001. |
सत्, चित्त और आनंद स्वरूप होने की विद्या को श्रीमद् भगवद् गीताजी में ब्रह्मविद्या कहा गया है । |
002. |
योगेश्वर प्रभु श्री कृष्णजी श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि तनाव के बीच में रहकर भी तनावग्रस्त नहीं रहना, इसको योग कहते हैं । |
003. |
प्रभु के सभी विग्रह हमें मुस्कुराते हुए मिलेंगे । प्रभु श्री गणपतिजी, प्रभु श्री रामजी, प्रभु श्री कृष्णजी के विग्रह हमें सर्वत्र मुस्कुराते हुए मिलते हैं जो इस बात को बताते हैं कि जीवन में सदैव प्रसन्न रहना चाहिए । |
004. |
उत्तम भक्त प्रभु पर आश्रित होता है इसलिए वह कभी भी शोक या चिंता नहीं करता । |
005. |
जब कभी भी जीवन में चिंताओं का विचार आए तो उस समय सदैव प्रभु को याद करना चाहिए । |
006. |
परमात्मा आनंदस्वरूप हैं और परमात्मा तत्व ही हमारे भीतर है । इसलिए हमें उस आनंद रस की अनुभूति हमारे भीतर से होनी चाहिए । |
007. |
भीतर जो रस होगा वही हमारे चेहरे पर आना चाहिए । इसलिए आध्यात्मिक साधक हम तब तक नहीं माने जाएंगे जब तक हमारे भीतर का आनंद रस हमारे व्यवहार में नहीं दिखेगा । |
008. |
भीतर आनंद होगा तो प्रसन्नता का आभास हमारे चेहरे पर सदैव झलकेगा । |
009. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का दास बनने का सौभाग्य जिसको प्राप्त होता है वह धन्य हो जाता है । |
010. |
प्रभु की कृपा एक तुच्छ-से-तुच्छ व्यक्ति को भी महान बना देती है । |
011. |
परमहंस महात्मा प्रभु की भक्ति करने में ही अपना गौरव मानते हैं । |
012. |
हम अपना सारा जीवन गधे की तरह काम करने में लगा देते हैं, बैल की तरह परिवार के अधीन रहते हैं और सर्प बनकर धन-संपत्ति की रक्षा करते हैं । ये सभी भाव मनुष्य का पतन कराने वाले भाव हैं । |
013. |
भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का निरंतर दास बने रहने के लिए वे सक्षम नहीं हैं पर प्रभु की उदारता इतनी है कि प्रभु ने उनकी सेवा स्वीकार की है । |
014. |
विकट परिस्थिति में भी अगर हम प्रभु के लिए प्रेम में कमी नहीं आने देते तो हम प्रभु को जीत लेते हैं । यह बात प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता से कही । |
015. |
चित्त को निरंतर प्रसन्नता से भरे रखना प्रभु तक पहुँचने का एक छोटा-सा साधन है । |
016. |
प्रभु तो स्वयं परिपूर्ण हैं इसलिए उनको अपने आनंद के लिए किसी की भी आवश्यकता नहीं । पर यह प्रभु का अनुग्रह है कि भक्तों को आनंद प्रदान करने के लिए प्रभु अपनी आनंद श्रीलीला में उन्हें भी अपने साथ ले लेते हैं । |
017. |
आत्मकल्याण हेतु श्रेष्ठ आश्रम संन्यास आश्रम है । पर सबका उपकारक आश्रम गृहस्थ आश्रम है । इसलिए प्रभु श्री रामजी ने और प्रभु श्री कृष्णजी ने अपनी श्रीलीला में गृहस्थ आश्रम के धर्म को निभा कर दिखाया है । |
018. |
अर्थ यानी धन की जीवन में आवश्यकता रहे पर अर्थ यानी धन जीवन के केंद्र में कभी नहीं आए । यह सूत्र है कि सदैव जीवन के केंद्र में तो सिर्फ प्रभु ही रहें । |
019. |
परमात्मा तत्व से संबंध स्थापित करना परमार्थ है । |
020. |
प्रभु आनंदस्वरूप हैं और उनसे संबंध स्थापित करने से आनंद जीवन में स्वतः ही चला आता है । |
021. |
प्रभु की अनुभूति प्राप्त करने वाले संतों ने सिर्फ और सिर्फ परमानंद का ही अनुभव किया है । |
022. |
संत कहते हैं कि प्रभु की भक्ति करना आज से ही नहीं बल्कि अभी से ही आरंभ करना चाहिए । |
023. |
प्रसन्नता और परमानंद जीवन में लाना हो तो प्रभु सेवा ही उसके लिए सबसे उत्तम साधन है । |
024. |
भक्तों ने अनुभव किया है कि जैसे-जैसे उनके द्वारा प्रभु का श्रृंगार सजाया जाता है वैसे-वैसे ही उनका आनंद बढ़ता जाता है । |
025. |
प्रभु को सजाना, प्रभु को लाड़ लड़ाना, प्रभु को भोग लगाना, प्रभु के पद गाना हमें तत्काल आनंद देते हैं । |
026. |
प्रभु जहाँ विराजते हैं वहाँ स्वतः ही श्री बैकुंठजी का निर्माण हो जाता है । |
027. |
एक जीवन भोगों का हो सकता है और एक जीवन भाव और भक्ति का हो सकता है । भाव और भक्ति वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है । |
028. |
संत जगत में किसी को पराया नहीं देखते क्योंकि वे सभी में प्रभु के अंश को देखते हैं । |
029. |
भक्त भक्ति करके प्रसन्न रहते हैं और भक्ति द्वारा अपनी प्रसन्नता को सबमें बांटते हैं । |
030. |
जीवन का उद्देश्य सदैव प्रभु को केंद्र में रखने का ही होना चाहिए । |
031. |
प्रभु श्री कृष्णावतार में ब्रह्म मुहूर्त में बहुत जल्दी जग जाते थे और शांत मुद्रा में ध्यान करने के लिए बैठ जाते थे । |
032. |
हम लोग प्रभु का ध्यान करते हैं और प्रभु अपने भक्तों का ध्यान करते हैं । |
033. |
संत कहते हैं कि प्रभु के ध्यान करने के दो ही स्थान हैं । पहला, प्रभु अपनी शक्तियों का ध्यान करते हैं । दूसरा, प्रभु अपने उन भक्तों का ध्यान करते हैं जो प्रभु का नित्य ध्यान करते हैं । |
034. |
प्रभु ने यह बात स्वयं श्री युधिष्ठिरजी को बताई कि जो सुबह ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु से मिलने आए थे और प्रभु को ध्यानस्थ पाया । उन्होंने जब पूछा तो प्रभु ने कहा कि मैं इस समय मेरे भक्त भीष्म पितामह का ध्यान कर रहा हूँ जो बाणों की शैया पर लेटे मेरा ध्यान कर रहे हैं । |
035. |
प्रभु अपना संध्या वंदन सूर्योदय से पहले ही पूर्ण कर लेते थे क्योंकि सूर्योदय के बाद के संध्या वंदन को अधम संध्या वंदन माना गया है । |
036. |
प्रभु मौन रहकर भगवती गायत्री माता के मंत्र का जप करते थे । प्रभु श्री रामजी एवं प्रभु श्री कृष्णजी दोनों ही भगवती गायत्री माता के मंत्र का जप करते थे । मौन रहने का मतलब है कि मन में जप करना, उच्चारण और वाणी से जप नहीं करना । |
037. |
प्रभु अपने अवतार काल में प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के उदय होने पर प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को अर्घ्य देते थे और देवों, ऋषियों की पूजा और पितरों का तर्पण करते थे । |
038. |
प्रभु रोजाना अपने घर में बड़ों को प्रणाम करते थे और ब्राह्मणों को प्रणाम करके उन्हें दान देते थे । |
039. |
प्रभु के सामने झुकना एक छोटा-सा साधन है पर यह प्रभु कृपा को जीवन में जागृत कर देता है । |
040. |
गृहपति होने के कारण प्रभु सब के बारे में पूछते थे कि उन्होंने जलपान ग्रहण कर लिया या नहीं । अपने सेवकों के बारे में पूछते थे जिससे पता चलता है कि प्रभु के मन में सबके लिए कितना करुणा का भाव था । |
041. |
प्रभु श्री कृष्णजी अपने सारथी श्री दारूखजी से इतना प्रेम करते थे कि श्री दारूखजी का हाथ पकड़कर ही अपने रथ पर सदैव बैठते थे । |
042. |
दुष्टों को मारने की योजना काल की होती है पर उसमें सहमति प्रभु की होती है । |
043. |
प्रभु और श्री सुदामाजी की जब मित्रता हुई तो प्रभु हमेशा श्री सुदामाजी के साथ-साथ आश्रम में रहते थे । सूत्र यह है कि प्रभु सखा भाव को भी खूब निभाना जानते हैं । |
044. |
अपने मन से श्री सुदामाजी ने भी प्रभु को पकड़ रखा था जबकि उन्हें बुद्धि से पता था कि विद्या अध्ययन के बाद प्रभु उनसे बिछड़ जाएंगे पर उनका मन इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं करता था । |
045. |
जीवात्मा पराधीन है और प्रभु स्वाधीन हैं । इसलिए जीवात्मा का मिलन प्रभु से कब और कहाँ होना है इसका निर्णय करने वाले नियंता प्रभु ही हैं । |
046. |
श्री सुदामाजी ने प्रभु से कहा कि इस जन्म में प्राणों के रहते प्रभु को भूल पाना प्रयास करने के बाद भी उनके लिए संभव नहीं है । इतना प्रेम श्री सुदामाजी प्रभु से करते थे । |
047. |
श्री सुदामाजी ने प्रभु से कहा कि मुझ जैसे तो आपको रोज मिलते रहेंगे पर आप जैसा मुझे कहीं भी, कभी भी नहीं मिल सकेगा । |
048. |
श्री सुदामाजी की बातों को सुनकर प्रभु ने भी उनसे कहा कि प्रभु के लिए भी उन्हें भूलना कतई संभव नहीं होगा । |
049. |
प्रभु के विद्या अध्ययन के बाद जाने पर श्री सुदामाजी को लगा जैसे उनके प्राण ही जा रहे हैं । इससे सूत्र निकलता है कि प्रभु को ही हमें अपना प्राण मानना चाहिए । |
050. |
भगवती गंगा माता और भगवती तुलसी माता का नाम सुनते ही हमारे हाथ जुड़ जाने चाहिए । |
051. |
जिस भी श्रीग्रंथ को देखें वह श्रीग्रंथ भगवती गंगा माता, भगवती तुलसी माता और गौ-माता के महात्म्य से भरा मिलेगा । |
052. |
भक्ति का सामर्थ्य है कि गरीब होते हुए भी प्रभु भक्ति के कारण कभी भी श्री सुदामाजी अशांत नहीं हुए । उनकी न विद्या की कद्र हुई, न ही उनकी सदवासनाओं की कभी पूर्ति हुई, न उनके घर के छत की, न भोजन की और न ही कपड़े की व्यवस्था थी पर फिर भी वे प्रभु की भक्ति में लीन रहते थे । |
053. |
श्री सुदामाजी का स्वधर्म ही प्रभु भक्ति था । |
054. |
संसार के सेठों को श्री सुदामाजी जानते ही नहीं थे । वे सिर्फ एक सांवरिया सेठ यानी प्रभु को ही जीवन में जानते थे और उन्हें ही भक्ति से पकड़ रखा था । |
055. |
ठंड से श्री सुदामाजी की रक्षा नहीं होती थी क्योंकि न तो घर रूपी झोपड़ी पर छत थी, न पेट में अन्न की गर्मी थी, न गर्म कपड़े थे । ऐसे में रात भर श्रीकृष्णजी-श्रीकृष्णजी का जाप करते श्री सुदामाजी रात्रि निकाल देते थे । |
056. |
जिसका प्रभु से संबंध हो जाता है वह जीव ही शास्त्र दृष्टि से परम और सच्चा भाग्यवान कहलाता है । |
057. |
श्री सुदामाजी सदैव सोचते थे इतने सर्वसामर्थ्य और सर्वशक्तिमान होने पर भी और अंतर्यामी होने पर भी अगर प्रभु ने मुझे गरीब रखा है तो इसे प्रभु का प्रसाद मानकर मैं उस गरीबी को स्वीकार करता हूँ । पर उन्होंने निश्चय किया कि मैं प्रभु से मांगने कभी नहीं जाऊँगा । निष्काम भक्ति का इससे श्रेष्ठ उदाहरण कहीं भी नहीं है । |
058. |
प्रभु प्रेरणा से श्री सुदामाजी के मन में प्रभु के दर्शन की लालसा हुई और दर्शन लाभ लेने के लिए उन्होंने सोचा कि मुझे जाना चाहिए । उन्होंने सोचा कि मैं मांगने नहीं जाऊँगा पर दर्शन करने जरूर जाऊँगा । |
059. |
संत व्याख्या करते हैं कि स्वर्ण की नगरी के स्वामी प्रभु को प्रदान कर सकें ऐसा भक्ति का उपहार श्री सुदामाजी के पास था पर लौकिक दृष्टि से उपहार स्वरूप प्रदान करने के लिए श्री सुदामाजी के पास कुछ भी नहीं था । |
060. |
साधना के मार्ग पर अंतिम परीक्षा की घड़ी सबसे कठिन होती है । प्रभु से मिलने जाने का जिस दिन श्री सुदामाजी ने निश्चय किया उस दिन कोई भी चढ़ावा नहीं आया क्योंकि उन्होंने सोचा था कि जो चढ़ावा आएगा उसे उपहार स्वरूप श्री द्वारकाजी में प्रभु को भेंट करने के लिए मैं लेकर जाऊँगा । |
061. |
प्रभु के लिए भेंट ले जाने के लिए भगवती सुशीलाजी जीवन में पहली बार मांगने के लिए घर से बाहर निकलीं । उन्होंने जीवनभर स्वयं के लिए कभी भी कुछ भी नहीं मांगा था । |
062. |
श्री सुदामाजी के यहाँ जिस दिन कुछ भी नहीं आता था उस दिन भी वे भूखे पेट पानी पीकर सो जाते थे पर जीवनभर किसी से कुछ नहीं मांगा क्योंकि श्री सुदामाजी को मांगना पसंद नहीं था और भगवती सुशीलाजी भी पतिव्रता थीं । |
063. |
श्री सुदामाजी इतने गरीब थे कि प्रभु की सेवा-अर्चना की सामग्री खरीदने का भी सामर्थ्य उनके पास नहीं था । पूजन सामग्री खरीदने तक के लिए उनके पास धन नहीं था । |
064. |
श्री द्वारकाजी पहुँचकर श्री सुदामाजी की गरीब अवस्था को देखकर प्रभु के महल का रास्ता किसी ने उन्हें नहीं बताया तो फिर प्रभु स्वयं रूप बदलकर रास्ता बताने के लिए आए । इससे सूत्र निकलता है कि प्रभु धाम का रास्ता अंत में प्रभु ही बताते हैं । |
065. |
प्रभु के वैभव को देखकर श्री सुदामाजी परम प्रसन्न हुए पर उनकी भक्ति के कारण उनकी कोई दुर्बुद्धि नहीं जगी कि प्रभु इतने ऐश्वर्यवान और सुदामा इतना गरीब । |
066. |
प्रभु श्री शुकदेवजी श्रीमद् भागवतजी महापुराण में एक बहुत मार्मिक बात कहते हैं । वे कहते हैं कि लक्ष्मीपति प्रभु की प्रतीक्षा और परीक्षा करते मानो श्री सुदामाजी उनके महल के सामने खड़े थे । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि यह प्रभु की परीक्षा थी कि वे अपने भक्त के साथ क्या करते हैं और प्रभु ने वह किया जो कोई नहीं कर सकता था । |
067. |
प्रभु की पहली झांकी देखकर ही श्री सुदामाजी के सब दुःख मिट गए । सूत्र यह है कि प्रभु की झांकी की पहली झलक जीव के सभी कष्टों को हर लेती है । |
068. |
भगवान से मिलकर भक्त और भक्त से मिलकर भगवान इतने आनंदित हुए कि उसका बखान करते हुए प्रभु श्री शुकदेवजी की कथा के शब्द ही विसर्जित हो गए । |
069. |
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि श्री सुदामाजी और प्रभु की यह कथा जीवात्मा और परमात्मारूपी दो सखाओं के मिलन की कथा है । |
070. |
अपने जीवन को दांव पर लगाकर जो भक्ति का साधन करता है और प्रभु तक पहुँचता है उसका श्री सुदामाजी की तरह प्रभु दिव्य स्वागत करते हैं । |
071. |
अपने भक्त की महानता का परिचय कराने के लिए प्रभु ने श्री द्वारकाजी में श्री सुदामाजी के कंधों पर अपने श्रीहाथ रखकर उनको लेकर घूमें । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि मानो प्रभु अपने भक्त के द्वारा श्री द्वारकाजी को पवित्र करवा रहे थे । |
072. |
प्रभु को अपने भक्त के पीछे इतना दीवाना देखकर जगजननी भगवती रुक्मिणी माता के भी श्रीहाथ श्री सुदामाजी के सामने जुड़ गए । |
073. |
अपनी आँखों के सामने अपने यदुवंश को नष्ट होते देखकर जिन प्रभु के श्रीनेत्रों से एक भी आंसू नहीं छलका, उन प्रभु के श्रीनेत्रों से अपने भक्त के चरणों का अभिषेक करने के लिए आंसुओं की धारा बह निकली । |
074. |
संकोच के कारण श्री सुदामाजी जो चिउड़े की पोटली लाए थे उसे न तो प्रभु को दिखाना चाहते थे और न ही देना चाहते थे पर प्रभु ने स्वयं ही उसे खींच लिया । सूत्र यह है कि प्रभु भक्ति भावना से युक्त चीजों को स्वयं खींच लेते हैं । |
075. |
प्रभु ने चिउड़े की पोटली की एक-एक गांठ खोली मानो श्री सुदामाजी के जीवन की सभी विपरीत गांठों को एक-एक करके प्रभु ने तत्काल खोल दिया । |
076. |
प्रभु अपने भक्त को इतना मान देते हैं कि अपने भक्त को प्रभु कुछ दे सकें इतना बड़ा अपने आपको प्रभु नहीं मानते । |
077. |
श्री द्वारकाजी के वासियों ने श्री सुदामाजी के कटे-फटे वस्त्र देखे, गरीबी देखी पर प्रभु ने श्री सुदामाजी की भक्ति देखी । सूत्र यह है कि संसार हमारा लौकिक अवलोकन करता है पर प्रभु सिर्फ हमारी भक्ति देखते हैं । |
078. |
श्री सुदामाजी सद्गुणों की साक्षात मूर्ति थे । प्रभु के सभी भक्त सद्गुणों से संपन्न हुआ करते हैं । |
079. |
प्रभु का कोई भक्त अगर दुःखी होता है तो उसे प्रभु अपने श्रीमस्तक पर एक कलंक के रूप में मानते हैं । |
080. |
श्री सुदामाजी के चिउड़े को पाकर प्रभु के श्रीमुख से जो आनंद झलका उसे देखकर भगवती रुक्मिणी माता ने कहा कि आज जीवन में मैंने पहली बार प्रभु के श्रीमुख पर इतना आनंद देखा है । |
081. |
प्रभु के दास बनकर रहने से और सकाम भक्ति करने से सभी ऐश्वर्य स्वतः ही जीवन में उपलब्ध हो जाते हैं । |
082. |
प्रभु अपने भक्तों को इतना मान देते हैं कि प्रभु स्वयं उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं । |
083. |
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभु ने श्री सुदामाजी की सेवा करते हुए मानो सेवा रस का आस्वादन किया है । |
084. |
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि श्री सुदामाजी मंझे हुए भक्त थे । उनके जीवन में दुःख आया तो उन्होंने कोई परवाह नहीं की फिर सुख आया तो कोई परवाह नहीं की फिर सुख वापस गया तो भी कोई परवाह नहीं की । यहाँ तक कि प्रभु ने विदाई के वक्त कुछ भी नहीं दिया और उनके नए वस्त्र तक उतरवाकर उनको उनके पुराने वस्त्र दे दिए । यह अंतिम परीक्षा थी पर श्री सुदामाजी मंझे हुए भक्त थे और उनको कोई शिकन तक नहीं हुई और न ही उनके मन में प्रभु को कोई उलाहना देने का भाव तक आया । |
085. |
प्रभु ने सारे संसार को दिखाया कि प्रभु का जो भक्त संसार को पागल लगता है वही प्रभु को परम प्रिय लगता है और प्रभु उनके वश में होते हैं । श्री द्वारकाजी के रास्तों पर नंगे पैर श्री सुदामाजी के गले में हाथ रखकर प्रभु चले और श्री द्वारकाजी की सीमा तक उन्हें छोड़ने के लिए गए । |
086. |
प्रभु ने अंतिम विदाई के वाक्य में श्री सुदामाजी को कहा कि आपने श्री द्वारकाजी आकर मुझको और श्री द्वारकापुरी को धन्य कर दिया । |
087. |
श्री सुदामाजी ने प्रभु से विदाई के वक्त कहा कि जब तक होश में रहूंगा तब तक तो आपको भूलूंगा नहीं पर रोग के कारण अंतिम समय अगर बेहोश अवस्था में चला गया तो प्रभु स्वयं आकर मुझे अपनी याद दिला दें । श्री सुदामाजी की भक्ति देखें कि प्रभु को याद करने की जिम्मेदारी भी श्री सुदामाजी ने प्रभु को ही दे दी । |
088. |
श्री द्वारकाजी से लौटते वक्त श्री सुदामाजी का जो चित्रण प्रभु श्री शुकदेवजी ने किया है वह अदभुत है और पूरी श्री सुदामाजी की कथा के अनुपम रूप की झलक यहाँ पर मिलती है । प्रभु ने श्री सुदामाजी को कुछ नहीं दिया और श्री सुदामाजी ने भी कुछ नहीं मांगा पर फिर भी खाली हाथ लौटने पर श्री सुदामाजी के मन में कोई गलत विचार नहीं आया । श्री सुदामाजी अति आनंद में थे कि प्रभु मेरा नाम सुनते ही दौड़कर महल से बाहर आए और बाहों में भरकर आलिंगन दिया और भगवती रुक्मिणी माता के पलंग पर बैठाया । ऐसा कौन कर रहा है जिनकी पूजा के लिए देवता भी आतुर रहते हैं और उन्हें भी मौका नहीं मिलता । प्रभु ने ऐसा किया पर श्री सुदामाजी को आशंका थी कि प्रभु मिलेंगे या नहीं क्योंकि वे अपने आप को अधम मानते थे पर प्रभु ने उन्हें इतना मान दिया । प्रभु ने कुछ नहीं दिया इस बारे में श्री सुदामाजी ने सोचा कि प्रभु ने इसलिए नहीं दिया क्योंकि धन संभालने की उन्हें आदत नहीं है और रास्ते में भी धन के कारण विपत्ति आ सकती है । इस तरह प्रभु ने नहीं दिया और इसमें भी उन्होंने प्रभु की कृपा ही देखी । |
089. |
भक्ति का रहस्य यह है कि प्रभु ने जो दिया उसमें तो प्रभु की कृपा सब देखते हैं प्रभु ने जो नहीं दिया उसमें भी प्रभु की अति कृपा देखना ही भक्ति है । |
090. |
अनुकूलता में प्रभु हेतु प्रेम भाव होना स्वाभाविक है पर प्रतिकूलता में भी प्रभु हेतु प्रेमभाव रखना भक्ति है । |
091. |
एक नास्तिक व्यक्ति कहता है कि प्रभु ने फूलों के पौधों में कांटे लगा दिए पर एक भक्त कहता है कि यह कांटों का पौधा था और मेरे करुणामय प्रभु ने उसमें फूल खिला दिए । भक्त का दृष्टिकोण यही होता है और वह हर तरफ प्रभु की करुणा का ही दर्शन करता है । |
092. |
संसार में सुख के फूल और दुःख के कांटे दोनों हैं । सुख के फूल में दुःख के कांटे लगा दिए यह एक नास्तिक का दृष्टिकोण है । जबकि भक्त का दृष्टिकोण यह है कि दुःख के कांटों में प्रभु ने सुख के फूल लगा दिए । |
093. |
कुछ भी हो जाए उत्तम भक्त का हृदय हर घटी हुई घटना में अपने प्राणप्रिय प्रभु की करुणा और कृपा के दर्शन करता ही रहता है । |
094. |
सर्वोत्तम भक्त का संसार की तरफ देखने का यही दृष्टिकोण होता है कि वह हर घटना में, हर परिस्थिति में प्रभु की कृपा को देखता है एवं हर अनुकूलता और प्रतिकूलता रूपी दोनों ही अवस्थाओं में प्रभु कृपा ही देखता है । |
095. |
अपना हृदय, अपनी वाणी और अपना जीवन जो प्रभु को अर्पित कर देता है उसे प्रभु से कुछ भी मांगने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि प्रभु उसे स्वतः ही वह सब कुछ पहुँचा देते हैं जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता । जैसे प्रभु ने श्री सुदामाजी को सुदामापुरी के रूप में उनकी कल्पना के बाहर का वैभव पहुँचाया । |
096. |
संत कहते हैं कि प्रभु ने अपने वैभव को लुटाते हुए सुदामापुरी का प्रसाद श्री सुदामाजी को दिया । |
097. |
प्रभु ने श्री सुदामाजी को गरीब बनाया तो इतना गरीब बना दिया कि पूजा के दीपक को जलाने के लिए घर में तेल तक नहीं था और फिर अमीर बनाया तो इतना अमीर बना दिया कि स्वर्ग ही नहीं श्री बैकुंठजी का वैभव भी सुदामापुरी के सामने फीका लगने लग गया । भक्त श्री सुदामाजी ने दोनों परिस्थितियां देखी पर उन्होंने दोनों परिस्थितियों में क्या किया यह भी देखना जरूरी है । दोनों ही अवस्थाओं में उन्होंने प्रभु की भक्ति की । |
098. |
अपने भक्तों को कुछ भी देने की अपनी पात्रता प्रभु नहीं मानते हैं इसलिए प्रभु ने श्री सुदामाजी को कुछ भी नहीं दिया । यही कारण था कि देने के लिए प्रभु को अपनी भाभी भगवती सुशीलाजी के पास आना पड़ा । |
099. |
प्रभु एक क्षण मात्र में सब कुछ बदल सकते हैं और यह प्रभु ने श्री सुदामाजी के प्रसंग में करके दिखाया । |
100. |
अपने श्रीहाथों से प्रभु ने प्रत्यक्ष रूप से श्री सुदामाजी को कुछ भी नहीं दिया पर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें देने में प्रभु ने कोई कसर भी नहीं छोड़ी । |
101. |
प्रभु ने श्री सुदामाजी को जो सुदामापुरी का वैभव दिया उसे देखकर श्री सुदामाजी ने प्रभु से दो वरदान मांगे । पहला वरदान कि संपत्ति के बीच रहकर भी वे प्रभु को कभी भी नहीं भूले एवं संपत्ति प्रभु भक्ति में व्यवधान नहीं बने । दूसरा वरदान कि उनसे जन्मों-जन्मों तक निरंतर प्रभु का नाम स्मरण होता रहे, हाथ में प्रभु की सेवा रहे, पूरा जीवन प्रभु सेवा में लगा रहे । श्री सुदामाजी ने कहा कि यह दोनों वरदान प्रभु देते हैं तो ही वे संपत्ति स्वीकार करेंगे अन्यथा उसे प्रभु को लौटा देंगे । |
102. |
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि एक निष्काम भक्त की प्रभु ने परीक्षा ली । प्रभु ने सोचा कि घर में कुछ नहीं होगा तो मांगेगा पर श्री सुदामाजी ने कुछ नहीं मांगा । प्रभु ने सोचा कि श्री द्वारकाजी का वैभव देखेगा तो मांगेगा पर श्री द्वारकाजी पहुँचकर वैभव देखकर भी श्री सुदामाजी ने कुछ नहीं मांगा । फिर प्रभु ने सोचा कि जाते वक्त कुछ नहीं दूँगा और खाली हाथ लौटा दूँगा तो मांगेगा पर श्री सुदामाजी ने कुछ नहीं मांगा । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि यह स्पर्धा थी भक्त और भगवान के बीच में और भक्त की जीत हुई और मेरे भगवान हार गए । प्रभु को श्री वेदजी ने अजीत यानी अपराजेय कहा है यानी प्रभु की सदैव विजय ही होती है पर भक्ति के कारण अपने प्रिय भक्तों से हारने में प्रभु अपना गौरव मानते हैं और आनंद मनाते हैं । |
103. |
भगवान अजीत हैं उन्हें कोई जीत नहीं सकता पर प्रेम, भक्ति, श्रद्धा से भक्त भगवान को जीत लेते हैं । भक्ति का ही सामर्थ्य है कि प्रभु अजीत होते हुए भी भक्तों के आगे हार जाते हैं और ऐसा करके प्रभु बहुत आनंदित होते हैं । |
104. |
श्री सुदामाजी ने अपनी पत्नी भगवती सुशीलाजी से कहा कि तुम धन से दान, पुण्य, तीर्थ करो और धन को सत्कर्म में लगाओ पर मुझे मेरी पुरानी ठाकुरबाड़ी में प्रभु सेवा में ही रहने दो, मुझे उससे बाहर मत बुलाओ । |
105. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की एक धूलि कण में कोटि-कोटि तीर्थों का निवास है पर वे प्रभु परंपराओं का निर्वाह करने के लिए अपने माता-पिता को लेकर श्री कुरुक्षेत्रजी तीर्थ में गए और तीर्थों के महत्व को बताया । |
106. |
प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी ने अपने अवतार काल में सारी परंपराओं का निर्वाह किया और समाज को दिखाया । ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि सामान्य मनुष्य भी उनका अनुसरण कर सकें । |
107. |
भारतवर्ष की सभी जाति, संस्कृति में भगवती गंगा माता, प्रभु श्री शिवजी, प्रभु श्री रामजी, प्रभु श्री कृष्णजी के लिए एक ही भक्ति भाव मिलेगा । यह भारतवर्ष का अद्वितीय गौरव है । |
108. |
हमें सदैव अपने ऋषियों, भक्तों और संतों की व्याख्या पर पूर्ण रूप से विश्वास करना चाहिए । |
109. |
भारतवर्ष में भगवती गंगा माता के लिए इतनी श्रद्धा है कि पंचांग में श्री गंगा दशमी का लिखा जाना मात्र ही पर्याप्त है और उस दिन भगवती गंगा माता के अमृतजल में स्नान करने के लिए करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है क्योंकि उस दिन के स्नान का विशेष फल होता है । |
110. |
यह भारतवर्ष का परम गौरव है कि उत्तर भारत के श्रद्धालु कभी श्री रामेश्वरमजी धाम के दर्शन के लिए दक्षिण जाने में नहीं हिचकिचाते और श्री रामेश्वरमजी धाम में पूर्ण श्रद्धा रखते हैं । ऐसे ही कोई दक्षिण भारत का श्रद्धालु पूरी श्रद्धा के साथ उत्तर में श्री अयोध्याजी धाम आने में नहीं हिचकिचाता और श्री अयोध्याजी धाम में पूर्ण श्रद्धा रखता है । |
111. |
पहले की भारतीय महिलाएं गहनों की गिनती कम रखती थीं और तीर्थों की गिनती ज्यादा रखती थीं । वे सोचती थीं कि चार धाम में से दो हो गए दो अभी बाकी हैं । सभी ज्योतिर्लिंग में से चार हो गए बाकी के दर्शन अभी शेष हैं । सभी शक्तिपीठ में से अभी तीन के दर्शन बाकी हैं । |
112. |
यह भारतीय संस्कृति थी कि सारा जीवन निरंतर प्रभु की सेवा में लगा हुआ ही रहता था । |
113. |
श्रीगोपीजन के मुँह से अपना नाम सुनकर प्रभु को जो आनंद आता था वह श्रीवेद मंत्र में अपनी स्तुति सुनकर भी प्रभु को नहीं आता था । यह बात प्रभु ने स्वयं श्रीगोपीजन को कही । इससे सूत्र निकलता है कि भक्तों के मुँह से प्रभु को अपना नाम उच्चारण सबसे प्यारा लगता है । |
114. |
जो श्रीगोपीजन पलभर के प्रभु के अदर्शन के कारण पलकों को बनाने वाले प्रभु श्री ब्रह्माजी को भी कोसती थीं, उन श्रीगोपीजन को प्रभु ने इतना लंबा वियोग दिया । जब प्रभु ग्यारह वर्ष के थे तब प्रभु उनको छोड़कर गए और इतने वर्षों बाद श्री कुरुक्षेत्रजी में मिले । ऐसा प्रभु ने क्यों किया ? ऐसा प्रभु ने वियोग से भक्ति में तीव्रता जागृत करने के लिए किया । यह सूत्र और सिद्धांत है कि वियोग के कारण सच्चा प्रेम और भक्ति बढ़ती है । |
115. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण परा प्रेमाभक्ति को प्रतिपादित करने वाला श्रीग्रंथ है । |
116. |
श्री कुरुक्षेत्रजी में श्रीगोपीजन जब प्रभु से मिले तो उन्होंने प्रभु से कहा कि वे प्रभु की पत्नियों से मिलना चाहती हैं । तो प्रभु ने कहा कि प्रभु की पत्नियां भी श्रीगोपीजन का दर्शन करना चाहती हैं । प्रभु ने श्रीगोपीजन को इतना मान दिया कि दर्शन शब्द का प्रयोग किया । |
117. |
प्रभु की पत्नियों ने श्रीगोपीजन को कहा कि हम प्रभु की सेविका जरूर हैं पर यह बात सत्य है कि एकांत में प्रभु हमें नहीं अपितु श्रीगोपीजन को ही याद करते हैं । |
118. |
प्रभु बहुत वेगवान हैं, बहुत वेग से अपनी हर श्रीलीला करते हैं पर श्रीगोपीजन से श्री कुरुक्षेत्रजी में मिलने पर प्रभु भी रुक गए । प्रभु कुछ महीने श्रीगोपीजन के साथ श्री कुरुक्षेत्रजी में रहे । सूत्र यह है कि भक्तों को देखकर प्रभु भी रुक जाते हैं और अपने वेग को शांत कर लेते हैं । |
119. |
धन की जीवन में आवश्यकता होती है पर जीवन में धन ही सब कुछ नहीं होना चाहिए । शास्त्रों ने धन को बहुत गौण और भक्ति को सबसे ऊँचा माना है । |
120. |
अपनी जवानी और आरोग्य को नष्ट करके मनुष्य धन कमाता है और फिर बुढ़ापे में उसी धन को अपने आपको निरोग रखने हेतु खर्च करता है परंतु उससे आरोग्य और जवानी वापस नहीं मिलती । इससे धन के महत्व का पता चलता है । इसलिए हमें अपने जीवन को भक्ति में लगाना चाहिए । |
121. |
नैतिकता के सिद्धांतों का नाश करके कुछ भी कमाना अच्छा नहीं है । |
122. |
प्रभु ने श्री कुरुक्षेत्रजी के तीर्थ में रुककर द्वारकावासियों, मथुरावासियों और बृजवासियों के साथ और ऋषियों, संतों के साथ सत्संग, प्रवचन, यज्ञ और कथा में समय व्यतीत किया । इससे प्रभु बताना चाहते थे कि तीर्थों में समय का सदुपयोग कैसे करना चाहिए । |
123. |
प्रभु अपनी ही प्रभु कथा सुनने के लिए श्रोता बनकर बैठते थे । इस तरह और ऐसा करके प्रभु ने प्रभु कथा का महात्म्य सबको दिखाया और बताया । |
124. |
प्रभु तीर्थ में सुबह यज्ञ और पूजन करवाते, दोपहर में कथा निरूपण एवं सत्संग और प्रवचन करवाते और सायंकाल में भजन एवं पदगान करवाते । ऐसा करके प्रभु ने तीर्थों में क्या होना चाहिए यह सबको करके दिखाया । |
125. |
प्रभु ने श्रीगोपीजन को कहा कि वे श्रीगोपीजन के उपकार और ऋण को कभी नहीं चुका सकते । |
126. |
प्रभु ने श्रीगोपीजन से कहा कि प्रभु ने उन्हें वियोग इसलिए दिया जिससे कि उनका प्रभु के लिए नित्य अनुसंधान बना रहे । |
127. |
प्रभु के साथ संयोग में जितना सानिध्य का आनंद है, वियोग में उतना ही व्याकुलता का आनंद है । |
128. |
श्री कुरुक्षेत्रजी से जब तीन महीने बाद प्रभु के लौटने का समय आया तो भगवती यशोदा माता प्रभु से होने वाले वियोग में इतना रोईं मानो उनके रुके हुए आंसू एकाएक बह निकले । |
129. |
आज तक भगवती यशोदा माता ने प्रभु से कुछ नहीं मांगा था पर आज प्रभु से जीवन में पहली और अंतिम बार भगवती यशोदा माता ने मांगा कि अंतिम घड़ी में प्रभु दर्शन देने जरूर आ जाएं और उनके हृदय में जो प्रभु का वेष विराजमान है उसे ही धारण करके आएं । |
130. |
भगवती यशोदा माता ने प्रभु से कहा कि प्रभु उन्हें अंतर्मन में दर्शन देते रहें और प्रभु का नाम लेने की शक्ति उनमें बनी रहें और वे अंतर्मन में प्रभु के रूप को निहारती रहें और इसी तरह एक दिन वे प्रभु में लीन हो जाएं । यही भगवती यशोदा माता की प्रभु से पहली और अंतिम प्रार्थना थी । |
131. |
प्रभु ही वे हैं जिनसे भक्त अपने प्राणों को बांधकर रखता है । |
132. |
प्रभु मिलन की आशा में श्रीगोपीजन ने अपने प्राणों को बांधकर रखा था । |
133. |
श्रीगोपीजन के प्रेम के आगे श्रीमद् भगवद् गीताजी के वे प्रखर वक्ता प्रभु श्री कृष्णजी भी मौन हो जाते हैं । |
134. |
प्रभु ने समस्त भूमंडल का साम्राज्य, मुक्तिपद, स्वर्ग का सुख आदि गोपों के सामने रखा और उनसे पूछा कि उन्हें क्या चाहिए । गोपों ने प्रभु से मांगा कि उनके कर्म अनुसार जहाँ भी उनको जन्म मिले उसमें प्रभु हस्तक्षेप नहीं करें पर इतनी कृपा करें कि उस जन्म में भी उनके हृदय का पूरा प्रेम और हर वृत्ति प्रभुमय हो और प्रभु में ही लगी रहे । |
135. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का दर्शन करना हमारी आदत बन जाए, हमारी वाणी को सदैव प्रभु का नाम लेने की वृत्ति हो, हमारे हाथों को सदैव प्रभु की सेवा करने की आदत लगे । प्रभु से हमें यही मांगना चाहिए कि इतनी कृपा प्रभु करें कि हमारा हृदय प्रभु प्रेम के लिए और हमारा शरीर प्रभु सेवा के लिए सदैव प्रस्तुत होता रहे । |
136. |
जब श्री कुरुक्षेत्रजी में बृजवासियों का प्रभु से पुनः वियोग का समय आया तो किसी के भी आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे । |
137. |
प्रभु को भूलने का बृजवासी कितना प्रयत्न करते थे पर बृजवासियों का प्रभु को क्षणभर के लिए भूलना भी असंभव था । |
138. |
हम प्रभु को याद करने का प्रयत्न करते हैं और श्रीगोपीजन प्रभु को भूलने का प्रयत्न करती थीं । यही फर्क होता है एक साधारण साधक एवं श्रेष्ठ भक्त में । |
139. |
मन जब प्रभु को भूलने को तैयार न हो और मन जब प्रभु से कुछ मांगने को तैयार न हो तो ही यह मानना चाहिए कि यह भक्ति की सर्वोत्तम अवस्था है । |
140. |
प्रभु की सेवा की और प्रभु से बहुत कुछ बदले में मांग लिया तो यह बिलकुल साधारण भक्ति है । |
141. |
अपने सुख को प्रधान रखकर प्रभु को उस सुख को पाने का साधन बनाना बिलकुल गलत है । |
142. |
जो प्रभु से कुछ मांगता है प्रभु उसे वह दे देते हैं पर जो प्रभु से कुछ भी नहीं मांगता उसे प्रभु स्वयं अपने आपको ही प्रदान कर देते हैं । |
143. |
प्रभु से प्रेम करना चाहिए तो बदले में प्रभु से भी हम प्रेम ही पाएंगे । |
144. |
प्रभु से प्रेम किया और बदले में प्रभु का प्रेम पाया, यही एक उत्तम भक्त का लक्षण होता है । |
145. |
सर्वोत्तम प्रेमाभक्ति श्रीगोपीजन की है । सर्वोच्च अवस्था श्रीगोपीजन की यह है कि जहाँ केवल प्रभु को प्रेम देना-ही-देना है पर बदले में प्रभु से कुछ मांगना नहीं है । |
146. |
प्रभु ने मथुरावासियों को सुरक्षा दी, द्वारकावासियों को ऐश्वर्य दिया पर बृजवासियों को कुछ भी नहीं देकर भी अपना सब कुछ दे दिया । |
147. |
दिखने में प्रभु ने श्रीगोपीजन को कुछ भी नहीं दिया पर यह बात सत्य है कि प्रभु ने उन्हें अपना सब कुछ दे दिया क्योंकि प्रभु का वचन था कि कितने भी अवतार लेकर भी वे अगर श्रीगोपीजन की सेवा करें तो भी उनका तनिक भी ऋण नहीं चुका पाएंगे । |
148. |
संतों ने व्याख्या की है कि प्रभु ने बृजवासियों को अपने आपको ही प्रदान कर दिया । |
149. |
संत कहते हैं कि प्रभु से प्रीत पंछी जैसी नहीं करनी चाहिए कि जल सूखा और पंछी वहाँ से उड़ जाए । प्रभु से प्रीत मछली जैसी करनी चाहिए कि जल सूखे और मछली मर जाए । |
150. |
प्रभु से जो भी कुछ मांगते हैं प्रभु उसे वह देने को तैयार रहते हैं पर जो प्रभु से कुछ नहीं मांगता प्रभु उसे अपने स्वयं को ही दे देते हैं । |
151. |
प्रभु श्री रामजी को जाने बिना असत्य संसार भी हमें सत्य ही नजर आता रहेगा । प्रभु श्री रामजी को जानने पर ही असत्य संसार हमें असत्य लगेगा । |
152. |
जो प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा को मिला लेते हैं वही संत होते हैं । |
153. |
संत वही होता है जो हर स्थिति में प्रभु को धन्यवाद देता रहता है । |
154. |
भक्तों में प्रभु के सद्गुणों की झलक दिखाई देती है । |
155. |
परमानंद, शांति और सफलता अलग-अलग मांगने की जरूरत नहीं होती । सिर्फ प्रभु को जीवन में अपना लें तो यह तीनों एक ही जगह मिल जाएंगे । |
156. |
प्रभु पुरुषार्थ से नहीं बल्कि प्रभु की कृपा से ही प्रभु मिलते हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु जिस पर कृपा करना चाहते हैं उसे ही मिलते हैं । |
157. |
बिना प्रभु के कोई जीवन सागर से तर नहीं सकता । |
158. |
कोई सद्गुरु नहीं मिले तो प्रभु को ही सद्गुरु के रूप में अपनाना चाहिए क्योंकि प्रभु तो सभी के आदिगुरु हैं । |
159. |
मनुष्य से एक कुत्ते की आँखें तेज होती है, घ्राण शक्ति तेज होती है, सुनने की शक्ति भी मनुष्य से तेज होती है फिर भी वह प्रभु कथा का आनंद नहीं ले पाता । यह आनंद सिर्फ मनुष्य ही ले सकता है । इसलिए मनुष्य जीवन ही सबसे श्रेष्ठ है । |
160. |
श्री सनकादिक ऋषियों को प्रभु के छठे द्वार पर प्रभु के द्वारपाल जय और विजय ने रोका और उन्हें असुर योनि में श्राप के कारण गिरना पड़ा । हमारे जीवन में भी जय और विजय का अभिमान हमें नीचे गिरा देता है । |
161. |
प्रशंसा साधक को भी परास्त कर देती है । इसलिए प्रशंसा से साधक को जीवन में सदैव बचे रहना चाहिए । |
162. |
जीवन से काम को दूर करने के लिए श्री रामजी की शरण में ही जाना पड़ेगा । |
163. |
हमारा जिसमें हित होता है प्रभु सदैव वही करते हैं । |
164. |
देवताओं को भी जब कष्ट सताता है तो वे प्रभु की शरण में ही जाते हैं । |
165. |
मन की दुर्बलता साधक को शोभा नहीं देती । प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को मन की दुर्बलता हटाने के लिए बहुत जोर देते हैं । |
166. |
श्रीगोपीजन जब श्री मथुराजी जाती थीं तो वे गली-गली प्रभु के लिए प्रेम का निर्माण करती जाती थीं और प्रभु की बातें बताती चलती थीं । इसके कारण मथुरावासी प्रभु की प्रतीक्षा करने लगे । फिर जब प्रभु आए तो मथुराजी में उनकी क्रांति को मथुरावासियों ने स्वीकार किया । कंस को जब प्रभु ने मारा तो प्रभु की जय-जयकार हुई और कोई भी विरोध नहीं हुआ । |
167. |
प्रभु ने जीव को बहुत सामर्थ्य और शक्ति देकर संसार में भेजा है । |
168. |
हर विषम परिस्थिति में स्पष्ट दिशा निर्देश प्रभु ही हमें दे सकते हैं । |
169. |
श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से प्रार्थना की कि संसारी लोगों को भक्ति मार्ग में लाने के लिए उन्हें अपने जीवन को लगाना है । |
170. |
प्रभु श्री रामजी का एकवचन व्रत था यानी उनका सत्यव्रत था क्योंकि सत्य वचन एक ही होता है । |
171. |
संतों ने सबके नाथ के रूप में एकमात्र श्रीजगन्नाथ को ही स्वीकार किया है । |
172. |
प्रभु श्री रामजी अपने मर्यादा अवतार में किसी भी स्त्री का स्पर्श नहीं करते थे इसलिए उन्होंने भगवती अहिल्याजी को अपने श्रीकमलचरणों से स्पर्श नहीं किया । प्रभु मात्र अपने श्रीकमलचरणों को शिला के ऊपर ले गए, श्रीकमलचरणों की रज शिला पर गिरी और भगवती अहिल्याजी का उद्धार हो गया । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का इतना बड़ा सामर्थ्य है । |
173. |
भगवती अहिल्याजी ने प्रभु से मांगा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का रसपान करने के लिए प्रभु उन्हें भंवरा बना दें । |
174. |
प्रभु अपनी कृपा जीव पर करने के लिए कोई कारण नहीं तलाशते । यह प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु अकारण ही जीव पर कृपा करते हैं । प्रभु सदैव जीव पर कारण रहित कृपा करते हैं । |
175. |
राजा श्री जनकजी निर्गुण ब्रह्म को मानते थे । उन्हें रूप और नाम में आसक्ति नहीं थी पर जैसे ही उन्होंने प्रभु श्री रामजी को देखा और प्रभु का नाम "श्रीराम" सुना तो सुनते ही और प्रभु के रूप को देखते ही वे उसमें उलझ गए । निर्गुण से पल भर में सगुण बन गए । |
176. |
राजा श्री जनकजी ने प्रभु श्री रामजी से अपना रिश्ता बनाने का निश्चय किया । वे प्रभु को पुत्र नहीं बना सकते थे क्योंकि श्री दशरथजी के प्रभु पुत्र थे, शिष्य नहीं बना सकते थे क्योंकि ऋषि श्री वशिष्ठजी के प्रभु शिष्य थे । प्रभु किसी के जमाई नहीं थे इसलिए उन्होंने प्रभु को जमाई बनाकर प्रभु से रिश्ता बना लिया । |
177. |
प्रभु के रूप को देखे बिना हमारे नेत्र कभी सफल नहीं हो सकते । |
178. |
भक्ति के द्वारा प्रभु का हमें सबसे पहले परिचय मिलता है । |
179. |
श्रीजनकपुर के बालक नगर भ्रमण हेतु प्रभु के श्रीहाथ को पकड़कर प्रभु को ले जाते थे । इससे सूत्र मिलता है कि अगर हम भी बालक जैसे निर्मल बन जाएँ तो हम भी प्रभु के श्रीहाथ को पकड़ सकते हैं । |
180. |
श्री अर्जुनजी प्रभु की शरण में आए और प्रभु के शिष्य बने तब प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी का ज्ञान उन्हें प्रदान किया । |
181. |
प्रभु में परम श्रद्धा होना प्रभु भक्ति का एक अंग है । |
182. |
समस्या सबके जीवन में आती है पर सभी उसमें विजयी नहीं होते क्योंकि सभी श्री अर्जुनजी की तरह प्रभु की शरणागति ग्रहण नहीं करते । |
183. |
सामर्थ्यवान होने पर भी हमें प्रभु की शरणागति ग्रहण करनी चाहिए जैसे श्री अर्जुनजी ने सामर्थ्य के होते हुए भी प्रभु की शरणागति ग्रहण की थी । |
184. |
प्रभु की पूर्ण शरणागति लेनी चाहिए । जब पूर्ण शरणागति होती है तो हमारी पूर्ण जिम्मेदारी प्रभु ले लेते हैं । |
185. |
प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में सबका आह्वान करते हैं कि मेरी शरण में आ जाओ । |
186. |
प्रभु शोक में डूबे हुए श्री अर्जुनजी के लिए प्रेरणा के स्रोत बने । |
187. |
हमारी इंद्रियों के स्वामी, हमारे मन के स्वामी और हमारे शरीर के स्वामी एकमात्र प्रभु ही हैं । |
188. |
जब हमें यह पता चल जाता है कि प्रभु हमारे साथ हैं तब हम यह सोचना बंद कर देते हैं कि संसार में कौन-कौन हमारे खिलाफ है । |
189. |
दर्पण के सौ टुकड़े भी हम कर दें तो भी वह सत्य ही बोलेगा । जीव को भी जीवन में दर्पण की तरह सत्य ही बोलना चाहिए क्योंकि सत्य वचन ही प्रभु को प्रिय है । |
190. |
बुढ़ापा हमें यह संदेश और संकेत करता है कि अब हमारे संसार से जाने का समय समीप आ गया है । इसलिए जीवन में बुढ़ापा आए उससे बहुत पहले ही जीव को प्रभु की भक्ति में लग जाना चाहिए । |
191. |
शुभ कर्म कभी भी कल पर नहीं टालना चाहिए । राजा श्री दशरथजी प्रभु के राज्याभिषेक के लिए ऋषि श्री वशिष्ठजी के पास गए तो ऋषि ने उसी दिन राज्याभिषेक करने के लिए कहा । राजा ने कहा कि इतना इंतजाम करने में एक दिन तो लगेगा इसलिए राज्याभिषेक एक दिन के लिए टाला और रात्रि में मंथरा ने पूरा खेल ही बिगाड़ दिया । इससे सूत्र मिलता है कि शुभ कर्म जैसे प्रभु का भजन, पूजन, सेवा कभी भी कल पर नहीं टालना चाहिए । |
192. |
जीवन में हरदम छोटे बनकर रहना चाहिए । अध्यात्म के मार्ग में छोटे बनने पर ही हम बड़ी ऊँचाई को छू सकते हैं । |
193. |
यह सिद्धांत है कि जीवन में लघुता से ही प्रभु की कृपा और प्रभु का सानिध्य मिलता है । |
194. |
प्रभु श्री रामजी के लिए श्रेष्ठ भाव रखने वाली भगवती कैकेयीजी की बुद्धि को मंथरा की कुसंगति ने बिगाड़ा । इसलिए साधक को कुसंगति से सदैव बचना चाहिए । |
195. |
कपटी व्यक्ति कपट करने का बार-बार प्रयास करता है । एक बार में भगवती कैकेयीजी नहीं मानीं तो मंथरा ने बार-बार उनकी मति भ्रष्ट करने का प्रयास किया और अंत में सफल हो गई । इसलिए कपटी व्यक्ति से जीवन में सदैव बचना चाहिए और उसका कभी भी संग नहीं करना चाहिए । |
196. |
प्रभु प्राप्ति ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । |
197. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण स्वयं प्रभु का ही स्वरूप है । |
198. |
मृत्यु को मंगलमय बनाने के लिए हमें जीवन की अंत अवस्था में प्रभु का सानिध्य प्राप्त हो जाए इसके लिए जीवन में प्रयास करना चाहिए । |
199. |
हमारी देह चिता तक साथ जाती है, संबंधी श्मशान तक साथ जाते हैं पर केवल जीवन में की गई प्रभु की भक्ति ही जीवन के बाद भी हमारे साथ जाती है । |
200. |
श्री अर्जुनजी को प्रभु कहते हैं कि भक्ति ही जीव के साथ जाएगी इसलिए उसको प्राप्त करने के लिए सदैव जीवन में प्रयत्न और उद्योग करना चाहिए । |
201. |
भक्तों के लिए संसार की कोई भी घटना शोक करने जैसी नहीं होती क्योंकि उनको सबमें प्रभु की अनुकंपा ही दिखती है । |
202. |
एक व्यक्ति के जैसा दूसरा व्यक्ति करोड़ों वर्षों में कोई भी नहीं आता । वर्तमान में भी अरबों-खरबों मनुष्य हैं पर सब अलग-अलग हैं । सबकी अंगुली के निशान और सबकी आँखों के रेटिना अलग-अलग हैं । यह प्रभु की कला का एक अनुपम नमूना है । |
203. |
हम प्रभु की शक्ति और ऊर्जा से ही सब काम कर पाते हैं । |
204. |
हमें किसी भी परिस्थिति में प्रभु से शिकायत नहीं करनी चाहिए । हमें सदैव उस परिस्थिति को प्रभु की प्रसादी मानकर स्वीकार करना चाहिए । |
205. |
श्री रामचरितमानसजी में एक अदभुत प्रसंग आता है प्रभु और श्री केवटजी का । प्रभु ने वैदिक मंत्र उच्चारण किए और श्री केवटजी ने प्रभु के चरणामृत के अमृत से भगवती गंगा माता के किनारे अपने पितरों का तर्पण किया । प्रभु द्वारा श्री केवटजी के पितरों के लिए मंत्र उच्चारण एवं प्रभु के श्रीकमलचरणों के चरणामृत से श्री गंगाजी के तट पर तर्पण । ऐसी अदभुत गति श्री केवटजी के पितरों को मिली । |
206. |
प्रभु के समक्ष साष्टांग दंडवत प्रणाम का इतना महत्व है कि वह हमारे सभी पाप माफ करवा देता है । |
207. |
संत कहते हैं कि यह प्रभु के श्रीकमलचरणों के चरणामृत का प्रभाव था कि श्री केवटजी सदैव के लिए दुःख, दोष और दारिद्र सबसे मुक्त हो गए । |
208. |
श्री केवटजी इतने बड़े प्रभु के भक्त थे कि उन्होंने प्रभु को अपनी नौका में बैठाने के बाद फिर किसी को भी अपनी नौका में कभी नहीं बैठाया । जिस दिन प्रभु उनकी नौका में बैठे उसके बाद रोजाना वे नौका को प्रभु मानकर नौका का पूजन करते रहे । इतनी सुंदर भावना श्री केवटजी की थी । |
209. |
प्रभु को वही जान सकता है जिस पर प्रभु कृपा करते हैं । |
210. |
ऋषि श्री वाल्मीकिजी ने प्रभु को रहने के लिए स्थान बताएं कि जिनके कान प्रभु कथा सुनकर कभी तृप्त नहीं होते, जिनके नेत्र प्रभु के दर्शन करते-करते कभी नहीं थकते, जिनकी वाणी निरंतर प्रभु का गुणगान करती रहती है और जिनको प्रभु के श्रीकमलचरणों में निरंतर प्रीति रहती है प्रभु उनके हृदय में वास करें । |
211. |
प्रभु जहाँ भी निवास करते हैं उस भूमि का गौरव बढ़ जाता है । प्रभु श्री रामजी जब निवास करने श्री चित्रकूटजी पहुँचे उसी समय से श्री चित्रकूटजी की भूमि पावन और पूजनीय हो गई । |
212. |
प्रभु के वियोग में मरण होने पर जीव अमर हो जाता है । श्री दशरथजी ने प्रभु के वियोग में प्राण त्यागे और सदैव के लिए अमर हो गए । |
213. |
संसार की चिंता से मुक्त होकर हमें प्रभु चिंतन की तरफ बढ़ना चाहिए । |
214. |
सदैव प्रसन्न रहना भी प्रभु की एक भक्ति का अंग है क्योंकि प्रभु की सृष्टि आनंदमय है इसलिए हमें प्रभु की सृष्टि में सदैव प्रसन्न रहना चाहिए । |
215. |
हम सुख में से भी दुःख को खींच निकालते हैं पर संत दुःख में से भी सुख को खोज निकालते हैं । |
216. |
प्रभु श्री कृष्णजी का जीवन कितना कठिन था । बचपन से ही असुर उन्हें सताने आते रहे । पूरा यदुवंश अपनी आँखों के सामने प्रभु ने नष्ट होते हुए देखा पर प्रभु सदा प्रसन्न रहते थे । |
217. |
प्रभु श्री कपिलजी ने अपनी माता को उपदेश में कहा कि प्रभु को पाने का सर्वोत्तम साधन भक्ति है । |
218. |
भक्ति का अर्थ है कि प्रभु से अपना एक संबंध जोड़ लेना और प्रभु के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना । |
219. |
अपने कुलदेव और इष्टदेव को अपने जीवन की डोर को सौंप देनी चाहिए । |
220. |
प्रभु के किसी भी रूप से दूरी नहीं होनी चाहिए । प्रभु के हर रूप में प्रभु हमें प्रिय लगने चाहिए । |
221. |
अपने परिवार में प्रभु को लाड़ लड़ाने के लिए होड़ लगनी चाहिए । |
222. |
गौ-माता हमारे आराध्य प्रभु श्री कृष्णजी की आराध्या है । इतनी पूजनीय हैं गौ-माता । |
223. |
प्रभु हमें उपदेश देते हैं, परामर्श देते हैं पर कर्म करने के लिए बाध्य नहीं करते हैं । जीव को अपने कर्म करने के लिए प्रभु पूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ते हैं । |
224. |
प्रभु ने बृजवासियों को अपनाया और श्री गिरिराजजी को उठाकर श्री इंद्रदेवजी के कोप से उन्हें बचाया और उनका नाश नहीं होने दिया । श्री गिरिराजजी की श्रीलीला का यह संदेश है कि जिसको प्रभु अपनाते हैं उसका नाश करना किसी के हाथ में नहीं है । |
225. |
श्री इंद्रदेवजी को लगा कि बृजवासियों को उनकी शरण में आना पड़ेगा पर सात दिन तक लगातार घनघोर और मूसलाधार वर्षा होती रही और अंत में श्री इंद्रदेवजी को ही प्रभु की शरण में आना पड़ा और माफी मांगनी पड़ी । |
226. |
सभी को अंत में प्रभु की शरण में आना ही पड़ता है तभी उनका कल्याण होता है । |
227. |
सच्चे संत अपने दुःख से कभी दुःखी नहीं होते । वे दूसरों के दुःख में ही दुःखी होते हैं । |
228. |
अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले साधक को दूसरों के दोष देखना बंद कर देना चाहिए । |
229. |
पंचवटी को शाप था कि वसंत ऋतु वहाँ नहीं पहुँचती थी पर जैसे ही प्रभु श्री रामजी पंचवटी पहुँचे वसंत ऋतु प्रभु के स्वागत के लिए उपस्थित हो गई । सूत्र है कि प्रभु के आते ही सभी अनुकूलता स्वतः ही आ जाती है । |
230. |
माया का स्वरूप संतों ने यह बताया है कि जो असल में नहीं है वही चीज हमें संसार में दिखती है और वह माया के नाम से जानी जाती है । |
231. |
जब तक जीवन में वैराग्य नहीं आता तब तक जीवन में बहुत सारे कष्ट सहने पड़ते हैं । |
232. |
भक्ति का सर्वोत्तम स्वरूप यह है कि हम जिससे भी मिलें उसके अंदर हमें प्रभु के दर्शन हो जाए । |
233. |
भगवती शबरीजी की भक्ति इतनी तीव्र थी कि उनके आश्रम के पत्ते और पत्थर भी श्रीराम-श्रीराम बोलते थे । |
234. |
कलियुग में भगवती जनाबाई की भक्ति के कारण उनके द्वारा बनाए गोबर के उपले भी श्रीविट्ठल-श्रीविट्ठल बोलते थे । |
235. |
भक्तों द्वारा प्रभु को दिया गया नाम किसी भी मंत्र से कम नहीं होता । |
236. |
प्रभु का भजन ही हमारे जीवन को संवारता है । |
237. |
प्रभु का शब्दमय रूप श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । |
238. |
प्रभु के बारे में श्रवण करके हम प्रभु को अपने चित्त में उतार सकते हैं । इसलिए श्रवण भक्ति सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि श्रवण के बिना अन्य आठ प्रकार की भक्ति हम नहीं कर सकते । |
239. |
भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु के बारे में श्रवण किया, प्रभु को देखा नहीं था मात्र श्रवण करके प्रभु को प्राप्त कर लिया क्योंकि वे प्रभु के बारे में श्रवण से प्रभु के प्रति आकर्षित हो गईं । |
240. |
प्रभु के कीर्तन से हमारा विषैला मन साफ होता है । |
241. |
प्रभु कर्ण यानी कान के माध्यम से हमारे हृदय में प्रवेश करते हैं । |
242. |
सभी संतों ने संकीर्तन को अपने जीवन में लाकर प्रभु को पाया है । प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी का नित्य और निरंतर संकीर्तन करते रहते हैं । जितना संकीर्तन जीवन में होगा उतना आनंद जीवन में बढ़ेगा । कलियुग में प्रभु प्राप्ति के साधन में प्रभु का संकीर्तन सबसे ऊपर है । |
243. |
प्रभु का स्मरण करना प्रभु की भक्ति का एक बहुत बड़ा अंग है । हम प्रभु को विपदा में और दुःख में तो याद करते हैं पर सुख में प्रभु को याद नहीं करते हैं । क्या हमने कभी सोचा है कि सुख में प्रभु को याद नहीं करने की कितनी बड़ी गलती हम जीवन में करते हैं ? |
244. |
श्रीगोपीजन प्रभु का निरंतर स्मरण करती थीं और प्रभु से दूर रहने पर भी उनका प्रभु का चिंतन और स्मरण चलता ही रहता था । |
245. |
सुख की अवस्था में भी निरंतर प्रभु का स्मरण जीवन में होते रहना चाहिए । |
246. |
जिनकी जिह्वा प्रभु का नाम नहीं लेती, जिनका चित्त प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्मरण नहीं करता, जिनका सिर प्रभु के श्रीकमलचरणों में नहीं झुकता उन्हें नर्क में जाना पड़ता है । ऐसा प्रभु श्री यमराजजी ने अपने यमदूतों से कहा है । |
247. |
संत कहते हैं कि जो प्रभु के श्रीकमलचरणों की धोवन यानी चरणामृत रोजाना पीते हैं उन्हें दोबारा कभी जन्म नहीं लेना पड़ता । |
248. |
प्रभु की पूजा नित्य करनी चाहिए क्योंकि प्रभु पूजन से प्रसन्न होते हैं । |
249. |
भक्ति को अपनी दिनचर्या ही बना लेना चाहिए । |
250. |
राजा श्री परीक्षितजी को जब एक श्लोक में प्रभु श्री शुकदेवजी ने प्रभु श्री कृष्णजी की कथा सुनाई तो उन्होंने निवेदन किया कि प्रभु की कथा उन्हें संक्षेप में नहीं बल्कि पूर्ण विस्तार से सुनाएँ । |
251. |
जब जीव प्रभु का आश्रय लेता है तो उसके सभी बंधन खुल जाते हैं । |
252. |
श्रीगोपीजन के साथ श्रीरास लीला प्रभु की काम विजय श्रीलीला है । |
253. |
जीव और प्रभु का मिलन ही श्रीरास है । |
254. |
जीव और प्रभु के मिलन में सबसे बड़ी बाधा काम है । इसलिए श्रीरास लीला काम विजय लीला है । |
255. |
श्रीरास पंचाध्यायी का चिंतन करने वाले को प्रभु की पराभक्ति प्राप्त होती है । |
256. |
प्रभु को नहीं मानना ईशनिंदा के समान जघन्य अपराध है । |
257. |
प्रभु ने श्री गिरिराजजी को उठाया और उसका श्रेय श्रीगोपों की लाठियों को दिया । प्रभु हमेशा श्रेय अपने भक्तों को देते हैं क्योंकि प्रभु कभी भी खुद श्रेय नहीं लेते । |
258. |
दुनिया का कोई भी बंधन प्रभु को नहीं बांध सकता । प्रभु केवल और केवल प्रेमाभक्ति से ही बंधते हैं । |
259. |
प्रभु की माया सबको बांध कर रखती है पर वही माया प्रभु को स्पर्श तक नहीं कर सकती । |
260. |
प्रभु की बांसुरी जब गौ-माता सुनतीं और अगर उनका मुँह चारे से भरा हुआ होता तो वे चारा खाना या निगलना ही भूल जातीं । |
261. |
प्रभु के सच्चे भक्त प्रभु के अलावा किसी से भी संपर्क रखना नहीं चाहते । |
262. |
प्रभु वार्ता के अलावा अन्य किसी की भी वार्ता प्रभु के भक्त सुनना नहीं चाहते । |
263. |
प्रभु के लिए मन में आए विचारों को भक्ति भाव में परिवर्तित करना चाहिए । |
264. |
प्रभु के लिए जीवन में समर्पित भाव बनाना सबसे जरूरी है । |
265. |
संतों और भक्तों के द्वारा भक्ति के बताए हुए मार्ग पर ही जीव को चलना चाहिए । |
266. |
ज्ञान से अभिमान नहीं आना चाहिए तभी वह ज्ञान श्रेष्ठ है । प्रभु श्री हनुमानजी ज्ञानियों के शिरोमणि हैं क्योंकि उनमें अपने ज्ञान का अभिमान है ही नहीं । |
267. |
सच्चा संत अपनी महिमा प्रकट करना नहीं चाहता । |
268. |
सच्चा संत कभी भी प्रसिद्ध होना नहीं चाहता । |
269. |
जीवन में प्रभु का सदैव हाथ पकड़कर रखना चाहिए । |
270. |
जीव हमेशा प्रभु की परीक्षा लेता रहता है । जीव प्रभु से कहता है कि मेरा यह काम कर दें तो मैं जानूँ कि आप प्रभु हैं । यह एकदम गलत है । श्री सुग्रीवजी ने भी बालि से मल्लयुद्ध से पहले प्रभु की परीक्षा ली जो की गलत थी । |
271. |
सच्चा संत वही है जो सब कुछ छोड़ देगा पर प्रभु की भक्ति कभी नहीं छोड़ेगा । |
272. |
जहाँ भक्ति आती है प्रभु भी वहाँ आने से अपने आपको रोक नहीं पाते । |
273. |
प्रभु की शरणागति इतनी प्रबल है कि वह पापियों में भी घोर पापी का क्षणभर में उद्धार कर देती है । |
274. |
पापियों के लिए प्रभु की दो ही शर्तें हैं । पहला, पूर्व में किए पाप का सच्चे मन से प्रायश्चित और दूसरा आगे वह पाप कभी नहीं करने का संकल्प । यह दोनों शर्तें पूरी होते ही प्रभु पापियों का उद्धार कर देते हैं । |
275. |
संत कहते हैं कि न पैसे वाला जीवन में सुखी हो पाता है, न प्रतिष्ठा वाला जीवन में सुखी हो पाता है, जीवन में सुखी केवल प्रभु की भक्ति करने वाला ही हो पाता है । |
276. |
प्रभु का रास्ता कभी भी अपने भक्तों के लिए बंद नहीं होता । |
277. |
अहंकार रहने पर प्रभु की कृपा कभी नहीं मिलेगी । अहंकार त्यागने पर ही प्रभु कृपा जीवन में मिल सकती है । |
278. |
हमारी श्वास बाहर निकलती है और वापस भीतर आ जाती है यही प्रभु की सबसे बड़ी कृपा है । श्वास अगर वापस भीतर नहीं आए तो मृत्यु निश्चित है । |
279. |
इकट्ठा करने में वह आनंद नहीं है जो वैराग्य में है । संत इसलिए इकट्ठा नहीं करते और वैराग्यमय जीवन जीते हैं । |
280. |
हम जिस संकल्प को लेकर प्रभु की कथा सुनते हैं अगर वह संकल्प सात्विक है तो वह संकल्प जरूर पूरा होता है । |
281. |
भक्ति का संकल्प रखकर ही प्रभु की कथा सुननी चाहिए । यही कथा सुनने का सही उद्देश्य है । |
282. |
जहाँ प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा, प्रभु के विग्रह के दिव्य दर्शन, प्रभु की भक्ति और प्रभु का भजन नित्य होता है वहीं इस संसार का श्रीबैकुंठ है । |
283. |
संत प्रभु की महिमा बताकर जीवन में प्रभु भक्ति बढ़ाने के लिए हमें प्रेरित करते हैं । |
284. |
प्रभु श्री हनुमानजी भक्ति, वैराग्य और ज्ञान के पराकाष्ठा हैं । |
285. |
जैसे एक वर्ष का बालक अपनी माँ पर पूरी तरह से निर्भर रहता है कि माँ उसे खिलाएगी तो ही वह खाएगा, खुद नहीं खा सकता वैसे ही गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु हमें ऐसी भक्ति दें जिसका स्वरूप ऐसा हो कि जीव भक्ति के लिए भी प्रभु पर निर्भर रहे । |
286. |
पूरी श्री रामचरितमानसजी का प्राण स्वरूप श्री सुंदरकांडजी है । सिर्फ श्री सुंदरकांडजी का पाठ करने से पूरे श्री रामचरितमानसजी के पाठ का फल मिल जाता है । इसलिए यह प्रचलन है कि आज कलियुग में घर-घर में श्री सुंदरकांडजी का पाठ होता है । |
287. |
प्रभु के श्री रामावतार में वात्सल्य स्थान खाली नहीं था क्योंकि श्री दशरथजी और भगवती कौशल्या माँ ने उसे ले लिया था, माधुर्य स्थान खाली नहीं था क्योंकि भगवती सीता माता ने उसे ले लिया था, बंधु स्थान खाली नहीं था क्योंकि श्री लक्ष्मणजी और श्री भरतजी ने उसे ले लिया था, सखा स्थान खाली नहीं था क्योंकि श्री सुग्रीवजी ने उसे ले लिया था सिर्फ एक दास का स्थान बचा था तो वह प्रभु श्री हनुमानजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें वही चाहिए था । |
288. |
अकेले प्रभु श्री हनुमानजी ने भगवती सीता माता को लंका जाकर खोजा पर स्वयं यश नहीं लिया और पूरी वानर सेना की टोली जो उनके साथ गई थी उनको यश दिलाया । |
289. |
साधना के मार्ग में व्यवधान जरूर आते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी जब समुद्र लांघकर भक्ति स्वरूपा भगवती जानकी माता से मिलने गए तो बीच में सागर में कितने व्यवधान आए पर उन्होंने सबको प्रभु की कृपा से पार किया । आकाश मार्ग से नागमाता सुरसा आई, पाताल मार्ग से मैनाक पर्वत आया और जल मार्ग से सिंहिका आई पर प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्रीरामजी और भगवती सीता माता की कृपा से सफल हुए । |
290. |
वासना बढ़े तो भजन को दोगुना बढ़ाना चाहिए । सुरसा वासना स्वरूप है इसलिए नागमाता सुरसा ने जब मुँह फैलाना आरंभ किया तो प्रभु श्री हनुमानजी भी दोगुना आकार बढ़ाते चले गए । |
291. |
अपने इष्ट, अपने मंत्र और अपनी माला को कभी नहीं बदलना चाहिए । |
292. |
प्रभु का नाम लें और प्रभु का काम भी करें तो प्रभु दोगुनी कृपा करेंगे । |
293. |
जब प्रभु श्री हनुमानजी ने लंका में भगवती सीता माता को प्रभु की कथा सुनाना प्रारंभ किया तो यह प्रभु की कथा का प्रभाव था कि माता का विरह का दुःख तुरंत खत्म हो गया । |
294. |
भगवती सीता माता प्रभु श्री रामजी को करुणानिधान कहकर संबोधित करती थी । इसलिए जब प्रभु श्री हनुमानजी ने कहा कि मुझे शपथ करुणानिधान की तब भगवती सीता माता को विश्वास हो गया कि प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी के सेवक और संदेशवाहक हैं । |
295. |
प्रभु श्री वेदव्यासजी के शिष्यों से श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्लोक सुनकर और उसमें प्रभु के रूप और प्रभु के स्वभाव का वर्णन सुनकर प्रभु श्री शुकदेवजी निराकार से सगुण साकार प्रभु के प्रति तुरंत आकर्षित हो गए । |
296. |
जब मनुष्य के पतन का समय आता है तो उसका विवेक पहले ही उसका साथ छोड़ देता है पर जो प्रभु से जुड़े रहते हैं प्रभु उन्हें पतन से बचा लेते हैं । |
297. |
जब प्रभु को अपने भक्त दिखते हैं तो उन्हें भूख भी लग जाती है । श्री रामावतार में प्रभु को भगवती शबरीजी के यहाँ और श्री कृष्णावतार में प्रभु को भगवती विदुरानीजी के यहाँ जाने पर भूख लगी । |
298. |
जो स्वाद भगवती विदुरानीजी द्वारा दिए केले के छिलकों में था वह स्वाद प्रभु को केले की गिरी में भी नहीं मिला जब श्री विदुरजी ने प्रभु को केले की गिरी दी । |
299. |
प्रभु व्यंजन का स्वाद नहीं लेते, प्रभु उसमें छिपे भक्ति भाव का स्वाद लेते हैं । |
300. |
प्रभु जब जीवन में होते हैं तो ही हमें प्रभु का बनाया संसार सुंदर लगता है और वह सुख भी देता है । |
301. |
प्रभु के साथ ऐसा रिश्ता बनाना चाहिए कि प्रभु आकर्षित होकर हम तक खींचे चले आएं । |
302. |
प्रभु की भक्ति का उपयोग संसार मांगने के लिए कभी नहीं करना चाहिए । |
303. |
हमें अपने जीवन की नैया की बागडोर प्रभु को ही सौंपनी चाहिए । |
304. |
भक्ति से प्रभु खींचे हुए और प्रेम में बंधे हुए चले आते हैं । |
305. |
प्रभु का आश्रय लेने के बाद भी प्रतिकूलता आए तो भी प्रभु में भरपूर निष्ठा रखनी चाहिए । |
306. |
प्रभु की रजा में हमें राजी रहना चाहिए । |
307. |
पांडवों ने जीवन में जो कुछ भी पाया वह प्रभु की कृपा से ही पाया । |
308. |
प्रभु अपने भक्त का उपयोग अपने कार्य हेतु करते हैं । प्रभु भक्त का चुनाव अपने कार्य के लिए करते हैं । यह उस भक्त का अहोभाग्य होता है । |
309. |
श्री अर्जुनजी ने नारायणी सेना की जगह प्रभु श्री नारायणजी को चुना और इस कारण उनकी युद्ध से पहले ही विजय पक्की हो गई । |
310. |
प्रभु के लिए किया जाने वाला साधन और प्रभु में निष्ठा कभी नहीं छूटनी चाहिए चाहे जीवन ही छूट जाए । |
311. |
कलियुग का सबसे बड़ा गुण यह है कि कलियुग में प्रभु का नाम ही सबसे बड़ा आधार है । |
312. |
जो अपनी इंद्रियों द्वारा संचालित होता है उस जीव पर कलियुग प्रभाव करता है । |
313. |
पाप हो जाए फिर भी उसका फल नहीं भोगना पड़े यह केवल प्रभु की शरणागति से ही संभव है । यह केवल भक्ति से ही संभव है । यहाँ पर "केवल" शब्द का प्रयोग हुआ है कि केवल भक्ति से ही ऐसा संभव है । |
314. |
जब हम प्रभु की शरण में चले आते हैं तो पीछे किए हुए पापों से हमें प्रभु की कृपा से छुटकारा मिल जाता है । |
315. |
भक्त को अपनी भक्ति का अगर अभिमान हो जाए तो वह गिर जाता है । यह समझना चाहिए कि अगर कोई जीव प्रभु की भक्ति कर रहा है तो यह भी प्रभु की कृपा के कारण ही संभव हो पा रहा है । |
316. |
भक्त जहाँ भी जाते हैं वहाँ सबको प्रभु से जोड़कर सबका भला ही करते हैं । |
317. |
जो मृत्यु के समय में भयभीत दिखते हैं तब समझना चाहिए कि यमदूत लेने आए हैं । पर जो मृत्यु के समय शांत और प्रसन्न दिखते हैं तब समझना चाहिए कि भगवान के पार्षद लेने आए हैं । |
318. |
प्रभु जीव पर कृपा करने का बहाना खोजते हैं । प्रभु सदैव हमारा उद्धार करने का बहाना तलाशते रहते हैं । |
319. |
श्री वेदजी ने जो नियम बनाए हैं वही करना धर्म है और जो इन नियमों को तोड़कर कर्म करता है वह अधर्म करता है । |
320. |
कर्म का सिद्धांत है कि बिना फल भोगे कर्मबंधन नहीं छूटते पर भक्ति का सिद्धांत है कि प्रभु कृपा के कारण बिना फल भोगे ही कर्मबंधन से मुक्ति मिल जाती है । |
321. |
व्यक्ति अपनी अंतिम सांस में भी अगर प्रभु का नाम ले लेता है तो भी उसे सभी पापों से तत्काल मुक्ति मिल जाती है पर शर्त यह है कि अंतिम सांस में प्रभु के नाम का उच्चारण हो जाए । यह तभी संभव होता है जब इसका निरंतर अभ्यास जीवनकाल से ही किया जाए । |
322. |
आलस्य करके भी जो प्रभु का नाम लेता है तो भी वह नाम उस जीव का उद्धार कर देता है । |
323. |
अवहेलना में, हास्य में भी जो प्रभु का नाम ले लेता है, प्रभु उसका भी उद्धार कर देते हैं । प्रभु इतने करुणानिधान हैं । |
324. |
जीव को मन में, वाणी से और कर्म करते हुए प्रभु का नाम लेना चाहिए । |
325. |
श्री अजामिलजी ने अपने पुत्र के बहाने अपने अंतिम समय में प्रभु का नाम लिया तो भी उनको उसका कितना बड़ा फल उन्हें मिला कि वे यमपाश से मुक्त हो गए और नर्क जाने से बच गए । फिर बचे हुए जीवन में प्रभु नाम का आश्रय लेकर वे प्रभु के धाम पहुँच गए । |
326. |
प्रभु के नाम की महिमा है कि वह नाम हमें पवित्र करेगा और फिर हमारा प्रभु से मिलन करवाएगा । |
327. |
संसार की संपत्ति को कमाने के लिए जीवनभर प्रयास करना पड़ता है फिर उसकी सुरक्षा के लिए भी जीवनभर प्रयास करना पड़ता है फिर भी वह अंत समय हमारे कोई काम नहीं आती । |
328. |
शास्त्र कहते हैं कि अनैतिक रूप से कमाई संपत्ति अपने साथ पंद्रह दोषों को साथ लेकर आती है । |
329. |
कर्मकांड में मंत्र शुद्ध भी हो तो भी स्वर बदलने से फल उल्टा हो जाता है पर यह भक्ति की महिमा है कि भक्ति में कभी भी फल उल्टा नहीं होता । |
330. |
संसार बहुत स्वार्थी होता है क्योंकि संसार के सभी रिश्ते स्वार्थ पर टिके हुए होते हैं । |
331. |
प्रभु कभी भी अपने भक्त की पराजय नहीं होने देते । |
332. |
भक्त और संत अपनी असफलता में भी प्रभु की कृपा ही देखते हैं । |
333. |
प्रभु का जिसे अपनी गोद में उठाने का मन होता है उसको अपने लिए रिक्त करने के लिए प्रभु उसका सब कुछ छीन लेते हैं । यह उस जीव पर प्रभु की बड़ी अदभुत कृपा होती है । |
334. |
भक्त सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवास चाहते हैं । |
335. |
जैसे एक चिड़िया का चूजा अपनी माँ के पास उड़कर नहीं जा सकता और उसकी माँ को ही उस चूजे के पास आना पड़ता है वैसे ही भक्त प्रभु को कहते हैं कि मैं स्वयं आप तक नहीं आ सकता, प्रभु आपको ही मेरे उद्धार के लिए मेरे पास आना पड़ेगा । |
336. |
हर कर्म अगर हम प्रभु को समर्पित कर देते हैं तो वह पूजा हो जाती है । |
337. |
हमारे मन की मलिनता जब धुल जाती है तब ही प्रभु हमें स्वीकारते हैं । |
338. |
हमारे मन में जो भी भावनाएँ हों वह केवल प्रभु के लिए ही होनी चाहिए । |
339. |
भक्त ज्योतिष को भी यही पूछते हैं कि उनका प्रभु मिलन कब होगा । |
340. |
भक्त चाहते हैं कि ऐसा योग बने कि प्रभु उन्हें स्वीकार कर लें । |
341. |
भक्त यही चाहते हैं कि प्रभु कहें कि यह जीव मेरा है । |
342. |
हमारा शरीर हमें श्रीश्याम रंग में रंगने के लिए ही मिला है । संसार के रंग में रंगने के लिए नहीं मिला है । |
343. |
प्रभु भक्त को याद करें यह उस भक्त का अहोभाग्य होता है । |
344. |
प्रभु की प्रकृति प्रभु के भक्त की सेवा में लग जाती है । |
345. |
भक्त वही है जो अपने भीतर अंतःकरण में भगवान को प्रकट कर लेता है । |
346. |
संसार में आनंद नहीं है पर हमें आनंद दिखाई देता है जो कि माया का प्रभाव है । |
347. |
जगत को जगदीश्वर दृष्टि से देखना चाहिए । |
348. |
भोजन ऐसा सात्विक करना चाहिए जिसको करने से भजन जीवन में बढ़ सके । सूत्र यह है कि भोजन कभी भी भजन में बाधक नहीं बने । |
349. |
आकाश खड़ा है बिना एक भी खंभे के । हम एक छोटा-सा आशियाना बनाते हैं तो उसमें कितने खंभे लगाने पड़ते हैं पर प्रभु का चमत्कार देखें कि आकाश बिना एक भी खंभे के खड़ा है । |
350. |
कोई भी धार्मिक अनुष्ठान प्रभु को अर्पित होना चाहिए । प्रभु को समर्पित हुए बिना उस अनुष्ठान की सफलता नहीं है । |
351. |
कोई दुःख भी हमें प्रभु तक पहुँचा दे तो उस दुःख को भी मंगलमय मानना चाहिए । |
352. |
भक्तों को दर्शन देने प्रभु नहीं जाते, भक्तों का दर्शन पाने के लिए प्रभु जाते हैं । ऐसा प्रभु ने स्वयं कहा है । प्रभु अपने भक्तों को इतना मान देते हैं । |
353. |
जिस भाव से हम प्रभु की कथा सुनते हैं उसका फल भी वैसा ही मिलता है । इसलिए सौ व्यक्ति कथा सुनते हैं तो सभी में फलभेद होता है । प्रमाद से कथा सुनने का कोई फल सबसे गौण है । |
354. |
प्रभु के प्रेमी प्रभु के बारे में ही सुनना चाहते हैं, अन्य कुछ सुनना नहीं चाहते । |
355. |
प्रभु के अवतार के चार हेतु संतों ने बताए हैं । साधु स्वभाव वाले जीव की रक्षा, दुष्टों का उद्धार, धर्म की स्थापना और प्रभु का श्रीलीला करना जिससे आगे भक्त उनका चिंतन और मनन करके अपना कल्याण कर सकें । |
356. |
प्रभु की कथा सुनते-सुनते प्रभु मिलन की लालसा मन में हो जाए तो ही कथा सुनना सार्थक हुआ, ऐसा मानना चाहिए । |
357. |
भक्त और संत सदैव प्रभु की ही चर्चा करते हैं । |
358. |
भजन का जब रस जीवन में आने लगता है तो भूख, प्यास और नींद भी कम होती जाती है । इसलिए संत और भक्त खाते भी कम हैं और सोते भी कम हैं । |
359. |
अंत में वही होता है जो प्रभु चाहते हैं । |
360. |
जिसके हृदय में संसार रहता है वह जीव सदा दुःखी रहता है । जिसके हृदय में प्रभु रहते हैं वही जीव सदा आनंदित रहता है । |
361. |
जीव भय से भी प्रभु को याद करे तो भी उसे प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । कंस को भय के कारण प्रभु की प्राप्ति हुई । |
362. |
प्रभु का भजन जानकर करें या अनजाने में करें, दोनों ही अवस्था में वह निश्चित कल्याण ही करेगा । |
363. |
जीव को सदैव जीवन में प्रभु की शरण ग्रहण करके रखनी चाहिए । |
364. |
लंका दहन करके आने के बाद प्रभु श्री रामजी अपने भक्त प्रभु श्री हनुमानजी को बार-बार अपने गले लगाना चाहते थे पर प्रभु श्री हनुमानजी बार-बार प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिरते रहे । प्रभु के श्रीकमलचरणों में मिलन भक्त और भगवान का सही मिलन होता है । |
365. |
जो भी शरण में आता है प्रभु उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं । |
366. |
जब प्रभु वनवास के बाद से श्री अयोध्याजी पधारे तो श्री भरतलालजी की नंदीग्राम में तपस्या को देखकर प्रभु श्री रामजी के श्रीनेत्रों में आंसू आ गए । |
367. |
जो अपने सभी बल को भूल जाता है प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं । सूत्र यह है कि हमें अपने बल को भूलना पड़ेगा अगर हमें प्रभु तक अपनी पुकार को पहुँचाना है । पर हम अपने कुटुंबबल, धनबल, बुद्धिबल और अन्य बलों को नहीं भूलते, इसलिए हमारी पुकार प्रभु तक नहीं पहुँचती । |
368. |
संसार का नियम है कि जितना भी हम सुख का प्रयत्न करेंगे उतना ही बड़े रूप में दुःख हमारे जीवन में आएगा । |
369. |
जो पत्थर पानी के थपेड़ों को सहते हैं वे ही श्री शिवलिंगजी बनते हैं और पूज्य हो जाते हैं । सूत्र यह है कि पूज्य बनना है तो जीवन के थपेड़े को सहना ही पड़ेगा । |
370. |
भक्तों और संतों को कभी भी अपने त्याग का अभिमान नहीं होता है । |
371. |
छोड़ने में और अपने आप छूटने में बड़ा फर्क होता है । वैराग्य छोड़ने को नहीं अपितु अपने आप छूटने को कहते हैं । |
372. |
मन का स्वभाव है कि मन को जहाँ जाने से हम रोकेंगे मन वहीं जाता है । इसलिए अपने चंचल मन को नियंत्रित करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसको प्रभु में केंद्रित किया जाए । |
373. |
कलियुग में सबसे बड़ा परमानंद प्रभु नाम जप का परमानंद है । |
374. |
प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु एक बार जिसको पकड़ते हैं उसका कल्याण किए बिना उसे नहीं छोड़ते । |
375. |
प्रभु के जीवन में आते ही हमारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है । |
376. |
श्रीगोपीजन भगवती यशोदा माता के यहाँ उलाहना देने नहीं अपितु प्रभु के दर्शन करने जाती थीं । उलाहना देना तो मात्र प्रभु दर्शन करने का बहाना था । |
377. |
प्रभु हमारे चित्त को ही आकर्षित कर लेते हैं । |
378. |
जिसकी जैसी भावना होती है प्रभु उसे उसी रूप में दिखाई देते हैं । |
379. |
जहाँ अधर्म का समर्थन हो वहाँ संत कभी नहीं रुकते । अधर्म के बीच रुकने से अधर्म का पाप हमें भी लगता है । |
380. |
भारतीय संस्कृति में मरे हुए व्यक्ति को भी सम्मान दिया गया है । इसलिए अर्थी को देखकर प्रणाम करने का विधान है । दुष्ट से दुष्ट की भी मृत्यु होने के बाद स्वर्गीय लिखा जाता है चाहे वह अपने पापकर्मों के कारण नर्क ही जाए । यह भारतीय संस्कृति का गौरव है । |
381. |
प्रभु के आनंद में भक्त कभी बाधा नहीं देते । श्री नंदजी को जब लगा कि प्रभु श्री मथुराजी में रुकना चाहते हैं तो वे प्रभु के आग्रह पर चुपचाप श्री वृंदावनजी चले आए । |
382. |
प्रभु के लिए सब कुछ न्यौछावर करने का नाम ही प्रेमाभक्ति है । |
383. |
श्री नंदबाबा और भगवती यशोदा माता ने प्रभु से बिछड़ने के बाद अपना जीवन इसलिए धारण करके रखा कि कहीं प्रभु को उनका अमंगल सुनकर कष्ट न हो । |
384. |
श्री मथुराजी में प्रभु श्रीगोपीजन को याद करके रोते थे । श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम कितना बड़ा था इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रभु उनके वियोग में रोते थे । प्रभु के लिए भक्त रोते हैं पर यहाँ प्रभु अपने भक्तों के लिए रोते हैं । |
385. |
प्रभु ने श्री वृंदावनजी में श्रीगोपीजन से कहा था कि मैं वापस आऊँगा । श्री रामचरितमानसजी में भी भगवती शबरीजी को उनके गुरुजी द्वारा कहा गया था कि प्रभु आएंगे पर कब आएंगे यह उन्होंने नहीं बताया । दोनों जगह रोजाना प्रभु का जीवन में इंतजार हुआ । यह भक्ति की आदर्श अवस्था है कि प्रभु का हमारे जीवन में रोजाना इंतजार होता रहे । |
386. |
श्रीगोपीजन श्री वृंदावनजी के जिस स्थान पर जाती थीं वहाँ उन्हें प्रभु की झांकी दिखती थी और उन्हें प्रभु की याद आती थी । |
387. |
श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम अदभुत से भी अदभुत था । वे प्रतिदिन प्रभु के लिए माखन निकालतीं, घर पर रसोई बनातीं, घर की सफाई करतीं, बंधनवार लगातीं और प्रभु के आगमन का इंतजार करती रहतीं । |
388. |
संत कहते हैं कि प्रभु प्रेम क्या होता है यह बताने वाला कोई नहीं होता अगर श्रीगोपीजन नहीं होतीं । |
389. |
श्रीगोपीजन की जिधर भी दृष्टि जाती उधर उन्हें प्रभु ही दिखाई देते । |
390. |
जब श्री उद्धवजी आए तो श्रीगोपीजन ने प्रभु की एक-एक घटना, एक-एक श्रीलीला को इतने विस्तार से उन्हें सुनाया । |
391. |
श्री उद्धवजी ने मुक्ति नहीं मांगी । वे श्री वृंदावनजी की लता, वृक्ष बनना चाहते हैं जिससे श्रीगोपीजन की चरणों की धूल उन पर उड़कर पड़े और वे पवित्र हो जाए । |
392. |
प्रभु अपने भक्तों को वियोग और संयोग दोनों देते हैं । प्रभु वियोग इसलिए देते हैं क्योंकि वियोग के बाद संयोग और भी मधुर बन जाता है । |
393. |
प्रभु श्री कृष्णजी ने जरासंध के साथ युद्ध के समय पहली बार शस्त्र धारण किया । अब तक श्रीबृज में जितने भी असुर आए उन सबको और कंस को भी प्रभु ने बिना शस्त्र के मारा । |
394. |
जरासंध दुष्टों को इकट्ठा करके लाता रहा और प्रभु उसकी सेना को मार कर उसको हर बार छोड़ देते थे । इससे फिर वह दुष्टों को इकट्ठा करके लाता और प्रभु को उनका संहार करने का मौका मिलता । इससे प्रभु को दुष्टों को खोजने कही नहीं जाना पड़ता । |
395. |
जब तक प्रभु नहीं चाहते भक्त उन्हें पहचान नहीं पाते । |
396. |
भक्तों का काम प्रभु का भजन करना ही होता है । |
397. |
प्रभु भक्ति के प्रचार के लिए अपने भक्तों को संसार में भेजते हैं । |
398. |
बावन बार प्रभु ने कलियुग में श्री नरसी मेहताजी को दर्शन दिए । कलियुग में तो भक्ति का इतना बड़ा प्रभाव है । |
399. |
प्रभु से हमेशा सच्चे बनकर रहना चाहिए । |
400. |
प्रभु को बस अपने भक्तों से प्रेम की ही जरूरत रहती है । |
401. |
प्रभु को हमारा मन ही चाहिए होता है । |
402. |
प्रभु इतनी तीव्रता से किसी के लिए नहीं दौड़े जितना भक्त श्री सुदामाजी से मिलने के लिए दौड़े । |
403. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का अभिषेक भक्त आंसुओं से करे यह तो होता है । पर प्रभु ने अपने भक्त श्री सुदामाजी के चरणों का अपने आंसुओं से अभिषेक किया यह एक ही मिसाल शास्त्रों में उपलब्ध है । |
404. |
प्रभु को हमारी वस्तु की जरूरत नहीं अपितु हमारे भाव की जरूरत है । |
405. |
प्रभु जब भक्तों को देने आते हैं तो स्वयं तक को दे देते हैं । |
406. |
जब श्री द्वारकापुरीजी से प्रभु ने खाली हाथ विदा किया तो श्री सुदामाजी ने यह सोचा कि संपत्ति पाने से उनके भजन में बाधा पड़ेगी इसलिए प्रभु ने उन्हें कुछ नहीं दिया । |
407. |
श्री सुदामाजी जब अपने घर लौटे तो उनकी पत्नी भगवती सुशीलाजी की असंख्य सेविकाएं भी हीरे का हार पहने हुए थीं । इतना वैभव प्रभु ने श्री सुदामापुरी को प्रदान किया । |
408. |
श्री सुदामाजी के जीवन में श्रीकृष्ण प्रेम और श्रीकृष्ण विश्वास इतना था जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती । |
409. |
भगवती मीराबाई, भक्त श्री सूरदासजी प्रभु प्रेम में भजन गाते थे क्योंकि वे भक्त थे । भक्त हमेशा प्रभु प्रेम में गाता है, संसार को दिखाने के लिए नहीं गाता । |
410. |
दुष्ट दुशासन भगवती द्रौपदी के तन का एक भी वस्त्र उतार नहीं पाया और प्रभु ने साड़ियों का पहाड़ जितना ढेर लगा दिया । |
411. |
श्री गजेंद्रजी को बचाने प्रभु नंगे पांव दौड़े फिर भी प्रभु को लगा कि विलंब हो सकता है इसलिए प्रभु ने स्वयं से पहले अपने चक्रराज श्री सुदर्शनजी को ग्राह के उद्धार के लिए भेज दिया । |
412. |
धन और भजन में से एक को चुनना हो तो भक्त त्रिलोकी की संपत्ति को भी ठुकरा देते हैं और भजन और भक्ति को ही जीवन में चुनते हैं । |
413. |
भक्तों को संसार के वैभव से कुछ लेना-देना नहीं होता । |
414. |
कंचन यानी धन, कामिनी यानी स्त्री और कीर्ति भजन में बाधा बनने का सबसे बड़ा कारण होते हैं, ऐसा शास्त्र मत है । |
415. |
प्रभु की माया से बचने के लिए प्रभु की शरणागति ही श्रेष्ठतम मार्ग है । |
416. |
विलंब हमेशा हमारी तरफ से होता है । प्रभु की तरफ से कभी विलंब नहीं होता । |
417. |
अमृत से पहले विष आता है । सफलता से पहले असफलता जरूर आती है । सुख से पहले दुःख अवश्य आता है । यही संसार का विधान है । |
418. |
जन्म देने वाली माता नौ माह के लिए हमें दूध पिलाती है पर गौ-माता जीवन भर हमें दूध पिलाती है । इसलिए जन्म देने वाली माता से भी गौ-माता बड़ी है । |
419. |
बिना पति के पत्नी कहीं नहीं जाती । इसी तरह प्रभु के बिना भगवती लक्ष्मी माता स्थाई रूप से कहीं नहीं जातीं । |
420. |
धन के दुरुपयोग से भगवती लक्ष्मी माता रूठ जाती हैं । |
421. |
सनातन धर्म में युगल सरकार की पूजा का विधान है । इसलिए श्री लक्ष्मीनारायणजी, श्री सीतारामजी, श्री राधेकृष्णजी, श्री उमाशंकरजी की पूजा होती है । |
422. |
अहंकार सबसे बड़ा दोष है इसलिए हमें अहंकार से सदैव बचकर रहना चाहिए । |
423. |
प्रभु मार्ग पर चलने के लिए हमें सबको प्रेरणा देनी चाहिए । |
424. |
प्रभु कभी भी भक्त की हार नहीं होने देते । |
425. |
प्रभु की कृपा और दया इतनी बड़ी है कि वह भक्त को सदैव विजयी बनाती है । |
426. |
प्रभु जीव से बस भक्ति और प्रीति चाहते हैं । |
427. |
प्रभु सदैव अपने भक्तों के अधीन रहते हैं । |
428. |
प्रभु कितनी भी धन दौलत हमें दें फिर भी प्रभु की सेवा हमें अपने हाथों से करनी चाहिए । राजा श्री अम्बरीषजी चक्रवर्ती राजा होते हुए भी अपने हाथों से प्रभु की नित्य सेवा किया करते थे । |
429. |
प्रभु का नाम जप अपने द्वारा ही होना चाहिए तभी उस नाम जप का सच्चा फल मिलता है । |
430. |
प्रभु के अनन्य भक्त कभी भी, किसी भी परिस्थिति से डरते नहीं । |
431. |
प्रभु के शरणागत हुए जीव को अपनी चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसकी चिंता प्रभु करते हैं । |
432. |
प्रभु अपना अपराध तो सहन कर लेते हैं पर अपने भक्तों पर किया अपराध कभी भी सहन नहीं करते । |
433. |
प्रभु अपने अनन्य भक्तों के पराधीन रहते हैं, ऐसा प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहा । |
434. |
जो भक्त अपना धन, परिवार और प्राण प्रभु को समर्पित करता है प्रभु कहते हैं कि ऐसे भक्त मेरे पराधीन नहीं अपितु मैं उनके पराधीन रहता हूँ । |
435. |
जीव का जन्म प्रारब्ध और कर्मफल भोगने के लिए होता है । |
436. |
जीव प्रकृति के वश में है पर प्रभु के वश में प्रकृति रहती है । |
437. |
सारे जगत को मानव चरित्र की मर्यादा का दिव्य रूप दिखाने के लिए प्रभु का श्री रामावतार हुआ । |
438. |
स्वर्ग से भी बढ़कर अपनी जन्मभूमि होती है, प्रभु श्री रामजी ने यह उपदेश श्री लक्ष्मणजी को दिया । |
439. |
प्रभु के अपराधी को कोई भी आश्रय नहीं देता । |
440. |
प्रभु सहज रूप से बड़े विनम्र और दयालु हैं । |
441. |
जब जन्मों-जन्मों का पुण्य उदय होता है तब श्री सुदामाजी जैसे भक्त का दर्शन होता है, ऐसा प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कहा । |
442. |
श्री द्वारकाजी के व्यंजन में वह स्वाद प्रभु ने नहीं पाया जो श्री सुदामाजी के लाए चिउड़े में प्रभु ने पाया । |
443. |
प्रभु हमसे जो भी पाते हैं उससे हजार गुना ज्यादा वापस लौटाते हैं, यह प्रभु का नियम है । |
444. |
श्री सुदामापुरी की संपत्ति श्री बैकुंठजी की संपत्ति को भी लज्जित करती थी । प्रभु ने इतनी संपदा भक्त श्री सुदामाजी को दी थी । |
445. |
प्रभु के श्रीकमलचरण ही हमारे हृदय में निवास करने चाहिए । |
446. |
इतनी प्रेमाभक्ति प्रभु के लिए भगवती राधा माता में है कि वे प्रभु प्रेम की सबसे बड़ी प्रतीक बन गई हैं । |
447. |
भगवती राधा माता नित्य प्रभु श्री कृष्णजी के चिंतन में ही लगी रहती हैं । |
448. |
प्रभु माखन चोरी श्रीलीला से श्रीगोपीजन को उनके घर बैठे ही आनंद देते थे । |
449. |
अन्य पुराणों के ज्ञान में भटकाव हो सकता है पर श्रीमद् भागवतजी महापुराण श्रीवेदों का सार युक्त श्रीग्रंथ है इसलिए भटकाव की कोई संभावना ही नहीं है । |
450. |
प्रभु के सच्चे भक्त कभी भी माया से नहीं बंधते । यह भक्ति का कितना बड़ा सामर्थ्य है । |
451. |
प्रभु की दृष्टि ही अमृतमयी है । |
452. |
जीव को सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण में रहना चाहिए । |
453. |
श्रीगोपीजन प्रभु के लिए अपने भावों का आदान-प्रदान आपस में नित्य किया करती थीं । वे लगातार अपने को प्रभु चर्चा के बीच में ही रखती थीं । |
454. |
प्रभु के बांसुरी वादन से तीनों लोक मोहित हो जाते हैं । |
455. |
पूरी श्रद्धा हो तो एक ही जन्म में प्रभु प्राप्ति हो सकती है । |
456. |
प्रभु का नाम अमृततुल्य है । |
457. |
प्रभु का नाम नहीं लिया तो फिर जीवन धारण करके भी क्या किया । |
458. |
श्रद्धा और विश्वास की कमी हो तो उस साधक को प्रभु दर्शन नहीं होता । |
459. |
पूर्णिमा का पूर्ण श्रीचंद्रमा भी उतना धन्य नहीं होता जितना द्वितीया का अर्ध श्रीचंद्रमा होता है क्योंकि द्वितीया के अर्धचंद्र को प्रभु श्री शिवजी ने अपने श्रीमस्तक पर धारण किया हुआ है । |
460. |
प्रभु की सेवा दिखावे के लिए नहीं अपितु अपनी अंतरात्मा के आत्मानंद के लिए करनी चाहिए । |
461. |
प्रभु की सेवा में जब तक हमारा तन, मन और धन नहीं लगता तब तक हमारा जीवन निरर्थक होता है । |
462. |
हम प्रभु के अंश हैं इसलिए प्रभु से दूर रहने पर हमें शांति कभी नहीं मिल सकती । |
463. |
प्रभु सदैव अपने भक्तों का मान बढ़ाते हैं । |
464. |
हमारा मन और हमारी आत्मा प्रभु को समर्पित हो जाए तभी हमारा जीवन सफल होता है । |
465. |
बिना हमारी योग्यता और पात्रता के भी प्रभु हम पर कृपा करते हैं । |
466. |
भक्ति द्वारा जब व्याकुलता बढ़ती है तब प्रभु जीवन में आते हैं । |
467. |
भक्ति की व्याकुलता के बाद प्रभु मिलन का परमानंद ही न्यारा होता है । |
468. |
भक्त परमार्थ की भावना से परिपूर्ण होते हैं । |
469. |
भक्त प्रभु की भक्ति को जन-जन तक पहुँचाने के लिए तत्पर रहते हैं । |
470. |
सांसारिक सुख मनुष्य के साथ जानवरों को भी मिलता है पर भक्ति का परमानंद केवल मनुष्य मात्र के लिए ही है । |
471. |
सोने को जितना तपाया जाता है उतना ही उसका मल निकलता है । ऐसे ही मानव जीवन जितना तपता है उतना ही मल रहित होता जाता है । |
472. |
एक व्यक्ति है जो मेले में होकर भी अकेला होता है । दूसरा व्यक्ति है जो अकेले में होकर भी मेले में होता है । यह हमारी मन की स्थिति है । मन के द्वारा ही ऐसा होता है । |
473. |
अपने शांत और वैरागी मन को संसार में नहीं अपितु प्रभु में लगाना चाहिए । |
474. |
अंतिम समय मुख से सिर्फ प्रभु का नाम ही निकलना चाहिए । |
475. |
अंतिम समय सिर्फ प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही ध्यान होना चाहिए । |
476. |
प्रभु के दर्शन मात्र से ही जीव के सभी दुःख दूर हो जाते हैं । |
477. |
जिन भक्तों ने प्रभु का अनुभव किया है वे अपनी सुध-बुध खो देते हैं । प्रभु का इतना अदभुत आकर्षण होता है । |
478. |
श्री कामदेवजी ने प्रभु को श्रीरास के बाद अजीत कहकर संबोधित किया यानी जिनको काम भी कभी जीत नहीं पाया । |
479. |
श्री रासलीला के कथा श्रवण से प्रभु के श्रीकमलचरणों में दृढ़ भक्ति होती है । यह श्री रासलीला का फलादेश है । |
480. |
भक्त कुछ भी देता है तो अहंकार का भाव नहीं रखता अपितु उदारता का भाव रखता है । |
481. |
किसी को भी सत्कर्म करने से रोकना नहीं चाहिए । ऐसा करना पाप माना गया है । |
482. |
प्रभु हमारा तन, मन और धन तीनों मांगते हैं । इसलिए प्रभु ने राजा श्री बलिजी से तीन पग मांगे । तीन पग का तात्पर्य है तन, मन और धन । |
483. |
जब तक भगवती गंगा माता में मृत व्यक्ति की अस्थियां रहती है तब तक वह जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों में रहता है । इतनी महिमा है श्री गंगाजल की । |
484. |
पूर्व काल में बहुत से राजा जब-जब भी जल पीते थे तो श्रीगंगाजल ही पीते थे । यहाँ तक कि अन्य धर्मों को मानने वाले राजा भी जो भारत में राज्य करते थे वे भी श्रीगंगाजल ही पीते थे । हर धर्म के लोगों की श्रद्धा का केंद्र श्रीगंगाजल है । |
485. |
तीर्थों में किया गया अपराध कभी नहीं कटता । |
486. |
तीर्थों में कभी घूमने के लिए नहीं जाना चाहिए । तीर्थों में श्रद्धा और भक्ति भाव से ही जाना चाहिए । |
487. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम और अनुराग हो तो ही अपना जीवन सफल मानना चाहिए । |
488. |
भक्त वही है जो सभी जीवों को प्रभु शरण में भेजता है । भक्त कभी भी जीव को अन्यत्र नहीं भेजता, सिर्फ प्रभु शरण में ही भेजता है । |
489. |
जीव प्रभु शरण में जाता है तो प्रभु तत्काल उसे सभी दुखों और दर्द से मुक्त कर देते हैं । |
490. |
प्रभु शरण में जाकर हमें प्रभु से कहना पड़ता है कि जैसा भी हूँ, मैं आपका ही हूँ और आपकी शरण में आया हूँ । |
491. |
भगवती माताजी जीव को प्रभु की शरण में तुरंत भेज देती हैं । भगवती सीता माता ने श्रीजयंत को प्रभु शरण में भेजा और माता के कारण प्रभु ने उसके अपराध को माफ कर दिया । |
492. |
सती अनसूयाजी ने पतिव्रत धर्म का उपदेश भगवती सीता माता को दिया इसका तात्पर्य यह है कि माता ने उस उपदेश का जगत के लिए प्रतिपादन कराया क्योंकि श्रेष्ठतम पतिव्रता भगवती सीता माता को उपदेश की कोई जरूरत नहीं थी । यह उपदेश उन्होंने जगत के लिए प्रतिपादित कराया । |
493. |
ऋषि अगस्त्यजी के शिष्य श्री सुतीक्ष्णजी ने प्रभु से यह मांगा कि मुझे यह अभिमान हो जाए कि मैं आपका सेवक और आप मेरे सर्वेश्वर स्वामी हैं । |
494. |
श्री सुतीक्ष्णजी जब प्रभु को अपने गुरु ऋषि अगस्त्यजी के आश्रम लेकर चले तो वे प्रभु की तरफ मुख करके उल्टे नाचते हुए चले । वे एक क्षण के लिए भी अपनी दृष्टि प्रभु से हटाना नहीं चाहते थे, इसलिए प्रभु को लगातार निहारते रहने के लिए अपना मुख प्रभु की तरफ करके उल्टे चले । वे प्रभु का सानिध्य पाकर इतने आनंदित थे । |
495. |
प्रभु से यह वर मांगना चाहिए कि प्रभु माता सहित हमारे हृदय में निवास करें । |
496. |
प्रभु अपने भक्तों को सदैव बढ़ाई देते हैं । |
497. |
प्रभु की माया इतनी प्रबल है कि हमारे आँख, कान और मन जहाँ तक जाते हैं वहाँ तक माया का मायाजाल है । |
498. |
माया प्रभु और जीव के बीच में दूरी बनाकर रखती है । जब तक प्रभु कृपा से माया नहीं हटती तब तक जीव और प्रभु का मिलन संभव नहीं है । |
499. |
राग यानी शूर्पणखा भटकती रहती है तो उसे प्रभु के पास चलकर आना पड़ता है । अनुराग यानी भगवती शबरीजी एक जगह स्थित है और तो प्रभु स्वयं उनके पास चल कर आते हैं । |
500. |
जहाँ प्रभु श्री रामजी बसते हैं वहीं शांति है । जहाँ काम बसता है वहाँ व्याकुलता है । |
501. |
एक इष्ट, एक गुरु, एक श्रीग्रंथ और एक मंत्र - जीवन में यह चार चीजें होनी चाहिए । |
502. |
तन और मन से हम प्रभु के हो जाए तो हमारी सारी इंद्रियों पर प्रभु विराजेंगे और हमारी सारी इंद्रियां शुद्ध हो जाएगी । |
503. |
सनातन धर्म की मान्यता है कि गौ-माता की सेवा के बिना मानव की गति नहीं है । |
504. |
भक्त और संत के पास भक्ति की साधना का बल होता है । |
505. |
संत वही होता है जो प्रतिकार की क्षमता होने पर भी सहन कर लेता है । संत का काम ही है सहन करना । |
506. |
ज्ञान स्वरूप प्रभु श्री रामजी और भक्ति स्वरूपा भगवती सीता माता के पास रागरूपी शूर्पणखा का कोई काम नहीं इसलिए प्रभु ने उसे वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी के पास भेजा । यह सिद्धांत है कि राग वैराग्य से ही नष्ट होता है । |
507. |
असक्त व्यक्ति को जीवन में भटकना ही पड़ता है । |
508. |
प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं कि रावण जैसा जो प्रभु से वैर करता है उसे भी परमगति दे देते हैं । |
509. |
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्री रामचरितमानसजी में ऐसे वर्णन करते हैं जैसे कि वे प्रभु के पास बैठकर पूरा दृश्य देखकर ही वर्णन कर रहे हैं । |
510. |
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी हमेशा अपने को प्रभु के पास रखते हुए ही कथा का वर्णन करते हैं । |
511. |
असली भक्ति यानी असली भगवती सीता माता प्रभु से सदैव निवेदन करती हैं । नकली भक्ति यानी प्रतिबिंब रूपी भगवती सीता माता प्रभु को आज्ञा देती हैं कि स्वर्ण मृग लाकर दें । हमें भी देखना चाहिए कि कहीं हम मंदिर जाकर प्रभु को आज्ञा तो नहीं करते कि प्रभु ऐसा करें । अगर आज्ञा हुई तो हमारी भक्ति भी नकली है । |
512. |
जब प्रभु ने श्री जटायुजी से पूछा उन्हें क्या चाहिए तो श्री जटायुजी कहते हैं कि प्रभु ने मुझे गोद में ले लिया और इससे अब प्रभु का जो कुछ भी था वह स्वतः ही मेरा हो गया । इसलिए अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए । |
513. |
प्रभु कहते हैं कि संसार के सभी रिश्तों को मैं महत्व नहीं देता, सिर्फ भक्ति के एक रिश्ते को ही मैं मानता हूँ और महत्व देता हूँ । |
514. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने पहली भक्ति संतों का संग करना बताया क्योंकि संतों के सत्संग से भगवान का रंग हमें लग जाता है । संत वही जिनके पास बैठने से हम प्रभु की तरफ आकर्षित होते हैं । |
515. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने दूसरी भक्ति प्रभु की कथा और श्रीलीलाओं को सुनना बताया जिससे प्रभु से प्रेम हो जाए । |
516. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने तीसरी भक्ति सद्गुरुदेव के चरणों में प्रेम करना और उनकी सेवा करना बताया है । |
517. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने चौथी भक्ति कपट रहित होकर प्रभु के गुणों का गान करना और उसके अंतर्गत प्रभु के निर्मल चरित्रों का गान करना बताया है । |
518. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने पांचवी भक्ति प्रभु के नामरूपी मंत्र पर विश्वास रखकर उसका जप करना बताया है । |
519. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने छठी भक्ति इंद्रियों का दमन करने के बाद संसार के सभी कर्मों से विरक्त हो जाना बताया है । |
520. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने सातवीं भक्ति संसार में सभी को समभाव से देखना और सबमें प्रभु का दर्शन करना बताया है । |
521. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने आठवीं भक्ति प्रभु ने जो कुछ दिया है और हमें प्रभु से जो कुछ भी प्राप्त हुआ है उसमें संतोष करना और दूसरों में दोष नहीं देखना बताया है । |
522. |
नवधा भक्ति के उपदेश में प्रभु ने नवम भक्ति सरल हृदय से छल-कपट रहित होकर और एकमात्र प्रभु का भरोसा करना और प्रभु को प्रसन्न रखने का प्रयास करना बताया है । |
523. |
नवधा भक्ति में से कोई एक भी भक्ति किसी में आ जाए तो वह चाहे किसी भी जाति, वर्ण, वर्ग का है या चराचर में कोई भी है, वह प्रभु का प्यारा बन जाता है । |
524. |
दुनिया रूठे उससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए पर प्रभु प्रसन्न रहें यही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । |
525. |
संसार का प्यारा बनकर, समाज का प्यारा बनकर और परिवार का प्यारा बनकर रहने से हमें कुछ लाभ नहीं मिलता । जरूरत तो सिर्फ प्रभु का प्यारा बनकर रहने की है । |
526. |
संत व्याख्या करते हैं कि जिसमें नौ प्रकार की भक्ति बसती है ऐसी भगवती शबरीजी ही भक्ति स्वरूपा भगवती सीता माता का पता बता सकती है । भगवती शबरीजी ने प्रभु को श्री सुग्रीवजी से मिलने का पंपा सरोवर का मार्ग बताया । वैसे देखा जाए तो भगवती शबरीजी अपने आश्रम से कहीं नहीं जाती थीं तो उन्हें क्या पता भगवती सीता माता कहाँ पर हैं पर उनमें भक्ति बसती है इसलिए उन्होंने भक्ति यानी भगवती सीता माता कैसे मिलेंगी इसका उपाय प्रभु को बताया । |
527. |
भगवती शबरीजी प्रभु को अपने जीवन से जाते हुए नहीं देख सकती थीं इसलिए उन्होंने प्रभु से कहा कि आप यहाँ रुकें और मैं पहले शरीर त्याग दूं फिर आप आगे जाएं । इतनी प्रबल भक्ति उनमें थी । |
528. |
प्रभु का सानिध्य हमें मृत्यु के भय से तत्काल मुक्त कर देता है । |
529. |
जीव प्रभु तक नहीं आ पाता इसलिए प्रभु अपने आप ही जीव तक चल कर आते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु श्री रामजी से कहा कि श्री सुग्रीवजी डर के कारण नीचे नहीं आ सकते इसलिए आप ही ऊपर चल कर उन्हें दर्शन दे दें । |
530. |
प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु श्री रामजी को ऋषिमुख पर्वत पर ले जाने के लिए अपनी गोद में नहीं बैठाया बल्कि अपनी पीठ पर बैठाया क्योंकि भक्त कृतार्थ तब होता है जब प्रभु भक्त को पकड़ते हैं । प्रभु श्री हनुमानजी अगर प्रभु श्री रामजी को गोद में बैठाते तो प्रभु श्री हनुमानजी को उन्हें पकड़ना पड़ता । पर प्रभु श्री हनुमानजी कृतार्थ तब हुए जब उन्होंने प्रभु श्री रामजी को अपनी पीठ पर बैठाया और प्रभु श्री रामजी ने अपना संतुलन बनाने के लिए प्रभु श्री हनुमानजी को पकड़ा । |
531. |
भक्ति के बल पर कितनी भी ऊँचाई पर भक्त पहुँच जाए पर फिर भी गिरने का भय बना रहता है पर प्रभु जब भक्त को पकड़ लेते हैं तो फिर गिरने का भय सदैव के लिए खत्म हो जाता है । |
532. |
संतों की नजर परमात्मा के सबसे बड़े धन यानी भक्ति-धन पर होती है । |
533. |
जीव सुख की अपेक्षा से कर्म करता है पर उसे अंत में दुःख ही भोगने को मिलता है । यह संसार का नियम है । |
534. |
भक्तों की नजर में प्रभु ही उनके सबसे बड़े धन होते हैं । |
535. |
कोई भी कर्म करें तो विचार करके करें क्योंकि कर्म किया है तो उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा । |
536. |
कर्म का फल मिलेगा यह पक्का सिद्धांत है पर कब मिलेगा यह हमें पता नहीं होता । यह सिर्फ प्रभु को ही पता होता है । |
537. |
विपरीत कर्म किया और पुण्य भी कर लिया तो उससे विपरीत कर्म नहीं कटेंगे । विपरीत कर्म का फल अलग से भोगना पड़ेगा और पुण्य का फल हमें अलग से मिलेगा । |
538. |
कर्मफल हमें स्वयं को ही भुगतना होगा । इसे भोगने में कोई हमारा सहयोग नहीं कर सकता । हमारे कर्मफल को भोगने कोई नहीं आएगा । |
539. |
कर्म करने में मानव स्वतंत्र है, उसमें प्रभु का कोई हस्तक्षेप नहीं है । |
540. |
जीव को कर्म का फल देने में प्रभु स्वतंत्र हैं इसमें जीव का कोई हस्तक्षेप नहीं चलता । |
541. |
मानव जीवन अच्छे कर्म करने के लिए प्रभु का दिया एक सुनहरा अवसर है । |
542. |
जीवन में कष्ट आए तो किसी को दोष नहीं देना चाहिए । वह हमारा अपना कर्मफल है जो किसी के माध्यम से हमें भुगतने को मिला है । |
543. |
सारी सृष्टि में प्रभु को मानव सबसे अधिक प्रिय है क्योंकि वह प्रभु की भक्ति और प्रभु से प्रेम कर सकता है । |
544. |
प्रभु द्वारा दिया विवेक होने के बाद भी मानव आहार, निद्रा और मैथुन से युक्त पशुवत जीवन जीते हैं । यह मानव का कितना बड़ा दुर्भाग्य है । |
545. |
लाख विघ्न हो फिर भी भक्त को अपने भक्ति के साधन मार्ग पर निरंतर बढ़ते रहना चाहिए । |
546. |
सात्विक भोजन करना और सात्विक विचार रखना भी प्रभु की एक साधना है । |
547. |
श्रीरास को समझने के लिए हमें श्रीगोपी बनना पड़ेगा । गोपी स्त्री नहीं है, यह एक भाव मात्र है । प्रभु के प्रति अत्यधिक प्रेम का भाव होना ही गोपीभाव है । |
548. |
जैसे एक पिता अपनी कन्या की विदाई के समय उसे गले लगाता है तो उस आलिंगन में कोई विकार नहीं होता वैसे ही परमपिता प्रभु ने अपनी पुत्रियों यानी श्रीगोपीजन के साथ श्रीरास खेला, इसमें कोई विकार नहीं है । |
549. |
प्रभु श्री शिवजी महारास में आए और प्रभु श्री कृष्णजी के साथ श्रीरास किया । इसलिए श्रीरास एक भाव मात्र है । इसमें स्त्री पुरुष का कोई भेद नहीं है । सिर्फ स्त्री ही गोपी हो सकती है यह बात गलत है । गोपी भाव हो तो पुरुष भी गोपी हो सकते हैं जैसे प्रभु श्री शिवजी श्रीगोपेश्वर बने । |
550. |
प्रभु के मार्ग को छोड़कर भक्त जीवन में कभी भी कहीं अन्यत्र नहीं जाते । |
551. |
श्री प्रह्लादजी ने गुरुकुल में अपने मित्रों को उपदेश देते हुए कहा कि यह जीवन प्रभु की भक्ति करने के लिए मिला है । |
552. |
इतिहासकारों ने मानव को विकास के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कहा । मनोवैज्ञानिकों ने मानव को बुद्धि के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कहा । पर ऋषियों ने मानव को सर्वश्रेष्ठ इसलिए कहा क्योंकि वह प्रभु के पास पहुँचने का साधन अपनाने में सक्षम है । |
553. |
गर्भधारण की अवस्था में स्त्री को धर्म और धार्मिक भावना से ओतप्रोत रहना चाहिए । माँ का धार्मिक आचरण अपने बालक को जन्म के समय से ही भक्त बना सकता है । इसलिए माँ की श्वास-श्वास में प्रभु का स्मरण चलना चाहिए । |
554. |
श्रीगोपीजन प्रभु के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थीं । जब प्रभु ने दर्द का बहाना बनाया तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्रीगोपीजन के पास जाकर उनकी चरणरज प्रभु का दर्द मिटाने के लिए मांगी । श्रीगोपीजन सहर्ष तैयार हो गईं और उन्हें नर्क का भी डर नहीं लगा । उन्हें केवल इतनी ही चिंता थी कि प्रभु की पीड़ा जल्दी-से-जल्दी मिटे । प्रभु की रानियों यानी माताओं ने नर्क के डर से अपनी चरणरज देने से मना कर दिया था । |
555. |
प्रभु का स्मरण श्रीगोपीजन हर समय सोते, जागते, नहाते, श्रृंगार करते, भोजन बनाते, चर्चा करते समय किया करती थीं । |
556. |
श्री उद्धवजी श्रीगोपीजन से मिलने दो दिन के लिए गए थे पर कितने ही महीने रुक कर वापस आए । भक्ति का उन पर इतना बड़ा प्रभाव हुआ । |
557. |
सच्चा साधु वह है जो दिन-रात प्रभु का चिंतन करता हो और जो प्रभु पर ही आश्रित रहता हो । |
558. |
प्रभु की कथा सुनते-सुनते हमारे दोष मिटेंगे और हमारे भीतर प्रभु की भक्ति जागृत होगी । |
559. |
हमारे मन में अगर प्रभु को पाने की लगन है और प्रभु को पाने का भरोसा है तो प्रभु आज भी हमसे मिलने को तैयार हैं । |
560. |
अपने गलत कामों के लिए पछतावा हो और दोबारा उसे न करने का संकल्प हो तो ही सच्चा प्रायश्चित माना गया है । प्रभु को साक्षी मानकर सच्चा प्रायश्चित करने वाला कभी भी नर्क नहीं जाता । यह प्रभु से माफी मांगने का प्रभाव है । |
561. |
प्रभु का नाम सच्चे मन से और सच्चे भाव से ले लिया तो वह जीव कभी नर्क नहीं जाता । प्रभु के श्रीनाम लेने का इतना बड़ा प्रभाव है । |
562. |
प्रभु हमारे घर में भी प्रकट होने को तैयार हैं । हमें श्री काशीजी और श्री वृंदावनजी जाने की जरूरत नहीं । भाग्यवान वह हैं जिनके घर में प्रभु प्रकट हुए और अभागे वे हैं जिन्हें श्री काशीजी और श्री वृंदावनजी में भी प्रभु नहीं मिले । |
563. |
प्रभु का वर्णन करने में उम्र-दर-उम्र बीत जाएगी पर फिर भी प्रभु का लेशमात्र भी वर्णन करना कदापि संभव नहीं है । |
564. |
गम की अंधेरी रात में प्रभु की कृपा रूपी सुबह का इंतजार करना चाहिए । |
565. |
भगवती शबरीजी ने पूरी उम्र बीतने के बाद भी प्रभु आएंगे यह विश्वास पक्का रखा और प्रतीक्षा की और प्रभु मार्ग बदलकर दर्शन देने आए । |
566. |
जब साधना पकेगी तो प्रभु उसका फल जरूर देंगे । |
567. |
किसी भी शुभ काम से पहले दुःख और विपत्ति आती है । समुद्र-मंथन में अमृत से पहले विष आया । |
568. |
प्रभु हमारे घर में न प्रभाव से, न दबाव से और न अभाव से खाते हैं । प्रभु सिर्फ हमारे घर में हमारे भक्ति भाव के कारण खाते हैं । |
569. |
प्रभु हमारे भाव और समर्पण को ही ग्रहण करते हैं । |
570. |
प्रभु इतने विशाल हैं कि सागर में भी नहीं समाते पर भक्तों के आंसू में भाव के कारण समा जाते हैं । |
571. |
हमारे ऋषियों ने प्रभु को जाना, पहचाना और देखा और उसके बाद फिर जनसाधारण प्रभु की प्राप्ति कर सकें इसलिए भक्ति का प्रचार किया । |
572. |
हम जगह-जगह प्रभु को बाहर खोजते हैं पर प्रभु तो हमारे भीतर हैं और वे हमें वहीं मिलेंगे । |
573. |
एक व्यक्ति ने तीर्थ किए, धर्मग्रंथ पढ़े पर उसे प्रभु का दर्शन नहीं हुआ तो वह एक साधु के पास पहुँचा । साधु ने उसे एक सरोवर की मछली के पास भेजा । उस व्यक्ति ने मछली से पूछा कि मुझे प्रभु कैसे मिलेंगे । मछली ने कहा कि मुझे प्यास लगी है तो उस व्यक्ति ने कहा कि तुम तो जल के बीच रहती हो उल्टी हो जाओ तो जल पी सकोगी । तब मछली ने कहा कि ऐसे ही तुम्हारे भीतर भी प्रभु विराजते हैं तुम अंतर्मुखी हो जाओ और फिर प्रभु के दर्शन का प्रयास करो तो प्रभु मिल जाएंगे । |
574. |
ब्रह्मचिंतन और भक्ति में भक्त श्री सुदामाजी बहुत धनवान थे । |
575. |
प्रभु को ही श्री सुदामाजी अपना सब कुछ मानते थे । |
576. |
एक मुट्ठी चिउड़ा खाने के बाद जब भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु को रोका तो प्रभु ने कहा कि मैं श्री सुदामाजी जैसा गरीब बन जाऊँ और श्री सुदामाजी मेरे जैसे ऐश्वर्यवान बन जाए, यही मैं चाहता हूँ । इसलिए ही मैं तीनों लोकों की संपत्ति श्री सुदामाजी को देना चाहता हूँ । |
577. |
प्रभु की कथा सुनने के बाद प्रभु के लिए प्रेम जागृत नहीं हो तो कथा सुनना निरर्थक हो जाता है । |
578. |
प्रभु के लिए प्रेम और संसार के लिए वैराग्य, यह कथा का मुख्य उद्देश्य होता है । |
579. |
कथा सात्विक होनी चाहिए, तामसी नहीं होनी चाहिए । |
580. |
प्रभु को पाना कलियुग में जितना सहज है उतना अन्य किसी भी युग में नहीं था । |
581. |
कलियुग में प्रभु का गुणगान करना सबसे उत्तम साधन है । |
582. |
प्रभु की सेवा करने वाले को किसी चीज की भी कमी नहीं रहती । |
583. |
बुढ़ापे में भजन नहीं होता क्योंकि रोग हमें घेर लेते हैं । भजन करने का सच्चा समय तो युवावस्था ही है । |
584. |
युवावस्था में जब शरीर सुखी और निरोगी होता है तब से ही प्रभु का भजन करना प्रारंभ करना चाहिए । |
585. |
भजन के लिए सबसे जरूरी है कि संसार से हमारा वैराग्य हो जाए । |
586. |
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी सूत्र देते हैं कि प्रभु श्री रामजी को पाने के लिए प्रभु श्री शिवजी ने वैराग्य धारण किया, प्रभु का नाम जप किया और कानों से प्रभु की कथा सुनी और अपने श्रीमुख से प्रभु की कथा सुनाना प्रारंभ किया । |
587. |
संसार से वैराग्य होगा तभी प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग होगा । |
588. |
हमारे मन के अंदर प्रभु को पाने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए । |
589. |
जो धर्म पर चलता है उसके जीवन की दिशा ही बदल जाती है । |
590. |
संन्यास में रहकर भजन करने से भी बड़ी बात है गृहस्थ में रहकर भजन करना । |
591. |
अंत समय जिसके मुँह से प्रभु का नाम निकल जाता है उसे फिर कभी भी संसार में नहीं आना पड़ता । |
592. |
राजा श्री बलिजी ने प्रभु से मांगा कि अब जिस भी योनि में जाऊँ वहाँ प्रभु की भक्ति निरंतर मिले । |
593. |
हम संपत्ति, सत्ता पाते ही सबसे पहले प्रभु को ही भूल जाते हैं । श्री सुग्रीवजी ने राज्य पाकर प्रभु का काम ही भुला दिया । |
594. |
जीव प्रभु के पास अक्सर भय के कारण ही आता है । |
595. |
जीवन में शस्त्र नहीं शास्त्र को लाने की आवश्यकता है । |
596. |
प्रभु का काज ही हमारे जीवन का एकमात्र हेतु होना चाहिए । प्रभु श्री हनुमानजी का जन्म ही प्रभु श्री रामजी के काज करने के लिए हुआ था । |
597. |
जब जीव भक्ति के साधन मार्ग पर आगे बढ़ता है तो पहला विघ्न आता है कंचन का । प्रभु श्री हनुमानजी के सामने मैनाक पर्वत आया तो उन्होंने मैनाक पर्वत को स्पर्श किया और कहा कि यह जीवन विश्राम के लिए नहीं अपितु प्रभु काज के लिए मिला है । |
598. |
जब जीव भक्ति के साधन मार्ग पर आगे बढ़ता है तो दूसरा विघ्न आता है वासना का । सुरसा वासना रूप में आई और अपने मुँह को बढ़ाती ही चली गई । प्रभु श्री हनुमानजी ने अपना रूप बढ़ाया और फिर छोटे बन गए । वासना को जीतने के लिए छोटा बनना सबसे जरूरी है । |
599. |
जब जीव भक्ति के साधन मार्ग पर आगे बढ़ता है तो तीसरा विघ्न आता है कीर्ति यानी यश का । सिंहिका आई जो ऊपर उड़ने वाले की परछाई को पकड़कर नीचे गिरा देती थी । कीर्ति और यश भी हमें ऊपर से नीचे गिरा देते हैं । |
600. |
हमें छोटा बनने में, झुकने में शर्म नहीं आनी चाहिए । प्रभु श्री हनुमानजी इतने बड़े होकर भी लंकिनी के सामने छोटे बन गए । |
601. |
दुःख को तत्काल भगाने का सबसे उत्तम साधन है प्रभु का गुणगान करना । भगवती सीता माता का दुःख भगाने के लिए प्रभु श्री हनुमानजी ने लंका में प्रभु की कथा सुनाकर प्रभु का गुणगान किया और माता का दुःख तत्काल खत्म हो गया । |
602. |
प्रभु श्री हनुमानजी ने लंका में रावण को जब अपना परिचय दिया तो यह कहा कि मैं प्रभु श्री रामजी का दास हूँ । उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं केसरीनंदन हूँ या अंजनीकुमार हूँ । जीव का सच्चा परिचय यही होना चाहिए कि वह प्रभु का दास है । |
603. |
हमारे जीवन में सब कुछ प्रभु कृपा के कारण ही घटित होता है । |
604. |
जब समुद्रदेवजी पर पुल बन गया तो प्रभु श्री रामजी के दर्शन के लिए मगरमच्छ और जलचर ऊपर आए और वानरों द्वारा बनाए गए पुल के दोनों तरफ दो और पुल स्वतः ही बन गए । सूत्र यह है कि जीव जब अपनी भक्ति के साधन से पहला पुल बनाता है तो प्रभु अपनी कृपा से दूसरा पुल बना देते हैं । |
605. |
संत कहते हैं कि श्री लक्ष्मणजी तेरह वर्ष तक वनवास में प्रभु और माता की सेवा में रहते हुए सोए ही नहीं इसलिए प्रभु ने उन्हें एक रात सोने दिया जब मेघनाथ के बाण से श्री लक्ष्मणजी एक रात्रि के लिए मूर्छित हुए । |
606. |
प्रभु को पाने का साधन प्रभु की भक्ति है । |
607. |
प्रभु की कथा सुनना अपने भीतर भक्ति जागृत करने का एक उत्तम साधन है । |
608. |
चाहे हम कितने भी धनवान हों, हमारे कितने भी नौकर-चाकर हों पर प्रभु की सेवा हमें स्वयं अपने हाथों से ही करनी चाहिए । |
609. |
प्रभु के संकीर्तन से अंतःकरण में प्रभु के लिए प्रेम उमड़ता है । |
610. |
प्रभु पकवान नहीं, उसके पीछे छिपा भाव चाहते हैं । इसलिए स्वयं अपने हाथों से बनाकर प्रभु के लिए भोग तैयार करना चाहिए । बाजार से प्रभु के लिए भोग लाना गौण क्रिया है । |
611. |
हमें अपने शास्त्रों की बात ही माननी चाहिए । |
612. |
पूर्व काल में संतों के सामने राजा भी नतमस्तक होते थे । शास्त्रों में धर्मसत्ता को राजसत्ता से भी बड़ा माना गया है । |
613. |
ऋषि श्री विश्वामित्रजी को राजा श्री दशरथजी धन, भूमि, गोधन, श्री अयोध्याजी का पूरा राजकोष और अपने प्राण तक देने को तैयार हो गए पर प्रभु श्री रामजी को देने से मना कर दिया । वे इतना प्रेम प्रभु श्री रामजी से करते थे । |
614. |
राजा श्री दशरथजी कहते हैं कि मुझे श्रीराम चाहिए, राजकोष आप ले जाएं । ऋषि श्री विश्वामित्रजी कहते हैं कि मुझे राजकोष नहीं, मुझे भी श्रीराम ही चाहिए । दोनों को श्रीराम चाहिए । श्री अयोध्याजी का राजकोष किसी को नहीं चाहिए । जरा देखें प्रभु श्री रामजी का दोनों के जीवन में कितना बड़ा महत्व है । |
615. |
प्रभु बिना कारण कृपा करने वाले होते हैं । |
616. |
प्रभु से ज्यादा कौन दयालु या कृपालु हो सकता है ? |
617. |
प्रभु को धन या सवामणी नहीं चाहिए । उन्हें देना ही है तो अपने मन को सुंदर बनाकर प्रभु को देना चाहिए । |
618. |
जब जीवन में हर्ष हो तभी अपना मन प्रभु को समर्पित करें । दुःख में तो हम सभी अपने आप को प्रभु को समर्पित करते हैं पर उसका कोई ज्यादा फायदा नहीं होता । |
619. |
जीवन में जो सबसे प्रिय हो वह प्रभु के लिए छोड़ें । |
620. |
जब श्री जनकपुरजी में पुष्प वाटिका में प्रभु फूल चुनने गए तो वे कलियां दुःखी हो उठीं जो खिली हुई नहीं थीं क्योंकि नहीं खिले होने के कारण प्रभु ने उन्हें नहीं चुना । वे फूल अपने भाग्य की बड़ाई कर रहे थे जो खिले हुए थे और प्रभु ने उन्हें पूजा हेतु चुनकर तोड़ लिया । |
621. |
प्रभु को श्री रामावतार में श्री जनकपुरजी की पुष्प वाटिका में पुष्प चुनते हुए पसीना आने लगा । प्रभु इतने कोमल हैं कि पुष्प चुनने के श्रम से पसीना आया और इसलिए उन्हें कोमलता की पराकाष्ठा कहा गया है । |
622. |
जो जिस भावना से प्रभु को देखते हैं प्रभु उन्हें उसी रूप में दर्शन देते हैं । |
623. |
जब तक अहंकार नहीं टूटेगा हम भक्ति नहीं कर पाएंगे । |
624. |
एक छोटे से मंत्र से भी प्रभु अपने भक्त के अधीन हो जाते हैं । |
625. |
श्री सुदामाजी से प्रभु कहते हैं कि त्याग के कारण व्यक्ति पूज्य हो जाता है । |
626. |
पूरा यदुवंश समाप्त होने पर जिन प्रभु के श्रीनेत्रों में एक आंसू तक नहीं आया वे श्रीनेत्र लगातार जल बहा रहे थे और प्रभु ने श्री सुदामाजी के चरणों का अपने आंसुओं से प्रक्षालन कर दिया । इतना प्रेम प्रभु अपने भक्त से करते हैं । |
627. |
प्रभु को एक ही पदार्थ भाता है और उस पदार्थ का नाम है भक्ति भाव । श्री अर्जुनजी को श्रीमद् भगवद् गीताजी में यह बात प्रभु कहते हैं । |
628. |
प्रभु वस्तु नहीं देखते अपितु वस्तु के पीछे छिपे भाव को देखते हैं । |
629. |
श्री सुदामाजी ने अपनी गरीबी में भी गौरव मनाया क्योंकि यह प्रभु की दी हुई गरीबी थी, ऐसा श्री सुदामाजी मानते थे । |
630. |
किसी भी पदार्थ को खाते हुए प्रभु इतने आनंदित कभी नहीं हुए जितना कि श्री सुदामाजी के चिउड़े और भगवती शबरीजी के बेर खाने पर हुए । |
631. |
श्री सुदामाजी मंजे हुए भक्त थे । उन्होंने भक्ति की अंतिम परीक्षा दी । प्रभु ने लौटते समय श्री सुदामाजी को उनके पुराने वस्त्र दिए और नए वस्त्र उतरवा लिए फिर भी सुदामाजी के मन में प्रभु के लिए कोई विकार भाव नहीं आया । |
632. |
न श्री सुदामाजी ने कुछ मांगा, न प्रभु ने श्री द्वारकापुरी में उन्हें कुछ दिया पर फिर भी वे आनंदित होकर और गदगद होकर प्रभु के प्रेम को देखकर उसे याद करते हुए वापस लौटे । |
633. |
श्री सुदामाजी ने मन में सोचा कि प्रभु को पता है कि सुदामा को धन संभालने का अभ्यास नहीं है इसलिए वे भक्ति पथ से विचलित न हों इसलिए प्रभु ने उन्हें कुछ भी नहीं दिया । |
634. |
प्रभु ने कुछ नहीं दिया उसमें भी प्रभु की कृपा देखना भक्ति है । |
635. |
कुछ भी हो जाए, प्रभु के लिए एक क्षण के लिए भी हमारे मन में आशंका उत्पन्न नहीं होनी चाहिए । |
636. |
जीवन में भाव यही आए कि मेरे प्रभु मेरे लिए जो भी करेंगे अच्छा ही करेंगे । |
637. |
जब श्री सुदामाजी ने सुदामापुरी का वैभव देखा तो उन्होंने प्रभु से प्रार्थना करी कि संपत्ति प्रभु और भक्त के बीच व्यवधान नहीं बने ऐसा वरदान अगर प्रभु उन्हें देते हैं तब ही वे इस संपत्ति को स्वीकार करेंगे अन्यथा प्रभु से उन्होंने कहा कि इसे वापस ले लीजिए । |
638. |
श्री सुदामाजी ने अपनी पत्नी भगवती सुशीलाजी को कहा कि धन-संपत्ति तुम्हारी है, मेरे तो सिर्फ मेरे प्रभु श्री कृष्णजी हैं । |
639. |
भक्त निष्काम भक्ति करता है तो प्रभु उसे सकाम होने के लिए प्रेरित करते हैं पर निष्काम भक्त कभी सकाम नहीं बनता । |
640. |
प्रभु श्री शुकदेवजी भक्त श्री सुदामाजी की कथा के अंत में कहते हैं कि प्रभु परीक्षा लेकर हार गए और भक्त परीक्षा देकर जीत गया । प्रभु को अपने भक्तों से हारने में भी बड़ा आनंद आता है । |
641. |
सत्संग कलियुग में सर्वोत्तम साधन माना गया है । |
642. |
शरीर नष्ट हो उससे पहले प्रभु से साक्षात्कार हो जाना चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सफल है । |
643. |
जिस व्याध के बाण को निमित्त बनाकर प्रभु श्री कृष्णजी अपनी श्रीलीला को विश्राम दे श्रीधाम गए उस व्याध को सबसे पहले प्रभु ने श्री बैकुंठजी भेजा । प्रभु इतने कृपालु हैं कि अपने ऊपर प्रहार करने वाले को भी श्री बैकुंठजी भेज देते हैं । |
644. |
प्रभु भक्ति श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सार है । |
645. |
प्रभु भक्ति का त्याग जीवन में कभी भी नहीं होना चाहिए । |
646. |
जीवन से कामना के बीज नष्ट होने पर ही शांति मिलती है । प्रभु की भक्ति हमारी कामना को ही नष्ट कर देती है और अखण्ड शांति प्रदान करती है । |
647. |
प्रभु कथा सुनने की रुचि जीवन में निरंतर बढ़ती रहनी चाहिए । |
648. |
जीवन में प्रभु के लिए ज्यादा-से-ज्यादा समय निकालना चाहिए । |
649. |
प्रभु के भक्त अपने से मिलने वाले हर जीव को प्रभु का बनाने का प्रयास करते हैं । |
650. |
जब श्वास और भोजन की पूर्णाहुति नहीं होती तो भजन और जप की पूर्णाहुति यानी विश्राम क्यों होना चाहिए ? |
651. |
हमें भजन और जप करते रहना चाहिए और उसे गिनने का कार्य हमें नहीं करना चाहिए । |
652. |
जीवन में सतत भजन का भाव होगा तो ही जाकर जीवन में थोड़ा-सा भजन करना संभव हो पाएगा । |
653. |
हमारा बल बहुत कम होता है और माया का बल बहुत विशाल होता है । इसलिए माया हमें भजन से दूर ले जाने में सफल हो जाती है । |
654. |
एक भी श्वास प्रभु भजन बिना जाए तो उससे भी ज्यादा पीड़ा होनी चाहिए जितनी कि एक पिता को अपने जवान पुत्र को खो देने पर होती है । |
655. |
भजन के लिए हमारा प्रयास देखकर प्रभु प्रसन्न होते हैं । |
656. |
भजन के मार्ग पर चाहे हम फिसल जाएं पर अगर हमारा प्रयास प्रामाणिक है तो प्रभु हमें वापस उस मार्ग पर ले आएंगे । |
657. |
जैसे एक माता अपने नन्हें पुत्र को पहली बार चलते देखकर आनंदित होती है वैसे ही प्रभु किसी जीव को भक्ति करता देखकर आनंदित होते हैं । |
658. |
जैसे एक माता अपने नन्हें पुत्र को चलने पर गिरता देख उठा लेती है वैसे ही प्रभु भक्ति के मार्ग पर जीव को फिसलता देख उसे उठा लेते हैं और संभाल लेते हैं । |
659. |
प्रभु कहते हैं कि मेरे भक्त मुझे सबसे प्रिय हैं । उनसे प्रिय प्रभु को कुछ भी नहीं और कोई भी नहीं । |
660. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान बनाने के लिए हमें यह मानव जीवन मिला है । |
661. |
मनुष्य को प्रभु ने प्रभु प्राप्ति का साधन यानी भक्ति का बीज देकर संसार में भेजा है । |
662. |
भक्ति का सिद्धांत है कि भक्ति मर्यादित जीवन में ही आएगी । |
663. |
प्रभु जीव का मन मोह लेते हैं और एक ही दृष्टि से जीव को अपने अधीन कर लेते हैं । इसलिए प्रभु का एक नाम मनमोहन है । |
664. |
तीनों लोकों के सभी जीवों में इतना सामर्थ्य नहीं कि वे सब मिलकर भी इतना पाप कर सकें जो प्रभु के एक नाम से नष्ट नहीं हो सके । प्रभु के श्रीनाम में इतना बड़ा सामर्थ्य है । |
665. |
अगर हमारा भाव शुद्ध हो तो सत्कर्म के लिए धन की व्यवस्था प्रभु स्वतः ही कर देते हैं । |
666. |
प्रत्येक संसारी क्रिया करते वक्त हमारा मन प्रभु में ही लगा रहना चाहिए । |
667. |
प्रभु के नाम जपने से हमारे भीतर के जन्मों-जन्मों के अंधकार दूर हो जाते हैं । |
668. |
श्रीगोपीजन के प्रति अपना अपनत्व प्रदर्शित करने के लिए प्रभु माखन चोरी की श्रीलीला करते थे । |
669. |
बार-बार प्रभु की कथा सुनें, प्रभु का नाम जपें और प्रभु का गुणगान करें तभी भक्ति प्रबल होती है । |
670. |
प्रभु सिर्फ भक्त की भक्ति को ही ग्रहण करते हैं । |
671. |
हमारे भीतर चौसठ असुरों और बत्तीस देवताओं का निवास है । आसुरी शक्ति ज्यादा बलशाली है इसलिए बुरी प्रवृत्तियां जल्दी आती हैं । |
672. |
जितना हमारा प्रभु के प्रति भाव अधिक होगा प्रभु की कृपा जीवन में उतनी ही अधिक मिलेगी । |
673. |
जब तक प्रभु नहीं चाहें कोई उन तक नहीं पहुँच पाता है । |
674. |
जीव प्रभु के समीप आए, यह प्रभु का उस जीव पर असीम अनुग्रह होता है । |
675. |
प्रभु के अनुग्रह बिना हमारा तन और मन प्रभु की तरफ आकर्षित ही नहीं हो सकता । |
676. |
साधक को अंत तक सावधान रहना चाहिए कि कहीं वह अपने साधन मार्ग से फिसल नहीं जाए । |
677. |
जो वस्तु प्रभु के अतिरिक्त हमें जीवन में प्रिय लगती है प्रभु उस वस्तु को भक्त के जीवन में रहने ही नहीं देते । जब ऐसा होता है तो उसे प्रभु की पूर्ण कृपा माननी चाहिए । |
678. |
प्रभु के अतिरिक्त हम किसी से आशा रखते हैं तो यह प्रभु को अच्छा नहीं लगता । हमें आशा सिर्फ प्रभु से ही रखनी चाहिए । |
679. |
प्रभु की कृपा के बिना कोई भी प्रभु की कथा नहीं सुन सकता और न ही प्रभु का गुणगान कर सकता है । |
680. |
सभी प्रभु से कुछ-न-कुछ मांगते ही रहते हैं, संसारी प्रभु से कामनाओं की पूर्ति मांगते हैं, लोभी प्रभु से धन मांगते हैं । पर सबसे श्रेष्ठ मांग संतों की होती है जो प्रभु से श्रीहरि नाम मांगते हैं । |
681. |
भक्त प्रभु से कुछ नहीं मांगते । प्रभु ही भक्तों से प्रेम मांगते हैं । यह भक्तों की महिमा है जो प्रभु उन्हें प्रदान करते हैं । |
682. |
श्री रामचरितमानसजी में श्री केवटजी के प्रसंग में श्री केवटजी प्रभु से कहते हैं कि मैं जब तक आपके श्रीकमलचरणों को पखार नहीं लूं, मैं नाव से आपको पार नहीं कराऊँगा । आप चाहें तो भगवती गंगा माता को तैरकर पार कर लें । प्रभु ने कहा कि मुझे तैरना नहीं आता इसलिए तैरकर पार नहीं कर सकता इसलिए नाव से ही जाना पड़ेगा । तब संतों ने इस अदभुत प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहा कि प्रभु को तैरना नहीं आता, प्रभु को तो तारना ही आता है । |
683. |
प्रभु की कृपा के बिना हमें प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती । |
684. |
साधक एक पैर पर खड़े होकर प्रभु को पाने के लिए तप करते हैं पर श्री केवटजी ने प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारते समय प्रभु को एक श्रीकमलचरण पर खड़ा कर दिया । प्रभु लड़खड़ाने लगे तो श्री केवटजी ने संतुलन बनाने के लिए प्रभु का श्रीहाथ अपने सिर पर रखवा लिया । इसे देखकर देवतागण फूल बरसाने लगे कि इनसे धन्य और कोई नहीं जो अपने हाथों से प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखार रहे हैं और प्रभु के श्रीहाथ को अपने सिर पर रखवा लिया है । |
685. |
भगवती गंगा माता के तट पर प्रभु से मंत्र बुलवाकर प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारने वाले अमृतजल से श्री केवटजी ने अपने पितरों का तर्पण कर सबको एक साथ ही मुक्त करवा दिया । |
686. |
अपनी नैया को प्रभु के हवाले कर देने से प्रभु ही उसके खिवैया बन जाते हैं और हमें स्वतः ही भवसागर से पार ले जाते हैं । |
687. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ने से ही हमारे सभी कार्य संपन्न होंगे । |
688. |
प्रभु ने श्री केवटजी को उतराई में मुद्रिका देना चाही तो उन्होंने मना कर दिया । वे ले लेते और अपनी पत्नी को दे देते तो पत्नी खुश हो जाती और उतराई भी मिल जाती पर श्री केवटजी ने प्रभु से उतराई के रूप में दोबारा वनवास से लौटते वक्त मिलने का वचन लिया । प्रभु से दोबारा मिलना कितना श्रेष्ठतम मेहनताना था । |
689. |
गरीब वही है जिसके जीवन में प्रभु कृपारूपी धन नहीं है । |
690. |
संसार में प्रभु के जैसा करुणानिधान सिर्फ प्रभु ही हैं । |
691. |
प्रभु को चढ़ाने के बाद श्री केवटजी ने अपनी उस नाव को मंदिर बना दिया । फिर उस नाव पर उन्होंने कभी भी किसी को भी नहीं बैठाया । |
692. |
हमें जीवन में प्रभु की शरणागति और प्रभु पर भरोसा दृढ़ कर लेना चाहिए । |
693. |
श्री केवटजी ने चौदह वर्षों तक प्रभु के लौटने का इंतजार किया । उनकी भक्ति इतनी श्रेष्ठ थी । |
694. |
अगर जीवन में इतना है कि घर चलता रहे तो फिर प्रभु से और कुछ नहीं मांगना चाहिए । प्रभु को धन्यवाद देना चाहिए और जीवन में प्रभु का भजन करना चाहिए । |
695. |
मानव का शरीर और भारतवर्ष में जन्म अगर मिल गया तो हमारा आत्म कल्याण निश्चित हो सकता है । |
696. |
हमें जीवन में सतत सत्संग हेतु प्रयास करते रहना चाहिए । |
697. |
सत्संग की कृपा से जीवन में भक्ति के बीज पड़ जाते हैं और भक्ति हमें प्रभु से मिलाकर ही विश्राम लेती है । |
698. |
सत्संग के साथ संसार का संग नहीं हो सकता । एक साथ दोनों कार्य नहीं हो सकते । |
699. |
जब प्रभु में मन लगने लग जाए तो हमें असावधान नहीं होना चाहिए नहीं तो फिर माया हमें संसार में बहाकर ले जाती है । |
700. |
भगवत् सेवा, भगवत् साधन और भगवत् सुमिरन निरंतर जीवन में करते रहना चाहिए । |
701. |
जब हम प्रभु का भजन करने लगते हैं तो प्रभु हमारी संभाल रखते हैं और हर स्तर पर हमें संभालते हैं । |
702. |
प्रभु के पार्षद जब हमें प्रभु के लोक लेकर जाते हैं तो मार्ग में बहुत सारे अन्य लोक पड़ते हैं । हमारा मन जिस भी लोक में अटक जाता है प्रभु के पार्षद हमें वहीं छोड़कर चले जाते हैं । इसलिए यह अभ्यास होना जीवन में जरूरी है कि प्रभु के अलावा मन कहीं भी नहीं अटके । |
703. |
प्रभु अपनी भक्ति सहज में प्रदान नहीं करते । बहुत भाव होने पर ही प्रभु अपनी भक्ति प्रदान करते हैं । |
704. |
भक्ति जीव को बहुत दुर्लभ है । बड़े भाग्यवान को ही यह सुलभ होती है । |
705. |
प्रभु की कृपा का आश्रय लेकर भक्ति की प्रतिष्ठा जीवन में करनी चाहिए । |
706. |
जीवन को अंतर्मुखी करना सबसे जरूरी है । |
707. |
प्रभु के लिए हमारे मन में प्रेम प्रतिष्ठा होनी चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सफल होगा । |
708. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सच्चा फल प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति है । |
709. |
प्रभु का ऐश्वर्य सुनने से हममें दीनता आती है । हमारी औकात क्या है यह हमें पता चलता है । |
710. |
हमें अपना सब कुछ प्रभु पर न्यौछावर कर देना चाहिए । |
711. |
भक्ति हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों तक ले जाती है और प्रभु से हमारा मिलन करवाती है । |
712. |
जीव का सर्वस्व प्रभु के श्रीकमलचरण हो जाना चाहिए । |
713. |
प्रभु जब गौचारण के लिए जाते थे तो एक-एक पल श्रीगोपीजन के लिए युग-युग के समान बीतते थे । |
714. |
प्रभु के दर्शन करते रहने पर धीरे-धीरे हमारे मन की चंचलता खत्म हो जाती है । |
715. |
जन्मों-जन्मों से जो मैल हमारे मन में चिपका हुआ है वह तब तक नहीं हटेगा जब तक प्रभु की भक्ति और प्रभु से प्रेम नहीं होगा । |
716. |
जीव के निर्मल चित्त का ही आकर्षण प्रभु में होता है । |
717. |
जन्मों के पुण्य के उदय के बाद ही प्रभु कथा और प्रभु वार्ता सुनने में हमारा मन लगता है । |
718. |
प्रभु की कथा और प्रभु के गुणगान बिना हमारे चित्त को विश्राम कहीं नहीं मिलेगा । |
719. |
प्रभु सबको स्वीकार करते हैं और सबको कृतार्थ भी करते हैं । |
720. |
प्रभु सबको आनंदित करने के लिए अवतार लेते हैं । |
721. |
हमें केवल अपने कल्याण की कामना होनी चाहिए जो कामना केवल भक्ति से ही पूर्ण हो सकती है । |
722. |
श्रीहरि कथा तो श्री काकभुशुण्डिजी, जो की काग हैं, उनके मुँह से भी अति मीठी लगती है । |
723. |
हमें प्रभु की चाकरी में ही हमेशा रहना चाहिए । |
724. |
प्रभु इतने दयालु हैं कि अयोग्य को भी देते हैं । |
725. |
अपना जीवन इच्छानुसार नहीं अपितु धर्म की आवश्यकतानुसार जीना चाहिए । |
726. |
प्रभु हर किसी की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं । |
727. |
जीवन से चाहत जाते ही हमारी चिंता मिट जाती है । |
728. |
हर गोप प्रभु को भोग लगाने के लिए अपने घर से कुछ-न-कुछ लाता था । |
729. |
छोटे बनने पर प्रभु हमें अपने पास बैठाते हैं । बड़े बनने पर प्रभु हमें दूर बैठा देते हैं । |
730. |
अगर भाव है तो छिपाई हुई चीज को भी प्रभु जरूर खोज निकालते हैं । श्री सुदामाजी के छिपाए चिउड़े को प्रभु ने खाया और श्री मधुमंगलजी की छिपाई खट्टी छाछ को भी प्रभु ने पिया । |
731. |
जो लोग निर्दोष होते हैं प्रभु उनसे कभी दूर नहीं रहते । |
732. |
सत्कर्म के बीज कभी नष्ट नहीं होते । प्रभु हमें उनका फल अवश्य देते हैं । |
733. |
प्रभु बहुत जल्दी दया और कृपा करते हैं । |
734. |
मन भजन में नहीं लगे तो कुछ देर अकेले बैठकर प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान करें । ऐसा करने से मन भजन में लगेगा क्योंकि चेतन का ध्यान करने से हमारे भीतर चेतन तत्व जागृत होगा और हमारे चित्त की जड़ता खत्म होगी । |
735. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की ज्योत मेरे मन के अंधकार को नष्ट कर रही है, ऐसे भाव से प्रभु का ध्यान करना चाहिए । |
736. |
प्रभु के दर्शन की लालसा हर किसी को नहीं होती । कुछ बिरलों को ही होती है । |
737. |
प्रभु हमारी परीक्षा लेते हैं और अगर हमें उसमें उत्तीर्ण होना है तो इसके लिए जरूरी है हमारा प्रभु में पूर्ण विश्वास होना । |
738. |
जो मानव शरीर पाकर प्रभु का भजन नहीं करता वह बहुत बड़ा पापी है । ऐसा नहीं करने पर हम बहुत बड़ा पाप कर रहे हैं । |
739. |
प्रभु को उनका भक्त अतिशय प्रिय होता है । |
740. |
अपना सब कुछ बिल्कुल प्रभु के भरोसे छोड़कर भजन करें तो हमारी सभी व्यवस्था प्रभु स्वतः ही करेंगे । |
741. |
प्रभु अपने अवतार में अपने प्रभाव को छिपाते हैं । इसी तरह हमें भी अपने भजन को छुपाना चाहिए और उसका बखान नहीं करना चाहिए । |
742. |
हमारे कान श्री समुद्रदेवजी के समान होने चाहिए और प्रभु की कथा नदियां समान होनी चाहिए । कितनी भी नदियां श्री समुद्रदेवजी में गिरें पर श्री समुद्रदेवजी कभी भरते नहीं । नदियों में बाढ़ आ सकती है पर श्री समुद्रदेवजी में कभी बाढ़ नहीं आती । इसी प्रकार हमारे कान निरंतर प्रभु कथा का श्रवण करें और कभी भी तृप्त नहीं हों । |
743. |
प्रभु की कथा निरंतर सुनते रहने से हमें प्रभु की भक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है । |
744. |
हमारी आँखों में प्रभु की छवि ही बसनी चाहिए और हम जहाँ भी प्रभु का विग्रह देखें तो हमें सिर्फ प्रभु की छवि को ही निहारना चाहिए । |
745. |
खाने के समय अपनी थाली में ही प्रभु को भोग लगाए और फिर उस भोजन को प्रभु के प्रसाद रूप में पाएं । |
746. |
हमारे मन के अंदर भरोसा सिर्फ प्रभु का ही होना चाहिए तो प्रभु स्वतः ही हमारी सभी व्यवस्था करेंगे । |
747. |
प्रभु को समर्पित करके सभी कार्य जीवन में संपादित करने चाहिए । |
748. |
जिन प्रभु का नाम हम सुमिरन करते हैं उन प्रभु का पूरा भरोसा हमें जीवन में होना चाहिए । |
749. |
जीवन में कुछ भी उपलब्धि कर लें पर प्रभु भक्ति बिना सब कुछ व्यर्थ है । |
750. |
भक्तराज श्री नरसीजी मेहता का जवान बेटा मर गया तो भी वे नहीं रोए और उसमें भी उन्होंने प्रभु कृपा के ही दर्शन किए । |
751. |
हमारी इंद्रियों की दिशा हमें बदलनी चाहिए । ऐसा कर पाना ही भक्ति है । आँखों का काम है देखना, उन्हें प्रभु की छवि को देखने दें । हाथों का काम है कर्म करना, उन्हें प्रभु की सेवा करने दें । कानों का काम है सुनना, उन्हें प्रभु की कथा का श्रवण करने दें । तात्पर्य यह है कि अपनी सभी इंद्रियों की दिशा प्रभु की ओर मोड़ें तभी हमारा कल्याण संभव होगा । |
752. |
जीवन का सही फल यही है कि हमारी सभी इंद्रियां प्रभुमय हो जाए । |
753. |
जीवन में कोई भी इच्छा नहीं रहे, सिर्फ प्रभु के लिए पूर्ण प्रेम रहे । यही भक्ति है । |
754. |
रावण ने जब श्री जटायुजी के पंख काटे तो भी उसमें उन्होंने प्रभु कृपा के दर्शन किए क्योंकि ऐसा होने पर ही प्रभु स्वयं चलकर श्री जटायुजी के पास आए और अपनी गोदी में उनका सिर रखा और एक पिता की तरह उन्हें मान देकर उनके मृत्यु संस्कार के सब कर्म किए । प्रभु का इतना दुलार श्री जटायुजी ने पाया । |
755. |
प्रभु एक भक्ति का ही नाता मानते हैं । |
756. |
मन में कामना लेकर किया गया भजन कपट भजन कहलाता है । |
757. |
अति प्राप्त करने की इच्छा न रखें, उसी में संतोष रखें जो प्रभु ने हमें दिया है । |
758. |
जिसके जीवन में भक्ति का अवलंबन होता है उसे प्रभु पर पूर्ण भरोसा होता है । |
759. |
प्रभु जब जीव को अपने प्रेम बंधन में बांधते हैं तो फिर उसे कभी नहीं छोड़ते । |
760. |
सुख, संपत्ति, परिवार, बढ़ाई को छोड़कर हमें प्रभु का भजन करना चाहिए क्योंकि ये सब भक्ति में बाधक हैं । |
761. |
जो जीव अपने अंत समय में प्रभु नाम का उच्चारण कर देता है वह वापस संसार में लौटकर नहीं आता । |
762. |
राजा श्री बलिजी ने प्रभु से मुक्ति नहीं मांगी । उन्होंने प्रभु से मांगा कि उनके अगले जीवन में भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनका अनुराग पूर्णरूप से बना रहे । |
763. |
स्वयं तो भजन करें ही और अपने बच्चों को भी भजन करवाकर श्रीहरि अनुरागी बनाएं । |
764. |
भक्ति के कारण भक्तों के जीवन में आठों पहर आनंद-ही-आनंद रहता है । |
765. |
क्रोध और कामनाओं को हमारा मालिक नहीं बनाकर रखना चाहिए । हमें ही क्रोध और कामनाओं का मालिक बनकर रहना चाहिए । |
766. |
श्री लक्ष्मणजी के क्रोध में भी अनुशासन होता था । उन्हें क्रोध आता था पर प्रभु के एक इशारे से उनका अनुशासन जग जाता था । |
767. |
जैसे अग्नि में अनुशासन होता है तो ही रोटी बनती है, तो ही कारखाने चलते हैं वैसे ही हमारे जीवन में भी अनुशासन होना चाहिए । |
768. |
अगर क्रोध में अनुशासन नहीं है तो दो मिनट का क्रोध पूरे जीवन भर के लिए कलंक लगा देता है । |
769. |
प्रभु को हृदय में रखकर किए गए कोई भी कार्य में सफलता-ही-सफलता मिलती है । |
770. |
हमें सुनीति यानी श्रीवेदों में प्रतिपादित नीति का मार्ग अपनाना चाहिए और सुरुचि यानी अपनी रुचि के मार्ग का त्याग करना चाहिए । सुनीति के पुत्र श्री ध्रुवजी ने प्रभु को पाया । इसी तरह हम भी सुनीति के मार्ग पर चलेंगे तो ही प्रभु की प्राप्ति कर पाएंगे । |
771. |
पानी का बुलबुला कब खत्म हो जाए यह पता नहीं । इसी तरह जीवन के बुलबुले की कब समाप्ति हो जाए इसका भी पता नहीं । इसलिए अपने जीवन को सदैव प्रभु को समर्पित करके ही रखना चाहिए । |
772. |
श्रीराम नाम रूपी नेक कमाई जीवन में करते ही रहना चाहिए । |
773. |
संतों ने कहा है कि यह संसार पूरी तरह से मतलब का संसार है । |
774. |
केवल मनुष्य शरीर से ही प्रभु का भजन हो सकता है । |
775. |
जीव हत्या यानी बलि देकर हम कभी भी अपना भला नहीं कर सकते । हमारी कोई भी मनोकामना बलि देने के कारण प्रभु पूरी करते हैं यह सोचना भी गलत है । जिस जीव की हमने बलि देकर हत्या की प्रभु उसके भी पिता हैं इसलिए प्रभु कैसे एक बच्चे की हत्या करने पर उस हत्या से प्रसन्न होकर दूसरे बच्चे की मनोकामना पूर्ण करेंगे । |
776. |
अपनी अर्जी को प्रभु की मर्जी में मिला लेने पर हमारा कल्याण होता है । |
777. |
एक सिद्धांत है कि जहाँ आता है अभिमान वहाँ से चले जाते हैं भगवान । |
778. |
एक भक्त इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार कर देता है । सात पीढ़ियां अपने पूर्वजों की, सात पीढ़ियां आने वाली और सात पीढ़ियां अपनी माँ के परिवार की । इस तरह कुल इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है । |
779. |
विवाह के बाद भी साधक का जीवन संतों जैसा होना चाहिए । |
780. |
श्री गजेंद्रजी और ग्राह की कथा का मूल यह है कि जो परिवार को पुकारता है वह मूर्ख है और जो प्रभु को पुकारता है वही बुद्धिमान है । |
781. |
दुनिया दुःख दे तो यह प्रभु की कृपा समझनी चाहिए कि दुनिया से हमारा मोह छूट गया । |
782. |
भक्ति के मार्ग पर बढ़ने पर एक दिन हमें मंजिल जरूर मिलेगी, हमें प्रभु जरूर मिलेंगे । |
783. |
हृदय में सदैव प्रभु को धारण करके रखना चाहिए, संसार को नहीं । |
784. |
अगर हमारे जीवन में असंतोष आता है तो इससे हमारा जीवन ही नष्ट हो जाता है । |
785. |
सद्गुरु वे हैं जो हमें प्रभु की भक्ति बताएं और अपनी भक्ति नहीं करवाएं । |
786. |
प्रभु की भक्ति नहीं करने पर कोई भी सद्गुरु हमारा उद्धार नहीं कर सकते । |
787. |
तीर्थों में भोग भोगने के लिए नहीं, तप के लिए यानी शरीर को तपाने के लिए जाएं । |
788. |
प्रभु को केवल प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है । |
789. |
सभी संत अपने जीवन के अंत में यही निष्कर्ष संसार को देकर जाते हैं कि प्रभु को केवल प्रेमाभक्ति से ही पाया जा सकता है । |
790. |
जो घोड़े श्री अयोध्याजी से श्री सुमंतजी के साथ रथ में आए थे वे भी वापस लौटते समय रो रहे थे, घास नहीं खा रहे थे, पानी नहीं पी रहे थे और प्रभु के वनवास के वियोग में तड़प रहे थे । |
791. |
प्रभु श्री रामजी इतने आज्ञाकारी पुत्र थे कि श्री दशरथजी से एक बार भी पूछा तक नहीं कि किस अपराध से या किस कारण से उन्हें युवराज पद देते-देते वनवास दे दिया गया । |
792. |
प्रभु क्षमाशील हैं और सदैव क्षमा को धारण करते हैं । |
793. |
प्रभु से लेने की नहीं, प्रभु को प्रेम देने की आदत डालनी चाहिए । |
794. |
केवल एक प्रभु को ही हमें अपने दिल में बसाना चाहिए । दुनियावालों को दिल में बसाने का कोई लाभ नहीं होता । |
795. |
किसी से भी प्रभु के भक्त का अपमान हो जाता है तो प्रभु उसे सहन नहीं करते । |
796. |
ज्ञानी प्रभु प्रेम को समझ नहीं सकते, इसलिए हमें ज्ञानी नहीं अपितु प्रभु प्रेमी बनना चाहिए । |
797. |
प्रभु की दयालुता का हम बखान भी नहीं कर सकते । प्रभु इतने दयालु हैं । |
798. |
जीवन की हर घड़ी, हर परिस्थिति में हमें प्रभु कृपा का अनुभव करना चाहिए । |
799. |
रोना है तो सिर्फ प्रभु के प्रेम में ही रोना चाहिए । |
800. |
प्रभु कभी भी अपने अनन्य भक्तों के सच्चे आंसू नीचे नहीं गिरने देते और उसके पहले ही उनके लिए समाधान भेज देते हैं । |