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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 04

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. जल की एक बूंद जैसे सागर में विलीन हो जाती है और उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है वैसे ही भक्ति में हमें अपने स्वयं को प्रभु में विलीन करना होता है । संत इसे ही समाधि कहते हैं ।
002. अपनी भक्ति का वर्णन या बखान कभी भी किसी के सामने नहीं करना चाहिए, यहाँ तक कि मंदिर में बैठकर प्रभु के सामने भी नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे अहंकार जन्‍म लेता है जो प्रभु को अच्छा नहीं लगता ।
003. श्रीरास से प्रभु जब अंतर्ध्यान हुए तो श्रीगोपीजन में इतनी व्याकुलता हो गई प्रभु को खोजने के लिए कि वे मार्ग में जो भी मिलता उनसे प्रभु के बारे में पूछतीं । उन्होंने वृक्षों, लताओं, पशुओं और पक्षियों सबसे प्रभु के बारे में पूछा ।
004. भक्त प्रभु को हर जगह खोजता है और हर चीज में प्रभु के दर्शन करने का प्रयास करता है ।
005. हमें विकल होकर व्याकुलता से प्रभु को पुकारना चाहिए ।
006. प्रभु जिसके साथ श्रीरास करते हैं उस जीव का मान ब्रह्माण्ड में बढ़ जाता है ।
007. लीलावश श्रीगोपीजन के मन में श्रीरास के समय सूक्ष्म अहंकार जागृत हुआ कि हम कितनी श्रेष्ठ हैं और प्रभु उनके बीच से अंतर्ध्यान हो गए । यह प्रसंग हमको यह बताने के लिए हुआ कि भक्तों और प्रेमीजनों के हृदय में थोड़ा-सा भी अहंकार प्रभु को कितना अप्रिय लगता है ।
008. भगवत् अनुभूति के बाद किसी भी कारण से प्रभु अगर थोड़ा-सा भी वियोग देते हैं तो भक्तों की व्याकुलता और धैर्य सभी सीमाओं को लांघ जाता है ।
009. श्रीगोपीजन प्रभु विरह में इतनी व्याकुल हो उठीं कि वे प्रभु की श्रीलीलाओं का अनुसरण करने लगीं । वे प्रभुमय हो गईं और स्वयं प्रभु श्री कृष्णजी बनकर प्रभु की विभिन्न श्रीलीलाओं का अभिनय और अनुसरण करने लगीं । इस तरह विरह बेला में भी उनका निरंतर प्रभु का अनुसंधान चलता रहा ।
010. जैसे किसी की कोई बहुत महत्वपूर्ण वस्तु खो गई हो तो वह उसको हर तरफ तलाशता है, सभी से उसके बारे में पूछता है वैसे ही प्रभु की अनुभूति और झांकी होने के बाद जब प्रभु भक्त को वियोग देते हैं तो भक्‍त में इतनी व्याकुलता निर्माण हो जाती है कि वह संसार में हर तरफ प्रभु को खोजता है । इससे उसका प्रभु के लिए अनुसंधान बढ़ता जाता है और उसकी भक्ति भी बढ़ती चली जाती है ।
011. श्रीगोपीजन के प्राणाधार प्रभु ही श्रीरास से अंतर्ध्यान हो गए थे इसलिए वे निरंतर प्रभु की खोज हर तरफ करने लगीं ।
012. भक्त अपना पूरा जीवन दांव पर लगाकर प्रभु की अनुभूति चाहता है ।
013. संत श्री रामकृष्णजी परमहंस कहते थे कि मैंने दाल रोटी कमाने की विद्या नहीं सीखी, मैंने तो प्रभु को पाने की विद्या सीखी है ।
014. भक्त की प्रभु के लिए खोज सदैव चलती ही रहती है ।
015. भक्त सगुण साकार प्रभु के दर्शन के लिए सदैव आतुर रहता है ।
016. संत श्री रामकृष्णजी परमहंस की भक्ति उस ऊँ‍‍ची अवस्था में पहुँच गई थी कि वे भगवती काली माता की पूजा करने बैठते तो माता के दर्शन स्वयं में ही उन्हें हो जाते । फिर वे अपने स्वयं की ही पूजा करने लगते, स्वयं माला पहनने लगते, टीका लगा लेते और प्रसाद खा लेते । ऐसी पराभक्ति की अवस्‍था की हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
017. श्रीगोपीजन पूरी तन्मयता के साथ प्रभु की श्रीलीलाओं का अनुसरण करती थीं ।
018. प्रभु की व्याकुलता से खोज करने पर प्रभु की अनुभूति सभी धर्म, सभी संप्रदाय के लोगों को होती है क्‍योंकि प्रभु सभी के परमपिता हैं और सभी के लिए सदैव उपलब्‍ध रहते हैं ।
019. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रभु श्री कृष्णजी इतिहास के प्रभु श्री कृष्णजी नहीं हैं, वे वर्तमान के और नित्य के प्रभु श्री कृष्णजी हैं ।
020. भक्त केवल प्रभु को ही खोजते हैं जैसे प्यास लगने पर हम केवल पानी को ही खोजते हैं, पास में सोना भी पड़ा हो तो भी हमारा हाथ पानी की तरफ ही बढ़ता है ।
021. तीव्रता से की हुई भक्ति से ही प्रभु की अनुभूति संभव होती है ।
022. प्रभु साधारण भक्ति से नहीं मिलते, तीव्रता से की हुई भक्ति से ही मिलते हैं । इसलिए भक्ति में तीव्रता होनी बहुत जरूरी है ।
023. जितनी तीव्रता भक्ति में आती जाएगी प्रभु और भक्त के बीच में उतनी दूरी कम होती चली जाएगी ।
024. कितने जप करने से और कितने वर्षों में प्रभु मिलते हैं ऐसा कोई विधान नहीं है । सिद्धांत यह है कि प्रभु केवल तीव्र भक्ति से ही मिलते हैं ।
025. संतजन जब श्रीगोपीजन के प्रेम की तीव्रता का वर्णन करते हैं तो उसे तीव्रत्तम कहते हैं क्योंकि उससे ज्यादा संभव ही नहीं है ।
026. श्रीगोपीजन के प्रेम और भक्ति की तीव्रता का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिन श्रीगोपीजन को श्रीरास के लिए घर से जाने नहीं दिया गया वे शरीर छोड़कर आत्मरूप में चली गईं । इससे उनकी प्रेम और भक्ति की तीव्रता का पता चलता है ।
027. श्री रामकृष्णजी परमहंस हर आरती की घंटी पर भगवती काली माता को कहते थे कि एक दिन जीवन का और चला गया और माँ आपके दर्शन नहीं हुए । उनकी भक्ति में इतनी तीव्रता थी ।
028. भक्ति में अति तीव्रता होना सबसे आवश्यक है । हमारे अंदर इतनी तीव्रता होनी चाहिए कि एक दिन और चला गया और प्रभु हमें नहीं मिले । प्रभु कब मिलेंगे अगर यह भाव जीवन में बार-बार नहीं आता तो हमारी भक्ति सार्थक नहीं ।
029. आमतौर पर हम भक्ति करते हैं और यह भाव रखते हैं कि प्रभु मिल जाएं तो ठीक, नहीं मिलें तो ठीक । इस भाव में भक्ति की तीव्रता की बहुत ज्यादा कमी होती है ।
030. जब प्रभु श्रीरास से अंतर्ध्यान हुए तो श्रीगोपीजन एक-एक पत्ते, एक-एक फूल की तरफ देखतीं कि उन्हें कहीं भी उनके बीच प्रभु की अनुभूति हो जाए । उन्होंने एक-एक जड़ वस्तु से भी प्रभु के बारे में पूछा । प्रभु मिलन की इतनी तीव्रता उनमें थी ।
031. सच्चा भक्त प्रभु से कुछ भी नहीं चाहता, वह सिर्फ प्रभु को ही चाहता है ।
032. जब श्रीरास के बीच से प्रभु अंतर्ध्यान हुए और श्रीगोपीजन प्रभु की तलाश में घूमने लगीं तो उन्हें प्रभु के दर्शन नहीं हुए पर प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्नों के दर्शन हुए तो इससे ही श्रीगोपीजन उत्साह से भर गईं । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि प्रभु के श्रीचिह्नों का दर्शन मात्र ही भक्त को अत्यंत उत्साह प्रदान करता है ।
033. प्रभु के श्रीचिह्नों के दर्शन हमें तब होते हैं जब हमारे मन में उन्हें देखने की तीव्र इच्छा जागृत होती है ।
034. प्रभु अपने भक्तों के साथ नित्य बातें करते हैं । संत श्री नामदेवजी के साथ प्रभु श्री विट्ठलजी बात करते थे और संत श्री रामकृष्णजी परमहंस के साथ भगवती काली माता रोजाना बात करती थीं ।
035. अभक्त को प्रभु की पत्थर की मूर्ति दिखती है पर भक्‍त को उसी मूर्ति में भगवान दिखते हैं ।
036. प्रभु सरलता के बिना किसी को भी प्राप्त नहीं होते । सच्‍चे भक्तों में छोटे बच्चों जैसी सरलता होती है ।
037. जितना हमारा मन संसार में लगेगा उतना ही दुःख हमसे आकर चिपकेगा और उतने ही विकार हमारे भीतर जागृत होंगे । इसलिए हमें अपने मन को संसार से हटाकर प्रभु में लगाना चाहिए ।
038. शरीर से श्री गोकुलजी जाने से भी बड़ा महत्व इसका है कि हम मन से श्री गोकुलजी जाए ।
039. अपने चित्त को प्रभु में लगाना ही श्रेष्ठतम ध्यान है ।
040. जो संत श्रीगोपी भाव में रहते हैं वे श्रीगोपीजन की टोली में प्रवेश कर पाते हैं और इस प्रकार प्रभु का निरंतर सानिध्य पा जाते हैं ।
041. प्रभु के भक्ति भाव में दिनभर अपने आपको रमा कर रखना चाहिए - यही श्रेष्ठ भक्ति है ।
042. नामजप, कीर्तन, ध्यान यह सब प्रभु के लिए भक्ति भाव में ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां हैं ।
043. प्रभु के श्रीकमलचरणों की श्रीरज को श्रीगोपीजन सदैव अपने मस्तक पर धारण करती थीं । इतना अदभुत प्रभु प्रेम उनके भीतर था ।
044. प्रभु से कितना प्रेम श्रीगोपीजन का था कि श्रीरास के बीच से अंतर्ध्यान होने पर वे प्रभु को जब खोजती हैं तो प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न पर अपने पैर को बचाते हुए चलती हैं । श्री रामायणजी में भी श्री लक्ष्मणजी जब वनवास के दौरान चलते हैं तो प्रभु श्री रामजी और भगवती जानकी माता के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्नों को बचाते हुए चलते थे । भक्तों का भाव यह होता है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न पर गलती से भी उनका पैर नहीं लग जाए क्योंकि वहाँ तो सदैव उनका मस्तक ही लगना चाहिए ।
045. भक्तों को भक्ति में बड़ी सावधानी से आगे बढ़ना पड़ता है ।
046. दिखावे की, ढोंग की भक्ति कभी नहीं होनी चाहिए ।
047. प्रभु के लिए हमारी व्याकुलता जितनी अधिक होगी प्रभु उतना अधिक हमें अपना सानिध्य प्रदान करेंगे ।
048. पूरी श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री शुकदेवजी ने श्रीगोपीजन एवं भगवती राधा माता का नाम नहीं लिया । संत इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि प्रभु श्री शुकदेवजी श्रीगोपीजन को अपना गुरु मानते हैं इसलिए अपने गुरु का नाम नहीं लेते क्योंकि इससे पाप लगता है ।
049. प्रभु से प्रेम कैसे करना चाहिए, किनके जैसा करना चाहिए इस बाबत देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि सब कुछ छोड़ो और केवल श्रीगोपीजन का अनुसरण करो ।
050. भगवती यशोदा माता ने प्रभु से वात्सल्य भक्ति की, श्रीगोपीजन ने प्रभु के साथ माधुर्य भक्ति की और प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु के साथ दास भक्ति की । अपने-अपने प्रकार की भक्ति की यह तीनों पराकाष्ठाएं हैं ।
051. माधुर्य भाव की भक्ति में भगवती राधा माता सबसे आगे हैं । इस प्रकार की भक्ति की वे ही पराकाष्ठा हैं ।
052. भगवती राधा माता प्रभु की सबसे प्रिय होने के कारण संतों और भक्तों के लिए सबसे पूजनीय हैं ।
053. प्रभु की सच्ची आराधिका होने के कारण माता का नाम भगवती राधा माता पड़ा ।
054. प्रभु की सेवा भगवती राधा माता करती हैं और भगवती राधा माता की सेवा प्रभु करते हैं ।
055. प्रभु विपत्ति में अपने भक्तों को बचाते हैं और यहाँ तक कि विपत्ति काल में उन्‍हें अपनी गोद में उठा लेते हैं ।
056. श्रीबृजमंडल के संतों का भाग्य देखें कि वे भगवती राधा माता और प्रभु के श्रीकमलचरणों के बीच अपना जीवन उलझा कर रखते हैं । इससे बड़ा भाग्य और क्या हो सकता है । यह परम अवस्था है इसलिए जिसका जीवन इस तरह व्यतीत होता है वह सबसे धन्य होता है ।
057. संत श्री ज्ञानेश्वरजी से पूछा गया कि प्रभु प्रधान हैं या माता प्रधान हैं तो वे बोले कि पहले यह तो निश्चय कर लें कि दोनों दो हैं क्या । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जिन पर प्रभु की कृपा होती है उन्हें प्रभु के अलग-अलग रूप दो नहीं दिखते, एक ही दिखते हैं ।
058. प्रभु श्री हनुमानजी को प्रभु श्री रामजी और भगवती जानकी माता एक ही दिखे और इसलिए उन्होंने कह दिया कि मैं श्री सीतारामजी के श्रीयुगलचरणों की वंदना करता हूँ । उन्होंने श्री सीतारामजी के श्रीयुगलचरणों को सदैव एक ही श्रीकमलचरण माना ।
059. प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती राधा माता एक दूसरे के चिंतन में ही मग्न रहते हैं, ऐसा संत मानते हैं ।
060. श्रीशिव श्रीशक्ति में प्रवेश करते हैं और श्रीशक्ति श्रीशिव में प्रवेश करती हैं । इस तरह कौन अंश, कौन अंशी इसका पता ही नहीं चलता ।
061. प्रभु और माता समान होने पर भी भक्तों का मन माता की तरफ जाता है क्योंकि माता भक्तिदात्री हैं और भक्ति प्रदान करके हमें प्रभु तक पहुँचा देती हैं ।
062. जैसे किसी बच्चे को कुछ चाहिए या किसी बच्चे से कोई अपराध हो गया तो बच्चा सबसे पहले अपनी सांसारिक माता को बताता है और माता उस बच्चे के पिता से बात करके उसकी इच्छा की पूर्ति करवा देती है या उसे अपराध के लिए माफ करवा देती है, उसी प्रकार संसार के सारे संत भगवती माता के पास अपनी मनोकामना लेकर जाते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि प्रभु की प्राप्ति भगवती माता ही करवा सकती हैं ।
063. जैसे किसी आवश्यकता में, वेदना में, विपत्ति में सहायता के लिए बच्चों को सबसे पहले सांसारिक माता की याद आती है उसी प्रकार संतों और भक्तों को सबसे पहले भगवती माता की याद आती हैं ।
064. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी प्रभु श्री रामजी की भक्ति करते थे पर प्रभु की भक्ति के अधिकार के लिए वे भगवती जानकी माता की शरण लेते थे । वे भगवती जानकी माता से कहते थे कि प्रभु की करुणा को जागृत करके और अवसर देखकर तुलसीदास की अरदास प्रभु तक पहुँचा दें ।
065. प्रभु श्री रामजी ने प्रभु श्री हनुमानजी की प्रशंसा की तो यह उनकी अंतिम परीक्षा थी । यहाँ अहंकार का उदय होना स्वाभाविक था क्योंकि पूरा जगत जिन प्रभु की प्रशंसा करता है वे प्रभु अपने श्रीमुख से सबके सामने प्रभु श्री हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे हैं । ऐसे अवसर पर प्रभु श्री हनुमानजी ने क्या करना चाहिए वह करके दिखाया और प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर पड़े और प्रभु के उठाने पर भी नहीं उठे । उन्होंने कहा कि प्रभु मेरी रक्षा करें क्योंकि अहंकार से बचना जीव के बस में नहीं है, वह तो केवल प्रभु कृपा से ही संभव है । ऐसा भाव और ऐसी शरणागति ग्रहण करने के कारण प्रभु श्री हनुमानजी अहंकार से बच पाए और अहंकाररूपी अंतिम परीक्षा में पूर्णरूप से उत्तीर्ण हो गए ।
066. प्रभु अपने भक्तों की भक्ति प्रबल करने के लिए उन्हें कुछ समय का वियोग भी देते हैं ।
067. भगवती राधा माता प्रभु की प्रियतमा यानी प्रियों में भी प्रिय हैं ।
068. श्रीमद् भागवतजी महापुराण का हृदय दशम स्कंध है । दशम स्कंध के भी प्राण रासपंचाध्यायी हैं और रासपंचाध्यायी के भी प्राण श्रीगोपीजन द्वारा गाया गया विरह गीत है जिसको हम गोपीगीत कहते हैं । यह विश्व का सबसे मंगल गीत है क्योंकि गोपीगीत को संतों ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्रेष्ठतम माना है ।
069. यह शाश्वत सिद्धांत है कि हमारे जीवन में अहंकार का उदय होते ही प्रभु हमारे जीवन से अंतर्ध्यान हो जाते हैं ।
070. परमात्मा रूपी सागर में लीन होने का नाम ही समाधि है ।
071. प्रभु के ध्यान में लगने वाली समाधि में परम आनंद की अनुभूति होती है ।
072. जब हम अपने जीवन में भौतिक सुखों का त्याग करेंगे तो हमें आंतरिक परमानंद प्राप्त होगा ।
073. जब तक हमारे अंदर "मैं" यानी अहंकार बचता है तब तक हमें प्रभु की पूर्ण अनुभूति नहीं हो सकती ।
074. श्रीगोपीजन को प्रभु ने वियोग भी दिया तो वह भी वापस संयोग होने के लिए दिया । प्रभु कृपा से ही जीव को प्रभु का वियोग होता है जिससे कि जीव में प्रभु को पाने की व्याकुलता और अनुसंधान बढ़े और फिर प्रभु का संयोग हो सके ।
075. जीव को प्रभु से दूर करने के लिए माया होती है । माया का काम यही है कि वह जीव को प्रभु से दूर कर देती है ।
076. प्रभु के अनुसंधान में तन्मयता से लग जाने पर हम "मैं" यानी स्वयं के अस्तित्व को ही हम भूल जाते हैं ।
077. शरीर से कितनी भी पूजा करें, साधन करें, पुण्य कमाएं तो हमें उसके बदले कुछ समय के लिए स्‍वर्ग मिलेगा फिर अच्छा जन्म मिलेगा पर पुनरपि जन्म और पुनरपि मरण के चक्कर से हम बाहर नहीं निकल पाएंगे । प्रभु की प्रेमाभक्ति करके जब जीवन में प्रभु का आत्मसाक्षात्कार होगा तो ही हम सदैव के लिए जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो पाएंगे ।
078. हमारा मन प्रभुमय हो जाना चाहिए, हमारा अंतःकरण प्रभुमय हो जाना चाहिए, हमारे जीवन की हर हलचल प्रभु के लिए होनी चाहिए । श्रीगोपीजन की ऐसी ही अवस्था प्रभु के लिए हो गई थी ।
079. प्रभु के लिए पूर्ण तन्मयता होने पर स्वयं का भान नहीं रहता और स्वयं का विस्मरण हो जाता है । यही वह अवस्था है जहाँ पर संत और भक्‍त पहुँचा करते हैं ।
080. तीव्र भक्ति के बिना, किया हुआ कोई भी अन्य साधन कभी भी हमें प्रभु की प्राप्ति नहीं करवा सकता ।
081. श्री गोपीगीत विश्व का अमर गीत है । वह सर्वोच्च है और गीतों की श्रीगंगोत्री है ।
082. संसार में किसी से इतना प्रेम नहीं करना चाहिए जितना प्रभु से करना चाहिए ।
083. श्रीबैकुंठ को भी वह श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है जितनी श्रीबृजमंडल को है क्योंकि वह प्रभु की साक्षात श्रीलीला स्थली है ।
084. जहाँ प्रभु आते हैं वहाँ भगवती लक्ष्मी माता अपने सभी साधन प्रभु को उपलब्ध कराने के लिए पहले आती हैं । भगवती लक्ष्मी माता श्रीबृजमंडल में रात-दिन घूमा करती थीं और वे सभी साधन उपलब्ध कराती थीं जिसकी जरूरत प्रभु भक्ति और सेवा में बृजवासियों को होती थी ।
085. प्रभु से वियोग में भक्त इसलिए प्राण धारण करके रखते हैं क्योंकि उनको प्रभु से फिर संयोग की आशा रहती है ।
086. भक्त केवल प्रभु के लिए ही अपने प्राणों को धारण करके रखते हैं ।
087. संत और भक्‍त केवल भगवत्-साक्षात्कार के लिए ही अंत तक अपने प्राणों को धारण करके रखते हैं ।
088. संतों और भक्तों के जीवन की हर क्रिया भगवत् प्राप्ति के उद्देश्य से ही होती है ।
089. शास्त्रों में प्रभु ने कहा है कि प्रभु भी भगवत्-साक्षात्कार के माध्यम से अपने भक्तों का दर्शन लेने आते हैं । यह कहकर भक्‍तों को इतना बड़ा मान प्रभु ने दिया है ।
090. श्रीबृज का गौरव इसलिए है कि वहाँ प्रभु विराजते हैं । हमें भी अपने हृदय को श्रीबृज बनाना चाहिए कि उसमें प्रभु विराजें तभी हमारे हृदय का गौरव है ।
091. जीव का जीवन में एकमात्र लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति और प्रभु के प्रेम की प्राप्ति होनी चाहिए ।
092. प्रभु के दिव्यतम, सुंदर और अलौकिक रूप में सर्वाधिक प्रभावित करने वाले प्रभु के श्रीनेत्र हैं ।
093. प्रभु जीव से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं । प्रेम करने में प्रभु से कुशल कोई भी नहीं है ।
094. हमारा जीवन प्रभु अपनी शक्ति देकर चलाते हैं । हर जीव पर प्रभु की यह असीम कृपा होती है । हमारे भीतर चलने वाली सभी क्रियाएं प्रभु की शक्ति से ही चलती हैं ।
095. प्रभु की कृपाशक्ति से हमारे नेत्र देखते हैं, हमारी वाणी बोलती है और हमारा हृदय चलता है ।
096. हमारे प्राण, हृदय, मस्तिष्क के संचालन में प्रभु की कृपाशक्ति ही काम करती है पर यह तथ्य सच्चे भक्त ही पहचान पाते हैं । श्री ध्रुवजी ने अपनी प्रभु स्तुति के समय यह पहचाना और श्रीगोपीजन ने श्रीगोपीगीत गाते समय यह पहचाना ।
097. संकट में फंसने पर भक्तों को प्रभु ही सदैव संकट से बाहर निकालते हैं । यह प्रभु का प्रण है कि वे हर परिस्थिति में अपने भक्तों की रक्षा करेंगे ।
098. श्रीगोपीजन याद करती हैं कि प्रभु ने कहाँ-कहाँ उन्हें बचाया, कहाँ-कहाँ उनकी रक्षा की । क्या हम भी अपने जीवन में प्रभु के कृपा प्रसंगों को नित्य याद करते हैं ।
099. हमें देखना चाहिए कि क्या हम जीवन में कभी भी प्रभु की कृपा को गिनकर याद करते हैं । प्रभु ने कितने ही अवसरों पर हमें लौकिक संकटों से, विकाररूपी संकटों से बचाया और बाहर निकाला पर हम यह सब भूल जाते हैं ।
100. हमें जीवन में श्रीगोपीभाव लाना चाहिए और जीवन में प्रभु की कृपा को सदैव याद करते रहना चाहिए ।
101. श्रीमद् भागवतजी महापुराण मृत्यु के भय को समाप्त करने वाला सबसे बड़ा श्रीग्रंथ है । प्रभु श्री शुकदेवजी ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण राजा श्री परीक्षितजी को कराया और उनका मृत्यु का भय समाप्त हो गया ।
102. जीवन से विकारों के नाश का प्रयास जीव को करना पड़ता है पर कोई भी विकार प्रभु कृपा बिना नष्ट नहीं होता - यह शाश्वत सिद्धांत है । विकारों को नष्ट करने के लिए एक ओर जीव का परिश्रम होना चाहिए तो दूसरी तरफ प्रभु की कृपा हो तभी जीवन से विकार का नष्ट होना संभव है ।
103. जीवन में मोह के प्रसंग, अज्ञान के प्रसंग, भय के प्रसंग, विपत्ति के प्रसंग कितने ही आएं पर उन सभी संकटों से प्रभु ने हमें बाहर निकाला । प्रभु की हर कृपा को जीवन में सदैव याद करते रहना चाहिए - यही श्रीगोपीभाव है ।
104. हर जीव के अंतःकरण में परमात्मा तत्व विराजमान रहता है ।
105. प्रभु भक्तों को परमानंद देने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं । ऐसी संतों की प्रभु अवतार की व्याख्या है ।
106. संसार उपलब्ध होने पर भी और भोग उपलब्ध होने पर भी भक्‍त उन्हें छोड़कर फिर भी प्रभु की तरफ चले जाते हैं क्‍योंकि प्रभु का आकर्षण इतना बड़ा होता है ।
107. जवान रहते हुए भी जिसको अपना बुढ़ापा दिख जाए, जिसको अपने नेत्रों की ज्योति जाती हुई दिख जाए, जिसको अपने टूटे हुए दाँत दिख जाए, जिसको जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि के दुःख के दर्शन युवावस्था में ही हो जाएं और वह संभल कर प्रभु मार्ग में चलने लगे तो ही उस जीव को भाग्यवान मानना चाहिए और ऐसा मानना चाहिए कि उस जीव पर प्रभु की कृपा हो गई ।
108. जो प्रभु का हाथ जीवन में पकड़ लेता है वह जीवन सागर से निश्‍चित तौर पर तर जाता है ।
109. संसार का भय निर्माण होना जीव के लिए उपकारी होता है क्योंकि सर्वत्र भय ही भय देखकर वह प्रभु की शरण में चला जाता है । यह शाश्वत सिद्धांत है कि जीव को अभय प्रदान करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं ।
110. निर्भय होना है, अभय होना है तो प्रभु की शरण में जाना ही पड़ेगा, अन्य कोई भी विकल्‍प नहीं है ।
111. प्रभु के श्रीकरकमल कामना चाहने वालों की कामना पूर्ति करने वाले हैं ।
112. प्रभु के श्रीकरकमल भक्तों की कामना का विसर्जन करने वाले और उनकी कामनाओं को नष्ट करने वाले हैं ।
113. यह शाश्वत सिद्धांत है कि जिस पर प्रभु के श्रीकरकमल की छाया पड़ जाती है उसका निश्चित कल्याण हो जाता है ।
114. प्रभु जिसको देखकर कृपा से मुस्कुरा देते हैं तो प्रभु मिलन में सबसे बड़ा बाधक उस जीव का अहंकार उसी समय नष्ट हो जाता है ।
115. भक्त प्रभु आज्ञा के बिना अन्य कुछ भी नहीं करना चाहते ।
116. भक्त प्रभु के अशुल्क दास होते हैं यानी बिन मोल के दास होते हैं ।
117. जितना-जितना हम प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान करेंगे, उनका दर्शन करेंगे और उन श्रीकमलचरणों में अपना मस्तक रखेंगे उतना-उतना हमारे पापों का नाश निश्चित होगा ।
118. वैभव और ऐश्वर्य चाहने वालों के लिए भी प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा असीम है । प्रभु के श्रीकमलचरणों की भगवती लक्ष्मी माता नित्य सेवा करती है इसलिए जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपना मस्तक रख देते हैं उन पर भगवती लक्ष्मी माता की कृपा हो जाती है ।
119. प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा इस बात से भी पता चलती है कि प्रभु श्री यमराजजी ने श्री अजामिलजी के प्रसंग में श्रीमद् भागवतजी महापुराण में अपने यमदूतों से कहा कि उन लोगों को पकड़कर नर्क में जरूर लाना जो दिन में एक बार भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम नहीं करते ।
120. केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिंतन से ही पापों का क्षय होता है जिससे नर्क के भय से मुक्ति मिलती है । यह बात स्वयं प्रभु श्री यमराजजी ने अपने यमदूतों से कही ।
121. प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्मरण करना चाहिए और भक्ति का आरंभ यहीं से ही करना चाहिए ।
122. प्रभु का ध्यान करते-करते प्रभु के श्रीकमलचरणों से प्रभु के एक-एक श्रीअंगों का ध्यान करते-करते प्रभु के मुखारविंद तक पहुँच जाना चाहिए ।
123. प्रभु के श्रीकमलचरण भक्तों के लिए मुख्य आलंबन होते हैं और भक्तों के लिए सबसे उपयोगी आश्रय होते हैं ।
124. भगवती गंगा माता में पाप नाश की शक्ति क्यों है क्योंकि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकलीं हैं । इससे स्पष्ट है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा असीम है क्योंकि इनमें पाप नष्ट करने की असीम शक्ति है ।
125. श्री भागीरथजी को बस एक बार प्रभु श्री महादेवजी से प्रार्थना करनी पड़ी और प्रभु श्री महादेवजी मानो तैयार खड़े थे कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के अमृत जल को अपने मस्तक पर धारण करने के लिए । प्रभु श्री महादेवजी ने माना कि मैं कितना शुद्ध हो गया प्रभु के श्रीकमलचरणों के अमृत जल को धारण करके । यह प्रभु श्री महादेवजी कह रहे हैं जो देवों के देव श्रीमहादेव हैं और शुद्धता की परिसीमा हैं ।
126. प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन और उनका चिंतन हमारे जीवन के सभी विकारों को नष्ट कर देता है ।
127. प्रभु की वाणी का वैभव भी अदभुत है । सारे संसार में श्रीमद् भगवद् गीताजी के उपदेश जैसा सटीक और कल्याणकारी उपदेश अन्य कोई भी नहीं है । ऐसे ही श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु द्वारा श्री उद्धवजी को ग्यारहवें स्कंध में दिया उपदेश भी परम अलौकिक है ।
128. प्रभु अपने भक्तों से इतना प्रेम करते हैं कि श्री अर्जुनजी को प्रभु कहते हैं कि मैं शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं तुमसे इतना प्रेम करता हूँ जिसका मैं बखान भी नहीं कर सकता ।
129. अपना जीवन प्रभु आज्ञा हेतु अर्पित कर देना चाहिए । जीवन में दिन-रात प्रभु की ही आज्ञा का पालन करते रहना चाहिए ।
130. श्रीगोपीजन प्रभु से कहती हैं कि अहंकार के दलदल से प्रभु अब आप ही हमें बाहर निकालें । जीव को अहंकार से केवल प्रभु ही बचा सकते हैं ।
131. संसार की भौतिकता से हमें सदैव दूर रहना चाहिए क्योंकि यह भौतिकता हमारा निश्चित ही नाश करती है ।
132. भक्ति अमृत तुल्य साधन है ।
133. प्रभु जब तक जीवन में नहीं मिलते हैं तब तक प्रभु के कथामृत का निरंतर पान करते रहना चाहिए ।
134. प्रभु की कथा जीव का सबसे बड़ा उपकार करती है क्योंकि वह जीव के हृदय में प्रभु के लिए प्रेम का निर्माण कर देती है ।
135. प्रभु की भक्ति जीव के हृदय को जितनी शांति प्रदान करती है उतना अन्य कोई भी साधन नहीं कर सकता ।
136. प्रभु की कथा हमारे जीवन में प्रभु की सेवा को भी गहराई प्रदान करती है क्योंकि प्रभु हमें अपने लगने लग जाते हैं ।
137. भोले भाले लोगों को तारने के लिए प्रभु कथा सर्वश्रेष्ठ साधन है । अत्यंत श्रेष्ठ ऋषि, संत, महात्मा और विद्वान भी अंत में प्रभु कथा में ही रमते हैं ।
138. प्रभु की कथा को अमृत तुल्य माना गया है क्योंकि प्रभु की कथा एक ऐसा अमृत है जो हमारे भीतर भक्ति को जागृत कर उसे अमर कर देता है और संसार को हमारे भीतर से मार देता है ।
139. जो प्रभु कथा से दूर रहते हैं उनके लिए शास्त्रों में कहने के लिए एक ही शब्द है कि वे अभागे हैं ।
140. प्रभु की कथा हमारे सारे पापों को धोने का काम करती है ।
141. प्रभु की कथा हमें बाहर का और भीतर का दोनों का वैभव प्रदान करती है ।
142. जो प्रभु के बारे में लोगों को बताता है और भगवत् प्रेम का दान करता है उसे शास्त्रों में श्रेष्ठ माना गया है ।
143. भगवत् प्रेम का दान करना श्रेष्ठ है । यह दान विश्व का सबसे बड़ा दान है, यह सिद्धांत श्रीगोपीजन ने अपने गीत में प्रकट किया ।
144. अन्नदान, जलदान, शिक्षादान अच्छा है पर सबसे श्रेष्ठ दान भगवत् प्रेम का दान है । इसलिए सभी संत प्रभु की बातें लोगों तक पहुँचाते हैं क्योंकि इससे जीव का एक जन्म का नहीं बल्कि जन्मों-जन्मों का समाधान हो जाता है ।
145. किसी के हृदय में प्रभु प्रेम जागृत करना सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि जीव विभिन्न योनियों में इसलिए भटकता है क्योंकि वह प्रभु से प्रेम नहीं करता और प्रभु का बनकर नहीं रहता है ।
146. सभी भक्तों और संतों ने अपने जीवन में प्रभु प्रेम का ही दान किया है ।
147. प्रभु भक्ति का दान सबसे बड़ा दान और दानों में शिरोमणि दान कहलाता है । अन्नदान और जलदान से आप किसी की एक समय की भूख और प्यास मिटा सकते हैं । शिक्षादान से उसे अपना पोषण करने योग्य बनाकर किसी का एक जन्म‍ सुधार सकते हैं । पर भक्तिदान से हम जीव को चौरासी लाख जन्‍मों के बंधन से सदैव के लिए छुड़ा सकते हैं ।
148. जिसकी आँखों से कभी भी आंसू नहीं निकले, प्रभु की भक्ति उसके नेत्रों से भी प्रभु के लिए प्रेमजल बहा देती है ।
149. किसी भी जीव का हमने प्रभु के साथ संबंध करा दिया तो शास्त्रों में यह श्रेष्ठतम कार्य माना गया है ।
150. श्रीगोपीजन कहती हैं कि प्रभु भक्ति के दान से बड़ा कोई दान नहीं हो सकता और ऐसे दानी से बड़ा कोई दानी संसार में नहीं हो सकता ।
151. जो किसी के हृदय में प्रभु प्रेम जागृत करके उसे प्रभु मार्ग पर ले आता है वह उस जीव का स्थाई कल्याण करता है । इसलिए उससे बड़ा कोई दानी नहीं ।
152. प्रभु की प्राप्ति में विकाररूपी अहंकार का भाव सबसे बड़ा बाधक है ।
153. मन को सदैव चैतन्यमय प्रभु के आलंबन की जरूरत पड़ती है ।
154. मन है तो संसार है और अगर हम मन को ही प्रभु में विलीन कर देते हैं तो मन संसार को छोड़ देता है ।
155. मन को संसार से निकालकर तीव्रता से प्रभु में लगाना ही भक्ति है ।
156. श्रीगोपीजन अपने संसार को, अपने घर को और यहाँ तक कि अपने शरीर को भी भूल गईं क्योंकि उनका मन प्रभु में रम गया ।
157. जितना हमारा मन संसार में लीन होगा उतना ही वह जड़ बनेगा । जितना हमारा मन प्रभु में लीन होगा उतना वह चेतन बनेगा ।
158. जितनी-जितनी प्रभु के लिए व्याकुलता मन में होगी उतना-उतना संसार छूटता जाएगा । इसे करना नहीं पड़ेगा यह अपने आप ही होगा ।
159. प्रभु के लिए मन में व्याकुलता को निर्माण करने के लिए प्रभु कथा एक मुख्य साधन है ।
160. प्रभु कथा प्रभु की मंगलमय भक्ति को हमारे हृदय में जागृत करती है ।
161. श्री ध्रुवजी ने अपनी स्‍तुति में प्रभु से कहा कि सारे संसार में भक्ति का दान करने वाले महात्मा श्रेष्ठ होते हैं और ऐसे महात्माओं की सेवा करने का मौका प्रभु उन्हें प्रदान करें ।
162. किसी के जीवन में भक्ति का प्रवाह बहाना सबसे बड़ा दान माना गया है ।
163. जो किसी के जीवन में भक्ति का प्रवाह बहाता है उसे अपने स्वयं के उद्धार की चिंता नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसका उद्धार तो स्वतः ही हो जाता है ।
164. सभी भक्तों के शब्द भिन्न हो सकते हैं पर उनका प्रभु के लिए भाव समान मिलेगा क्योंकि सभी को प्रभु की अनुभूति में समान भाव का अनुभव हुआ होता है ।
165. जीवन में बस भक्ति की मस्ती चढ़ती रहे तो यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
166. जब तक प्रभु से योग नहीं होता और प्रभु से वियोग है तब तक जीवन जीने के लिए श्रेष्ठ आधार प्रभु की कथा है ।
167. प्रभु की कथा में आने से लौकिक स्वास्थ्य भी ठीक होता है और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी ठीक होता है ।
168. जनमानस की शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि सभी प्रभु कथा से ठीक होते हैं, ऐसा अनुभव सभी संतों का है ।
169. जीवन में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सुधार से लेकर जीवन मुक्ति तक हमें प्रभु कथा ले जाती है ।
170. संत, महात्मा और भक्त अपने मन की मौज के लिए प्रभु कथा का निरंतर श्रवण करते रहते हैं ।
171. संतों द्वारा प्रभु की भक्ति का प्रचार सर्व हितार्थ होता है ।
172. जो संत प्रभु की तीव्र भक्ति में रमे हुए होते हैं वे जो भी बोलते हैं सो ही हरिकथा हो जाती है । फिर उन्हें व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि उनका पूरा जीवन ही भगवत् चर्चा और भगवत् संवाद से भरा हुआ हो जाता है । वे प्रभु के अलावा कोई चर्चा या कोई बात जीवन में करते ही नहीं ।
173. सच्चे संत के जीवन में प्रभु का चिंतन और प्रभु का स्मरण निरंतर चलता ही रहता है ।
174. प्रभु के लिए श्रद्धायुक्त भाव जिस भी भाषा में हम तक पहुँचे उसे ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भाव ही सच्चा फल है और भाषा तो मात्र एक थाल है उस भाव को परोसने के लिए । जिस भी थाल में फल आया वह थाल महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उसमें जो फल आया है वह फल महत्वपूर्ण होता है ।
175. प्रभु कथा हमारे जीवन को शोभायमान बनाने वाली होती है ।
176. भक्तों का सच्चा वैभव उनका वैराग्य होता है ।
177. संतों का सबसे बड़ा धन उनकी प्रभु में तन्मयता होती है । इसी को संत अपना सबसे बड़ा धन मानते हैं ।
178. बाहर के श्री यानी सांसारिक धन से बहुत बड़ा अंतरात्मा का श्री यानी प्रभु के लिए तन्मयता होती है ।
179. जिस पर प्रभु की कृपा होती है उस जीव में ही प्रभु के लिए तन्मयता का भाव जागृत हो सकता है । ऐसा किसी भी धर्म या किसी संप्रदाय के लोगों के साथ हो सकता है ।
180. सत्संग का मतलब है प्रभु की चर्चा, प्रभु की वार्ता । कुछ भी प्रभु के लिए कहा या सुना जाए यही सत्संग का सच्चा अर्थ है । प्रभु की चर्चा, प्रभु की वार्ता के अलावा जो कुछ भी होता है वह सत्‍संग नहीं है ।
181. प्रभु में विश्वास बिलकुल उस बच्चे की तरह करना चाहिए जिसको आप हवा में उछाल दें तो भी वह हँसता है और डरता नहीं क्योंकि वह जानता है कि आप उसे थाम लेंगे और नीचे गिरने नहीं देंगे ।
182. भक्ति में बहुत बड़ी शक्ति होती है कि भक्ति स्वतंत्र प्रभु को भी भक्‍त के परतंत्र बना देती है ।
183. भक्ति की शक्ति इतनी अदभुत है कि प्रभु को भी अपने भक्तों के वश में कर देती है ।
184. प्रभु जब किसी पर अति कृपा करते हैं तब वे उसे अंत में नष्ट होने वाली धन-संपत्ति नहीं बल्कि अपनी भक्ति ही देते हैं ।
185. प्रभु मुक्ति तो शीघ्र दे भी देते हैं लेकिन भक्ति सहज रूप में कभी नहीं देते ।
186. प्रभु जानते हैं कि यदि किसी जीव को वे भक्ति दे देते हैं तो उन्हें उस भक्त का सेवक तक भी बनना पड़ सकता है । ऐसे कितने ही दृष्टांत हैं जबकि प्रभु ने अपने भक्तों का सेवक बनकर उनकी सेवा की है ।
187. भक्ति स्वतंत्र प्रभु को भी प्रेम के बंधन में बांध देती है ।
188. भक्ति से बड़ी उपलब्धि मानव जीवन में कुछ हो ही नहीं सकती ।
189. भक्ति केवल मानव जीवन में ही संभव है इसलिए चौरासी लाख योनियों के बाद जब हमें मानव जीवन मिलता है तो उसका सदुपयोग केवल प्रभु की भक्ति करके ही करना चाहिए ।
190. सभी संतों, महात्माओं और भक्तों में जिन्होंने भी प्रभु को पाया है उन्होंने भक्ति करके ही प्रभु को पाया है ।
191. प्रभु के प्रेम में डूबे संत जहाँ भी लोगों से प्रभु वार्ता करने के लिए बैठ जाते हैं वहीं अदृश्य व्यासपीठ स्वतः ही बन जाती है ।
192. धन्य है वे जिनका मन प्रभु कथा में रम जाता है क्योंकि प्रभु के अनुसंधान हेतु इससे बड़ा अवलंबन और कोई नहीं हो सकता ।
193. हमारा संबंध प्रभु के साथ सबसे घनिष्‍ठ और सबसे उत्तम होना चाहिए ।
194. संत किसी भी अनुकूल प्रसंग का सारा श्रेय प्रभु के अनुग्रह और प्रभु की कृपा को ही देते हैं ।
195. प्रभु जब वन में गोचारण करने जाते थे तो उस समय श्रीगोपीजन का पूरा ध्यान प्रभु के अति कोमल श्रीकमलचरणों में ही लगा रहता था । वे निरंतर चिंतन करती रहती थीं कि कंकड़, पत्थर, घास-फूस प्रभु के श्री कमलचरणों को वेदना दे रहे होंगे ।
196. प्रभु की कोमलता का चिंतन करना अगर हमें आ गया तो एक दिन जीवन में प्रभु की अनुभूति जरूर होगी । इसके विपरीत जो प्रभु की कोमलता का चिंतन नहीं कर पाता उसे प्रभु की अनुभूति से वंचित रहना पड़ता है ।
197. संसार के विषयों के बारे में कठोर बनना चाहिए और प्रभु के चिंतन में हमें कोमल बनना चाहिए । संत अपने मन को संसार के लिए कठोर और प्रभु के लिए कोमल रखते हैं । संसार के लिए मन को कठोर रखने से सांसारिक विषय का मन पर कोई परिणाम नहीं होगा ।
198. जिसकी मानस पूजा सिद्ध हो गई उसके द्वारा मन से ही सब क्रिया और पूजा हो जाती है । यह एक बहुत ऊँ‍‍ची स्थिति है जहाँ फिर हाथ से प्रभु की सेवा करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
199. एक संत की आँखों की ज्योति नहीं थी और उनका सेवक प्रभु का अभिषेक कर रहा था । पंचामृत से प्रभु के अभिषेक करने के वक्त वह प्रभु के विग्रह को हाथों से रगड़ रहा था और उसकी अंगुली में एक अंगूठी थी । संत तुरंत चिल्लाए कि प्रभु को चोट लग रही है । आँखों से देख नहीं सकते थे पर प्रभु कोमल हैं और उनका मन भी कोमल था इसलिए उनको प्रभु की अनुभूति होती रहती थी ।
200. हमारा हृदय अगर कठोर है तो हमें प्रभु विग्रह में प्रभु पत्थर के रूप में कठोर ही दिखेंगे । अगर हमारा हृदय कोमल है तभी हमें प्रभु विग्रह में प्रभु चेतन रूप में कोमल दिखेंगे ।
201. अंतःकरण की कोमलता हेतु प्रभु की भक्ति ही एकमात्र साधन है ।
202. अंतःकरण में प्रभु का विचार आते ही हमारा हृदय पिघल जाता है ।
203. चित्त प्रभु प्रेम में पिघल जाए तो ऐसे कोमल चित्त से ही भक्ति संभव है ।
204. संत प्रभु की याद में रोते हैं । संसारी अपने बेटों, पौत्रों की याद में रोते हैं । रोते दोनों हैं पर दोनों के रोने में कितना बड़ा फर्क है ।
205. जैसे पुत्र कष्ट पाता है तो माँ का हृदय रोता है वैसे ही गोचारण के वक्त वन में प्रभु के श्रीकमलचरण कष्ट पाते हैं तो श्रीगोपीजन रोती थीं ।
206. प्रभु हमें जीवन में सर्वाधिक प्रिय लगने चाहिए । उनसे प्रिय जीवन में और कोई भी नहीं होना चाहिए ।
207. सभी श्रीगोपीजन के मन के अलग-अलग भावों का संकलन करके श्री गोपीगीत में प्रभु श्री वेदव्यासजी ने प्रस्तुत किया है ।
208. सर्वाधिक कल्याणकारी कुछ भी जीव के लिए संसार में है तो वह प्रभु के श्रीकमलचरण । प्रभु के श्रीकमलचरण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सब कुछ देने वाले हैं । इस तथ्य को श्रीगोपीजन कहती हैं और इसी तथ्य को देवर्षि प्रभु श्री नारदजी भी श्री ध्रुवजी को उपदेश में कहते हैं ।
209. किसी भी कामना से प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान करें तो वह कामना पूरी होकर ही रहेगी ।
210. सकाम कामनाओं की पूर्ति के लिए एवं निष्काम भक्ति के लिए प्रभु के श्रीकमलचरण ही श्रेष्ठतम आश्रय हैं ।
211. प्रभु के पास जो सकाम कामना लेकर मांगने भी जाता है तो भी प्रभु खुश होते हैं क्योंकि प्रभु सोचते हैं कि वह किसी भी निमित्त से मेरे पास आया तो सही ।
212. प्रभु के श्रीकमलचरण मंगल की निधि हैं । उनकी शरण में जाने पर केवल हमारा मंगल-ही-मंगल होता है ।
213. संत कहते हैं कि जीवन में बस प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकना सीखना चाहिए । प्रभु के श्रीकमलचरणों में रोज प्रेम से झुकते रहने से हमारा उत्थान होता चला जाता है ।
214. सारी संपत्ति, सारी दौलत, सारे वैभव की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी माता भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव झुकी रहती हैं । माता इस तरह प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा बताती हैं ।
215. आपत्ति के मुँह से बाहर निकलने के लिए जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही अवलंबन लेना चाहिए ।
216. संत कहते हैं कि जीवन में जब भी कोई आपत्ति आए तो बस एक काम करना चाहिए, वह यह कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुक जाना चाहिए ।
217. प्रभु की कृपा इस संसार का अलंकार है । अगर प्रभु की कृपा न हो तो संसार का क्या होगा इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
218. हम अनमोल हैं तब तक जब तक प्रभु हमारे भीतर बैठे हैं । प्रभु हमारे जीवन के अलंकार हैं । जब प्रभु हमारे भीतर से चले जाते हैं तो शरीर का कोई भी मूल्य नहीं रहता ।
219. प्रभु के कारण ही हमारा अस्तित्व है । हमारे अस्तित्व के मूल में प्रभु ही हैं ।
220. हमारे जीवन का सारा मूल्य भीतर बैठे प्राणाधीश प्रभु के कारण है । सारा मूल्य भीतर बैठे चेतन तत्व यानी प्रभु के कारण ही है ।
221. संत कहते हैं कि जिनके कारण हमारा मूल्‍य है उन प्रभु का जीवन में हमें निरंतर चिंतन करते रहना चाहिए ।
222. हमारा शरीर, स्त्री, पुत्र, संपत्ति भी अगर हमें सुख देते हैं तो वह भी प्रभु के कारण ही देते हैं इसलिए जीवन में प्रभु को कभी नहीं भूलना चाहिए ।
223. प्रभु के कारण ही हमारा अस्तित्व है । प्रभु के कारण ही हमारा सब कुछ चलता है ।
224. श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी पढ़ने से हमें आत्मज्ञान मिलता है जिससे हम प्रभु को पहचान सकते हैं ।
225. भक्तों को सदैव जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही भरोसा और विश्वास रहा है ।
226. भक्तों के लिए प्रभु के श्रीकमलचरण ही सबसे महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि भवसागर को पार करने के लिए भी एकमात्र उनका आश्रय ही पर्याप्त होता है ।
227. प्रभु के श्रीकमलचरण प्रगाढ़ शांति प्रदान करने वाले होते हैं और हमारा परम कल्याण करने वाले होते हैं ।
228. प्रभु के श्रीकमलचरण व्याधि यानी शरीर का रोग और आधि यानी मन का रोग दोनों का नाश करने वाले होते हैं ।
229. जिस किसी उपासना या कर्मकांड के साथ जब तक भक्ति नहीं जुड़ती तब तक उससे हमारा पूर्ण कल्याण नहीं होता । सूत्र यह है कि पूर्ण कल्याण के लिए भक्ति का होना परम आवश्यक और जरूरी है ।
230. मन की समस्या यानी आधि का समाधान किसी भी उपासना या कर्मकांड से संभव नहीं है । यह सिर्फ भक्ति से ही संभव है ।
231. प्रभु के लिए श्रीगोपीजन व्याकुलता के शिखर की अवस्था में पहुँच गईं थीं ।
232. समस्त जीवों की एक बीमारी है कि उनका मन कहीं-न-कहीं ग्रस्त हो चुका है । मन को वहाँ से बाहर निकाल कर प्रभु में लगाने के लिए ही सभी श्रीग्रंथ हमें उपदेश देते हैं और इसके लिए भक्ति ही एकमात्र साधन है ।
233. जीव का सबसे बड़ा शत्रु मोह है और इस मोह को खत्म करने का साधन भक्ति है । संसार में जिससे हम मोह करते हैं जब हमें उससे भी ज्यादा प्रिय प्रभु लगने लगते हैं तो संसार का मोह अपने आप ही नष्ट हो जाता है ।
234. हमारे कर्म और हमारी उपासना दोनों ही प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित होनी चाहिए ।
235. संसार के सभी रसों को हम भूल जाएंगे जब हमें अंतरात्मा में भक्ति रस का पान होगा ।
236. जीव आधि, व्याधि और शोक से ग्रस्त रहता है पर भक्ति द्वारा अंतरात्मा का रसपान होते ही ये सभी नष्ट हो जाते हैं ।
237. हमारी अंतरात्मा की आवाज प्रभु की आवाज होती है पर क्या हमें यह आवाज सुनाई देती है ?
238. अंतरात्मा की आवाज संतों को सुनाई देती है । स्वामी श्री विवेकानंदजी ने शिकागो में जो भाषण दिया उसका स्पष्ट शब्द उन्हें पिछली रात सुनाई दिया था ।
239. उत्तम भक्त अपने मन का लय प्रभु में कर लेता है और अपने मन को प्रभु में लीन कर लेता है ।
240. श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम इतना श्रेष्ठ था कि उन्हें प्रभु की बांसुरी के अलावा कुछ भी कभी सुनाई नहीं देता था ।
241. प्रभु में मन लग गया तो वैराग्य लाना नहीं पड़ता फिर वैराग्य स्वयं चलकर आता है क्योंकि भीतर इतना परमानंद जग जाता है कि संसार की तरफ जाने का मन ही नहीं करता ।
242. मन का स्वभाव है कि मन को जहाँ रस आता है वह दीर्घकाल का समय भी बीत जाने पर वहीं लगा रहता है । मन को सबसे ज्यादा रस प्रभु के सानिध्य में ही आएगा इसलिए मन को प्रभु में लगाने की आदत डालनी चाहिए ।
243. श्रीगोपीजन में प्रभु के अंतर्ध्यान होने के बाद इतना तीव्र विरह जग गया कि थोड़ा-सा समय भी उनको एक युग के समान लगने लगा ।
244. आँखों की पलकों के झपकने पर भी प्रभु का क्षणमात्र के लिए अदर्शन होता, इतना वियोग भी श्रीगोपीजन सह नहीं पातीं और पलकें बनाने वाले प्रभु को ही कोसतीं कि उन्होंने पलकें क्यों बनाई है ।
245. हमारे भक्ति के साधन में बहुत तीव्रता होनी चाहिए तभी प्रभु से मिलना संभव हो पाएगा ।
246. प्रभु के दर्शन का लाभ भी उसे ही होता है जो तीव्रता से दर्शन करता है । उदाहरण के तौर पर दो भक्तों ने प्रभु विग्रह का दो मिनट के लिए दर्शन किया पर एक में दर्शन की साधारण तीव्रता थी और दूसरे में असाधारण तीव्रता थी । उन दोनों को दो मिनट के दर्शन का फल अलग-अलग मिलेगा । एक को 10 प्रतिशत फल मिलेगा जिसकी साधारण तीव्रता थी तो दूसरे को 100 प्रतिशत फल मिलेगा जिसमें असाधारण तीव्रता थी । तीव्रता का इतना बड़ा लाभ होता है ।
247. भक्तों को परिवार, परंपरा से विमुख होकर बहुत कुछ सहना पड़ता है । भगवती मीराबाई को यहाँ तक कि कुलनाशिनी कहा गया और उन्हें खत्म करने के कितने प्रयास किए गए पर भक्ति की जो ऊँचाई भगवती मीराबाई ने पाई वह असाधारण थी जिसके कारण वे प्रभु में समा गईं ।
248. श्री प्रह्लादजी को इतनी पीड़ा सहनी पड़ी क्योंकि उन्होंने बस एक काम नहीं किया जो उनके पिताजी चाहते थे, वह यह कि वे प्रभु की भक्ति करना नहीं भूले । प्रभु की भक्ति नहीं भूलने पर उन्हें प्रभु मिले और आज तक असुर कुल के भक्त शिरोमणि के रूप में श्री प्रह्लादजी जाने और माने जाते हैं परंतु उनके पिता हिरण्‍यकशिपु का कोई नाम भी नहीं लेना चाहता ।
249. भक्ति शूरवीरों का मार्ग है जिसमें बहुत सहना पड़ता है । भक्तों की दिन-रात आलोचना भी होती है और उन्हें पत्थर मारने वाले लोग भी सामने आते हैं ।
250. परिवार वालों ने और समाज वालों ने संतों को बहुत कष्ट दिए पर उन्होंने सब कुछ सहन किया । भक्ति के कारण बाद में उन्हीं संतों को परिवार वालों ने और समाज वालों ने बड़ा मान दिया और सम्मान दिया ।
251. संतों को प्रभु का रूप आकर्षित करता है ।
252. संतों को श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु की वाणी आकर्षित करती है ।
253. प्रभु मार्ग पर चलने वालों को भगवत् प्रसाद अंत में मिलता ही है पर बीच-बीच में उन्हें प्रभु प्रेम की निशानी भी मिलती रहती है जिससे वे दृढ़ हो जाते हैं कि उनका मार्ग सही है ।
254. भक्तों को बीच-बीच में प्रभु की झांकी होती रहती है और फिर प्रभु का साक्षात्कार होता है ।
255. जीवन में प्रभु की प्रेमानुभूति होती रहती है तो मन प्रभु प्रेम में लगता ही चला जाता है ।
256. विश्व का मांगल्य केवल प्रभु से ही है ।
257. शास्त्र कहते हैं कि भक्तों का प्रभु पर विशेष अधिकार होता है ।
258. प्रभु के वियोग में भी श्रीगोपीजन को प्रभु की ही चिंता रहती थी ।
259. अपने वियोग के दुःख से भी श्रीगोपीजन को बहुत अधिक चिंता प्रभु की होती थी कि प्रभु के अंतर्ध्यान होने के बाद प्रभु वन में घूम रहे होंगे और प्रभु के श्रीकमलचरणों को वेदना हो रही होगी ।
260. प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि श्रीगोपीजन का रुदन भी इतना मधुर क्योंकि यह रुदन प्रभु के लिए हुआ, भोगों के लिए नहीं हुआ ।
261. श्रीगोपीजन के रुदन का कारण प्रभु की दर्शन लालसा थी । संत कहते हैं कि यह रुदन का कितना श्रेष्ठ कारण था ।
262. पत्नी के वियोग में रोने वालों की संसार में कमी नहीं पर प्रभु के वियोग में रोने वाले कुछ बिरले ही होते हैं जो की अति-अति भाग्यवान होते हैं ।
263. भक्त अपने चित्त को सदैव प्रभु को अर्पण करके रखते हैं ।
264. प्रभु के सानिध्य का दिव्य परमानंद अलौकिक होता है । प्रभु का ऐसा सानिध्य जो पा लेता है उसको फिर संसार का लौकिक रस कोई सुख नहीं देता ।
265. भक्तों को संसार के पदार्थ उपलब्ध होते हैं पर उनमें उनका मन रस नहीं लेता ।
266. श्रीगोपीजन की प्रभु के लिए व्याकुलता का अनुमान करना हमारे लिए कतई भी संभव नहीं है ।
267. भक्तों को अपने अंतःकरण में प्रभु की झांकी होते ही परमानंद होता है ।
268. प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु अपने भक्तों को अपना सानिध्य देकर परमानंद के सागर में डुबो देते हैं ।
269. प्रभु साक्षात्कार के मार्ग में बीच-बीच में प्रभु अपनी झांकी देकर अपने भक्तों को वियोग देते हैं । ऐसा प्रभु इसलिए करते हैं क्योंकि वियोग की व्याकुलता भक्त की भक्ति को तीव्र से तीव्रतम कर देती है ।
270. भक्त प्रभु की अनुभूति के बाद प्रभु के सानिध्य में ही रहता है । फिर उसे संसार के पदार्थ उपलब्ध होने पर भी उनमें उसे रस ही नहीं आता ।
271. भक्ति में भक्त प्रभु की झांकी के बाद प्रभु से वियोग होने पर रोते रहते हैं जिससे भक्ति की तीव्रता बढ़ती जाती है । यही प्रभु मिलन की तीव्रता फिर प्रभु साक्षात्कार करा देती है ।
272. प्रभु साक्षात्कार के मार्ग में प्रभु अपनी झांकी अपने परमानंद की झलक देने के लिए हमें देते रहते हैं ।
273. संत और भक्त प्रभु के लिए रोते हैं पर उनके रुदन को दुनिया समझ नहीं पाती । यह ठीक वैसे ही है जैसे एक नवविवाहिता का पति लंबे समय के लिए उसे छोड़कर विदेश चला गया हो और वह अपने सात वर्ष की बहन को कैसे समझाए । सात वर्ष की बहन को पति वियोग के दुःख का पता ही नहीं होता । वैसे ही दुनिया वालों को प्रभु वियोग के दुःख का पता ही नहीं होता क्योंकि उन्होंने इसकी अनुभूति कभी ली ही नहीं, जैसे सात वर्ष की बहन ने पति वियोग की अनुभूति नहीं ली । इसलिए संत और भक्त प्रभु के लिए रोते हैं तो संसार उन्हें समझ नहीं पाता और यहाँ तक कि उन्हें पागल मान लेता है ।
274. श्रीगोपीजन के रुदन से उनका अहंकार जल कर भस्म हो गया और फिर प्रभु महारास के लिए श्रीगोपीजन के बीच प्रकट हो गए ।
275. एक संत ने अपने भाष्‍य में लिखा है कि श्रीरास के समय प्रभु अंतर्ध्यान नहीं हुए बल्कि श्रीगोपीजन के बीच ही गोपी बनकर छुप गए क्योंकि प्रभु भी अपने भक्तों से कभी दूर नहीं जा सकते ।
276. प्रभु हमारे हृदय में ही छुपे हैं और हम उन्हें बाहर ढूंढ़ते रहते हैं ।
277. एकांत में रहकर प्रभु में तन्‍मय होने से ही प्रभु मिलेंगे । प्रभु को बाहर खोजने से प्रभु नहीं मिलेंगे ।
278. संत और भक्त एक-दो बार तीर्थ करते हैं फिर प्रभु के लिए उनकी अंतर्यात्रा ही शुरू होती है और बाहर की यात्रा रुक जाती है ।
279. संत मानते हैं कि प्रभु को पाने के लिए एकांत सबसे बड़ा विद्यापीठ है और मौन सबसे बड़ा अभ्यास है ।
280. किसी भी संत और भक्‍त ने अगर प्रभु को प्राप्त किया है तो वह एकांत में ही किया है ।
281. भक्ति में इतनी तन्मयता प्रभु के लिए होनी चाहिए कि हमें अपने शरीर का भी विस्मरण हो जाए । संत और भक्त प्रभु को रिझाते-रिझाते स्वयं को भी भूल जाते हैं ।
282. प्रभु का सच्चा ध्यान सिर्फ बैठकर ही संभव होता है । लेट कर, घूम कर कभी भी ध्यान संभव नहीं हो सकता ।
283. श्रेष्ठ महात्माओं ने, संतों ने और भक्तों ने बहुत कम तीर्थ यात्राएं की हैं क्योंकि उन्होंने प्रभु को पाने के लिए बाहर की यात्रा नहीं अपितु अपने भीतर की अंतर्यात्रा की है ।
284. संतों को, भक्तों को एक बार अपने साधन के लिए अनुकूल स्थान मिल गया तो फिर वहाँ से कहीं नहीं गए । वहीं रह गए और वहीं उन्हें प्रभु साक्षात्कार हुआ ।
285. प्रभु के किसी भी एक रूप के साथ हमारी कितनी निष्ठा होनी चाहिए यह भक्तों ने हमें दिखाया है । भक्त प्रभु के एक रूप में लीन होकर जीवन भर उसमें रमे रहते हैं ।
286. संत और भक्त अपने जीवन में प्रभु की श्रीलीलाओं का अनुसंधान कभी नहीं छोड़ते ।
287. सारे संतों और भक्तों के जीवन चरित्र से उनके साधनों को जान लेना चाहिए और फिर अपने लिए क्या उपयोगी है उसे अपना लेना चाहिए ।
288. सच्चा भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों का अनुसंधान जीवन में निरंतर करता ही रहता है ।
289. अपना साधन मार्ग अपना व्यक्तिगत निर्णय होता है । संतों और भक्तों का चरित्र देखकर हमें हमारे लिए क्या उपयोगी है उसे जान कर अपना लेना चाहिए ।
290. व्यक्तिगत रुचि और व्यक्तिगत क्षमता के कारण सबका साधन मार्ग भिन्न-भिन्न होता है । जैसे एक पक्षी आकाश में उड़ता है तो दूसरा भी उसी दिशा में उड़ता है पर उन दोनों की उड़ने की दिशा एक होने पर भी उनके उड़ने के मार्ग भिन्न-भिन्न होते हैं ।
291. प्रभु अपने भक्तों को वियोग इसलिए देते हैं क्योंकि वियोग के कारण प्रभु मिलन की प्यास और ज्यादा बढ़ जाती है । यह सिद्धांत है कि वियोग के बाद संयोग की लालसा बढ़ जाती है ।
292. प्रभु की भक्ति में रोना ही सच्चा रोना है । प्रभु मिल जाते हैं तो भक्त आनंद में रोते हैं और प्रभु से वियोग होता है तो भक्त व्याकुलता में रोते हैं ।
293. प्रभु के लिए रोने में जो आनंद है उसका अंश भी हमें वहाँ नहीं मिल पाएगा जो सारे संसार के सभी भोगों को इकट्ठा करके भोगने के बाद हमें मिलता है ।
294. भक्तों ने माना है कि सबसे बड़ा आनंद प्रभु के लिए भक्ति में रोने में ही है ।
295. स्वार्थ का प्रेम सच्चा प्रेम नहीं होता इसलिए प्रभु से सदैव निस्वार्थ प्रेम ही करें ।
296. आत्मा में रमने वाले आत्माराम किसी अन्य से प्रेम नहीं करते । वे सिर्फ अपनी आत्मा में रमे हुए प्रभु से ही प्रेम करते हैं ।
297. किसी भी पदार्थ में ब्रह्म की भावना करने से वह हमें उत्तम फल देता है ।
298. भक्‍त मानते हैं कि प्रभु की सेवा ही उनका एकमात्र धर्म है और दुनियादारी करना उनका काम नहीं है ।
299. मर्यादा का रस चखना हो तो प्रभु श्री रामजी की कथा सुनें और माधुर्य का रस चखना हो तो प्रभु श्री कृष्णजी की कथा सुनें ।
300. भक्तों को प्रभु अपना प्रतिबिंब मानते हैं । जैसे एक बालक कांच में देखकर अपने प्रतिबिंब के साथ खेलता है वैसे ही प्रभु अपने भक्तों के साथ खेलते हैं ।
301. प्रभु से कभी स्वार्थ का प्रेम नहीं करना चाहिए । हमारा प्रेम प्रभु से सदैव निस्वार्थ होना चाहिए ।
302. प्रभु की वाणी की तुलना विश्व में किसी की वाणी से नहीं की जा सकती ।
303. जीव का कल्याण प्रभु के निरंतर अनुसंधान में ही है ।
304. जीवन में हम जो भी कर सकते हैं वह सब हमें प्रभु के लिए ही करना चाहिए ।
305. दुनियादारी और संसार छोड़कर हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए । यह साधारण बात नहीं है इसलिए यह सबके लिए संभव नहीं होता ।
306. हमारा उद्धार केवल प्रभु के निरंतर अनुसंधान में ही है ।
307. प्रभु अपनी झांकी देकर भक्त को फिर वियोग देते हैं क्योंकि वियोग में निरंतर प्रभु का अनुसंधान बहुत तीव्रता से होता है । जैसे एक धनवान का धन चला जाए तो वह निरंतर चले गए धन के बारे में सोचता ही रहता है वैसे ही प्रभु की झांकी होने के बाद वियोग होने पर भक्त को निरंतर प्रभु का अनुसंधान होता ही रहता है जिससे उसका बहुत जल्‍दी उद्धार हो जाता है ।
308. श्रीगोपीजन के सामने प्रभु यह स्वीकार करते हैं कि प्रभु अपने भक्तों के उपकार को कभी चुका नहीं सकते । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य प्रभु बताते हैं ।
309. संसार की बेड़ियों को तोड़कर निरंतर हमें अपने मन को प्रभु में लगाए रखना चाहिए ।
310. मैं अपने भक्तों का ऋण नहीं चुका सकता, यह बात प्रभु ने श्रीकृष्णावतार में श्रीगोपीजन को कही और श्रीरामावतार में प्रभु श्री हनुमानजी को कही ।
311. प्रभु कहते हैं कि प्रभु अपने भक्तों का ऋण अपने मस्तक पर धारण करके रखते हैं ।
312. प्रभु से इतना विशुद्ध प्रेम करने वाला श्रीराम कथा में प्रभु श्री हनुमानजी और श्रीकृष्ण कथा में भगवती राधा माता के अलावा कोई भी नहीं है ।
313. प्रभु श्री हनुमानजी ने पूरे श्रीरामावतार में और श्रीगोपीजन ने पूरे श्रीकृष्णावतार में प्रभु से कुछ भी नहीं मांगा । वे कामना रहित रहे और इस तरह निष्काम भक्ति और निष्‍काम प्रेम के आदर्श बने ।
314. अपने जीवन को दांव पर लगाकर प्रभु श्री हनुमानजी ने और श्रीगोपीजन ने प्रभु की प्रसन्नता के लिए अपना पूरा जीवन अर्पण कर दिया ।
315. अपने सुख की चाहत अथवा सुख की पूर्ति के लिए प्रभु की भक्ति करना गलत है । प्रभु की भक्ति सदैव निष्काम होनी चाहिए जिसमें कोई कामना नहीं हो ।
316. हम प्रभु को अपने सुख का साधन बनाते हैं जबकि प्रभु श्री हनुमानजी और श्रीगोपीजन प्रभु के सुख का साधन बन जाते हैं । यह कितना बड़ा और विलक्षण फर्क है ।
317. महारास सिद्ध महात्माओं और सच्चे भक्तों के अनुभव का विषय है ।
318. किसी भी तीर्थ में गंदगी देखकर उस तीर्थ के लिए हीन भावना हमारे मन में अगर आती है तो हमें तुरंत उसका पाप लग जाता है और हमसे तीर्थ का अपराध हो जाता है । इसलिए तीर्थों के लिए कभी भी हीन भावना मन में नहीं आने देना चाहिए और इसके लिए सदैव सावधान रहना चाहिए ।
319. श्री काशीजी, श्री वृंदावनजी, श्री अयोध्याजी जाकर सभी तीर्थों के पुण्य को हम प्राप्त कर सकते हैं । इतना महत्व प्रभु श्री महादेवजी, प्रभु श्री कृष्णजी और प्रभु श्री रामजी के इन तीर्थों का है ।
320. जैसे ही हमारी दृष्टि भक्ति के कारण बदल जाती है तो हमें हर तरफ प्रभु का आभास होने लग जाता है ।
321. श्री वृंदावनजी का हर वृक्ष श्रीकल्पवृक्ष के समान है और हर पत्थर श्रीचिंतामणि पत्थर के समान है क्योंकि प्रभु ने वहाँ पर रमन जो किया था ।
322. संत मानते हैं श्री वृंदावनजी की रज पत्थर की रज नहीं बल्कि रत्नों की रज है क्योंकि उन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्पर्श जो पाया है ।
323. प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी अवतार भी हैं और अवतारी भी हैं क्योंकि स्वयं प्रभु पूर्ण रूप से अवतारी बनकर आए । यह दोनों प्रभु के पूर्ण अवतार हैं बाकी अवतारों में प्रभु अपने एक अंश से आए इसलिए वे अंश अवतार कहलाते हैं ।
324. श्रीरास के लिए प्रभु श्री शुकदेवजी ने एक बहुत सुंदर उपमा दी है कि श्रीरास स्वर्णमणि यानी गोरी भगवती राधा माता और नीलमणि यानी सांवले प्रभु श्री कृष्णजी के बीच हुआ ।
325. देवताओं को भी श्रीरास में प्रवेश नहीं था । इसलिए देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी ने गोपी का रूप लिया और श्रीरास में शामिल हुए ।
326. श्रीबृज में मान्‍यता है कि सिर्फ एक ही पुरुषोत्तम हैं जो कि प्रभु श्री कृष्णजी हैं, इसलिए बाकी सभी जीव गोपीभाव में रहते हैं । संत श्रीबृज में आज भी गोपीभाव में ही रहते हैं ।
327. सच्चे भक्तों और संतों के चित्त में आज भी श्रीरास चलता रहता है ।
328. यह सिद्धांत है कि मन में सर्वदा एक समय पर एक ही विचार रहेगा इसलिए सदैव मन में प्रभु का ही विचार रखना चाहिए जिससे अन्य विचारों को वहाँ रहने के लिए जगह ही नहीं मिलेगी ।
329. जागृत अवस्था के अंतिम क्षण यानी नींद की पहली अनुभूति से पहले तक हमें प्रभु का चिंतन होना चाहिए ।
330. प्रभु की श्रीलीलाओं का चिंतन करने से ही हमारे मन को परमानंद मिलता है ।
331. नीला रंग अनंतता का प्रतीक है जैसे आकाश नीला है क्योंकि वह अनंत है, उसका कोई ओर-छोर नहीं पा सकता । ऐसे ही प्रभु अनंत हैं, इसलिए प्रभु श्री महादेवजी, प्रभु श्री नारायणजी, प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी नीलांबर रंग के हैं ।
332. प्रभु ने महारास में श्रीगोपीजन के साथ महानृत्य, फिर जलविहार, फिर वनविहार किया । इन तीनों को मिलाकर महारास का नाम दिया गया है ।
333. सभी को महारास का इतना आकर्षण था कि महारास की रात्रि छह महीने की हो गई और श्री चंद्रदेवजी छह महीने के लिए अपनी गति भूलकर रुक गए ।
334. महारास का रहस्य यह है कि श्रीगोपीजन प्रभु के पास गईं फिर भी गोपों ने उन्हें नहीं खोजा क्योंकि गोपों को लगा और उनकी अनुभूति थी कि श्रीगोपियां उनके पास ही हैं और दैनिक दिनचर्या में नित्य की तरह व्यस्त हैं । इस तरह सभी श्रीगोपियां घर में भी थीं और श्रीरास में भी शामिल हुईं । इसका अर्थ संतों ने किया है कि श्रीरास के लिए प्रभु ने श्रीगोपियों को नया भाव शरीर दिया । पंचभौतिक शरीर के साथ तो वे अपने घर पर रहीं और भाव शरीर के साथ वे श्रीरास में शामिल हो गईं ।
335. संत और भक्त आज भी भाव शरीर से प्रभु के साथ श्रीरास में शामिल होते हैं ।
336. पुरुष होते हुए भी संत और भक्त आज भी भाव शरीर के साथ गोपीभाव में रहते हैं और प्रभु के साथ श्रीरास में शामिल होते हैं क्योंकि प्रभु के साथ श्रीरास भाव शरीर से ही हो सकता है, पंचभौतिक शरीर से नहीं हो सकता ।
337. अगर प्रभु के लिए भावना तीव्र है तो भगवत् कृपा से भाव शरीर मिल जाता है । भाव शरीर पाने के लिए दो बातें जरूरी हैं । पहली, भावना तीव्र होनी चाहिए और दूसरी भावना नित्य और एक ही होनी चाहिए । भाव परिवर्तन करते रहने से भाव शरीर बनता ही नहीं क्योंकि वह बनने से पहले ही टूट जाता है ।
338. प्रभु से हम किस भाव से मिलें इसकी पूरी स्वतंत्रता प्रभु ने जीव को दे दी है ।
339. दास भाव, सखा भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव में से किसी एक भाव के साथ स्वयं को अपने इष्ट प्रभु से हमें जोड़कर रखना चाहिए ।
340. प्रभु के लिए कोई भी भाव छोटा या बड़ा नहीं होता । प्रभु प्राप्ति किसी भी भाव से यानी दास भाव, सखा भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव से हो सकती है ।
341. माधुर्य भाव में अन्य सभी भावों का समावेश होता है । माधुर्य भाव में दास भाव भी है, सखा भाव भी है और वात्सल्य भाव भी है । इसलिए ज्यादातर संत और भक्त प्रभु के साथ माधुर्य भाव को ही स्वीकारते हैं ।
342. जब भी श्रीरास का चिंतन करें हमें सदैव यह भान होना चाहिए कि यह कोई सांसारिक लीला नहीं है बल्कि प्रभु की श्रीलीला है । प्रभु की अवस्था उस समय मात्र दस वर्ष की थी और प्रभु ने श्रीगोपियों के साथ भाव देह के साथ श्रीरास किया जबकि श्रीगोपियों का पंचभौतिक देह उनके घर पर ही था । इसलिए संत और भक्‍त श्रीरासलीला को प्रभु की सबसे निर्दोष श्रीलीला मानते हैं ।
343. प्रभु ने श्रीरास से पहले अपनी प्रभुता से परिचय कराने के लिए कितने ही असुर मारे, प्रभु श्री गोवर्धनजी को उठाया, कालिया मर्दन किया और इस तरह अपने भगवत् तत्व का दर्शन सबको कराया । इन सबके बाद प्रभु ने श्रीरास की श्रीलीला की । इसलिए श्रीरास को सांसारिक लीला नहीं अपितु भगवत् लीला के रूप में ही देखना चाहिए । इसलिए किसी सामान्य व्यक्ति को भी कोई गलत विचार श्रीरास के बारे में कभी अपने मन में नहीं आने देना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा होता है तो यह बहुत बड़ा पातक होता है ।
344. श्रीरास की श्रीलीला अत्यंत श्रेष्ठ संतों और भक्तों के लिए और उन्हें परमानंद देने के लिए ही है ।
345. अगर श्रीरास में किंचित मात्र भी दोष होता तो संत और भक्त इसका इतना गुणगान नहीं करते और इसमें इतने रमते नहीं ।
346. प्रभु श्री शुकदेवजी अवधूतों के शिरोमणि हैं । उन्होंने श्रीरास का तन्मयता से बयान श्री परीक्षितजी एवं वहाँ उपस्थित श्रेष्ठतम संतों और ऋषियों के बीच किया । इससे ही यह पता चलता है कि श्रीरास के लिए उनके अंतःकरण में कितनी विशेष भावना है ।
347. प्रभु ने श्रीरास की श्रीलीला काम का मर्दन करने के लिए की । इसलिए संत कहते हैं श्रीरास की श्रीलीला के चिंतन से काम नष्ट हो जाता है ।
348. प्रभु ने इससे पहले प्रभु श्री ब्रह्माजी एवं श्री इंद्रदेवजी के गर्व का मर्दन किया था पर श्री कामदेवजी बचे थे । इसलिए प्रभु ने श्रीरास की श्रीलीला करके श्री कामदेवजी को भी परास्त किया और उनके गर्व का भी मर्दन किया ।
349. प्रभु ने किसी किले में नहीं बल्कि खुले मैदान में और शरद ऋतु जो श्री कामदेवजी की सबसे अनुकूल ऋतु है और उसमें भी रात्रि के समय जो श्री कामदेवजी का सबसे प्रिय समय है उस समय श्री कामदेवजी का मर्दन करके उन्हें परास्त किया ।
350. यहाँ तक कि संत एकांत में भी रहकर और स्त्री से दूर रहकर भी काम पर विजय पाने में असमर्थ होते हैं पर प्रभु ने श्रीगोपियों के बीच रहकर भी श्री कामदेवजी पर विजय प्राप्त की ।
351. श्रीरास की श्रीलीला काम मर्दन लीला है, इसलिए श्रीरासपंचाध्यायी का चिंतन और पाठ करने वाला अपने भीतर के काम का नाश करता है । यही कारण है कि अत्यंत श्रेष्ठ महात्मा भी अपने भीतर के काम भाव को नष्ट करने के लिए निरंतर श्रीरासपंचाध्यायी का पाठ करते रहते हैं ।
352. श्रीरास ऐतिहासिक लीला नहीं है यानी कभी हुई थी और आज नहीं हो रही है, ऐसा नहीं है । यह नित्य श्रीलीला है जो आज भी हो रही है । वर्तमान में भी श्रीरास की श्रीलीला चल रही है और अत्यंत श्रेष्ठ महात्मा इस श्रीलीला का आज भी रोजाना दर्शन करते हैं ।
353. संत समाधि में जाकर प्रभु की श्रीलीलाओं की अनुभूति लेते हैं । जैसे सागर में लहर उठती है और फिर अपने आप ही सागर में विलीन हो जाती है वैसे ही श्रेष्ठ संत प्रभु की श्रीलीलाओं के माध्यम से समाधि अवस्था में प्रभु में विलीन हो जाते हैं ।
354. हमारा चित्त अगर शुद्ध हो जाए तो हमें भी प्रभु की श्रीलीलाओं की अनुभूति होने लगेगी ।
355. श्रीरास के पूर्ण रस का किसी को भी आज तक पता नहीं चला । श्रीरास के पूर्ण रस को हमने पा लिया यह कहना किसी के लिए भी संभव नहीं है । पर जो भगवती राधा माता की कृपा पा लेता है उसे श्रीरास के रस की झांकी मात्र प्राप्त हो जाती है और इतने में ही वह तृप्ति का अनुभव कर लेता है क्योंकि श्रीरास का रस है ही इतना दिव्‍य ।
356. श्रेष्ठ संत अपना पूरा जीवन दांव पर लगाकर, श्रीबृज में निवास करके, भगवती राधा माता की कृपा से श्रीरास की एक झांकी प्राप्त करने का जीवन भर प्रयत्न करते रहते हैं ।
357. भक्ति से ज्यादा सत्य साधन कुछ भी नहीं, इससे मंगलमय और कुछ भी नहीं और इससे परम कल्याणकारी भी अन्य कुछ भी नहीं है ।
358. प्रभु की दैनिक पूजा नित्य होनी चाहिए और विशेष पूजा विशेष पर्व पर जरूर होनी चाहिए ।
359. हमें प्रभु की प्रसन्नता के लिए गौ-माता की सेवा करनी चाहिए ।
360. कर्मकांड का मुख्य उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता ही है, इसलिए सारा कर्मकांड प्रभु की प्रसन्नता हेतु ही होना चाहिए और हमारी सकाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं होना चाहिए ।
361. प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी नित्य प्रभु श्री शिवजी की भक्ति और पूजन करते हैं ।
362. प्रभु श्री रामजी की शिवभक्ति को सब जानते हैं पर प्रभु श्री कृष्णजी की भी शिवभक्ति अदभुत है । प्रभु श्री विट्ठलजी प्रभु श्री कृष्णजी के स्वरूप हैं और प्रभु श्री विट्ठलजी ने अपने शीश पर श्रीशिवलिंग धारण किया हुआ है जिससे उनकी शिवभक्ति का पता चलता है । इतने बड़े शिवभक्त प्रभु श्री कृष्णजी हैं ।
363. जब अजगर ने श्री नंदबाबा को पकड़ा तो सबको बस प्रभु की ही याद आई । इस प्रसंग का सूत्र यह है कि जीवन में जब भी विपत्ति आए हमें सिर्फ और सिर्फ प्रभु की ही याद आनी चाहिए ।
364. भक्तों का ध्यान कि वे कैसे दिखते हैं, कैसे कपड़े वे पहनते हैं, कैसी वेशभूषा उनकी होती है इस तरफ कभी नहीं होता । उनका ध्यान केवल जीवन में भक्ति के नियमों को पालन करने की तरफ ही होता है ।
365. भक्त सदैव निषेध कर्म जीवन में नहीं हो इसकी पूरी सावधानी जीवन भर रखते हैं ।
366. कौन अपने जीवन में किस वस्तु की तरफ कितना ध्यान देता है उससे उसके आध्यात्मिक स्तर का पता चलता है ।
367. परम सुंदर शरीर हो, धन-संपत्ति और वैभव हो पर अविचल भक्ति नहीं हो तो वह जीवन बेकार है । इसके ठीक विपरीत अगर शरीर सुंदर नहीं हो, धन-संपत्ति और वैभव न हो पर जीवन में अविचल भक्ति हो तो वह जीवन परम धन्य होता है ।
368. पूर्व काल में ऋषियों के श्राप भी अनुग्रहयुक्त होते थे जो कि प्रभु के श्रीहाथों श्रापयुक्त जीव का उद्धार करवा देते थे ।
369. प्रभु के स्वभाव और प्रभाव को देखकर श्रीगोपीजन और श्रीगोपों के मन में प्रभु के लिए प्रेम के साथ-साथ आदर की भी भावना जागृत हुई ।
370. प्रभु के लिए प्रियत्व के भाव के साथ-साथ प्रभु की महानता का ज्ञान भी जीवन में जागृत होने पर हमारी भक्ति स्थिर होती है ।
371. अत्यंत तरसते हुए नेत्रों से श्रीगोपीजन प्रभु के गोचारण के लिए जाते और आते वक्त दर्शन किया करती थी । क्या हमारे भी नेत्र प्रभु के दर्शन के लिए तरसते हैं, यह हमें देखना चाहिए ।
372. श्रीगोपीजन का पूरा दिन प्रभु के अनुसंधान में ही बीतता था । हम भी सुबह-शाम की प्रभु की पूजा तो करते हैं पर दिनभर क्या हमारे मन में भी प्रभु का अनुसंधान होता रहता है ।
373. श्रीगोपीजन दिनभर काम करते हुए भी प्रभु की श्रीलीलाओं के गीत गाती रहती थीं । हमें भी आदत बनानी चाहिए कि दिनभर के काम के साथ-साथ प्रभु का गुणगान भी नित्य होते रहना चाहिए ।
374. प्रभु का बांसुरी वादन इतना मुग्ध करने वाली होता था कि बांसुरी की आवाज सुनते ही देवता और सिद्धगण आकाश में आ जाते थे और देवपत्नियां और सिद्धपत्नियां भी उनके पीछे-पीछे आ जाती थीं ।
375. जब श्रीगोपीजन प्रभु की बांसुरी सुनती थीं तो अगर वे अपने मुँह से कुछ खा भी रही होती थीं तो उसे चबाना, निगलना या उगलना भी भूल जाती थीं । वे इतनी मुग्ध और मोहित हो जाती थीं ।
376. प्रभु के बांसुरी वादन से वहाँ के पशु-पक्षी भी ऐसे मुग्ध हो जाते थे और उनकी पूरी हलचल ही बंद हो जाती थी मानो वे मूर्तिरूप हो गए हों ।
377. प्रभु की बांसुरी सुनने के बाद वृक्षों में फल लग जाते थे और उनकी डालियां झुक जाती थीं मानो वे प्रभु को प्रणाम करने के लिए झुके हों ।
378. प्रभु की बांसुरी सुनकर भगवती यमुना माता की तरंगें उठने लग जाती थीं मानो वे प्रभु का स्वागत करने के लिए आतुर हो उठी हों ।
379. संतों और भक्तों का चित्त प्रभु का अनुसंधान करते-करते प्रभु के ध्यान में पहुँच जाता है ।
380. जब संत समाधि की अवस्था में पहुँच जाते हैं तो उस अवस्था में दुःख का पूर्ण अभाव हो जाता है क्योंकि वहाँ परमानंद ही परमानंद होता है ।
381. प्रभु से वियोग का समय कैसे व्यतीत किया जाए यह श्रीगोपीजन के प्रसंग में देखने को मिलता है । वे प्रभु के वियोग का समय प्रभु का नित्य गुणगान करके बिताती थीं ।
382. प्रभु के श्रीलीलाओं का गान करना प्रभु को निरंतर याद करने का एक श्रेष्ठ उपाय है ।
383. शब्द, स्पर्श, रूप, गंध के विकार हमें प्रभु के अनुसंधान में व्यवधान देते हैं । हमारे आँख, कान, नाक कुछ अलग देखना, सुनना और सूंघना चाहते हैं । उन सबको प्रभु में लगाकर उन्हें दिव्य आनंद हम दे सकते हैं ।
384. सच्ची समाधि थोड़े समय के लिए ही लगती है जिसे खंडित समाधि कहते हैं । सतयुग में भी ज्यादातर खंडित समाधि ही होती थी । पूर्ण यानी अखंड समाधि केवल सगुण साकार प्रभु की भक्ति के द्वारा ही संभव है क्योंकि भक्ति से ही दिनभर प्रभु का अनुसंधान हमारे मन में होता रहता है ।
385. प्रभु श्री लड्डूगोपालजी की सेवा विलक्षण सेवा है क्योंकि उसमें वात्सल्य भाव से प्रभु की सेवा होती है । प्रभु को सुबह उठाना, नहलाना, वस्त्र धारण कराना, भोग लगाना, आरती करना, दोपहर में शयन कराना, पुनः उठाना, पुनः सब क्रियाएं करना, ऐसा चलता ही रहता है । इन सबका उद्देश्य यही है कि हम प्रभु के साथ निरंतर जुड़े रहें ।
386. योग हमें स्वास्थ्य लाभ के लिए नहीं अपितु प्रभु से जुड़ने के लिए करना चाहिए । स्वास्थ्य लाभ योग का बहुत छोटा और गौण लाभ है ।
387. यह सिद्धांत है कि भक्ति के बिना अखंड समाधि नहीं लग सकती ।
388. हमें नींद में कितना सुख मिलता है तो जरा कल्पना करें कि अखंड समाधि में कितना परमानंद होता होगा ।
389. समाधि में जीव प्रभु से एकाकार हो जाता है इसलिए उसे दिव्‍य परमानंद की अनुभूति होती है ।
390. कोई भी संत कभी कोई नई बात नहीं कह सकते क्योंकि कोई नई बात है ही नहीं । भारतीय श्रीग्रंथों, शास्त्रों और ऋषियों ने जिन बातों की ओर हमारा ध्यान खींचा था और जिन पर अभी तक हमारा ध्यान नहीं गया वही बातें संत हमारे लिए दोहराते हैं ।
391. प्रभु की भक्ति में सगुण आधार नहीं रखकर मन को प्रभु में लीन करना बहुत कठिन है । यह बात प्रभु ने स्वयं श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कही है ।
392. सच्चे संत बहुत कम बोलते हैं और जो बोलते हैं वह भक्ति के सूत्र होते हैं ।
393. भक्ति को परिपूर्ण करने के लिए प्रभु के सगुण साकार रूप का अवलंबन लेना बहुत जरूरी है ।
394. भक्ति नहीं होगी तो हमारे पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण वासनाएं हमारे जीवन में जग जाएगी ।
395. जागृत अवस्था में प्रभु की सगुण साकार भक्ति ही श्रेष्ठ है ।
396. चित्त प्रभु के लिए पिघलना चाहिए और वह भक्ति से ही पिघलता है ।
397. जब भी हमें समय मिले प्रभु के सगुण साकार विग्रह के सामने बैठ जाना चाहिए और संतों के पद गुनगुनाने चाहिए । भक्ति में प्रभु के सामने बैठकर संतों के भजन गाना बहुत लाभप्रद है ।
398. अपने घर की ठाकुरबाड़ी को छोड़कर कहीं जाने का मन ही नहीं होना चाहिए । जीवन में ऐसा भाव होना चाहिए कि मेरा सब कुछ मेरे घर की ठाकुरबाड़ी में ही है ।
399. प्रभु के विग्रह के सामने हमारा संपूर्ण प्रेम उमड़ पड़ना चाहिए ।
400. प्रभु के लिए कहीं भी जाना नहीं पड़ता । भक्ति हो तो प्रभु स्वयं अपने पास चले आते हैं क्योंकि प्रभु ही हमारे सबसे समीप हैं ।
401. जीवन में शुद्धता और प्रभु प्रेम की जागृति हो जाए तो प्रभु हमारे समक्ष प्रकट हो जाएंगे ।
402. प्रभु के पास भी सच्चे भक्तों की बहुत कमी है इसलिए प्रभु भी सच्ची भक्ति करने वाले को निरंतर खोजते रहते हैं ।
403. भक्ति का सामर्थ्य है कि भक्त प्रभु से कह देता है कि मैं नहीं आऊँगा, जहाँ मैं हूँ आपको वहाँ आना पड़ेगा और प्रभु चले आते हैं ।
404. श्री सूरदासजी और श्री बिल्वमंगलजी दोनों की आँखों की ज्योति नहीं थी पर जहाँ भी बैठकर वे प्रभु का गुणगान करते थे प्रभु उसे सुनने के लिए रोजाना वहाँ आते थे ।
405. साधन के अनेकों मार्ग देखने के बाद संतों ने भक्ति को प्रभु का गुणगान करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग माना है ।
406. प्रभु कब मिलेंगे इसमें हमें संशय नहीं होना चाहिए । हमें जीवन में प्रभु के लिए अपना भाव खंडित किए बिना प्रभु का जीवन में नित्य गुणगान करते रहना चाहिए ।
407. साधन करते वक्त अपना पूरा मन प्रभु में उड़ेल देना चाहिए ।
408. हमें प्रभु के दर्शन करते वक्त प्रभु के विग्रह में प्रभु की मूर्ति नहीं बल्कि साक्षात प्रभु दिखने चाहिए ।
409. जीवन में भक्ति का भाव आ जाए तो प्रभु से सदैव ही कहते रहना चाहिए कि आपने मेरे ऊपर बहुत बड़ा अनुग्रह कर दिया है ।
410. मन में प्रभु के लिए संशय होना हमारे सारे साधनों का नाश कर देता है । यह बात प्रभु ने स्वयं श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को कही है । इसलिए जीवन में प्रभु के लिए कभी भी संशय नहीं होने देना चाहिए ।
411. पिघले हुए चित्त से प्रभु का गुणगान यानी भजन करना चाहिए । सिर्फ भजन ही नहीं करना चाहिए बल्कि व्याकुल होकर तन्‍मयता से भजन करना चाहिए ।
412. भक्ति का परमानंद कपड़े के अस्तर जैसा होता है । कपड़ा दिखता है पर कपड़े के भीतर का अस्तर नहीं दिखता वैसे ही भक्ति दिखती है पर भक्ति के भीतर मिलने वाला परमानंद नहीं दिखता । वह परमानंद उसे ही अनुभव होता है जो भक्ति करता है ।
413. जितना परमानंद प्रभु के लिए व्याकुलता से रुदन में है उतना संसार में कहीं नहीं मिलेगा ।
414. जिन संतों ने पहले वेदांत एवं अन्य साधनों से प्रभु को रिझाने की कोशिश की और भक्ति को छोटा साधन माना उन्होंने जब भक्ति को समझा तो अंत में कहा कि अन्य सभी साधन छोटे हैं और भक्ति सभी का शिरोमणि और सभी में श्रेष्‍ठतम साधन है ।
415. वे लोग धन्य होते हैं जिनको सिर्फ भक्ति में ही आस्था होती है । उनके मन में भक्ति के विरुद्ध कोई भी कुतर्क कभी जन्म ही नहीं लेता ।
416. स्वामी श्री विवेकानंदजी ने सभी साधन किए पर अंत में जब भगवती माता की भक्ति में लगे तो उनके गुरु संत श्री रामकृष्णजी परमहंस अति प्रसन्न हुए कि अब वे सही मार्ग पर आए हैं क्योंकि श्री रामकृष्णजी परमहंस की शुरू से ही अखंड आस्था भक्ति में ही थी ।
417. भक्तों के लिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं रहता क्योंकि उनका अपना संसार केवल अपने प्रभु के साथ हो जाता है ।
418. अपने जीवन में स्वयं को सच्चा भाग्यवान तभी मानना चाहिए जब सारे संसार का त्याग कर हम प्रभु की भक्ति में लग जाते हैं ।
419. प्रभु श्री महादेवजी के मंदिर में श्री नंदीजी धर्म के प्रतीक हैं इसलिए पहले श्री नंदीजी को प्रणाम करके धर्म की अनुपालना करते हुए फिर प्रभु श्री महादेवजी तक पहुँचना, ऐसा नियम होता है ।
420. धर्म में भी कई असुर घुसे हुए होते हैं और शास्त्रों में भी कई असुर घुसे हुए होते हैं । ये असुर धर्म की परंपरा को तोड़-मरोड़ देते हैं और शास्त्रों से नए और गलत अर्थ और दिशा निर्देश प्रकट कर देते हैं । ऐसे असुरों और उनके संदेशों से हमें सदैव सावधान रहना चाहिए ।
421. जो आपको प्रभु की भक्ति से दूर करता है उसे अपने जीवन से ही दूर कर देना चाहिए ।
422. जीवन में सब कुछ करके देख लें पर अंत में चित्त को शांति प्रभु के पास आने से ही मिलेगी ।
423. अंत में प्रभु श्री रामजी का ही नाम लेना पड़ेगा, श्रीमद् भागवतजी महापुराण का ही श्रवण करना पड़ेगा और प्रभु श्री कृष्णजी के माधुर्य रूप में ही अपने चित्त को लगाना पड़ेगा ।
424. सबसे विशुद्ध साधन भक्ति ही है ।
425. श्रीगोपीजन के प्रेम के कारण प्रभु श्री वृंदावनजी में रहे । प्रभु भी श्रीगोपीजन के प्रेम में अपने पूरे अवतार काल में बंधे रहे थे ।
426. संसार की सारी भूमियों में श्रीबृज भूमि की तुलना अन्य किसी भूमि से नहीं की जा सकती क्योंकि यह प्रभु की लीला स्थली रही है ।
427. संत मानते हैं कि श्रीबृज भूमि भूमंडल का हिस्सा नहीं है क्योंकि जो उनको अति प्रिय थे ऐसी श्रीबृज भूमि, भगवती यमुना माता और श्री गोवर्धनजी को भगवती राधा माता ने पृथ्वीलोक पर भेजा था ।
428. भक्ति के कारण भक्त धर्मशील, लोक उपकारी और भगवत् निष्ठ जीवन जीने लगते हैं ।
429. जिन्हें प्रभु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए, वे ही सच्चे भक्त होते हैं ।
430. दुष्टों के नाश के लिए प्रभु को अवतार नहीं लेना पड़ता क्योंकि यह तो साधारण कार्य है जो प्रभु किसी को भी भेजकर करवा सकते हैं । उदाहरण के तौर पर रावण के नाश करने के लिए रावण के समकालीन उससे भी बलवान तीन लोगों का वर्णन श्री रामायणजी में आता है । ये तीन हैं प्रभु श्री परशुरामजी, सहस्त्रार्जुन और बालि । रावण को प्रभु श्री ब्रह्माजी से वरदान मिला था कि नर और वानर के अलावा कोई उसका वध नहीं कर सकता । इसलिए इन तीनों में से कोई भी रावण को मारता तो प्रभु श्री ब्रह्माजी का वरदान भी भंग नहीं होता क्योंकि इन तीनों में से दो नर थे और एक वानर था ।
431. मर्यादा का पाठ पढ़ाना और लोक शिक्षा देना प्रभु श्री रामजी के अवतार का प्रधान हेतु था । प्रभु के अवतार का दूसरा हेतु अपने प्रेमियों से मिलना था जिनको एक प्रभु को छोड़कर और कुछ भी नहीं चाहिए था । प्रभु श्री रामजी इतने ऋषियों से, संतों से, भक्तों से जैसे भगवती शबरीजी, श्री केवटजी, श्री विभीषणजी इत्यादि से अपने अवतार काल में मिले ।
432. जिनके अंतःकरण की शुद्धि नहीं वे श्रीरास पंचाध्यायी में प्रवेश के अधिकारी नहीं हैं । प्रभु श्री कृष्णजी की श्रीलीला के वे ही अधिकारी होते हैं जिनका अंतःकरण भक्ति से पूर्ण निर्मल और पूर्ण शुद्ध होता है ।
433. किसी भी श्रीग्रंथ पर भाष्य का मतलब होता है कि उस श्रीग्रंथ में जो कुछ भी कहा गया और जिनके द्वारा कहा गया उनके अंतःकरण में छिपे हुए एक-एक भाव को खोज कर निकालना । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री वेदव्यासजी एवं प्रभु श्री शुकदेवजी के हृदय में छुपे भावों को परमहंस महात्माओं और संतों ने अपने भाष्य द्वारा प्रकट किया है ।
434. श्री बरसानाजी की श्रीबृज में एक विशेष जगह है क्योंकि वे श्रीबृज के आराध्य प्रभु श्री कृष्णजी की आराध्या भगवती राधा माता की जन्मस्थली है ।
435. भगवती राधा माता की कृपा और दया का वर्णन करने के लिए तब से अब तक सारे ऋषि, महात्मा, संत और भक्त अपने आप को अक्षम मानते आए हैं ।
436. श्री देवी भागवतजी में आता है कि प्रभु के भीतर से प्रभु का ऐश्वर्य और शक्ति का रूप लेकर भगवती राधा माता प्रकट हुईं ।
437. श्री देवी भागवतजी में आता है कि सबसे पहले प्रभु ने भगवती राधा माता को प्रकट किया और फिर भगवती राधा माता से सभी देवी शक्तियों का प्राकट्य हुआ ।
438. प्रभु और माता इसलिए भी एक हैं क्योंकि प्रभु ने ही माता को अपने भीतर से प्रकट किया है ।
439. भगवती माता के हर अवतार में नित्य प्रभु ही उनके पति हुए हैं । जब माता ने भगवती पार्वती माता का रूप लिया तो प्रभु के रूप में प्रभु श्री महादेवजी मिले । जब माता ने भगवती जानकी माता का रूप लिया तो प्रभु के रूप में प्रभु श्री रामजी मिले ।
440. सभी लोग वेदांत पढ़ने के अधिकारी नहीं होते पर प्रभु की कथा जो वेदांत का सार है उसके अधिकारी सभी होते हैं ।
441. भगवती माता का चित्त निरंतर और स्वाभाविक रूप से हर अवतार में प्रभु में ही लगा रहता है ।
442. श्रीबृज की श्रीगोपीजन, पशु, पक्षी और वृक्ष युगल सरकार यानी भगवती राधा माता एवं प्रभु श्री कृष्णजी की सेवा में ही सदा लगे रहते हैं ।
443. प्रभु स्वामी हैं और माता स्वामिनी हैं । दोनों एक ही के दो रूप हैं और एक ही तत्व का दोनों में विलास है, इसलिए कोई प्रधान और कोई गौण नहीं है ।
444. श्रीनिकुंज लीला भगवती माता और प्रभु के बीच में होती है इसलिए वहाँ किसी शब्द, वाणी या जीव का प्रवेश नहीं है । यहाँ तक कि अष्ट गोपीजन भी बाहर छूट जाती हैं और उनका भी वहाँ प्रवेश नहीं है ।
445. संतों ने अनुभव किया कि भगवती राधा माता का चिंतन करते-करते प्रभु श्री कृष्णजी का चिंतन होने लगता है और प्रभु श्री कृष्णजी का चिंतन करते-करते भगवती राधा माता का चिंतन होने लगता है । इससे सूत्र निकलता है कि प्रभु और माता दो नहीं एक ही हैं ।
446. प्रभु श्रीरास में एक से अधिक होकर श्रीलीलाएं करते हैं और फिर अनेक से एक में समाविष्ट हो जाते हैं ।
447. श्रीरास का ज्ञान प्रयत्न से कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता । प्रभु स्वयं जब हमारा चयन करेंगे और कृपा का हाथ हमारे ऊपर रखेंगे तो ही हमें श्रीरास के ज्ञान की अनुभूति होगी ।
448. प्रभु की सेवा ही हमें प्रभु तक पहुँचाने का द्वार है ।
449. हमारी दुनियादारी की सेवा दुनिया कभी याद नहीं रखेगी और वह व्यर्थ चली जाएगी । इसलिए प्रभु की सेवा करनी चाहिए क्योंकि प्रभु की सेवा कभी भी, किसी भी अवस्था में व्यर्थ नहीं जा सकती । प्रभु जीव की छोटी-सी भी सेवा को कभी नहीं भूलते और उसे सदैव याद रखते हैं ।
450. प्रभु जीव पर कृपा करते ही हैं । प्रभु का जीव पर कृपा करना प्रभु की एकदम स्वाभाविक क्रिया है । इसके लिए प्रभु को कहने की या याद दिलाने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती ।
451. भक्त के जीवन में जो भी जरूरत की वस्तु उसे चाहिए वह स्वतः ही चल के उसके जीवन में प्रभु कृपा से आ जाएगी क्योंकि प्रभु का भक्त के योगक्षेम का भार को उठाने का श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रण है ।
452. हमें अपने चित्त को प्रभु में लगाए रखना चाहिए तभी आने वाली हर आपत्ति और विपत्ति को दूर करने का आश्वासन प्रभु हमें श्रीमद् भगवद् गीताजी में देते हैं ।
453. हमें निरंतर हर दिशा से और हर स्तर से प्रभु से ही जुड़े रहना चाहिए ।
454. हमें अपनी जीवनशैली ऐसी बनानी चाहिए कि कभी भी जीवन में प्रभु का विस्मरण नहीं हो ।
455. जब हमारा जीवन प्रभुमय हो जाता है और हमारी हर क्रिया प्रभु के लिए होने लगती है तो फिर हमारे योगक्षेम का वहन पूरी तरह से प्रभु करते हैं ।
456. प्रभु किसी भी शर्त से या किसी भी प्रलोभन से नहीं मिलते बल्कि सिर्फ और सिर्फ भक्ति से ही मिलते हैं ।
457. निरंतर जीवन में यह कहते रहना चाहिए कि प्रभु मैं सिर्फ आपका ही हूँ ।
458. निरंतर जीवन में अपने बुरे आचरण और कर्म को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए पर प्रभु से यह निवेदन सदैव करते रहना चाहिए कि जैसा भी बुरा और बिगड़ा हूँ पर मैं केवल और केवल आपका ही हूँ । प्रभु से जुड़ने पर बुराई और पाप हमारे भीतर टिक नहीं सकते क्‍योंकि प्रभु पतितों को पावन करने वाले पतितपावन हैं ।
459. प्रभु का नाम स्मरण और प्रभु की श्रीलीलाओं का चिंतन भक्ति के सर्वोच्च साधन हैं ।
460. ऋषियों, संतों और भक्तों की वाणी भक्ति का एक बहुत बड़ा आधार है क्योंकि उन्होंने भक्ति करके ही ऐसी वाणी बोली है ।
461. प्रभु के ऊपर भक्तों का बहुत बड़ा अधिकार होता है ।
462. ऋषियों, संतों और भक्तों को प्रभु बहुत मान देते हैं ।
463. धर्मनिष्ठ और सज्जन जीव का संरक्षण प्रभु सदैव करते हैं ।
464. प्रभु अपने भक्तों की रक्षा किसी को भी निमित्त बनाकर सदैव करते रहते हैं । लाक्षागृह के बारे में श्री विदुरजी के द्वारा पांडवों को प्रभु ने संदेशा भिजवाया एवं उनकी रक्षा की ।
465. भगवती माता की उपासना कभी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि माता शक्ति देती हैं । इस शक्ति से हमारा मन, शरीर और बुद्धि बलवान होती है । यह शक्ति सिर्फ भगवती माता की उपासना से ही संभव है ।
466. मौन का सही अर्थ यह है कि अनावश्यक स्थान पर अनावश्यक बात कभी नहीं बोलना ।
467. प्रभु ने पूरे समय श्री कर्ण को कभी नहीं बताया कि वे पांडव हैं । युद्ध से ठीक पहले श्री कर्ण को विषाद में लाने के लिए और उनका युद्ध का उत्साह खत्म करने के लिए प्रभु ने उन्हें बता दिया कि वे तो पांडव हैं । प्रभु को जब मौन रहना था तब मौन रहे और जब बताने का सही समय आया तो प्रभु ने बताया । मौन की कितनी सुंदर परिभाषा यहाँ पर देखने को मिलती है ।
468. श्री अक्रूरजी जैसे भक्त देखने में कंस के सहभागी दिखते हैं पर अंतःकरण से वे प्रभु के परम हितैषी और परम भक्त हैं । श्री अक्रूरजी कंस की बात मान कर प्रभु को लाने के लिए गए क्योंकि वे जानते थे कि वे नहीं गए तो अन्य कोई जाएगा और अगर वे गए तो वे प्रभु को कंस की असलियत से सावधान कर देंगे ।
469. श्री अक्रूरजी जब प्रभु को लाने चले तो पूरे रास्ते प्रभु का विचार करते रहे । उन्होंने सोचा कि मेरे कौन से भाग्य का उदय आज हुआ है कि प्रभु मिलन का सौभाग्य मुझे प्राप्त होने जा रहा है । उन्होंने सोचा कि संत और योगी जिन प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान करते हैं उन प्रभु के श्रीकमलचरणों का साक्षात दर्शन होने की कृपा उन पर होने जा रही है । उन्होंने सोचा कि प्रभु दर्शन से उनका बचा हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाएगा । उन्होंने सोचा कि मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्रभु साक्षात्कार है जिसका लाभ उन्हें मिलने जा रहा है ।
470. श्री अक्रूरजी ने अब तक प्रभु के कभी दर्शन नहीं किए थे और उनकी प्रभु से कोई पहचान नहीं थी । फिर उनके भीतर प्रभु के लिए इतनी श्रेष्ठ भावना जागृत कैसे हुई । यह सिर्फ प्रभु के बारे में सुनने के कारण हुई । इससे सूत्र निकलता है कि प्रभु के बारे में सुनते रहें, सुनते रहेंगे तो प्रभु से प्रेम निश्चित होकर रहेगा ।
471. श्री मथुराजी जाने वाले सभी गोकुलवासियों को एक ही व्यसन था कि प्रभु के बारे में चर्चा करने का । उनकी बात कहीं से भी शुरू हो पर तुरंत चर्चा प्रभु के बारे में होने लग जाती थी और चर्चा के विषय प्रभु बन जाते थे ।
472. प्रभु में विश्वास होना आस्तिकता है, भक्ति नहीं । पर जब प्रभु हमें अपने सबसे प्रिय लगने लग जाए तो यह भक्ति हो जाती है ।
473. प्रभु हैं, यह साधारण बात है । प्रभु मेरे हैं, यह असाधारण बात है ।
474. कैसे भी अपने जीवन को प्रभु से जोड़ लेना श्रेयस्कर होता है ।
475. जब जीवन में प्रभु के साथ ममत्व, आत्मीयता का संबंध जागृत होता है तो हमारे भीतर भक्ति के अंकुर फूट पड़ते हैं ।
476. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी प्रभु से कहते हैं कि मैं तो रोज कहता हूँ कि प्रभु मेरे हैं पर एक दिन तो प्रभु आपको भी कहना पड़ेगा कि तुलसी मेरो है ।
477. जब हमारे अंतःकरण में प्रभु होंगे तो हमारी जुबां पर भी प्रभु ही आएंगे । तब हमें प्रभु के बारे में बोलने, गाने और जपने का मन करेगा ।
478. श्री अक्रूरजी श्री मथुराजी से श्रीबृज जाते समय एक भक्ति का सूत्र हमें देते हैं । उन्होंने पूरी यात्रा में निरंतर चिंतन प्रभु का ही किया और हमें भी किसी भी यात्रा में निरंतर चिंतन प्रभु का ही करना चाहिए ।
479. भक्त और संत संसार से कहते हैं कि वे तो प्रभु के सानिध्य में परमानंद ले रहे हैं और वे संसार को भी आमंत्रित करते हैं प्रभु के सानिध्य का परमानंद लेने के लिए । इसलिए भक्त और संत भक्ति का प्रचार करते हैं ।
480. लोगों में प्रभु का प्रेम बांटना यह जीव के परम कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयोगी है । इसलिए संतों और भक्तों ने सदैव ऐसा किया है ।
481. भक्तों के लिखे पदों को हमें अपनी वाणी से दोहराने पर प्रभु को बहुत प्रसन्नता होती है और प्रभु हमारे जीवन में साकार हो जाते हैं ।
482. प्रभु के ध्यान से हमारा कल्याण होगा ऐसी प्रभु के लिए भावना जागृत करनी पड़ती है तभी ध्यान साकार होता है ।
483. प्रभु का गुणगान भक्‍तों की वाणी को आधार बनाकर किया जाना चाहिए । ऐसा करना इसलिए श्रेष्ठ होता है क्योंकि भक्‍तों ने प्रभु की भक्ति का रसास्वादन किया है और प्रभु का साक्षात्कार प्राप्त किया है ।
484. ध्यान में प्रभु के सगुण साकार रूप को ही देखना चाहिए क्योंकि वह इतना अदभुत, इतना सुंदर और इतना पवित्र है जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते ।
485. प्रभु के श्रीनेत्र इतने आनंद और इतनी प्रसन्नता को बिखेरने वाले हैं, ऐसा प्रभु के ध्यान करते वक्त भक्तों को अनुभव रहा है ।
486. कंस के कारण श्री अक्रूरजी को प्रभु दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसमें भी श्री अक्रूरजी ने प्रभु की करुणा देख ली और उन्होंने सोचा कि कंस की बुद्धि में बैठकर प्रभु ने ही उन्हें बुलाया है । इससे सूत्र निकलता है कि हमें भी हर तरफ प्रभु की कृपा और अनुग्रह के दर्शन करने चाहिए ।
487. श्री अक्रूरजी यात्रा करके जब प्रभु के पास साक्षात पहुँचे तब पहुँचे पर मन से वे पहले ही प्रभु के पास पहुँच गए । इससे सूत्र निकलता है कि मन से हमें भी सदैव प्रभु के पास पहले ही पहुँच जाना चाहिए और हम पहुँच सकते हैं ।
488. प्रभु अंतर्यामी हैं यानी हमारे सभी भावों को समझने और जानने वाले हैं ।
489. प्रभु हमारे सिर पर अपना श्रीकरकमल रखें, ऐसी भावना अगर हम मन में कर लेते हैं तो श्रीकरकमल तो प्रभु बाद में रखेंगे पर ऐसी भावना के कारण हमें उसका फल अभी ही प्राप्त हो जाता है ।
490. प्रभु का ध्यान और प्रभु की भक्ति उसी की सिद्ध होती है जो तीव्र भावना से ऐसा करना जानता हो ।
491. भक्त का हृदय ऐसा होता है कि वह किसी से कठोर व्यवहार तो कर ही नहीं सकता, वह कठोर व्यवहार करने की कल्पना भी नहीं करता ।
492. भक्तों के हाथों और सिर को एक अभ्यास होता है कि जहाँ-जहाँ भी उन्हें प्रभु विग्रह दिखते हैं उनके हाथ जुड़ जाते हैं और सिर झुक जाता है ।
493. भक्त अपनी भावना से पहले ही प्रभु के पास पहुँच जाते हैं यानी शरीर से जब पहुँचेंगे तब पहुँचेंगे पर मन से पहले ही प्रभु के पास पहुँच जाते हैं ।
494. भक्तों को अपनी भावना के कारण ध्यान में प्रभु की झांकी के दर्शन होने लगते हैं ।
495. मन से प्रभु के पास पहुँचने का नाम ही ध्यान है ।
496. भक्त तीर्थों की जैसे कि श्री वृंदावनजी, श्री अयोध्याजी की मानस यात्रा करते रहते हैं ।
497. जब भक्ति सिद्ध हो जाती है तो भक्त मानस पूजा करना आरंभ कर देते हैं ।
498. हमारा मन हमारे शहर में रहे और हमारा शरीर तीर्थ में चला जाए तो यह गलत है । हमारा मन सदैव तीर्थ में रहना चाहिए और शरीर अपने शहर में रहे तो यह श्रेष्ठ है ।
499. सिद्धांत यह है कि हम वहाँ होते हैं जहाँ हमारा मन होता है इसलिए मन से हमें सदैव प्रभु के सानिध्य में रहना चाहिए ।
500. संत और भक्त अपने मन को प्रभु की श्रीलीला स्थली में भेज देते हैं ।
501. संत ध्यान के माध्यम से स्वयं को प्रभु की श्रीलीला में सम्मिलित कर लेते हैं ।
502. रोज ध्यान करना चाहिए कि प्रभु श्री अयोध्याजी के राजभवन में राज सिंहासन पर विराजे हैं और मैं वहाँ प्रभु के सेवक के रूप में उस दरबार में उपस्थित हूँ ।
503. रोज ध्यान करना चाहिए कि प्रभु श्री वृंदावनजी में श्रीलीला कर रहे हैं और मैं गोप बनके प्रभु के साथ उपस्थित हूँ ।
504. सच्चा भक्त प्रभु के चिंतन में ही दिन भर डूबा रहता है ।
505. श्री अक्रूरजी रथ में बैठकर पूरे दिन प्रभु का चिंतन करते हुए यात्रा करते हैं और सूर्यास्त से पहले श्री गोकुलजी पहुँच जाते हैं । इस प्रसंग से सूत्र निकलता है कि हम भी अगर पूरा जीवन प्रभु का चिंतन करें तो जीवन के सूर्यास्त से पहले हम भी प्रभु तक पहुँच जाएंगे ।
506. अगर हमने अपना जीवन भगवत् चिंतन में बिताया है तो जीवन के अंतकाल तक प्रभु के दर्शन संभव हो जाएंगे क्योंकि सभी साधनों का सार प्रभु का चिंतन ही है ।
507. बिना मन का उपयोग किए माला फेरना संभव है, पूजा संभव है, यात्रा संभव है, कथा सुनना संभव है पर बिना मन का उपयोग किए प्रभु का चिंतन संभव नहीं है । इसलिए प्रभु के चिंतन की बहुत बड़ी महत्ता है ।
508. हमें देखना चाहिए कि हमारा मुँह प्रभु का नाम लेने में चल रहा है, हाथों में माला चल रही है पर मन कहीं और चला जाता है । हमें इस मन को ही खींचकर प्रभु के चिंतन में लगाना चाहिए ।
509. कोई भी साधन करते हुए प्रभु का चिंतन नहीं हुआ तो वह साधन गलत है । बिना किसी साधन के प्रभु का चिंतन कर लिया तो वह श्रेष्ठ है । श्रीगोपीजन का मुख्य साधन ही प्रभु चिंतन था । वे शरीर से घर पर काम करती थीं पर उनका मन सदैव प्रभु का चिंतन करता था । श्रीगोपीजन ने कभी माला नहीं फेरी, कभी पूजा नहीं की, कभी कोई अन्य साधन नहीं किया, केवल और केवल जीवन भर प्रभु का निरंतर चिंतन किया ।
510. जीवन में प्रभु को ही चिंतन का एकमात्र विषय बना लेना चाहिए ।
511. श्रीगोपीजन ने अपने सांसारिक कर्तव्य करते हुए भी निरंतर प्रभु का ही चिंतन किया । सूत्र यह है कि भक्त सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए भी निरंतर चिंतन प्रभु का ही करते रहते हैं ।
512. भक्त अपने शरीर को कर्म में लगा देते हैं और सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते रहते हैं पर अपने मन को केवल प्रभु चिंतन में ही लगाते हैं ।
513. प्रभु जीव को नहीं भूले हैं पर जीव ही प्रभु को भूल गया है । हमने प्रभु को याद करना छोड़ दिया है पर प्रभु सदैव हमें याद करते रहते हैं ।
514. जैसे मिश्री के टुकड़े को मुँह में रखें और काम करते रहें तो मिश्री अपने आप मुँह में घुल जाएगी वैसे ही अपने मन और बुद्धि को प्रभु चिंतन में लगाकर रखें और अपना कर्तव्य करते रहें तो मन और बुद्धि मिश्री की तरह अपने आप प्रभु के चिंतन में घुल जाएगी ।
515. भक्ति का भार प्रभु भी सह नहीं सकते इसलिए वे भक्त के प्रेम बंधन में बंध जाते हैं ।
516. जीवन में सदैव श्रीग्रंथों का विचार करना चाहिए और केवल प्रभु से ही प्रेम करना चाहिए ।
517. भक्ति के कारण प्रभु कब जीव से एकरूप हो जाते हैं यह पता भी नहीं चलता ।
518. जीवन के सायंकाल की बेला तक प्रभु से साक्षात्कार निश्चित ही हो जाए, यह लक्ष्य अपने जीवन में लेकर चलना चाहिए ।
519. प्रमाणिकता से श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्री रामचरितमानसजी का चिंतन किया तो प्रभु की अनुभूति जीवन में निश्चित ही संभव हो जाएगी ।
520. भगवती गंगा माता के पूर्ण श्रद्धा और आस्‍था से किए दर्शन मात्र से ही मुक्ति संभव है । भगवती गंगा माता इतनी अलौकिक और विलक्षण हैं ।
521. मन से प्रभु से प्रेम करना, बुद्धि से प्रभु का चिंतन करना, यही भक्ति का स्वरूप है ।
522. श्री अक्रूरजी मार्ग में प्रतिपल प्रभु का चिंतन करते हुए चले । उन्होंने प्रभु को पहले कभी देखा नहीं था पर जो भी प्रभु के बारे में सुना था उसका चिंतन करते हुए चले । इससे सूत्र निकलता है कि हमें भी अपनी जीवन यात्रा में प्रभु का चिंतन यानी जो कुछ हमने प्रभु के बारे में श्रीग्रंथों में वर्णन सुना है उसका चिंतन करते हुए रहना चाहिए ।
523. सभी साधन हमें प्रभु का चिंतन करवाने एवं उसी मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए होते हैं ।
524. प्रभु का स्वरूप, प्रभु की श्रीलीला और प्रभु के साथ हमारा संबंध यह सब हमारे लिए प्रभु चिंतन के हेतु होने चाहिए ।
525. प्रभु के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम - इन पांचों का चिंतन करना चाहिए और अपने मन को इन पांचों के बीच में ही घूमने देना चाहिए ।
526. अनंत कोटी ब्रह्मांड का पोषण करने वाले प्रभु केवल प्रेम भाव के कारण श्रीगोपीजन के माखन को चुराते हैं । एक तरफ तो प्रभु अनंत कोटी ब्रह्मांड के पोषक हैं और दूसरी तरफ प्रभु प्रेम के वश में होकर माखन चोरी की ऐसी श्रीलीला करते हैं ।
527. अनंत कोटी ब्रह्मांड को छाया देने वाले प्रभु को छाया देने का भाग्य श्री वृंदावनजी के वृक्षों को मिला । इसलिए श्री अक्रूरजी उन वृक्षों को प्रणाम करते हैं और कहते हैं कि यह वृक्ष स्‍वर्ग के श्रीकल्पवृक्ष से भी कितने-कितने धन्य हैं ।
528. प्रभु की श्रीलीला स्थली में पहुँचते ही हमेशा साष्टांग दंडवत प्रणाम करना चाहिए क्योंकि उन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज प्राप्त करने का सौभाग्‍य जो मिला है ।
529. तीर्थों में जाते समय तीर्थों के महात्म्य को पढ़कर, सुनकर जाना चाहिए तभी उस तीर्थस्थली के लिए हमारे हृदय में पवित्र भावना का निर्माण होगा ।
530. श्रीमद् भागवतजी महापुराण सुनकर श्रीबृज जाकर आए और बिना सुने हम जाएं तो हमारे भाव में जमीन आसमान का फर्क आएगा । ऐसा इसलिए होगा क्योंकि श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री कृष्णजी की श्रीलीला का गान सुनकर श्रीबृज की महिमा और प्रभु की श्रीलीला स्‍थली की महिमा का हमें पता चलता है ।
531. प्रभु के माहात्म्य का ज्ञान होना भक्ति में बड़ा लाभकारी होता है ।
532. जब कभी भी दक्षिणेश्वर के भगवती काली माता के मंदिर के दर्शन करने जाने का भाग्य मिले तो वहाँ यह भाव आना चाहिए कि यहाँ पर भगवती माता स्वयं श्री रामकृष्णजी परमहंस से नित्य बातें किया करती थीं ।
533. कोई अकेला सिद्ध होकर श्रीबैकुंठजी चला जाए उसमें क्या बड़ाई है । बड़ाई उसमें है कि भक्ति के बल के कारण जहाँ पर साधक भक्ति करता है श्रीबैकुंठजी को चला कर बुला ले ।
534. भक्ति के बल पर संत और भक्त अपनी निवास स्थली को ही श्री बैकुंठजी बना देते हैं ।
535. भक्त हृदय को जहाँ भी बैठा दे उसे वहीं प्रभु की याद आती रहेगी । साधारण संसारी को जहाँ भी बैठा दें उसे वहाँ संसार ही याद आएगा ।
536. प्रभु की कथा हमारे मन को बदलने की तैयारी करती है । वह हमारे मन को संसार से खींचकर प्रभु की तरफ ले जाती है ।
537. भगवत् गुणानुवाद करना भक्ति के साधन का एक मुख्य आलंबन है ।
538. जिन प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की एक धूलि पाने के लिए परमहंस महात्मा अपना पूरा जीवन दांव पर लगा देते हैं और साधन करते हैं, उन्हीं प्रभु ने पूरे बृजमंडल में अपनी श्रीकमलचरण रज को देकर पूरे बृजमंडल को ही मानो धन्य कर दिया ।
539. प्रभु अपनी सारी शक्तियों के साथ ब्रह्मांड के कण-कण में बसे हैं ।
540. भक्ति के कारण अगर हमारी योग्यता सिद्ध हो गई तो हमें प्रभु की अनुभूति सर्वत्र होने लगेगी ।
541. श्री अक्रूरजी ने प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिह्न को देखकर वहाँ की श्रीरज को प्रणाम किया पर फिर भी उनका मन नहीं भरा । तो उन्होंने फिर उस श्रीरज को लेकर अपने मस्तक पर धारण किया पर फिर भी उनका मन नहीं भरा । तो फिर वे वहाँ उस श्रीरज में लोटने लगे ।
542. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री शुकदेवजी प्रभु की श्रीलीला का वर्णन और कथन तो करते ही हैं पर साथ-साथ में जगह-जगह पर भाष्‍य भी करते हैं ।
543. प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि मानव जीवन पाकर अगर जीव का प्रभु से प्रेम जग जाए तो यह मानव जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है ।
544. प्रभु के तीर्थों के दर्शन, प्रभु के मंदिर में प्रभु के स्वरूप के दर्शन, प्रभु की कथा का श्रवण और चिंतन, यह सब होने के बाद अपने घर बैठे ही प्रभु का स्मरण निरंतर होना आरंभ हो जाए तो ही सच्ची उपलब्धि होती है ।
545. सच्चे भक्त अपनी भक्ति दूसरे के ध्यान में नहीं आए इसकी सावधानी रखते हैं और दिखावा नहीं करते । जो ढोंगी भक्‍त होते हैं वे ही अपनी भक्ति का दिखावा सबके सामने करते हैं ।
546. प्रभु के लिए भाव जीवन में जागृत होने देना चाहिए और उसे कभी भी दबाना नहीं चाहिए क्योंकि भाव में बड़ा बल होता है ।
547. प्रभु के लिए जब मन में भाव आए और आंसू आने लगे तो रोना चाहिए । प्रभु के लिए जब भाव आए और नाचने का मन करे तो नाचना चाहिए ।
548. संत श्री रामकृष्णजी परमहंस ने अपने उपदेशों का सार केवल दो ही शब्द में बता दिया । उन्होंने कहा कि भक्ति भावमुखी होनी चाहिए । वे कहते थे कि कभी भी प्रभु के प्रति अपने भाव को त्यागना नहीं चाहिए ।
549. सच्चे भक्त अपने जीवन में कभी भी प्रभु के लिए भाव को खंडित नहीं होने देते ।
550. प्रभु के प्रति जीवन में निरंतर भाव जागृत होता रहे तो ही हम निरंतर प्रभु प्रेम में रम सकते हैं ।
551. प्रभु से हमें कौन-सा संबंध बनाना है यह पूरा हम पर निर्भर करता है । प्रभु ने इसकी पूरी स्वतंत्रता जीव को दे रखी है ।
552. प्रभु के लिए हम विभिन्न भाव रख सकते हैं जैसे पितृ भाव यानी प्रभु हमारे पिता, पुत्र भाव यानी प्रभु हमारे पुत्र, दास भाव यानी हम प्रभु के दास और कांत भाव यानी हम प्रभु की प्रिया । इसके अलावा भी अन्य किसी भी भाव से हम प्रभु से जुड़ सकते हैं ।
553. एक स्त्री का कोई भाई नहीं था और उसने प्रभु श्री गणेशजी को अपना भाई बना लिया । उसके बाद उसके जीवन में कोई भी विघ्न कभी भी नहीं आया ।
554. एक स्त्री प्रभु श्री रामजी, श्री भरतलालजी, श्री लक्ष्मणजी, श्री शत्रुघ्नजी को राखी बांधती थी । वह प्रभु श्री रामजी को भैया कहकर पुकारती थी ।
555. एक महात्मा प्रभु श्री रामजी को अपने शिष्य के रूप में देखने लग गए थे ।
556. हमारे जीवन में जहाँ भी कोई कमी हो, वहीं प्रभु को बैठा देना चाहिए और प्रभु जीवन की उस कमी को परिपूर्ण कर देंगे ।
557. सांसारिक व्यक्ति सांसारिक रिश्तों को भी नहीं निभा पाते पर प्रभु से जुड़े सभी रिश्तों को प्रभु परिपूर्ण रूप से निभाते हैं ।
558. एक संत जिन्हें कोई पुत्र नहीं था उन्होंने जीवन भर प्रभु को पुत्र रूप में माना । जब उन संत का देहांत हुआ तो प्रभु बालरूप लेकर आ गए और उनका अंतिम संस्कार किया । फिर बालरूप लिए हुए प्रभु अदृश्य हो गए और कभी नहीं दिखे । तब उन संत के अनुयायियों ने माना कि वे साक्षात प्रभु ही थे जिन्होंने बालरूप लेकर आकर उन संत का अंतिम संस्कार किया ।
559. शास्त्रों में प्रभु से रिश्ता बनाने के लिए पांच भाव कहे गए हैं पर संतों ने प्रभु से अनेकों भाव से रिश्ता बनाया है । रिश्ता बनाने के लिए संत शास्त्र तक भी नहीं रुके और उससे भी आगे निकल गए ।
560. संत श्री गुलाबरावजी भगवती पार्वती माता को अपनी माता, प्रभु श्री महादेवजी को अपने पिता, प्रभु श्री कृष्णजी को अपना पति और भगवती राधा माँ को अपनी बहन के रूप में मानते थे और चारों की सेवा और पूजा किया करते थे । सूत्र यह है कि एक जीव अपने पति की पत्नी, पिता की बेटी, भाई की बहन, बेटे की माँ हो सकती है । जीव एक ही है पर रिश्ते अनेक निभा सकता है वैसे ही प्रभु के साथ भी हम अलग-अलग रूपों में अलग-अलग रिश्ता बनाकर निभा सकते हैं और इसकी पूरी छूट प्रभु ने हमें दे रखी है ।
561. प्रभु वाणी से मधुर और कुछ भी नहीं है ।
562. जीव को अपने जीवन में यह निश्चय कर लेना चाहिए कि यहाँ तक संसार करना है, इसके आगे संसार नहीं करना और केवल परमार्थ ही करना है ।
563. यह बात जीवन में कभी तो आए कि अब संसार बहुत हो गया और अब हमें संसार की जगह प्रभु चाहिए ।
564. परिवार का उदय, व्यापार का उदय, समाज का उदय हमने बहुत कर लिया अब हमें अपनी आत्मा का उदय करना चाहिए ।
565. बुराइयों के बीच में भी रहकर एक अच्छा जीवन जीना प्रभु को बहुत प्रिय है । प्रभु ने यह बात श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री अक्रूरजी को कही और यही बात श्री रामचरितमानसजी में प्रभु ने श्री विभीषणजी को कही ।
566. कलियुग में सतयुग जैसा आचरण रखने वाला जीव प्रभु को अत्यंत प्रिय होता है ।
567. प्रेम के कोमल बंधन तोड़ना बहुत कठिन होता है इसलिए प्रभु भी अपने भक्त के प्रेम बंधन को कभी भी नहीं तोड़ते ।
568. प्रभु भावुक होकर श्री अक्रूरजी से कहते हैं कि मैं मथुरा तो चला जाऊँगा पर पीछे से मेरी यशोदा माता और गोपियों का क्या हाल होगा क्योंकि उनका जो प्रेम बंधन है उसे मैं भी नहीं तोड़ सकता ।
569. प्रभु से इतना प्रेम जीवन में निर्माण हो जाए जैसा कि हम भक्तों के जीवन चरित्र में देखते हैं तो ही हमारे जीवन की धन्यता है ।
570. श्रीगोपीजन के जीवन में प्रभु के लिए इतना प्रेम निर्माण हो गया था और फिर भी उन्हें प्रभु से वियोग मिला, तब भी उन्होंने उस वियोग के लिए प्रभु को उलाहना नहीं दी । वे प्रभु से निश्छल और सच्‍चा प्रेम करती थीं इसलिए प्रभु के विधान से उनको कभी भी कोई शिकायत नहीं थीं ।
571. प्रभु का वियोग श्रीगोपीजन के लिए जीवन-मरण का प्रश्न हो गया था क्योंकि प्रभु ही उनके जीवनधन थे ।
572. प्रभु श्रीगोपीजन के प्रकाश स्वरूप थे और प्रभु के श्री मथुराजी जाने के बाद श्रीबृज में सब कुछ अंधकारमय हो गया । सूत्र यह है कि प्रभु जिसके जीवन से चले जाते हैं तो उसके जीवन में फिर अंधेरा-ही-अंधेरा छा जाता है ।
573. प्रभु को श्री कृष्णावतार में श्री मथुराजी के लिए सुबह जाना था पर श्रीगोपीजन ने रात्रि में ही नंदभवन को घेर लिया कि प्रभु कहीं रात्रि में ही न चले जाएं क्योंकि श्री रामावतार में रात्रि में सोए हुए अयोध्यावासियों को छोड़कर प्रभु को प्रेम में विवश होकर रात्रि बेला में ही चले जाना पड़ा था ।
574. रातभर ऐसा सोचने के कारण कि प्रभु से वियोग होगा और निरंतर रोने के कारण श्रीगोपीजन की आँखों में सूजन आ गई थी ।
575. प्रभु ने श्रीगोपीजन से कहा कि मैं चार दिनों में लौट आऊँगा पर श्रीगोपीजन बोलीं कि हमारे लिए एक-एक क्षण भी एक-एक युग के समान है ।
576. प्रभु श्री शुकदेवजी ने श्रीगोपीजन के रुदन का वर्णन करते हुए कहा कि श्रीगोपीजन के नेत्रों से मानो वर्षा ऋतु ही जैसे बह निकली हो ।
577. इतनी व्याकुलता होने पर भी एक भी श्रीगोपीजन ने नहीं कहा कि प्रभु आप मत जाओ क्योंकि उनका प्रभु से जो प्रेम था वह स्वार्थहीन और कामनारहित था । प्रभु के लिए प्रेम में कामना और स्वार्थ न होना सबसे बड़ी बात होती है ।
578. अपने सुख की कामना के लिए प्रभु से किया प्रेम, प्रेम नहीं हुआ । प्रभु की खुशी के लिए प्रेम होना, यह सच्चा प्रेम है और ऐसा ही प्रेम श्रीगोपीजन ने प्रभु से किया ।
579. बात वही होनी चाहिए जो प्रभु करना चाहें, हमारा निर्णय और हमारी इच्छा प्रभु पर कभी भी थोपना नहीं चाहिए - यह गोपीभाव है ।
580. प्रभु ने जाते वक्त अपनी बांसुरी भगवती राधा माता को दे दी । इस प्रसंग से संतों ने सूत्र निकाला कि प्रभु की बांसुरी केवल भगवती राधा माता के लिए ही बजती थी ।
581. सच्चे प्रभु प्रेमी के लिए प्रभु की आशा कभी नहीं छूटती । इसलिए जब प्रभु का रथ श्री मथुराजी के लिए रवाना हुआ और रथ दृष्टि से ओझल हो गया और रथ से उड़ने वाली धूलि भी बैठ गई तब भी श्रीगोपीजन वहीं खड़ी रहीं इस उम्मीद में कि प्रभु वापस आ जाएंगे ।
582. श्रीगोपीजन अपने घर को सिर्फ इसलिए सजाती थीं कि प्रभु उनके घर में आएंगे । वे रसोई सिर्फ इसलिए बनाती थीं कि प्रभु उनसे आकर पूछेंगे कि क्या खिलाओगी । वे गौ-माता की सेवा आनंद से करती थीं सिर्फ इसलिए कि प्रभु के लिए बढ़िया से बढ़िया दूध और उसमें से माखन निकाल पाएं । श्रीगोपीजन खुद सजती थीं केवल इसलिए कि वे प्रभु को अच्छी लगें । सूत्र यह है कि जीवन का हर व्यवहार प्रभु के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए होना चाहिए ।
583. भक्ति कभी हो और कभी नहीं हो, ऐसा नहीं होता । भक्ति होगी तो पूरी तरह से होगी और निरंतर जीवन में बढ़ती ही चली जाएगी ।
584. जीवन के केंद्र में प्रभु को ले आएँ तो जीवन की हर क्रिया अपने आप ही प्रभु के लिए होने लगेगी ।
585. मृत्यु के समाचार से प्रभु को कष्ट नहीं हो इसलिए श्रीगोपीजन ने प्रभु के भारी वियोग को भी सहा पर आत्मदाह नहीं किया ।
586. प्रभु को मेरे किसी भी व्यवहार से कष्ट नहीं हो ऐसा भक्त निरंतर जीवन में सोचता रहता है । प्रभु को हमारी हर क्रिया से प्रसन्नता हो, कष्ट नहीं हो, यही सच्ची भक्ति भी है ।
587. भक्तों के लिए प्रभु का नाम और प्रभु की श्रीलीला ही जीवन धारण करने के दो मुख्य आधार बन जाते हैं । सारे बृजवासियों ने प्रभु के जाने के बाद यही किया । वे प्रभु का नाम लेते रहे और प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करते रहे ।
588. प्रभु के लिए अत्यंत बढ़ती हुई प्यास का नाम ही भक्ति है ।
589. प्रभु के सानिध्य में जीवन का समाधान भी है और जीवन का परमानंद भी है ।
590. अपने मन को पूर्ण पवित्र करके मनरूपी श्रीगंगाजी को प्रभुरूपी महासागर में मिलाने का नाम ही भक्ति है ।
591. पूरी श्रीबृज भूमि ही प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम से भरी हुई है, ऐसा संतों का आज भी अनुभव है ।
592. बृजवासी मानते ही नहीं कि प्रभु श्री बैकुंठजी में हैं । उनकी मान्यता है कि प्रभु का नित्य निवास श्रीबृज में ही है ।
593. प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करने वाले को प्रभु सानिध्य का और उसके कारण मिलने वाली शांति का अनुभव धीरे-धीरे होने लगता है ।
594. भगवती राधा माता को प्रभु ने जाते वक्त कहा कि मैं प्रतिमाह एक बार अवश्य आऊँगा पर प्रभु ने मास की तिथि नहीं बताई कि वे कब आएंगे । इस कारण माता रोजाना प्रभु का इंतजार करती रहीं । इसी तरह भगवती शबरीजी को उनके गुरुजी ने यह नहीं बताया था कि प्रभु कब आएंगे और किस दिशा से आएंगे । तिथि और दिशा नहीं बताने के कारण उन्होंने हर दिशा से हर दिन प्रभु की प्रतीक्षा की ।
595. परा भक्ति का साधन करते वक्त एक वक्त जीवन में ऐसा आ जाना चाहिए कि बोलना बंद, तीर्थ बंद, श्रवण बंद यानी सब कुछ बंद हो जाना चाहिए और प्रभु की अनुभूति अपने भीतर ही हो जानी चाहिए ।
596. भक्ति का भाव प्रभु को अत्यंत प्रिय है । यह भक्ति का भाव जीवन में जागृत हो जाए तो परम स्वतंत्र प्रभु भी जीव से बंध जाते हैं और उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं पाते ।
597. श्रीगोपीजन ने प्रभु के चले जाने के बाद से अंत तक यही किया कि वे प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करती रहीं । आज भी श्रीबृज में जो संत श्री गोपीभाव से रहते हैं वे यही करते हैं ।
598. भक्ति को सभी संतों और शास्त्रों ने प्रभु प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन बताया है ।
599. पूरे ब्रह्मांड के मूल बीज और मूल स्त्रोत प्रभु ही हैं ।
600. भक्ति प्राप्त करने के बाद जीवन में अन्य कुछ भी पाने योग्य बचता ही नहीं ।
601. श्री अक्रूरजी धन्यता का अनुभव करते हैं कि जिन्हें वे लेने जा रहे हैं वे संपूर्ण ब्रह्मांड के नायक हैं । इस प्रसंग से सूत्र निकलता है कि हमें भी धन्यता का अनुभव होना चाहिए कि जिन प्रभु की हम सेवा करते हैं वे संपूर्ण ब्रह्मांड के नायक हैं ।
602. प्रभु भक्ति में बंध जाते हैं और निकल नहीं पाते, यह प्रभु का स्वभाव है ।
603. प्रभु का भक्त जीवन में कभी भी असावधान नहीं होता क्योंकि उसे पता होता है कि भक्ति मार्ग में कभी भी पथभ्रष्ट होने की स्थिति आ सकती है ।
604. भारतवर्ष पूरे संसार का विश्वगुरु रहा है । विश्व पटल पर अध्यात्म की जो भी रोशनी जब भी आई है वह सदैव भारत से ही आई है ।
605. प्रभु श्री कृष्णजी श्रृंगार के शौकीन हैं । श्री कृष्णावतार में प्रभु ने जब श्री मथुराजी आने पर धोबी से कपड़े लिए तो वे सीधे दर्जी के पास गए और उन कपड़ों को रंग-बिरंगे रूप में सजा कर अपने लिए तैयार करवाए ।
606. प्रभु श्री कृष्णजी को प्रकृति भी बहुत प्रिय है । इसलिए प्रभु को फूलों का श्रृंगार बहुत अच्छा लगता है ।
607. प्रभु की शक्ति से घबराकर सभी प्रभु के अनुकूल व्यवहार करते हैं ।
608. प्रभु श्री नारायणजी को ऐश्वर्य प्रिय हैं इसलिए वे ऐश्वर्य प्रधान हैं । प्रभु श्री कृष्णजी को माधुर्य प्रिय हैं इसलिए वे माधुर्य प्रधान हैं । प्रभु श्री रामजी को मर्यादा प्रिय हैं इसलिए वे मर्यादा प्रधान हैं ।
609. मानव जीवन के सारे आयाम प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी की श्रीलीलाओं में देखने को मिलेंगे ।
610. प्रभु के सभी अवतारों में प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी ही पूर्णावतार हैं ।
611. श्री कृष्णावतार में कुब्जा ने प्रभु को सुंदर सजाया तो प्रभु ने कुब्जा को, जो कि पांच जगह से टेढ़ी थी, उसे क्षणभर में ठीक कर दिया । इस प्रसंग से सूत्र निकलता है कि जिसने एक दिन के लिए भी प्रभु को सुंदर सजा दिया प्रभु उसको जीवन भर के लिए सुंदर बना देते हैं क्योंकि प्रभु सोचते हैं कि अगर ऐसा नहीं किया तो प्रभु की प्रभुता कैसी ।
612. प्रभु का स्वभाव है कि कोई भी प्रभु के लिए थोड़ा-सा भी करता है तो प्रभु को लगता है कि इसने मेरे लिए कितना कर दिया ।
613. एक छोटा-सा कार्य प्रभु के लिए अगर हम कर देते हैं तो प्रभु उससे ही पूर्ण संतुष्ट हो जाते हैं ।
614. हम किसी पर किए उपकार को जीवन भर याद रखते हैं पर प्रभु अपने भक्तों पर किए उपकार को कभी भी याद नहीं रखते और इसलिए निरंतर उपकार करते ही रहते हैं ।
615. प्रभु के लिए किया गया छोटा-सा कर्म या खर्च प्रभु बहुत गुना बढ़ाकर वापस लौटाते हैं क्योंकि प्रभु लौटाए बिना नहीं रह सकते, यह प्रभु का स्वभाव है ।
616. धर्म करने से यानी यज्ञ, कर्मकांड, दान, पूजा-अर्चना करने से सुख मिलता है पर भक्ति करने से परमानंद मिलता है ।
617. रोज प्रभु की पूजा करने से, रोज प्रभु का श्रृंगार करने से, रोज प्रभु का भजन करने से प्रभु उस जीव की बुद्धि सदैव के लिए शुद्ध कर देते हैं ।
618. हमारी बुद्धि प्रभु सेवा में लग जाए तो बुद्धि के सारे विकार स्वतः ही खत्म हो जाते हैं ।
619. जीवन में प्रभु से प्रेम हो जाता है तो प्रभु के बारे में यानी अपने प्रेमी के बारे में सुनना अच्छा लगता है । फिर प्रभु के बारे में श्रवण जीवन में आरंभ हो जाता है ।
620. संत कहते हैं कि प्रभु का श्रृंगार करने में जो रस लेना सीख जाता है वह संसार सागर से तर जाता है ।
621. प्रभु का श्रृंगार करते-करते प्रभु की आकृति हृदय में बैठ जाती है ।
622. मन को प्रभु के स्वरूप में लगाने से मन प्रभु आकार का बनकर ही रहेगा ।
623. हम प्रभु का श्रृंगार करते हैं तो प्रभु की शक्तियां हमारे हृदय को परिवर्तित कर देती हैं ।
624. श्रीबृज में प्रभु का श्री लड्डूगोपालजी के रूप का श्रृंगार करते-करते कितने ही नास्तिक आस्तिक बन गए ।
625. प्रभु श्री रामजी एवं प्रभु श्री कृष्णजी के हर व्यवहार में कुशल नेतृत्व दिखाई देता है ।
626. प्रभु सरल और सुंदर हैं पर परम पराक्रमी भी हैं ।
627. प्रभु के सभी सद्गुण प्रभु की श्रीलीलाओं में देखने को मिलते हैं ।
628. प्रभु श्री कृष्णजी के एक-एक श्रीअंग में इतना माधुर्य है कि प्रभु ने श्री मथुराजी आगमन पर पहले ही दिन मथुरावासियों के मन को जीत लिया ।
629. कंस को प्रभु से डर के कारण नींद नहीं आती थी, थोड़ी बहुत आती भी थी तो भी स्वप्न में प्रभु ही दिखते थे । सूत्र यह है कि कंस ने अपनी अंतिम रात्रि तक प्रभु का अनुसंधान किया और इसलिए प्रभु का अनुसंधान करने के कारण उसका कल्याण हो गया ।
630. जीव को भी अपने जीवन की हर रात्रि को अंतिम मानकर उसको प्रभु के अनुसंधान में ही बिताना चाहिए ।
631. जीव किसी भी निमित्त से प्रभु को याद करता है पर याद करता है, इतना देखकर ही प्रभु उसका उद्धार कर देते हैं क्योंकि प्रभु इतने कृपालु और दयालु जो हैं ।
632. जीवन में कहीं भी रहें कभी भी शक्ति यानी भगवती माताजी की आराधना नहीं छोड़नी चाहिए । भगवती माताजी की आराधना हमें मनोबल, शक्तिबल और धनबल प्रदान करती है ।
633. संत मानते हैं कि श्रीमद् भगवद् गीताजी का सर्वोत्तम भाष्य प्रभु श्री कृष्णजी का जीवन देखकर ही मिलता है । प्रभु श्री कृष्णजी का जीवन ही श्रीमद् भगवद् गीताजी का सर्वोत्तम भाष्‍य है क्योंकि प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीता माता को अपने जीवन में उतारकर दिखाया है ।
634. कंस की राज्यसभा में वहाँ उपस्थित महिलाओं को प्रभु कामदेव लगे, पुरुषों को प्रभु पुरुषोत्तम लगे, कंस को प्रभु अपना काल लगे । सूत्र यह है कि प्रभु को जो जिस भावना से देखता है उसी भावना में प्रभु उसे दिखाई देते हैं ।
635. प्रभु सभी कलाओं में सिद्ध हैं यानी समस्त कलाओं के आदिगुरु प्रभु ही हैं ।
636. सारे ज्ञान और सारी कलाओं के प्रथम गुरु प्रभु ही हैं क्योंकि सारे ज्ञान और सारी कलाओं का उद्गम प्रभु से ही हुआ है ।
637. प्रभु को पाना है तो हमें जीवन के विकारों से दूर रहना पड़ेगा ।
638. शांति जीवन का सबसे बड़ा बल है । जिसने किसी भी अवस्था में शांत रहना सीख लिया वह अंत में जीतेगा । प्रभु शांतमूर्ति हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री रामजी ने धनुषयज्ञ में कितनी शांति से धनुष उठाया जबकि अन्य सभी राजा अपनी भुजाओं को ठोकते हुए और अपना बल दिखाते हुए आए और पराजित होकर वापस गए । प्रभु श्री रामजी परम शांति से आए और उन्होंने धनुष को उठा लिया ।
639. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने स्थितप्रज्ञ जीव की व्याख्या की है और प्रभु ने कहा है कि जिसकी बुद्धि स्थिर है उस व्यक्ति को हराना जीवन में बहुत कठिन होता है ।
640. प्रभु इतने वेगवान हैं कि कंस ने पलक झपकते ही देखा कि प्रभु मंच के नीचे हैं और अगली पलक झपकने पर प्रभु को मंच से छलांग लगाकर अपने सिंहासन के पास पहुँचा देखा । इतना अतुल्य वेग है प्रभु में ।
641. श्री मथुराजी के लोगों को लगा कि कंस के आतंक के कारण उनके जीवन में अंधकार से मुक्ति कभी संभव नहीं है पर प्रभु ने श्री मथुराजी पहुँचने के दूसरे दिन ही श्री मथुराजी को आतंक से मुक्त करा दिया । सिद्धांत यह है कि प्रभु के समक्ष किसी भी प्रकार का आतंक टिक ही नहीं सकता ।
642. धर्म का पालन करने वालों का और जीवन में नियमों का पालन करने वालों के साथ प्रभु होते हैं ।
643. परिवार, समाज और देश में देश सबसे पहले होता है । दूसरे पायदान पर समाज होता है और तीसरे पायदान पर परिवार होता है । हमारी भूल यह होती है कि हम पहले अपने परिवार को देखते हैं फिर देश के बारे में सोचते हैं । भारत माता सदैव हमारे जीवन में सर्वस्व और सर्वोपरि होनी चाहिए ।
644. भारतवर्ष के हर नागरिक को अध्यात्म की दृष्टि से विश्व के सर्वोत्तम राष्ट्र के नागरिक होने का गौरव प्राप्त है ।
645. प्रभु ने कंस और उसके आठ भाइयों को मारकर यानी अपने सभी मामाओं को मारकर सबसे पहले अपनी मामियों से मिलने गए और उन्हें सुरक्षा और सम्मान का आश्वासन दिया । यह प्रभु की कितनी बड़ी उदारता है ।
646. प्रभु ने श्री मथुराजी पहुँचकर अपने कर्म से अपने पिता को गौरव और अपनी माता को सुख दिया ।
647. अच्छी परंपराओं का सदैव संरक्षण होना चाहिए । कभी भी किसी अच्छी परंपरा को जीवन में तोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि उत्तम परंपरा का नाश होने से राष्ट्र की संस्कृति का नाश होता है ।
648. जिन्होंने ब्रह्म को जान लिया उनके लिए ब्रह्मसूत्र यानी जनेऊ का महत्व गौण हो जाता है ।
649. प्रभु ने अपने अवतार काल में दिखाया कि महापुरुष कभी भी परंपराओं से खिलवाड़ नहीं करते अपितु सदैव उनकी रक्षा करते हैं ।
650. प्रभु श्री कृष्णजी अपने जीवन में बिना किसी पद को ग्रहण किए सारे कर्म जीवन भर करते रहे ।
651. प्रभु श्री कृष्णजी ने और प्रभु श्री रामजी ने कितने सिंहासन पलटे पर एक भी सिंहासन को ग्रहण नहीं किया ।
652. प्रभु श्री कृष्णजी अपने अवतार काल के जीवन से बताते हैं कि हमें कर्म करना चाहिए और फल प्राप्त करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए ।
653. अपने स्वार्थ के लिए यानी संपत्ति कमाने और परिवार पालने के लिए काम करने वाले बहुत लोग मिल जाएंगे पर निस्वार्थ कर्म करने वाला कोई बिरला ही मिलेगा ।
654. प्रभु श्री हनुमानजी राजा नहीं, मंत्री नहीं, उनके पास कोई भी पद नहीं पर उनके बिना श्री रामायणजी में एक पत्ता भी नहीं हिलता । यह सच्चा निस्वार्थ कर्मयोग है ।
655. प्रभु श्री कृष्णजी न तो राजा, न राजकुमार, न सेनापति पर श्री महाभारतजी में उनके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता । प्रभु श्री कृष्णजी के पास एक भी पद नहीं पर उनका जीवन इस सिद्धांत पर है कि जीवन में कुछ भी न चाहो और पूरी तरह जीवन में सेवा करते हुए सबके काम आ जाओ ।
656. प्रभु श्री कृष्णजी एक भी पद नहीं लेते हैं और मर्यादा से पूरा कर्म करते हैं और पूरी शक्ति लगाकर करते हैं ।
657. प्रभु श्री रामजी के अवतार की श्रीलीला का अनुसरण करना चाहिए और उससे शिक्षा लेनी चाहिए ।
658. प्रभु श्री कृष्णजी के अवतार की श्रीलीला का आनंद लेना चाहिए ।
659. प्रभु के सद्गुणों में से हम अपने जीवन में क्या-क्या उतार सकते हैं यह हमें देखना चाहिए ।
660. जीवन में अपने मन, कर्म और वचन को प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । हमारा मन प्रभु में सदा रमें, हमारे कर्म प्रभु जैसे हों और हमारे वचनों से सदा प्रभु का गुणानुवाद होता रहे ।
661. प्रभु की श्रीलीला के सभी चरित्रों से हमें शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
662. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कर्मयोग का केवल उपदेश ही नहीं दिया अपितु उसको जीवनभर अपने श्रीलीला काल में पूर्ण रूप से निभा कर दिखाया भी है ।
663. प्रभु श्री कृष्णजी जहाँ भी गए वहाँ उन्होंने क्रांति लाई ।
664. प्रभु के साथ जिस जीव का प्रेम हो जाता है तो उस जीव के साथ सारे संबंधों का निर्वाह प्रभु करते हैं ।
665. शास्त्र कहते हैं कि किसी जीव का अन्य किसी जीव के साथ कोई स्थाई संबंध कभी नहीं हो सकता । सबका प्रभु के साथ ही स्थाई संबंध होता है ।
666. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के श्रीवचन सुनने के बाद एकमात्र विश्वास प्रभु के शब्दों का ही होना चाहिए ।
667. प्रभु के अवतार काल का पूरा जीवन लोकमंगल का आदर्श है ।
668. यह श्रीवेदों का सूत्र है कि मूलतः सबके आदिगुरु प्रभु ही हैं ।
669. शिष्य का उद्धार गुरु के ज्ञान से ज्यादा गुरुतत्व करता है । प्रभु सभी के आदिगुरु हैं इसलिए सांसारिक गुरु के द्वारा भी प्रभु का गुरुतत्व ही सबका उद्धार करता है ।
670. सारा-का-सारा ज्ञान प्रभु से ही प्रकट होता है ।
671. जीवन में सारी-की-सारी कृपा प्रभु से ही मिलती है ।
672. हमारे गुरु के गुरु के गुरु के गुरु के गुरु के गुरु ऐसा खोजते जाएंगे तो अंत में गुरु परंपरा में अंतिम गुरु प्रभु ही मिलेंगे । इसलिए ही प्रभु को आदिगुरु कहा गया है ।
673. संसार के हर शास्त्र का हर ज्ञान भक्तों और संतों को स्वतः ही उपलब्ध हो जाता है ।
674. प्रभु की भक्ति हमारे लिए जीवन में अनिवार्य हो जानी चाहिए ।
675. प्रभु के आशीर्वाद का बल जीवन में सबसे बड़ा बल होता है ।
676. प्रभु से बड़ा जीव का शुभचिंतक और कोई नहीं होता है ।
677. जैसे घास काट कर मैदान साफ कर दिया पर फिर एक वर्षा आई तो नई घास उग जाती है वैसे ही जीवन में अनुकूलता की वर्षा आते ही वासनाओं की नई घास उग जाती है । इसलिए जीवन में निरंतर भक्ति करते रहना चाहिए तभी नई वासनाएं जन्म नहीं लेंगी ।
678. प्रभु अपने श्रीलीला काल में अपने शत्रुओं के मन में भी अपने लिए प्रेम निर्माण कर देते हैं ।
679. हमें भी जीवन में प्रभु तक पहुँचने के लिए आतुरता दिखानी चाहिए ।
680. जो जीवन में संतोष की आराधना करते हैं वे ही धन्य होते हैं । राज सिंहासन पर बैठकर भी अगर कोई संतोषी नहीं हुआ तो वह दुःखी रहेगा और झोपड़ी में रहकर भी कोई संतोषी हो गया तो वह धन्य हो जाएगा । इसलिए ही संतोष को शास्त्रों ने सबसे बड़ा धन माना है ।
681. प्रभु कहते हैं कि जो संत हैं, जिनका जीवन और व्यवहार सज्जनता से भरा हुआ है और जो सबसे ज्यादा संतोषी हैं वे ही प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय हैं ।
682. जीवन में सबके प्रति लोक कल्याण की भावना होनी चाहिए ।
683. सबका भला चाहने वाला प्रभु को प्रिय होता है ।
684. जिसमें अहंकार का लेश मात्र भी नहीं है और जो शांत चित्त है, प्रभु कहते हैं कि ऐसे संत मेरे लिए वंदनीय हैं ।
685. अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला साधक प्रभु को प्रिय होता है ।
686. भगवती रुक्मिणी माता साक्षात भगवती लक्ष्मी माता का अवतार हैं । इसलिए यह मान्यता है कि भगवती रुक्मिणी माता की सेवा पूजा करने से धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है ।
687. भगवती राधा माता आनंद प्रधान हैं और भगवती रुक्मिणी माता वैभव प्रधान हैं ।
688. अच्छा और मनोवांछित पति पाने के लिए भगवती पार्वती माता की पूजा अनिवार्य मानी गई है । भगवती जानकी माता ने प्रभु श्री रामजी को पाने के लिए और भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु श्री कृष्णजी को पाने के लिए ऐसा किया । सिद्धांत यह है कि आज भी इच्छित पति पाने के लिए भगवती पार्वती माता की आराधना कन्याओं को करनी चाहिए ।
689. भगवती रुक्मिणी माता का प्रभु को लिखा पत्र शरणागति का पत्र था इसलिए प्रभु अपने आपको रोक नहीं पाए । इससे सूत्र मिलता है शरणागति की पुकार पर प्रभु तत्काल दौड़ते हैं ।
690. हमारा मन अन्य पदार्थों के सौंदर्य में अटका हुआ रहता है जबकि सारे त्रिलोकी में प्रभु से सुंदर कोई भी नहीं है । सूत्र यह है कि संपूर्ण शरणागति तब होती है जब सारे ब्रह्मांड में हमें प्रभु सबसे सुंदर लगने लग जाएं ।
691. जीवन में कभी ऐसा समय आ जाए जब सब धर्म और कर्तव्य छूट जाए और हमारा सारा-का-सारा ध्यान प्रभु में लग जाए । ऐसा होने पर शास्त्रों ने इसे परमधर्म कहा है ।
692. प्रभु हमें इतने सुंदर लगने चाहिए जिससे सुंदर अन्य कोई भी जीवन में कभी नहीं लगे ।
693. प्रभु हमें जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगने चाहिए ।
694. उसी का जीवन धन्य होता है जिसे प्रभु से सुंदर भी कोई नहीं लगे और प्रभु से महत्वपूर्ण भी कोई नहीं लगे । सभी भक्तों ने अपने जीवन में ऐसा ही अनुभव किया है ।
695. संसार का रूप देखकर जिसे सुख मिलता है उसकी भक्ति अभी शुरू भी नहीं हुई है ।
696. प्रभु से महत्वपूर्ण इस ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है । इसलिए प्रभु की खोज में ही हमें अपने जीवन को लगाना चाहिए ।
697. जीवन में इस भाव का निर्माण होना चाहिए कि सिर्फ प्रभु ही हमारे अपने हैं ।
698. भगवती रुक्मिणी माता के मन में प्रभु के लिए प्रेम भाव का निर्माण इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने प्रभु के रूप और सद्गुणों के बारे में सुना था । इसलिए सूत्र के रूप में यह मानना चाहिए कि प्रभु के बारे में श्रवण करते रहने से प्रभु के लिए प्रेम निर्माण होता है ।
699. भक्ति का आरंभ ही प्रभु के बारे में श्रवण से होना चाहिए ।
700. संत श्री तुकारामजी कहते हैं कि प्रभु कथा का श्रवण ही भक्ति का मार्ग है । उन्होंने यह नहीं कहा कि प्रभु कथा का श्रवण भी भक्ति का एक मार्ग है बल्कि उन्होंने कहा कि प्रभु कथा का श्रवण ही भक्ति का मार्ग है ।
701. प्रभु की कथा प्रभु के लिए हमारे भीतर भक्ति भाव को जागृत करती है ।
702. प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है कि कोई ज्ञान मार्ग से, ध्यान मार्ग से, कर्मकांड मार्ग से प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करता है तो इसमें संदेह हो सकता है । पर भक्ति मार्ग से जो प्रभु के पास पहुँचने का प्रयास करता है वह पहुँचता भी है और वह सदैव के लिए तर भी जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
703. श्रवण के बहुत सारे आयाम हैं । हमें प्रभु के सद्गुणों का श्रवण, प्रभु के नाम की महिमा का श्रवण, प्रभु के रूप माधुर्य का श्रवण, प्रभु की श्रीलीला का श्रवण और प्रभु की श्रीलीला स्थली के बारे में श्रवण करना चाहिए ।
704. हमारी आँखों के लिए सबसे मीठा फल यही है कि उन्हें सदैव प्रभु के रूप का दर्शन होते रहना चाहिए ।
705. प्रभु के सद्गुणों का श्रवण करने से हमें प्रभु के प्रभाव के साथ-साथ प्रभु के स्वभाव का भी भान होता है । ऐसा होने पर प्रभु के लिए हमारे जीवन में प्रेम का निर्माण होता है ।
706. प्रभु के प्रभाव का भान होने से ही हमें ज्ञात होता है कि प्रभु अखंड विश्व के नियंता हैं, परम ज्ञानी हैं, परम धैर्यवान हैं, परम कृपालु हैं, परम धनवान हैं, परम दयावान हैं और ऐसा होने के बावजूद भी सदैव अपने भक्तों के लिए उपलब्ध रहते हैं ।
707. प्रभु के प्रभाव जैसे प्रभु ने श्री गिरिराजजी को उठाया, कालिया के फन पर नाचे, इतने असुरों को मारा, यह सब जानकर कि इतने ऐश्वर्यवान प्रभु ने भगवती शबरीजी के जूठे बेर खाए, श्रीगोपीजन के माखन को चुराया और इस तरह भक्त के लिए इतने सुलभ हो गए, यह जानना कितना सुखदायक है ।
708. प्रभु के बारे में श्रवण किया हो और प्रभावित नहीं हुआ हो ऐसा कोई भी आज तक जन्मा ही नहीं ।
709. एक संत को प्रभु के सद्गुणों को बयान करने वाले केवल तीन श्लोक ही आते थे । उन्होंने जीवन भर उन्हीं तीन श्लोकों का कीर्तन किया और केवल उन्हीं का कीर्तन करते-करते वे तर गए ।
710. भक्तों के शब्दों में उनकी भक्ति का अनुभव होता है और प्रभु के लिए निष्ठा होती है इसलिए भक्तों के शब्द हमारे हृदय के भीतर तक पहुँच जाते हैं ।
711. भक्तों और संतों के शब्द उनके हृदय से निकल कर आते हैं तभी तो वे दूसरे के हृदय तक पहुँच पाते हैं ।
712. प्रभु का गुणानुवाद जो जितना भी सुनता है उसके ताप और पाप उतने ही नष्ट होते जाते हैं और चित्त शांत हो जाता है ।
713. प्रभु का गुणगान करने वाली कथा को साधक जीवन भर सुनते रहते हैं क्योंकि प्रभु कथा उनके भीतर भक्ति जागृत कर उनका प्रभु से मिलन कराती है जिसके लिए जीव जन्म-जन्म से तड़प रहा है ।
714. भक्त प्रभु मिलन के लिए सब कुछ का त्याग कर देते हैं, यहाँ तक कि प्रभु प्रेम पाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं ।
715. श्रवण करते-करते एक अवस्था ऐसी आती है कि भगवत् प्रेम बहुत वेग से हमारे हृदय में उमड़ता है और मन उस अवस्था में पहुँच जाता है कि अब वह प्रभु को छोड़ ही नहीं सकता ।
716. वह जीव धन्य हो जाता है जब प्रभु भक्तिभाव के कारण उसका वरण करना चाहते हैं ।
717. ऐसा कौन है जो प्रभु के सद्गुणों के बारे में सुनने के बाद भी प्रभु का नहीं बनना चाहेगा ।
718. प्रभु और जीव का स्वरूप एक ही है । जैसे एक कलश में भगवती गंगा माता का जल हो तो उस कलश के जल का गुणधर्म और पवित्रता वही होगी जो भगवती गंगा माता के जल की है, इसी प्रकार प्रभु सच्चिदानंद हैं और जीव भी सच्चिदानंद स्वरूप है पर दुर्भाग्य यह है कि जीव संसार में फंस गया है और अपने सच्चिदानंद स्वरूप को भूल गया है ।
719. सागर में उठने वाली लहर भिन्न दिखने पर भी सागर स्‍वरूप होती है वैसे ही हम प्रभु से सजातीय हैं, विजातीय नहीं ।
720. भगवती रुक्मिणी माता सदैव प्रार्थना करती थीं कि मैं प्रभु से मिलना चाहती हूँ, प्रभु की होकर रहना चाहती हूँ । हमें भी ऐसी प्रार्थना जीवन में करनी चाहिए ।
721. श्रीगौरीशंकर, श्रीराधाकृष्ण, श्रीसीताराम बिलकुल समान हैं । संत तो यहाँ तक कहते हैं कि पहले जाँच कर तो देखें कि यह दो हैं भी क्या ।
722. हम प्रभु से ही सजातीय हैं । इसलिए हमें वरण प्रभु का ही करना चाहिए और अंत में करना पड़ेगा क्योंकि सजातीय से ही मिलना होता है ।
723. जीवात्मा का प्रभु मिलन में सबसे बड़ा शत्रु यह है कि वह यह मान लेता है कि मैं प्रभु का नहीं, संसार का हूँ ।
724. सारे श्रीग्रंथों में एक ही बात कही गई है कि जीव परमात्मा तत्व है । हमें इस भाव को अपने हृदय में जागृत करके रखना चाहिए कि हम केवल प्रभु के ही हैं ।
725. अखंड आनंद की अभिलाषा रखने वाले हर जीव को संसार का मन से त्याग करना ही पड़ेगा ।
726. शरीर संसार के लिए है और आत्मा परमात्मा के लिए है । इसलिए शरीर जन्म लेता है, उसमें विकृति आती है और फिर वह खत्म हो जाता है । शरीर संसार के लिए है इसलिए शरीर का अंत संसार में ही हो जाता है ।
727. शब्द, स्पर्श, रूप, रंग और गंध इन पांच बच्चों का पालन हम करते हैं इसलिए हम शिशुपाल हैं । इन पांच शिशुओं का पालन करने के कारण हम संसार के शब्द, स्पर्श, रूप, रंग और गंध में फंसे हुए हैं । इसलिए हमें प्रभु से भगवती रुक्मिणी माता की भूमिका में आकर प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें इन शिशुपालों के हाथों में जाने से बचाएं ।
728. हमारे कान प्रभु की कथा श्रवण के अलावा बहुत कुछ सुनना चाहते हैं । हमारे हाथ प्रभु के श्रीकमलचरणों के सेवा के अलावा अन्य बहुत सारी चीजों का स्‍पर्श करना चाहते हैं । हमारी आँखें प्रभु रूप के अलावा अन्य बहुत सारी चीजें देखने के लिए लालायित रहती हैं । इन सबको हमें रोकना पड़ेगा और इन सबको केवल प्रभु में ही लगाना पड़ेगा ।
729. संसार के सारे विषय जीवात्मा को अपनी ओर खींचते हैं । जीव को इन सांसारिक विषयों से जीवन में बचना चाहिए और इसके लिए भक्ति ही एकमात्र उपाय है ।
730. संतों ने मानव शरीर की उपेक्षा की बात कहीं भी नहीं कही है । उन्होंने मानव शरीर को साधन के रूप में संभालकर उसके द्वारा प्रभु प्राप्ति का साधन करने की बात कही है ।
731. संसार में कुछ भी भोग भोगेंगे तो उसका अंत हताशा में और दुःख में ही होगा ।
732. हम अपने दोषों को जानते हुए भी अपने दोषों में फंसते चले जाते हैं ।
733. हमारी आँखें दृश्यों में, हमारे कान शब्दों में, हमारी जिह्वा रसों में, हमारी त्वचा स्पर्श में, हमारी नाक सुगंध में फंस गए हैं । इस तरह सब कुछ संसार में फंसा हुआ है और हमें उन्हें वहाँ से निकालकर प्रभु में लगाना पड़ेगा तभी प्रभु मिलन संभव होगा ।
734. भगवती रुक्मिणी माता ने अपने जीवन के सभी पुण्यों को दांव पर लगा कर प्रभु को मांगा । उन्होंने कहा कि जो भी पुण्य उनसे अभी तक हुए हैं उसका एक भी सांसारिक फल उन्हें नहीं मिले और वह फल उन्हें प्रभु के रूप में ही मिले ।
735. अपने पुण्यों को हमें भोगों में नहीं भुनाना चाहिए । अपने पुण्यों से हमें प्रभु को मांगना चाहिए ।
736. पुण्य करके भोग मांगेंगे तो भोग मिलेगा और पुण्य के बदले प्रभु की कृपा और भक्ति मांगेंगे तो वह मिलेगी ।
737. भगवती रुक्मिणी माता प्रभु से कहतीं हैं कि मैं आपके पास नहीं आ सकती क्योंकि मैं बंधन में हूँ इसलिए आप आकर मेरा वरण करो । जीव को भी प्रभु से यही कहना चाहिए कि वह अपनी इंद्रियों के बंधन में है इसलिए प्रभु तक नहीं पहुँच सकता । जीव को भी प्रभु को पुकारना चाहिए प्रभु आकर ही उसे बंधन मुक्त करके उसका वरण करें ।
738. भगवती रुक्मिणी माता प्रभु से कहती हैं कि समय बहुत कम बचा है इसलिए प्रभु जल्दी पहुँचें । जीव को भी प्रभु से यही कहना चाहिए कि अब जीवन का बहुत अल्प समय बचा है इसलिए प्रभु जल्दी आकर उसका वरण करें ।
739. प्रभु परम पराक्रमी, परम स्वतंत्र और सर्वसामर्थ्यवान हैं इसलिए प्रभु ही हमारा उद्धार कर सकते हैं । इसलिए प्रभु हमारा वरण करें तभी हमारी गति है ।
740. भगवती रुक्मिणी माता प्रभु से कहती हैं कि मैं आपकी पत्‍नी बनकर आपके समकक्ष नहीं बनना चाहती, मैं आपकी दासी बनना चाहती हूँ और जीवनभर आपकी सेवा करना चाहती हूँ । माता का प्रभु के लिए यह कितना सुंदर भाव है ।
741. प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु अपने श्रीकरकमल हमारे सिर पर रख दें और प्रभु हमारे अंतःकरण में विराजें, ऐसी कृपा प्रभु हम पर करें ।
742. अपना मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में टेक दें और प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान और प्रभु की भक्ति मांगें, तभी जीवन सार्थक होगा ।
743. किसी भी पंथ, संप्रदाय में यही प्रार्थना होती है कि अपने इष्ट से हमारा मिलन हो, इष्ट की भक्ति मिले और इष्ट के श्रीकमलचरणों में हमको स्थान मिले ।
744. भगवती रुक्मिणी माता ने अपने शरणागति के पत्र में प्रभु से कहा कि अगर प्रभु की कृपा नहीं हुई तो वे जीवन धारण करके रखने की कोई इच्छा नहीं रखती हैं । जीव को भी प्रभु से ऐसी ही प्रार्थना करनी चाहिए ।
745. जीव की प्रबल इच्छा होनी चाहिए कि उसे सांसारिक भोगों में फंस कर नहीं रहना है ।
746. प्रभु को जीवन में पुकारते रहें तो एक-न-एक दिन प्रभु जीवन में अवश्य कृपा करेंगे ।
747. संसार करने में अगर हम ज्यादा पड़ जाते हैं तो हम फिर उसमें फंसते जाते हैं और यह जीवन को नष्ट करने का मार्ग है ।
748. जो कंचन, कामिनी और कीर्ति में फंसा हुआ है वह प्रभु को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाएगा ।
749. प्रभु कृपा तब करेंगे जब हम भोगों के चंगुल में नहीं फंसेंगे ।
750. संत कहते हैं कि प्रभु के लिए तरसते रहो, प्रभु के लिए रोते रहो और प्रभु को रिझाते रहो । यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है ।
751. जब तक जीवन के अन्य सभी रास्ते बंद नहीं कर लेते तब तक पूरी ऊर्जा हम जागृत नहीं कर पाएंगे जिसकी प्रभु भक्ति में हमें जरूरत होती है ।
752. छत्रपति शिवाजी की सेना एक किले पर चढ़ गई पर संख्या कम होने के कारण हार रही थी तो वापस उतरने के लिए रस्सी ढूँढ़ने लगी जिसे पकड़ कर सैनिक किले पर चढ़े थे । तब सैनिकों ने देखा कि छत्रपति शिवाजी ने उन सभी रस्सियों को काट दिया है । अब एक ही रास्ता था युद्ध करके वीरगति को प्राप्त करना इसलिए पूरे जोश से सैनिकों ने युद्ध किया और असंभव युद्ध जीत गए । इसी प्रकार जीव को भी संसार की तरफ जाने वाली अपनी सभी रस्सियों को काट देना चाहिए तभी प्रभु प्राप्ति संभव होगी ।
753. वैराग्य से संसार की सभी सांसारिक रस्सियों को काटना चाहिए । संसार मेरा मार्ग नहीं है, यह भाव जीवन में जागृत करना चाहिए फिर पूरी ऊर्जा के साथ भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए ।
754. मेरे लिए संसार नहीं है, मेरे लिए प्रभु हीं हैं । ऐसा भाव हृदय में रखना चाहिए ।
755. प्रभु का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए तभी एक-न-एक दिन दया करके प्रभु अपने मार्ग पर चलने वाले भक्तों को जरूर अपनाएंगे ।
756. भक्ति वह है जो जीव और परमात्मा का मिलन करवा देती है ।
757. सच्चा भक्त मिल जाता है तो प्रभु को भी नींद नहीं आती । प्रभु नींद में भी उसे निरंतर याद करते रहते हैं ।
758. भक्त को प्रभु पर इतना विश्वास होता है कि प्रभु के बल पर वह प्रतिज्ञा करके निश्चिंत होकर सो जाता है । श्री अर्जुनजी ने जयद्रथ का वध करने के लिए प्रतिज्ञा की और रात में सो गए । अब उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने की जिम्मेदारी प्रभु की हो गई । श्री अर्जुनजी निश्चिंत होकर सो गए और प्रभु रात भर जागते हुए वह प्रतिज्ञा कैसे पूरी होगी इसकी व्यवस्था करने लगे ।
759. जो प्रभु की पूर्ण शरणागति ले लेता है वह जीवन में निश्चिंत होकर सोता है और प्रभु जगकर उसको संभालते हैं ।
760. प्रभु भगवती रुक्मिणी माता के शरणागति के पत्र को पढ़कर रथ लेकर तुरंत दौड़े और प्रभु ने मुहूर्त तक नहीं देखा । इससे सूत्र निकलता है कि भक्तों के उद्धार के लिए प्रभु तुरंत आते हैं ।
761. जो सद्गुरु हमें प्रभु से मिलाते हैं उनका कुछ भी करके ऋण नहीं चुकाया जा सकता ।
762. भगवती रुक्मिणी माता को बचाने के लिए उनके भाई ने अपनी और शिशुपाल एवं जरासंध ने बहुत बड़ी सेना बचाव के लिए लगा रखी थी पर प्रभु सबके बीच से माता को ले गए । इससे सूत्र निकलता है कि भक्त को भक्ति के कारण प्रभु विकारों की सेना के बीच से निकाल ले जाते हैं ।
763. प्रभु श्री रामजी का श्रीचरित्र श्रीरामावतार में और प्रभु श्री कृष्णजी का श्रीचरित्र श्रीकृष्णावतार में अतुलनीय है ।
764. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को संतों ने रहस्यों वाला श्रीग्रंथ बताया है क्योंकि श्रीमद् भागवतजी महापुराण में रहस्यों पर रहस्य छिपे हुए हैं ।
765. संत कहते हैं कि मन की चंचलता का कारण इच्छा है और इच्छा का कारण मन की चंचलता है । इन दोनों को केवल भक्ति से ही जीता जा सकता है ।
766. हम चाहे जितना भी और जैसा भी प्रयास करें जीवन से विकारों का पूरी तरह नाश होना संभव नहीं है । जीवन के विकार केवल प्रभु की भक्ति से ही समाप्त हो सकते हैं ।
767. मैं शरीर नहीं परमात्मा तत्व हूँ । मैं प्रभु का अंश हूँ । यही आत्मज्ञान है और ऐसे आत्मज्ञान संपन्न जीव ही प्रभु को पा सकते हैं ।
768. प्रभु श्री महादेवजी प्रलय करने वाले देव हैं पर साथ ही आशुतोष भी हैं यानी सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले परम कृपालु और परम दयालु हैं ।
769. श्री कामदेव के पिता प्रभु हैं क्योंकि श्री कृष्णावतार में श्री प्रद्युम्नजी, जिनको काम का अवतार माना गया है, वे प्रभु श्री कृष्णजी के प्रथम पुत्र थे । इसलिए जीवन से अगर काम को हटाना है तो उनके पिता यानी प्रभु की शरण में जाना पड़ेगा ।
770. जीवन में समस्याएं होंगी, उनके साथ ही जीवन बिताना पड़ता है पर जो प्रभु की शरण में चले जाते हैं समस्याएं फिर उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पातीं ।
771. स्वयं का दुःख हमें तब तक ही तापदायक लगता है जब तक हम प्रभु की शरण में नहीं चले जाते ।
772. हमारी समस्त इच्छाएं पूरी हो जाएं और हमें कोई दुःख जीवन में नहीं देखना पड़े, यह दोनों बातें किसी के भी जीवन में कभी नहीं होती क्योंकि संसार में सदैव अतृप्ति है और संसार का दूसरा नाम ही दुःखालय है ।
773. श्रीबृज में प्रभु की माधुर्य श्रीलीला का दर्शन होता है एवं श्री द्वारकाजी में प्रभु की ऐश्वर्य श्रीलीला का दर्शन होता है ।
774. अध्यात्म के क्षेत्र में जिस प्रश्न का हमारे उद्धार के साथ कोई संबंध नहीं है वह हमें जीवन में कभी नहीं उठाना चाहिए और न ही कभी पूछना चाहिए और न ही कभी उसकी खोज करनी चाहिए ।
775. आत्म उद्धार हेतु जो उपयोगी हो उसे ग्रहण करना चाहिए बाकी सभी को छोड़ देना चाहिए ।
776. सनातन पूजा पद्धति में जिस देव के पास जो अधिकार हैं हमें उनसे वही कृतज्ञता से मांगना चाहिए ।
777. भक्ति शिकायत करने वाला मार्ग नहीं है । संत श्री तुकारामजी की पत्नी का भोजन के लाले पड़ने के कारण स्वर्गवास हुआ पर संत तुकारामजी ने प्रभु से कभी शिकायत नहीं की, उल्टे प्रभु का अनुग्रह देखा और प्रभु को धन्यवाद दिया कि पत्नी से मुक्ति मिली क्योंकि अब वे सिर्फ प्रभु के हो गए और उनका संसार छूट गया ।
778. जिनको जीवन में केवल प्रभु चाहिए, अन्य कुछ नहीं चाहिए, कोई मांग नहीं, कोई शिकायत नहीं, उन्हें किसी कर्मकांड या पूजा की आवश्यकता नहीं है और उनपर किसी देवता और ऋषि का कोई ऋण नहीं बचता ।
779. जिनको केवल परमात्मा चाहिए उनको प्रभु अपने समीप लाने के लिए उनके जीवन में निरंतर विपत्ति भेजते रहते हैं । पर उन भक्तों को कोई शिकायत नहीं होती । उनको व्यापार में नुकसान होता है, स्वास्थ्य बिगड़ता है, पत्नी पुत्र का वियोग होता है पर वे प्रभु से कोई शिकायत नहीं करते क्योंकि उन्हें पता होता है कि प्रभु अपने भक्तों पर निरंतर विपत्ति भेजते हैं उन्हें अपने समीप लाने के लिए ।
780. एक संत ने बहुत सुंदर भाव दिया है कि - जो करें प्रभु की आशा उसका करे प्रभु सत्यानाशा, पर फिर भी जो करें केवल प्रभु की आशा प्रभु बने उसके दासानुदासा । यह मार्ग साधारण लोगों के लिए नहीं है । यह मार्ग सिर्फ संत तुकारामजी, भगवती मीराबाई, श्री नरसी मेहताजी, श्री सूरदासजी जैसे भक्तों के लिए है ।
781. जीव ईश्वरशरण जीव है । इसलिए जीव का अंतिम लक्ष्य प्रभु ही होने चाहिए ।
782. जिनको केवल प्रभु ही चाहिए होते हैं, प्रभु को भी केवल वे ही चाहिए होते हैं ।
783. प्रभु ने ऋषि दुर्वासाजी को राजा श्री अम्बरीषजी के प्रसंग में कहा कि कुछ भक्त ऐसे होते हैं जिनको प्रभु के अलावा कुछ भी पता नहीं होता । ऐसे भक्त प्रभु को अति प्रिय होते हैं । हमें संसार की बहुत-सी बातों का पता होता है और हम पता करते भी रहते हैं पर सच्चा भक्त ऐसा कभी नहीं करता ।
784. सारे फल जीवन में प्रभु ही हमें भेजते हैं । प्रभु निमित्त या माध्यम किसी को बनाते हैं पर देने वाले सदैव प्रभु ही होते हैं ।
785. शास्त्रों का किसी भी कर्मकांड में नियम या किसी पूजा का विधान बताया हुआ होता है । पर शास्त्रों का भक्ति पर कोई नियम नहीं चलता क्योंकि भक्ति सर्वोपरि है ।
786. प्रभु श्री रामजी एवं प्रभु श्री कृष्णजी लोक नेता हैं । दो बातें उनके जीवन में हैं, उनका जीवन ही क्रांति से भरा हुआ है और उनका जीवन अत्यंत पारदर्शी है ।
787. अनुकूलता में प्रभु के बारे में सोचना प्रभु की कृपा मानी गई है पर प्रतिकूलता में प्रभु के बारे में सोचना प्रभु की अत्यंत बड़ी कृपा मानी गई है ।
788. हम अपने कितने सारे काम प्रभु से करवा लेते हैं यह कहकर कि प्रभु हमारा बस यह एक काम कर दें फिर हम आपका भजन करेंगे । जीव यही करता आया है कि प्रभु से काम करवाता रहता है पर अंत तक भजन नहीं करता । प्रभु काम करते रहते हैं पर जीव फिर भी भजन नहीं करता और नए-नए काम प्रभु को सौंपता रहता है ।
789. विपत्ति के समय सदैव भगवती माताजी की आराधना करनी चाहिए । प्रभु जब श्री कृष्णावतार में श्री जामवंतजी से गुफा में 28 दिन का युद्ध कर रहे थे तो बारहवें दिन सैनिकों ने इसकी सूचना श्री द्वारकाजी पहुँचाई । तब सभी द्वारकावासी प्रभु की सुरक्षा को लेकर चिंतित हुए । उसी समय देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का वहाँ आगमन हुआ और उन्होंने कहा कि भगवती जगदंबा माता का नौ दिन का अनुष्ठान करना चाहिए । अनुष्ठान पूरा हुआ और प्रभु पत्‍नी के रूप में भगवती जामवंती माता को लेकर श्री द्वारकाजी सकुशल पहुँचे । यह भगवती माता की आराधना का फल था और प्रभु अपनी इस श्रीलीला से यही बताना चाहते थे ।
790. जैसे माचिस की डिबिया का रसोई बनाने के लिए उपयोग किया तो वह अच्छा माना जाता है पर किसी के घर जलाने के लिए उपयोग किया तो वह बुरा होता है । वैसे ही उत्तम साधक काम, क्रोध, मद, लोभ का भी उपयोग अपने-अपने लाभ के लिए करते हैं पर हम ऐसा नहीं कर पाते और काम, क्रोध, मद, लोभ के विकार के चंगुल में फंस जाते हैं ।
791. प्रभु के अवतार का एक हेतु धर्म स्थापना होता है । प्रभु श्री कृष्णजी ने इसके लिए निमित्त पांडवों को बनाया और प्रभु श्री रामजी ने इसके लिए निमित्त वानरों को बनाया ।
792. हमने किसी का बुरा नहीं किया यह आधी सज्जनता है । पूरी सज्जनता तब होती है जब हमने किसी का बुरा तो किया ही नहीं और सबका भला करने हेतु कार्य किया । कुछ-न-कुछ भला किए बिना संसार से जाना धर्म ने सही नहीं माना ।
793. प्रभु की स्वयं भक्ति करना और प्रभु भक्ति का प्रचार करना यह भक्तों के जीवन का मुख्य उद्देश्य बन जाता है ।
794. प्रभु ने दुष्टों का नाश किया पर उनका राज्य कभी भी नहीं लिया एवं उनके उत्तराधिकारी को ही उनका राज्य सौंपा । यह प्रभु का कितना बड़ा आदर्श है ।
795. सभी के मन की वेदना को प्रभु समझते हैं ।
796. जब प्रभु ने श्रीकृष्णावतार में 16100 कन्याओं को असुर के बंदीगृह से मुक्त कराया और प्रभु ने उन्हें स्वीकार किया तो प्रभु के स्वीकार करते ही उन कन्याओं को माता का दर्जा मिल गया और उन्हें सम्मान और सुरक्षा भी मिल गई । इससे सूत्र निकलता है कि प्रभु जीव को जब भी स्वीकार करते हैं उसे सम्मान और सुरक्षा मिल जाती है ।
797. महापुरुषों का अंतःकरण कापुरुषों के ध्यान में कभी नहीं आता । वह केवल सज्जन पुरुषों के ही ध्यान में आता है ।
798. प्रभु सदैव भक्तों का विचार बड़ी सहानुभूति से करते हैं ।
799. भारतवर्ष के अध्यात्म के सभी सिद्धांतों को एक-न-एक दिन विश्व को मानना पड़ेगा क्योंकि भारतवर्ष के सिद्धांत इतने प्रबल जो हैं ।
800. प्रभु श्री कृष्णजी प्रसन्नता और हास्य अपने श्रीलीला से हमें सिखाते हैं । प्रभु सूत्र देना चाहते हैं कि जीवनभर प्रसन्न रहना चाहिए ।