाश मंडल के तारे की संख्या कोई गिन सकता है पर प्रभु के अवतार की संख्या कोई नहीं गिन सकता ।
496. प्रभु ने भक्तों के लिए क्या-क्या श्रीलीला की उसका पूर्ण वर्णन कतई संभव नहीं है ।
497. धर्म के लिए प्रभु के स्वधाम जाने पर क्या आधार बचा - श्रीमद् भागवतजी महापुराण क्योंकि इनमें भगवान की मंगलमय श्रीलीलाओं एवं भक्तों के चरित्र शामिल किए गए हैं, सभी धर्म, श्री वेदजी का सार यहाँ उपलब्ध कराया गया है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में योग, वेदांत एवं सभी धर्मशास्त्र का सार है ।
498. हमारे महापुरुष, ऋषि, संत और भक्त के हमारे ऊपर बड़े उपकार हैं । ऐसे संत हुए जिन्होंने जीवनपर्यंत सिर्फ एक श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण का अध्ययन किया और उसकी व्याख्या की ।
499. कलियुग में जब विवेक की आंख बंद हो जाएगी तो मार्ग प्रशस्त करने हेतु श्रीमद् भागवतजी महापुराण रूपी भास्कर की ही जरूरत होगी ।
500. गुह्यतम ज्ञान जो प्रभु ने दिया है वह भक्ति योग का ही है ।
501. भगवत् भक्त के भीतर प्रभु के लिए असीम प्रेम के लक्षण होते हैं जिससे जीवन में भगवत् भक्ति साकार होने लगती है ।
502. भक्तों की तीन श्रेणियां बताई गई हैं । पहली श्रेणी, जो सबसे बड़ी है, वे उत्तम भक्त कहलाते हैं । दूसरी श्रेणी मध्यम भक्त की होती है और तीसरी श्रेणी सामान्य भक्त की होती है जिन्होंने भक्ति का अभी आरंभ ही किया है ।
503. प्रभु की कथा को सुनना नहीं बल्कि उससे एकरूप होना चाहिए ।
504. जो भक्ति का आरंभ भी करता है उसमें भी एक बात तो तय होती है कि उसके भीतर प्रभु के लिए श्रद्धा तो होती ही है ।
505. सामान्य भक्त कहीं जाता है, कथा सुनता है, पूजा होते देखता है तो उसका मन करता है कि मैं भी ऐसा करूं, स्वयं के घर पर मंदिर बनवाता है और पूरी तल्लीनता से पूजा करता है ।
506. प्रभु मूर्ति को विग्रह-नारायण माना गया है यानी प्रभु का एक अवतार विग्रह में माना गया है ।
507. सामान्य भक्त प्रभु की मूर्ति में और पूजा करने में तो पूर्ण विश्वास रखता है पर प्रभु सर्वत्र हैं इसमें उसका विश्वास कम होता है । अपने प्रभु को वह पूजाघर में बंद करके रखता है यानी पूजा करने के बाद उसे जगत प्रभुमय नहीं दिखता है । प्रभु भक्तों के साथ उसका व्यवहार कुशल नहीं होता, न उसका जगत के साथ बोलना मधुर होता है न उसमें विनय होता है । यह प्राथमिक भक्ति है कि वह भक्ति तो कर रहा है पर भक्ति को समझता नहीं ।
508. प्रभु पूजा करते-करते प्रभु जप करते-करते हमारा व्यवहार ठीक होता चला जाना चाहिए ।
509. प्रभु की भक्ति नहीं छोड़ी तो प्रभु उस सामान्य भक्त को दूसरे सोपान पर जरूर पहुँचा देते हैं ।
510. जैसे तीन वर्ष का एक छोटा बच्चा है और वह अखबार पढ़ने बैठता है तो किसी ने उससे पूछा तो वह पढ़कर सुनाता है । हिंदी के शब्दों का उच्चारण का तो उसे पता है पर शब्द को जोड़कर क्या बनता है यह उसे पता नहीं है । यह आरंभिक पढ़ाई है, पढ़ तो रहा है पर जो लिखा गया है उसे समझता नहीं है, उसका मतलब नहीं समझता । यह प्राथमिक दर्जे के भक्त होते हैं जो श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीबालाजी को मानते तो हैं पर हर जीव में उन्हें देखते नहीं हैं ।
511. प्रभु की पूजा प्रभु प्रतिमा में हुई तो भक्ति का प्रारंभ तो हुआ पर उसके जीवन के व्यवहार में प्रभु जगत में झलकने चाहिए, तभी उसकी भक्ति सिद्ध हुई, ऐसा मानना होगा ।
512. कभी-कभी सामान्य भक्त के कारण प्रभु भी दुःख का अनुभव करते हैं क्योंकि वह भक्ति तो करता है पर अपने सांसारिक पिता पर नाराज होता है और भाई को धोखा देता है, यह भक्ति कभी नहीं सिखाती ।
513. मध्यम भक्त प्रभु की पूजा तो करता है और लोगों से व्यवहार भी अच्छा रखता है । प्रभु प्रेम के कारण उसमें मित्रों के लिए मैत्री, छोटों के लिए कृपा होती है और विरोधियों के लिए उपेक्षा का भाव होता है ।
514. भक्त अपने विरोधी को डंडे लेकर नहीं भागता उन्हें बस नजरअंदाज कर देता है, बदला नहीं लेता, झगड़ा नहीं करता । लोगों के उकसाने पर वह धीरज धारण करके रखता है और उकसाने में नहीं आता । उसकी भावना पक्की होती है कि अगर मैं किसी से वैर करता हूँ तो मेरे श्री ठाकुरजी नाराज हो जाएंगे इसलिए वह अपने विरोधियों की उपेक्षा करता है ।
515. संसार में कोई मेरा विरोध करता है तो मैं न्याय की दृष्टि से उसे जवाब दे सकता हूँ पर श्री ठाकुरजी के लिए वह उसकी उपेक्षा करता है जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं ।
516. भक्त प्रभु के प्रेम का संपादन करने हेतु सबके साथ यथोचित व्यवहार करता है ।
517. सर्वोत्तम भक्त वह होता है जो भिन्न-भिन्न तरीके से प्रभु से प्रेम करने वालों को प्रणाम करता है । संसार के सभी लोगों को देखकर उसे लगता है कि इनमें मेरे श्री ठाकुरजी हैं । प्रभु को अपने मंदिर में कैद करके नहीं रखता, ठाकुरबाड़ी में पूजा करके बाहर आता है तो प्रभु का रूप जो उसको ठाकुरबाड़ी में दिखता था वह बाहर हर जीव में दिखने लगता है । पूजा करते वक्त पूरे विश्व को श्री ठाकुरजी के अंदर देखता है और पूजा करने के बाद पूरे विश्व में प्रभु को देखता है ।
518. पूजा घर में एक चीज लिखकर रखनी चाहिए कि जो कुछ भी मेरे जीवन में हो रहा है वह प्रभु आपके कारण ही हो रहा है और वह प्रभु आपको समर्पित है ।
519. घर में पूजा हुई फिर उन प्रभु को हम हर तरफ देखें । एक गरीब में, एक कुत्ते में, एक मित्र में, एक शत्रु में, एक पत्नी में सबमें प्रभु का दर्शन करें ।
520. यदि सामने आने वाले हर प्राणी में प्रभु दर्शन की कला आ गई तो भूल कर भी किसी का अपमान हम नहीं करेंगे, बोलने की हमारी शैली भी बदल जाएगी ।
521. किसी का उपकार करो, सेवा करो या मत करो पर कटु वचन कभी किसी को नहीं बोले । अपमान के चुभने वाले शब्द कभी नहीं बोलना चाहिए नहीं तो प्रभु हमें कभी नहीं मिलेंगे ।
522. जीव इधर प्रभु की श्रीतुलसी अर्चना करता है और उधर सामने आए प्रभु, जो जीव रूप में हैं, उनकी अपमान की अर्चना करता है तो भक्ति कैसे सिद्ध होगी ।
523. सेवा प्रभु की कितनी भी करें पर यह फिक्र रखें कि मैं किसी को धोखा नहीं दूँगा और किसी का अपमान नहीं करूंगा ।
524. किसी को दिया जाने वाला धोखा प्रभु को ही दिया जाने वाला धोखा समान ही है ।
525. सभी सामने आने वाले लोगों में प्रभु का प्रतिबिंब हमें देखना चाहिए ।
526. कोई भी किया हुआ गलत व्यवहार गोलाकार घूमकर वापस हमारे तक ही आता है ।
527. संत श्री एकनाथजी महाराज ने एक बार हरिजन का तड़पता हुआ बच्चा जो गर्मी में नंगे पैर चल रहा था को गोद में उठा लिया । सोचा जिन प्रभु की मैं अभी-अभी पूजा करके आया हूँ वे ही प्रभु अभी बालरूप में तड़प रहे हैं । समाज ऐसा नहीं समझता था इसलिए समाज ने उनका विरोध किया कि ब्राह्मण होकर उन्होंने एक हरिजन के बच्चे को छुआ ।
528. वैर करने वाले के सामने भी हमारा हाथ जुड़ जाए तो ही हमारी भक्ति सच्ची सिद्ध हुई है ।
529. हम सबमें प्रभु देखने लगेंगे तो प्रभु का नियम है कि उस व्यक्ति में प्रभु प्रकट होकर हमारा कल्याण करेंगे ।
530. संत श्री तुकारामजी का एक व्यक्ति ने जीवन भर विरोध किया । अंत में उस व्यक्ति ने संत श्री तुकारामजी की आरती लिखी । प्रभु ने प्रकट होकर उस व्यक्ति के भीतर से संत श्री तुकारामजी की वंदना की ।
531. पांच इंद्रियों से हम संसार के विषयों का अनुभव लेते हैं पर उत्तम भक्त संसार के बीच में रहकर अपनी पांच इंद्रियों को प्रभु का अनुभव करने में लगा देते हैं ।
532. घर में शांत रहने की शिक्षा नहीं ली तो तीर्थों में जाकर भी शांत नहीं रह पाएंगे ।
533. भक्ति यह है कि रात में अगर सोते समय बिजली चली गई और पंखा बंद हो गया तो शरीर को जो गर्मी लगेगी वह हमारे मन की शांति में व्यवधान तो नहीं करती ।
534. श्री ठाकुरजी को हमेशा बढ़िया-बढ़िया जगह बैठने को दिया और एक दिन एक बहुत साधारण जगह रेलगाड़ी में मिली तो क्या उस दिन हमारा मन श्री ठाकुरजी को साधारण जगह बैठाने में कष्ट पाता है, यह हमें आत्म-विश्लेषण करके देखना चाहिए ।
535. स्तुति के शब्द और गाली के शब्द सुनकर हमारे भीतर कोई परिणाम नहीं हो तो प्रभु हाथ पकड़ कर भक्ति की अगली कक्षा में हमें ले जाएंगे ।
536. संत के लक्षण साधक के लिए साधन हेतु मार्गदर्शन होते हैं ।
537. प्रभु की माया हमारी परीक्षा हेतु है । माया का हमारे ऊपर कोई असर नहीं हो, ऐसा जीवन जिसने जिया, वही श्रेष्ठ होता है ।
538. प्रभु की भक्ति में क्या हम नकारात्मक विचार को भूल सकते हैं, यह हमें देखना चाहिए ।
539. प्रभु भक्ति में संसार के धर्म - भूख, प्यास, निद्रा को क्या हम सह सकते हैं । उत्तम भक्त प्रभु प्रेम में इतना रम जाता है कि उसे भूख, प्यास, निद्रा की याद ही नहीं आती । उदाहरण स्वरूप राजा श्री परीक्षितजी को चार दिन बाद खाने-पीने हेतु कहा पर उन्होंने प्रभु श्री कृष्णजी का चरित्र विस्तार से सुनना है इसलिए वे भूख, प्यास, निद्रा सब भूल गए । उन्होंने यह नहीं कहा कि भूख, प्यास, निद्रा को सहकर मैं सुनूँगा बल्कि कहा कि मैं भूख, प्यास, निद्रा को भूल चुका हूँ ।
540. जिसके अंतःकरण में प्रभु से कुछ पाने की इच्छा ही जागृत नहीं होती, कामना के बीज ही वहाँ नहीं उगते । यह उत्तम भक्त के लक्षण होते हैं । हमारी तो कामना और इच्छाओं की फसल सदैव लहराती ही रहती है ।
541. उत्तम भक्त भक्ति से कामना के बीज को भून देते हैं तो फिर वह कामनाओं के बीज जो हैं वह कभी अंकुरित नहीं होते । भक्तों के अंतःकरण के धरातल पर इसलिए कामना के बीज उगते ही नहीं, अंकुरित ही नहीं होते ।
542. उत्तम भक्त प्रभु से कुछ चाहता नहीं, कुछ मांगता नहीं, कुछ मांगने का विचार ही उसके सामने नहीं आता ।
543. उत्तम भक्त वह है जिसके मन में किसी भी विषय का अहंकार किसी भी कारण से जागृत ही नहीं होता । हमारा अहंकार जन्म यानी उत्तम घराने के कारण होता है । मैंने जीवन में क्या-क्या किया उसका अभिमान होता है । वर्ण और जाति का अहंकार होता है । यहाँ तक कि आश्रम का भी अहंकार हो जाता है कि मैं विरक्त हूँ, संन्यासी हूँ इसलिए अपने को पुजवाने का भाव भी आ जाता है ।
544. उत्तम भक्त यह मानता है कि मैं बड़ा नहीं, मैं तुच्छ हूँ, यह भाव रखता है ।
545. जाति का स्वाभिमान अलग बात पर जाति का अहंकार बहुत गलत, उसका त्याग करना चाहिए । प्रभु का भक्त हूँ इसलिए स्वाभिमान रखें कि मैं भक्त कुल का हूँ पर उसका अहंकार कदापि नहीं रखना चाहिए ।
546. कथा में पहली पंक्ति में बैठने पर कोई परमार्थ के लड्डू नहीं मिलते ।
547. भारतवर्ष की विशेषता है कि हर जाति में, चाहे वह कोई भी हो, उसमें संत हुए हैं, जो सर्वमान्य हुए हैं ।
548. जैसे भगवती गंगा माता बहुत जगह से बहकर जाती हैं पर हैं तो भगवती गंगा माता एक ही वैसे ही भक्त की एक ही जाति होती है कि मैं सिर्फ भगवान का हूँ ।
549. भक्तों का अहंकार श्री ठाकुरजी को कष्ट देता है । उदाहरण स्वरूप एक जगह श्री ठाकुरजी के मंदिर में तिलक कैसे हो इसका निर्णय गाँव के पंचायत में चला गया और तीन दिन तक श्री ठाकुरजी को तिलक ही नहीं हुआ ।
550. उत्तम भक्त का लक्षण है कि उसमें अहंकार एकदम भी नहीं होता ।
551. उत्तम भक्त की स्वयं को देखने की दृष्टि और दूसरों को देखने की दृष्टि एक जैसी होती है । उत्तम भक्त की प्रतिक्रिया एक ही होती है क्योंकि उसकी दृष्टि में समता होती है । उदाहरण स्वरूप एक कीमती वस्तु टूट गई और पता चला बहू से टूटी तो सास चिढ़ गई फिर पता चला कि बेटी से टूटा तो शांत हो गई । यह समता नहीं है । सास अपनी बेटी जैसा व्यवहार अपनी बहू के साथ और नौकरानी के साथ भी करे - यह समता है । उत्तम भक्त के यह लक्षण होते हैं कि उनमें समता होती है ।
552. घर में जब से वातानुकूलित (एयर कंडीशनर) आया है घर की गर्मी तो निकल गई है पर वह सिर में जाकर बैठ गई है । घर तो ठंडा हो गया है मगर दिमाग गर्म रहने लगा है ।
553. सभी संतों में समता के लक्षण पूर्ण रूप से दिखेंगे ।
554. संत के ध्यान में ही नहीं आता है कि अपना क्या और पराया क्या ?
555. संतों का कृपापात्र बनना भी जीवन का सौभाग्य होता है क्योंकि संतों का प्रभु से सीधा संबंध जो होता है ।
556. संतों को बेईमानी क्या होती है यह पता भी नहीं होता । यह कितना बड़ा सकारात्मक तथ्य और उनकी उपलब्धि है ।
557. संतों का जीवन भी भगवत् मय हो जाता है ।
558. महान व्यक्ति को जानने के लिए महान बनना पड़ता है । उदाहरण स्वरूप श्री डोंगरेजी महाराज श्रीमद् भागवत कथा कह रहे थे तो संत श्री दत्तात्रेयजी आए और श्री डोंगरेजी महाराज व्यासआसन से उठ खड़े हुए और कहा तभी बैठूंगा जब आप कथा के बाद मुझे एक घंटा व्यासआसन से बैठकर कथा सुनाएँगे ।
559. उत्तम भक्त त्रिलोकी का वैभव सामने आने पर भी प्रभु को क्षण मात्र के लिए नहीं भूलता । वैभव का ऐसा प्रस्ताव मिलने पर वह तुरंत बिना सोचे प्रस्ताव ठुकरा देता है क्योंकि उसके परम धन तो प्रभु ही होते हैं ।
560. भक्तों के मन में संसार के लिए लोभ नहीं पर प्रभु के लिए अति लोभी होता है । कितना ज्यादा नाम लूं, कितना दर्शन कर लूं, कितने पद गा लूं, कितनी कथा सुन लूं - ऐसा भाव होता है ।
561. प्रभु की भक्ति करने में लोभी होना चाहिए । जो भक्ति में लोभी होगा वही तरेगा ।
562. प्रभु श्री महादेवजी श्मशान में जाकर प्रभु भजन करने बैठते हैं जिससे एकांत मिलेगा, ज्यादा भजन करूंगा, कोई विक्षेप करने वाला नहीं होगा । इतने लोभी प्रभु भजन के, नाम जप के और ध्यान के प्रभु श्री महादेवजी हैं ।
563. जिनका अंतःकरण इतना शांत कि बाहर की अतृप्ति उन्हें सताती नहीं, इतने तृप्त इतने प्रभु प्रेमी कि जिन्होंने प्रभु को अपने हृदय में कैद करके रखा है । उदाहरण स्वरूप एक दादाजी बहुत बड़े अधिकारी हैं पर उनका पोता चिपक गया तो दादाजी की दादागिरी संसार में चलती है पर पोते पर नहीं चलती । वैसे ही प्रभु की प्रभुता रावण, जरासंध, कंस पर चलती है पर भगवती शबरीजी, श्री केवटजी पर नहीं चलती ।
564. प्रभु चित्तचोर हैं उन्हें बांध लें अपने हृदय में । एक ही रस्सी है बांधने की और वह है प्रेमाभक्ति की डोर ।
565. प्रभु के बारे में बोलने का अवसर मिलता है तो संत इस पवित्र लाभ से चूकते नहीं हैं ।
566. आकाश मंडल से जल अथाह बरस रहा है पर हमारे पास इकट्ठा करने का पात्र छोटा है तो हम थोड़ा-सा ही जल एकत्रित कर पाएंगे । वैसे ही प्रभु के गुण और कथा अथाह हैं पर हम अपनी सीमित बुद्धि के कारण बहुत कम ही ग्रहण कर पाते हैं, ऐसा संत मानते हैं ।
567. हमारी परंपरा इतनी कृतज्ञ परंपरा रही है यानी कृतज्ञ होने की परंपरा रही है ।
568. संत सारे संसार के हितैषी होते हैं ।
569. कलियुग में सुविधा तो बढ़ेगी पर मनुष्य की क्षमता का ह्रास होगा ।
570. बाहर हमने विज्ञान में प्रगति की है पर क्या अंतःकरण में भी हमने आध्यात्मिक प्रगति की है ?
571. हमारे पूर्वज सहनशील और परिश्रमी होते थे जो आज का जीव नहीं है ।
572. आज घर में खाने का खर्च कम पर दवाई का खर्च ज्यादा हो गया है क्योंकि हमारा खान-पान और विचार सब बिगड़ गया है ।
573. जितनी सुविधा बढ़ेगी उतनी क्षमता घटती है । सुविधा का सावधानी से निर्वाह करना चाहिए और देखना चाहिए कि हमारी क्षमता का ह्रास तो नहीं होता । उदाहरण स्वरूप मोबाइल आने पर सबको फोन नंबर जो याद होते थे वे भूल गए क्योंकि अब तो मोबाइल में सब नंबर फीड रहता है ।
574. प्रभु श्री वेदव्यासजी ने एक वेद जो इतने बड़े थे और आगे आने वाले समय में मानव शक्तियों का ह्रास होगा इसलिए चार विभाग में विभाजित कर दिए । अपने-अपने विभाग का ही लोग ज्ञान रखें, इस उद्देश्य से प्रभु श्री वेदव्यासजी ने श्री वेदजी के चार खंड किए ।
575. भारत की सारी विचारधारा का मूल श्रीवेदांत और श्रीउपनिषद हैं ।
576. श्री वेदजी और श्री उपनिषदजी में संगति लगाने के लिए प्रभु श्री वेदव्यास जी ने वेदांतसूत्र यानी ब्रह्मसूत्र की रचना करी ।
577. सामान्य लोगों हेतु प्रभु श्री वेदव्यास जी ने सत्रह श्रीपुराणों की रचना करी । जो श्री वेदों के सूत्र हैं उन्हें ही पौराणिक कहानी बनाकर श्रीपुराणों में कही गई है ।
578. प्रभु श्री वेदव्यासजी ने श्री महाभारतजी की भी रचना करी । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अदभुत वर्णन किया जो संसार में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । विवेक की जागृति हेतु श्री महाभारतजी ही सही समय पर सही निर्णय की क्षमता हमारे में जाग्रत करती है । संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने श्री महाभारतजी को विवेक का उद्यान यानी बगीचा बताया है । छत्रपति शिवाजी और स्वामी विवेकानंदजी ने अपने आरंभ काल में ही श्री महाभारतजी का खूब श्रवण किया ।
579. मनुष्य की अच्छाई-बुराई कैसे विकसित होती है, उसे बुराइयों को कब रोकना चाहिए और कैसे रोकना चाहिए यह सब श्री महाभारतजी के ज्ञान में हमें मिलेगा ।
580. श्री अर्जुनजी को श्रीमद् भगवद् गीताजी सुनने को मिली यह प्रभु श्री कृष्णजी की कृपा है । हमें श्रीमद् भगवद् गीताजी सुनने को मिलती है यह प्रभु श्री वेदव्यासजी की कृपा है । जगत कल्याण हेतु अठारह खंडों में पूरा ज्ञान श्रीमद् भगवद् गीताजी का उन्होंने विभाजित किया । इसलिए हमारी संस्कृति के असाधारण गुरु, सनातन धर्म और सभी खंड के प्रथम गुरु प्रभु श्री वेदव्यासजी हैं । इसलिए गुरु पूर्णिमा में पहली पूजा प्रभु श्री वेदव्यासजी की होती है फिर अपने-अपने गुरुओं की होती है – ऐसा विधान है ।
581. प्रभु श्री वेदव्यासजी के बाद नवीन विचार और नवीन विचारधारा किसी देशी या विदेशी ने आज तक नहीं दिया । जो सबने कहा वह प्रभु श्री वेदव्यासजी की बात का ही विश्लेषण है । संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने कहा कि मैं जो भी बोल रहा हूँ प्रभु श्री वेदव्यासजी की उँगली पकड़-पकड़ कर बोल रहा हूँ ।
582. महापुरुषों को जनकल्याण हेतु बेचैनी होती है । इतना सब कुछ लिखने के बाद भी प्रभु श्री वेदव्यासजी बेचैन हुए । महापुरुषों की वेदना भी जगत कल्याण हेतु कल्याणकारी होती है । तब देवर्षि प्रभु श्री नारद जी ने आकर उन्हें बताया कि प्रभु का सुयश का गान करें, तभी श्रीमद् भागवतजी महापुराण की रचना हुई ।
583. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने ऋषि श्री वाल्मीकिजी को श्री रामायणजी लिखने की प्रेरणा, प्रभु श्री वेदव्यासजी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण लिखने की प्रेरणा दी । राक्षस हिरण्यशकशिपु के घर जन्मा भक्त श्री प्रह्लादजी को भक्ति से युक्त गर्भ में कर दिया क्योंकि उनकी माँ को उन्होंने गर्भावस्था में प्रभु की कथा सुनाई थी । भक्ति के प्रचार हेतु श्री दक्षजी के सौ पुत्रों को भक्ति के प्रचारक बना दिया । श्री दक्षजी का श्राप पाया कि कहीं टिक नहीं सकेंगे तो खुश हो गए श्राप से कि अब जगह-जगह दौड़-दौड़कर प्रभु भक्ति का प्रचार करूंगा ।
584. श्री वेदजी, श्री उपनिषदजी, श्रीब्रह्मसूत्र, श्रीपुराण, श्रीमहाभारत की रचना के बाद भी कुछ त्रुटि रह गई थी । ज्ञानी लोग कितने विनम्र होते थे, एकदम अहंकारी नहीं होते थे । इसलिए प्रभु श्री वेदव्यासजी के पूछने पर देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने कहा कि आपने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन तो खूब किया पर उससे भी ऊँ‍‍ची भक्ति का वर्णन आप जैसे महापुरुष ही कर सकते थे वह आपने नहीं किया । इसलिए आपको बेचैनी है, ऐसा देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु श्री वेदव्यासजी को बताया ।
585. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में जो जानने योग्य है वह सब श्री महाभारतजी में मिलेगा और जो श्री महाभारतजी में नहीं मिलेगा, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा ।
586. यह युग ज्ञान का है और इंटरनेट आने के बाद में ज्ञान सबके लिए उपलब्ध है पर क्या सारा ज्ञान इकट्ठा करने से हमारा अंतःकरण बदलता है । क्या अच्छा है, क्या बुरा है - हम जानते हैं पर अच्छा हमसे होता नहीं और बुराई हमसे छूटती नहीं । हम बुराई से बच नहीं पाते, यही मुख्य समस्या है । हमारा मन अच्छाई को अमल नहीं करने देता । बुद्धि कहती तो है कि यह अच्छा है और यह बुरा है पर मन मानता नहीं । हमारा मन हमारी बुद्धि का आदर नहीं करता । किसको बदलना आवश्यक है - मन को । मन को बदलने हेतु हमारी शिक्षा पद्धति में कुछ भी नहीं है । बुद्धि विकास हेतु हमारी शिक्षा पद्धति में बहुत कुछ है । मन तब तक नहीं बदलेगा जब तक बुद्धि का विकास नहीं होगा जिससे गलत काम बुद्धि नहीं करवाएगी । हमारी बुद्धि को मन का सहयोग नहीं मिलना चाहिए बुराई करते वक्त । मन कैसे बदलेगा ? मन बदलना होगा तो अंदर से बदलना होगा और ऐसा करने हेतु प्रभु की भक्ति के मार्ग पर उसे ले जाना अनिवार्य है ।
587. संसार में बुद्धि की कुशलता हेतु विद्यालय है पर आध्यात्मिक ज्ञान और सिद्धांत सिर्फ प्रभु भक्ति से ही मिल सकते हैं ।
588. भक्ति सीधे मन पर असर करती है, मन को तैयार करने का साधन है ।
589. भक्ति से प्रभु श्रद्धा निर्माण हो जाती है तो खुद कष्ट सहकर भी व्यक्ति गलत नहीं करेगा ।
590. दुनिया के समस्त शास्त्रों का अंतिम उद्देश्य इंद्रिय जय करना है । इंद्रिय जय को प्रभावित हमारा मन करता है और मन को बदल सकती है तो सिर्फ प्रभु की भक्ति ।
591. निर्जला एकादशी को बुद्धि कभी सफल नहीं होने दे सकती पर मन उसे सफल कर देता है । भगवत् श्रद्धा और भक्ति इससे जोड़ दें तो यह संभव होता है । भक्ति का सामर्थ्य तो आप देखें कि वह प्रभु के लिए निर्जला एकादशी को सफल कर देती है ।
592. गाड़ी आदि सभी सुविधा को छोड़कर लोग पैदल पदयात्रा करते हैं - भक्ति के कारण ।
593. अंतःकरण में प्रभु श्री महादेवजी के लिए भक्ति होती है तो जीव श्री कैलाश-मानसरोवर की कठिन यात्रा सफलता से कर आता है ।
594. प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव भक्ति जागृत करती है । भक्ति जहाँ जिसके भी भीतर जागृत हुई है उसकी जीवनशैली ही बदल कर अलग हो जाती है ।
595. पढ़े-लिखे लोगों ने देश का उतना कल्याण नहीं किया जितना भक्तों ने देश का कल्याण किया है । भारत माता की भक्ति करने वालों ने देश का सबसे ज्यादा कल्याण किया है ।
596. छत्रपति शिवाजी ने सबके मन में एक बात बैठा दी कि यह राज्य प्रभु श्री महादेवजी का है । राजा प्रभु श्री महादेवजी हैं और शिवाजी एक भक्त है इसलिए उनके एक भी सैनिक ने कभी भी गलत कार्य नहीं किया क्योंकि सबको पता था कि हम प्रभु की सेवा में हैं । छत्रपति शिवाजी कहते थे कि मैं जो भी अच्छा करता हूँ वह मेरे द्वारा मेरे प्रभु की सेवा है ।
597. सभी शास्त्रों का ज्ञान हमारे भीतर आ जाए यह केवल भक्ति से ही संभव है ।
598. अपने जीवन के केंद्र प्रभु होने चाहिए । हमारे अंदर अशांति इसलिए है कि भोग हमारे जीवन के केंद्र होते हैं । प्रभु भक्ति से हमारे जीवन के केंद्र में प्रभु होने चाहिए ।
599. भक्ति जीवन में संतुलन लाती है, जो सबसे जरूरी है ।
600. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से बड़ा भक्ति का आज तक कोई प्रचारक नहीं हुआ है और न आगे कोई होगा ।
601. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने ऐसा निवेदन प्रभु श्री वेदव्यासजी से किया कि एक ऐसा भक्ति का श्रीग्रंथ दें जो सबका कल्याण करे तब श्रीमद् भागवतजी महापुराण की रचना हुई ।
602. सर्वोच्च जीवन का साधन और सार भक्ति ही है ।
603. संतों की संगति और सत्संग ही भक्ति जागृत करने का मुख्य उपाय है । भक्ति का आरंभ सत्संगति से ही होता है । ऐसा प्रभु ने भगवती शबरीजी से कहा था ।
604. गलती करने वाले को दंड नहीं दिया जाए तो दंड नहीं देने वाले को उसका पाप लगता है । शास्त्रों का मत है कि राजा ने दोषी को दंड नहीं दिया तो राजा को पाप लगेगा ।
605. जो कठोर बनना नहीं जानता वह कुशल नेतृत्व नहीं कर सकता, यह श्री महाभारतजी का सिद्धांत है ।
606. हमारी बुराइयां और विकार प्रभु कथा सुनते-सुनते नष्ट हो जाती है ।
607. प्रभु का प्रसाद यानी जूठन हमारे भाग्य की रेखा बदल देती है । इसलिए प्रसाद पाने हेतु हाथ फैलाने की आदत हमेशा जीवन में बनानी चाहिए । प्रसाद बचा नहीं हो तो प्रसाद पात्र को धोकर उसका जल पी लेना चाहिए ।
608. कथा श्रवण से बुद्धि के मैल छूटने लगते हैं ।
609. पहले कथा अच्छी लगती है, फिर इतनी अच्छी लगती है कि दूसरी बात सूझती ही नहीं, फिर कथा का चिंतन जीवन में शुरू हो जाता है ।
610. भक्ति के बीज अंकुरित होने का लक्षण है, कसौटी है कि ऐसा लगने लगे कि प्रभु के बारे में बोलता ही जाऊँ, जीवन में चिंतन का विषय एक प्रभु ही बन जाएं, जीवन में चर्चा का एक विषय केवल प्रभु बन जाएं ।
611. कथा के संत वक्ता भक्ति के बीज हमारे भीतर कथा के माध्यम से बोते हैं पर हमारे हृदय में बंजर भूमि होने के कारण वे बीज अंकुरित नहीं होते ।
612. मन में आने वाले संकल्प-विकल्प केवल प्रभु को आधार बनाकर आएं । प्रभु का दर्शन करूं, प्रभु के लिए तीर्थ जाऊँ, प्रभु की कथा सुनूँ, प्रभु के लिए भजन गाऊँ - ऐसे संकल्प मन में उठने चाहिए ।
613. आज कलियुग में कितनी बड़ी व्यथा है कोई माँ अपने बेटे को संत या साधु नहीं बनाना चाहती ।
614. संतों ने अपना सांसारिक प्रपंच नहीं बढ़ाया जिस कारण पूरा जीवन प्रभु को पाने हेतु लगा दिया ।
615. प्रभु जब हमें अपने पास बुलाना चाहते हैं तो कृपा एवं अनुग्रह करते हैं और दुःख भेजते हैं जिससे हम सांसारिक प्रपंच से मुक्त हो सकें और प्रभु मार्ग पर चल सकें ।
616. भक्त आपत्ति में भी प्रभु अनुग्रह का ही दर्शन करते हैं ।
617. हमें बड़े-से-बड़े विद्वान और पढ़े-लिखे लोग आत्महत्या करते हुए मिल जाएंगे पर संत कभी आत्महत्या नहीं करते क्योंकि हर दुःख के पीछे वे प्रभु का अनुग्रह देख लेते हैं ।
618. विज्ञान जितना आगे बढ़ता जाएगा उतना सत्संग की जरूरत होगी क्योंकि विज्ञान विकृति लाएगा जिसको ठीक सत्संग ही करेगा ।
619. प्रभु की श्रीलीला का चिंतन परम साधन है बाकी सब साधन इससे नीचे है ।
620. साधन दीर्घकाल तक होता है तभी वह सफल होता है ।
621. संसार में जिस भी संत ने परमात्मा का सानिध्य प्राप्त किया है उसने एक ही व्याख्या की है - आनंद और परमानंद ।
622. जिसके जीवन में जरा-सा भी दोष बचा हुआ है उसे प्रभु की भक्ति नहीं मिलती । प्रभु बहुत परख-परखकर अपनी भक्ति का दान देते हैं ।
623. मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य भक्ति के साधन से प्रभु को पाना है ।
624. भक्ति का सामर्थ्‍य है कि एक लंपट पुरुष को भी संत बना देती है ।
625. प्रभु की कीर्ति का गुणगान करने से जग के अमंगल का नाश होता है ।
626. सत्य परेशान हो सकता है पर कभी पराजित नहीं होता ।
627. भक्ति एक ओर तृप्ति करती है दूसरी तरफ प्रभु प्रेम की प्यास भी बढ़ाती जाती है ।
628. माया शक्ति क्या है ? माया प्रभु की शक्ति है जो हमें संसार के प्रपंच में फंसाती है और प्रभु से दूर करती है । भक्ति से ही माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है ।
629. तप और योग बल के अनुसार ऋषियों को पहले सिद्धियां प्राप्त होती थी ।
630. माया का उल्टा है यामा जिसका अर्थ यह है कि जो नहीं होता है, उसके होने का भ्रम हमें करवा दिया जाता है ।
631. श्री वेदजी माया का खंडन करते हैं, माया में फंसना गलत मानते हैं । इसलिए उससे बचने का जीव से आह्वान करते हैं ।
632. जैसे बाँझ के बेटे की जन्म कुंडली बनानी है, बाँझ के बेटे हो ही नहीं सकते, बेटा है तो बाँझ नहीं कहलाएगी । जैसे मृगजल की प्याऊ खोलनी है, मृगजल होता ही नहीं तो प्याऊ कैसे खोल सकते हैं । जैसे छाया, जो हमारे पीछे चलती है, उसका सिर काटना है, छाया का सिर काटा नहीं जा सकता । जैसे आपका रोग मिटाने के लिए खरगोश के सींग लाने पड़ेंगे, खरगोश के सींग उग नहीं सकते । वैसे ही जीव प्रभु कृपा बिना माया से बच नहीं सकता ।
633. माया का विवेचन करना हो तो यह कहना ही पड़ेगा कि जो है ही नहीं उसके बारे में हम बात कर रहे हैं ।
634. संत श्री एकनाथजी कहते हैं कि माया संसार अनुभव करा रहा है इसलिए माया नहीं है यह नहीं कह सकते । माया है यह कहते हैं तो वेदांती और ज्ञानी मानते नहीं क्योंकि वे सिर्फ प्रभु अस्तित्व को ही मानते हैं माया के अस्तित्व को नहीं मानते ।
635. प्रभु की एक अदभुत शक्ति का नाम माया है जो हमारे सामने दृश्य निर्माण करती है जो हमें दिखाती है कि विश्व का निर्माण हुआ, विश्व का नाश हुआ । पर प्रभु के यहाँ न विश्व का निर्माण होता है न ही विश्व का नाश होता है । जैसे हम अनुभव करते हैं कि प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के आने से प्रातः हुआ, फिर मध्यान्ह हुआ, फिर संध्या हुई फिर रात्रि हुई । यह हमें दिखता है तो क्या प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को प्रातःकाल, मध्यान्ह, संध्या और रात्रि का पता है - नहीं । वे इससे अतीत हैं । पृथ्वी उनका अलग-अलग तरीके से दर्शन कराती है और हम प्रातःकाल, मध्यान्ह, संध्या और रात्रि का अनुभव करते हैं । प्रभु श्री सूर्यनारायणजी स्थिर हैं, उन्हें अंधकार का भान नहीं, हमेशा एकरूप रहते हैं । उनकी शक्ति का जागरण जब विश्व पटल पर होता है तो प्रातःकाल, मध्यान्ह, संध्या और रात्रि होती है । वैसे ही प्रभु की माया है, प्रभु संसार नहीं रचते, यह सब श्री ठाकुरजी की माया का काम है ।
636. माया के लिए एक वर्णन सभी शास्त्रों में और सभी संतों ने किया है कि वह जो बताया नहीं जा सकता, उसे माया कहते हैं ।
637. निद्रा को नित्य प्रलय कहा जाता है । चार प्रकार के प्रलय हैं जिसमें एक निद्रा है ।
638. जैसे हम सोते हैं तो सब कुछ लीन कर लेते हैं फिर सुबह उठते हैं तो सब कुछ जागृत हुआ होता है । वैसे ही प्रभु योगनिद्रा के समय समस्त ब्रह्मांड को अपने में लीन कर लेते हैं, समस्त शक्तियों को अपने में अंदर लीन कर लेते हैं और फिर जब जागृत होते हैं तो सब शक्तियां जग जाती है और फिर प्रभु इच्छा करते हैं तो ब्रह्मांड का निर्माण हो जाता है ।
639. जैसे छोटे बालक का खेलना स्वभाव है, सांस लेना-छोड़ना हमारा स्वभाव है, क्या हम कभी सांस लेना और छोड़ना भूलते हैं वैसे ही प्रभु की स्वाभाविक क्रिया है, प्रभु सोचकर संसार का निर्माण, स्थिति और लय नहीं करते हैं । यह प्रभु की स्वाभाविक क्रिया है ।
640. वेदांत ने जीव को अनादि माना है । ऐसा कोई समय नहीं था जब हम नहीं थे । हम हर समय थे पर कर्म के अधिकार के अनुसार शरीर अलग-अलग था ।
641. परमात्मा अनादि हैं और जीवात्मा उनका अंश होने के कारण अनादि है ।
642. संसार जब था ही नहीं - यह बात गलत है । वेदांत मानता है कि ऐसा कोई समय नहीं जब संसार था ही नहीं । हमेशा संसार था । जैसे रात्रि प्रलय है, प्रातःकाल सृष्टि है वैसे ही प्रभु की योगनिद्रा में प्रलय, प्रभु जागे तो सृष्टि शुरू हो गई ।
643. सुख-दुःख का परिणाम चिंतन से हटा दिया जाना चाहिए - यह वेदांत कहता है ।
644. जब तक जीवात्मा, जीवात्मा रहेगा दुःख रहेगा । जब जीवात्मा परमात्मा की भक्ति द्वारा प्रभु से संपर्क स्थापित कर लेगा तभी बंधन से छूटेगा और सुखी होगा ।
645. माया को अविद्या कहा गया है । उसे प्रभु का जादू माना गया है ।
646. जैसे एक उपकरण हमने खड़ा कर दिया पर जब तक उसमें बिजली नहीं आएगी वह चलेगा नहीं । वैसे ही जड़ संसार खड़ा हुआ है पर परमात्मा शक्ति का प्रवेश होने पर ही वह प्रगतिशील होता है ।
647. ऐसी कोई सृष्टि में जगह नहीं जहाँ परमात्मा नहीं हो ।
648. जैसे हम प्रतिबिंब में भी हैं और सामने भी हम ही हैं । हम अपने प्रतिबिंब में भी अपने को ही तलाशते हैं । वैसे ही हम सुख मायारुपी संसार में रंग-रूप-स्पर्श में खोजते हैं और सुख और आनंद हमें स्वयं हमारे भीतर अंतरात्मा में मिलेगा ।
649. जो हर जगह हैं वे परमात्मा हैं और जो उस तत्व का अंश हमारे भीतर है वह जीवात्मा है ।
650. प्रभु से जीवात्मा भिन्न है, यह कल्पना माया हमेशा करवा देती है ।
651. हमारे सामने सांसारिक प्रपंच के खेल को निर्माण करने वाली परमात्मा की शक्ति का नाम है माया ।
652. जैसे फिल्म में परदे पर हमें आग दिखती है और हम डर जाते हैं पर परदे पर दिखने वाला पानी न प्यास बुझा सकता है, न ही हमें बहा कर ले जा सकता है वैसे ही प्रभु की मायारूपी पर्दे पर हमें दृश्य दिखते रहते हैं ।
653. माया से मुक्त हो पाता है कुछ मात्रा में ज्ञानी और पूरी मात्रा में सिर्फ भक्त ।
654. आपदा घटनाएं जैसे सुनामी, भूकंप इत्यादि बीच-बीच में होते हैं यह बताने हेतु कि संसार नाशवान है । भक्त इस संकेत को समझता है कि संसार नाशवान है और प्रभु ही एकमात्र सत्य हैं ।
655. संसार की नश्वरता को कभी भूलना नहीं चाहिए ।
656. श्री गरुड़ पुराणजी का एक उद्धार करने वाला श्लोक कहता है कि सबके शरीर अनित्य हैं, हमारा सारा वैभव शाश्वत नहीं है, मौत कब गला दबा देगी पता नहीं । तो क्या करना चाहिए - प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
657. शक्ति का नाश कभी नहीं होता, शक्ति का रूपांतरण होता रहता है- यह श्री योगवशिष्ठजी का सिद्धांत है ।
658. भक्तों का प्रलय से पहले स्थानांतरण हो जाता है प्रभु के लोक में और वे मुक्त हो जाते हैं – इसे क्रम-मुक्ति कहा गया है ।
659. जीवात्मा अपने कर्मरूपी बीज के साथ वापस जन्मते हैं जैसे वर्षा ऋतु में सब हरा-भरा, गर्मी में तपकर पतझड़, बीज भूमि में फिर एकरूप हुआ, फिर वर्षा हुई और बिना प्रयास के बीज उग जाते हैं ।
660. प्रभु के रहस्यों को न वैज्ञानिक, न दार्शनिक समझ पाए हैं । वही समझेगा और संसार सागर से छूटेगा जिनको प्रभु चाहते हैं और ऐसे केवल भक्त ही होते हैं ।
661. श्री देवी भागवतजी में अनंत श्री ब्रह्मलोक, अनंत श्री विष्णुलोक के दर्शन हैं । प्रभु इतने व्यापक हैं कि सृष्टि में असंख्य रूपों में एक साथ व्याप्त हैं ।
662. कितना भी साधन करो, आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे जब तक प्रभु पर्दा नहीं हटाएंगे, तब तक आप प्रभु से एकरूप नहीं हो पाएंगे ।
663. प्रभु अपनी योग माया को महाब्रह्म की संज्ञा देते हैं ।
664. प्रभु की योग माया एक कला है, एक शक्ति है और हमारी दृष्टि के लिए परम आश्चर्य का विषय है ।
665. योग माया के जादूगर यानी प्रभु से परिचय कर लेना चाहिए तो जादू खत्म हो जाता है । जैसे हम जादूगर से पूछते हैं कि इतना सुंदर जादू वह कैसे कर लेता है तो जादूगर प्रेम से बस अपने रहस्य खोल देता है और हमें लगता है कि इतना आश्चर्य वाला जादू इतना सरल था । प्रभु भी भक्त के सामने अपने रहस्य खोलते हैं ।
666. जादूगर प्रभु से प्रेम करना यानी भक्ति करनी चाहिए । प्रभु श्री ब्रह्माजी भी अगर भक्ति नहीं करेगें तो प्रभु उन्हें भी अपना रहस्य नहीं बताएंगे ।
667. प्रभु की भक्ति नहीं करने पर प्रभु श्री ब्रह्माजी को भी मुक्ति नहीं तो संसार के लोगों को मुक्ति कैसे मिल सकती है ? सिर्फ भक्ति से ही यह संभव है ।
668. जितना भी ऊँचे पद पर जाकर भी भक्ति नहीं की तो वहाँ से पतित होकर गिरना ही पड़ेगा ।
669. जिसने प्रभु की भक्ति की उसका पतन कदापि नहीं हो सकता । ज्ञानी का पतन संभव, योगी का पतन संभव पर भक्त का पतन कतई संभव नहीं है ।
670. भक्त के साथ संरक्षण हेतु प्रभु होते हैं । प्रभु भक्त का हाथ पकड़कर रखते हैं इसलिए उसे कभी गिरने नहीं देते ।
671. सभी संप्रदाय प्रभु के बगीचे के पौधे हैं । सभी संप्रदाय का आदर करना चाहिए और प्रभु की आराधना के लिए जहाँ जो अच्छा है वहाँ से वह ग्रहण करना चाहिए । संत श्री गुलाबरावजी कहते थे कि भंवर की तरह बगीचे से चुन-चुनकर अच्छा रस पी लेना चाहिए ।
672. कुछ भी, कहीं से भी ग्रहण करना चाहिए पर भक्ति का कभी त्याग नहीं करना चाहिए । जीवन में प्रभु के सगुण साकार रूप को कभी नहीं भूलना चाहिए । भक्ति का त्याग कभी भी, किसी भी सूरत में नहीं करना चाहिए । उदाहरण स्वरूप संत श्री कबीरदासजी की सब बात सही मानें पर प्रभु के सगुण साकार रूप की मूर्ति पूजा का विरोध कभी नहीं स्वीकार करें ।
673. प्रभु की उँगली जीवन में कभी नहीं छोड़नी चाहिए और सदैव पकड़कर रखनी चाहिए ।
674. भक्ति की जाए तो जीवन में निश्चित रहें क्योंकि प्रभु हमेशा संरक्षण करते रहेंगे ।
675. श्री पतंजलिजी ने कहा है कि योगमार्ग भी भक्तियुक्त होना श्रेष्ठ है क्योंकि इतनी अड़चन है कि प्रभु संभालने हेतु नहीं होंगे तो योगमार्ग से भ्रष्ट होने में देर नहीं लगेगी ।
676. हम कृतज्ञ होंगे तो प्रभु को हमें अधिक देने का मन करेगा । हम कृतघ्न होंगे तो प्रभु कम देंगे । हम कृतज्ञ होंगे तो प्रभु सोचेंगे कि इसे और अधिक देना चाहिए ।
677. प्रभु, जो भी हूँ और जहाँ तक भी भक्ति मार्ग पर पहुँचा हूँ, आपकी कृपा से ही पहुँचा हूँ - यह भाव हमारे भीतर होना चाहिए ।
678. प्रभु का हम स्मरण करने लगते हैं तो प्रभु हमारा संरक्षण करने लगते हैं और हम जीवन में निश्‍चिंत हो जाते हैं ।
679. भक्त के जीवन में प्रभु विघ्न आने नहीं देते । प्रभु भक्त के सहायक बन जाते हैं ।
680. प्रलय में कुछ नष्ट नहीं होता, अव्यक्त हो जाता है, ढक जाता है ।
681. बच्चों का जैसे खेल चलता है वैसे ही माया का खेल भी चलता है । बच्चे मिट्टी का महल बनाते हैं फिर खेलते हैं ऐसे ही माया जगत बनाती है और खेलती है ।
682. जैसे हम अपनी छाया को साथ लाना नहीं भूलते, वह हमारे साथ रहती है वैसे ही प्रभु के साथ जो छाया है वही माया है ।
683. माया को पोषण कहाँ से मिलता है ? हम कल्पना में रमते हैं और माया की दलदल में फंसते हैं और हम माया को पोषण देते हैं । प्रभु से दूर हुए तो हम माया में फंसते हैं - यह सिद्धांत है ।
684. कल्पना कहाँ निर्माण होती है ? हमारे मन में । मन प्रभु में लगाने से मन जड़ से चेतन होता जाएगा । हम दृश्य में फंसते तो जड़ बनते हैं और अधोगति को प्राप्त होते हैं । जितना दृश्य से छूटकर दृष्टा प्रभु में रमेंगे उतनी हमारी चेतना उन्नति को प्राप्त करेगी ।
685. हमारा मन 90 प्रतिशत जड़ और 10 प्रतिशत चेतन है । भक्ति साधन किया तो चेतन का प्रतिशत बढ़ता जाएगा और प्रभु से एकाकार होकर 90 प्रतिशत चेतन हो जाएगा और शरीर है इसलिए 10 प्रतिशत ही जड़ तत्व बचेगा ।
686. कल्पना हमें बांधती है, जिसने कल्पना करना बंद कर दिया वह बंधन से छूट जाता है ।
687. माया हमारी कल्पना से बहुत बड़ी और प्रबल होती है ।
688. कोई इस माया को पार नहीं कर सकता सिर्फ भक्ति के बल पर ही ऐसा संभव है ।
689. श्रीमद् भागवतजी महापुराण सामान्य लोगों के ऊपर केंद्रित श्रीग्रंथ है कि सामान्य लोग कैसे तरेंगे उसका उपाय इसमें बताया गया है ।
690. श्री मधुसूदन सरस्वतीजी ने अद्वैत-सिद्धि ग्रंथ लिखा जिसको साधन हेतु श्रेष्ठ माना पर इतना कठिन कि पढ़ने मात्र में भी असंभव, समझना एकदम असंभव । उसको लिखने वाले श्री मधुसूदन सरस्वतीजी ने अंत में लिखा कि सब छोड़ो, सब साधन छोड़ो, सिर्फ प्रभु की भक्ति करो ।
691. विद्वानों के ग्रंथ एक अलग बात और आत्म-साक्षात्कार युक्त ऋषियों और संतों के श्रीग्रंथ एक और बात है, जो श्रेष्ठ होते हैं ।
692. योग समाधि में जो विषय हम चिंतन करते हैं वह विषय अपने रहस्य खोलकर समाधि में उस योगी के ध्यान में आ जाते हैं ।
693. प्रभु श्री वेदव्यासजी समाधि में गए तो प्रभु के सभी अवतारों की श्रीलीलाएं देखने लगे । इसलिए संतों ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण को प्रभु श्री वेदव्यासजी की समाधि-ग्रंथ माना है । श्रेष्ठतम ज्ञान समाधि से ही मिलता है - यह भारतीय सिद्धांत है ।
694. प्रज्ञा-चक्षु श्री सूरदासजी ने जो पद लिखे वह भक्ति साहित्य के श्रेष्ठतम बन गए । दस श्रेष्ठ कवि भी मिलकर वह नहीं लिख सकते जो भक्त श्री सूरदासजी ने लिख दिया ।
695. संत श्री गुलाबरावजी के भी नेत्र नहीं थे, वे प्रज्ञा-चक्षु के कारण जो ग्रंथ उन्होंने मुँह से बोले वे सभी अमूल्य हैं । उन्होंने श्री वेदजी कभी नहीं पढ़ा क्योंकि आँखें नहीं थी । स्कूल सात दिन के लिए मात्र गए । फिर भी वेदांत पर जो लिखा हुआ अद्वितीय है । संत श्री ज्ञानेश्वरजी की वे कृपा मानते थे कि वह सभी श्रीग्रंथ उनके सामने प्रकट हो गए और उनमें समा गए ।
696. श्रीग्रंथ को पढ़कर उसके ऊपर बोलना एक बात पर श्रीग्रंथ को कभी पढ़ा नहीं उसका ज्ञान हमारी वाणी पर आ जाए, ऐसा आत्म-समर्पण युक्त संत हमारे यहाँ हुए हैं ।
697. विज्ञान समझ के, प्रयोग करके आगे बढ़ता है पर आत्मज्ञान की खोज सिर्फ ध्यान से होती है ।
698. आँखें खोलकर देखने से उतना ज्ञान नहीं मिलेगा जितना आँखें बंद करके ध्यान में मिलेगा । आँखें बंद की तो वह एक ध्यान समाधि में हमें ले जाता है जहाँ कभी किसी संशोधन की जरूरत नहीं पड़ती । जो ज्ञान समाधि से प्राप्त होता है उसे कभी भूलने की संभावना नहीं । श्री वेदजी, श्री उपनिषदजी और श्री ज्ञानेश्वरजी में जो लिख दिया वह आत्म-समाधि में ही लिखा है ।
699. अगर कोई सिद्धांत या बात श्रीग्रंथ की समझ में नहीं आए तो यह मानना चाहिए कि अभी इनको समझने की परिपक्वता हमारे में नहीं आई है । श्रीग्रंथ की बात पर कभी भी संदेह या संशय नहीं करना चाहिए ।
700. आजीवन एक ही श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण श्री ठाकुरजी को रिझाने हेतु पर्याप्त है । जीवन को कृतज्ञ करने हेतु पर्याप्त है । ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने पूरा जीवन लगा दिया श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण में ।
701. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को वही जान पाएगा जिसने प्रभु से निष्काम प्रेम किया हो ।
702. ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने पूरा जीवन श्रीमद् भागवतजी महापुराण में लगा दिया और एक भी भागवत सप्ताह नहीं किया क्योंकि ऐसा करने से वे उस गहराई में नहीं उतर पाते और व्यावसायिक हो जाते ।
703. जैसे हम पुल से नदी पार करके जाते हैं वैसे ही हम लोग जब श्रीमद् भागवतजी महापुराण सुनते हैं तो संत नदी की गहराई में उतरते हैं और वह हमारे लिए पुल बन जाते हैं । हम तो संतरूपी पुल से पार हो जाते हैं पर संत श्रीमद् भागवतजी महापुराण की तह में जाकर सच्ची गहराई में उतरने का प्रयास करते हैं ।
704. भक्ति का एक ऐसा श्रीग्रंथ निर्माण हो गया जो अद्वितीय है और ऐसा और कोई भी नहीं है और वह है श्रीमद् भागवतजी महापुराण ।
705. भूतकाल का शोक, भविष्य का भय, वर्तमान का मोह यह तीनों दुःखों से छूटने का एक उपाय भक्ति है और भक्ति का शिरोमणि श्रीग्रंथ श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
706. पूरे भारत के हर प्रांत में जो भी संत हुए हैं उनकी भक्ति को जन्म देने वाला एक ही श्रीग्रंथ है - श्रीमद् भागवतजी महापुराण ।
707. प्रभु श्री शुकदेवजी को स्त्री-पुरुष का भेद नहीं दिखता सिर्फ प्रभु श्री नारायणजी ही सर्वत्र दिखते थे । प्रभु ने कौन-सा स्त्री-पुरुष का रूप धारण किया यह प्रभु श्री शुकदेवजी नहीं देखते । वे सिर्फ हर रूप में प्रभु को देखते थे इसलिए स्वर्ग की अप्सराओं ने उन्हें देखकर यह बात प्रभु श्री वेदव्यासजी से कही ।
708. सारे चराचर में भक्त प्रभु की छवि को ही देखते हैं ।
709. प्रभु श्री शुकदेवजी इतने महान कि उनकी तरफ से हुंकार भरके जवाब वृक्ष देते थे जब प्रभु श्री वेदव्यासजी उन्हें पुकारते थे ।
710. संत श्री ज्ञानेश्वरजी से मिलने जब एक योगी श्री चांगदेवजी शेर पर बैठकर आए और साँप को चाबुक बनाकर लाए । उनका स्वागत करने के लिए संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने दीवार को चलने का आदेश दिया, दीवार चली तो योगी श्री चांगदेवजी पानी-पानी हो गए कि मैंने तो चेतन शेर और साँप को अधीन किया था पर संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने जड़ दीवार को भी अपने अधीन कर लिया है । इतनी प्रज्ञा तो सिर्फ प्रभु की भक्ति से ही संभव हो सकती है ।
711. प्रभु श्री शुकदेवजी पहले निर्गुण में निष्ठावान थे । पर श्रीमद् भागवतजी महापुराण सुनने के बाद और उसमें प्रभु के सगुण साकार रूप का चित्रण सुनकर उन्हें लौटकर अपने पिता प्रभु श्री वेदव्यासजी के पास आना पड़ा और फिर सगुण साकार प्रभु भक्ति में जीवन भर के लिए डूब गए ।
712. प्रभु की बांसुरी वन में बजती तो श्रीगोपीजन गाँव में व्याकुल हो जातीं थीं ।
713. जीवन में प्रभु के सामने भजन गाना और भक्तों के पद गुनगुनाना सीखना चाहिए, कोई ढोलक-ताल की जरूरत नहीं है ।
714. आध्यात्मिक ज्ञानी प्रवचन से नहीं होते, निसंकल्प होने से होते हैं ।
715. निसंकल्प भक्त के कभी कोई सात्विक संकल्प उठते हैं तो प्रभु उसे तत्काल पूरा करते हैं । उदाहरण स्वरूप प्रभु श्री शुकदेवजी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण का एक श्लोक सुना और जिस रूप में वहाँ प्रभु श्री कृष्णजी का वर्णन था उनके मन के संकल्प उठा प्रभु को देखने का और प्रभु उस रूप में प्रकट हो गए ।
716. प्रभु के अंग-प्रत्यंग से केवल माधुर्य और मांगल्य झलकता है ।
717. संसार का सौंदर्य भक्तों को कभी प्रभावित नहीं करता क्योंकि वह क्षणभंगुर होता है । भक्त सिर्फ प्रभु के सौंदर्य से ही रीझता है ।
718. श्री प्रभु नित्य हैं । प्रभु थे, प्रभु हैं और प्रभु ही रहेंगे । प्रभु इतिहास के विषय नहीं हैं ।
719. अगर संसार सुंदर लगता हो तो वह भक्त नहीं है क्योंकि भक्त को सिर्फ प्रभु ही सुंदर लगते हैं ।
720. भक्ति नहीं होने के कारण ही संसार हमें लुभावना लगने लगता है ।
721. बहुत सारा मिष्ठान परोसा हुआ है और बड़ी भूख लगी है पर पहले ग्रास में एक मक्खी पेट में चली गई तो भोजन से तुरंत प्रीति हट जाती है । वैसे ही भक्त की संसार से प्रीति हट जाती है ।
722. भक्त को सांसारिक भोगों में रुचि ही नहीं होती ।
723. प्रभु प्रकट हुए तो प्रभु श्री शुकदेवजी उनका सौंदर्य देखकर बेहाल हो गए, फिर प्रभु मुस्कुरा दिए तो प्रभु श्री शुकदेवजी सम्मोहित हो गए ।
724. प्रभु अगर किसी भक्त को देखकर मुस्कुरा दें तो वह भक्त सम्मोहित हो जाता है, ऐसा प्रभु के सौंदर्य का जादू है ।
725. एक ज्ञानी कर्मकांडी पंडित थे पर भक्त नहीं थे । गांव में रासलीला आई, रासलीला के श्री ठाकुरजी को देखकर वे बेहाल हो गए और ब्रजभूमि श्री गिरिराजजी में अपना पूरा जीवन बिता दिया । प्रभु के श्रेष्ठ भक्त बने । अधिकारी भक्त बने । प्रभु के नित्य श्रीरास में शामिल होने लगे ।
726. प्रभु भक्त को देखकर मुस्कुरा देते हैं तो भक्त प्रेम में सम्मोहित हो जाते हैं - यह शाश्वत सिद्धांत है ।
727. एक समय था जब प्रभु श्री वेदव्यासजी पीछा कर रहे थे और प्रभु श्री शुकदेवजी दौड़ रहे थे और पीछे मुड़कर देख नहीं रहे थे । पर प्रभु के माधुर्य का दो श्लोकों में दर्शन पाकर प्रभु श्री शुकदेवजी अब दौड़ रहे हैं अपने पिताजी के पास पूरा श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु की श्रीलीला सुनने हेतु । इतना सम्मोहन श्रीमद् भागवतजी महापुराण का उन पर हुआ ।
728. भक्ति का सही-सही रसास्वादन वही कर सकता है जो भौतिकता के धरातल से ऊपर उठ गया है ।
729. जो संसार से चिपका है श्रीमद् भागवतजी महापुराण उसके सामने स्वयं को खोलने वाला श्रीग्रंथ नहीं है ।
730. स्वेच्छा से कुछ भी नहीं करते थे प्रभु श्री शुकदेवजी । प्रभु इच्छा में विलीन होकर रहते थे, प्रभु जिधर ले जाते थे वे चले जाते थे, प्रभु जब बोलने की प्रेरणा देते थे तभी वे बोलते थे ।
731. एक गौ-माता को दुहकर एक कटोरा दूध पीने में जितना समय लगता था उतना समय संसार के साथ संपर्क प्रभु श्री शुकदेवजी रखते थे ।
732. श्री महाभारत के युद्ध में 16 अक्षौहिणी सेना लड़ी यानी 39 लाख सेना लड़ी जिसमें से पांच पांडव प्रभु की असीम कृपा से बचे और कौरवों का पूरा विध्वंस हो गया ।
733. जब तक श्री भीष्म पितामह सेनापति थे दस दिनों तक कोई भी नियम नहीं टूटा । फिर इतने नियम टूटे और टूटते ही चले गए । युद्ध में एक सच्चे सेनापति की योग्यता क्या होती है यह यहाँ देखने को मिलता है ।
734. एक-एक योद्धा की सही समीक्षा प्रभु श्री कृष्णजी ने श्री महाभारत युद्ध में की थी ।
735. भगवती द्रौपदीजी के अत्याचार पर बड़े होकर चुप रहे इसलिए दंड के अधिकारी हुए श्री भीष्म पितामह । युद्ध में प्रभु ने अपराध समीक्षा में श्री भीष्म पितामह को इस प्रकार देखा ।
736. बचाने के लिए प्रभु होते तो मारने की सारी शक्तियां निरर्थक और निष्क्रिय हो जाती है । इसलिए प्रभु का भजन करना चाहिए और प्रभु को अनुकूल रखना चाहिए जैसे पांडवों ने रखा था ।
737. हमारे भीतर भी भिन्न-भिन्न शक्तियों का जागरण भिन्न-भिन्न समय प्रभु कृपा से होता रहता है ।
738. पात्रता से श्री अर्जुनजी को वह ज्ञान भी मिला जो गुरु श्री द्रोणाचार्यजी अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी पात्रता नहीं होने के कारण नहीं दे पाए ।
739. जो पति से सत्कर्म करवाती है वही धर्मपत्नी कहलाने योग्य है ।
740. उत्तम पुरुष के सम्मान का नाश ही उनके मृत्यु तुल्य होता है ।
741. जो समय पर धर्म का पालन करता है उस पर विपत्ति आने पर धर्म भी उनकी रक्षा करता है । भगवती द्रौपदीजी हर बात धर्मयुक्त सोचती थी इसलिए प्रभु की सोच से सबसे नजदीक सोच किसी की थी तो वह भगवती द्रौपदीजी की ही थी ।
742. मृत्यु के समीप आने पर सभी के हृदय में धर्म का उदय होता है । दुर्योधन को जब मृत्यु अवस्था में अश्वत्थामा ने कहा कि मैंने भगवती उत्तरा के गर्भ में ब्रह्मास्त्र चला दिया है तो दुर्योधन ने उसे धिक्कारा । हमें धर्म का उदय पहले ही कर लेना चाहिए ।
743. वंश बचाने हेतु भगवती कुंती माता प्रभु को याद करती हैं । ब्रह्मास्त्र के तेज से गर्भ में पांडव वंशज नष्ट होने वाला था, कोई पांडव के पास कोई बचाने हेतु साधन नहीं था । प्रभु का भक्त परीक्षितजी को गर्भ के भीतर जन्म से पहले प्रभु ने गर्भ में प्रवेश कर ब्रह्मास्त्र के तेज को नष्ट किया । धन्य है श्री परीक्षितजी जिन्हें माता के गर्भ में ही प्रभु के दर्शन हो गए ।
744. परमहंस महात्माओं को भक्ति का रसास्वादन करने हेतु प्रभु धराधाम में पधारते हैं ।
745. जब-जब संकट आते हैं भक्तों को संकट से बाहर निकालने हेतु प्रभु हमारे समीप आते हैं । इसलिए प्रभु के पास रखने के लिए संकट स्वीकार करती है, संकट मांगती है भगवती कुंती माता । प्रभु सानिध्य पाने हेतु वे संकट मांगती है ।
746. प्रभु चाहते हैं तब स्वयं को भक्त के सामने प्रकट करते हैं और जब चाहते हैं माया का पर्दा डालकर लुप्त हो जाते हैं । प्रभु ने भगवती यशोदा माता को अपने श्रीमुख में ब्रह्मांड दिखाया और फिर माया का प्रभाव डाला तो माता सब भूल गई । प्रभु ऐसा नहीं करते तो भगवती यशोदा माता प्रभु को मंदिर में बैठाकर पूजा करती, ऊखल से कैसे बांधती, सभी बाल लीलाएं साकार कैसे होती ?
747. एक माया प्रभु को भी मोहित कर देती है वह है स्व-मोहिनी माया जिसका नाम भगवती राधा माता है । प्रभु भी हे राधे, हे राधे, हे राधे कहकर मोहित हो जाते हैं ।
748. भक्त प्रभु का ध्यान करते हैं और प्रभु भी भक्त का ध्यान करते हैं । श्री युधिष्ठिरजी को प्रभु ने कहा कि मैं मेरे परम भक्त भीष्म पितामह का ध्यान कर रहा हूँ जो बाणों की शय्या पर लेटे मेरा ध्यान कर रहे हैं ।
749. भक्ति में ध्यान का आदान-प्रदान होता है । भक्त प्रभु का और प्रभु भक्त का ध्यान करते हैं । यह भक्ति योग को छोड़ अन्य किसी योग में नहीं मिलेगा ।
750. प्रभु ने स्वयं ज्ञान का उपदेश श्री युधिष्ठिरजी को नहीं दिया और अपने प्रिय भक्त श्री भीष्म पितामह को यह मान दिलाया कि दुनिया देखे कि मेरा भक्त कितना ज्ञानी है, मेरा भक्त कितना महान है । भक्त को सदैव प्रभु ऊँचाई प्रदान करते हैं ।
751. हमारे भी अंतःकरण में चुभे वेदना के बाण भी हमें चुभन नहीं देंगे जब हम प्रभु को याद करेंगे । पर हम उन वेदना के बाण को याद करते हैं, प्रभु को याद नहीं करते । हम उल्टा करते हैं याद करना चाहिए प्रभु को और हम याद करते हैं वेदना के बाणों को । प्रभु को जब श्री भीष्म पितामह ने अपनी चुभने वाले बाणों के बारे में कहा तो प्रभु ने एक कृपा दृष्टि डाली और श्री भीष्म पितामह की पूरी चुभन ही समाप्त हो गई ।
752. माया एक ऐसा इंद्रजाल बनाती है जो प्रतीत तो होता है, अनुभव तो होता है पर पकड़ने जाएं तो कुछ भी नहीं मिलेगा, मात्र भ्रम ही होगा ।
753. अंधेरा हो तो जलती हुई अगरबत्ती को लेकर हमें अग्नि का बिंदु दिखेगा पर उसे वेग से घुमाए तो वह चक्र दिखेगा जो है नहीं पर भ्रम पैदा किया क्योंकि वेग के कारण चक्र का आकार हमें दिखता है । सारा संसार इसी तरह प्रभु की माया का खड़ा किया हुआ और हमारी वासनाओं के कारण बढ़ा हुआ मायाजाल है ।
754. जानते हुए भी हम माया से छूटना नहीं चाहते, यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
755. माया से छूटने के लिए भक्ति की विशेष तैयारी चाहिए । इसलिए सामान्य व्यक्ति माया के प्रभाव से नहीं छूट पाते ।
756. सोए हुए व्यक्ति को कौन जगा सकता है ? जो पहले से जगा हुआ है । वैसे ही माया से बाहर निकलने का उपाय संत, जो माया से बाहर निकल चुके हैं, वे ही बता सकते हैं ।
757. रात दिन हम कर्म करते रहते हैं । कर्म का उद्देश्य एक ही होता है - सुख पाना । हमें थोड़ा-सा सुख मिलता है पर हम उसके साथ बहुत सारा दुःख का भार भी ले लेते हैं । जिस सुख को हम पकड़ना चाहते हैं वह हमसे दूर भागता है, जिस दुःख से हम बचना चाहते हैं वह हमारी झोली में टपक जाता है ।
758. राई जितना सुख और पर्वत जितना दुःख हमें संसार में मिलता रहता है, इसलिए तो संसार का एक नाम दुखालय है ।
759. हम शब्द, स्पर्श, रूप, गंध के माध्यम से सुख प्राप्त करके इंद्रियों को सुख पहुँचाते हैं । पर सत्य यह है कि जितना विषयों के पीछे सुख के लिए जाएंगे उतना ही दुःख पाएंगे - यह शाश्वत सिद्धांत है ।
760. विषयों के पीछे भागने से सुख की झलक तो मिलती है पर हमें दुःख के गड्ढे में गिरना पड़ता है ।
761. कोई हँस-हँस कर जीवन जीता है तो कोई रो-रो कर जीवन जीता है । पर भक्त आनंद और परमानंद में जीवन जीता है ।
762. जो गिरकर फिर संभल जाए उसे ही सच्चा इंसान कहते हैं – यह शास्त्र मत है । गिरना पाप नहीं है पर गिरकर नहीं संभलना पाप है ।
763. पांच विषयों के सेवन में सुख की प्राप्ति यह उद्देश्य हमने बना लिया और पांच विषयों को सुख देने हेतु धन कमाने का कर्म हमने बना लिया । यही हमारा जीवन रह गया और प्रभु प्राप्ति, जो मानव जीवन का उद्देश्य है, उससे हम दूर हो गए ।
764. हम मानने लगते हैं कि धन कमाने से हम सुख बटोर रहे हैं पर सत्य यह है कि दुःख के साधन बटोर रहे हैं । धन में बहुत सारे दोष लगे हुए हैं । धन को कमाने के चिंतन में कष्ट, धन कमाने में कष्ट, धन नहीं मिला तो कष्ट, धन मिल गया तो संरक्षण हेतु कष्ट ।
765. हमारी भी कितनी ग्रंथियां, कितनी उलझने हैं कि कौन कब, किस कारण हमसे नाराज हो जाए पता नहीं चलता । इसलिए संसार को खुश रखने का प्रयास नहीं करके प्रभु को प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए ।
766. धन पहले आधि यानी मानस रोग निर्माण करता है फिर व्याधि शरीर के रोग निर्माण करता है । बाहर के जंतु से रोग होते हैं - यह गलत है । मन के विकार से ही रोग होते हैं । मन में कुविचार आया तो वह रोग निर्माण करता है । यह योग-वसिष्ठ का सिद्धांत है ।
767. श्री काकभुशुण्डिजी महाराज ने ऋषि श्री वशिष्ठजी को दीर्घायु का रहस्य बताया कि (1) मैंने किसी से बैर नहीं किया (2) किसी से द्वेष नहीं किया (3) किसी की वस्तु छीन कर छू लूं ऐसा विचार नहीं आया (4) जिसने मुझे कष्ट दिया उसे मैंने तुरंत क्षमा कर दिया (5) धन से दूर रहकर मानस रोग निर्माण नहीं होने दिया ।
768. किस विकार के कारण कौन-सा रोग होता है यह सिद्ध करने के लिए आयुर्वेद का सिद्धांत है कि व्याधि का मूल आधि यानी शरीर रोग का मूल मानसिक रोग है ।
769. एक कवि हिमालय में गया तो उसे लगा कि कितना सुंदर है कविता लिखने हेतु । एक साधक हिमालय गया तो उसे लगा कि साधन के लिए कितना सुंदर स्थान है । एक धन कमाने वाला हिमालय गया तो वह सोचा कि यहाँ तो मुफ्त बर्फ है तो मैं यहाँ बर्फ की एक फैक्ट्री डाल सकता हूँ क्योंकि उसका चिंतन धन कमाने का था । सूत्र यह है कि जिनके पास अथाह धन है वह चिंता-रहित हो ही नहीं सकते ।
770. जिसके पास कोई सामान नहीं है वह ट्रेन में सुख से सोता है जिसके पास धन है वह रात में ट्रेन में भी नहीं सो पाता ।
771. द्रव्य यानी धन के कारण आधि, व्याधि, क्रोध, चिंता सब होती रहती है – यह शास्त्र मत है ।
772. धनी के दृष्टि में दान भी व्यापार होता है । दान करके क्या फल मिलेगा – वे दान नहीं बल्कि उसे एक निवेश मानते हैं । उनकी सोच होती है कि दिए हुए दान से परलोक में पुण्य मिलेगा क्या ?
773. धन जीव की मृत्यु का कारण भी बनता है । धन के लालच में लोग एक दूसरे को मार भी देते हैं ।
774. धन वालों को अपने बेटों से भी डर होता है - यह श्री महाभारतजी का सूत्र है ।
775. जो वस्तु स्वयं चल है, नाशवान है, क्षणभंगुर है, वह धन कभी हमें शाश्वत सुख कैसे दे सकती है - यह सूत्र है ।
776. धन से पुण्य किया, स्वर्ग गए तो स्वर्ग भी नश्वर है । वहाँ स्वर्ग में भी विकार है बस भोग सुंदर हैं और भोग नष्ट होने वाले हैं । इसलिए भ्रांति में नहीं रहना चाहिए कि स्वर्ग जाकर हम अखंड सुख प्राप्त कर सकते हैं । स्वर्ग का सुख सीमित समय के लिए है, नित्य सुख का साधन स्वर्ग कभी नहीं हो सकता । नित्य परमानंद तो केवल प्रभु के परमधाम में ही है जहाँ जाने का साधन धन नहीं बल्कि भक्ति है ।
777. धर्म कभी धन का निषेध नहीं करता है । पर धर्म यह बताना चाहता है कि अखंड सुख का साधन धन नहीं है । अखंड सुख का श्रेष्ठतम साधन प्रभु के श्रीकमलचरणों की अखंड भक्ति और शरणागति है ।
778. व्यवहारिक और लौकिक व्यवहार के लिए विद्या सीखना चाहिए पर परमार्थ के लिए अध्यात्मिक विद्या जरूर सीखनी चाहिए ।
779. अगर लौकिक कार्य सही समय पर कुशलता से कर लिया तो उतना परमार्थ आपका अच्छा होगा । हम परमार्थ अच्छा कर पाएंगे क्योंकि हम लौकिक कर्म से निवृत्त हो गए ।
780. परमात्मा की भक्ति के लिए शरीर को स्वस्थ रखना बहुत जरूरी क्योंकि हमारी एकाग्रता तभी भटकेगी नहीं । नहीं तो दर्द, घाव, पीड़ा शरीर में होती है तो चित्त एकाग्र नहीं रख पाएंगे ।
781. जिसने सांसारिक व्यवहार कुशलता से कर लिया वह परमार्थ भी सफलता से कर पाएगा क्योंकि सांसारिक व्यवहार की सफलता हमें परमार्थ में एकाग्रता देगी ।
782. कौन सद्गुरु है ? किसी ने श्री वेदजी या किसी ने शास्त्रीय किसी विद्या का अध्ययन किया तो वह सद्गुरु नहीं सिर्फ उस विषय का गुरु है । जैसे ज्योतिष पढ़ा तो वह ज्योतिष गुरु हुआ, सद्गुरु नहीं हुआ ।
783. प्राचीन काल में आध्यात्मिक पाठ पढ़ाने वाले के पास वित्त की बात होती ही नहीं थी । कथा को कभी वित्त से नहीं जोड़ा गया था, कथा का विक्रय नहीं किया जाता था । आध्यात्मिक पाठ पढ़ाने वाले कभी पढ़ाने के बदले पैसे का लालच नहीं रखते थे । कथा कहने वाले कभी रकम तय करके कथा नहीं कहते थे ।
784. जैसे गन्ने का रस निकालने वाली चक्की को मिठास कभी आकर्षित नहीं करती वैसे ही सद्गुरु वह जिसको प्राचीन समय में वित्त कभी आकर्षित नहीं करता था ।
785. सद्गुरु वही जिसकी वाणी और प्रवचन सुनकर हमारे हृदय में यह बात बैठ जाए कि प्रभु की प्राप्ति ही मेरे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए । जो हमें संसार की तरफ पीठ फिराकर प्रभु की तरफ अग्रसर कर दे - वही सच्चा सद्गुरु होता है ।
786. संत श्री गुलाबरावजी आँखें नहीं होने के कारण श्रीग्रंथ स्वयं पढ़ नहीं सकते थे तो किसी के पास भी जाते और आग्रह करते कि मुझे कुछ पढ़कर सुनाओ । सुनते-सुनते शास्त्रों का संस्कार उनमें आ गया । बाद में वे जिससे सुनते, उच्चारण वह करता पर उसका अर्थ संत श्री गुलाबरावजी तुरंत बता देते, इतनी प्रज्ञा उनकी खिल गई थी ।
787. सद्गुरु कैसा हो ? (1) शास्त्रों में पारंगत होना चाहिए क्योंकि तभी वह अपने शिष्य के अज्ञान को मिटा पाएगा (2) स्वयं साधन युक्त होना चाहिए यानी साधन करने वाला स्वयं होना चाहिए (3) साधन से प्रभु की अनुभूति जीवन में प्राप्त किया हुआ हो और परमानंद के बिंदु उसके जीवन में दिखते हो (4) अंतःकरण उसका शांत हो (5) करुणा से भरा हुआ होना चाहिए (6) शिष्यों के कल्याण हेतु निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए (7) धन का चिंतन जिसका स्वभाव न हो कि मुझे शिष्यों से कितनी दक्षिणा मिलेगी (8) शिष्य से सेवा करवाने का, पुजवाने का विचार नहीं हो (9) अपने शिष्यों को परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में आगे बढ़ाने वाला होना चाहिए ।
788. सद्गुरु कभी भोग और विषय का विचार नहीं करते, कुछ निवास व्यवस्था, भोजन, वस्त्र जो भी मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं । वे चिंतन और चर्चा करते हैं तो केवल प्रभु की ।
789. दूसरों को मेरे प्रति कर्तव्य, मुझे मेरा अधिकार नहीं लगना चाहिए ।
790. आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के बाद साधक की न जाति, न वर्ण, न भाषा होती है । सब जाति, सब वर्ण, सब भाषा उसकी बन जाती है ।
791. संसार का संबंध-विच्छेद अपने भीतर से करना आवश्यक है तभी हम भक्ति मार्ग में सफल होंगे ।
792. श्रीमद् भागवतजी महापुराण साधन की दृष्टि से ही पढ़नी चाहिए ।
793. कलाकार बनकर प्रभु का कीर्तन करेंगे तो भाव का नाश होगा इसलिए भक्त बनकर प्रभु का कीर्तन करना चाहिए ।
794. सद्गुरु से सिर्फ भगवत प्राप्ति का मार्ग जानना चाहिए । आज ज्योतिष का मार्ग जानने का ज्यादा प्रयास और प्रश्न होता है ।
795. आध्यात्मिक ज्ञान किसे प्राप्त होगा - जिसमें प्रभु हेतु परम भक्ति होगी ।
796. संसार से मन थोड़ा-थोड़ा निकाल कर रोजाना परमार्थ में लगाने का प्रयास करना चाहिए ।
797. सामान्य लोगों के प्रति भक्त के हृदय में दया का भाव होता है ।
798. सामान्य लोग साधन नहीं करते तो साधन करने वाले के मन में अहंकार नहीं होना चाहिए कि हम श्रेष्ठ हैं - यह गलत है । उन पर दया भाव होना चाहिए उनका उद्धार हेतु । हम जैसे गरीबों को देखकर दया करते हैं वैसे ही “साधन से गरीब” जो हैं, चाहे धन से बहुत धनी हों, पर साधन में गरीब उन पर दया भाव होना चाहिए । जो हमारे जैसा साधन मार्ग पर हैं उनके लिए हमारे मन में मैत्री भाव होना चाहिए और जो हमसे बड़े साधक हैं, संत हैं उनके प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए ।
799. साधन में सफल होने के लिए मन की शुद्धता होनी बहुत जरूरी है ।
800. पहले पूजा, फिर पेट-पूजा यह क्रम जीवन का होना चाहिए ।