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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 03

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष को नहीं बल्कि भक्ति को ही माना गया है ।
002. प्रभु मुक्ति देने में बहुत उदार हैं पर भक्ति देने में बहुत ही कंजूस हैं क्योंकि भक्ति से प्रभु भक्त के बंधन में आ जाते हैं ।
003. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी का यह सिद्धांत है कि भक्तिमाता महारानी हैं और मुक्ति उनकी दासी है ।
004. जब प्रभु प्रेम से अपने भक्त से मिलते हैं तो उस मिलन के बीच में आए हुए जीवों को प्रभु मुक्ति दे देते हैं जिससे प्रभु को अपने भक्त से प्रेम करने में बाधा नहीं आए । जैसे किसी हवाई अड्डे पर हम अपने बहुत प्रिय और प्रेमी मित्र के साथ मिल रहें हों और प्रेम से बातें कर रहें हों तभी एक भिखारी आ जाए तो हम बिना बहस किए ही उसे पैसे निकाल कर दे देते हैं जिससे हमारे मित्र के साथ प्रेम संवाद में कोई बाधा नहीं आए । वैसे ही प्रभु भक्ति के बीच में बाधा देने वाले संसारी जीवों को मुक्ति दे देते हैं जिससे प्रभु अपने भक्तों से प्रेम करते रहें और उसमें बाधा नहीं आए ।
005. जीवन की हर वृत्ति को प्रभु से जोड़कर, प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । जैसे डरना हो तो प्रभु से, मांगना हो तो प्रभु से, देना हो तो प्रभु को, याद करना हो तो प्रभु को, रूठना हो तो प्रभु से, मनाना हो तो प्रभु को, खेलना हो तो प्रभु के साथ यानी अपने जीवन की हर वृत्ति प्रभु से जोड़ देना चाहिए ।
006. मन में उठने वाले हर विचार के आधार प्रभु हो जाएं - यही भक्ति है ।
007. ढोंग भी करने की इच्छा हो तो वह भी प्रभु भक्ति का ही ढोंग करना चाहिए । एक पुलिसवाले ने एक डकैत को पकड़ने के लिए मंदिर में कुछ समय के लिए एक भक्त बनकर रहने का ढोंग किया पर वहाँ से वह सच्चा संत बनकर निकला । ढोंग किया भक्ति का और सच्चा भक्त बन गया, यह भक्ति का प्रभाव है ।
008. अपने लिए कभी अपना जीवन नहीं जीना चाहिए । प्रभु के लिए ही अपने जीवन को अर्पण करना चाहिए और प्रभु के लिए ही जीवन जीना चाहिए ।
009. रूठना हो तो प्रभु से ही रूठें क्योंकि रूठा भी अपनों से ही जाता है । संसार में केवल प्रभु ही अपने हैं, संसार तो पराया है । इसलिए संत कभी रूठें भी हैं तो प्रभु से ही रूठें हैं ।
010. यह सिद्धांत है कि सजातीय तत्व ही मिलता है । हम चेतन तत्व हैं और प्रभु चेतन हैं इसलिए हमारा मिलन प्रभु से ही हो सकता है । संसार जड़ है और हम चेतन तत्व हैं इसलिए हम कितना भी संसार से चिपकें पर संसार से हम कभी भी मिल नहीं पाएंगे ।
011. कभी भी, कितने ही जन्मों के बाद भी आखिर मिलना तो प्रभु से ही होगा क्योंकि वे ही हमारे मूल स्वरूप हैं । इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि इस मानव जन्म में ही ऐसा प्रयास किया जाए ।
012. संतों ने प्रभु से मुक्ति, धन, संपत्ति, परिवार कुछ नहीं मांगा । उन्होंने सदैव प्रभु से भक्ति ही मांगी है ।
013. संतों को मुक्ति का अधिकार प्राप्त होने के बाद भी वे जीवन में प्रभु की भक्ति ही करते रहते हैं ।
014. पूतना को मुक्ति मिल गई पर भक्ति नहीं मिली । मुक्ति के साथ भक्ति का अधिकार तो केवल भगवती यशोदा मैया को ही मिला ।
015. प्रभु के पास जाते ही प्रभु सबसे पहले हमारे भीतर की अश्रद्धा और अविद्या को हटा देते हैं ।
016. प्रभु के लिए उत्साह है तो प्रभु के लिए उत्सव मनाने की इच्छा स्वयं जीवन में आ जाएगी ।
017. अंतिम दिन, अंतिम क्षण तक प्रभु की भक्ति करता रहूँ, यह उत्साह भक्त में होता है ।
018. प्रभु भक्ति में ही सच्‍चा रस है, सच्‍चा आनंद है और सच्‍ची मौज है ।
019. जीवन का उत्थान करना हो तो जीवन को प्रभु भक्ति में ही लगाना होगा ।
020. भारतवर्ष प्रभु के उत्सव का देश है । इसलिए हर समय यहाँ प्रभु का उत्सव मनाया जाता है । हर समय देश के किसी-न-किसी कोने में किसी-न-किसी धर्म के निमित्त से प्रभु उत्सव मनता रहता है । यह भारतवर्ष का विशेष गौरव है ।
021. भगवती यशोदा माता ने गौरस को शकट के ऊपर रख कर प्रभु को उसके नीचे सुलाया और प्रभु ने शकट को ठोकर मारी । गौरस का मतलब हमारी पांच इंद्रियों का रस है । जब हम अपनी इंद्रियों को प्रभु से ऊँ‍चा स्थान देते हैं और प्रभु का स्थान नीचे कर देते हैं तो प्रभु को अच्छा नहीं लगता । जीवन में कभी पहले पेट फिर परमात्मा नहीं होने चाहिए । जीवन में सदैव और सदैव पहले परमात्मा ही होने चाहिए ।
022. पेट को भूख तब तक ही लगती है जब तक परमात्मा तत्व हमारे भीतर हैं । परमात्मा तत्व हमारे भीतर से निकल जाए तो पेट को फिर कभी भूख नहीं लगेगी । प्रभु हैं तभी तक हमारी मौज है, पेट को भूख लगती है, इंद्रियां काम करती हैं, बुद्धि विचार करती है, वाणी बोलती है और मन सोचता है । इसलिए प्रभु का स्थान जीवन में सदैव सबसे ऊँ‍चा होना चाहिए ।
023. हम शरीर का विचार तो करते हैं पर शरीर के भीतर बैठे प्रभु का विचार नहीं करते ।
024. प्रभु ही हम सबके आधार हैं । इसलिए जीवन में सबसे पहला ध्यान प्रभु का ही होना चाहिए ।
025. प्रारब्ध जब जीव को संकट की ठोकर मारता है तो अच्छे-से-अच्छे नास्तिक भी आस्तिक बन जाते हैं ।
026. एक भक्त ने प्रभु श्रीपांडुरंगजी का मंदिर बनाया और मुख्य द्वार पर प्रभु श्री शनिदेवजी का मंदिर बनाया । लोगों ने पूछा कि ऐसा क्यों किया तो वह बोला कि प्रभु श्रीपांडुरंगजी बहुत दयालु हैं इस कारण उनके पास कोई वैसे ही नहीं आएगा । प्रभु श्री शनिदेवजी दंड के देवता हैं इसलिए उनके पास दंड से बचने के लिए लोग याचना करने के लिए आएंगे तो साथ ही मेरे प्रभु श्रीपांडुरंगजी के भी दर्शन का लाभ ले लेंगे ।
027. सब कुछ करके थक जाने पर अंत में भगवान के पास ही आना पड़ता है ।
028. जिस दिन हमें जीवन में लगे कि अब भजन करना है, प्रभु की कथा सुननी है तो सच मानना कि अब हमारे पाप नष्ट होने आरंभ हो चुके हैं क्योंकि पाप नष्ट होने आरंभ नहीं हुए होते तो ऐसा मन बनता ही नहीं ।
029. जब जीवन में हम भजन करने लगते हैं तो बड़ी तीव्रता से हमारे संचित पापों का पहाड़ भी नष्ट होने लगता है ।
030. जब भजन जीवन में आए तो यह भाव आना चाहिए कि प्रभु ने अनुग्रह किया और भजन जीवन में आया । इसके लिए भी प्रभु को निर्विवाद रूप से धन्यवाद देना चाहिए ।
031. शरीर छूटने से पहले देह से हमारा ध्यान देही यानी भगवान में लग जाए तभी हमारा जीवन सफल होगा ।
032. जिनको प्रभु अपने पास बुलाना चाहते हैं, अपनी सेवा में लगाना चाहते हैं, उनके जीवन में प्रभु प्रतिकूलता भेजते हैं, उन्हें जीवन में झटका देते हैं जिससे वे प्रभु की तरफ मुड़ जाएं ।
033. संसार छूट जाए और प्रभु पकड़ में आ जाएं तो हमारा जीवन सार्थक हो जाता है ।
034. जीवन में प्रतिकूलता भेजकर प्रभु अपने प्रिय भक्‍त को भक्ति करने पर बाध्य कर देते हैं । यह प्रभु की उस भक्त पर असीम कृपा माननी चाहिए ।
035. भक्तों को कभी परनिंदा नहीं करनी चाहिए और दूसरों की बुराई नहीं देखनी चाहिए । दूसरे की बुराई देखने से वह बुराई सबसे पहले हमसे चिपक जाती है ।
036. सर्वत्र अपने इष्टदेव को ही देखें । किसी भी देवता में भेद नहीं करें कि ये बड़े हैं या ये छोटे हैं । सभी मेरे इष्टदेव हैं क्योंकि मेरे इष्टदेव के ही सभी बहुरूप हैं ।
037. शास्त्रों के प्रति कभी भी तनिक भी अश्रद्धा नहीं होनी चाहिए । कभी कोई शास्त्र का सिद्धांत समझ में नहीं आए तो यही मानना चाहिए कि यह हमारी बुद्धि की ही कमी है ।
038. जो श्रद्धापूर्वक प्रभु का नाम जप करेगा उसके पाप कटने निश्चित हैं । नाम जप सिर्फ संख्या के लिए और माला पूरी करने के लिए नहीं करना चाहिए । यह पर्याप्त नहीं है । प्रभु के नाम जप में अटूट श्रद्धा होनी जरूरी है तभी हमारे पाप कटेंगे ।
039. संसार ही नहीं पूरे ब्रह्माण्ड के आकर्षण के सबसे बड़े केंद्र प्रभु ही हैं ।
040. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का दशम स्कंध साधन से समाधि तक पहुँचने का संकेत देता है । भक्तों को प्रभु की हर श्रीलीला एक नया संकेत देती है ।
041. जब-जब हमारी बुद्धि प्रभु को छोड़ती है तब-तब हम संकट में फंस जाते हैं ।
042. तर्क से प्रभु की प्राप्ति कभी भी संभव नहीं है क्योंकि तर्क कभी भी प्रभु तक पहुँच ही नहीं सकता ।
043. प्रभु शुद्ध बुद्धि वालों के लिए ग्राही भी हैं और अशुद्ध बुद्धि वालों के लिए अग्राही भी हैं ।
044. कितनी भी बुद्धि चला लें तो भी प्रभु नहीं मिलेंगे क्योंकि प्रभु बुद्धि से नहीं बल्कि हृदय में भक्ति भाव होने पर मिलते हैं ।
045. प्रभु को लगना चाहिए कि मुझे इस भक्त से मिलना है तभी प्रभु उस भक्त से मिलते हैं । प्रभु को ऐसा तभी लगता है जब हमारे हृदय में पूर्ण भक्ति भाव होता है ।
046. प्रभु के लिए जीवन में परम भक्ति साकार हो जाए तो जीवन में प्रभु मिलन की अनुकूलता बन जाती है ।
047. हमारी बुद्धि जब भी प्रभु को छोड़कर अन्य कामों में लगती है तो हमारा रजोगुण और तमोगुण बढ़ जाता है ।
048. हमें स्वयं को घर और कारखाने का मालिक नहीं मानना चाहिए । घर और कारखाने के सच्चे मालिक प्रभु ही हैं ।
049. प्रभु को हम अपने से दूर कर लेते हैं तभी हमारा रजोगुण और तमोगुण बढ़ता है । इसलिए जीवन में जब भी रजोगुण और तमोगुण बढ़ा हुआ लगे तो प्रभु को भक्ति भाव से पुकारना चाहिए ।
050. प्रभु की वंदना का इतना प्रभाव है कि संत विनोद में यहाँ तक कहते हैं कि प्रभु की वंदना से परम स्वतंत्र प्रभु भी हमारे वश में हो जाते हैं ।
051. शांत चित्त से ही भक्ति का साधन हो सकता है ।
052. घर में कलह इसलिए होते हैं क्योंकि हमने श्री रामायणजी और श्री महाभारतजी को नहीं पढ़ा और न ही घर के सदस्यों को पढ़ाया ।
053. अंतःकरण से प्रभु को याद करने से जीवन के सारे कलह शांत हो जाते हैं ।
054. भगवती यशोदा माता के जीवन के दो ही उद्देश्य थे । बाल प्रभु से प्यार करना और बाल प्रभु की सेवा करना ।
055. जीवन में कभी भी प्रभु की विस्मृति नहीं होनी चाहिए ।
056. भक्तों को प्रभु अपनी अनुभूति भी देते हैं अपना आभास भी कराते रहते हैं ।
057. हमारी बुद्धि कभी भी निश्चित और पूर्ण रूप से प्रभु को समझ नहीं सकती क्योंकि प्रभु हमारी बुद्धि से परे हैं ।
058. प्रभु अखंड परमानंद की असीम सत्ता हैं ।
059. प्रभु सबका मन आकर्षित करने वाले हैं ।
060. उत्तम साधक प्रभु को सदैव अपने हृदय में अनुभव करते हैं ।
061. हम संसार को देखते हैं पर उत्तम भक्त जीवन में केवल प्रभु को ही देखते हैं ।
062. हम प्रभु को बाहर खोजते रहेंगे तो प्रभु नहीं मिलेंगे । प्रभु हमें जब भी मिलेंगे हमारे भीतर ही मिलेंगे ।
063. आत्म-साक्षात्कार के समय प्रभु पहले हृदय में ही दर्शन देते हैं ।
064. प्रभु जीवन में नहीं छूट जाएं इस बारे में सदैव सावधान रहना चाहिए और अपना पूरा जीवन प्रभु के आधीन रखना चाहिए ।
065. प्रभु को हम अगर जीवन में पकड़े रहेंगे तो प्रभु तक पहुँचने के बाकी सभी साधन प्रभु स्वयं ही करवा देंगे ।
066. अपने मन से हमें पूछना चाहिए कि कितने अनंत जन्मों में कितने रसों का आस्वादन किया पर क्या कभी प्रभु के भक्ति रस का भी रसास्वादन किया है ।
067. अपनी जिह्वा से हमें पूछना चाहिए कि प्रभु नाम के उच्चारण में जो परमानंद मिलता है वह क्या त्रिलोकी में किसी अन्य पदार्थ में मिलता है ।
068. पाप नाश करने के लिए प्रभु श्री रामजी का नाम सर्वोपरि है, परमानंद प्रदान करने के लिए प्रभु श्री कृष्णजी का नाम सर्वोपरि है और भक्ति प्रदान करने के लिए प्रभु श्री महादेवजी का नाम सर्वोपरि है ।
069. जीवन में प्रभु नाम का उच्चारण करते रहने से एक-न-एक दिन प्रभु की प्राप्ति हो जाती है ।
070. प्रभु सानिध्य परमानंद देता है जो अन्य कोई नहीं दे सकता । युगों-युगों से इतने ऋषि और इतने संत बेकार में ही प्रभु के पीछे नहीं पड़े रहते अगर उन्हें जीवन में परमानंद नहीं मिलता ।
071. प्रभु श्री कृष्णजी को गौ-माता सबसे प्रिय हैं । आज गौ-माता के संरक्षण हेतु यही एकमात्र कारण पर्याप्त है ।
072. प्रभु के दर्शन की जीवन में इतनी लालसा जाग जाए कि हमारी आँखों को प्रभु दर्शन से हटने का मन ही नहीं करे ।
073. श्री गोकुलजी के सभी पक्षी, पशु, लताएं, वृक्ष सब-के-सब सिद्ध महात्मा, ऋषि, संत और मुनि थे जो कि प्रभु के श्रीलीला विलास में शामिल होने के लिए आतुर होकर आए थे ।
074. श्री गोकुलजी के लोगों को बोलने का कोई विषय ही नहीं बचा । वे सिर्फ अपने बालकृष्ण प्रभु के बारे में ही बोलते थे । मन को अगर श्री गोकुलजी बनाना है तो जीवन में चर्चा का विषय सदैव प्रभु को ही बनाना चाहिए ।
075. प्रभु श्रीबृज की आँखों के तारे थे । प्रभु के लिए श्रीगोपीजन सदैव अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहती थीं ।
076. जिनके घर माखन चोरी होती उन गोपियों के वारे न्यारे हो जाते । वे अपने भाग्य की सराहना करती थकती नहीं कि आज हमारा बिलौना करना और मक्खन निकालना सफल हो गया । जिनके घर प्रभु माखन चोरी के लिए नहीं जाते वे गोपियां अपने भाग्य को कोसती थीं ।
077. आज भी श्री गोकुलजी में माखन छिकड़े पर रखने की परंपरा है । इसके पीछे भाव यह है कि प्रभु आएंगे और माखन चुराएंगे ।
078. माखन चोरी प्रभु की श्रीगोपीजन को परमानंद देने की श्रीलीला थी ।
079. संत मानते हैं कि प्रभु ने माखन चोरी नहीं की अपितु माखन के बहाने चित्त चुराया ।
080. अनंत कोटि ब्रह्मांड के नायक चोरी भी करेंगे तो किसी बड़ी चीज की ही करेंगे और प्रभु के लिए सबसे बड़ी चीज उनके भक्तों का चित्त है ।
081. नैतिक जीवन भी भक्ति बिना अधूरा है । सिर्फ नैतिकता से हमारा उद्धार नहीं हो सकता, उद्धार के लिए भक्ति परम आवश्यक है ।
082. विकारों से रहित निर्मल चित्त और प्रभु प्रेम से भरे कोमल चित्‍त को ही प्रभु चुराते हैं । संत कहते हैं कि ऐसे चित्त को प्रभु चुराए बिना नहीं रहते ।
083. प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कहते हैं कि अपना मन मुझे अर्पण कर दो । प्रभु की जीव से बस यही एक मांग है ।
084. प्रभु को अर्पण करने के बाद हमारा मन प्रभु में लगना चाहिए । हम आरती करते वक्‍त गाते हैं कि तन-मन-धन सब अर्पण पर ऐसा गाते-गाते भी हमारा मन संसार में भाग जाता है ।
085. प्रभु श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्रीमद् भगवद् गीताजी से भी आगे की बात कहते हैं । प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में मन को देने की बात कहते हैं पर श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कहते हैं कि मन देने की भी आवश्यकता नहीं है, केवल अपने मन को भक्ति में लगाओ तो प्रभु स्वयं ही आकर उसे चुरा लेंगे ।
086. प्रभु जब हमारे मन को चुराते हैं तो संत उस अवस्था को समाधि कहते हैं ।
087. मन है तो संसार है, मन नहीं तो संसार नहीं । संसार की सारी खटपट हमारे मन के कारण ही होती है । इसलिए अपने मन को प्रभु को अर्पण कर देने से संसार की सारी खटपट स्वतः ही बंद हो जाएगी ।
088. भक्ति से अपने मन को प्रभु के चुराने लायक निर्मल और कोमल बनाना चाहिए ।
089. समाधि लगाई नहीं जाती, लग जाती है । भक्ति अपने आप जीव को प्रभु में लीन कर देती है ।
090. रात्रि में नींद कब लगी उसका पक्का समय हमें पता नहीं होता । अगर पक्के समय का हमें भान है तो उस समय नींद हमें लगी ही नहीं थी । इसी तरह समाधि कब लगती है इसका पता भी नहीं चलता और बिना जाने ही भक्‍तों की समाधि लग जाती है ।
091. श्रीबृज के गोपों ने प्रभु के साथ श्रेष्ठ सखा भक्ति का प्रतिपादन किया ।
092. प्रभु को किसी का भय नहीं क्योंकि भय तो जीव को होता है । प्रभु के भय से तो सभी भयभीत होते हैं । पर फिर भी श्रीबृज में श्रीलीला करते हुए प्रभु ने जब अपने श्रीमुँह में मिट्टी रखी और माता ने पुकारा तो भय की लीला करते हुए प्रभु डरे । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि यह भक्ति की महिमा है कि जिनके भय से वायु को बहना पड़ता है, इंद्रदेवजी को वर्षा करनी पड़ती है, पूरी प्रकृति को गतिशील होना पड़ता है वे प्रभु भगवती यशोदा माता के भय से भयभीत होने की श्रीलीला करते हैं ।
093. जिन प्रभु की इतनी महानता, इतना ऐश्वर्य है कि प्रभु श्री ब्रह्माजी, श्रीवेदजी, देवतागण, सनकादिक ऋषि, संत, भक्त सब प्रभु की वंदना करते-करते नहीं थकते, गुणगान करते-करते भी नहीं थकते उन प्रभु को भगवती यशोदा माता कहती हैं कि तुम कितने बिगड़ते जा रहे हो । यह भगवती यशोदा माता का भक्ति के कारण प्रभु पर अधिकार है ।
094. संतों ने कहा कि श्रीवेदों का स्थान ऊँ‍चा, उनसे भी ऊँ‍चा स्थान प्रभु का जिनका श्रीवेदजी गुणगान करते हैं पर उनसे भी ऊँ‍चा स्थान भक्ति के कारण भगवती यशोदा माता का । भक्ति की इतनी बड़ी महिमा है ।
095. प्रभु को जब मिट्टी के लिए अपना श्रीमुँह खोलना पड़ा तो उन्होंने भगवती राधा माता, जो उनकी आत्‍मशक्ति हैं, उनको याद किया । इसका संकेत यह है कि प्रभु भी जब संकट की श्रीलीला करते हैं तो भगवती राधा माता को याद करते हैं । हमें भी संकट में माता को ही पुकारना चाहिए ।
096. जो चीज बाहर होगी वही खाई जाती है । प्रभु ने सब कुछ यानी पूरे ब्रह्मांड का दर्शन अपने श्रीमुख में कराया और बताया कि मुझसे बाहर कुछ भी नहीं, सब कुछ मेरे भीतर ही स्थित है । सिद्धांत यह है कि प्रभु के बाहर कोई पदार्थ है ही नहीं, जो कुछ भी है प्रभु के भीतर ही है - यह श्रीवेदों का सिद्धांत है ।
097. श्रीवेदों ने प्रभु को सर्वव्यापक बताया है क्योंकि जो भी कुछ है वह सब प्रभु के भीतर स्थित है । इसका संकेत यह है कि हमें अपने घर के ठाकुरजी को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए । प्रभु हमारी सेवा स्वीकार करने के लिए नन्हे रूप में हमारी ठाकुरबाड़ी में आए हैं पर वे सर्वव्यापक हैं ।
098. छोटी-सी मूर्ति की पूजा करने से भी उस जीव की मूर्तिपूजा सिद्ध होती है जो प्रभु की व्यापकता को समझता है । हमारा भाव यह होना चाहिए कि छोटी-सी मूर्ति में भी मेरे इतने व्यापक प्रभु स्थित हैं ।
099. विराट परमात्मा भक्तों पर कृपा करने के लिए छोटी-सी मूर्ति में समा जाते हैं ।
100. प्रभु के अवतार को बाहर मत ढूँढ़े । घर के विग्रह में प्रभु का अर्चा-अवतार होता है । सिद्धांत यह है कि अगर हम घर की ठाकुरबाड़ी में विराजित ठाकुरजी की मूर्ति में ठाकुरजी को नहीं देख पाएंगे तो बाहर भी वे कहीं नहीं मिलेंगे ।
101. भक्ति का सामर्थ्‍य है कि भक्त जैसा भगवान को बनाना चाहता है प्रभु वैसा ही बन जाते हैं ।
102. एक प्रभु प्रतिमा और एक प्रभु नाम से भगवती मीराबाई ने भक्ति की वह ऊँचाई प्राप्त कर ली जिसके लिए सब तरसते हैं ।
103. प्रभु सर्वत्र हैं पर अगर हमारा अंतःकरण ही ठीक नहीं तो सर्वव्यापक प्रभु को हमारा अंतःकरण नहीं पकड़ पाएगा ।
104. अपने घर की ठाकुरबाड़ी में कभी अमर्यादा का व्यवहार नहीं करना चाहिए क्योंकि वहाँ साक्षात श्री ठाकुरजी ही विराजमान हैं ।
105. हमारा अंतःकरण अगर पत्थर जैसा जड़ होगा तो हमें प्रभु की प्रतिमा भी चेतन नहीं जड़ ही लगेगी ।
106. जगत को माया से नचाने वाले प्रभु को भी भक्त अपनी भक्ति के द्वारा अपने वश में कर लेते हैं ।
107. जब भगवती यशोदा माता ने प्रभु के श्रीमुँह में पूरा ब्रह्मांड देखा तो उनका पुत्र भाव नष्ट हो गया और ईश्वर भाव जागृत हो गया । तब प्रभु ने तुरंत माया का आवरण डाला क्योंकि प्रभु श्री बैकुंठजी में तो सदैव ईश्वर भाव से पूजे ही जाते हैं इसलिए प्रभु अवतार काल में भक्तों के साथ प्रेम की श्रीलीला करना चाहते हैं न कि खुद को पूजवाना चाहते हैं । सिद्धांत यह है कि प्रभु के लिए प्रेम होना प्रभु की पूजा से भी बड़ी बात है ।
108. प्रभु के प्रिय बने रहे तो फिर जीवन में सदैव कितनी प्रभु कृपा होगी यह हम देखते ही रह जाएंगे ।
109. श्रेष्‍ठतम का कृपापात्र होने पर प्रसाद भी बड़ा मिलता है । प्रभु त्रिलोकी में श्रेष्‍ठतम है इसलिए उनके कृपापात्र बनने का प्रयास जीवन में करना चाहिए ।
110. प्रभु की भक्ति करने की अत्यंत तीव्र इच्छा हमारे मन में होनी चाहिए । अगर ऐसा है तो कभी-न-कभी प्रभु उसे जरूर पूरा करेंगे ।
111. प्रभु भक्ति के तीव्र संकल्प से ही प्राप्त हो जाते हैं पर भक्ति का वह संकल्प प्रमाणिक होना चाहिए ।
112. श्रीनंद बाबा के पास 9,00,000 गौमाताएं थीं । उनमें से विशेष 1,00,000 गौमाताएं उन्होंने प्रभु के लिए अलग से रखी थीं । 1,00,000 गौमाताओं के दूध का उपयोग सिर्फ प्रभु के लिए होता था, अन्य किसी प्रयोजन हेतु उनका उपयोग नहीं होता था । 1,00,000 गौमाताओं का दूध रोजाना निम्न प्रकार से प्रभु के लिए तैयार होता था । 1,00,000 गौमाताओं का दूध 10,000 गौमाताओं को पिलाया जाता था । उन 10,000 गौमाताओं का दूध 1,000 गौमाताओं को पिलाया जाता था । उन 1,000 गौमाताओं का दूध 100 गौमाताओं को पिलाया जाता था । उन 100 गौमाताओं का दूध 10 गौमाताओं को पिलाया जाता था । उन 10 गौमाताओं का दूध एक गौमाता को पिलाया जाता था और उन एक गौमाता का पद्मगंधा दूध प्रभु के पीने के लिए और माखन, दही और छाछ के लिए उपयोग में लिया जाता था । ऐसा रोजाना प्रभु के लिए होता था । प्रभु से इतना प्रेम और प्रभु का इतना लाड़ श्रीनंद बाबा और भगवती यशोदा माता करते थे । हमें भी अगर जीवन में प्रभु की कुछ सेवा करने का सौभाग्‍य मिला है और कभी हमें अपनी सेवा का अहंकार हो जाए तो हमें श्रीबृज के इस सेवा के प्रसंग को याद करना चाहिए तो हमारा अहंकार मिट जाएगा ।
113. प्रभु के लिए बिलौना करते वक्त भी प्रभु की बाल लीलाओं के गीत भगवती यशोदा माता गुनगुनाती रहती थीं । प्रभु की सेवा करते वक्त हमें भी प्रभु की श्रीलीलाओं को ही गुनगुनाना चाहिए ।
114. जीवन में भक्ति को सदैव सजीव रखना चाहिए और भक्ति को कभी भी नीरस नहीं होने देना चाहिए ।
115. श्रीगोपीजन ने क्या साधन किया, केवल प्रभु से निष्काम प्रेम किया ।
116. साधन के नाम पर हमने प्रभु को ही अपने से दूर कर दिया है । जो साधन हमें साधन में ही उलझा दे और प्रभु से दूर कर दे वह करने योग्य नहीं है ।
117. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्रीगोपीजन को ही प्रभु प्रेम का आदर्श माना । देवर्षि प्रभु श्रीनारदजी को प्रभु से प्रेम करने वाले सभी भक्तों की जानकारी है पर उन्होंने आदर्श के रूप में श्रीगोपीजन को ही चुना ।
118. प्रभु का प्रेम से दिनभर स्मरण करना और प्रभु की श्रीलीलाओं का दिनभर गान करना, इन दो के अलावा श्रीगोपीजन ने कुछ भी अन्य साधन नहीं किया ।
119. ध्यान से भी अधिक महत्वपूर्ण साधन है प्रभु की श्रीलीलाओं का गान । इसलिए भजन और कीर्तन भक्ति के बहुत बड़े अंग हैं ।
120. प्रभु से एकरूप होना है तो प्रभु की श्रीलीलाओं का और प्रभु के सद्गुणों का गान करना चाहिए ।
121. यह सत्य मानें कि जहाँ प्रभु के सच्चे भक्त जैसे भगवती मीराबाई, श्री नरसी मेहताजी, श्री सूरदासजी गाते हैं वहाँ प्रभु स्वयं चल कर आ जाते हैं और सदैव उपस्थित रहते हैं ।
122. जो प्रभु के गुणों का गान करते हैं वे सबसे पहले प्रभु के समीप पहुँच जाते हैं ।
123. प्रभु के लिए निकाला गया पद्मगंधा दूध उफन रहा था तो भगवती यशोदा माता ने प्रभु को गोद से उठाकर पलंग पर सुला दिया और दूध को बचाने के लिए चली गईं । इससे प्रभु चिढ़ गए और प्रभु ने गौरस के मटके को ही फोड़ दिया । इस प्रसंग का संकेत यह है कि प्रभु की सेवा के कारण भी अगर हम प्रभु को अपने से अलग कर देते हैं तो प्रभु को अच्छा नहीं लगता । प्रभु सोचते हैं कि मेरी सेवा मुझसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई, इसलिए प्रभु को भूलते ही प्रभु उस सेवा के साधन को ही तोड़ देते हैं ।
124. प्रभु जब भक्त से प्रेम करने लगते हैं और भक्त जब प्रभु को पाने के साधन से प्रेम करने लगता है तो प्रभु भक्त को अपने समीप लाने के लिए उसके साधन को ठोकर मार देते हैं ।
125. प्रभु जब किसी को अपने पास बुलाना चाहते हैं तो उसके जीवन में प्रतिकूलता भेजते हैं । संत श्री तुकारामजी का मन अपने बेटे और पत्नी के मोह में फंसा था । प्रभु उन्हें अपने पास तीव्रता से बुलाना चाहते थे तो प्रभु ने उनको पुत्र और पत्नी का वियोग करा दिया ।
126. जब प्रभु किसी को अपने से दूर करना चाहते हैं तो उसे धन, संपत्ति, ऐश्वर्य और कीर्ति दे देते हैं जिसके कारण वह जीव संसार में ही रम जाता है और प्रभु को भूल जाता है ।
127. प्रभु की उपेक्षा करके दूध यानी धन को बचाने का प्रयास करेंगे तो माखन यानी आनंद से हम वंचित रह जाएंगे । भगवती यशोदा माता ने पद्मगंधा दूध को बचाया और प्रभु ने पद्मगंधा दूध से बने माखन की मटकी को ही फोड़ दिया ।
128. संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि प्रभु की भक्ति कभी धन यानी वित्त से प्राप्त नहीं हो सकती । इसलिए धन की क्षमता बहुत थोड़ी है ।
129. जीवन में रुपया कमा भी लिया पर अगर प्रभु की भक्ति नहीं की तो जीवन में परमानंद को हम कभी भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे ।
130. कभी भी जीवन में ऐसा साधन नहीं करना चाहिए जिससे साध्य यानी प्रभु की तरफ हमारा ध्यान जाने से ही वंचित रह जाए ।
131. खरबपति के मन में भी वह परमानंद नहीं हो सकता जो एक सच्चे भक्‍त के मन में होता है ।
132. कभी भी जीवन में भक्ति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । भक्ति जीवन में सर्वोच्च प्राप्त करने योग्य उपलब्धि है क्योंकि भक्ति में ही परमानंद छिपा है ।
133. संसार की कोई मौज हमें वह परमानंद नहीं दे सकती जो प्रभु की भक्ति देती है । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
134. भगवती यशोदा माता ने पद्मगंधा दूध बचाया और माखन से हाथ धो बैठीं । इसका संकेत यह है कि हमने भी जीवन में अंतिम समय तक प्रभु को प्राप्त नहीं किया तो हम भी अपने उद्धार से हाथ धो बैठेंगे ।
135. प्रभु नंदभवन में जो माखन चोरी की लीला करते थे उसमें पद्मगंधा दूध से बने माखन को प्रभु सबको बांटते थे । इसका संकेत यह है कि प्रभु अपने भक्तों को सर्वोत्तम चीज यानी परमानंद ही बांटते हैं ।
136. प्रभु को देखकर हमें तृप्ति भी मिलती है और उतनी ही अतृप्ति भी जन्म लेती है क्योंकि हमारा मन प्रभु का दर्शन सदैव के लिए करते रहना चाहता है ।
137. जैसे पेड़ पके हुए फल को पकड़कर नहीं रखता और छोड़ देता है वैसे ही जब भक्ति का साधन परिपक्व हो जाता है तो कर्म छूट जाते हैं । जब प्रभु पकड़ में आ जाते हैं तो फिर साधन छूट भी जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता पर यह एक बहुत ऊँ‍‍ची अवस्था है । हम प्रभु की भक्ति में ऐसे डूब गए और हमारी एक समय की पूजा छूट भी गई तो कोटि-कोटि सिद्धगण और महात्मा उस भक्त को अपनी पूजा का फल देने के लिए आ जाते हैं ।
138. कर्म छोड़ना नहीं पड़ता पर जब चित्त प्रभु में इतना डूब जाता है तो कर्म हो ही नहीं पाता और कर्म अपने आप छूट जाता है ।
139. पूजा के लिए हम बैठें और प्रभु की ऐसी लगन लग गई कि पूजा करना ही हम भूल गए तो यह भक्ति की पराकाष्ठा है । संत श्री रामकृष्णजी परमहंस जब भगवती माता की भक्ति में इतने ऊँचे स्तर तक पहुँच गए तो वे पूजा करने के योग्‍य ही नहीं रहे ।
140. भक्तों की कोई जाति नहीं होती । भक्त किसी भी जाति का हो सकता है । भक्‍तों की एक ही जाति होती है कि वे प्रभु के भक्‍त हैं ।
141. जो भक्ति में भाव की गहराई तक नहीं पहुँच पाते वे प्रभु के परमानंद का जीवन में रसास्वादन नहीं कर पाते ।
142. श्रीमद् भागवतजी महापुराण पर इतने महात्माओं और संतों ने इतनी टिकाएं लिखी हैं और एक ही प्रभु कथा का इतना विश्लेषण हुआ है कि पूरा जीवन भी पढ़ा जाए तो भी वह समाप्त होने वाला नहीं है ।
143. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के मूल सिद्धांत में भक्ति का ही प्रतिपादन है ।
144. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी अंतःकरण को स्पर्श करने वाले श्रीग्रंथ हैं ।
145. कुछ ऐसे भी भक्त हुए हैं जिन्होंने श्रीग्रंथों का अध्ययन भी नहीं किया पर फिर भी श्रीग्रंथों ने अपना पूरा हृदय उनके सामने खोल दिया । यह सिर्फ उनकी भक्ति के कारण ही संभव हुआ । यह बात श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्री रामचरितमानसजी के लिए भी लागू होती है ।
146. भगवती यशोदा माता बालगोपाल प्रभु के पीछे लकड़ी लेकर दौड़ती हैं । माता कहती हैं कि रुक जाओ । प्रभु कहते हैं कि पहले लकड़ी फेंको तो मैं रुकूंगा । संकेत यह है कि जीव भी प्रभु को पकड़ना चाहता है तो प्रभु कहते हैं कि पहले अहंकार की लकड़ी को फेंको तो मैं पकड़ में आऊँगा ।
147. अपने अहंकार को बचा कर प्रभु को पकड़ने वाला आज तक कोई भी नहीं हुआ ।
148. जिसने जीवन में शून्य होना सीख लिया वही पूर्ण परमात्मा को पकड़ पाया है ।
149. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने अपने भक्ति सूत्र में लिखा है कि प्रभु को जीव की दीनता यानी जीव में दैन्य भाव होना बहुत प्रिय लगता है ।
150. शास्त्रों में कहा गया है कि चाहे सुई की नोक में से ऊंट निकल जाए पर धनवान को प्रभु नहीं मिल सकते, विद्वान को प्रभु नहीं मिल सकते क्योंकि उन्हें अपने धन और विद्या का अहंकार जो होता है । इसका संकेत यह है कि जो अपना अहंकार भूल जाता है उसे ही प्रभु मिलते हैं ।
151. समस्त विकारों का सेनापति अहंकार है इसलिए प्रभु को अहंकार सबसे अप्रिय है ।
152. जब तक हमारी बुद्धि जड़ संसार को छोड़ेगी नहीं वह चेतन प्रभु को पकड़ नहीं पाएगी । हम प्रभु प्राप्ति में इसलिए असफल हो जाते हैं क्योंकि हम जड़ संसार को छोड़े बिना चेतन प्रभु को पकड़ना चाहते हैं ।
153. हम जीवन में पुण्य तो करना चाहते हैं पर जीवन में पाप का त्याग नहीं करना चाहते । पुण्‍य हमसे होता नहीं और पाप का त्याग हम करते नहीं । यह कितनी बड़ी विडंबना है ।
154. सामान्य जीव को भी बंधन प्रिय नहीं फिर भी प्रभु बंधन में आ जाते हैं और वह भी सहर्ष ही आ जाते हैं । ऐसा क्यों ? ऐसा सिर्फ जीव की भक्ति के कारण संभव होता है । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है ।
155. भगवती यशोदा माता प्रभु को उखल से बांधना चाहती थीं तो उन्‍होंने कितनी भी रस्सी जोड़ी पर वह दो अंगुल छोटी पड़ती रही । संकेत यह है कि जीव के कितने भी पुरुषार्थ के बाद भी जब तक प्रभु कृपा नहीं होगी रस्सी पूरी नहीं होगी और तब तक प्रभु बंधन में नहीं आएंगे । प्रभु जिन पर कृपा करते हैं उन्‍हीं जीवों के बंधन में आते हैं ।
156. जीव अपनी भक्ति का पुरुषार्थ करे और प्रभु अपनी कृपा करें तो ही प्रभु प्रेम बंधन में आते हैं ।
157. जिन्होंने प्रभु के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया उनके साथ कभी भी चोट नहीं हुई और उन्हें उनके जीवन में प्रभु जरूर मिले हैं ।
158. प्रभु को पाने के लिए अपना कुछ भी बचा कर नहीं रखना चाहिए, सब कुछ दांव पर लगा देना चाहिए ।
159. भक्ति के पुरुषार्थ की एक अंगुल की पूर्णता हुई यानी प्रभु को पाने के लिए भक्ति का पूरा प्रयास हुआ तो प्रभु अपनी कृपा की दूसरी अंगुल पूर्ण कर देते हैं और इस तरह प्रभु का भक्त से मिलन हो जाता है ।
160. जब हम प्रभु प्राप्ति के साधन में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं यानी प्रभु के मार्ग पर जितना चल सकते थे हम चले, जितनी प्रभु की सेवा बन सकती थी हमने की, जितना मन से प्रभु का ध्यान कर सकते थे हमने किया, जितनी प्रभु की कथा सुन सकते थे हमने सुनी, तो प्रभु फिर स्वयं कृपा करके चलकर आते हैं और हमारा प्रभु से मिलन हो जाता है ।
161. प्रभु भक्ति का ऋण कभी अपने ऊपर नहीं रखते और भक्तों को अपने श्रीकमलचरणों में स्थान देकर उसे चुका देते हैं ।
162. जिनके नाम से, जिनकी कृपा से जीव सब बंधनों से मुक्त हो जाता है, जो मुक्ति को प्रसाद रूप में बांटते हैं, वे प्रभु भक्ति के कारण भक्त का बंधन स्वीकार कर लेते हैं । भक्ति के कारण यह कृपा प्रभु अपने भक्तों पर करते हैं ।
163. बिना भक्ति जीवन में प्रभु की कृपा नहीं मिलती जैसे बिना प्रणाम किए किसी से आशीर्वाद नहीं मिलता ।
164. प्रभु अपनी श्रीलीलाओं में दिखाते हैं कि वे अपने प्रिय भक्तों के कितने अधीन हैं और कितनी सहजता से उनके प्रेम के बंधन को स्वीकार करते हैं ।
165. जीव को बंधन है पर प्रभु को कोई बंधन नहीं । फिर भी भक्ति के कारण प्रभु स्वतः ही भक्त के बंधन को स्वीकार करते हैं ।
166. सच्ची भक्ति का फल है कि वह प्रभु को भी प्रेम बंधन में बांध देती है ।
167. सच्ची भक्ति का फल है कि प्रभु भक्त के साथ खेलने लग जाते हैं । जो भक्त की इच्छा होती है प्रभु उसे स्वीकार करके उसे पूरा करते हैं ।
168. भक्त को भगवान के अलावा कुछ भी नहीं सूझता तो प्रभु भी पीछे नहीं रहते और प्रभु को भी अपने भक्तों के अलावा कुछ नहीं सूझता ।
169. प्रभु भक्ति में बंधकर सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं क्योंकि प्रभु को यह प्रसन्नता होती है कि मैंने अपने भक्त की इच्छा पूरी की ।
170. प्रभु भक्तों के मन की बात पूरी किए बिना नहीं रहते ।
171. प्रभु ज्ञानियों और योगियों के अधीन कभी नहीं होते, प्रभु केवल और केवल भक्तों के अधीन होते हैं ।
172. प्रभु को सबसे ज्‍यादा प्रिय अपने भक्त होते हैं ।
173. प्रभु ज्ञानियों पर, योगियों पर वह कृपा कभी नहीं करते जो अपने भक्तों पर करते हैं ।
174. ज्ञानियों को प्रभु जैसे हैं वैसे मिलते हैं पर भक्तों को प्रभु जैसा भक्त चाहता है वैसे मिलते हैं ।
175. ज्ञानी प्रभु से कभी हठ नहीं कर सकता पर यह भक्ति का सामर्थ्‍य है कि भक्त प्रभु से हठ भी कर सकता है ।
176. ज्ञानी सिर्फ प्रभु का अनुभव कर सकते हैं पर भक्त साक्षात प्रभु का साक्षात्कार कर सकते हैं और प्रभु के दर्शन कर सकते हैं ।
177. भक्त को जो प्रभु रूप प्रिय है उसमें आने हेतु प्रभु को बाध्य कर देता है । यहाँ तक कि प्रभु को नया रूप धारण करने के लिए भी बाध्य कर देता है । यह सिर्फ भक्ति का सामर्थ्‍य है ।
178. भक्त प्रभु को रूप बदलने हेतु भी बाध्य कर देता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्रभु को श्रीकृष्णरूप त्यागकर श्रीरामरूप में आने हेतु बाध्य किया । उन्होंने प्रणाम नहीं किया और जिद पर अड़ गए कि जब तक आप श्रीरामरूप में नहीं आएंगे तब तक प्रणाम नहीं करूंगा । यह मौज सिर्फ भक्तों की होती है । यह हक सिर्फ भक्ति के बल पर संभव होता है ।
179. भक्त भगवान को खिलाता है, भगवान के श्रीहाथों से खाता है, प्रभु को रिझाता है, प्रभु को हँसाता है, प्रभु को भक्ति में रुलाता भी है । यह अधिकार सिर्फ भक्ति का है ।
180. एक फल बेचने वाली मालिन प्रभु दर्शन के लिए अपना कर्म करते-करते यानी फल बेचते-बेचते रोज कई बार नंदभवन के चक्कर काटने लगी । प्रभु दर्शन की लालसा लेकर बहुत दिनों तक वह ऐसा करती रही । प्रभु ने उसे नंदभवन से निकलकर दर्शन दिए और उसके कर्म के बदले यानी उसके फल लेकर उसे अनमोल रत्न दिए । संकेत यह है कि प्रभु का विश्वास रखकर अगर हम प्रभु के लिए अपना कर्म करते रहेंगे तो प्रभु उस विश्वास को जरूर पूरा करेंगे और हमें फल देंगे ।
181. फल बेचने वाली मालिन ने अनुभव किया कि प्रभु दूर से जितने दिव्य दिखते हैं, पास आने पर उनकी दिव्यता और अधिक बढ़ जाती है । इसका संकेत यह है कि प्रभु का सौंदर्य दूरी में भी है और निकटता में भी है जबकि इसके ठीक विपरीत भोगों का आकर्षण उनकी दूरी में ही है और वे जितने निकट आएंगे उनका आकर्षण नष्ट होता चला जाता है ।
182. प्रभु का सौंदर्य देखने पर फल बेचने वाली मालिन प्रभु को अपना फल अर्पण करना ही भूल गई । प्रभु का सौंदर्य पास से इतना दिव्य होता है कि वह हमें एकदम मोहित कर देता है ।
183. प्रभु के दरबार में बहुत बुलाए जाते हैं पर प्रभु द्वारा कुछ ही चुने जाते हैं ।
184. प्रभु मुफ्त में कुछ भी नहीं लेते । फल बेचने वाली मालिन ने अपने कर्मफल प्रभु को अर्पण किए तो प्रभु ने उसे रोककर एक मुट्ठी अन्न दिया जो दिव्य रत्न बन गए ।
185. प्रभु के उत्तम भक्त जीवन में प्रभु के पीछे ही दीवाने रहते हैं और इसलिए संसार के कामों में दक्ष नहीं होते ।
186. भक्त अपने कपड़े नहीं संभालता क्योंकि वह अपने हृदय में प्रभु के लिए भक्ति भाव को जो संभालता रहता है ।
187. प्रभु ने चार फल मालिन से लिए और उसकी पूरी टोकरी दिव्य रत्नों से भर दी जो की अक्षय हो गए । सिद्धांत यह है कि प्रभु जो भी प्रसाद रूप में देते हैं वह सदा के लिए अक्षय हो जाता है ।
188. योग से प्राप्त सिद्धियां समाप्त हो जाती हैं पर प्रभु प्रसाद के रूप में प्राप्त वस्तु कभी समाप्त नहीं होती ।
189. मालिन ने प्रभु को फल दिए यानी अपने कर्मफल प्रभु को अर्पण किए, इसलिए मालिन को प्रभु का प्रसाद मिला । हम विपरीत करते हैं । हम प्रभु को अपने कर्मफल अर्पण नहीं करते उल्टा प्रभु से फल मांगते हैं इसलिए हमें प्रभु की कृपा प्रसादी नहीं मिलती ।
190. प्रभु के सबसे प्रियतम देवर्षि प्रभु श्री नारदजी हैं क्योंकि वे प्रभु की भक्ति का जो प्रचार करते हैं वह जगत के मांगल्य के लिए करते हैं ।
191. प्रभु के सद्गुणों का पूरी तरह बखान कर पाने की बात किसी के लिए सोचना भी पूर्णतया असंभव है ।
192. हमारी वाणी की धन्यता प्रभु का गुणगान करने में ही है ।
193. अपनी हर इंद्रिय के हर व्यवहार को प्रभु से जोड़ना ही भक्ति है ।
194. वही वाणी धन्य है जो रोजाना प्रभु का गुणानुवाद करती है इसलिए हमें अपनी वाणी से प्रभु के नाम, रूप, गुण, श्रीलीला और धाम का गुणगान करना चाहिए ।
195. प्रभु नाम जपने से सरल कुछ भी नहीं है । सारे संसार के साधन करने से जो बात प्राप्त हो सकती है वह सब कुछ केवल प्रभु नाम के जप से ही प्राप्त हो जाती है । इसलिए एकांत में बैठकर प्रभु नाम जप करने की महिमा को सभी संतों ने गाया है ।
196. प्रभु के बारे में बोलना यानी प्रभु के सद्गुणों, माधुर्य, ऐश्वर्य और करुणा का वर्णन अपनी वाणी से करना बहुत बड़े सौभाग्य की बात होती है ।
197. प्रभु केवल एक ही भाषा जानते हैं वह हृदय के भाव की भाषा है । अगर हम संस्कृत भाषा में भी लंबे-लंबे स्तोत्रों को पढ़ लें और हृदय में प्रभु के लिए भाव नहीं हो तो उसका अधिक लाभ नहीं है ।
198. प्रभु के नाम, रूप, गुण, श्रीलीला और धाम का वर्णन जीवन में करते ही रहना चाहिए । ऐसा वर्णन करते-करते ही प्रभु में हमारा चित्त एकाग्र हो जाता है । यह सिद्धांत है कि हम जिनका वर्णन करेंगे हमारा चित्त उनमें ही एकाग्र होगा, इसलिए अपनी वाणी को सदैव प्रभु के वर्णन करने में ही लगाना चाहिए ।
199. मन को प्रभु में लगाना हो तो पहले अपनी वाणी को प्रभु में लगाना चाहिए । जिनके बारे में हम बोलेंगे हमारा मन उनके बारे में विचार करने के लिए अपने आप ही बाध्य हो जाएगा क्योंकि मन वाणी का अनुगमन करता है ।
200. जीवन में सबसे पहले प्रभु के बारे में श्रवण करना और प्रभु के बारे में बोलना आरंभ करना चाहिए ।
201. प्रभु के बारे में बोलने के लिए प्रभु के बारे में सुनना भी आवश्यक है इसीलिए जीवन में प्रभु कथा का श्रवण निरंतर करना चाहिए ।
202. प्रभु के नाम, रूप, गुण, श्रीलीला और धाम की जो भी चर्चा सुनने को मिले उसे जीवन में सदैव सुनना चाहिए । श्रीग्रंथों का सदैव श्रवण करना चाहिए और जहाँ भी भगवत् चर्चा मिले उसका लाभ जरूर लेना चाहिए ।
203. अपनी वाणी और अपना श्रवण दोनों प्रभु में लगे इसकी युक्ति जीवन में खोजना चाहिए ।
204. हाथों को प्रभु के लिए कुछ-न-कुछ कर्म करने में सदैव लगाना चाहिए ।
205. शरीर, प्राण, मन और बुद्धि सभी स्तर पर प्रभु का साधन होना चाहिए ।
206. प्रभु सेवा का कोई-न-कोई काम अपने हाथों से रोजाना जरूर करना चाहिए ।
207. अपने मन और शरीर को प्रभु सेवा में लगाना भक्ति में अनिवार्य साधन है क्‍योंकि प्रभु की सेवा विहीन भक्ति कभी नहीं होती ।
208. हाथ प्रभु कार्य में लगे, पैर प्रभु के कार्य में दौड़ें तो यह हमारे जीवन का सौभाग्य होता है ।
209. अपने जीवन में अर्जित की हुई हर विद्या को प्रभु की सेवा में लगाने का विचार सनातन धर्म में किया गया है ।
210. प्रभु नाम की महिमा सुनकर बहुत सारे नास्तिकों के हाथ में भी माला आ गई और उनके हाथ माला फेरने में लग गए । प्रभु के नाम की इतनी बड़ी महिमा जगत में प्रसिद्ध है ।
211. पच्चीस दिनों की पैदल यात्रा करके, छत्तीस घंटों की कतार में लगकर फिर एक क्षण के लिए प्रभु के दर्शन करने को मिलता है पर फिर भी भक्त ऐसा करते हैं क्योंकि उनको प्रभु से इतना प्रेम होता है ।
212. वैष्णव प्रभु के मुखारविंद का दर्शन जरूर करते हैं पर उनका ध्यान सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही रहता है ।
213. भक्तों के हाथों की आदत ही होती है कि वह प्रभु के सामने रहने पर जुड़े ही रहते हैं ।
214. अगर हमारा मन प्रभु को सर्वत्र देखता है तो फिर हमारे लिए संसार में कोई छोटा और कोई बड़ा नहीं बचता क्योंकि सबमें हमें एक ही परमात्मा के दर्शन जो होते हैं ।
215. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सच्चा श्रवण तभी मानना चाहिए जब उससे हमारे जीवन की वृत्ति सुधर जाए और हमारा जीवन प्रभुमय हो जाए, नहीं तो सिर्फ कीर्तन कर लिया, कथा में नाच लिया और जय-जयकार कर लिया तो उससे बहुत थोड़ा लाभ ही मिलेगा ।
216. जीवन में अहंकार का पूर्ण विसर्जन हो जाना चाहिए तभी हमें प्रभु मिल सकते हैं ।
217. संत आज भी श्री गोकुलजी, श्री वृंदावनजी से आए हुए किसी भी जन को प्रणाम करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि वे प्रभु के गांव से आए हैं ।
218. सबसे पहले हमें नेत्रों को प्रभु दर्शन की आदत लगानी चाहिए ।
219. भक्त प्रभु से ऐसी प्रार्थना करते हैं कि हमें धन-संपत्ति नहीं चाहिए, मुक्ति भी नहीं चाहिए तो प्रभु पूछते हैं फिर क्या चाहिए तो भक्त कहते हैं कि हमें सिर्फ आपकी भक्ति चाहिए ।
220. सच्‍चा संत वही है जो केवल प्रभु भक्ति का प्रवाह जनमानस में बहाए ।
221. हमें इस प्रकार भक्ति प्रारंभ करनी चाहिए कि हमारे शरीर का हर अंग प्रभु के लिए कर्म करने में लग जाए । हमारे नेत्र प्रभु का दर्शन करें, हमारे कान प्रभु के बारे में श्रवण करें, हमारे हाथ प्रभु की सेवा करें तभी उनका होना सार्थक है ।
222. पीढ़ियों से रह रहे घर को छोड़कर जाना बेहद कठिन होता है पर प्रभु के लिए सारे गोकुलवासियों ने एक क्षण में श्री गोकुलजी को छोड़ कर श्री वृंदावनजी जाने का निर्णय लिया । प्रभु के लिए अपने बसे बसाए घर का त्याग करके उन्होंने अपने प्रभु प्रेम को जग जाहिर किया ।
223. प्रभु ने स्वयं गौलोक से श्री गिरिराजजी और भगवती यमुना माता को लाकर भगवती राधा माता के लिए श्री वृंदावनजी में बसाया क्योंकि भगवती राधा माता तभी अवतार ग्रहण करना चाहती थीं जब गौलोक से उनके प्रिय श्री गिरिराजजी और भगवती यमुना माता उनके साथ धरती पर आएं । इसलिए पूरे श्रीबृज में सबसे ज्यादा महत्व श्री गिरिराजजी और भगवती यमुना माता का है ।
224. गोपों ने सोचा कि श्री वृंदावनजी में जाकर नया घर बनाना होगा पर प्रभु ने श्री विश्वकर्माजी प्रभु को एक रात्रि पहले ही श्री वृंदावनजी में जाकर नए घर बनाने का आदेश दे दिया और जब सब लोग पहुँचे तो सबको बना बनाया घर मिला । इस प्रसंग का संकेत यह है कि अगर हम प्रभु के लिए त्याग करते हैं तो हमें श्रम नहीं करना पड़ता क्योंकि प्रभु हमारे भाव को देखकर सब तैयारी पहले ही करवा देते हैं ।
225. सच्चे संत परमार्थ के लिए अपना शरीर धारण करके रखते हैं । वे अपने स्वार्थ के लिए कभी भी कुछ नहीं करते । यही सच्चे संतों की निशानी होती है ।
226. गौ-माताओं के साथ प्रभु का सबसे ज्यादा प्रेम और उनके बछड़ों के साथ सबसे ज्यादा मैत्री थी ।
227. सच्चे भक्तों को निरंतर लगना चाहिए कि मेरे प्रभु सदैव मेरी दृष्टि के सामने ही रहें ।
228. धन्य होते हैं वे लोग जो अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक प्रभु को किसी भी रूप में अपना लेते हैं ।
229. प्रभु श्री कृष्णजी को सजने का बहुत शौक है । प्रभु को हम जितना भी सजाएं, प्रभु हमारे जीवन को उससे ज्यादा सजा देते हैं क्योंकि प्रभु अपने ऊपर किसी के ऋण को कभी नहीं रखते ।
230. प्रभु जब बछड़ों को चराने जाने के लिए तैयार हुए तो सबसे ज्यादा दुःख श्रीगोपीजन को हुआ । उनको लगने लगा कि अब उनका दिन कैसे बीतेगा । प्रभु के दर्शन अब उन्हें सुबह जाते वक्त और सायं वापस लौटते वक्त ही हो पाएंगे । श्रीगोपीजन पूरे दिन प्रभु का दर्शन करना चाहती थीं इसलिए वे किसी भी बहाने कभी भी नंदभवन पहुँच जाया करती थीं । प्रभु दर्शन की इतनी आसक्ति श्रीगोपीजन में थीं ।
231. जब प्रभु दर्शन करते वक्त श्रीगोपीजन की पलकें झपकतीं तो श्रीगोपीजन पलकें बनाने वाले देव को कोसती थीं कि उन्होंने पलकें क्यों बनाई जिसके कारण प्रभु दर्शन में क्षणभर का अवरोध होता है । जरा कल्पना करें कि पलक झपकने में कितना समय लगता है, पर उतना भी प्रभु का अदर्शन श्रीगोपीजन सह नहीं पातीं ।
232. प्रभु जब बछड़ों को चराने के लिए जाते तो श्रीगोपीजन अपने घर के बाहर आकर प्रभु को देखती, दूर तक देखती रहती, जब प्रभु दिखाई नहीं देते तो वे अपने घरों की छत पर चढ़कर प्रभु को देखतीं । फिर भी प्रभु जब नहीं दिखते तो उस दिशा में उड़ने वाली धूल को देखती रहतीं । इस प्यास का नाम ही भक्ति है । इस आसक्ति का नाम ही भक्ति है । भक्ति का अर्थ है प्रभु से चिपक जाना । श्रीगोपीजन का अंतःकरण सदैव प्रभु से चिपका हुआ रहता था ।
233. खेल-खेल में प्रभु एक खेल खेलते । सब गोपाल प्रभु को पकड़ने का यानी स्पर्श करने का खेल खेलते । जो गोपाल प्रभु को कभी नहीं पकड़ पाते पर उनकी इच्छा होती कि मैं भी प्रभु को पकड़ लूं तो प्रभु स्वयं को उन्हें पकड़ा देते । इसका संकेत यह है कि प्रभु को पकड़ने के लिए लोगों के मन को देखकर प्रभु उन्हें जीवन में स्वयं को पकड़ने का अवसर जरूर देते हैं ।
234. प्रभु को बाल रूप में खेलते देखने का गौरव भारतवर्ष ने पाया है और उन्हें वर्णन करने का गौरव भारतीय श्रीग्रंथों ने पाया है ।
235. प्रभु को पाने का और प्रभु के समीप आने का प्रभु को सबसे प्रिय रूप गौ-माता का है, ऐसा असुर ने विचार किया और वह बछड़े का रूप लेकर आया । इसका संकेत यह है कि प्रभु गौ-माता से और बछड़ों से अत्यधिक प्रेम करते हैं ।
236. तमोगुण के कारण बुद्धि असावधान हो जाती है इसलिए जीवन में सतोगुण की वृद्धि करनी चाहिए जिससे हमारी बुद्धि सदैव सावधान बनी रहेगी ।
237. बुद्धि सात्विक रहेगी तो ही हम दक्षता से भक्ति कर पाएंगे ।
238. प्रभु श्री कृष्णजी और प्रभु श्री हनुमानजी के पास लौकिक लीला करते वक्त कोई भी पद नहीं था पर फिर भी उनके बिना क्रमशः श्री महाभारतजी और श्री रामायणजी में एक पत्ता भी नहीं हिलता ।
239. प्रभु के साथ खेलने में सभी गोपालों को इतना आनंद आता था कि पूरा दिन कैसे बीत जाता था उन्हें पता भी नहीं चलता । इसका संकेत यह है कि प्रभु के साथ समय बिताना सदैव आनंदमय होता है ।
240. प्रभु अपनी दिव्‍यता और महानता को भुलाकर अपने भक्तों के साथ खेलते हैं । प्रभु के साथ श्रीबृज में लीला करने वाले सभी गोपाल प्रभु के भक्‍त, ऋषि, संत और परमहंस थे ।
241. प्रभु के साथ खेलने की क्षमता और योग्यता प्राप्त कराने वाला साधन भक्ति ही है ।
242. गोपाल बालकों ने प्रभु को पीछे छोड़ा और आगे बढ़ गए तो भ्रम के कारण अजगर के मुँह को गुफा मानकर उसके मुँह में प्रवेश कर लिया । इस प्रसंग का संकेत यह है कि प्रभु को जीवन में जब भी हम पीछे रखेंगे तो हमें विपत्ति के मुँह में जाना पड़ेगा ।
243. जब जहरीली हवा अजगर के मुँह से आई तो सभी गोपाल बालकों ने प्रभु को पुकारा और फिर पुकारते-पुकारते बेहोश हो गए । पुकार सुनकर प्रभु ने खुद अजगर के मुँह में प्रवेश किया और बालकों को निकाला, उनकी बेहोशी को ठीक किया और उनकी स्मृति, जो जहर के प्रभाव के कारण नष्ट हो गई थी, उसे वापस लौटाया । इस प्रसंग का संकेत यह है कि अंत समय में भी यानी विपत्ति में भी प्रभु को पुकारेंगे तो प्रभु हमें सुरक्षित वापस बचाकर ले आएंगे ।
244. सारे काम पूरे करने के बाद मैं साधन करूंगा, जो व्यक्ति यह सोचता है वह कभी भी साधन मार्ग पर प्रगति नहीं कर सकता ।
245. सबसे सर्वश्रेष्ठ और स्थाई फल देने वाला साधन भक्ति ही है ।
246. ज्यादा अखबार पढ़ने में, टीवी देखने में, दुनियादारी करने में, गपशप लगाने में जो हमारा समय व्यतीत होता है उसके बदले हमें वापस क्या मिलेगा क्या हमने कभी यह सोचा है । जो समय हमने इस तरह जीवन में गंवा दिया है उसके बदले हमें कुछ भी आध्यात्मिक लाभ मिलने वाला नहीं है ।
247. जब प्रभु श्री हनुमानजी सागर पार कर रहे थे तो छोटे-छोटे पर्वत ऊपर उठ आए । यह सब छोटे-छोटे पर्वत प्रतीक हैं कि हमारे जीवन में भी जब हम प्रभु की तरफ चलते हैं तो छोटे-छोटे कार्य जीवन में उपस्थित हो जाते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी ने क्या किया, उन पर कूद गए और उन्हें वापस दबा दिया और अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए । इस प्रसंग से हमें भी संकेत मिलता है कि जीवन के सभी छोटे-मोटे कर्मों की अनदेखी करके हमें भी महान कर्म यानी भक्ति के लिए जीवन में समय निकालना चाहिए ।
248. मनुष्य को कभी भी दिखावे का जीवन नहीं जीना चाहिए । सूत्र यह है कि जीवन में जब तक हम दिखावा नहीं छोड़ेंगे तब तक हम प्रभु के साधन मार्ग पर आगे नहीं बढ़ पाएंगे ।
249. गोपाल बालकों को अजगर की जीभ चिकने रास्ते की तरह लगी । इस प्रसंग का संकेत यह है कि पाप का मार्ग जीव को सदैव आकर्षक लगता है ।
250. कौतूहल और उत्सुकता के कारण गोपाल बालक अजगर के मुँह में गए क्योंकि वे देखना चाहते थे कि यह कैसी गुफा है और इस तरह वे फंस गए । यह प्रसंग संकेत देता है कि हमें भी कौतूहल और उत्सुकता के कारण त्याज्य कर्म कभी भी नहीं करने चाहिए । जो त्याज्य है वह त्याज्य ही है इस सिद्धांत को सदैव जीवन में मानना चाहिए ।
251. हमारी इंद्रियां इतनी बलवान होती हैं कि एक बार हम उत्सुकता या कौतूहल के लिए भी उन्हें खुला छोड़ दें तो वे हमारा सर्वनाश करा देती हैं ।
252. गलत चीज देखनी ही नहीं चाहिए, उस तरफ जाना ही नहीं चाहिए तभी हम प्रभु के साधन मार्ग पर आगे बढ़ पाएंगे ।
253. अजगर की मुँह रूपी गुफा में घुसते हुए भी गोपाल बालकों ने प्रभु को पुकारा, यही उन्होंने श्रेष्ठ काम किया । इस प्रसंग का संकेत यह है कि पापों के दलदल में फंसा हुआ जीव भी जब प्रभु को पुकारता है तो प्रभु आकर उसे निश्चित बचा लेते हैं । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
254. अच्छाइयों में रहकर या बुराइयों में रहकर दोनों अवस्थाओं में ही प्रभु को पुकारना जीवन में कभी नहीं छोड़ना चाहिए । अच्छाइयों में रहकर प्रभु को भूले तो बुराइयां आकर हमें अपनी चपेट में ले लेंगी । बुराइयों में रहकर प्रभु को नहीं पुकारा तो वहाँ से यानी बुराइयों से हमें कभी मुक्ति नहीं मिल पाएगी । इसका सूत्र यही है कि हर अवस्था में प्रभु को जीवन में पुकारते ही रहना चाहिए ।
255. गोपाल बालक प्रभु को इतना प्रेम करते थे कि वनभोज के समय खाना खाते वक्त भी वे गोलाकार रूप में बैठते थे जिससे सब-के-सब प्रभु को देख पाएं और सब की नजरें प्रभु का दर्शन करती रहें । यह प्रसंग हमें संकेत देता है कि हमें भी भोजन करते वक्त सदैव प्रभु का मन में दर्शन करना चाहिए ।
256. सभी गोपाल बालक अपने को प्रभु के सन्मुख अनुभव करते थे । इसका सूत्र यह है कि जीवन में सदैव हमें भी अपने आपको प्रभु के सन्मुख अनुभव करना चाहिए ।
257. अपने मन को प्रिय लगने वाले प्रभु के रूप का हमें सदैव जीवन में ध्यान करते रहना चाहिए ।
258. प्रभु अपने श्रीहाथों से गोपाल बालकों को खिलाते और गोपाल बालकों के हाथों से स्वयं खाते । सच्चे भक्तों को प्रभु अपने श्रीहाथों से खिलाते हैं और सच्चे भक्तों के हाथों से प्रभु स्वयं खाते हैं ।
259. जब स्वर्ग के देवतागण ने देखा कि प्रभु कितने आनंद से गोपाल बालकों को खिलाते हैं और प्रभु कितने आनंद से उनके हाथों से खाते हैं तो उन्होंने यह अनुभव किया कि ऐसा आनंद तो स्वर्गलोक के खान-पान में भी नहीं है ।
260. देवतागण प्रभु के वनभोज के आनंद को देखकर उस भोजन को चखना चाहते थे । तो प्रभु ने सभी गोपाल बालकों से कह दिया कि सब कुछ परोस दो और कुछ भी बचना नहीं चाहिए । साथ ही प्रभु ने आदेश दिया कि कुछ भी जूठा नहीं छूटना चाहिए । प्रभु ने यहाँ तक कह दिया कि कोई हाथ धोने के लिए भी भगवती यमुना माता में भी नहीं जाएं क्योंकि हाथ धोने जाने पर देवतागण वहाँ मछली बनकर हाथों से गिरा जूठन चखने के लिए तैयार थे । देवतागण केवल इतना देखना चाहते थे कि गोपाल बालकों को प्रभु के साथ वनभोज में इतना आनंद कैसे आता है । इसका सूत्र यह है कि प्रभु के लिए भोजन बनाओ और प्रभु को खिलाओ तो इसमें अदभुत आनंद आएगा ।
261. प्रभु की भक्ति और भजन करते वक्त अगर हमारा ध्यान संसार की तरफ गया तो हमें समझ लेना चाहिए कि प्रभु से हम बिछड़ जाएंगे ।
262. प्रभु श्री ब्रह्माजी ने सर्वत्र प्रभु श्री नारायणजी को देखा । एक-एक बछड़े में प्रभु श्री नारायणजी । एक-एक बछड़े के एक-एक बाल में प्रभु श्री नारायणजी । एक-एक बछड़े की रोमावली में प्रभु श्री नारायणजी का दर्शन हुआ । एक-एक बछड़े में कोटि-कोटि प्रभु श्री नारायणजी के दर्शन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने किए । इसका सूत्र यह है कि हर जीव में एवं उसकी प्रत्येक रोमावली में प्रभु स्थित हैं ।
263. प्रभु से बड़ा स्तुति करने योग्य यानी जिनकी स्तुति की जाए ऐसा ब्रह्माण्‍ड में कोई अन्‍य नहीं है । ऐसा प्रभु श्री ब्रह्माजी ने कहा और प्रभु श्री ब्रह्माजी द्वारा की गई प्रभु की स्तुति श्रीमद् भागवतजी महापुराण का अमर अलंकार बन गई ।
264. प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु के श्रीकमलचरणों की व्याख्या करते हुए कहा कि वे सबको धन्यता देने वाले श्रीकमलचरण हैं ।
265. भक्ति करने वाले को सदैव ध्यान रखना चाहिए कि प्रभु का विग्रह धातुमय नहीं है क्योंकि वहाँ पर प्रभु साक्षात रूप से विराजमान हैं ।
266. प्रभु के नाम जप करने से और प्रभु का कीर्तन करने से हमारे शरीर के परमाणु बदल जाते हैं और उनमें अदभुत सात्विकता आ जाती है ।
267. भक्तों के मुँह से निकले शब्द वेदतुल्य हो जाते हैं । यह भक्ति का सामर्थ्य है ।
268. प्रभु के गोपनीय रहस्यों का ज्ञानियों को पता तक नहीं होता पर भक्तों को सदैव उनका भान होता है ।
269. प्रभु के भक्त अपनी भक्ति के बल पर प्रभु के चित्त को जीत लेते हैं और प्रभु अपने रहस्यों को एक के बाद एक खोलकर उनके सामने रख देते हैं । ज्ञानी पोथी पढ़-पढ़ कर भी उन रहस्यों तक कभी नहीं पहुँच पाते ।
270. भक्त प्रभु के सबसे विश्वसनीय होते हैं इसलिए प्रभु अपना रहस्य ज्ञानियों को नहीं बताकर अपने विश्वास पात्र भक्तों को बताते हैं ।
271. प्रभु को जानना एक बात है और प्रभु के मन को जीतना दूसरी बात है जो भक्त ही कर पाते हैं ।
272. प्रभु के मन को वही जीतता है जो ज्ञान से प्रभु को पाने का प्रयास छोड़ देता है ।
273. भारतवर्ष के ऋषियों द्वारा दर्शाए गए मार्ग पर सर्वदा श्रद्धा रखनी चाहिए और उनका सर्वदा विश्वास करना चाहिए ।
274. कुछ लोगों के लिए प्रभु कथा मात्र एक आयोजन होता है । कुछ लोगों के लिए प्रभु कथा उनके जीवन का आधार होती है । कुछ लोगों के लिए प्रभु कथा उनके जीवन का व्यसन होती है पर कुछ लोगों के लिए प्रभु कथा उनका जीवन ही होती है । हम कहाँ पर हैं यह हमें देखना चाहिए और प्रभु कथा को सदैव अपना जीवन ही बनाना चाहिए ।
275. भक्ति की धारा को छोड़कर प्रभु को पाने के लिए जो अन्य किसी धारा को पकड़ता है वह जीव दुर्भाग्य का मारा होता है ।
276. भक्ति जीवन में आ जाए तो कल्याण के इतने प्रवाह, मांगल्‍य की इतनी धाराएं जीवन में फूटेंगी कि हम उन्हें गिन ही नहीं पाएंगे ।
277. भक्ति को जानने के बाद अन्य कुछ जानने योग्य बचता ही नहीं ।
278. प्रभु श्री ब्रह्माजी ने अपनी स्तुति में प्रभु की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ और सबसे सरल बताया है ।
279. प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु से क्षमा मांगने की सबसे बड़ी उपमा अपनी स्तुति में दी है । उन्होंने कहा है कि जैसे एक बेटा अपने पग से अपनी माँ को स्पर्श करने से पाप का भागी होता है पर वही बच्चा जब माँ के गर्भ में होता है तो गर्भ में उसका पग स्‍पर्श पापयुक्त नहीं माना जाता । प्रभु श्री ब्रह्माजी कहते हैं कि मैं एक गर्भ के बालक के समान हूँ और प्रभु मेरी माता के समान हैं इसलिए मेरे अपराध को प्रभु अपराध नहीं मानें ।
280. हमारा अस्तित्व, हमारा निर्माण और हमारा पोषण केवल प्रभु से ही है ।
281. हमें प्रभु की अनुकंपा सिर्फ इस जन्म भर के लिए नहीं बल्कि सदैव के लिए चाहिए - ऐसी प्रार्थना प्रभु से करनी चाहिए ।
282. जीवन के किसी भी प्रतिकूल प्रसंग में प्रभु पर हमारी आस्था कभी भी विचलित नहीं होनी चाहिए । किसी भी सच्चे भक्त ने किसी भी प्रतिकूलता में कभी भी प्रभु से शिकायत की हो ऐसा प्रसंग कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा ।
283. प्रभु से कोई भी शिकायत नहीं, यह एक सच्चे भक्त का लक्षण होता है ।
284. प्रभु के अनुग्रह के लिए अपने हृदय, अपनी वाणी और अपने शरीर के कर्म के द्वारा निरंतर प्रभु के लिए धन्यवाद निकलना चाहिए ।
285. भक्त के जीवन में कुछ भी प्रतिकूल हो जाए तो वह उसे प्रभु का अनुग्रह ही मानता है । संत श्री तुकारामजी का दिवाला निकला तो उसमें भी उन्होंने प्रभु का अनुग्रह ही देखा । संत श्री नरसी मेहताजी का बेटा मरा तो उन्हें उसमें भी प्रभु का अनुग्रह ही दिखा ।
286. प्रभु का भक्त मुक्ति के लिए किसी पर आश्रित नहीं होता क्योंकि भक्ति के कारण मुक्ति पर उसका सहज ही अधिकार बन जाता है ।
287. प्रभु श्री ब्रह्माजी श्री वृंदावनजी की लताएं, वृक्ष, गोपाल, श्रीगोपीजन के भाग्य की सराहना करते हैं और चाहते हैं कि किसी भी जड़ या चेतन रूप में वे भी स्वयं वहाँ आकर प्रभु की सेवा कर पाएं, ऐसी इच्छा वे प्रभु से करते हैं ।
288. हमारी एक-एक इंद्रियों को हमें प्रभु में लगा देना चाहिए । हमारे नेत्रों से सदैव प्रभु का दर्शन होता रहे, हमारे कानों से सदैव प्रभु की कथा का पान होता रहे और हमारी जिह्वा से सदैव प्रभु का नाम जपन होता रहे ।
289. जीवन और प्रभु के लिए साधन दो अलग-अलग बात नहीं हो सकते । हमें अपने जीवन को ही प्रभु के लिए साधन करने में लगाना पड़ता है ।
290. अपने को कभी अपने परिवार का नहीं मानना चाहिए, अपने को सदैव श्री ठाकुरजी का मानना चाहिए । अपने घर को कभी अपना नहीं मानना चाहिए, अपने घर को सदैव प्रभु का मंदिर मानना चाहिए ।
291. श्री भरतलालजी ने श्री अयोध्याजी का राज्‍य प्रभु का मानकर संभाला । श्री भरतलालजी श्री अयोध्याजी की इतनी चिंता इसलिए करते थे क्योंकि वे मानते थे कि यह मेरी नहीं, मेरे प्रभु की संपत्ति है जिसको मुझे संभालना है ।
292. अपने को स्वतंत्र मानते ही जीव फंसता है । अपने को प्रभु के आधीन मानते ही जीव मुक्त होता है ।
293. प्रभु में पूर्णरूप से आसक्ति हो जाए, इसी का नाम भक्ति है ।
294. हमें यह मानना चाहिए कि हम घर में अपने लिए नहीं रहते हैं, हम प्रभु की सेवा करने के लिए प्रभु के घर में प्रभु के सेवक बनकर रहते हैं ।
295. श्रीगोपीजन कभी भी बिलौना अपने लिए नहीं करती थीं, वे माखन अपने लिए नहीं निकालती थीं । उनकी सदैव यही भावना रहती थी कि प्रभु आकर खाएंगे इसलिए उन्हें बिलौना करना है और माखन निकालना है ।
296. भक्ति के कितने ही सिद्धांत श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री ब्रह्माजी की स्तुति में हमें मिलते हैं ।
297. प्रभु अपनी महिमा को भुलाकर अपने भक्तों के साथ खेलते हैं । प्रभु ने गोपाल बालकों के साथ श्रीबृज में जो खेल खेला उसमें अपनी महिमा को भुला दिया था ।
298. प्रभु अपने भक्तों को भक्ति का रसास्वादन कराने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं ।
299. प्रभु अपने भक्तों के लिए हर रूप में उपलब्ध हैं । श्री वैकुण्ठजी में प्रभु परमपिता हैं और प्रभु का कोई सखा नहीं पर श्रीबृज में प्रभु ने गोपाल बालकों के साथ मैत्री कर ली थी ।
300. एकमात्र प्रभु ही मेरे हैं और मैं एकमात्र प्रभु का ही हूँ - इस दृष्टि को जीवन में जो अपना लेता है फिर उसे जीवन में अन्य कोई भी परमार्थ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।
301. जीवन का हर प्रपंच प्रभु को अपना मान कर और प्रभु की खुशी के लिए ही करना चाहिए ।
302. घर में ऐसे रहना चाहिए मानो हम प्रभु की सेवा के लिए प्रभु के सेवक बनकर रह रहे हों ।
303. भारतवर्ष की आध्यात्मिकता ने कभी भी हमारे जीवन से प्रभु को अलग नहीं होने दिया ।
304. प्रभु श्री ब्रह्माजी प्रभु की स्तुति करते हुए कहते हैं कि जिसे रात-दिन ऐसा भान होता है कि मैं एकमात्र प्रभु का ही हूँ और जो ऐसा करने में सफल हो जाता है फिर उसके लिए जीवन में अन्य कुछ भी करना शेष नहीं बचता ।
305. सब कुछ भगवान का है तो फिर हमारा क्या है । हमारे सिर्फ भगवान हैं । इस भाव को जीवन में हमें उतारना चाहिए तो हमारी भक्ति जीवन में सिद्ध हो जाएगी ।
306. अपने घर की ठाकुरबाड़ी को ही अपने प्रभु का स्थाई घर मानना चाहिए । अगर हम ऐसा हृदय से मानेंगे तभी ऐसा संभव होगा ।
307. जब हम यह भावना दृढ़ कर लेते हैं कि सब कुछ भगवान का है और मैं भी सिर्फ भगवान का ही हूँ और हमारी ऐसी दृष्टि और ऐसी वृत्ति जीवन में बन जाती है तो हमारे द्वारा की गई हर क्रिया परमार्थ की क्रिया बन जाती है । उदाहरण स्वरूप घर में हमने रसोई बनाई तो वह भी परमार्थ माना जाएगा क्योंकि वह रसोई प्रभु की है और हमने वहाँ प्रभु के लिए ही प्रसाद बनाया ।
308. भक्ति का इतना सामर्थ्‍य है कि भक्त जो बोले वही श्रीहरि कथा बन जाती है ।
309. पूरे ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ प्रभु नहीं हैं । इसलिए कहीं भी प्रभु की प्रार्थना, प्रभु के लिए साधन और भजन करना संभव है । संतों ने सारे संसार को ही प्रभुमय माना है ।
310. जब हमारे जीवन के हेतु प्रभु बन जाते हैं तो हमारी हर आसक्ति भक्ति बन जाती है ।
311. जैसे तीर्थों के लिए हमारे मन में पवित्र भावना होती है वही पवित्र भावना हम अपने घर में भी जगा लें तो हमारा घर भी तीर्थ बन जाता है । अपने घर को ही मंदिर बनाना चाहिए तभी सही अध्यात्म की पूर्ति होगी । श्रीगोपीजन ने कभी भी घर नहीं छोड़ा, घर को ही भगवान का बना दिया - यही भक्ति का श्रेष्ठ तरीका है ।
312. जब प्रभु एक वर्ष के लिए बछड़े और गोपाल बने तो उन गायों और श्रीगोपीजन के मन में अपने बछड़े और गोपालों के लिए अत्यधिक प्रेम की वृद्धि हो गई । इसका सूत्र यह है कि अगर हम जीवन में प्रभु को अपना बना लेंगे तो हमारा प्रभु प्रेम स्वतः ही बढ़ता चला जाएगा ।
313. गौ-माता और श्रीगोपीजन का भाव था कि प्रभु उनके पुत्र होते तो कितना अच्छा होता । भगवती यशोदा माता का भाग्य देखकर गौ-माता और श्रीगोपीजन सोचती कि क्या ऐसा अवसर उनके जीवन में भी आएगा । उनकी भावना को पूरी करने के लिए प्रभु ने प्रभु श्री ब्रह्माजी को निमित्त बनाकर ऐसी श्रीलीला की और एक वर्ष तक गौ-माता और श्रीगोपीजन के बछड़े और पुत्र बनकर उन्‍हें परमानंद प्रदान किया ।
314. प्रभु को देखकर सबके मन में प्रेम उमड़ता है और हमेशा उमड़ता रहेगा । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
315. प्रभु कल्पवृक्षों के भी कल्पवृक्ष हैं । जो जिस भावना से प्रभु के पास जाता है प्रभु उसकी उस भावना की पूर्ति करते हैं ।
316. प्रभु से बस तीव्र इच्छा करनी चाहिए तो प्रभु उसे पूरा करते हैं । इच्छा सात्विक, पवित्र और तीव्र हो बस यह जरूरी है ।
317. प्रभु को पाने का, प्रभु के बनने का जो संकल्प हमारे अंदर है उसमें तीव्रता हो, एकाग्रता हो और व्याकुलता हो तो वह पूरा हुए बिना शेष नहीं रह सकता ।
318. हमारे सात्विक संकल्प को हमारे जीवन काल में ही प्रभु साकार करके दिखाते हैं ।
319. संकल्प सात्विक होना चाहिए, एक ही होना चाहिए, तीव्र होना चाहिए और लगातार वही संकल्प जीवन में दोहराते रहना चाहिए । रोजाना संकल्प बदलते नहीं रहना चाहिए । ऐसा होने पर प्रभु उस संकल्प को अवश्य पूरा करेंगे ।
320. प्रभु हमारे भीतर अंतःकरण में स्थित हैं । प्रभु हमारे स्वयं का स्वरूप हैं । हम प्रतिबिंब हैं और प्रभु हमारे मूल बिंब हैं । इसलिए जीव का सर्वाधिक प्रेम केवल प्रभु से ही संभव है । संसार में अन्य किसी रिश्ते से, यहाँ तक कि स्वयं से भी उतना प्रेम संभव नहीं हो सकता । सिद्धांत यह है कि जीव का सर्वाधिक प्रेम केवल प्रभु से ही संभव है । अब जरूरत इस बात की है कि इसे हम अपने जीवन में साकार करके दिखा पाएं ।
321. फलों के भार से वृक्ष की डाली झुक जाती है पर भक्त जब यह देखता है तो उसके मन में यह भाव आता है कि प्रभु को प्रणाम करने के लिए वृक्ष झुका है ।
322. नदी में जल, कल-कल की ध्वनि करके बहता है पर भक्त जब यह सुनता है तो उसके मन में यह भाव आता है कि प्रकृति द्वारा गाया गया प्रभु के लिए यह स्तोत्र पाठ है ।
323. स्वयं को केंद्र में रखने पर जीवन में उतना विकास नहीं होता है पर जब हम स्वयं को केंद्र से हटाकर प्रभु को केंद्र में ले आते हैं तो हमारे जीवन का सच्चा और पूर्ण विकास होता है ।
324. श्री उद्धवजी से प्रभु शपथ लेकर कहते हैं कि मैं अपने स्वयं से भी इतना प्रेम नहीं करता जितना अपने प्रेमी भक्तों से करता हूँ ।
325. प्रभु गौचारण के समय एक आवाज देते हैं और सभी गौ-माताएं दौड़कर प्रभु के पास चली आती हैं । इस प्रसंग से यह सूत्र हमें समझना चाहिए कि प्रभु सभी जीवों को आवाज देते हैं पर क्या हम वह आवाज सुनते हैं और क्या हम प्रभु की तरफ दौड़ते हैं ?
326. गोपाल बालक गौचारण के समय प्रभु से कहते हैं कि आप विचरण के दौरान दोपहर में चलते-चलते थक गए होंगे अब विश्राम करें । इस प्रसंग का सूत्र है कि क्या हम भी प्रभु को कभी कहते हैं कि जगत को चलाते-चलाते आप थक गए होंगे, अब थोड़ी देर विश्राम करें । अपनी ठाकुरबाड़ी में क्या कभी हम इस भावना से प्रभु को विश्राम करवाते हैं ?
327. गोपाल बालक तकिया नहीं होने पर प्रभु को अपनी गोद का तकिया बनाकर गोदी में सुलाते हैं । क्या हमने कभी अपनी ठाकुरबाड़ी में प्रभु के सिंहासन का तकिया हटाकर प्रभु से कहा है कि प्रभु मेरी गोदी में सोएं ?
328. प्रभु की मधुर-मधुर श्रीलीलाओं को जीवन में याद करना ही सबसे बड़ा ध्यान है ।
329. गोपाल बालक प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करते हैं और उन्हें दबाते हैं । प्रभु कहते हैं कि मैं थका नहीं हूँ फिर भी गोपाल बालक भाववश प्रभु के श्रीकमलचरणों को दबाते हैं और प्रभु को आराम देने का प्रयास करते हैं । क्‍या हम भी जीवन में कभी प्रभु को आराम देने का प्रयास करते हैं ?
330. भक्त प्रभु की एक-एक मधुर श्रीलीलाओं के एक-एक भाव का चिंतन करते हैं और रोमांचित होते रहते हैं ।
331. प्रभु की एक-एक मधुर श्रीलीलाओं का संत ध्यान करते हैं और अपने मन में सोचते हैं कि यह कितना सुंदर चित्र है प्रभु का ध्यान करने के लिए ।
332. सभी गोपाल बालकों के लिए प्रभु श्री शुकदेवजी एक नए विशेषण का प्रयोग करते हैं । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि सबके मन में प्रभु के लिए इतना-इतना प्रेम भरा हुआ है जिसका मैं किसी विशेषण से बखान नहीं कर सकता ।
333. हमारी बुद्धि में प्रभु के लिए अनुपम प्रेम का भाव जगना ही भक्ति है ।
334. साक्षात भगवती लक्ष्मी माता, भगवती जानकी माता जिन प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा निरंतर करती रहती हैं, उन प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा का सौभाग्य गोपाल बालक लेते हैं । क्या हमने कभी ऐसा सौभाग्य लेने का अपने जीवन में प्रयास किया है ?
335. प्रभु के आगे श्री वेदजी भी स्तुति गान नहीं कर पाते पर गोपाल बालक प्रभु के सामने गाते हैं और प्रभु को उनका यह गायन इतना प्रिय लगता है जितना श्रीवेदों और श्रुतियों की स्‍तुति भी प्रिय नहीं लगती ।
336. गोपाल बालकों की सेवा वे प्रभु ग्रहण कर रहे हैं जिनकी सेवा करना असंभव है, जिनकी सेवा की ही नहीं जा सकती और जिनको सेवा की कोई आवश्यकता ही नहीं है । पर फिर भी प्रभु सेवा क्यों ग्रहण करते हैं, ऐसी सेवा प्रभु सिर्फ भाव के कारण, अपनेपन के कारण ग्रहण करते हैं ।
337. भगवती शबरीजी के फलों की तारीफ प्रभु ने वहाँ पर उनके सामने ही नहीं की बल्कि वनवास के बाद निरंतर राजमहल में भगवती जानकी माता के सामने और सदैव सबके सामने करते ही रहे । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि भक्ति के अभाव वाले फल प्रभु कभी ग्रहण नहीं करते और भक्ति से युक्त चीज को प्रभु कभी भूलते नहीं ।
338. भाग्यवान वही है जिसने जीवन में प्रभु की प्रेमाभक्ति को जाना है ।
339. गोपाल बालकों की सेवा स्वीकार करने में प्रभु रम गए । “रम गए” शब्द का प्रयोग प्रभु श्री शुकदेवजी ने किया है और राजा श्री परीक्षितजी से कहा है कि देखो प्रभु सेवा लेने में रम गए ।
340. प्रभु की सेवा करने का गोपाल बालकों को सौभाग्य मिला । प्रभु से प्रेम करने पर यह सौभाग्य आज भी हम ले सकते हैं और अगर हमारे हृदय में प्रभु के लिए भावना है तो हमें यह सौभाग्य आज भी मिल जाएगा ।
341. प्रभु को खिलाए बिना कभी भी जीवन में खाना नहीं चाहिए । घर में जो भी बने उसे शुद्धतम बनाना चाहिए क्योंकि वह प्रभु के लिए बन रहा है, ऐसा भाव हमारे मन में होना चाहिए ।
342. प्रभु के सामने भोग की थाली रखी और हटा ली, यह भोग लगाना नहीं हुआ । उन्हें प्रेम से खिलाना चाहिए और खिलाने वाले को इंतजार करना चाहिए कि प्रभु को खाने में समय लगेगा । हम भोग की थाली जल्दी से रखते हैं और तत्काल ही उसे हटा लेते हैं, यह एकदम भावविहीन है और गलत है ।
343. हमारी रसोई में क्या कमी रहती है कि प्रभु उसका भोग स्वीकार नहीं करते । उसमें सिर्फ प्रेम की कमी और भाव की कमी रहती है ।
344. प्रभु को पंखा करने का मन तब होता है जब हमारे पाप नष्ट हो चुके होते हैं । जिसके पाप शेष हैं उसे प्रभु को पंखा करने का कभी जीवन में मन ही नहीं होगा ।
345. प्रभु को भूख लगती है, गर्मी लगती है, सर्दी लगती है, नींद आती है - यह भाव जीवन में अगर आ गया तो ही हमें अपने जीवन की धन्यता माननी चाहिए ।
346. अपने से भी ज्यादा प्रेम अगर हम अपने प्रभु से करने लग जाएं तो ही यह मानना चाहिए कि हमारी भक्ति सिद्ध हो गई है ।
347. एक बहुत बड़े भक्त प्रभु को सर्दी में दवाई पिलाते थे । वे इतने भावुक थे कि उन्हें लगता था कि प्रभु को सर्दी लग गई और इसलिए प्रभु को दवाई पिलाते थे ।
348. एक संत को चाय पीने की आदत थी पर वे प्रभु से इतना प्रेम करते थे कि वे भावुकता से प्रभु का नाम लेकर पहला घूंट पीते मानो चाय प्रभु को पिला रहें हों ।
349. एक संत ने प्रभु का नाम रास के ठाकुरजी रख दिया और नित्‍य तीन घंटे सुबह प्रभु की सेवा करते थे । उनका भाव था कि प्रभु रात्रि में रास खेलकर आए हैं और थक गए होंगे, इसलिए प्रभु की थकान उतारने के लिए वे प्रभु की सेवा करते ।
350. जिनके पाप नष्ट हो चुके होते हैं और पुण्य का उदय हो चुका होता है तभी प्रभु के लिए उनके मन में भाव और श्रद्धा आती है । प्रभु के लिए उनके मन में भाव और श्रद्धा इसी बात की सूचक है ।
351. अगर भक्ति है तो प्रभु समाज के हर स्तर के लोगों की सेवा लेने के लिए आतुर रहते हैं । एक धनी व्यक्ति जो मंदिर बनाकर प्रभु की सेवा करता है और एक गरीब व्यक्ति जो प्रभु की एक फोटो की सेवा करता है, अगर दोनों में भाव एक समान है तो उनको उनकी सेवा का एक जैसा फल मिलेगा ।
352. एक संत स्वयं के लिए कुछ नहीं पका सकता । उन्हें जो भिक्षा मिलती है उसे ही वे प्रभु को अर्पण करते हैं और भाव के कारण प्रभु उसे भी छप्पन भोग की तरह ग्रहण करते हैं ।
353. प्रभु हमारे भीतर स्थित हैं । इसलिए उन्हें खोजने कहीं भी बाहर जाना नहीं पड़ता ।
354. जीवन यात्रा के लिए हमें एक वाहन चाहिए और उस वाहन के रूप में हमें शरीर मिला है । जैसे हम एक गाड़ी का दिल्ली पहुँचने के लिए इस्तेमाल करते हैं और दिल्ली पहुँचने पर उससे उतर जाते हैं और वह गाड़ी अच्छी भी है तो भी उसमें बैठे नहीं रहते, वैसे ही हमें जीवन यात्रा में अपने शरीर में फंसकर नहीं रहना चाहिए और इससे ऊपर उठकर प्रभु प्राप्ति के लिए जीवन में प्रयासरत होना चाहिए ।
355. भक्त प्रभु सानिध्य में आनंद मनाते हैं और प्रभु भी इस आनंद को देख कर आनंदित होते हैं ।
356. भक्तों के सानिध्य का आनंद प्रभु भी अनुभव करते हैं और करना चाहते हैं ।
357. प्रभु की दृष्टि ही अमृतमयी होती है ।
358. प्रभु इतने कोमल और इतने अदभुत सुंदर हैं कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । श्री रामायणजी में राक्षस खर प्रभु श्री रामजी की कोमलता और सुंदरता को देखकर एवं श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कालिया नाग प्रभु श्री कृष्णजी की कोमलता और सुंदरता को देखकर आक्रमण करना भूल गए और प्रभु के रूप लावण्य पर मुग्‍ध हो गए ।
359. साधन के रूप में प्रभु के कोमल रूप का ध्यान करना चाहिए । इसके लिए हमारा मन भी कोमल होना चाहिए तभी हम प्रभु के कोमल रूप का ध्यान कर पाएंगे ।
360. अपने चित्त को कोमल करना, यह भक्ति का एक लक्षण है । अगर हमारा चित्‍त कोमल नहीं हुआ तो हम जो साधन कर रहे हैं वह कसरत मात्र ही है ।
361. प्रेमाभक्ति की बात ही अलग है क्योंकि प्रेमाभक्ति से ही प्रभु को जीवन में हम पहचान पाते हैं ।
362. प्रभु ने जब देखा कि पूरा गोप गोपियों का समूह रो रहा है क्योंकि श्रीलीला में कालिया नाग ने प्रभु को पकड़ रखा था तो प्रभु ने तत्काल कालिया मर्दन का निर्णय किया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु अपने भक्तों की आँखों के आंसू को देख नहीं पाते ।
363. कालिया नाग का जो-जो फन उठता प्रभु उस पर ही अपने श्रीकमलचरणों से प्रहार करते । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि भक्त के अंदर जो-जो बुराइयां उठती हैं प्रभु उस पर प्रहार करके उसका अंत कर देते हैं ।
364. कालिया नाग अंत में प्रभु की शरणागति की भूमिका में आ गया । दुष्ट जब भी अंत में प्रभु की शरण में आता है तो वह प्रभु के द्वारा अभय दान पा जाता है ।
365. कालिया नाग के भाग्य को देखकर देवतागण भी दंग रह गए क्योंकि ऐसा भाग्यवान कोई नहीं हुआ जिसके सिर पर प्रभु ने इतनी बार अपने श्रीकमलचरणों को रखा हो । कालिया नाग के एक सौ एक फनों पर प्रभु ने अपने श्रीकमलचरणों को रखकर नृत्य किया ।
366. प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न कालिया नाग के फन पर अंकित होने के कारण अब श्री गरुड़जी भी कालिया नाग को कभी भी जीवन में ताड़ना नहीं दे सकते । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होने के बाद फिर संसार का कोई भी दुःख हमें कभी भी ताड़ना नहीं दे सकता ।
367. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को उपदेश दिया है कि काम यानी कामना-इच्छा, विषय-वासना को मार डालो क्योंकि काम हमारे अंतःकरण में हमारी आत्मा को दूषित करने वाला होता है ।
368. काम यानी कामनाओं के कारण ही प्रभु हमसे दूर हो जाते हैं ।
369. काम यानी कामनाओं के कारण ही हमारे अंतःकरण के आनंद की हमें हानि होती है ।
370. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु कहते हैं कि शांति उसे ही मिलती है जो अपनी कामनाओं का नाश कर देता है ।
371. प्रभु काम से कभी भी समझौता करने की बात नहीं कहते हैं अपितु उसे पूरा नष्ट करने की ही बात कहते हैं ।
372. कामना जीवन में नहीं होगी ऐसा संभव नहीं । कामनाओं को जीवन से नष्ट करना संभव नहीं । इसलिए संतों ने इसका उपाय निकाला कि सभी कामनाओं को प्रभु के लिए निहित कर देना चाहिए यानी कामनाएं जीवन में प्रभु के लिए ही होनी चाहिए ।
373. कामनाओं के त्याग के बिना प्रभु दर्शन जीवन में नहीं हो सकता और प्रभु की अनुकंपा के बिना कामना का नाश जीवन में नहीं हो सकता ।
374. कालिया नाग, जो कि काम का प्रतीक है, उसको प्रभु ने मारा नहीं यानी प्रभु ने कामना को मारा नहीं अपितु उसे अपने श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न से नियंत्रित कर दिया । हमें भी अपनी कामनाओं को मारना नहीं चाहिए अपितु उन्हें प्रभु की तरफ मोड़कर नियंत्रित कर देना चाहिए ।
375. जीवन में जो भी कामना हो यानी हमें जो भी कुछ चाहिए वह प्रभु के लिए ही चाहिए । यही कामना को नियंत्रित करने का श्रेष्ठतम उपाय है ।
376. श्री नंदबाबा के पास भवन, गौमाताएं, अलंकार सब कुछ था पर अपने स्वयं के लिए कुछ भी नहीं था । सब कुछ प्रभु के लिए था इसलिए श्री नंदबाबा श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनके पास सब कुछ होते हुए भी अपने लिए कुछ नहीं बल्कि सब कुछ प्रभु के लिए था ।
377. आज भी दक्षिण भारत के मंदिरों की संपत्ति प्रभु के नाम होती है और वह संपत्ति प्रभु की होती है ।
378. आज भी कुछ चुनिंदा गायक हैं जो संसार के लिए नहीं गाते, केवल प्रभु को रिझाने के लिए ही गाते हैं ।
379. हर बात के मूल आधार प्रभु हो जाएं तो ही व्यक्तिगत जीवन की उन्नति, भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति संभव है ।
380. सिद्धांत के तौर पर दो बातें जीवन में आ जाए तो हमारी भक्ति पूर्ण हो जाती है । पहली, जो कुछ भी करना हो प्रभु के लिए करना और दूसरी, जो कुछ भी किया उसको करके प्रभु को अर्पण कर देना ।
381. जब भी घर में कोई भी खुशी का प्रसंग आए तो उसे प्रभु को समर्पित करने से उस पर नजर नहीं लगती और वह अक्षुण्ण हो जाता है ।
382. प्रभु की श्रीलीला और ऐश्वर्य का दर्शन करना प्रभु के लिए हमारे मन में आस्था और आशा जगाने के लिए जरूरी है । उदाहरण स्वरूप जब हम सुनते हैं कि प्रभु ने दावाग्नि का पान किया तो यह श्रीलीला सुनने पर प्रभु के अग्निपान के ऐश्वर्य को हम जान जाते हैं और कभी भी जीवन में हम अग्नि से घिर जाएंगे तो तत्काल आशा की किरण के रूप में प्रभु हमें याद आएंगे और हमें बचाने के लिए हम प्रभु को पुकारेंगे ।
383. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में वर्षा ऋतु के वर्णन में कितने ही गहन सिद्धांत छिपे हुए हैं । ऐसे ही सिद्धांत श्री रामचरितमानसजी के अरण्यकांड में छिपे हुए हैं, जब प्रभु ने वर्षा ऋतु का वर्णन श्री लक्ष्मणजी के सामने किया । उदाहरण स्वरूप इस वर्णन में कहा गया है कि कलियुग में पाप और पापी वैसे चमकते हैं जैसे वर्षा ऋतु की रात में जुगनू चमकते हैं । दूसरा उदाहरण देखें जिसमें कहा गया है कि फसल उगने पर जैसे किसान को आनंद होता है वैसे ही श्रद्धा होने पर भक्ति आनंद मनाती है । तीसरा उदाहरण देखें कि जैसे सागर की लहरें शांत हो जाती हैं वैसे ही श्रीग्रंथों के सिद्धांतों को जीवन में उतारकर संत शांत हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि एक-एक उपमा में पूरे साधन का रहस्य प्रकट किया गया है ।
384. प्रभु की बांसुरी सुनते ही श्रीगोपीजन बेचैन हो जाती थी और फिर उनका संसार में, घर में और काम में मन नहीं लगता था ।
385. श्रीगोपीगीत इसलिए इतना दिव्य है क्‍योंकि इसमें भिन्न-भिन्न श्रीगोपीजन ने प्रभु के लिए अपने-अपने भावों की अभिव्यक्ति की है ।
386. प्रभु का सौंदर्य नख से शिख तक अलौकिक है । प्रभु का कोई एक श्रीअंग सुंदर है ऐसा नहीं है अपितु पूरे नख से शिख तक ही प्रभु अदभुत सुंदर हैं ।
387. हमारे नेत्रों का सबसे बड़ा फल यही है कि उनसे सदैव प्रभु के दर्शन होते रहें ।
388. हमारे नेत्रों की सफलता तभी है जब हम उनके माध्यम से प्रभु के रूप को अपने हृदय में बसाने में सफल हो जाएं ।
389. जीवन की धन्यता इसी में है कि रोज-रोज प्रभु के दिव्य स्वरूप का दर्शन हमारे नेत्र करते रहें ।
390. भक्‍त को भगवान के दर्शन करने की आकांक्षा होती है तो भगवान के मन में भी अपने भक्तों को देखने की आकांक्षा रहती है । यह रहस्य प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने श्रीवचन में श्री अर्जुनजी के सामने प्रकट किए ।
391. प्रभु अपने भक्तों की राह देखते हैं कि कब आएगा मेरा भक्त और कब मैं अपने भक्त को देख सकूँगा ।
392. जैसे दुकान में एक ग्राहक आया तो दुकानदार की उसको देखने की नजर अलग होती है और एक चंदा मांगने वाला आया तो उसको देखने की नजर अलग होती है वैसे ही प्रभु की भक्तों को देखने के लिए नजर अलग होती है और मांगने वालों को देखने की नजर अलग होती है ।
393. भक्तों को देखने वाली नजर में प्रभु का इतना प्रेम, इतना अनुराग और इतना अनुग्रह छिपा हुआ होता है जिसका हम वर्णन भी नहीं कर सकते ।
394. श्रीगोपीजन का प्रिय रूप था बंसी बजाते हुए प्रभु । ऐसे ही हमें भी अपने जीवन में प्रभु के एक प्रिय रूप को हृदय में बसाकर रखना चाहिए ।
395. एक बार प्रभु श्रीगोपीजन से मिलने शंख, चक्र और गदा लेकर श्रीगरुड़जी पर सवार होकर आए तो श्रीगोपीजन ने प्रभु को प्रणाम किया और जाने लगी तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने इसका कारण पूछा । कारण बताते हुए श्रीगोपीजन ने कहा कि हमें तो बांसुरी वाला रूप ही प्रिय है । यह भक्तों का विशेषाधिकार होता है ।
396. अत्यंत निष्ठावान भक्तों की आदत होती है कि वे प्रभु के सभी रूपों को देखते हैं, सबको प्रणाम करते हैं पर अपने प्रिय रूप में ही रमते हैं । भगवती मीराबाई ने कह दिया कि मेरो गिरधर वही जो मोर मुकुट बंसी वाला हो । संत तुकारामजी सारे तीर्थों के दर्शन करने के बाद फिर श्री विट्ठलजी प्रभु के सामने आकर रोए और कहा कि तुमसा न कोई । यह भक्ति का अलंकार है कि प्रभु के किसी एक प्रिय रूप से हम इतना जुड़ जाएं । यह भक्ति का दोष नहीं है क्योंकि यहाँ पर किसी भी रूप का निरादर नहीं है ।
397. जहाँ चित्त एकरूप हो जाए वहाँ का ज्ञान दूर बैठे ही प्राप्त हो जाता है, यह सिद्धांत है । श्रीगोपीजन का चित्त प्रभु से एकरूप हो गया था इसलिए प्रभु जब गौचारण के लिए जाते थे तो घर बैठे श्रीगोपीजन को भी वहाँ की लीला का दर्शन होता रहता था । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जहाँ हमारा मन पहुँच जाता है वहाँ हम स्वयं भी पहुँच जाते हैं और वहाँ का सब कुछ हमें दिखने लगता है । इसलिए हमें अपने मन को प्रभु तक पहुँचाना चाहिए ।
398. श्रीगोपीजन को सबसे ज्यादा चिढ़ बांसुरी से थी क्योंकि वह प्रभु की होठों से निरंतर लगी रहती थी । श्रीगोपीजन कहती थीं कि कितना बड़ा भाग्य, कितना बड़ा पुण्य बांसुरी का है । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु के निकट होना हमारे पुण्य और भाग्य के उदय का सूचक होता है ।
399. पशु और पक्षी योनि में जन्मे मोर, हिरण और अन्य पक्षी सब कितने धन्य थे जो प्रभु की बांसुरी सुनकर प्रभु के पास निरंतर रहते थे और टकटकी लगाकर प्रभु को देखते ही रहते थे । पशु योनि और पक्षी योनि में आकर संत और परमहंस ही प्रभु की सेवा करते थे ।
400. भगवती श्री यमुनाजी की लहरों का एक ही हेतु था कि अपने जल के अंदर खिले कमलों को उछाल कर प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचा दें ।
401. प्रभु की बांसुरी से गौमाताएं और बछड़े इतने मंत्रमुग्ध हो जाते कि गौमाताएं खाना भूल जातीं, चबाना भूल जातीं, पचाना भूल जातीं और बछड़े दूध पीना भूल जाते ।
402. प्रभु की बांसुरी के प्रभाव से चंचल बंदर समाधि में ऋषियों जैसी अचंचलता का प्रदर्शन करते ।
403. प्रभु श्री गिरिराजजी हर प्रकार से प्रभु की सेवा करते । प्रभु श्री गिरिराजजी के झरने का जल प्रभु पीते । प्रभु श्री गिरिराजजी के वृक्षों के पत्तों और फूलों का श्रृंगार प्रभु करते । प्रभु श्री गिरिराजजी के वृक्षों के फलों को प्रभु चखते । ऐसा कुछ भी नहीं था जो प्रभु श्री गिरिराजजी ने प्रभु की सेवा में अर्पण नहीं किया हो । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु श्री गिरिराजजी ने अपना सब कुछ अर्पण कर दिया तो स्वयं भी प्रभुरूप हो गए और पूज्य हो गए । यह शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु को सब कुछ अर्पण कर देने वाला पूज्य बन जाता है ।
404. प्रभु की भक्ति से बड़ा सौभाग्य संसार में हो ही नहीं सकता ।
405. जीवन प्रभु की भक्ति में लग जाए यह निर्णय हमने जब भी जीवन में लिया तो यह मानना चाहिए कि उसी समय हमारे सौभाग्य का उदय हो गया है ।
406. वह जीवन सर्वोत्तम होता है जिसमें परम लक्ष्य प्रभु ही होते हैं ।
407. किसी को लगता है कि मैं उद्योगपति हो जाऊँ, कोई चाहता है कि मेरा भरा पूरा परिवार हो, कोई आरोग्य की कामना का लक्ष्य जीवन में बनाता है । हर व्यक्ति का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है । पर जीवन का सबसे ऊँ‍चा लक्ष्य क्या है ? जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य यही है कि हमें जीवन में प्रभु मिलें । ऐसा विचार जिसने जीवन में कर लिया उसने अपने जीवन में सबसे ऊँ‍चा लक्ष्य स्थापित कर लिया क्योंकि इससे ऊँ‍चा कोई लक्ष्य जीवन में हो ही नहीं सकता ।
408. मुझसे प्रभु की भक्ति अधिक-से-अधिक हो पाए इस तथ्य को जिसने जान लिया उसने शास्त्र नहीं पढ़ कर भी सब कुछ जान लिया और जिसने सभी शास्त्र पढ़कर भी यह नहीं जाना उसने कुछ भी नहीं जाना ।
409. निष्ठा और भक्ति भाव के बिना पढ़ा गया मंत्र, किया गया कर्मकांड वह फल नहीं देता जो मिलना चाहिए था ।
410. अंततोगत्वा सबको सभी साधनों के प्राप्‍तव्य एक प्रभु ही हैं ।
411. जिसको जो रूप प्रिय है प्रभु वही रूप उसके लिए ग्रहण कर लेते हैं ।
412. जैसे मिट्टी से प्रभु श्री रामजी, प्रभु श्री कृष्णजी, प्रभु श्री शिवजी की मूर्ति बनी पर सबके मूल में मिट्टी ही है, ऐसे ही प्रभु के सभी रूपों के मूल में प्रभु ही हैं ।
413. प्रभु का मूल तत्व एक ही है चाहे आकृति अलग-अलग क्यों न हो । यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण का मूल सिद्धांत है ।
414. श्रीमद् भागवतजी महापुराण संप्रदायातीत श्रीग्रंथ है । किसी संप्रदाय विशेष का नहीं बल्कि यह सभी का श्रीग्रंथ है ।
415. भक्ति का साधन जीव को तुरंत प्रभु से मिलाने वाला साधन है । अन्य साधन कितने भी हों पर उनका इतना बड़ा सामर्थ्‍य नहीं है ।
416. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्री रामचरितमानसजी की वाणी अंतिम है । जीवन में इनके अलावा अन्य कुछ भी पढ़ने की फिर कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
417. श्रीगोपीजन ने जब प्रभु की बांसुरी सुनी तो उनका ध्यान कहाँ गया । बांसुरी के राग पर नहीं गया, जो प्रभु बांसुरी बजा रहे थे उन पर गया । इसका सूत्र यह है कि हमें भी किसी साधन में उलझ कर नहीं रहना चाहिए अपितु उस साधन के माध्यम से सीधे प्रभु तक पहुँचना चाहिए ।
418. किसी भी धर्म के अंतर्गत जाइए, कोई भी साधन करिए, जाना तो एक प्रभु तक ही है ।
419. उत्तम लोगों को भगवत् साक्षात्कार से बड़ा लक्ष्य जीवन में कुछ नहीं लगता क्योंकि इससे बड़ा लक्ष्य या ध्‍येय हो ही नहीं सकता ।
420. भोगों को जीवन से निकालने की आवश्यकता है, नहीं तो दिन प्रतिदिन उनकी याद आती रहेगी । सच्चा वैराग्‍य यही है कि जो सामने आ गया उसे स्वीकार कर लेना और दूसरे दिन उसकी आकांक्षा नहीं रखना । एक दिन रसगुल्ला मिला तो उसे खा लिया पर दूसरे दिन रसगुल्ले को याद नहीं किया, चना मिला तो उसे चबा लिया, यही सच्चा वैराग्य है ।
421. नदियों में भी उन नदियों का महत्व होता है जो सागर से मिलती हैं । उन नदियों का महत्व नहीं होता जो दूसरी नदियों से मिलती है । सूत्र यह है कि जीवन में हमारा साधन भी वही होना चाहिए जो हमें प्रभु रूपी सागर से मिला दे । ऐसा साधन जो प्रभु से हमें मिला दे उसका ही महत्‍व होता है और भक्ति ही एकमात्र ऐसा साधन है ।
422. धन्य हैं वे साधक जो प्रभु को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं ।
423. परमात्मा प्राप्ति हुए बिना जीवन में रुकना नहीं चाहिए क्योंकि यही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
424. हमारे जीवन में यह लक्ष्य होना चाहिए कि हमें प्रभु प्राप्ति हो जाए क्योंकि यही जीवन का श्रेष्ठतम लक्ष्य है । पर ऐसा लक्ष्य लेने वाले लोगों की संख्या बहुत कम होती है पर जो जीवन में यह लक्ष्य लेते हैं उनका ही जीवन धन्य होता है ।
425. भगवती जगदम्बा माता की आराधना से जीवन की सभी कामनाएं पूरी होती हैं । इसलिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्रीगोपीजन भगवती जगदम्बा माता से प्रार्थना करती हैं कि वे प्रभु की प्रिय बनें । श्री रामचरितमानसजी में भगवती जानकी माता ने भी प्रभु से विवाह हेतु स्वयंवर से पहले भगवती जगदम्बा माता के मंदिर जाकर पूजन किया । सूत्र यह है कि जो कुछ भी किया जाता है वह भगवत शक्ति द्वारा ही किया जाता है और भगवती जगदम्बा माता प्रभु श्री शिवजी की शक्ति स्वरूपा हैं ।
426. मिट्टी से प्रभु श्री शिवजी का लिंग बनाया और फिर पूजन किया एवं पूजा करके विसर्जन कर दिया तो मिट्टी तो मिट्टी में मिल गई और पूजा प्रभु श्री शिवजी तक पहुँच गई । यह केवल सनातन धर्म और सनातन संस्कृति का ही सामर्थ्य है ।
427. प्रभु ने जब चीरहरण की श्रीलीला की तो प्रभु मात्र 6 वर्ष के थे और श्रीगोपीजन मात्र 9 वर्ष की थी । प्रभु चाहते थे कि गोपियां जल से बाहर आकर वस्त्र लें पर गोपियां चाहती थीं कि प्रभु वस्त्र छोड़कर चले जाएं । प्रभु ने गोपियों को बाहर आने पर बाध्य किया और फिर वस्त्र लौटा दिए । इस प्रसंग से दो सूत्र निकलते हैं । पहला, प्रभु अपने प्रेमीजनों को अपने पास आने के लिए बाध्य करते हैं । दूसरा, गोपियों को बाहर आने में संकोच था पर प्रभु उन्हें बताना चाहते थे कि क्या प्रभु जल में नहीं हैं तो फिर उन्हें उनके सामने प्रत्यक्ष बाहर आने में संकोच या लज्जा कैसी ।
428. कर्मकांड में शास्त्रों में लिखित शब्दों की महत्वता है पर भक्ति में सिर्फ प्रभु के लिए भाव की महत्वता होती है ।
429. जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसके लिए शास्त्र वचन ही सबसे प्रमाणित होते हैं ।
430. भगवत् प्राप्ति की इच्छा एक कामना होने पर भी कामना नहीं क्योंकि जैसे धान के भुने हुए बीज को बोने पर वह अंकुरित नहीं होता वैसे ही प्रभु प्राप्ति की कामना भुनी हुई होती है और वह कर्मफल नहीं बनाती ।
431. प्रभु मार्ग पर चलने पर हुई गलती भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाती क्योंकि जैसे भुना हुआ बीज जमीन पर पड़ने के बाद भी अंकुरित नहीं होता वैसे ही प्रभु मार्ग पर चलने वाले की कोई गलती भी उसे कर्मबंधन में नहीं बांधती ।
432. प्रभु प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा हो और इसके अलावा अन्य कोई आकांक्षा जीवन में हो ही नहीं तो यह श्रेष्‍ठतम है । संत श्री रामकृष्ण परमहंसजी के जीवन में एक ही कामना थी कि मुझे भगवती काली माता कब मिलेंगी, इसके अलावा उनके जीवन में अन्य कोई कामना थी ही नहीं ।
433. शास्त्रों में सच्चा साधु उन्हें बताया गया है जिनके जीवन में एकमात्र और अंतिम कामना प्रभु की प्राप्ति की हो । सिर्फ भगवा वस्त्र पहनने वाले को शास्त्रों में साधु नहीं माना गया है । प्रभु ने श्रीगोपीजन को साधु कहकर अभिवादन किया क्योंकि श्रीगोपीजन की एकमात्र कामना प्रभु प्राप्ति ही थी ।
434. प्रभु हमारे अंतःकरण में, हमारे भीतर स्थित हैं फिर हमें मिलते क्यों नहीं । क्योंकि कुछ आवरणों से ढके हुए हैं । भक्ति से यह आवरण यानी पर्दा हट जाता है और हमें प्रभु का साक्षात्कार हो जाता है ।
435. प्रभु कहीं हैं, कहीं नहीं हैं ऐसा नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह गलत है । प्रभु समस्त चराचर में, हर युग में, हर जगह सदैव स्थित रहते हैं ।
436. पराभक्ति से जीव इतना अतीत हो जाता है कि उसके लिए पालनयोग्‍य कोई नियम या कोई विधि नहीं बचती ।
437. सर्वत्र प्रभु दर्शन करना संतों का स्वभाव बन जाता है ।
438. सर्वत्र परमात्मा है यह भाव जीवन में आ जाए तो फिर समाज के सभी भेदभाव जीवन से मिट जाते हैं ।
439. संत प्रभु से निवेदन करते हैं कि हमारे तामसी वस्त्र यानी अवगुण के वस्त्र ले लें और अपना कृपारूपी सात्विक वस्त्र यानी सतोगुण का वस्त्र हमें बदले में दे दें ।
440. भक्त कभी भी भगवत् रूप होना नहीं चाहते क्योंकि वे भगवान का जीवन में सदैव रसास्वादन करते रहना चाहते हैं । इसलिए भक्त मुक्ति नहीं मांगते, भगवत् स्वरूप बनना नहीं चाहते । भगवत् रूप बनने की योग्यता आने पर भी वे जीवन में भक्ति करके प्रभु का रसास्वादन करते रहना चाहते हैं । संत श्री तुकारामजी प्रभु से यही प्रार्थना करते थे कि मुझे न ब्रह्मज्ञान चाहिए, न मुक्ति चाहिए, मेरे सामने आप सदैव भगवान रहें और मैं सदैव आपका भक्त रहूँ और आपका रसास्वादन करता रहूँ, यही मैं चाहता हूँ ।
441. सच्चा भक्त पानी जैसा हो जाता है यानी जिससे मिलाएंगे वैसा ही हो जाता है । सच्चा भक्त प्रभु श्री गणपतिजी के महोत्सव में जाता है तो गणपति-गणपति कहता है, शिवालय जाता है तो ओम नमः शिवाय कहता है, प्रभु श्री कृष्णजी के मंदिर जाता है तो राधे-कृष्ण का उच्चारण करता है और वही जब प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को देखता है तो नारायण-नारायण पुकारता है ।
442. भक्त प्रभु से कहते हैं कि प्रभु कृपा करके उन्हें शून्य बना दें यानी उनका अहंकार मिटा दें । इसका दूसरा अर्थ यह है कि भक्त जब शून्य बन जाता है और प्रभु रूपी अंक से मिलता है तो उसका आनंद कई गुना बढ़ जाता है, जैसे शून्य 1 अंक से मिलता है तो 10 बनकर 10 गुना हो जाता है ।
443. भगवती जगदम्बा माता से श्रीगोपीजन ने क्या मांगा ? उन्होंने केवल प्रभु का प्रेम मांगा । हम क्या मांगते हैं हमें जरा सोचना चाहिए ।
444. प्रभु एक ही हैं । भगवती जगदम्बा माता, प्रभु श्री कृष्णजी, प्रभु श्री रामजी, प्रभु श्री शिवजी, प्रभु श्री हनुमानजी, प्रभु श्री गणपतिजी, भगवती गंगा माता, प्रभु श्री सूर्यनारायणजी सब एक ही हैं । यह तथ्य जिसके ध्यान में आ जाता है वही सच्चा भक्त कहलाता है ।
445. प्रभु अपने बाल सखाओं को वन के वृक्षों को दिखाकर कहते हैं कि उनके जीवन का विचार करो । ये छाया देते हैं और स्वयं धूप में खड़े रहते हैं । वर्षा, गर्मी और ठंड सहते हैं । स्वयं सब कुछ सह लेते हैं पर इनके पास जो आता है उसे गर्मी, वर्षा से यह बचाते हैं । हमारा मानव जीवन भी ऐसा ही परोपकारी होना चाहिए । प्रभु मनुष्य जीवन की व्याख्या करते हुए यह बात कहते हैं । वृक्ष अपने स्वयं के लिए किसी वस्तु का उपयोग नहीं करते वे अपने पत्ते, फल और फूल सभी दूसरों को अर्पित कर देते हैं । प्रभु कहते हैं कि सच्चे साधु का जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए ।
446. स्वयं के लिए ही आए और स्वयं के लिए ही जीवन जी कर चले गए ऐसे जीवन का कोई मतलब नहीं है ।
447. प्रभु कहते हैं कि समाज में बड़े मत बनो समाज के लिए उपयोगी बनो ।
448. भारतवर्ष में संतों का इतना सम्मान क्यों है ? क्योंकि संत स्वयं तो भक्ति से तरते ही हैं और लोगों को भी भक्ति मार्ग पर साथ ले जाकर तारते हैं ।
449. संतों के आदर्श श्री प्रह्लादजी हैं । उन्होंने प्रभु से कहा कि मुझे मुक्ति नहीं दें, श्रीबैकुंठ नहीं भेजें, मुझे लोगों के बीच रहकर प्रभु की भक्ति का प्रचार करने के लिए यहीं रहने दें । ऐसी परोपकार की भावना उनके मन में थी ।
450. श्री प्रह्लादजी के एक वाक्य ने उन्हें संतों का शिरोमणि बना दिया । श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से कहा कि मुझे सिर्फ अपने लिए मुक्ति नहीं चाहिए, मैं सबके लिए मुक्ति चाहता हूँ । इसलिए सबको भक्ति मार्ग की प्रेरणा देकर सबको मुक्ति दिला सकूँ - यही प्रयास मेरा जीवन में सदैव रहेगा ।
451. प्रभु की भक्ति का दान, यही अंतिम दान माना गया है और यह दान भक्‍तों के अलावा और कोई नहीं दे सकता ।
452. सबको प्रभु की भक्ति सिखाना यह वह श्रेष्ठ कार्य है जो संत किया करते हैं ।
453. हमें देखना चाहिए कि प्रभु सेवा का भाव हमारे जीवन में आया क्या ? जिसके जीवन में ऐसा भाव आया वही सच्चा साधु है ।
454. पशु भी स्वयं का पेट तो भरते ही हैं पर जब हम मनुष्य जन्म लेकर आए हैं तो हमें पेट भरने के साथ-साथ परमार्थ भी करना चाहिए । सच्चा परमार्थ प्रभु की भक्ति का प्रचार है जिससे सभी जीवों का कल्याण हो पाए ।
455. हमारा शरीर, हमारे प्राण, हमारा धन, हमारी बुद्धि और हमारा पुरुषार्थ किसी के कल्याण में काम आ जाए - यह प्रभु का एक वाक्य है जो श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दशम स्कंध का शिरोमणि वाक्य है और श्रीमद् भगवद् गीताजी में भी प्रभु का यह अमर वाक्य है ।
456. जिनसे मुझे कुछ नहीं चाहिए, जिनको मैं जानता तक नहीं, उनके लिए मैं काम आ जाऊँ, उनके लिए मैं काम करूं - यह सबसे बड़ी बात । अपने पत्नी-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं क्‍योंकि इसमें तो उनका निहित स्वार्थ छिपा हुआ होता है ।
457. मनुष्य जीवन की सफलता ही इसी में है कि हम दूसरों के काम आ जाएं । संतों का जीवन ऐसा ही होता है ।
458. जीवन में महान विचार लाएंगे तो जीवन महान बनेगा, जीवन में शूद्र विचार लाएंगे तो जीवन शूद्र बनेगा । इसलिए हमें सदैव प्रभु का ही विचार जीवन में लाना चाहिए जिससे जीवन महानतम बन सके ।
459. जीवन मूल्यों की चर्चा करना जीवन में श्रेष्ठ, पर जीवन में प्रभु की चर्चा करना श्रेष्ठतम है ।
460. प्रभु श्री कृष्णजी को अलंकार प्रिय, प्रभु श्री शिवजी को जलधारा प्रिय, प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को नमस्कार प्रिय ।
461. उत्तम भक्त को चाहिए कि वह प्रभु की भक्ति का प्रचार जनकल्याण के लिए सदा करे ।
462. जितना हम ज्योतिष पर निर्भर रहेंगे उतना हमारा आत्मबल और मनोबल कमजोर होगा । मनोबल ही हमारा सबसे बड़ा बल है । जिसका मनोबल टूट गया अन्य कोई बल उसके काम नहीं आएगा - यह योगवासिष्ठ का सिद्धांत है । इसलिए सूत्र यह है कि जीवन में ज्योतिष पर नहीं अपितु प्रभु पर विश्वास रखें ।
463. स्त्री का अंतःकरण भक्ति के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि स्त्री में व्याकुलता, तल्लीनता, करुणा, दया, समर्पण और लाड़ लड़ाने की भावना पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा होती है, जो भक्ति के लिए अत्यंत उपयोगी है । इसलिए स्त्री के अंतःकरण से भक्ति ज्यादा बढ़िया तरीके से हो सकती है । इसीलिए श्रेष्‍ठ संतों ने पुरुष देह पाकर भी स्त्री भाव ग्रहण किया । उन्होंने जीवन में गोपीभाव और सखीभाव को ग्रहण किया । संत यह भाव रखते हैं पुरुषोत्तम तो सिर्फ एक प्रभु ही हैं बाकी सभी उनकी सखियां हैं । इसलिए उत्तम कोटि के महान संतों ने स्त्री भाव जीवन में धारण करके भक्ति की ।
464. जब प्रभु को गौचारण के समय भूख लगी तो प्रभु ने अपने बाल सखाओं को ब्राह्मणों के पास भोजन मांगने के लिए भेजा । ब्राह्मण उस समय कर्मकांड और यज्ञ में रत थे इसलिए उन्होंने प्रभु के निवेदन पर ध्यान नहीं दिया । फिर प्रभु ने अपने बाल सखाओं को ब्राह्मण पत्नियों के पास भेजा । ब्राह्मण पत्नियां प्रभु की सच्ची भक्त थीं इसलिए उन्होंने प्रभु को खाने के लिए क्या-क्या भेजना है यह नहीं सोचा, उन्होंने यह सोचा कि सब कुछ भेजना है, फिर सोचा भेजना ही नहीं है खुद लेकर प्रभु की सेवा में जाना है और ब्राह्मण पत्नियों ने ऐसा ही किया ।
465. प्रभु अपने सभी भक्तों का विशेष स्वागत करते हैं ।
466. प्रभु के पास जाने वाले का अगर यह भाव हो जाए कि हमें प्रभु का दर्शन करना है और प्रभु की कुछ सेवा करनी है तो यह भक्ति का अलंकार हो जाता है क्योंकि ऐसी भक्ति में कोई स्वार्थ छिपा हुआ नहीं होता । ब्राह्मण पत्नियों की भक्ति भी ऐसी ही थी ।
467. सच्चे भक्त का प्रभु के पास आना उसके हाथ में होता है पर वापस जाना उसके हाथ में नहीं होता क्योंकि प्रभु इतने आकर्षक और मनमोहक हैं कि उसके मन को ही मोह लेते हैं और वह जीव प्रभु के सानिध्य से वापस जा ही नहीं पाता ।
468. ब्राह्मण यज्ञ में उलझे रहे और यज्ञपति प्रभु को भूल गए जबकि ब्राह्मण पत्नियों ने यज्ञ नहीं किया पर यज्ञपति प्रभु को मौका मिलने पर पकड़ लिया ।
469. धिक्कार है उस विद्या को, धिक्कार है उस जन्म को जिसमें प्रभु के लिए हमारे मन में भाव जागृत नहीं हुआ ।
470. मानव जन्म और अध्यात्म ज्ञान बुरा नहीं है पर अगर हम फिर भी प्रभु से विमुख हैं तो सब कुछ बेकार है । सबकी सार्थकता प्रभु की भक्ति में ही है । वेदांत पढ़ लिया, यज्ञ कर लिया, कर्मकांड कर लिया, समाज सेवा कर ली पर प्रभु की भक्ति नहीं की तो सब बेकार । मूल सिद्धांत यह है कि प्रभु की भक्ति के बिना कुछ भी सार्थक और परिपूर्ण नहीं है ।
471. ब्राह्मण पत्नियों ने न तो वैदिक संस्कार किए, न वेद पाठ किया, न गुरु गृह जाकर अध्ययन किया, न कर्मकांड किया, न यज्ञ किया फिर भी उनका उद्धार हो गया क्योंकि उन्होंने सिर्फ प्रभु की भक्ति की ।
472. धन्य नहीं वे जीव धन्यत्‍तम होते हैं जिनकी पत्नी भक्ति भाव वाली होती है क्योंकि पत्नी की भक्ति से कुल का उद्धार हो जाता है ।
473. प्रभु की कृपा होती है तो प्रतिकूल बोलने वाले भी अनुकूल बोलने लगते हैं । ब्राह्मण पत्नियां जब प्रभु को भोजन कराकर लौट कर आईं तो उन्हें डांटने की जगह उनके पतियों ने उनका अभिनंदन किया ।
474. ज्ञान मार्ग में जो-जो दृश्य हमें दिखे उसका खंडन करना होता है, उसका विसर्जन करना होता है और उसके बाद जो बचता है वह प्रभु होते हैं, पर यह ज्ञान मार्ग बहुत कठिन है । दूसरा मार्ग जो सबसे सरल है वह भक्ति का है जहाँ जो-जो दिखे वह सब प्रभु हैं, यह भावना करनी होती है । भक्त यह कहता है कि हे विराट, तेरे कितने रूप हैं । गौमाता आईं तो उनमें हमने प्रभु का दर्शन किया, हाथी आ गया तो उसमें प्रभु का दर्शन किया, कुत्ता आ गया तो उसमें भी प्रभु का दर्शन किया । संत श्री नामदेवजी की रोटी एक कुत्ता लेकर भाग गया तो वे उस कुत्ते के पीछे कटोरी में घी लेकर दौड़े कि प्रभु रोटी में घी नहीं लगा हुआ है, घी तो लगाने दें । हमारे अंदर ऐसी भावना नहीं होती और हम कुत्ते के पीछे डंडा लेकर दौड़ते हैं ।
475. जो भी हमारी दृष्टि के सामने आ गया सब प्रभु रूप हैं - ऐसी भावना जीवन में आने के बाद फिर प्रभु को अलग से कहीं भी खोजने की जरूरत नहीं होगी ।
476. केवल कर्मकांड कभी किसी को प्रभु तक नहीं पहुँचा सकता । कर्मकांड शुद्धि का मार्ग है । प्रभु प्राप्ति का मार्ग तो भक्ति ही है । कर्मकांड में भक्ति जुड़ गई तो हमारे वह कर्म प्रभु तक पहुँच जाते हैं । कर्मकांड एक रेल के डिब्बे की तरह है जिसमें इंजन नहीं लगा हुआ है । जब हम कर्मकांड की रेल में भक्ति का इंजन लगा देते हैं तो वह चलकर हमें प्रभु तक पहुँचा देती है ।
477. एक व्यक्ति को भक्ति करने पर जो फल मिलता है उसका कुछ प्रतिशत फल उसे भक्ति की प्रेरणा देने वाले को भी मिल जाता है ।
478. किसी भी कर्म को भक्ति से युक्त करने पर उसका फल कई गुना बढ़ जाता है ।
479. प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री नंदबाबा से कहा है कि अच्छे कर्म करने वाले को अच्छा फल मिलने से रोकने वाला कोई नहीं है । अच्छे कर्म को अच्छा फल देने के लिए प्रभु ने प्रकृति को बांध रखा है । इसलिए प्रकृति को बाध्य होकर अच्छे कर्म का अच्छा फल देना ही पड़ता है क्योंकि यह प्रभु का बनाया नियम है ।
480. ब्रह्माण्‍ड के प्रबंधन की कड़ी में प्रभु ने सभी देवताओं को यथायोग्य स्थान दिया है ।
481. प्रभु भक्ति-भाव के कारण बिन बुलाए ही भक्त के पास आ जाते हैं ।
482. जिनके उपकारों को हमने प्रत्यक्ष देखा है, उनको प्रत्यक्ष देवता मानते हुए जीवन में उनका सम्मान करना चाहिए । जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी, भगवती तुलसी माता, भगवती गंगा माता, गौ-माता, अपने सद्गुरुदेव एवं अपने माता-पिता ।
483. गौ-माता को कभी भी पशु नहीं मानना चाहिए । ऐसा मानने मात्र से हमें भयंकर पाप लगता है । शास्त्र कहते हैं कि गौ-माता को सदैव हमारी माता के रूप में ही देखना चाहिए ।
484. गौ-माता का गौरव है कि अखिल भुवन के अधिपति प्रभु ने जब श्री कृष्णावतार लिया तो वे गोपाल कहलाए यानी गौ-माता को पालन करने वाले कहलाए ।
485. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी आदि सभी श्रीग्रंथ श्रीवेदों और श्रीपुराणों के सूत्रों का प्रतिपादन करते हैं ।
486. अंतिम धर्म क्या है, यह श्रीवेदजी हमें बताते हैं । जैसे भारतवर्ष की अलग-अलग जगहों पर समय का एक ही मापदंड होता है वैसे ही धर्म का एक ही मापदंड हमें श्रीवेदजी बताते हैं ।
487. श्रीवेदजी का संदेश मानव जाति के कल्याण के लिए अनिवार्य है ।
488. भारत माता का गौरव अमर रहे, यह चाह हमारे मन में सदैव होनी चाहिए ।
489. प्रभु को पतितों की याद सबसे पहले आती है । प्रभु ने सबसे पहले प्रभु श्री गिरिराजजी को लगाए गए भोग को चांडालों के बालकों तक पहुँचाया ।
490. श्रीवेदजी और गौ-माताएं हमारी सनातन संस्कृति के मुख्य आधार हैं ।
491. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी का पूरा ज्ञान श्री अर्जुनजी को दिया और फिर युद्ध करने की बात कही और फिर प्रभु ने कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे वह करो । यही बात प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री नंदबाबा को प्रभु श्री गिरिराजजी की महिमा बताने वाले अपने भाषण देने के बाद भी कही जब प्रभु ने श्रीगिरिराज पूजन करने की बात कही और फिर कहा कि अब आपको जो अच्छा लगे वह करें । सूत्र यह है कि प्रभु सब कुछ बताने के बाद जीव को पूरी स्वतंत्रता देते हैं कि वह अपनी इच्छा अनुसार जो करना चाहे वह करे ।
492. प्रभु ने प्रभु श्री गिरिराजजी के पूजन को रोचक बनाने के लिए श्रीगोपीजन को रसोई बनाने के बाद शोभायात्रा की बात कही कि हम सब प्रभु श्री गिरिराजजी की परिक्रमा हेतु जाएंगे । इससे श्री गोपीजन खुश हो गईं क्योंकि उनके मन में सजने और श्रृंगार करने की बात आ गई और इसलिए रसोई का काम उन्होंने इस लालच में जल्दी-जल्दी और बढ़िया तरीके से संपन्न किया । सूत्र यह है कि किसी भी प्रभु उत्सव को रोचक बनाना चाहिए, यह भारतीय परम्परा है ।
493. श्री अग्निनारायणजी कामधेनु हैं यानी जो मांगते हैं वह देते हैं । इसलिए वेद मंत्रों की सफलता के लिए यज्ञ करवाया जाता है । श्री अग्निनारायणजी सभी देवताओं के श्रीमुख हैं । सभी देवताओं की तृप्ति श्री अग्निनारायणजी को अर्पण आहुति से हो जाती है । श्री अग्निनारायणजी को दी हुई आहुति को वे निश्चित रूप से प्रभु तक पहुँचा देते हैं । उदाहरण स्वरूप प्रभु श्री शिवजी का नाम लेकर अर्पण की गई आहुति को श्री अग्निनारायणजी प्रभु श्री शिवजी तक पहुँचा देते हैं ।
494. समस्त वैदिक यज्ञ एक शास्त्रीय प्रयोग जैसे हैं । अगर यज्ञ की सभी प्रक्रियाएँ ठीक से की गई तो उससे निर्धारित फल अवश्य प्राप्त होगा । अगर निर्धारित फल प्राप्त नहीं हुआ तो हमें यह मानना चाहिए कि हमारी प्रक्रिया में ही गलती हुई है ।
495. सभी जगह अपना उपदेश देने के बाद प्रभु सदैव एक ही बात कहते हैं कि अब आपको जो ठीक लगे वह करें । इस तरह प्रभु ने जीव को उसकी इच्‍छानुसार कर्म करने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की है ।
496. पेड़ का पत्ता भी प्रभु की इच्छा बिना नहीं हिलता, यह कहना गलत है । पेड़ का पत्ता पेड़ की इच्छा से हिलता है पर हिलने की जो शक्ति है वह सदैव प्रभु ही प्रदान करते हैं । अतः यह कहना सही होगा कि पेड़ का पत्ता प्रभु की शक्ति बिना नहीं हिलता । इच्छा पेड़ की होती है पर शक्ति प्रभु की होती है ।
497. जीव को अपनी इच्छा से क्या करना है और क्या नहीं करना है इसका चयन करने की पूरी स्वतंत्रता जीव के पास होती है । प्रभु जीव को सदैव यह स्वतंत्रता देते हैं ।
498. संसार में जो कुछ भी हो रहा है उसमें शक्ति सदैव प्रभु की ही होती है ।
499. विश्व में किसी के भी पास शक्ति नहीं होती है । जिसके पास भी जो भी शक्ति है वह हमारी नहीं है, वह शक्ति प्रभु की ही है, यह सिद्धांत है ।
500. प्रभु ने हर जीव को अपनी शक्ति प्रदान की है पर उसके उपयोग की इच्छा जीव की स्वयं की होती है, यह स्वतंत्रता प्रभु ने जीव को दी है ।
501. जैसे एक पिता ने अपने दो पुत्रों को पाँच हजार रुपए व्यय करने हेतु दिए । एक पुत्र ने रुपयों से एक किताब खरीदी, एक मित्र की स्कूल की फीस भरी और एक बुढ़िया को दवाई लाकर दी । दूसरे पुत्र ने एक होटल में जाकर अपने मित्रों को पार्टी दी और फिल्म देख कर आया । दोनों के पास जो पैसे आए थे वह पिताजी के थे पर खर्च करने की इच्छा पुत्रों की अपनी थी । उन्होंने अपनी-अपनी इच्छानुसार खर्च किया । ऐसे ही हमारे भीतर जो शक्ति होती है वह प्रभु की होती है पर उस शक्ति का उपयोग करने की जो इच्छा होती है वह जीव की होती है । जब पिता देखता है कि पहले पुत्र ने अच्छे कर्म में रुपए का उपयोग किया तो वह उसे और रुपए देगा । इसी तरह परमपिता प्रभु की दी हुई शक्ति को अगर हम सर्वहितकारी कार्य में उपयोग करते हैं तो प्रभु हमें और ज्यादा धन, बुद्धि और शक्ति देंगे । प्रभु की जो शक्ति हमने सर्वहितकारी कार्य में लगाई वह पुण्य कहलाती है और वही शक्ति अगर हम गलत कार्य में लगाते हैं तो वह पाप कहलाती है । प्रभु की दी हुई शक्ति को सर्वहितकारी कार्य में लगाने पर प्रभु हमें और ज्यादा शक्ति देते हैं और उसी शक्ति का गलत उपयोग करने पर प्रभु अपने श्रीहाथ खींच लेते हैं ।
502. पुण्य का फल संवृद्धि में होता है और पाप का फल विनाश में होता है ।
503. अपनी इच्छा के अनुसार प्रभु की दी हुई शक्ति का उपयोग करने की छूट प्रभु सदैव हमें देते हैं ।
504. परमार्थ की बात आने पर जीव प्रारब्धवादी हो जाता है यानी किसी तीर्थ में जाना है तो जीव कहेगा कि प्रभु का बुलावा आएगा तो हम जाएंगे । पर फिल्म देखने जाना है या कोई संसार का प्रपंच करना है तो उसके लिए वह तुरंत तैयार हो जाता है और पुरुषार्थवादी बन जाता है । पर संतों का जीवन इससे एकदम उल्टा होता है । वे प्रभु की सेवा और प्रभु की भक्ति के लिए सदैव तैयार रहते हैं और पुरुषार्थवादी होते हैं पर संसार के प्रपंच के लिए वे प्रारब्धवादी बन जाते हैं ।
505. योगवासिष्ठ का सिद्धांत है कि जीव का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य होता है । इसलिए भक्ति करने वाले साधक को जीवन से आलस्‍य का सदैव त्याग करना चाहिए ।
506. हमारे भाग्य की हर बात को ठीक करना हमारे हाथ में नहीं होता, वह केवल प्रभु के हाथ में होता है ।
507. अपनी ऊर्जा का सही उपयोग यानी सदुपयोग करना हमें सत्संग सिखाता है ।
508. प्रभु पूरे विश्व के सबसे असाधारण वक्ता हैं । यह श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु द्वारा कहे श्रीवचनों से प्रमाणित होता है ।
509. मोक्ष में और भक्ति में अपना साथी कोई नहीं होता, यहाँ तक कि कोई अपने परिवार वाला भी नहीं होता । हमें स्वयं को ही मोक्ष के लिए साधन और स्वयं को ही भक्ति करनी पड़ती है, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
510. प्रभु श्री गिरिराजजी एक जागृत देवता हैं । यह बात प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में स्वयं श्रीगोपीजनों को कही ।
511. हमें शास्त्रों की पुरातन श्रद्धा पर प्रहार करने का कोई अधिकार नहीं है ।
512. प्रभु श्री गिरिराजजी के लिए श्रद्धा का उदय स्वयं प्रभु ने किया था इसलिए वह आज भी कायम है और सदा कायम रहेगी ।
513. प्रभु ने स्वयं अपने आपको प्रभु श्री गिरिराजजी में स्थापित कर दिया । प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में इसका स्पष्ट संकेत दिया है और कहा है कि मैं ही श्रीगिरिराज हूँ ।
514. पदार्थों को देखने की लौकिक दृष्टि भारत की कभी नहीं थी क्योंकि इससे साधारण लाभ ही होता है । भारत में सदैव देव दृष्टि से सभी को देखा जाता था क्योंकि इससे पुण्य लाभ होता है । उदाहरण स्वरूप जैसे लौकिक दृष्टि से देखने से भगवती गंगा माता हमें शीतलता देंगी पर देव दृष्टि से देखने से भगवती गंगा माता हमें शीतलता तो देंगी ही, साथ ही पुण्य भी देंगी, पापों का क्षय भी करेंगी और हमारी सभी मनोकामनाएं भी पूरी करेंगी ।
515. जहाँ भगवती तुलसी माता की सेवा होती है वहाँ प्रभु को आना ही पड़ता है ।
516. जैसे एक साधारण 10 पैसे के कागज का किसी सरकार ने नोट बना दिया और 1000 रुपए का मूल्य अंकित कर उसे अधिकृत कर दिया तो उस 10 पैसे के कागज का मूल्य बढ़कर 1000 रुपए हो गया । पर जैसे ही सरकार ने अपना संकल्प हटा लिया तो फिर वह 1000 रुपए का नोट 10 पैसे का कागज बन गया । छोटी-सी सरकार का संकल्प चिपकने से कागज का मूल्य बढ़ गया और संकल्प हटने से मूल्‍य घट गया वैसे ही अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक प्रभु का संकल्प चिपकने से प्रभु श्री गिरिराजजी इतने महान हो गए ।
517. श्री इंद्रदेवजी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु के लिए कटु शब्द कहे पर संतों ने इसे भी राजस्तुति के रूप में देखा और इसका अलग अर्थ कर दिया और इन शब्दों को अलंकार बना दिया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि भक्तों को हर जगह प्रभु की स्तुति ही दिखाई पड़ती है ।
518. श्री इंद्रदेवजी ने सावर्तक मेघों को, जो साधारण मेघ नहीं बल्कि भयंकर प्रलयकारी मेघ होते हैं, उनको बुलाया पर वे भी कुछ नहीं कर पाए । सावर्तक मेघों का पानी वैसे बरसा जैसे हाथी की सूंड से जल की धारा बरस रही हो । बर्फ की चट्टानें आकर गिर रही हों इतनी मोटी जल की धारा बरसी और इतने भयंकर रूप से बरसी कि किसी ने आज तक न तो देखी थी न ही सुनी थी । ठंड इतनी बढ़ गई कि सहन करना भी नामुमकिन हो गया । पर फिर भी बृजवासियों को कुछ भी हानि नहीं हुई । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जिनका रक्षण प्रभु करते हैं उनका प्रलय भी बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
519. कोई भी हमारा नाश करना चाहता हो तो प्रभु हमें बचा लेते हैं । किसी का रोष भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता अगर प्रभु हमारे साथ होते हैं । श्री इंद्रदेवजी के रोष के समय सबको एक ही आशा थी और वह प्रभु से थी । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि हमें भी विपत्ति के समय सिर्फ प्रभु से ही आशा रखनी चाहिए ।
520. विपत्ति में अपने प्राण वल्लभ प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि अब हमें अपने बल पर कोई भी विश्वास नहीं है, कोई भी भरोसा नहीं है । अब आशा सिर्फ आपकी है और आप ही आकर हमें संकट से बचा लें ।
521. जिसको प्रभु अपनाते हैं उसका नाश संसार में कोई भी नहीं कर सकता, यह प्रभु का व्रत है ।
522. व्रत उसे कहते हैं जिसे किसी भी हालत में त्यागा नहीं जा सकता । प्रभु भी व्रत लेते हैं कि वे सदा भक्तों की रक्षा और भक्तों का संरक्षण करेंगे ।
523. जो भी प्रभु की शरण में चला जाता है वह जीवन में सभी प्रकार से अभय हो जाता है ।
524. प्रभु का अपने भक्तों की रक्षा और संरक्षण के लिए लिया गया व्रत सभी वैष्णवों के जीवन का आधार है ।
525. प्रभु कहते हैं कि एक बार मेरा भक्त मन से बस यह कह दे कि प्रभु जैसा भी हूँ मैं आपका हूँ । बस इतना कहने भर से और मन में ऐसी धारणा बनने से उसकी रक्षा और उसको निर्भय करने की जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है । श्री रामचरितमानसजी में इसी व्रत को पालन करते हुए प्रभु ने श्री विभीषणजी की रक्षा की और उन्हें निर्भय किया ।
526. जब श्री इंद्रदेवजी के सावर्तक मेघों ने मूसलाधार वर्षा शुरू की तो प्रभु ने अपने सखाओं को पुकारा । उनकी माताओं ने उन्हें मूसलाधार वर्षा में जाने से रोका पर फिर भी वे दौड़े क्योंकि उनको मन में एक बात पता थी कि प्रभु ने पुकारा है इसलिए जाना है । उनके मन में ऐसा विश्वास इसलिए था क्योंकि वे जानते थे कि बचाने की जिम्मेदारी प्रभु की है । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि हमारे मन में भी प्रभु के लिए इतना बड़ा और इतना पक्का विश्वास होना चाहिए ।
527. हमें प्रभु इच्छा के यंत्र बनकर रहना चाहिए यानी हमारे अंदर अपनी कोई इच्छा बचे ही नहीं । यह जीवन की सबसे बड़ी धन्यता होती है ।
528. छोटे गोपों को प्रभु में पूर्ण विश्वास था और वे अपनी अक्ल नहीं चलाते थे । वे प्रभु वाक्य पर पूर्ण विश्वास करते थे क्योंकि वे इतने सारे प्रभु कृपा के प्रसंग देख चुके थे । जब प्रभु ने मूसलाधार वर्षा में रक्षा के लिए प्रभु श्री गिरिराजजी को उठाया और सबको बुलाया तो सबसे पहले छोटे गोप दौड़ते हुए आए । उन्हें यह डर नहीं लगा कि कहीं प्रभु की श्रीअंगुली के नख से श्री गिरिराजजी गिर गए तो वे सब दब जाएंगे । उन्हें प्रभु पर पूर्ण रूप से विश्वास था इसलिए वे सबसे पहले दौड़ कर प्रभु श्री गिरिराजजी के नीचे आ गए ।
529. ऊपर से गिरने वाले जल को प्रभु श्री गिरिराजजी ने रोका, नीचे से बह कर आने वाले जल को प्रभु श्री शेषनागजी ने रोका, ऊपर से श्री सुदर्शनजी ने जल को सोखना शुरू किया । इस तरह श्री इंद्रदेवजी का पूरा प्रयास विफल हो गया और प्रभु की कृपा से सबकी रक्षा हो गई ।
530. छोटे गोप प्रभु से बहुत प्रेम करते थे । वे प्रभु को विश्राम देने के लिए अपने लट्ठ लेकर आए और प्रभु श्री गिरिराजजी के नीचे लगा दिया और उन्हें रोकने का प्रयास किया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु को थकान हो रही है यह भावना भक्त के मन में आनी चाहिए । यह भक्ति का लक्षण है । वैसे सिद्धांत यह है कि प्रभु कभी थकते नहीं पर फिर भी भक्तों के मन में यह भावना जागृत हो जाती है कि प्रभु को थकान हो रही होगी और मैं उन्हें आराम पहुँचाऊं ।
531. भक्ति भाव के कारण गोपाल बालकों को गौ-चारण के वक्त लगता था कि प्रभु थक गए होंगे, भगवती यशोदा माता को लगता था कि प्रभु भूखे होंगे । यह सिर्फ भक्ति का ही सामर्थ्य है कि प्रभु के लिए ऐसे भाव हमारे हृदय में जागृत होते हैं ।
532. भक्ति वेदांत से भी बड़ा साधन मार्ग है ।
533. भक्ति में केवल भाव का ही साम्राज्य होता है ।
534. भक्ति प्रभु का अनुभव और अनुभूति करवाने वाला साधन है ।
535. जो प्रभु में विश्वास करता है और प्रभु की पूर्ण रूप से भक्ति करता है उसे प्रभु मूर्ति में हँसते हुए दिखते हैं, गंभीर दिखते हैं, भूखे दिखते हैं और भाव युक्त दिखते हैं । वह भक्त प्रभु के सभी भावों का दर्शन प्रभु के विग्रह में करता है ।
536. एक भक्त काफी दिन बाहर प्रवास करके आया फिर दूसरे दिन उसे किसी कार्यवश वापस जाना था । उसके जीवन में प्रभु श्री रामजी की सेवा थी तो बहुत लोगों ने प्रभु श्री रामजी की मूर्ति को रोते हुए देखा । दर्जनों लोगों ने ऐसा देखा कि प्रभु श्री रामजी की मूर्ति रो रही है । प्रसंग यह बताता है कि प्रभु अपने भक्त को जाने नहीं देना चाहते और उसका वियोग नहीं सह पाते ।
537. प्रभु भी अपने भक्तों के सामने हठ करते हैं । यह भक्ति की कितनी बड़ी उपलब्धि है ।
538. अगर प्रभु ने हमें भावुकता का प्रसाद अभी तक नहीं दिया है तो अभी हमारी भक्ति सार्थक नहीं हुई है, ऐसा मानना चाहिए ।
539. चाहे हम अन्य कोई भी शास्त्र पढ़ लें, यहाँ तक कि वेदांत भी पढ़ लें, तो भी अंत में श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी की शरण में आना ही पड़ेगा ।
540. हमें जीवन में सदैव प्रभु की आज्ञा का पालन करना चाहिए और यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे जीवन में जो भी हो रहा है वह प्रभु कृपा के कारण ही हो रहा है । गोपों ने प्रभु श्री गिरिराजजी को रोकने के लिए अपने कर्म की लाठी लगाई पर प्रभु श्री गिरिराजजी रुके तो वे प्रभु के श्रीअंगुली के नख के ऊपर ही रुके यानी प्रभु की कृपा से ही रुके । इसलिए हमें भी जीवन में अपना कर्म करना चाहिए पर यह जरूर और पक्का मानना चाहिए कि हमारे जीवन में जो भी फलित होता है वह मात्र प्रभु कृपा के कारण ही होता है ।
541. प्रभु ने श्रीगोपीजन से कहा कि मैंने कुछ भी नहीं किया, रक्षा तो प्रभु श्री गिरिराजजी ने ही की है । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि करते सब कुछ प्रभु ही हैं पर श्रेय सदैव दूसरों को ही देते हैं ।
542. प्रभु श्री गिरिराजजी को प्रभु ने अपना लिया और उन्हें अपना रूप दे दिया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जिनको प्रभु अपना लेते हैं वे प्रभुरूप हो जाते हैं ।
543. प्रभु जो भी उपक्रम करते हैं वह सदैव हम पर अनुग्रह करने के लिए करते हैं क्योंकि उसका हेतु सदैव हमारा कल्याण ही होता है ।
544. प्रभु सभी देवताओं के मालिक और नियंत्रक हैं ।
545. अपने जीवन की शैली ऐसी बनानी चाहिए कि हम प्रभु से कभी भी विमुख नहीं हों और जीवन में सदैव प्रभु के सन्मुख ही बने रहें ।
546. मानव जीवन में वही सफल माना जाता है जो अपने सभी व्यवहारों को प्रभु के लिए करता है । ऐसा जीवन ही शोभायमान होता है ।
547. भारतीय संस्कृति का बहुत ही सुंदर और अदभुत शब्द है - भक्ति ।
548. भक्तिमय जीवन शैली का जीवन में कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए ।
549. पाप निवारण की बात बाद में, पहले जीवन में अपराध निर्माण ही नहीं हो - ऐसा भक्ति करने वाले को जरूर ख्याल रखना चाहिए ।
550. श्री कामधेनु माता ने चार तत्वों को श्रीइंद्र पद के बाहर रखने का निवेदन प्रभु से किया । वैसे तो सभी के मालिक प्रभु ही हैं पर विशेषकर इन चार चीजों के सदैव मालिक केवल प्रभु ही हुआ करते हैं । पहला, गौ-माता । दूसरा, ब्राह्मण । तीसरा, देवालय यानी मंदिर । चौथा, साधु-संत ।
551. सच्चे भक्त में सत्यता का सद्गुण अपने आप ही आ जाता है क्योंकि प्रभु को सत्यता बहुत प्रिय है ।
552. किसी सेठ ने मंदिर बनवाया और उसने अगर यह कह दिया कि यह मेरा मंदिर है तो उसे पाप लग जाता है । सेठ मंदिर का सेवक हो सकता है मालिक नहीं । ट्रस्ट भी मंदिर का सेवक हो सकता है मालिक नहीं क्योंकि सिद्धांत यह है कि मंदिर का मालिक कोई नहीं हो सकता सिर्फ प्रभु ही देवालय के एकमात्र मालिक होते हैं ।
553. मंदिर का स्वामी जनता द्वारा निर्वाचित सरकार भी नहीं हो सकती, सिर्फ प्रभु ही मंदिर के स्वामी होते हैं ।
554. अपनी सभी इंद्रियों को संसार से निराहार रखना ही एकादशी का सच्चा व्रत है । सभी इंद्रियों को प्रभु में लगाना, ऐसी एकादशी से प्रभु प्रसन्न होते हैं । एकादशी प्राकृतिक चिकित्सा यानी स्वास्थ्य ठीक करने के लिए नहीं अपितु प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही होनी चाहिए ।
555. एकादशी के दिन यानी पूरे दिन प्रभु की आराधना ही हो, यही सच्ची एकादशी होती है ।
556. श्री गोकुलजी एवं श्री वृंदावनजी में संकट तो आए पर एक भी संकट उनको प्रभावित नहीं कर पाया । प्रभु ने सभी को संकट से सदैव बाहर निकाला । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जो प्रभु से प्रेम करेगा वह सभी संकटों से बाहर निकल जाएगा । सिद्धांत यह है कि जो प्रभु से प्रेम करता है कोई भी संकट उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा ।
557. प्रभु के अंतःकरण में सदैव अपने भक्तों के लिए करुणा का उदय होता ही रहता है ।
558. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में बहुत सारे उपेक्षित प्रसंग होते हैं, महत्वपूर्ण प्रसंग होते हैं जिनकी समयाभाव या ज्ञानाभाव के कारण वक्ता यानी कथावाचक द्वारा उपेक्षा कर दी जाती है । यह एकदम गलत है ।
559. प्रभु प्रेमाभक्ति के प्रसाद के रूप में भक्तों को वह परमानंद बांट देते हैं जो पूरा जीवन लगा कर भी ज्ञानियों को नहीं मिलता ।
560. श्रीगोपीजन और गोपों का एक ही अनुभव था कि जब-जब भी उन पर संकट आए प्रभु को पुकारना चाहिए क्‍योंकि उन्‍होंने अपने जीवन में ऐसा ही किया था । सिद्धांत यह है कि संकट से बचने का एकमात्र उपाय प्रभु को पुकारना ही है ।
561. श्री बैकुंठजी में प्रभु को लाड़ नहीं लड़ा सकते, प्रभु को आलिंगन नहीं दे सकते क्योंकि वहाँ प्रभु बहुत मर्यादा में रहते हैं । इसलिए जब गोपों को श्री बैकुंठजी का दर्शन हुआ और वहाँ रहने का प्रस्ताव मिला तो भी उन्होंने वापस श्री वृंदावनजी जाने की इच्छा प्रकट की जिससे वहाँ सदैव प्रभु के पास रह सकें, प्रभु को लाड़ लड़ा सकें ।
562. प्रभु भी जब श्री बैकुंठजी में ब्रह्माण्ड के राजा के रूप में उब जाते हैं तो श्रीलीला करने के लिए, लाड़ लड़वाने के लिए, प्रेम लुटाने के लिए पृथ्वी पर अवतार लेते हैं । संत प्रभु के अवतार की ऐसी व्याख्या करते हैं ।
563. श्री बैकुंठजी में मर्यादा की प्रधानता है, श्री वृंदावनजी में प्रेमाभक्ति की प्रधानता है ।
564. अपनी महानता को और अपनी भगवत्ता् को भुलाकर प्रभु अपने भक्तों के साथ श्रीलीला करते हैं ।
565. श्री बैकुंठजी में हमें प्रभु को दंडवत प्रणाम करना पड़ता है पर श्री वृंदावनजी में गोप प्रभु का आलिंगन करते हैं ।
566. श्री कृष्णकथा का जो माधुर्य श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दशम स्कंध में है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा ।
567. प्रभु के साथ कैसे खेला जाए, प्रभु से कैसे क्रीड़ा की जाए, यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण का दशम स्कंध हमें सिखाता है । भगवत् साक्षात्कार का सिद्धांत और भगवत् साक्षात्कार की प्रक्रिया सिखाने वाला यह महान स्कंध है ।
568. एक मार्ग कर्म का होता है, एक मार्ग प्रभु की कृपा और करुणा का होता है । गोपों ने कर्म का मार्ग नहीं चुना बल्कि प्रभु की कृपा का मार्ग चुना ।
569. कर्म मार्ग से जीव धीरे-धीरे प्रभु की तरफ आगे बढ़ेगा पर प्रभु की कृपा का मार्ग खुल गया तो वह जीव तत्काल प्रभु तक पहुँच जाता है ।
570. जैसे मंदिर में दर्शन की लंबी लाइन में लगकर हम पांच घंटे में दर्शन करते हैं पर गुप्त मार्ग से पुजारीजी हमें ले जाते हैं तो तत्काल दर्शन हो जाते हैं और हम दस मिनट में ही दर्शन करके वापस आ जाते हैं । पांच घंटे वाला मार्ग कर्म का है और दर्शन का दस मिनट वाला गुप्त मार्ग प्रभु की कृपा का मार्ग है । पुजारीजी दक्षिणा लेकर हमारे लिए गुप्त मार्ग खोल देते हैं, प्रभु क्या देखकर अपनी कृपा का मार्ग खोलते हैं । प्रभु अपनी कृपा का मार्ग सबके लिए नहीं खोलते बल्कि किसी विशेष के लिए ही खोलते हैं । जैसे एक माँ एक नया आभूषण अपने हट्टे-कट्टे बड़े बेटे को नहीं देकर अपने एक बीमार बच्चे को, जो की रो रहा है, उसे देती है क्योंकि वह दुबला है और रो रहा है और उसे देखकर माँ की करुणा जागृत हो जाती है । वैसे ही प्रभु प्रेम में रोने वाले के लिए, प्रभु प्रेम में प्रभु को पुकारने वाले के लिए प्रभु की कृपा और करुणा जागृत हो जाती है और जिसके कारण प्रभु अपनी कृपा का मार्ग उसके लिए खोल देते हैं ।
571. प्रभु के लिए करुणा बरसाने का कोई कानून नहीं है । प्रभु परम स्वतंत्र हैं और जो कर देते हैं वही कानून बन जाता है ।
572. जब जीव प्रभु की भक्ति करता है तो कर्म के कानून को कब लांघना है और उसे करुणा का कब फल देना है, प्रभु जानते हैं और प्रभु इसके लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं ।
573. पापी से पापी और बुरे से बुरा जिसको अपने पाप और बुरे कर्म का पश्चाताप है और वह इसके लिए प्रभु के आगे रोता है तो प्रभु की करुणा जागृत हो जाती है और प्रभु उसे तार देते हैं ।
574. प्रभु न्यायाधीश तो हैं पर सबसे पहले हमारे माता-पिता हैं । न्यायाधीश तो सजा कर देते हैं पर माता-पिता अपनी संतान को सजा होने से बचा भी लेते हैं ।
575. प्रभु के भीतर करुणा की जागृति उन्हें देखकर होती है जो प्रभु की निश्चल प्रेमाभक्ति करते हैं ।
576. प्रभु की करुणा उनके लिए जागृत हो जाती है जिन्हें अपने पाप का पछतावा होता है और नया पाप नहीं करने का संकल्प उनके मन में होता है और वे दया के लिए प्रभु को पुकारते हैं ।
577. आगे पाप नहीं हों यह सावधानी जीवन में आ गई तो पूर्व के पापों को प्रभु तत्काल ही अपनी करुणा से भस्म कर देते हैं ।
578. प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने भक्तों के लिए आश्वासन है कि शरणागत होने पर प्रभु उन्हें तत्काल ही पापमुक्त कर देते हैं ।
579. प्रभु सिर्फ न्यायाधीश नहीं अपितु करुणा की मूर्ति हैं यानी न्याय करते हुए भी करुणा करते हैं । सिर्फ न्याय करते तो न्यायाधीश ही माने जाते जो कि बुरे कर्मों के लिए सजा देता है और अच्छे कर्मों के लिए पुरस्कार देता है । पर प्रभु की विशेषता है कि वे पतितों को पावन करने वाले हैं । पतितों के पास अपना कोई बल नहीं होता, उनके पास सिर्फ प्रभु की करुणा का ही बल होता है ।
580. प्रभु की करुणा जीव के उद्धार का अत्यंत महत्वपूर्ण आधार है ।
581. जो सच्चा पश्चाताप कर लेता है वह प्रभु की करुणा को पा लेता है । पाप करते रहने वालों के लिए प्रभु की करुणा नहीं है पर जिसको अपने द्वारा किए गए पापों का सच्‍चा पश्चाताप हो गया और उसकी पाप की प्रवृत्ति ही छूट गई उसके ऊपर प्रभु करुणा बरसाते हैं ।
582. गोपों ने कभी भी ध्यान, ज्ञान, योगाभ्यास, कर्मकांड आदि कोई भी साधन नहीं किए । वे केवल एक दूसरे से प्रभु की कथा कहते रहते थे यानी प्रभु की चर्चा करते रहते और मन, वाणी और कर्म से प्रभु की सेवा किया करते थे । इससे ही वे प्रभु की कृपा के पात्र बन गए । यही भक्ति का मार्ग है ।
583. प्रभु को छोड़कर भक्त को संसार की अन्य किसी बात का पता ही नहीं होता ।
584. जो प्रभु को छोड़कर अन्य कुछ नहीं करते, किसी चक्कर में नहीं पड़ते, प्रभु ने श्री दुर्वासा ऋषि को श्रीमद् भागवतजी महापुराण में बताया है कि ऐसे भक्तों को छोड़कर मैं भी किसी अन्य को नहीं पहचानता ।
585. प्रभु के किसी भी एक रूप को पकड़कर उसमें तन्मयता के साथ भक्ति में लग जाना और अपना जीवन दांव पर लगा देना, यही सच्ची भक्ति है ।
586. संसार भी हम कर लें और प्रभु को भी हम प्राप्त कर लें, यह दोनों कभी भी एक साथ संभव होने वाला नहीं है ।
587. एक प्रभु को छोड़कर मुझे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए - यही भक्ति है ।
588. प्रभु को पकड़ने के लिए संसार को छोड़ना ही पड़ेगा - यह शाश्वत सिद्धांत है ।
589. अपने अधिकार और अपनी क्षमताओं को जानकर ही हमें प्रभु प्राप्ति का साधन करना चाहिए । भक्ति सबके लिए सुलभ और सबसे उपयोगी साधन है ।
590. प्रभु के किसी एक रूप को पकड़कर उसमें पूर्ण रूप से तन्मय हो जाना, यह सबसे बड़ा साधन है । भगवती मीराबाई ने ऐसा ही किया था ।
591. श्रीमद् भागवतजी महापुराण की डोर ऐसी है जिसे एक बार हम पकड़ लें तो प्रभु स्वयं उस डोर से बंधकर हमारे पास चले आते हैं ।
592. भक्तराज श्री सूरदासजी प्रभु के लिए पदों की रचना करते थे और उन पदों को भाव से केवल प्रभु को रिझाने के लिए गाते थे । इसलिए प्रभु साक्षात उनके पास भजन सुनने आते थे और उनके समीप बैठकर उनके भजन सुना करते थे ।
593. जब हमारे मन में ऐसी भावना जागृत हो जाती है कि प्रभु के अलावा हमारा कोई आलंबन नहीं है और प्रभु के अलावा हम किसी को जानते नहीं हैं तो यह भाव देखते ही प्रभु की करुणा का उदय हमारे लिए तत्काल हो जाता है ।
594. प्रभु करुणा के सागर हैं । जिन भक्तों ने अपना पूरा जीवन प्रभु के लिए लगा दिया और अपने जीवन में अन्य किसी का आश्रय लेने से साफ इनकार कर दिया वे भक्ति मार्ग पर तत्काल सफल हो गए ।
595. गोपों और श्रीगोपीजन ने प्रभु के अलावा अन्य कुछ भी चिंतन नहीं किया । उनके प्रभु के अलावा कोई साध्‍य नहीं थे और उन्होंने प्रभु को पाने के अलावा अन्य कोई भी प्रयास जीवन में नहीं किया ।
596. हम साध्य यानी प्रभु की पूजा, सेवा और भजन तो करते हैं पर अपने साधन के एवज में सिद्धियां और भोग चाहते हैं । रावण ने भी बहुत पूजा की पर वह सब सिद्धियाँ और शक्तियां प्राप्त करने के उद्देश्य से की थीं तो उसे वह सब तो मिला पर प्रभु की करुणा नहीं मिली । ऐसे लोग प्रभु की करुणा के पात्र नहीं होते । वे सिर्फ साधन के फल यानी सिद्धियों और भोगों के अधिकारी मात्र होते हैं ।
597. भगवती मीराबाई ने प्रभु से न तो सांसारिक सुख चाहा, न अनुकूलता चाही, यहाँ तक कि भोजन की व्‍यवस्‍था और भक्ति करने के लिए स्वास्थ्य भी नहीं चाहा । उन्होंने केवल प्रभु से प्रभु को ही चाहा और उन्‍हें प्रभु मिले ।
598. प्रभु के पास सब कुछ छोड़ कर खाली हाथ जाना चाहिए यानी बिना किसी इच्छा और बिना किसी वासना के जाना चाहिए तभी प्रभु हमें अपनाते हैं ।
599. एक प्रभु को छोड़कर अन्य किसी का जीवन में कभी भी आलंबन हो ही नहीं - यही भक्ति है ।
600. प्रभु की श्रीरासलीला नित्य है । ऐसा नहीं है कि वह एक समय हुई थी और आज नहीं हो रही है । कलियुग में भी बहुत सारे संतों और भक्तों ने प्रभु के श्रीरास के दर्शन किए हैं ।
601. हम अपने पुरुषार्थ और अपनी बुद्धि से प्रभु की करुणा कभी भी जागृत नहीं कर सकते । प्रभु की करुणा केवल और केवल भक्ति से ही जागृत होती है ।
602. श्रीरास पंचाध्यायी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के हृदय माने जाने वाले दशम स्कंध के भी प्राण हैं । परंतु श्रीरास पंचाध्यायी के अध्‍ययन की पात्रता प्राप्त करने के बाद भी बड़ी सावधानी से श्रीरास पंचाध्यायी में प्रवेश करने की जरूरत है ।
603. ऐसा माना गया है कि श्रीरास पंचाध्यायी की रचना भगवती राधा माता ने की है और प्रभु श्री वेदव्यासजी ने उसे प्रकट किया है ।
604. श्रीरास पंचाध्यायी साक्षात ब्रह्म साम्राज्य में ले जाने वाला और अदभुत एवं अलौकिक अनुभव देने वाला है ।
605. श्रीरास पंचाध्यायी के श्रवण के अधिकारी बहुत ही कम जीव होते हैं ।
606. प्रभु में पूर्ण आस्था और अपनी बुद्धि का पूर्ण आध्यात्मिक विकास होने पर ही श्रीरास पंचाध्यायी में प्रवेश करना चाहिए । फिर भी अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से सावधान रखने की जरूरत है नहीं तो बुद्धि के भटकने की संभावना है ।
607. श्रीरास पंचाध्यायी में पहला शब्द ही भगवान है । यह इस तथ्य को दर्शाता है कि यह प्रभु की श्रीलीला है किसी साधारण मनुष्य की लीला नहीं है ।
608. प्रभु की सदैव सगुण उपासना ही करनी चाहिए । निर्गुण की व्याख्या करते हुए एक संत ने कहा है कि एक अंधेरी कोठरी में एक अंधे आदमी को आँख में काली पट्टी बांधकर एक काली बिल्ली को खोजना है जो वहाँ है ही नहीं ।
609. किसी को भी भगवान कह कर संबोधित करना धर्म का लक्षण नहीं है । किसी भी देहधारी को भगवान की उपमा से संबोधित करना एकदम और एकदम गलत है ।
610. प्रमाणिकता के साथ छह लक्षण जिनमे हों उन्हें ही भगवान कहा जाता है । भगवान के मूल शब्द में भग है यानी जिनके पास भग है वे ही भगवान हैं । भग के अंतर्गत छह लक्षण आते हैं । पहला, जिनका समस्त ब्रह्माण्ड में अखंड सत्ता और शासन चलता हो । दूसरा, जो वैदिक मर्यादा से धर्म का सर्वत्र पालन करते हैं । तीसरा, जिन्होंने जो कुछ भी जब-जब भी किया उसमें सदैव सफल हुए हैं । चौथा, जिनकी कांति, सौंदर्य और लक्ष्मी सदैव और एकदम स्थिर रहती है । पांचवा, जिनका ज्ञान सदैव अखंड बना रहता है और छठा, इतना अदभुत ऐश्वर्य होने के बाद भी जिनका वैराग्य अखंड हो और उस ऐश्वर्य में कहीं भी लिप्तता नहीं हो । इन छह में से एक भी लक्षण किसी मनुष्‍य में कभी भी नहीं मिल सकता, फिर हम किसी देहधारी को भगवान कहकर संबोधित करें तो यह एकदम गलत है ।
611. पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं पूरे ब्रह्माण्ड में प्रभु की सत्ता चलती है । सभी प्रभु के अधीन और प्रभु के नियंत्रण में हैं और सब पर प्रभु का शासन चलता है ।
612. प्रभु समस्त एवं अखंड ऐश्वर्य के मालिक हैं ।
613. जब श्रीकृष्णावतार में वन में अग्नि लगी तो प्रभु ने अग्नि का पान किया और सबको बचाया । इस दृष्टांत से यह पता चलता है कि अग्नि प्रभु के अधीन है ।
614. जब श्रीकृष्णावतार में श्री वरुणदेव के दूत श्रीनंदबाबा को लेकर श्रीवरुणलोक चले गए तो प्रभु ने तुरंत जाकर उन्हें वहाँ से छुड़वाया और श्री वरुणदेव ने प्रभु से माफी मांगी । इस दृष्टांत से यह पता चलता है कि श्री वरुणदेव प्रभु के अधीन हैं ।
615. हमें अपने पांडित्य और विद्या का कभी भी अभिमान नहीं होना चाहिए । हमें प्रभु से सदैव यही निवेदन करना चाहिए कि ऐसे अभिमान से हमें बचाए रखें ।
616. भक्त और महात्मा प्रभु को इतने प्रिय होते हैं कि वे जो बोलते हैं प्रकृति को वैसा करने हेतु प्रभु बाध्य कर देते हैं ।
617. प्रभु श्री रामजी ने अपने अवतार काल में वैदिक मर्यादा यानी धर्म का सर्वत्र पालन किया । किसी भी धर्मशास्त्र के सिद्धांत को प्रभु ने कभी भंग नहीं किया । श्रीरामावतार में प्रभु ने सदैव धर्म का पालन किया और कोई भी धर्म अपराध अपने सामने नहीं होने दिया ।
618. प्रभु श्री कृष्णजी की कोई भी श्रीलीला जब हमें समझ में नहीं आए तो हमें अपनी बुद्धि का भ्रम है यह मानना चाहिए और अपने अज्ञान का हमें भान होना चाहिए ।
619. श्री रामावतार में एवं श्री कृष्णावतार में प्रभु जहाँ भी गए, जो कुछ भी किया सभी में सफल हुए । जिस काम को भी प्रभु ने हाथ में लिया उसमें सफलता ही हासिल की ।
620. प्रभु की कांति और प्रभु का सौंदर्य सदैव स्थिर रहता है । हमारा सौंदर्य दस वर्ष पहले जैसा था आज वैसा नहीं रहता क्योंकि हम प्रकृति के अधीन हैं और इसलिए हमारे सौंदर्य का ह्रास होता रहता है । प्रभु श्री कृष्णजी जब 125 वर्ष की अवस्था में थे और श्रीलीला कर रहे थे तो वे 16 वर्ष की अवस्था के जैसे ही लगते थे ।
621. अगर हम जीवन में अपना कल्याण चाहते हैं तो हमें जीवन में प्रभु को कभी नहीं भूलना चाहिए ।
622. प्रभु का ज्ञान अखंड और असीम है । उन्हें कुछ भी याद करने की कभी जरूरत नहीं पड़ती, किसी भी श्रीग्रंथ का कभी अवलोकन करने की जरूरत नहीं पड़ती । श्री कुरुक्षेत्रजी में श्री अर्जुनजी ने जो कुछ भी प्रभु से पूछा प्रभु तुरंत उसका जवाब देते गए ।
623. प्रभु ने श्री कृष्णावतार में अखंड वैराग्य अपने श्रीचरित्र में दिखाया । प्रभु 11 वर्ष की अवस्था में श्री गोकुलजी छोड़कर चले गए फिर इतना वैराग्य कि कभी भी वहाँ लौट कर नहीं आए । बांसुरी, जो प्रभु को इतनी प्रिय थी, उसे प्रभु ने भगवती राधा माता को अर्पण कर दिया जब प्रभु 11 वर्ष की अवस्था में थे फिर इतना अखंड वैराग्य कि कभी भी बांसुरी को याद नहीं किया । स्वर्ण की श्रीद्वारकाजी बसाई फिर वह जलमग्न हुई और प्रभु के देखते-देखते प्रभु के कितने पुत्र आपस में लड़े पर पुत्र मोह में प्रभु का एक भी आंसू नहीं छलका, इतना अदभुत वैराग्य ।
624. श्रीरास का श्रवण या वाचन करते समय अगर कोई गलत विचार हमारे मन में आए तो पहले हमें यह समझना चाहिए कि यह कोई मानव लीला नहीं है अपितु यह प्रभु की श्रीलीला है जहाँ मानवीय नियम लागू नहीं होते ।
625. हमारे मन में जब रास की भावना आए तो रास नहीं हो सकता । प्रभु के मन में जब जीव से रास करने की इच्छा जागृत होगी तभी श्रीरास होगा । ऐसा तभी होगा जब प्रभु को भी लगेगा कि इस जीव से रास करना चाहिए तभी श्रीरास संभव होगा । इसका संकेत यह है कि हमारे मन में प्रभु से मिलन की चाह होगी तो भी मिलन तब तक नहीं हो सकता जब तक प्रभु के भी मन में मिलन की चाह नहीं आएगी ।
626. जीवात्मा के साथ प्रभु क्रीड़ा करना तब स्वीकार करते हैं जब जीव में इसके लिए योग्यता आ जाती है ।
627. जीव और प्रभु की बीच शुद्धतारूपी समानता होने पर ही उनके बीच रास संभव होगा । जीव मलिन है और प्रभु परम शुद्ध हैं । इसलिए जीव भी जब भक्ति से शुद्ध होगा तो ही शुद्ध प्रभु से उसका रास संभव होगा ।
628. योग्यता आने पर आज भी प्रभु जीव को बांसुरी बजाकर रास के लिए बुलाते हैं ।
629. जीव असमर्थ है और जन्म-जन्म तक सोचता रह जाता है कि प्रभु से मिलन हो जाए पर ऐसा नहीं होता । प्रभु सर्वसमर्थ हैं और जिस पल भी प्रभु के मन में आ गया कि जीव से मिलना है उसी समय मिलन हो जाता है ।
630. सभी असुरों को मारने के बाद और सभी असुरों के हटने पर प्रभु ने श्रीरास रचाया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जब हमारे मन के सभी असुर यानी उपद्रव शांत हो जाते हैं तभी प्रभु मिलन यानी रास संभव होता है क्योंकि तभी इसके लिए योग्य वातावरण बनता है ।
631. सभी विकारों के असुर हमारे हृदयरूपी श्रीगोकुल में छिपे रहते हैं, जब प्रभु कृपा से उनका वध होगा तभी हमारा हृदयरूपी श्रीगोकुल श्रीरास के लिए उपयुक्त बनेगा ।
632. कितने भी शास्त्र पढ़ लिए पर अगर हमारे हृदय की वृत्ति नहीं बदली तो प्रभु से मिलन संभव नहीं क्योंकि जीव का हृदय जब परम विशुद्ध होगा तभी उसमें वह योग्यता आएगी कि वह प्रभु के साथ विहार कर सके ।
633. रोजाना गलत व्यवहार और गलत आचरण करने वाले को जीवन में कभी भी प्रभु प्राप्त नहीं हो सकते ।
634. विकारों का नाश किसी दवा से नहीं होगा, उसका नाश प्रभु की भक्ति करके हमें स्वयं ही करना पड़ेगा ।
635. संयम के मार्ग से चलने पर साधक प्रभु तक पहुँच जाता है पर असंयम के मार्ग से चलने पर साधक प्रभु तक कभी भी नहीं पहुँच पाता ।
636. श्रीरास पंचाध्यायी के आगे कुछ भी नहीं है । यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सर्वोच्च शिखर है ।
637. विकारों को हटाने का साधन हमें स्वयं को करना पड़ता है तब प्रभु की कृपा से उसका निवारण जीवन में होता है । उदाहरण के रूप में छोटा-सा वैराग्य का नियम हमने जीवन में लिया तो पूर्ण वैराग्य प्रभु कृपा से हो जाएगा ।
638. कोई भी साधन करते समय अगर प्रभु कृपा का आधार हमने जीवन में नहीं रखा तो हम बहुत सारे संकटों में फंस जाएंगे और साधन मार्ग से विमुख हो जाएंगे ।
639. प्रभु कृपा का आधार जीवन में नहीं है तो बहुत सारे संकट हमारे साधन मार्ग में आते ही रहेंगे ।
640. साधन मार्ग में हमारा प्रयत्न भी होना चाहिए और सहायता के लिए प्रभु से हमारी निरंतर पुकार भी होनी चाहिए तभी हमें सफलता मिलेगी ।
641. प्रभु को पुकारने से साधन मार्ग में प्रभु सहायता करते हैं और हमारी मदद के लिए निश्‍चित आते हैं ।
642. जब भगवती यशोदा माता ने प्रभु को ओखल से बांधा तो दो अंगुली रस्सी कम पड़ गई । संत इस प्रसंग का सूत्र देते हैं कि एक अंगुली रस्सी पुरुषार्थ की कम पड़ी और दूसरी अंगुली रस्सी प्रभु कृपा की कम पड़ी । जैसी ही भक्ति का हमारा पुरुषार्थ पूरा होगा प्रभु हमारे ऊपर कृपा करेंगे और इस तरह दो अंगुली रस्सी पूरी हो जाएगी और प्रभु हमारे प्रेम बंधन में बंध जाएंगे ।
643. भक्ति में जीव का पुरुषार्थ और परिश्रम होना चाहिए तो प्रभु की कृपा जीव को अवश्य मिलती है ।
644. भक्ति करने वाले साधक के प्रयास को देख कर प्रभु को लगता है कि अब इस भक्त से मिलना चाहिए ।
645. वासना के बादल छंट जाएं और हमारा मन पूरा प्रभुमय हो जाए, ऐसा वातावरण श्रीरास के लिए जरूरी होता है ।
646. श्रीरास के आमंत्रण पर जिस श्रीगोपीजन ने जिस क्षण जो काम करते हुए प्रभु की बांसुरी सुनी उस कार्य को वहीं त्याग कर प्रभु मिलन के लिए दौड़ पड़ी । कोई गोपी बच्चे को दूध पिलाते हुए बच्चे को वहीं छोड़ कर दौड़ी । कोई गोपी पति को भोजन परोसते वक्त वैसा ही छोड़कर दौड़ी । कोई गोपी गाय को दुहते वक्त वहाँ से दौड़ी । किसी गोपी ने एक आँख में काजल लगा लिया और बांसुरी सुनी और दूसरी आँख में बिना काजल लगाए ही दौड़ पड़ी । जो जिस काम करते हुए जिस अवस्था में थी उसी अवस्था में प्रभु मिलन के लिए दौड़ी । प्रभु मिलन की इतनी व्याकुलता श्रीगोपीजन के मन में थी ।
647. श्रीगोपीजन को उनके पतियों ने, बच्चों ने, सास-ससुर ने, भाई-बहनों ने बहुत रोकने का प्रयास किया पर वे किसी के रोके नहीं रुकीं और पकड़ने पर सबसे अपना हाथ छुड़ाकर दौड़ी । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि परिवार, समाज प्रभु की तरफ जाने वाले को रोकेगा पर सच्चा भक्त किसी के रोके नहीं रुकता है ।
648. श्रीगोपीजन सामान्य महिलाएं नहीं थीं, वे संत और परमहंस थे जिनको युगों-युगों से प्रभु मिलन की प्यास थी । इसलिए प्रभु श्री शुकदेवजी राजा श्री परीक्षितजी को सावधान करते हैं कि उनके इस लोक व्यवहार पर प्रश्नचिह्न उठाने की कल्पना भी नहीं करें और हम सबको भी ऐसा नहीं करने के लिए सावधान करते हैं ।
649. कुछ गोपियों को उनके घरवालों ने घर में बंद कर दिया था । पर उनका विरह इतना था कि जैसे पानी से बाहर निकली मछली तड़पती हैं वैसे ही वे तड़पने लगीं और उन्होंने दम तोड़ दिया । शरीर त्याग कर उन धन्‍य गोपियों की आत्मा प्रभु मिलन हेतु चली गई ।
650. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्रीगोपीजन को प्रेमाभक्ति का सर्वोच्च आचार्य माना है ।
651. अपनी कल्पना शक्ति से भी अगर हम श्रीगोपीजन की प्रभु मिलन की व्याकुलता को नहीं समझ पाएंगे तो हम कभी श्रीरास के प्रसंग में प्रवेश नहीं कर पाएंगे ।
652. अपनी कल्पना शक्ति से अगर हम श्रीगोपीजन की व्याकुलता की कल्पना कर भी पाएं तो भी वह अंश भर ही कर पाएंगे क्योंकि पूर्ण रूप से उसे कर पाना पूर्णतया असंभव है ।
653. प्रभु के लिए व्याकुलता के बिना प्रभु की प्राप्ति किसी के लिए भी संभव नहीं है ।
654. प्रभु प्राप्ति की सबसे बड़ी कड़ी व्याकुलता ही है । प्रभु को प्राप्त करने वाले यानी आत्म-साक्षात्कार युक्त संतों और भक्तों ने नाम, जप, कर्मकांड, वेदांत चिंतन कुछ किया या नहीं किया पर सबने एक चीज जरूर की है और सबमें एक बात हमें जरूर देखने को मिलेगी वह है प्रभु के लिए व्याकुलता ।
655. प्रभु के लिए व्याकुलता भगवती राधा माता की ही कृपा से हमें मिलती है । इसलिए सभी संतों ने जिन्होंने प्रभु श्री कृष्णजी को पाया है उन्होंने भगवती राधा माता की कृपा प्राप्त करने का जीवन में प्रयास किया है क्योंकि भगवती राधा माता की कृपा से ही प्रभु के लिए व्याकुलता जीवन में आती है ।
656. भक्ति में व्याकुलता अनंत कोटि जन्मों के असाधारण और दिव्य साधनों एवं पुण्यों के कारण ही आती है ।
657. प्रभु के लिए महाभाव जागृत होना बहुत ही विलक्षण बात है । किसी बिरले भाग्यवान को ही यह महाभाव प्राप्त होता है ।
658. प्रभु के लिए महाभाव को प्राप्त करने के लिए संत अपने घर बार, सुख-सुविधा का त्याग करते हैं । वे अपनी संपत्ति, ऐश्वर्य, परिवार को भूला देते हैं ।
659. भगवती राधा माता से प्रार्थना करने पर श्रीगोपीजन को प्रभु के लिए जो व्याकुलता प्राप्त हुई उसका एक अंश भी हमें मिल जाए तो हम परम धन्य हो जाएंगे ।
660. प्रभु के लिए परम व्याकुलता होना सच्चे भाग्यवान के लक्षण होते हैं । इसलिए जब प्रभु ने श्रीगोपीजन में ऐसी व्याकुलता देखी तो प्रभु ने श्रीगोपीजन को श्रीरास के आरंभ में महाभाग्य कहकर उनका स्वागत किया ।
661. संसार की साधारण दृष्टि में नौकर, बंगला, गाड़ी, संपत्ति देखकर लोग उस जीव को भाग्यवान मानते हैं । पर अध्यात्म की कसौटी पर जो प्रभु की माला फेरे, प्रभु का भजन करे, प्रभु की कथा सुने, प्रभु की भक्ति करे और प्रभु से जुड़ा हुआ हो वही सच्चा भाग्यवान माना जाता है ।
662. सिर्फ संपत्ति होना, रुपए होना पर प्रभु की भक्ति नहीं होने के कारण प्रभु से दूर होना - ऐसे लोगों को आध्यात्मिक दृष्टि से कर्मफूटा माना गया है ।
663. संत मानते हैं कि जब हमारे पाप बढ़ते हैं और प्रभु से दूर होने की बारी आती है तो हमारे पास धन-संपत्ति आती है क्योंकि वह हमें प्रभु से दूर कर देती है ।
664. भोगों के लिए संपत्ति की सार्थकता नहीं है । संपत्ति वही सार्थक होती है जो प्रभु की सेवा में लग जाए ।
665. श्री आदि शंकराचार्यजी ने एक बार कहा कि मैंने आज एक सच्चा भाग्यवान देखा । उन्होंने कहा कि आज उन्होंने एक कौपीनधारी को भगवती गंगा माता के तट पर श्रीग्रंथों में प्रभु वाक्यों का चिंतन करते हुए देखा - वही सच्चा भाग्यवान है ।
666. जीव का मूल स्वरूप प्रभु ही हैं । इसलिए जो जीव प्रभु में रात-दिन अपनी बुद्धि को लगाकर रखता है वही सच्चा भाग्यवान है ।
667. सारे मिष्ठान्न के सेवन से भी एक सेठ उतना तृप्त नहीं हो सकता, खुश नहीं हो सकता जितना एक संत प्रभु प्रसाद पाकर तृप्त और संतुष्ट होता है ।
668. एक सेठ रुपया कमाता है, वह कब तक रहेगा जब तक उसका जीवन काल रहेगा । पर एक भक्त प्रभु की भक्ति कमाता है, वह कब तक रहेगी उसके जीवन काल तक रहेगी और जीवन काल के बाद भी रहेगी । इसलिए एक भक्त एक सेठ से अधिक भाग्यवान होता है ।
669. प्रभु भक्ति की कमाई का नाश कभी भी नहीं हो सकता और कोई भी नहीं कर सकता ।
670. एक बैंक में एक व्‍यक्ति ने बुढ़ापे में पांच लाख रुपए जमा कराए जो पांच वर्षों में दोगुना होने थे पर इतने में उस जीव की मृत्यु हो गई । अगर वह नया जन्म लेकर बैंक में आएगा तो बैंकवाले उसे धक्का देकर निकाल देंगे और उसे रुपए नहीं देंगे । पर अगर एक व्यक्ति ने जीवन भर भक्ति नहीं की है और बुढ़ापे में ही भक्ति की कमाई की है और उस जीव की मृत्यु हो गई तो प्रभु स्वयं लाकर उसकी भक्ति की कमाई अगले जन्म में उस तक पहुँचाते हैं जिससे कि वह उसके आगे का प्रभु प्राप्ति का साधन कर सके । भक्ति की कमाई को प्रभु उस जीव के अगले जन्म के लिए अक्षुण्ण रखते हैं ।
671. प्रभु का नाम जप, भजन, पूजन, सेवारूपी धन का बंटवारा भाइयों में नहीं होता, सरकार उस पर कर नहीं लगा सकती, चोर उसकी चोरी नहीं कर सकते, यहाँ तक कि प्रभु श्री यमराजजी भी ऐसे भक्तिरूपी धन वाले का सम्मान करते हैं ।
672. संसारी धन अस्थाई है और शरीर रहने तक ही अपना है । भक्ति रूपी धन स्थाई है और शरीर नहीं रहने के बाद भी अपने साथ जाता है ।
673. जो भोगा वह साथ नहीं जाएगा, जो भजन किया वही साथ जाएगा ।
674. भक्ति की कमाई का कभी क्षय नहीं होता बाकी सभी कमाई का क्षय होता है । इसलिए भक्ति कमाने वाले को ही शास्त्रों में सच्चा भाग्यवान माना गया है ।
675. भक्ति में जो दौड़ है वह प्रभु की तरफ है और यह बड़े भाग्य की दौड़ है । नहीं तो संसार के सभी लोग दौड़ ही तो रहे हैं पर गलत दिशा में दौड़ रहे हैं ।
676. हम धन, सत्‍ता, भोग, कीर्ति और परिवार के लिए दौड़ रहे हैं पर क्या यह दौड़ सार्थक है, क्या यह दौड़ हमें तृप्ति देगी । तृप्ति तो केवल और केवल भक्ति की दौड़ ही देगी ।
677. धन के पीछे दौड़ कभी तृप्ति नहीं दे सकती क्योंकि सौ वाले को हजार चाहिए, हजार वाले को दस हजार चाहिए, दस हजार वाले को लाख चाहिए और इस तरह यह अतृप्ति का चक्र कभी नहीं थमता ।
678. क्या हमें कभी किसी वस्तु की प्राप्ति पर ऐसा लगेगा कि अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए । यह केवल भक्ति से ही संभव है । जब हम भक्ति से प्रभु को प्राप्त करते हैं तो ही ऐसा लगेगा क्योंकि प्रभु प्राप्ति पर पूर्ण तृप्ति मिल जाती है । फिर कोई आवश्यकता जीवन की बाकी नहीं रहती, कोई आकांक्षा जीवन में बाकी नहीं रहती, कोई दुःख जीवन का बाकी नहीं रहता ।
679. संपत्ति के लिए दौड़ने पर हमारे आगे सदैव लोग रहेंगे पर भक्ति की दौड़ में हमारे आगे सिर्फ प्रभु ही होंगे ।
680. कितना भी संसार करने पर चित्त कभी शांत नहीं होगा । केवल भक्ति करने पर ही चित्त शांत होगा ।
681. संसार की तरफ दौड़ने से हमारी दौड़ कभी समाप्त होने वाली नहीं है । प्रभु की तरफ दौड़ने से ही हमारी दौड़ समाप्त भी होगी और हमें विश्राम भी मिलेगा ।
682. भोगों के पीछे दौड़ मृगजल के पीछे दौड़ के समान है । हिरण को मृगजल के पीछे दौड़ते हुए लगता है कि अब पानी मिलेगा और प्यास बुझेगी और वह दौड़ता-दौड़ता प्राण त्याग देता है क्योंकि उसे अंत तक पानी नहीं मिलता क्योंकि वहाँ मृगजल होता है और पानी होता ही नहीं ।
683. प्रभु ने संसार को दुःखालय का नाम दिया है । यह प्रभु द्वारा संसार को दिया हुआ नाम है । जैसे विद्यालय में विद्या मिलती है वैसे ही संसार यानी दुःखालय में अंत में दुःख ही मिलता है ।
684. खुशी पाने के लिए हम संसार में दौड़ते रहते हैं जैसे मृगजल पाने के लिए हिरण दौड़ता रहता है और अंत में हमें दुःख ही मिलता है जैसे हिरण को अंत में मृत्यु ही मिलती है ।
685. हमारा मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में फंस जाए और वहाँ से निकले ही नहीं, यही हमारी श्रेष्ठ अवस्था होनी चाहिए ।
686. भक्तराज श्री सूरदासजी ने जीवन भर प्रभु के लिए पद लिखे और प्रभु को उन पदों को गाकर सुनाया । प्रभु उनके पदों का गान सुनने के लिए उनके पास साक्षात आया करते थे ।
687. जो प्रभु की तरफ दौड़ेगा उसकी दौड़ भी समाप्त होगी और वह परम आनंद की अनुभूति भी करेगा ।
688. हम प्रभु की शरण में चले जाएं और प्रभु एक बार हमारे सिर पर अपने श्रीकरकमल रख दें तो हमारे जीवन की दौड़ सदैव के लिए समाप्त हो जाती है । प्रभु ऐसे जीव को वापस संसार में कभी नहीं भेजते और उसे सदैव के लिए अपने पास ही रख लेते हैं ।
689. कभी-कभी प्रभु अपने प्रिय भक्तों को संसार में अपने विशेष कार्य करने हेतु भेजते हैं । प्रभु का भक्त संसार में आकर सभी जीवों के अंदर भक्ति को जागृत करने का प्रयास करता है जिससे सबका उद्धार संभव हो सके ।
690. प्रभु को मीठा बोलना खूब आता है और मीठा सुनना भी खूब भाता है ।
691. प्रभु ने श्रीगोपीजन को श्रीरास के पहले कहा कि आप वापस चले जाएं और अपने परिवार, धर्म और कर्तव्य का पालन करें पर श्रीगोपीजन वहीं रुकी रहीं । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि सब कुछ त्यागने पर ही हमें प्रभु मिलते हैं ।
692. श्रीमद् भागवतजी महापुराण अदभुत श्रीग्रंथ है । कितने ही महात्मा हुए हैं जिन्होंने अपने आपको इस महापुराण के एक-एक वाक्य का चिंतन करने में और उनका भाष्य करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया और अपने जीवन को इस प्रकार धन्य किया ।
693. प्रभु से प्रेम रखने से ही हमारे सब काम स्वतः ही हो जाते हैं ।
694. प्रभु का जीवन में निरंतर चिंतन करने मात्र से ही हमारा कल्याण हो जाता है ।
695. संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्णजी जब दर्शन देने को खड़े होते हैं तो तीन जगह से टेढ़ें होते हैं पर इनका टेढ़ापन भी परम अलौकिक, परम दिव्‍य और परम माधुर्य से भरा हुआ है । संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्णजी जब बोलते हैं तो उनकी वाणी भी टेढ़ी होती है क्योंकि प्रभु श्री कृष्णजी ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में सबको इतना उलझा दिया कि विगत पांच हजार वर्षों से संत इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं । पर श्रीमद् भगवद् गीताजी के अंत में सबका सार बताते हुए करुणानिधान प्रभु श्री कृष्णजी ने अपनी शरणागति और भक्ति का मंत्र देकर सबको सुलझा दिया और सबको कृतार्थ कर दिया ।
696. मृत्यु के समय जो वासना अंतिम रूप से हमारे मन में होती है उसी प्रकार का अगला जन्म हमें मिलता है । इसलिए हमें जीवन में प्रभु का चिंतन करना चाहिए जिससे कि अंतिम समय में भी प्रभु का ही चिंतन बना रहे और प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमें सदैव के लिए स्थान मिल जाए ।
697. प्रभु के सभी भक्त श्रीबैकुंठवासी होते हैं और प्रभु के द्वारा किसी विशेष कार्य के लिए पृथ्वी पर भेजे जाते हैं । हर भक्त के साथ प्रभु का कोई विशिष्ट कार्य जुड़ा हुआ होता है ।
698. भक्ति का रस ही इतना अदभुत है कि ब्रह्मज्ञानी एवं मुक्त लोग भी इसे पाने के लिए सदैव लालायित रहते हैं ।
699. प्रभु सभी संतों को और सभी भक्तों को जीवों के उद्धार के लिए अलग-अलग काम बांटते हैं ।
700. अध्यात्म के अलग-अलग सिद्धांत सिखाने अलग-अलग संतों को प्रभु पृथ्वी पर भेजते हैं ।
701. पूरा संसार प्रभु का रंगमंच है और सभी जीव एक नट के समान यहाँ अपना-अपना पात्र निभाते हैं ।
702. संतों ने कलियुग के दोषों को देखते हुए कलियुग में भक्ति के प्रवाह को जन-जन के बीच बहाना अति आवश्यक माना है ।
703. सारे ऋषि, भक्त और संत श्रीगोपीजन का रूप लेकर प्रभु के साथ श्रीलीला करने के लिए श्रीबृज में उपस्थित हुए ।
704. भक्‍त कहते हैं कि हमें निर्गुण निराकार बनकर छुपकर बैठने वाले प्रभु नहीं चाहिए । हमें तो सर्वत्र प्रेम में रमने वाले सगुण साकार स्वरूप वाले प्रभु चाहिए ।
705. प्रभु के भक्तों को भक्ति की आदत लगी हुई होती है । इसलिए वे प्रभु की भक्ति धीरे-धीरे रस ले-लेकर करते हैं ।
706. प्रभु का रूप अमृतमय है और उसमें इतना माधुर्य छिपा हुआ है जिसके कारण भक्त अपने नेत्रों के प्याले बना-बनाकर उस अमृत रस का पान करते रहते हैं ।
707. संत कहते हैं कि नेत्रों के प्याले बनाकर प्रभु के रूप को देखना चाहिए, कानों के प्याले बनाकर प्रभु की कथा को श्रवण करना चाहिए, जिह्वा के प्याले बनाकर प्रभु का अमृततुल्य नाम लेना चाहिए ।
708. प्रभु श्री रामजी का नाम इतना अदभुत है और उसमें इतना रस भरा हुआ है कि वह रस अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा ।
709. हमारी त्वचा पर प्रभु अपने श्रीकरकमल का स्पर्श करें, हमारे गालों पर प्रभु अपना श्रीहाथ फेरें - क्या कभी हमें जीवन में ऐसा लगता है ? अगर ऐसा नहीं लगता तो अभी हमारी भक्ति में कमी है ।
710. क्या हमारा कभी प्रभु को स्पर्श करने का मन करता है । हमारे हृदय में प्रभु के लिए इतनी प्रीत होनी चाहिए कि हमारे मन को ऐसा लगे ।
711. हमारी सारी इंद्रियों से जब हम प्रभु के साकार रूप का आस्वादन करना सीख जाते हैं तो वह हमारे भीतर गोपीभाव का आविष्कार करता है ।
712. एक बार प्रभु के रूप को देखकर जिसका मन भर गया और बार-बार दर्शन करने का मन नहीं करता वह भक्ति की प्राथमिक कक्षा में ही है ।
713. अत्यंत प्रेम से बार-बार सच्चे भक्त आकर प्रभु के रूप को निहारते हैं । अत्यंत प्रेम से सच्चे भक्त बार-बार प्रभु की कथा का श्रवण करते हैं ।
714. प्रभु की हर कथा से हमारे हृदय में नवीन भाव का निर्माण होना चाहिए ।
715. प्रभु की कथा इसलिए सुननी चाहिए कि पता नहीं कौन-सा भाव, कौन-से शब्द के माध्यम से प्रभु हमारे हृदय में उतर जाएँ ।
716. संत निरंतर प्रभु कथा में इसलिए रमते हैं और अपना जीवन इसमें लगा देते हैं क्योंकि इस माध्यम से प्रभु के लिए उनके हृदय में नए-नए भाव सदैव जागृत होते रहते हैं ।
717. भक्त और संत प्रभु के ही होते हैं और वे प्रभु के द्वारा ही पृथ्वीलोक में जीव के उद्धार के लिए भेजे जाते हैं ।
718. संत और भक्‍त जब जीवन त्याग के समय संसार से विदा लेते हैं तो उनकी आँखों में आंसू नहीं होते क्योंकि उन्हें अपने निज धाम यानी प्रभु के धाम जाने की अत्यधिक प्रसन्नता होती है और आनंद होता है । वे होते ही प्रभु धाम के निवासी हैं इसलिए वापस अपने धाम वे खुशी-खुशी जाते हैं । उनकी अंतिम अवस्था में उनके निज धाम लौटने की खुशी उनके चेहरे पर साफ झलकती है ।
719. प्रभु द्वारा दिया कार्य और उस कार्य को अपना कर्तव्य समझ पूरा करके संत और भक्त संसार से विदा लेकर वापस प्रभु धाम जाते हैं ।
720. प्रभु ने श्रीरास से पहले श्रीगोपीजन को कहा कि जाओ-जाओ अपना कर्म करो, अपने धर्म का पालन करो, अपने कर्तव्य को निभाओ और अपने घर जाकर ही वहाँ से मुझे याद कर लेना । पर जब श्रीगोपीजन ने ऐसा नहीं किया तभी श्रीरास हुआ । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जब हम अपना कर्म और अपना धर्म प्रभु के लिए छोड़ देते हैं तभी प्रभु से श्रीरास संभव होता है ।
721. श्रीगोपीजन प्रभु का सानिध्य चाहती थीं, प्रभु का संयोग चाहती थीं । इसलिए श्रीरास के आरंभ में प्रभु के वापस भेजने पर भी वे गईं नहीं ।
722. हमें भी प्रभु की भक्ति के रस का ठीक से आस्वादन करना आना चाहिए ।
723. प्रभु के संयोग में भी बड़ा रस है और प्रभु के वियोग में भी बड़ा मीठा रस है । इसलिए संत प्रभु वियोग और प्रभु संयोग दोनों का रस जीवन में लेते हैं ।
724. भक्ति में प्रभु से नित्य संयोग-वियोग चलता रहता है । संत पहले प्रभु से वियोग चाहते हैं और वे वियोग के भाव में तल्लीन होकर अपनी तीव्र व्याकुलता से उस वियोग का परम रस लेते हैं ।
725. प्रभु जब समीप होते हैं तो हमें प्रभु एक ही स्थान पर दिखते हैं पर प्रभु से जब वियोग होता है तो व्याकुलता के कारण प्रभु हमें हर स्थान पर दिखने लगते हैं ।
726. प्रभु ने 11 वर्ष तक साथ रहने के बाद जीवन भर के लिए श्रीगोपीजन को वियोग दिया । श्रीगोपीजन ने इस वियोग का खूब आनंद लिया । प्रभु जब श्री कुरुक्षेत्रजी में श्रीगोपीजन से मिले तो प्रभु ने कहा कि आपको लगातार वियोग के कारण मेरा परम अनुसंधान होता रहे इसलिए ही मैंने यह वियोग दिया था ।
727. हमें जीवन में सर्वोच्च आलंबन प्रभु का ही मानना चाहिए ।
728. प्रभु से अधिक प्रेम जीवन में किसी से भी और कभी भी नहीं होना चाहिए ।
729. श्रीगोपीजन ने प्रभु को सर्वोच्च और सर्वाधिक प्राणवल्लभ माना और उन्होंने प्रभु के लिए अपने जीवन के हर सुख को दांव पर लगाया ।
730. हम प्रभु से निरंतर मांगते रहते हैं और प्रभु को अपने व्यवहार और आचरण से कष्ट पहुँचाते रहते हैं । श्रीगोपीजन की भक्ति सच्ची थी क्योंकि उन्होंने प्रभु से कभी भी कुछ नहीं मांगा और कभी भी अपने किसी कर्म से प्रभु को कष्ट नहीं पहुँचाया । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि सच्चा भक्त प्रभु से कभी भी कुछ नहीं मांगता और उसकी सभी इच्छाएं प्रभु में विलीन हो जाती हैं एवं वह प्रभु को अपने कर्म और व्यवहार से कभी भी कष्ट नहीं पहुँचाता ।
731. विषयों को मांगने के लिए प्रभु के पास जाना एक साधारण बात है पर विषयों को त्यागकर प्रभु के पास जाना बहुत बड़ी बात है ।
732. भक्त सदैव प्रभु से यही कहता है कि किसी भी हालत में प्रभु उन्हें छोड़े नहीं, प्रभु को उन्हें जैसा भी रखना है रखें पर उन्हें कभी छोड़े नहीं ।
733. स्वधर्म, परिवार पालन, अपने कर्तव्य पालन का फल क्या है कि उससे प्रभु प्रसन्न हो जाएं । कर्मकांड का फल क्या है कि प्रभु प्रसन्न हो जाएं इसलिए कर्मकांड के अंत में यही कहा जाता है कि प्रभु प्रसन्न हों । इसलिए भक्त के लिए स्वधर्म गौण हो जाता है क्योंकि वह भक्ति करके प्रभु को सीधे प्रसन्न करने का ही प्रयास करता है ।
734. अपने हर व्यवहार से जीवन में प्रभु को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
735. हम किसी भी संत या भक्‍त को प्रणाम करते हैं तो उसे निमित्त बनाकर प्रभु प्रसन्न होकर अपना कृपारूपी आशीर्वाद हमें उनके माध्‍यम से भेजते हैं ।
736. श्रीगोपीजन प्रभु को कहती हैं कि प्रभु अभी उनके सामने खड़े हैं तो साध्य सामने होने पर साधन यानी कर्तव्य कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है और ऐसे में साधन करना गौण हो जाता है ।
737. सारा धर्म आचरण प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही होता है ।
738. भगवत् प्राप्ति के किसी भी साधन में प्रभु की प्रसन्नता सबसे जरूरी है ।
739. जीवन का हर धर्म, हर व्यवहार प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किया जाना चाहिए ।
740. श्रीगोपीजन कहती हैं कि हमारे लौकिक कर्तव्य का लक्ष्य ही प्रभु की प्रसन्नता है । पर अब जब प्रभु हमारे सामने ही आ गए हैं तो फिर कर्तव्य पूर्ति की क्या आवश्यकता है क्योंकि साध्‍य जब सामने खड़ा हो जाए तो साधन की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
741. प्रभु प्राप्ति ही हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए ।
742. सच्चे भक्तों के लिए कोई विधि नहीं होती । भक्ति में उनकी जो भी क्रिया होती है वही विधि बन जाती है । जब श्री भरतलालजी श्री चित्रकूटजी से प्रभु की श्रीचरणपादुका लेकर श्री अयोध्याजी आए और उन्हें वे राजसिंहासन पर विराजमान करना चाहते थे तो उन्होंने गुरु श्री वशिष्ठजी को पूछा कि क्या शास्त्रों में इसका विधान है तो गुरु श्री वशिष्ठजी ने कहा कि तुम्हारे जैसे सच्चे भक्‍त के लिए कोई भी विधान नहीं, तुम जो भी करोगे वही आगे के लिए विधान बन जाएगा । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य होता है ।
743. भक्ति के कारण प्रभु अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं ।
744. जीव सबसे ज्यादा प्रेम स्वयं से करता है और अपने शरीर से करता है पर यह गलत है । हमें सबसे ज्यादा प्रेम प्रभु से ही करना चाहिए ।
745. संसार में वे ही सर्वाधिक भाग्यवान हैं जो सबसे ज्यादा प्रेम प्रभु से करते हैं ।
746. संसार का कोई भी पदार्थ मनुष्य को क्लेश दिए बिना नहीं रहता । इसलिए ही प्रभु ने संसार को दुःखालय कहा है ।
747. भक्ति के अलावा जीवन में कुछ भी इकट्ठा करें तो उसका एक-न-एक दिन क्षय अवश्य होगा ।
748. जीवन में कुछ भी इकट्ठा किया तो वह हमें क्षणिक सुख देगा पर अंत में उसका क्षय होगा और वह हमें दुःख और कष्ट ही देगा । केवल भक्ति ही है जो हमें सदैव के लिए एकमात्र परमानंद देने वाली है ।
749. यह शाश्वत सिद्धांत है कि कुछ भी संग्रह या संचय किया तो वह अंत में हमें दुःख ही देगा । इसलिए हमें सदैव जीवन में परमानंद देने वाली भक्ति की ही कमाई करनी चाहिए ।
750. पूरे विश्व में ऐसा कोई संयोग नहीं जिसका अंत में वियोग नहीं होगा, यहाँ तक कि स्वयं के शरीर का भी वियोग होगा । पर अगर हम भक्ति करते हैं तो प्रभु से हमारा कभी भी वियोग नहीं होगा ।
751. वे धन्य होते हैं जो संसार में उपलब्ध चीजों से प्रेम करने के बजाए प्रभु से प्रेम करते हैं ।
752. सभी की बुद्धि ऐसी नहीं होती, सभी के भाग्य ऐसे नहीं होते कि उनको प्रभु ही प्रिय लगें पर जिनको जीवन में ऐसा लग गया वे तो धन्य हो जाते हैं ।
753. प्रभु मिलन के लिए किसी बिरले का ही भाग्योदय होता है ।
754. जिसके अंतःकरण की वृत्ति प्रभु की तरफ बह रही हो वही सच्चा भाग्यवान कहलाता है ।
755. संत कहते हैं कि संसार को छोड़कर प्रभु की तरफ मुड़ने वाला ही सच्चा भाग्यवान होता है ।
756. प्रभु की सेवा में आनंद आने लग जाए तो यह मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा जीवन में बरस रही है ।
757. प्रभु की भक्ति का मन बनना ही पुण्य के उदय का सूचक है । हमारे पाप कटे बिना ऐसा मन बनना संभव ही नहीं है ।
758. दृढ़ता से प्रभु भक्ति में उसका ही मन लगना संभव होता है जिसके पाप कट गए होते हैं । यह बात प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कही ।
759. प्रभु के चिंतन में रस आने लग जाए तो यह पक्का और पक्का समझना चाहिए कि प्रभु की कृपा जीवन में हो गई है ।
760. संसार के लोगों से और संसार से मन हट कर प्रभु में लग जाए तो यह पक्का समझना चाहिए कि करुणामय प्रभु की कृपा हमारे जीवन में फलित हो रही है ।
761. भक्त किसी संसारी का मन रखने में विश्वास नहीं रखता । वह सिर्फ प्रभु का मन रखने का ही प्रयास करता है ।
762. भक्त के एकमात्र चिंतन का विषय ही प्रभु बन जाते हैं ।
763. श्रीगोपीजन प्रभु को चित्तचोर कह कर संबोधित करती हैं । यह अधिकार सिर्फ निश्‍छल प्रेम के कारण श्रीगोपीजन का है नहीं तो प्रभु को चोर कहने का साहस और ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
764. प्रभु चित्तचोर हैं यानी अपने प्रेमी जीवों के चित्त की चोरी करने वाले हैं ।
765. श्रीगोपीजन प्रभु से कहती हैं कि प्रभु ने उनका चित्त ही चुरा लिया है इसलिए अब उनका घर के कामों में और संसार में मन ही नहीं लगता ।
766. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रीरास पंचाध्यायी का एक-एक श्लोक अनमोल और अति दिव्य हैं ।
767. श्रीगोपीजन प्रभु को कृपा करने के लिए कहती हैं जिससे वे प्रभु को भूल पाए । श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम इतना प्रबल कि वे प्रभु को अपने स्वयं के प्रयासों से भुला ही नहीं पाती ।
768. संत और मुनि जीवन भर साधन करके यह प्रयास करते हैं कि प्रभु का थोड़ा-सा ध्यान उनके चित्त में हो जाए । पर श्रीगोपीजन का भाग्य देखें कि वे प्रभु से मांगती हैं कि प्रभु को वे अपने चित्त से भुला पाएं ।
769. मुनियों के मन में प्रयास करने पर भी प्रभु उनके मन में आते नहीं और श्रीगोपीजन द्वारा डांटकर निकालने पर भी प्रभु उनके हृदय से जाते नहीं । इससे ही श्रीगोपीजन के प्रेम की महानता का पता चलता है ।
770. श्रीगोपीजन का भाग्य देखें कि वे प्रभु से कहती हैं कि प्रभु उनके चित्त से थोड़ा बाहर निकलें तो ही उनका मन संसार के कामों में कुछ लग पाएगा । हमारा दुर्भाग्य देखें कि हमारा मन सदैव संसार में ही लगा रहता है और जीवन भर प्रभु में नहीं लग पाता ।
771. भक्तों का मन संसार के पदार्थ में रहता ही नहीं, उन्हें उस पदार्थ में भी प्रभु दर्शन होते हैं । एक संत सब्जी बेचने का कार्य करते थे और कहते थे कि सब कुछ श्रीविट्ठल है । कोई भी सब्जी का नाम पूछता तो श्रीविट्ठल ही कहते थे क्योंकि उन्हें सब्जी नहीं श्रीविट्ठल प्रभु ही दिखते थे ।
772. श्रीगोपीजन ने प्रभु से प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा नहीं अपितु श्रीकमलचरणों से चिपकी रज की सेवा का अधिकार मांगा ।
773. श्रीगोपीजन प्रभु से पूछती है कि प्रभु से परिचय होने के बाद प्रभु से प्रभावित हुए बिना आज तक कौन बच पाया है ।
774. संसार में कितने ही ऐसे भक्त हुए हैं जिनका संसार ही प्रभु की भक्ति ने छुड़ा दिया और उन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचा दिया ।
775. संत कहते हैं कि जीवन में पराभक्ति होने पर फिर अपने सांसारिक कर्तव्य पालन करने की कोई जरूरत ही नहीं बचती क्योंकि उसकी पूर्ति प्रभु अपने आप कर देते हैं ।
776. प्रभु का आकर्षण इतना है कि प्रभु के आगे संसार के बाकी सभी आकर्षण फीके पड़ जाते हैं और टिक ही नहीं पाते ।
777. यह शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु से ऊपर किसी भी जीव का किसी भी जीव से कोई संबंध नहीं हो सकता ।
778. श्रीगोपीजन प्रभु से पूछती हैं कि ऐसा कौन-सा भक्त हुआ है जिसकी पहचान प्रभु से हो गई हो और फिर उसका संसार या परिवार नहीं छूटा हो और वह प्रेम के कारण सब कुछ भुलाकर प्रभु की तरफ आकर्षित नहीं हुआ हो ।
779. अपनी बूढ़ी माँ को छोड़कर, अपनी पत्नी को त्यागकर, अपने कर्तव्य को भुलाकर भक्त प्रभु के लिए सब कुछ छोड़ कर चले जाते हैं । यह दीवानापन प्रभु प्रेम के कारण होता है । हमारा दुर्भाग्य है कि प्रभु प्रेम के इस दीवानेपन की हम कल्पना तक भी नहीं कर सकते ।
780. प्रभु का प्रेम, प्रभु का सौंदर्य और प्रभु का आकर्षण इतना है कि उसके कारण भक्त अपने लौकिक कर्तव्यों को त्यागकर प्रभु मार्ग पर चले जाते हैं और उनके इस प्रकार के प्रभु प्रेम के कारण वे भक्ति के अमर पात्र बन जाते हैं ।
781. ब्रह्माण्ड के सभी जीवों का संरक्षण करने वाले प्रभु ही हैं ।
782. जितना वाणी से कहा जा सकता था श्रीगोपीजन ने वाणी से प्रभु को कहा, फिर उनकी व्याकुलता ने आंसुओं का रूप ले लिया । श्रीगोपीजन की व्याकुलता देखकर प्रभु को विश्वास हो गया कि श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम श्रेष्ठतम है इसलिए प्रभु के अंतःकरण में दया का भाव जागृत हो गया और उनका प्रभु से मिलन हो गया ।
783. भक्तों को देव, ऋषि, पितृ और समाज आदि के ऋण चुकाने की जरूरत नहीं पड़ती । जिस भक्त के जीवन में प्रभु प्राप्ति का एक ही लक्ष्य हो गया उसके ऊपर किसी का कोई भी ऋण बचता ही नहीं ।
784. जीवन में प्रभु भक्ति करना ही जीवन का सबसे उच्चतम लक्ष्य होता है ।
785. प्रभु को पाने के लिए जीवन में जो चल पड़ता है उसे फिर किसी की परवाह नहीं होती ।
786. जीवन में अगर हमने प्रभु की शरणागति ले ली तो हमारे सभी बंधन त्याज्य हो जाते हैं, सभी बंधन खत्म हो जाते हैं ।
787. जैसे एक बच्चा कांच में स्वयं को देखकर स्वयं के साथ खेलता है वैसे ही श्रीरास के समय श्रीगोपीजन आत्माराम बन गई । प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहा कि देखो-देखो प्रभु ही प्रभु के साथ नृत्य कर रहे हैं ।
788. अगर हम भाग्यवान हैं और प्रभु की भक्ति कर पा रहे हैं तो यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि जो भक्ति नहीं करते वे अभागे हैं क्योंकि इससे हमारा अभिमान यानी अहंकार जग जाता है । ऐसा होने से प्रभु हमारे जीवन से अंतर्ध्यान हो जाते हैं । ऐसा अभिमान नहीं होने पर ही प्रभु से मिलन संभव होता है ।
789. उत्तम साधक वह है जो निरंतर अपनी वृत्तियों का निरीक्षण करता रहे । उसे यह देखना चाहिए कि उसके मन में क्या-क्या आया और क्यों आया ? एक भी गलत वृत्ति उठने पर उसे सावधान हो जाना चाहिए ।
790. हम कितने श्रेष्ठ हैं यह भावना आते ही भक्ति मार्ग पर हमारा पतन होने लगता है ।
791. दूसरे को निम्न और स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाला प्रभु को प्रिय नहीं होता । ऐसे जीव का प्रभु से वियोग हो जाता है ।
792. जब श्रीगोपीजन को श्रीरास के समय यह भाव आया कि हम श्रेष्ठ हैं तो उनका प्रभु से वियोग हो गया । जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और सच्चा पश्चाताप हुआ तो फिर उनका प्रभु से वापस संयोग हुआ ।
793. जिसके बोलने की शैली मिठास से भरी हुई होती है और जिसके हृदय के भाव शुद्ध होते हैं वह जीव प्रभु को प्रिय होता है ।
794. जैसे ही जीव का ध्यान प्रभु में लग जाता है और वह प्रभु में तल्लीन हो जाता है, तो ऐसा मानना चाहिए कि उसके सौभाग्य का उदय हो गया ।
795. हमारे अंदर अहंकार आते ही प्रभु हमसे दूर चले जाते हैं । इसलिए संत कहते हैं कि जीवन में (मैं) अहंकार आया तो जीवन से प्रभु गए ।
796. भक्ति की सर्वोच्च अवस्था वह होती है जब प्रभु के सामने बोलने जैसा कुछ भी नहीं बचता क्योंकि सभी कुछ हमारे भाव से प्रकट हो जाता है ।
797. हमारा अहंकार यानी मैं हटा और हमारे जीवन में फिर केवल प्रभु ही बचे तो हम समाधि अवस्था में पहुँच जाते हैं ।
798. हमारा ध्यान प्रभु से हटकर अपनी ओर आते ही प्रभु हमारे जीवन से चले जाते हैं ।
799. प्रभु के सामने बैठकर स्वयं के बारे में कभी नहीं सोचना चाहिए । प्रभु के सामने बैठकर सदैव प्रभु के बारे में ही सोचना और प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए ।
800. यह शाश्वत सिद्धांत है कि जितना हम अपने आप को भूलेंगे उतना हम प्रभु में लीन होते चले जाएंगे ।