001. |
अपने हृदय में सदैव प्रभु की भक्ति को धारण करके रखना चाहिए । |
002. |
संसार के मोह को छोड़कर प्रभु को भजना चाहिए । |
003. |
सबसे पहले माया यानी धन साधन मार्ग में बाधा बनकर आती है । प्रभु श्री हनुमानजी जब लंका जा रहे थे तो सबसे पहले मैनाक आया पर प्रभु श्री हनुमानजी उनको प्रणाम करके बिना रुके आगे बढ़ गए । साधक को भी माया को प्रणाम कर, बिना उसमें उलझे अपने साधन मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए तभी उसे सफलता मिलेगी । |
004. |
बृजवासी अपने प्राणों से भी अधिक प्रभु से प्रेम करते थे । |
005. |
श्रीगोपीजन का मन हमेशा प्रभु चिंतन में ही लगा रहता था । |
006. |
प्रभु प्रेम का यह सूत्र है कि प्रभु की इच्छा में राजी रहना ही प्रभु प्रेम है । |
007. |
प्रभु अपने भक्तों के प्रेम का कभी विस्मरण नहीं करते । |
008. |
माखन देखते ही प्रभु को भगवती यशोदा मैया और श्रीगोपीजन की याद आ जाती थी । |
009. |
हम प्रभु को याद करते हैं तो प्रभु को भी अपने भक्तों की याद आती रहती है । |
010. |
हमारे सब कुछ यहाँ तक कि हमारे प्राण धन भी प्रभु ही होने चाहिए । |
011. |
अपना मन सदैव प्रभु को ही समर्पित करके रखना चाहिए । |
012. |
प्रभु का अपने भक्तों से कभी वियोग नहीं होता । |
013. |
आत्मा रूपी गोपी और परमात्मा के बीच नित्य ही श्रीरास होता है । |
014. |
संसार में ममता होने पर प्रभु नहीं मिलते । |
015. |
संसार का प्रेम हमें प्रभु तक पहुँचने नहीं देता । |
016. |
धन है तो उसे आध्यात्मिक विकास यानी दान, पुण्य, कथा, सत्संग, तीर्थ आदि में लगाना चाहिए, संसार के भोग और सुख तलाशकर विनाश में नहीं लगाना चाहिए । |
017. |
एक सिद्धांत है कि जहाँ आता है अभिमान वहाँ से चले जाते हैं भगवान । |
018. |
प्रभु कथा का श्रवण करने मात्र से ही हमारा मंगल होता है । |
019. |
प्रेम के आंसू जब भक्त के बहते हैं तो प्रभु को दौड़ कर आना ही पड़ता है । |
020. |
जो बहुत तुच्छ कर सकते हैं वे इंसान है, जो कुछ कर सकते हैं वे देवतागण हैं और जो सब कुछ कर सकते हैं वे भगवान हैं । |
021. |
भगवती मीराबाई का वेश धारण करने से प्रभु नहीं मिलते, भगवती मीराबाई जैसा बनने से प्रभु मिलते हैं । |
022. |
वासना प्रधान प्रेम मानव से होता है, उपासना प्रधान प्रेम प्रभु से होता है । |
023. |
संतों का मत है कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रीमहारास को पढ़ने से जीवन से काम खत्म होता है और पराभक्ति मिलती है । |
024. |
संत ऐसा कहते हैं कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रीमहारास के पांच अध्याय प्रभु के पंचप्राण हैं । |
025. |
दया का उल्टा याद है इसलिए संत कहते हैं कि जीवन में प्रभु की दया चाहो तो प्रभु को याद करो तभी प्रभु की दया मिलेगी । |
026. |
प्रभु प्रेम में प्रभु से कोई चाह यानी चाहत नहीं होनी चाहिए । |
027. |
अगर जीव प्रभु से प्रेम करता है तो प्रभु भी उस जीव से उससे कहीं ज्यादा प्रेम करते हैं । |
028. |
श्री उद्धवजी ज्ञान की शिक्षा देने श्री वृंदावनजी गए थे पर श्रीगोपीजन से प्रेम की दीक्षा लेकर वहाँ से वापस लौटे । |
029. |
प्रभु कितने दयालु हैं यह एक प्रसंग से पता चलता है । प्रभु रणछोड़ बने क्योंकि जरासंध ने ब्राह्मणों से जीत के लिए यज्ञ करवाया और उन ब्राह्मणों को कहा कि अगर वह अट्ठारहवीं बार प्रभु से हार गया तो वह उन ब्राह्मणों के सिर कटवा देगा । इसलिए प्रभु ब्राह्मणों को बचाने के लिए युद्ध को छोड़कर रणछोड़ बने । प्रभु इतने दयालु हैं और ब्राह्मणों का इतना ख्याल रखने वाले हैं । |
030. |
प्रभु से प्रेम हृदय से होना चाहिए, दिखावे का नहीं होना चाहिए । |
031. |
प्रभु के सद्गुणों को सुनकर ही भगवती रुक्मिणी माता प्रभु के प्रति आकर्षित हुईं । इसलिए प्रभु की कथा के द्वारा प्रभु के गुणानुवाद को सुनते रहना चाहिए जिससे हमारा आकर्षण भी प्रभु के प्रति हो जाए । |
032. |
सारे तापों से बचना हो, सारे विकारों से बचना हो, सारे रोगों से बचना हो तो प्रभु को हृदय में धारण करके रखें । |
033. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण प्रभु से हमारा संबंध जोड़ देती है । |
034. |
संत सदैव प्रभु की महिमा ही सुनना और गाना चाहते हैं । |
035. |
संत और भक्त प्रेमाभक्ति की भाषा ही समझते हैं । |
036. |
हमें विश्वास रखना चाहिए कि प्रभु इसी जन्म में हमें मिलेंगे और इसी दिशा में जीवन भर प्रयास करते रहना चाहिए । |
037. |
प्रभु भक्तों के अहंकार को कभी सहन नहीं करते । |
038. |
संत हमारे हृदय के तार को श्रीहरि से जोड़ देते हैं । |
039. |
प्रभु श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्लोकों के माध्यम से हमारे हृदय में प्रवेश करते हैं । |
040. |
प्रभु की कथा सुनकर प्रेमाभक्ति के कारण हम प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान प्राप्त कर सकते हैं । |
041. |
एक बार जो प्रभु के प्रभाव और स्वभाव को जान लेता है फिर उसका मन अन्यत्र कहीं नहीं लगता, प्रभु में ही उसका मन लगने लगता है । |
042. |
जब जीव का ऊपर हिसाब होगा तो उसके पास भक्ति का ही खजाना देखा जाएगा, संसार का खजाना नहीं देखा जाएगा । |
043. |
जो लाभ सत्संग में मिलता है वह अन्य कहीं नहीं मिल सकता । |
044. |
प्रभु सच्चिदानंद हैं इसलिए सत्य प्रभु का ज्ञान ही हमें आनंद देता है । |
045. |
प्रभु समर्थ भी हैं और दयालु भी हैं । यह दोनों बातें सिर्फ प्रभु में ही हैं । सब कुछ करने में सर्वसामर्थ्यवान और अत्यंत दयालु । |
046. |
हमें जन्म मिला ही है प्रभु की सेवा और प्रभु का भजन करने के लिए । |
047. |
प्रभु से संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा कुछ भी मांग लें प्रभु तत्काल उसे दे देते हैं पर एक चीज देने में प्रभु बहुत कंजूस हैं और वह है भक्ति क्योंकि भक्ति देने पर भगवान भक्त से बंध जाते हैं । इसलिए भक्ति का दान प्रभु द्वारा बड़ा दुर्लभ दान है । |
048. |
प्रभु की कथा सुनने वाला क्षण और प्रभु का चिंतन करने वाला क्षण ही जीवन का सार्थक क्षण है । |
049. |
प्रभु की कथा सुनने मात्र से प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति बढ़ती है । |
050. |
सत्संग का अवसर जीवन में बार-बार आना चाहिए । |
051. |
जीवन जीना सीखें श्री रामायणजी से और मृत्यु को सुधारना सीखें श्रीमद् भागवतजी महापुराण से । |
052. |
प्रभु का सुमिरन जो जीवन काल में करता रहता है उसे मौत का भय कभी नहीं सताता । |
053. |
प्रभु की भक्ति हमें निर्भय कर देती है । |
054. |
संत कहते हैं कि सबसे बड़े वैद्य प्रभु हैं और जो उन्हें सदैव याद करते हैं दुनिया की कोई व्याधि उन्हें नहीं सताती । |
055. |
प्रभु अपने सभी भक्तों को कृतार्थ करते हैं । |
056. |
भक्ति करने वाले पुरुष जगत के झंझटों में नहीं फंसा करते । वे हृदय से ही वैरागी होते हैं । |
057. |
लोग क्या कहेंगे इससे भक्तों को कोई लेना-देना नहीं होता । |
058. |
निरंतर प्रभु की कथा सुनते रहना चाहिए । इससे हमारा मन प्रभु में लगा रहेगा और मन प्रभु का हो जाएगा । |
059. |
प्रभु की कथा का प्रभाव किसी भी युग में बदलता नहीं है । कथा का नित्य प्रभाव हर युग में रहता है । |
060. |
हर युग में प्रभु के भजन करने वाले भगवत् भक्त हुए हैं । कलियुग में भी प्रभु की भक्ति करने वाले बहुत सारे भक्त हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे । |
061. |
जब तक शरीर है तब तक श्रीमद् भागवतजी महापुराण के रस को निरंतर पीते रहें । |
062. |
जीवन प्रभु ने हमें प्रभु भजन के लिए ही दिया है । |
063. |
एक बार अपना जीवन प्रभु को सौंप कर तो देखें, हमारा जीवन कितना धन्य हो जाता है । |
064. |
जब हम जीवन में धर्म की रक्षा करते हैं तो आपदा काल में धर्म हमारी रक्षा करता है । |
065. |
हमारा मन अगर शांत होगा वह केवल प्रभु के भजन से ही होगा । |
066. |
राजा श्री परीक्षितजी का भाग्य देखें कि गर्भ में ही उन्हें प्रभु के दर्शन हो गए । |
067. |
इतना कठिन जीवन जीने के बाद भी भगवती कुंतीजी ने प्रभु से विपत्ति मांगी क्योंकि प्रभु इतने दयालु हैं कि प्रभु भक्त की विपत्ति नहीं देख सकते । भक्त के विपत्ति काल में प्रभु सब कुछ छोड़कर दौड़े चले आते हैं । |
068. |
प्रभु नाम रूपी धन के अलावा हमारे पास अन्य कोई धन है तो वह गौण है । प्रभु नाम रूपी धन होना ही भक्तों का लक्षण होता है । |
069. |
ऐसी संपत्ति किस काम की जो प्रभु को ही भुला दे । |
070. |
प्रभु अपने भक्तों के मान का हनन कभी नहीं होने देते । |
071. |
पूरी श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार है कि हम प्रभु शरण में चले जाएं । हमारे सभी पापों का दहन करके प्रभु हमें जीवन मुक्त कर देंगे । |
072. |
प्रभु को प्राप्त करने के लिए प्रभु का शरणागत होना सबसे सरल मार्ग है । |
073. |
बिल्ली अपने बच्चे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए पकड़ती है पर बिल्ली का बच्चा बिल्ली को नहीं पकड़ता । इसी प्रकार से शरणागति के मार्ग पर भक्त प्रभु से कहते हैं कि बिल्ली की तरह प्रभु जीवन के मेले में भक्त का हाथ पकड़ लें । भक्त प्रभु को कहते हैं कि प्रभु आप ही जीव का हाथ पकड़ें । यह सिर्फ शरणागति में ही संभव है । |
074. |
प्रभु के संकल्प टूट जाए तो प्रभु को फर्क नहीं पड़ता पर भक्त के संकल्प को प्रभु कभी टूटने नहीं देते । |
075. |
जीवन भर अगर प्रभु का भजन किया तो अंत समय प्रभु उस भक्त के सामने आकर खड़े हो जाते हैं और अपना विस्मरण नहीं होने देते जिससे उस जीव का उद्धार हो जाए । यह प्रभु की कितनी विलक्षण करुणा है । |
076. |
बिना प्रभु नाम के संसार में हमारी कोई गति नहीं है । |
077. |
वही जीव धन्य होता है जो मनुष्य जीवन पाकर अपने जीवन को मुक्त कर लेता है क्योंकि मनुष्य जन्म के अलावा अन्य कोई भी जन्म नहीं जहाँ से हमें मुक्ति मिल सके । |
078. |
संत ऐसा कहते हैं कि मनुष्य जीवन पाकर जो भजन नहीं करता प्रभु उसे दो पैर की जगह चार पैर यानी पशु योनि का बना देते हैं क्योंकि उसने दो पैर यानी मनुष्य योनि का लाभ नहीं लिया । |
079. |
स्वयं भी भजन करें और संसार को भी भजन करने की प्रेरणा दें । |
080. |
प्रभु की कृपा से ही बड़ी-बड़ी आपत्तियों में पांडवों की रक्षा हुई । |
081. |
कलियुग में सत्संग रूपी एक पैर पर ही धर्म खड़ा है । |
082. |
कलियुग को रहने के लिए पांच स्थान दिए गए हैं । पहला, जहाँ वेश्या रहती हो । दूसरा, जहाँ मदिरालय हो । तीसरा, जहाँ जुआ खेला जाता हो । चौथा, जहाँ बूचड़खाना यानी पशुओं को काटने की जगह हो और पांचवा, जहाँ अनीति का धन आता हो । हमें इन पांचों से सदा सावधान रहना चाहिए । |
083. |
जरासंध द्वारा अनीति से कमाए धन के मुकुट को पहनकर राजा श्री परीक्षितजी जीवन में पहली बार शिकार खेलने गए और ऋषि के गले में सर्प डालकर आ गए । इससे पहले वे कभी शिकार खेलने नहीं गए थे और अपने पूरे जीवन काल में कभी भी, किसी जीव का अपमान तक नहीं किया था । कलियुग का इतना बड़ा प्रभाव उन पर सिर्फ अनीति से कमाए धन के मुकुट को पहनने से हो गया । |
084. |
संत कभी असत् की बात नहीं करते । |
085. |
हानि-लाभ, जन्म-मृत्यु, यश-अपयश यह सब प्रभु के हाथ में हैं । प्रभु ने इसका अधिकार किसी को नहीं दिया है । |
086. |
राजा श्री परीक्षितजी आध्यात्मिक दृष्टि से सोए हुए थे और राज-पाट में खोए हुए थे । ऋषि के श्राप ने उन्हें जगा दिया और उनके जीवन में श्रीहरि नाम के दीप को जलने की इस प्रकार प्रेरणा हो गई । |
087. |
मन में श्रीहरि नाम का ही दीपक जलाएं । |
088. |
शाम सवेरे श्रीहरि नाम का ही गुणगान गाना चाहिए । |
089. |
संत जीवन भर अपने आपको सुधारने का प्रयास करते रहते हैं जिससे वे प्रभु को प्रिय हों । |
090. |
जैसे हम स्वयं होते हैं वैसा ही हमें जगत दिखाई देता है । |
091. |
भाव से हम अपने मन को आदिपुरुष प्रभु के समकक्ष पहुँचा देते हैं तो हमारी समाधि लग जाती है । समाधि आँखें खोलकर भी लगती है और आँखें बंद करके भी लगती है । |
092. |
संसार में सम्मान पाने की भूख सबसे बुरी होती है क्योंकि यह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है । |
093. |
हमें हृदय की गहराई से प्रभु का भजन करना चाहिए । |
094. |
संत सदैव भगवत् अनुसंधान में डूबे रहते हैं । |
095. |
जिस जीव के भीतर प्रभु को पाने की लगन होगी वह प्रभु तक का मार्ग तय कर लेगा क्योंकि प्रभु कृपा करेंगे और वह मार्ग तय कर लेगा । |
096. |
एक संकल्प जीवन में भक्ति की ऊँचाई को छूने का अवश्य होना चाहिए । |
097. |
संसार की सुंदरता हमें भटका देती है । |
098. |
संसार में जहाँ सजावट है वहाँ बनावट है, जहाँ बनावट है वहाँ दिखावट है और जहाँ दिखावट है वहाँ थकावट है । |
099. |
हमारी आँखें नया देखना चाहती हैं, हमारे कान नया सुनना चाहते हैं, हमारी जिह्वा नया चखना चाहती है । कहाँ तक हम जीवन में इनकी पूर्ति करते रहेंगे । |
100. |
मन को शांत करना है तो उसे प्रभु का गुणगान ही सुनाना पड़ेगा । जब तक मन भटकता रहेगा तब तक उसे शांति नहीं मिलेगी, उसे बैठकर प्रभु नाम का सुमिरन ही करना पड़ेगा तभी शांति मिलेगी । |
101. |
जीव संसार के विषयों का गुलाम हो जाता है जो कि एकदम गलत है । |
102. |
जब जीव को प्रभु अपना लेते हैं तो संसार उसे गोद में उठा लेता है । |
103. |
व्यक्ति का सबसे बड़ा कष्ट बुढ़ापा है जहाँ भजन नहीं हो पाता । इसलिए जीव को युवावस्था से ही भजन में लग जाना चाहिए । |
104. |
जीव जब प्रभु का आश्रय लेता है तो उस जीव के सभी कर्मबंधन अपने आप ही खुल जाते हैं । |
105. |
प्रकृति के नियम के विरुद्ध सभी हिंसक जीव मित्र बनकर प्रभु का दर्शन श्री वृंदावनजी में करते हैं । सांप और चूहा, शेर और हिरण साथ-साथ चलकर प्रभु दर्शन करते हैं । |
106. |
हमें अपने मन के भीतर से यानी हृदय की गहराई से प्रभु से प्रेम करना चाहिए । |
107. |
हम जैसे नहीं हैं वैसे बनकर प्रभु के पास जाते हैं तो प्रभु अपने श्रीनेत्र बंद कर लेते हैं । पूतना जैसी नहीं थी वैसी बनकर गई तो प्रभु ने उसे देखकर अपने श्रीनेत्र बंद कर लिए । |
108. |
मुक्ति दुर्लभ नहीं है, भक्ति ही अति दुर्लभ है । प्रभु मुक्ति तो आसानी से दे देते हैं पर भक्ति बड़ी दुर्लभता से देते हैं । |
109. |
प्रभु अपने भक्तों का कभी पतन नहीं होने देते । |
110. |
प्रभु के प्रति जैसा हमारा भाव होगा वैसी ही प्रभु की अनुभूति हमें होने लगेगी । |
111. |
प्रभु का नाम जपने से हम तर जाएंगे और भव के पार उतर जाएंगे । |
112. |
प्रभु सबको क्षमा करते हैं । प्रभु से क्षमा मांगना हमारा काम है, हमें क्षमा करना प्रभु का काम है । |
113. |
संसार में रहकर अपनी समस्त इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ना चाहिए । |
114. |
भक्त कभी प्रभु से कुछ नहीं मांगता । जो मांगता है वह सच्चा भक्त नहीं है । |
115. |
हमारी आवश्यकता की पूर्ति प्रभु सदैव स्वतः ही करते हैं । |
116. |
दीनानाथ प्रभु के जैसा कोई भी कृपालु नहीं है । |
117. |
प्रभु अपने भक्तों को कभी नहीं भूलते । |
118. |
प्रभु का सच्चा निवास अपने भक्तों के हृदय में होता है । |
119. |
प्रभु के सामने अपना दुःख कभी नहीं गाना चाहिए । इससे प्रभु को दुःख होगा क्योंकि अंतर्यामी प्रभु को हमारा दुःख पता है । हमारे द्वारा अपना दुःख वर्णन करने से प्रभु दुःखी हो जाते हैं क्योंकि प्रभु को लगता है कि हमें उन पर विश्वास नहीं है । |
120. |
हमें प्रभु की कथा संसार को नहीं बल्कि प्रभु को सुनानी चाहिए । |
121. |
प्रभु जिन पर सच्ची कृपा करते हैं उनको एक सच्चा धन दे देते हैं और वह है भक्ति का धन । |
122. |
प्रभु अपने भक्तों का सदैव मान बढ़ाते हैं । |
123. |
प्रभु वस्तु के भीतर छिपे प्रेम का भोग स्वीकार करते हैं, वस्तु का नहीं । |
124. |
प्रभु जो भी करते हैं अपने भक्तों के कल्याण के लिए ही करते हैं । |
125. |
जो प्रभु से मांगता है वह कुछ पाता है । जो प्रभु से कुछ नहीं मांगता वह सब कुछ पा जाता है । |
126. |
श्री सुदामाजी के आने पर श्रीद्वारकापुरी धन्य हो गई, ऐसा प्रभु ने श्री सुदामाजी का स्वागत करते वक्त उनको कहा । भक्त के आने पर प्रभु का धाम भी धन्य हो जाता है, ऐसा प्रभु मानते हैं । इतना मान प्रभु अपने भक्त को देते हैं । |
127. |
निष्काम भक्त प्रभु की सेवा के बदले प्रभु से कुछ भी नहीं मांगते । |
128. |
जब भक्त प्रभु से कुछ भी लेना नहीं चाहता तो प्रभु को अंत में उसे भक्ति का वरदान देना ही पड़ता है । |
129. |
अकेले बैठकर एकांत में भजन करना चाहिए । |
130. |
संतों और भक्तों को चाहिए कि संग्रह नहीं करें । |
131. |
गृहस्थ जीवन में फंसने पर ज्यादा भजन नहीं हो पाता । कुछ बिरले ही हैं जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी पूर्ण रूप से भजन कर पाते हैं । |
132. |
जिनके जीवन में प्रभु को पाने का दृढ़ संकल्प जागृत है वे जीवन में प्रभु को पा ही लेते हैं । |
133. |
प्रभु के भक्तों को संसार का मोह नहीं रखना चाहिए । |
134. |
हमें उसी स्थिति में प्रसन्न रहना चाहिए जिसमें प्रभु हमें रखना चाहते हैं । |
135. |
हमारी चाहत सिर्फ प्रभु के लिए ही होनी चाहिए । |
136. |
आपत्ति और विपत्ति में प्रभु हमारे साथ रहते हैं । संपत्ति में प्रभु हमें छोड़ जाते हैं । ऐसा भगवती कुंतीजी ने प्रभु से कहा जो कि सत्य वचन है । |
137. |
दुःख में हमें भी प्रभु ज्यादा याद आते हैं । |
138. |
प्रभु अपने भक्तों को संभालने के लिए और उनसे प्रेम करने के लिए अवतार लेते हैं । |
139. |
प्रभु के लिए आंसू बहाने वाले लाखों भक्त हैं पर कुछ उच्चकोटि के भक्त ऐसे हैं जिनकी याद में प्रभु भी आंसू बहाते हैं ।
श्रीभीष्म पितामह के लिए प्रभु ने आंसू बहाए, ऐसा प्रभु ने श्री युधिष्ठिरजी को कहा जब उन्होंने प्रभु के श्रीनेत्रों से आंसू आने का कारण पूछा । |
140. |
प्रभु हमारे लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते । |
141. |
जिस पर प्रभु कृपा करते हैं उसे सद्बुद्धि देते हैं । |
142. |
राजा श्री परीक्षितजी का जन्म प्रभु ने सुधारा था जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उन्हें बचाया और उनकी मृत्यु को सुधारने के लिए भी प्रभु ने प्रभु श्री शुकदेवजी को श्रीमद् भागवतजी महापुराण का उपदेश करने के लिए उनके पास भेजा । |
143. |
प्रभु ही वैष्णवों का एकमात्र धन होते हैं । |
144. |
जो केवल प्रभु की चर्चा करे वही संत कहलाने योग्य होते हैं । |
145. |
पत्नी वही अच्छी है जो अपने पति को प्रभु भजन में लगा दे । |
146. |
मृत्यु शय्या पर चार प्रकार के दुःख मनुष्य को होते हैं । पहला, उसे परिवार के लिए मोह उत्पन्न हो जाता है जिसके साथ उसने पूरा जीवन जिया है । दूसरा, उसने जो पाप किया हुआ होता है उसके स्मरण से मन दुःखी हो जाता है कि उसे भोगने के लिए नर्क जाना पड़ेगा । तीसरा, भविष्य की चिंता होती है कि पाप भोगने के बाद आगे किस योनि में जन्म मिलेगा । चौथा, शरीर की वेदना का दुःख होता है जो मृत्यु बेला पर होती है । ये चार प्रकार के दुःख मृत्यु शय्या पर लेटे प्रत्येक व्यक्ति को सताते हैं । इन सभी दुःखों से विरक्ति के लिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु की भक्ति ही बताई गई है । |
147. |
जीवन भी हँसते हुए जिएं और अंतिम यात्रा भी मुस्कुराते हुए करें, यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमें उपदेश करती हैं । |
148. |
हमारी मृत्यु भी महोत्सव बन जाए, यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमें सिखाती है । |
149. |
बिना सद्ग्रंथ के हमारा जीवन ही अधूरा है । |
150. |
सद्ग्रंथ हमारे भव रोग को मिटा देते हैं । |
151. |
जीवन में परिवर्तन हो तो ही हमारा प्रभु की कथा सुनना सफल माना जाना चाहिए । |
152. |
जीवन का परम लाभ भक्ति में ही है । |
153. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का सानिध्य पाने से आनंद-ही-आनंद हमारे ऊपर बरसता है । |
154. |
संसार दुःखालय है और केवल प्रभु ही आनंद स्वरूप हैं । |
155. |
प्रभु आनंद स्वरूप हैं इसलिए उनके पास जाते ही हमें भी आनंद मिलता है । |
156. |
प्रभु पूरी सृष्टि का पालन करते हैं । पालन करना कितना कठिन काम है पर प्रभु का सामर्थ्य देखें कि सृष्टि के सारे जीवों का पालन प्रभु करते हैं । हम केवल अपने परिवार को संभालने में भी कितनी कठिनाई महसूस करते हैं । |
157. |
प्रभु को हर जीव की फिक्र होती है । |
158. |
हम प्रभु के नजदीक जैसे ही पहुँचते हैं हमारे दुःख को प्रभु हर लेते हैं । |
159. |
संत कहते हैं कि हमें पूरे-के-पूरे प्रभु का हो जाना चाहिए । पूरी तरह से प्रभु की शरणागति लेनी चाहिए । |
160. |
दुनिया से हमें धोखा मिलता है पर प्रभु के यहाँ हमें सहारा-ही-सहारा मिलता है । |
161. |
जमाने को तो अपना बनाकर देख ही लिया अब प्रभु को भी अपना बनाकर देखें । |
162. |
मृत्यु के समय कंगाल हो कर नहीं जाना चाहिए । मृत्यु के समय भक्ति का धन लेकर प्रभु के पास जाना चाहिए । |
163. |
संत से हम जब श्रीहरि चर्चा करते हैं तो वे बहुत ही राजी होते हैं । |
164. |
प्रभु ही संतों के एकमात्र प्रियतम होते हैं । |
165. |
कालरूपी अजगर के मुँह में जीव बैठा हुआ है । कब कालरूपी अजगर मुँह बंद कर ले और हमारी जीवन लीला समाप्त हो जाए, यह पता नहीं । इसलिए जीवन में प्रभु का भजन तुरंत प्रभाव से करना चाहिए । |
166. |
सद्ग्रंथ हमें दिव्य जीवन जीने की राह दिखाते हैं । |
167. |
प्रभु के दास कभी उदास नहीं होते । |
168. |
संतों और भक्तों को बुराई दिखाई ही नहीं देती उन्हें सिर्फ अच्छाई ही अच्छाई दिखाई देती है । एक बार गुरु द्रोणाचार्यजी ने श्री युधिष्ठिरजी को हस्तिनापुर में किसी दुष्ट को खोजने के लिए भेजा और दुर्योधन को हस्तिनापुर में कोई सज्जन खोजने के लिए भेजा । दोनों वापस शाम को लौटकर आए । श्री युधिष्ठिरजी को एक भी दुष्ट नहीं मिला क्योंकि वे सच्चे संत थे और दुर्योधन को एक भी सज्जन नहीं मिला क्योंकि वह संत नहीं दुष्ट था । |
169. |
कलियुग में केवल प्रभु का नाम ही एकमात्र आधार है । |
170. |
प्रभु के बराबर की महिमा नामी यानी प्रभु के नाम की कलियुग में है । |
171. |
प्रभु का नाम कैसे भी लिया जाए वह तो मंगल-ही-मंगल करता है । |
172. |
जिसने भी कलियुग में भवसागर पार किया है उसने नाम जप का आधार लिया है और उसी के बल पर भवसागर पार किया है । |
173. |
संतों ने सबसे बड़ा सत्कर्म श्रीमद् भागवतजी महापुराण के ज्ञानयज्ञ को बताया है । |
174. |
सत्संग से ही सच्चा ज्ञान यानी प्रभु का ज्ञान मिलता है । |
175. |
एक बार श्रीमद् भागवतजी महापुराण का ठीक से श्रवण हो जाए तो प्रभु हृदय में आ बसते हैं । |
176. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण का सेवन और श्रवण रोज करना चाहिए । |
177. |
प्रभु का सुमिरन जीवन में नित्य नियम से होना चाहिए । |
178. |
भोजन से पहले भजन का नियम जीवन में बनाना चाहिए । जिस दिन भजन नहीं किया उस दिन भोजन नहीं लेना चाहिए । |
179. |
प्रभु के लिए जीवन में नियम बनाने पर हम प्रभु की प्राप्ति में सफल होते हैं । |
180. |
सत्संग का सही मतलब है कि सत्य यानी प्रभु की चर्चा । |
181. |
भक्त को प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचने का उद्देश्य जीवन में रखना चाहिए । |
182. |
अपनी मान और प्रतिष्ठा को कथा स्थल के बाहर छोड़कर ही प्रभु की कथा सुनने आना चाहिए । |
183. |
भक्ति का मार्ग संकरा है इसलिए या तो प्रभु इसमें आ सकते हैं या अहंकार आ सकता है । दोनों साथ में नहीं रह सकते क्योंकि मार्ग संकरा जो है । |
184. |
प्रभु कथा नहीं सुनने से हमारा जीवन ही बिगड़ जाता है क्योंकि प्रभु के प्रति हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो जाता है । |
185. |
हमें अंदर से पवित्र बनना चाहिए तभी प्रभु प्रसन्न होते हैं । |
186. |
भक्ति को छिपाना चाहिए एवं दूसरों के सामने अपनी भक्ति का बखान करके अपनी भक्ति को प्रकट नहीं करना चाहिए । |
187. |
प्रभु की कथा संसार की व्यथा को मिटाती है । |
188. |
भगवती भक्ति माता भक्तों के हृदय में विराजती हैं । |
189. |
जिसने हर तरह का पाप कर लिया हो, कोई भी पाप कर्म उससे छूटा न हो उसे भी श्रीमद् भागवतजी महापुराण तार देती है । |
190. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमें मुक्त करती है और हमें प्रभु के धाम भिजवा देती है । |
191. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण को हम जिस भी भाव से सुनेंगे हमें यह श्रीग्रंथ वैसा ही फल प्रदान करता है । |
192. |
प्रभु का स्मरण करते ही वह समय और वह मुहूर्त हमारे अनुकूल हो जाते हैं । |
193. |
प्रभु के कथा पंडाल में सभी देव, नदियां और सभी तीर्थ मौजूद रहते हैं । |
194. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण अन्य सभी पुराणों का तिलक है । श्रीमद् शब्द अन्य किसी भी पुराण के आगे नहीं लगता । |
195. |
भारतवर्ष के पास श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीशिव रूपी नाम धन है । |
196. |
धनवान वही है जिसके पास प्रभु नाम रूपी धन हो । |
197. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सच्चे मन से केवल श्रवण मात्र से ही यह श्रीग्रंथ हमें मोक्ष प्रदान कर देता है । |
198. |
भक्त प्रभु के दर्शन के अलावा प्रभु से कुछ भी नहीं मांगते । |
199. |
प्रभु को देखने वाली आँखें भी प्रभु कृपा से ही हमें मिलती हैं । |
200. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमें वह दृष्टि देती है जिससे हमें प्रभु के दीदार होते हैं । |
201. |
राजा श्री परीक्षितजी मुक्त हो गए तो हम भी मुक्त हो सकते हैं अगर हम उनकी तरह परम भाव से श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण करें । |
202. |
प्रभु का हर कार्य मंगलमयी है । इसलिए हमें प्रभु का सुमिरन कर प्रभु से मंगल की प्रार्थना करनी चाहिए । |
203. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण सत्य स्वरूप प्रभु का श्रीग्रंथ है । |
204. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण श्रीवेद रूपी कल्पवृक्ष का पका हुआ मीठा फल है । |
205. |
तोते का मुँह लगने से फल मीठा हो जाता है । ऐसे ही श्रीशुकरूपी प्रभु श्री शुकदेवजी के श्रीमुख से प्रवाहित होने के कारण श्रीमद् भागवतजी महापुराण का जो फल है वह अति मीठा हो गया है । |
206. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण का तब तक सेवन करते रहना चाहिए जब तक मोक्ष नहीं मिल जाता । संत कहते हैं कि इस श्रीग्रंथ का जीवन भर श्रवण करना चाहिए । |
207. |
जिसके लिए कथा सुनना नशे की तरह हो जाता है वह जीव तर जाता है । |
208. |
मानव के लिए भवसागर पार करने का श्रेष्ठ साधन है कि किसी भी तरह उसके जीवन में प्रभु के लिए भक्ति आ जाए । भक्ति आते ही जीव स्वतः ही भवसागर पार हो जाता है । |
209. |
भक्ति में कोई स्वार्थ, कामना, कारण या हेतु नहीं होना चाहिए तभी वह सच्ची भक्ति है । |
210. |
प्रभु से जब कुछ मांगने का मन बन जाए, कुछ मांगने की इच्छा हो तो वह भक्ति नहीं कहलाती है । |
211. |
प्रेम और भक्ति में प्रभु से कुछ मांग नहीं होती । |
212. |
सभी शास्त्रों का सार श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । |
213. |
भगवती कुंतीजी का प्रभु से इतना प्रेम था कि श्री अर्जुनजी से प्रभु के स्वधाम गमन की वार्ता सुनते ही उन्होंने अपनी देह त्याग दी । |
214. |
धर्म की हानि होने से भगवती पृथ्वी माता दुःखी होती हैं । |
215. |
साधु और संत का काम ही है सहन करना । |
216. |
संतों से परमार्थ के प्रश्न पूछने चाहिए, स्वार्थ के प्रश्न नहीं पूछने चाहिए । परमार्थ का प्रश्न यह है कि प्रभु को पाने का मार्ग क्या है । |
217. |
मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है । |
218. |
अपने मन को अंत समय में प्रभु के साथ जोड़ने से वह साधक प्रभु के पास पहुँच जाता है । |
219. |
मन को प्रभु में लगाने का एक ही उपाय है कि रोजाना अभ्यास करना चाहिए कि मन प्रभु में लगे । |
220. |
हमें गिनती की सांसें मिली हैं उसे बर्बाद या बेकार नहीं करना चाहिए । अपनी प्रत्येक श्वास से प्रभु का सुमिरन कर उसे प्रभु को अर्पण करना चाहिए । |
221. |
जीवन को ऊँचाई तक ले जाना है तो सत्संग जरूर करना चाहिए । |
222. |
इंद्रियों के अधीन होते ही हमारा मन चंचल हो जाता है । |
223. |
मंदिर में जब हम प्रभु के दर्शन करने जाते हैं तो पहले प्रभु के श्रीकमलचरणों से फिर उसके ऊपर फिर उसके ऊपर और ऐसे करते-करते प्रभु के मुखारविंद के दर्शन करने चाहिए । सूत्र यह है कि प्रभु के सभी श्रीअंगों का नीचे से होते हुए ऊपर तक दर्शन करने चाहिए । |
224. |
प्रभु के नजदीक होने पर हममें दीनता और सरलता आती है । प्रभु से दूर होने पर हमारे मन में अहंकार और अभिमान आता है । |
225. |
जो शास्त्रों की बताई हुई नीति पर चलता है वह भक्ति में जल्दी सफल हो पाता है । |
226. |
सपने में भी किसी का अमंगल करने की कामना नहीं करनी चाहिए । |
227. |
प्रभु से संसार की चीजें नहीं मांगनी चाहिए, संसार से मुक्ति मांगनी चाहिए । |
228. |
प्रभु ने देवतागण को कहा कि मैं श्री ध्रुवजी का दर्शन करने जा रहा हूँ, उन्हें दर्शन देने नहीं जा रहा । |
229. |
प्रभु जब कृपा करते हैं तो एक मूर्ख भी परम ज्ञानी बन जाता है । श्री कालिदासजी पहले इतने मूर्ख थे कि जिस वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे उसको ही काटने लग गए पर फिर प्रभु कृपा हुई और वे महाकवि बन गए । |
230. |
भक्ति के कारण प्रभु अपनी दया का द्वार हमारे लिए खोल देते हैं । |
231. |
प्रभु से ऐसी कृपा मांगनी चाहिए कि जीवन में उस कृपा के कारण सदैव भक्ति बनी रहे । |
232. |
हमें दिन-रात प्रभु के ही चिंतन में लीन रहना चाहिए । |
233. |
जो प्रभु का हो जाता है वह फिर संसार के काम का नहीं रहता । |
234. |
भक्त जब भक्ति की ऊँचाई पर पहुँच जाता है तो उसकी सब इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । |
235. |
प्रभु की रजा में ही हमें राजी रहना चाहिए । |
236. |
जिस दिन हम सच्चे रूप से प्रभु को अपना तन, मन और धन दे देते हैं उस दिन हमारी भक्ति प्रगाढ़ हो गई है, ऐसा मानना चाहिए । |
237. |
मनुष्य जीवन को विषयों में लिप्त होकर बर्बाद नहीं करना चाहिए । |
238. |
पचास वर्ष की उम्र के बाद प्रभु को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए । वानप्रस्थ का सच्चा अर्थ यही है कि सावधानी से हमारा मन प्रभु में ही लगे । |
239. |
प्रभु हमें बहुत बड़ी-बड़ी अनहोनी से बचा लेते हैं । |
240. |
जो प्रभु के प्रति समर्पित हो गया है दुनिया उसे वेदना नहीं दे सकती । उसे दुनिया से वेदना मिलने पर भी उसे भक्ति के कारण वेदना का अनुभव नहीं होता । |
241. |
जो प्रभु भरोसे हो जाता है उसे फिर दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता । |
242. |
महापुरुषों के जीवन में एक जैसी मस्ती होती है । कुछ मिल गया तो भी वही मस्ती, कुछ नहीं मिला तो भी वही मस्ती । उनकी यह मस्ती प्रभु से उनके जुड़ाव के कारण होती है । |
243. |
प्रभु भाव के विषय हैं, तर्क के विषय नहीं हैं । |
244. |
प्रभु असीम हैं इसलिए हम उन्हें अपनी सीमित बुद्धि से नहीं जान सकते । |
245. |
जैसे विशाल समुद्र को एक कटोरी में नहीं समाया जा सकता वैसे ही असीम प्रभु को हमारी सीमित बुद्धि से नहीं जाना जा सकता । |
246. |
प्रभु तर्क और बुद्धि से परे हैं । |
247. |
प्रभु प्रेम और भाव के अधीन हैं । |
248. |
प्रभु नाम का धन कमाकर धनवान होकर प्रभु तक पहुँचना चाहिए । |
249. |
अपने गलत कर्म का प्रभु के समक्ष सच्चा प्रायश्चित और उस गलत कर्म को आगे जीवन में कभी नहीं दोहराने का संकल्प लेने पर प्रभु हमें माफी दे देते हैं और उस कर्म के लिए हमें नर्क नहीं जाना पड़ता । |
250. |
प्रभु की भक्ति करने वाले को सपने में भी नर्क नहीं जाना पड़ता । वह नर्क के प्रावधान से स्वतः ही बच जाता है । |
251. |
प्रभु पर अखंड भरोसा हो तो प्रभु हमारे लिए कहीं भी प्रकट होने के लिए तैयार हैं । श्री प्रह्लादजी के लिए प्रभु एक खंभे से प्रकट हुए । |
252. |
भगवती गंगा माता के धरती पर भारतवर्ष में आने से भारतवर्ष धन्य हो गया । |
253. |
सौ योजन की दूरी से भी भगवती गंगा माता का नाम लेकर साधारण जल से स्नान कर लें तो भी हम भवसागर पार हो जाते हैं । ऐसी अदभुत महिमा भगवती गंगा माता की है । |
254. |
प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी के परिवार के सदस्य हैं क्योंकि एक चील ने परिवार के चरू को ले जाकर भगवती अंजनी माता की अंजलि में डाल दिया था और भगवती अंजनी माता ने उसे ग्रहण कर लिया । प्रभु श्री हनुमानजी अयोध्या के परिवार के चरू से उत्पन्न हुए इसलिए श्रीराम परिवार के सदस्य हैं । जहाँ भी श्रीराम परिवार की मूर्ति होगी प्रभु श्री हनुमानजी वहाँ जरूर होंगे । |
255. |
सत्कर्म कभी भी दुनिया को दिखाने के लिए नहीं बल्कि प्रभु को रिझाने के लिए करना चाहिए । |
256. |
भक्ति और भजन प्रभु से कुछ पाने के लिए नहीं अपितु प्रभु को रिझाने के लिए करना चाहिए । |
257. |
हम कितना जीते हैं यह कोई नहीं देखता । हम भगवत परायण होकर कैसे जीते हैं यह दुनिया देखती है । |
258. |
हमें प्रभु की निरंतर याद आनी चाहिए । प्रभु के दर्शन की तड़प हमारे मन में हमेशा रहनी चाहिए तभी हमें मानना चाहिए कि प्रभु कृपा हमारे ऊपर हुई है । |
259. |
न धन में सुख है, न परिवार में सुख है, न पुत्र-पौत्र में सुख है, केवल प्रभु की शरणागति में ही सच्चा सुख है । |
260. |
प्रभु को पाने के लिए सब कुछ छोड़ना पड़ता है । |
261. |
जैसे-जैसे प्रभु की भक्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे प्रभु से प्रेम बढ़ता चला जाएगा । |
262. |
निरंतर भक्ति करते रहने पर ही प्रभु प्रेम का भाव हमारे भीतर जागृत होता है । |
263. |
भक्ति को तीव्र करना चाहिए तभी हम प्रभु को पा सकते हैं । |
264. |
विषयों को छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती, वह प्रभु भक्ति से स्वतः ही छूट जाते हैं । |
265. |
सब कुछ प्रभु को सौंप दिया तो फिर किसी भी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए । |
266. |
प्रभु की यही कृपा माननी चाहिए कि प्रभु की कृपा से भजन जीवन में हो रहा है क्योंकि प्रभु कृपा बिना भजन संभव नहीं है । भजन करना हमारे हाथ में नहीं है क्योंकि यह प्रभु कृपा से ही संभव होता है । |
267. |
प्रभु कृपा तब होती है जब प्रभु के प्रति हमारे मन का भाव शुद्ध होता है । |
268. |
प्रभु की सत्ता को सर्वत्र महसूस करना चाहिए । |
269. |
अहंकार होते ही ज्ञान, भक्ति और वैराग्य हमें छोड़ कर चले जाते हैं । कैकेयी रूपी अहंकार के आते ही ज्ञानरूपी प्रभु श्री रामजी, भक्ति स्वरूपा भगवती सीता माता और वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी श्री दशरथजी को छोड़कर वन में चले गए । |
270. |
प्रभु की कथा नित्य सुनते रहने पर भी हमें वह नित्य नूतन लगनी चाहिए । |
271. |
श्री रामचरितमानसजी की चौपाइयां लाख बार सुनने के बाद भी सुनने की व्याकुलता बनी रहनी चाहिए । |
272. |
प्रभु श्री विष्णुजी के अवतार प्रभु श्री रामजी । प्रभु श्री विष्णुजी के एक श्रीहाथ में शंख है, शंख के अवतार श्री भरतलालजी हैं । प्रभु के एक श्रीहाथ में श्री सुदर्शनजी हैं, श्री सुदर्शनजी के अवतार श्री शत्रुघ्नजी हैं और प्रभु श्री शेषजी पर लेटे हुए हैं, श्री शेषजी के अवतार श्री लक्ष्मणजी हैं । |
273. |
प्रभु को हम प्रेम से ही प्राप्त कर सकते हैं । |
274. |
श्री भरतलालजी का अवतार नहीं होता तो प्रभु प्रेम क्या होता है यह संसार को कौन बताता । |
275. |
श्री भरतलालजी प्रभु के परम प्रेम की साक्षात मूर्ति हैं । |
276. |
प्रभु नाम का निरंतर सुमिरन करते रहेंगे तो अंतःकरण में प्रभु प्रेम एक-न-एक दिन जरूर जगेगा । |
277. |
संत वे हैं जिनको प्रभु प्रिय हैं और जो प्रभु को प्रिय है । |
278. |
प्रभु की कीर्ति की ध्वजा को फहराने का काम प्रभु के भक्त करते हैं । |
279. |
प्रभु का पूजन अपने हाथों से ही करना चाहिए, प्रभु की प्रसादी अपने हाथों से ही बनानी चाहिए, किसी सेवक को इसका जिम्मा कभी नहीं देना चाहिए । |
280. |
जितना हम प्रभु के नजदीक रहेंगे उतना प्रभु प्रेम जीवन में बढ़ेगा । |
281. |
प्रभु को अपने भक्तों को तथास्तु कहना बहुत जल्दी आता है । भक्तों की सभी इच्छाओं को प्रभु तथास्तु कहकर पूरा कर देते हैं । |
282. |
प्रभु हमारे मन मंदिर में सदा विराजें इसी में जीवन की पूर्णता है । |
283. |
संसार का संग करने से व्यथा-ही-व्यथा मिलेगी । |
284. |
प्रभु के सन्मुख जाकर मांगना कपट है क्योंकि छोटे-से-छोटा नवजात बच्चा जो कि बोल भी नहीं सकता उसकी भी जरूरत की पूर्ति बिना बोले अथवा बिना मांगे प्रभु करते हैं । |
285. |
प्रभु जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं । प्रभु हमारा कभी बुरा नहीं कर सकते । यह शाश्वत सिद्धांत है । |
286. |
रात-दिन प्रभु को याद करने वाला ही साधक कहलाता है । |
287. |
रात को सोते समय राम-राम जपते-जपते सोएं । सुबह उठते वक्त राम-राम कहते-कहते उठें । इस तरह रात की पूरी निद्रा ही राममय हो जाएगी । |
288. |
जब प्रभु जीवन में होते हैं तो एक भी विकार जीवन में नहीं आ सकता । |
289. |
जब हम सरल होंगे तभी अहंकार रहित होंगे और तभी प्रभु की भक्ति और शरणागति प्राप्त कर सकेंगे । |
290. |
प्रभु बार-बार अपनी उपस्थिति का अहसास अपने भक्तों को कराते रहते हैं । |
291. |
प्रभु का पूर्ण एहसास जीवन में होना ही शरणागति है । |
292. |
जीवन भोगों को भोगने के लिए नहीं अपितु प्रभु भक्ति करने के लिए मिला है । |
293. |
प्रभु से जीवन में कहें कि जैसा भी हूँ मैं सिर्फ आपका ही हूँ । बुरा, कुटिल, कामी और लोभी जैसा भी हूँ सिर्फ आपका ही हूँ । |
294. |
भगवती सुशीलाजी ने अपने पति श्री सुदामाजी को संसार के पास नहीं भेजा, प्रभु के पास भेजा । |
295. |
संसार वालों से नहीं मांगें । अगर मांगना ही है तो फिर सिर्फ प्रभु से मांगें । |
296. |
भगवती सुशीलाजी ने चार मुट्ठी चिउड़े के साथ अपने चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रभु को निवेदन कर दिए । |
297. |
प्रभु को हम जो भी प्रेम भाव से अर्पण करते हैं प्रभु उसे जरूर स्वीकार कर लेते हैं । |
298. |
प्रभु का नाम किसी भी भाव से लें वह कल्याण-ही-कल्याण करेगा । |
299. |
जो मिलकर कभी बिछड़े नहीं ऐसे सनातन प्रभु से संबंध जोड़ना चाहिए । सांसारिक जीव दूसरे संसारी जीव से एक जन्म बाद मिलकर बिछड़ जाते हैं क्योंकि संसारी संबंध का एक जन्म बाद कोई महत्व नहीं होता । |
300. |
प्रभु का प्रत्येक विधान चाहे वह दिखने में हमें प्रतिकूल क्यों न लगे पर वह हमारे लिए मंगलमय ही होता है । |
301. |
जीवन में प्रभु नाम का जप और प्रभु नाम का कीर्तन करना चाहिए । |
302. |
हमें प्रभु की कथा सुनकर फिर उसका मनन करना चाहिए । जैसे गौ-माता ग्रास खाकर फिर उसे पेट से निकाल कर चबाती हैं वैसे ही हमें भी सुनकर फिर मनन करना चाहिए । |
303. |
दुनिया के सहारे छूट जाए और एक प्रभु भी हमारे एकमात्र सहारे बन जाए तो ही हमारा कल्याण है । |
304. |
जो भी सत्संग में सुनें उसे अपने आचरण में उतारना चाहिए । |
305. |
प्रभु नाम का चिंतन और प्रभु नाम का जप करते हुए हमें अपने जीवन के कार्यों को करते रहना चाहिए । |
306. |
प्रभु के विधान को जिसने भी स्वीकार कर लिया उसे दुःख कभी दुःखी नहीं कर सकता । |
307. |
जो कभी दुःखी नहीं होता और दूसरों को भी कभी दुःख नहीं देता, ऐसे भक्त प्रभु को बहुत प्रिय होते हैं । |
308. |
सुख और दुःख दोनों प्रभु के विधान हैं । सुख और दुःख दोनों हमारे कर्मों के फल हैं । इसलिए दोनों को एक जैसा मानना चाहिए, यही श्रीमद् भगवद् गीताजी का उपदेश है । |
309. |
मेरा भला करने के लिए ही मेरे जीवन में दुःख आया संत ऐसी भावना करते हैं और इस तरह दुःख में भी सुख की भावना कर लेते हैं । हमें भी दुःख में सुख की भावना करनी चाहिए । |
310. |
जीवन में सत्संग का मिला हुआ एक भी पल हमें नहीं खोना चाहिए । |
311. |
सत्संग, प्रभु सेवा और प्रभु सुमिरन जीवन में होते रहना चाहिए । |
312. |
संसार की गंदगी में भी रहकर हमें प्रभु की बंदगी करते रहना चाहिए । |
313. |
सबके अंदर मेरे प्रभु हैं यह भावना करके सबका मंगल चाहना चाहिए । |
314. |
जब तक हम दूसरों के हृदय में प्रभु को देखना नहीं सीखेंगे तब तक हमें अपने स्वयं के हृदय में प्रभु के दर्शन नहीं होंगे । |
315. |
संसार में किसी से मोह नहीं रखना चाहिए । |
316. |
सच्चा और निर्मल प्रेम केवल प्रभु के साथ ही होना चाहिए । |
317. |
संत संसारी से भी प्रेम करते हैं पर यह मानकर कि उनके अंदर मेरे प्रभु हैं क्योंकि उनका असली प्रेम प्रभु से ही होता है । |
318. |
प्रभु हमें मंदिर में सिर्फ एक जगह खुद को देखने को नहीं बल्कि सब जगह देखने को कहते हैं । प्रभु हर जगह हैं यह भाव हमारे हृदय में होना चाहिए । |
319. |
प्रभु भक्ति में प्रभु ही हमारे सब कुछ होते हैं । |
320. |
प्रभु भक्ति करते-करते हमें पूरा विश्वास हो जाना चाहिए इसी से हमारा उद्धार संभव है । |
321. |
जीवन में सभी भोगों को त्यागकर सभी रसों को त्यागकर केवल श्रीराम रस ही पीना चाहिए । |
322. |
एक बार प्रभु जीवन में आ जाएं तो फिर दुनिया से हमारा कोई काम नहीं रहता । |
323. |
हमारे ऊपर प्रभु का रंग चढ़ना चाहिए । |
324. |
प्रभु द्वारा दी हुई ममता के कारण ही सांसारिक माता-पिता अपने बच्चों का कितना सुन्दर पालन-पोषण करते हैं । यह प्रभु द्वारा दी हुई ममता प्रभु के ममता सागर की एक बूंद मात्र है । |
325. |
प्रभु कृपा और दया के सागर हैं । प्रभु ममता और प्रेम के भी सागर हैं । |
326. |
प्रभु श्री महादेवजी श्री काशीजी में जीव के कान में श्रीराम नाम कहकर उस जीव को मुक्ति दे देते हैं । श्रीराम नाम की इतनी महिमा है कि प्रभु श्री महादेवजी द्वारा श्री काशीजी में जीव के कान में श्रीराम नाम कहने पर उस जीव को सभी पापों से क्षणभर में मुक्ति मिल जाती है । |
327. |
हाथ से संसार का काम करें और जुबां से प्रभु का नाम जपें । |
328. |
सुमिरन मानसिक हुआ करता है । मन को प्रभु में लगाना चाहिए और मन से प्रभु का ही चिंतन होना चाहिए । |
329. |
नाम जप के बाद मानसिक सुमिरन यानी प्रभु का चिंतन करना चाहिए । |
330. |
जीवन में एक समय ऐसा आए कि हाथ की माला छूट जाए और मन की माला निरंतर हमसे फिरने लग जाए । |
331. |
महापुरुष कभी भी भक्ति के सिद्धांत के विपरीत नहीं बोलते क्योंकि उन्हें पता होता है कि भक्ति ही सर्वोपरि है । |
332. |
प्रभु का नाम मन से लें या बेमन से लें पर वह हमारा निश्चित कल्याण करके ही रहेगा । |
333. |
भक्त होना चाहिए, भक्त दिखना नहीं चाहिए । भक्ति का दिखावा कभी नहीं होना चाहिए । |
334. |
जो प्रभु में लगा रहेगा उस पर माया का कोई प्रभाव कभी नहीं होगा । |
335. |
भक्त के भगवान और भगवान के भक्त होते हैं । दोनों एक-दूसरे के पूरक होते हैं । |
336. |
भक्त को सिर्फ प्रभु से ही मतलब होता है । |
337. |
प्रभु का भजन और प्रभु की भक्ति करने वाले को कभी मन का बुढ़ापा नहीं आता । उनका शरीर बूढ़ा हो जाता है पर मन का बुढ़ापा कभी नहीं आता । |
338. |
प्रभु के साथ साक्षात्कार के बाद प्रारब्ध के सभी कर्मफल और कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं । |
339. |
प्रिय, प्रियतम, अति प्रिय और अतिशय प्रिय यह चार प्रकार प्रभु ने भगवती शबरीजी से कहे और प्रभु कहते हैं कि तुम मुझे अतिशय प्रिय हो यानी प्रिय, प्रियतम, अति प्रिय से भी ज्यादा अतिशय प्रिय हो । भक्ति करने वाले को प्रभु अतिशय प्रिय मानते हैं । |
340. |
प्रभु भक्ति का नियम जितना पुराना होगा उतनी ज्यादा दृढ़ता नियम पालन में आ जाएगी । |
341. |
जो निष्ठापूर्वक अपने साधन के नियम का पालन जीवन में करते हैं उनसे किसी प्रतिकूल अवस्था में उनका नियम एक दिन के लिए टूट भी जाता है तो उस नियम की पूर्ति प्रभु स्वयं करते हैं । |
342. |
साधन का नियम जितना पुराना होगा उतना उस नियम की ताकत बढ़ती जाएगी । |
343. |
जो प्रभु के उत्सव को अपने जीवन में मनाता है प्रभु उसका जीवन ही उत्सव बना देते हैं । |
344. |
ज्ञान से बहुत ऊँचा स्थान भक्ति का है । |
345. |
भक्ति में स्थित रहकर प्रभु से प्रेम करना, यही प्रेमाभक्ति है । |
346. |
प्रेमाभक्ति से ही प्रभु को पाया जा सकता है । |
347. |
श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने जो कहा वह हम जीवन में मान लें और उसे जीवन में उतार लें तो प्रभु हमारे वश में हो जाते हैं । |
348. |
हम प्रभु से अलग नहीं हैं और प्रभु भी हमसे अलग नहीं हैं । |
349. |
भक्त प्रभु को जैसा मानेगा प्रभु भी उसे वैसा ही मानेंगे । भक्त चाहे पिता, माता, बंधु कोई भी रिश्ता प्रभु से बना ले प्रभु उसे रिश्ते को स्वीकार करते हैं । |
350. |
एक माता के गर्भ में एक बच्चा है और एक साथ रहने वाला थोड़ा बड़ा बच्चा है । गर्भ का बच्चा निराकार ब्रह्म की तरह है और साथ रहने वाला थोड़ा बड़ा बच्चा साकार ब्रह्म की तरह है । साकार ब्रह्म से भक्ति और प्रेम संभव है क्योंकि प्रभु और भक्त दो हैं इसलिए दोनों के बीच प्रेम भी संभव है और भक्ति भी संभव है । माता जैसे दोनों बच्चों का पालन करती है वैसे ही प्रभु दोनों का पालन करते हैं यानी साकार रूप में भक्त का और निराकार रूप में ज्ञानी का पालन करते हैं । |
351. |
ज्ञानी को प्रभु के दर्शन नहीं होते, वे प्रभु से प्रेम नहीं कर सकते हैं पर भक्तों को प्रभु के दर्शन भी होते हैं और प्रभु से प्रेम करना भी उनके लिए संभव होता है । |
352. |
एक भक्ति ही है जो प्रभु के प्रेम का रसास्वादन जीवन में भक्त को कराती है । |
353. |
निराकार प्रभु को मानने पर प्रभु का प्यार नहीं मिल सकता, प्रभु के श्रीकमलचरणों का चरणामृत नहीं पी सकते, प्रभु को गले नहीं लगा सकते । पर प्रभु के साकार रूप के कारण भक्त प्रभु को प्रेम भी कर सकता है, प्रभु के श्रीकमलचरणों का चरणामृत भी पी सकता है और प्रभु को गले भी लगा सकता है । |
354. |
जब हम प्रभु से प्रेम करते हैं तो प्रभु को भी प्रतिउत्तर में प्रेम करने के लिए स्वयं भक्तों के पास आना पड़ता है । |
355. |
प्रभु से प्रेमाभक्ति करना सबसे श्रेष्ठ अवस्था है । अगर प्रभु से हमने प्रेम नहीं किया तो हमने अपना मानव जीवन ही व्यर्थ गंवा दिया । |
356. |
ज्ञानी को आत्म साक्षात्कार होता है पर भक्तों को परमात्मा साक्षात्कार होता है । |
357. |
श्री वृंदावनजी में आज भी प्रभु साकार रूप धारण करके कितनी लीलाएं अपने भक्तों के साथ करते रहते हैं । |
358. |
जहाँ हमारे द्वारा स्वयं के कल्याण की चिंता है वह प्रभु प्रेम नहीं है । जहाँ हमारे द्वारा प्रभु को कैसे आनंद मिले यह हमारा चिंतन है वहाँ प्रभु प्रेम है । |
359. |
जिसने भी भक्ति की दौलत पाई है उसे कभी भी इसको पाने के बाद इसके लिए गम नहीं हुआ । |
360. |
ज्ञानी को शांति मिल जाएगी पर शांति के साथ परमानंद तो भक्तों को ही मिलेगा । |
361. |
ज्ञानी को प्रभु अपने में लीन करते हैं पर भक्तों को प्रभु अपने संग रखते हैं, जैसे एक माता गर्भ में बच्चे को लीन रखती है और संग में बाहर बड़े बच्चे को रखती है । प्रभु जिसका संग करते हैं उसे भक्ति प्रदान करते हैं और जिसको लीन करते हैं उसे मोक्ष देते हैं । |
362. |
प्रभु ने राक्षसों का उद्धार करके उन्हें अपने में लीन किया और उन्हें मोक्ष मिला पर भक्तों को प्रभु ने संग दिया और उन्हें भक्ति दी । |
363. |
प्रभु प्रकट होते हैं और फिर अपनी श्रीलीला पूरी करके अंतर्ध्यान हो जाते हैं । |
364. |
भक्ति के कारण मृत्यु के बाद भी भक्तों को भाव देह प्राप्त होती है जिससे वे प्रभु की भक्ति मृत्यु के बाद भी जारी रख पाते हैं । भक्त की आत्मा को प्रभु भाव देह देकर उसके साथ विहार करते हैं जिससे वह प्रभु की भक्ति करता रहे । |
365. |
श्री रामचरितमानसजी में ऋषि श्री शरभंगजी की आत्मा प्रभु के धाम गई, प्रभु में लीन नहीं हुई । प्रभु में लीन होने से भी ज्यादा सुख प्रभु से प्रेम करने में है । इसलिए सच्चे भक्त प्रभु से प्रेम मांगते हैं और भाव देह मांगते हैं । वे प्रभु में लीन होना नहीं चाहते । वे दो बनकर रहना चाहते हैं जिससे प्रभु से प्रेमाभक्ति कर सकें, लीन होकर एक नहीं होना चाहते । |
366. |
भक्तों ने कभी मुक्ति नहीं मांगी सदैव भक्ति ही मांगी है । |
367. |
प्रेम दो के बीच होता है, एक में संभव नहीं । इसलिए भक्त दो बने रहना चाहते हैं, प्रभु में लीन होकर एक नहीं होना चाहते । |
368. |
प्रभु प्रेम हमारे जीवन में प्रतिक्षण बढ़ते रहना चाहिए । |
369. |
दो बनकर प्रभु और भक्त आपस में लीलाएं करते रहते हैं । |
370. |
भक्ति करने वाले मृत्यु के बाद लीलालीन होते हैं यानी प्रभु की लीला में लीन हो जाते हैं । ज्ञानी मृत्यु के बाद ब्रह्मलीन होते हैं । |
371. |
जो साकार प्रभु को मानते हैं वे प्रभु की गोद के बच्चे होते हैं । गोद का बच्चा प्रभु को देख सकता है इसलिए प्रभु के साकार रूप का दर्शन उसे होता है । |
372. |
सच्चे संत किसी भी धर्म अथवा किसी भी पंथ का खंडन नहीं करते । |
373. |
मुक्ति के आगे भी कुछ है तो वह है भक्ति पर भक्ति से आगे कुछ भी नहीं है । |
374. |
प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि जो साकार रूप से मेरी भक्ति और उपासना करते हैं वे मुझे सबसे प्रिय होते हैं । |
375. |
प्रभु निराकार और साकार दोनों पंथ को मानने वाले का पोषण करते हैं पर प्रेम केवल साकार रूप में भक्ति करने वाले से करते हैं । |
376. |
प्रभु से कोई संबंध जीवन में बना लेना चाहिए तो हमारी भक्ति दृढ़ हो जाएगी । |
377. |
मेरा भक्त बन, मेरा पूजन कर, मेरी भक्ति कर, ज्ञानी मत बन, यह प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में एक बार नहीं दो बार कहा है । |
378. |
जैसे हम जयपुर से कानपुर जाएंगे तो दिल्ली बीच में स्वतः ही आएगा वैसे ही भक्ति करने वाले को मुक्ति स्वतः ही बीच में मिल जाती है । |
379. |
सगुण साकार प्रभु से ही प्रेम किया जा सकता है । |
380. |
श्री रामचरितमानसजी में गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि मुझे एक जन्म में मुक्ति मिले और कोटि जन्म में भक्ति मिले तो मुझे कोटि जन्म दे दें पर सिर्फ भक्ति दें क्योंकि मुझे मुक्ति नहीं चाहिए चाहे वह एक जन्म में ही क्यों न मिल जाए । |
381. |
भक्ति में ही प्रभु और जीव एक दूसरे से प्रेम करते हैं । |
382. |
दुनिया से प्रेम करें तो वह राग कहलाएगा, प्रभु से प्रेम करें तो वह भक्ति कहलाएगी । |
383. |
बुद्धि प्रधान और तर्क-वितर्क प्रधान लोग ज्ञान मार्ग से जाए पर श्रद्धा प्रधान और प्रेम प्रधान लोगों के लिए केवल भक्ति का ही मार्ग है । |
384. |
बुढ़ापा आ जाने पर भी हमारा मन संसार से हटता नहीं, यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है । |
385. |
प्रभु के लिए भक्ति में रोने में भी बड़ा परमानंद है । इतना परमानंद है कि उसके पीछे भक्त लाखों मुक्तियां भी न्यौछावर कर देते हैं । |
386. |
महाराज श्री मनुजी ने प्रभु से मांगा था कि जैसे प्रभु वियोग में मणि वाला सर्प मणि गंवा देने पर अपने प्राण छोड़ देता है, मछली जल बिना अपने प्राण छोड़ देती है वैसे ही प्रभु वियोग में उनके प्राण चले जाए । महाराज श्री मनुजी ही बाद में राजा श्री दशरथजी बनकर आए और श्री श्रवण कुमारजी के माता-पिता का श्राप तो मात्र माध्यम बना पर महाराज श्री मनुजी ने स्वयं ही मांगा था कि प्रभु वियोग में उनके प्राण निकल जाएं और राजा श्री दशरथजी के प्राण प्रभु वियोग में निकल गए । |
387. |
हममें इतनी श्रद्धा होनी चाहिए कि जो भी श्रीग्रंथों में लिखा है उसे बिना तर्क मान सकें । |
388. |
प्रेम तो सिर्फ प्रभु से ही करना चाहिए । |
389. |
गृहस्थ में भी रहकर भक्त भक्ति में कामयाब हुए हैं । |
390. |
हमारा शरीर प्रभु की सेवा के लिए ही कार्यरत होना चाहिए । |
391. |
प्रभु से प्रेम करना चाहते हैं तो भक्ति ही उसके लिए एकमात्र मार्ग है । |
392. |
सगुण साकार प्रभु और भक्ति यह दोनों सिर्फ सनातन धर्म में ही संभव है । |
393. |
सभी धर्मों में अंततोगत्वा प्रभु की ही चर्चा है । |
394. |
सगुण साकार प्रभु जो परमानंद का सुख देते हैं वह निराकार प्रभु में कम अनुभव होता है । |
395. |
भक्ति रस के आगे कुछ भी नहीं है । ब्रह्मानंद से भी कोटि-कोटि ज्यादा भक्ति रस की महिमा है । भक्ति रस की बराबरी किसी भी प्रकार से नहीं की जा सकती । |
396. |
राजा श्री जनकजी ज्ञानी थे और निराकार प्रभु को मानते थे पर वे प्रभु श्री रामजी के सगुण साकार रूप को देखकर प्रेममग्न हो गए और मंत्रमुग्ध हो गए । उनका ज्ञान छूट गया, निराकार उपासना छूट गई और सगुण साकार में वे मग्न हो गए । यह दृष्टांत बताता है कि निराकार से ज्यादा सुख सगुण साकार में है । |
397. |
निराकार से भी कहीं आगे सगुण साकार प्रभु हैं । |
398. |
श्री वेदजी निराकार ब्रह्म का स्वरूप बताकर नेति-नेति कहकर शांत हो जाते हैं यानी श्री वेदजी कहते हैं कि निराकार से भी आगे जो सगुण साकार ब्रह्म है उसकी व्याख्या करने में हम श्री वेदजी भी असक्षम हैं । |
399. |
राजा श्री जनकजी के मन ने निराकार रूप को त्याग दिया, ज्ञानी होते हुए भी त्याग दिया और सगुण साकार के सगुण रूप में आकर्षित हो गए । वे ज्ञानी निराकार से भक्त साकार बन गए । |
400. |
जिस दिन जीवन में प्रभु के सगुण साकार रूप के दर्शन हो जाएंगे तब कोई भी ज्ञानी नहीं रहना चाहेगा, सभी भक्त बन जाएंगे । |
401. |
प्रभु श्री शुकदेवजी भी पहले ज्ञानी थे फिर ज्ञान का परित्याग करके भक्त बन गए । श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दो श्लोक सुनकर वे निराकार से सगुण साकार प्रभु की तरफ आकर्षित हो गए । |
402. |
भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है । |
403. |
किसी भी धर्म और पंथ के संत का तिरस्कार नहीं करें नहीं तो प्रभु रूठ जाते हैं । प्रभु संतों का अपराध नहीं सहते । |
404. |
मुक्ति बहुतों को मिल जाती है पर भक्ति बहुत कम लोगों को ही मिल पाती है । |
405. |
प्रभु अपने भक्तों के पीछे-पीछे घूमते हैं, भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है । |
406. |
प्रभु को सिर्फ अपने भक्तों के प्रेम की भूख होती है । |
407. |
एक-एक गोपी के प्रेम में बह गए करोड़ों कबीर । संत श्री कबीरदासजी कहते हैं कि श्री गोपीभाव इतना ऊँचा है कि करोड़ों कबीर भी उनकी बराबरी नहीं कर सकते । |
408. |
श्रीगोपीजन केवल प्रभु के लिए ही व्याकुल रहती थीं । |
409. |
प्रभु प्रेम में सबसे आगे श्रीगोपीजन ही हैं । |
410. |
सभी श्रीगोपीजन पहले के ऋषि-मुनि थे जो प्रभु के साथ प्रेम लीला करने के लिए श्रीगोपीजन बनकर आए । |
411. |
हमें सीताजी के श्रीराम, उमाजी के श्रीशंकर और राधाजी के श्रीकृष्ण से प्रेम करना चाहिए । माता ऐसा करने से पिता की भक्ति दिला देती है । |
412. |
जब तक हृदय में भक्ति नहीं होगी तब तक हम सगुण साकार प्रभु की श्रीलीला को समझ ही नहीं पाएंगे । |
413. |
चाहे कोटि-कोटि उपाय कर लें पर प्रभु भक्ति और प्रेम के बिना नहीं मिलते । |
414. |
प्रेम करने के लिए प्रभु का सगुण साकार रूप ही अपनाना पड़ता है तभी प्रभु हमारे पिता, पति, भाई, मित्र बनकर हमसे प्रेम करते हैं । |
415. |
प्रभु सिर्फ भाव के भूखे हैं । प्रभु को सिर्फ प्रेम की भूख लगती है । |
416. |
प्रभु को भगवती विदुरानीजी के केले के छिलके में प्रेम दिखा इसलिए उन्होंने उसे ग्रहण किया । |
417. |
प्रभु केवल अपने भक्तों के प्रेम और भाव के वश में होते हैं । |
418. |
प्रभु अपने भक्तों के लिए यहाँ तक कहते हैं कि भगवती शबरीजी और श्री सुदामाजी का नाम लेकर भी मुझे जो भोग लगाएगा तो भाव नहीं होने पर भी सिर्फ भगवती शबरीजी और श्री सुदामाजी का नाम लेने के कारण मैं उसे स्वीकार करूंगा । भक्तों को इतना मान प्रभु देते हैं । |
419. |
भगवती मीराबाई ने अपने सांसारिक पति की मृत्यु के बाद भी खुद पर नारी का जो श्रृंगार था वह नहीं उतारा क्योंकि वे स्वयं को प्रभु की प्रिया और पत्नी मानती थीं । |
420. |
प्रभु को हम जैसे मानेंगे प्रभु हमारे लिए वैसे ही बन जाएंगे । |
421. |
प्रभु और भक्त के नाते अनेक होते हैं । जो भी मान लीजिए प्रभु उसी नाते को स्वीकार कर लेते हैं । |
422. |
एक सिद्धांत है कि जीवन में जो सह गए वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में रह गए और जो कह गए वे माया में बह गए । |
423. |
प्रभु कहते हैं कि तुम किसी का कुछ मत बिगाड़ना तब मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने दूँगा । |
424. |
प्रभु कहते हैं कि तुम किसी के अपराध को क्षमा करो तो मैं तुम्हारे पापों को क्षमा कर दूँगा । |
425. |
भक्तों का धर्म है सहना यानी सहन करना । |
426. |
अगर हम भक्तमाल पढ़ते हैं तो उसमें हम पाएंगे कि सभी भक्तों ने सहा है और कभी भी विरोध नहीं किया है । |
427. |
जितनी भी शिक्षा और दीक्षा है उसके मूल में प्रभु ही हैं । अनादि काल में शिक्षा और दीक्षा प्रभु से ही आरंभ हुई है । |
428. |
प्रभु अपने भक्तों के भाग्य में सत्संग लिख देते हैं । यह प्रभु की असीम कृपा उन भक्तों पर होती है । |
429. |
भक्तों की पूरी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं । |
430. |
प्रभु की कथा प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति बढ़ाती है । |
431. |
भक्त किसी की भी निंदा या स्तुति नहीं करते । |
432. |
भक्त स्तुति सिर्फ और सिर्फ प्रभु की ही करते हैं । |
433. |
भक्त निर्भय और निडर होते हैं, किसी भी परिस्थिति से डरते नहीं क्योंकि उन्हें पता होता है कि प्रभु सदैव उनके साथ रहते हैं । |
434. |
मानव तन प्रभु कृपा के कारण, सत्संग प्रभु कृपा के कारण और भक्ति भी प्रभु कृपा के कारण ही हमें मिली हुई होती है । |
435. |
श्रीग्रंथों के परायण को सुनकर हमारे जन्मों-जन्मों की व्यथा मिट जाती है । |
436. |
भक्त अपनी भक्ति के कारण प्रभु में ही मग्न रहते हैं । |
437. |
पहले अपने घर को मंदिर बनाना चाहिए, फिर अपने मन को ही मंदिर बनाना चाहिए । |
438. |
प्रभु के अलावा जिसको कुछ भी अन्य दिखाई नहीं देता वही प्रभु का अनन्य भक्त होता है । ऐसे अनन्य भक्त संसार में अति दुर्लभ होते हैं । |
439. |
संसार के सभी जीवों को प्रभु का मानकर, बिना किसी से द्वेष रखे हमें संसार से व्यवहार करना चाहिए । यह भक्ति का सिद्धांत है । |
440. |
सनातन धर्म का यह सिद्धांत है कि दूसरे धर्म की निंदा के समान कोई पाप नहीं है । |
441. |
धर्म हमको सदैव सबसे प्रेम करना सिखाता है, कभी भी धर्म किसी से ईर्ष्या करना नहीं सिखाता । |
442. |
कलियुग में सबसे जल्दी प्रभु हमारी आराधना पर रीझ जाते हैं । |
443. |
संसार दुःखालय है इसलिए संसार में दुःख सदैव रहने वाला है । |
444. |
प्रभु की शरणागति लेने पर हम कलियुग के दोषों से बच सकते हैं । |
445. |
जो प्रभु के बन जाते हैं कलियुग उनका कुछ नहीं बिगाड़ता । |
446. |
जिन भक्तों के मन में भक्ति का दृढ़ निश्चय हो जाता है कलियुग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । जो संसारी भक्ति में कच्चे होते हैं कलियुग उन्हें ही नचाता है । |
447. |
हमारा पल-पल का समय प्रभु के लिए ही खर्च होना चाहिए । |
448. |
संतों और भक्तों का एक-एक क्षण प्रभु चिंतन और प्रभु नाम लेने में जाता है । |
449. |
जैसे संसारी लोग एक समय दो कार्य कर लेते हैं, एक माता रसोई करते-करते टीवी भी देखती है उसका एक ध्यान टीवी पर होता है दूसरा ध्यान रसोई के चूल्हे पर होता है, ठीक उसी तरह संत संसार का काम एक तरफ करते हैं और दूसरी तरफ वे प्रभु को निरंतर भजते रहते हैं । |
450. |
संत श्री तुलसीदल साथ रखते हैं । जल भी प्रभु को अर्पण करके श्री तुलसीदल उसमें छोड़कर ही पीते हैं । भगवती तुलसी माता की इतनी बड़ी महिमा है । |
451. |
अच्छे–अच्छे सिद्ध महापुरुषों से भी कलियुग गलती करवा देता है क्योंकि कलियुग इतना प्रबल जो है । पर जो प्रभु की शरणागति लेते हैं वे ही कलियुग से बच पाते हैं । |
452. |
पापी गोबर की तरह गिरते हैं और गिरकर नीचे ही चिपक जाते हैं । पर संत लोग अगर गिरते भी हैं तो इस तरह गिरते हैं जैसे गेंद गिरती है यानी गिरकर फिर उछल कर ऊपर आ जाते हैं । |
453. |
जैसे ही हमारी प्रभु के प्रति श्रद्धा डाँवाडोल होती है कलियुग हमसे गलत कार्य करवा देता है । |
454. |
श्रीलीला करते हुए भगवती सीता माता ने श्री लक्ष्मणजी को कटु वचन कहकर प्रभु के पास मारीच के प्रसंग में भेजा । भगवती सती माता ने प्रभु श्री महादेवजी की बात नहीं मानकर प्रभु श्री रामजी की परीक्षा ली । भगवती माताएं श्रीलीला करके यह बताना चाहती हैं कि कभी भी प्रभु के लिए मन में तनिक भी अविश्वास और अश्रद्धा का भाव नहीं होना चाहिए नहीं तो वह हमसे बहुत बड़ी गलती करवा देगा । |
455. |
प्रभु की कथा सुनकर हम प्रभु की तरफ आकर्षित होते हैं । |
456. |
प्रभु श्री रामजी की भक्ति के खजाने की चाबी प्रभु श्री महादेवजी और प्रभु श्री हनुमानजी के पास है । |
457. |
प्रभु श्री महादेवजी से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें प्रभु श्री रामजी की भक्ति दें । ऐसा वरदान मांगना प्रभु श्री महादेवजी को अति प्रसन्न कर देता है । |
458. |
कलियुग हमारी बुद्धि को ही भ्रमित कर देता है । प्रभु शरणागति से ही हम बुद्धि भ्रम से बच सकते हैं । |
459. |
हमें प्रभु की भक्ति, प्रभु में श्रद्धा, प्रभु में विश्वास और प्रभु में आस्था में कभी भी कमी नहीं आने देनी चाहिए । |
460. |
संत कहते हैं कि जो देह प्रभु काम नहीं आए वह देह त्याग योग्य है । |
461. |
प्रभु को केवल भक्ति प्रिय है । प्रभु सिर्फ जीव की भक्ति देखते हैं । |
462. |
संसारी जगत से ठोकर खाकर प्रभु शरण में आते हैं । पर भक्त बिना संसार से ठोकर खाए ही आरंभ से ही प्रभु शरण में आ जाते हैं । |
463. |
सबसे ठुकराए हुए को भी प्रभु अपनाते हैं । |
464. |
प्रभु शरण में चले जाने के बाद जीवन में कोई भी भय नहीं रह जाता । |
465. |
चारों पुरुषार्थ प्रभु की शरण में आने पर ही मिलते हैं । |
466. |
प्रभु के श्री कमलचरणारविंद ही हमारे जीवन के आधार होने चाहिए । |
467. |
हमें प्रभु से कोई भी लौकिक अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए । |
468. |
प्रभु के दर्शन के बाद जीवन में कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाता । |
469. |
प्रभु की कृपा जिस पर होती है फिर संसार उसके अनुकूल हो जाता है । |
470. |
एक प्रभु के प्रसन्न होने पर संसार हमसे स्वतः ही प्रसन्न हो जाता है । |
471. |
प्रभु किसी को अपने से दूर नहीं करते, किसी को भी नहीं बिसारते । |
472. |
संतों का मानना है कि प्रभु श्री हनुमानजी किसी भी भक्त का संदेश प्रभु श्री रामजी को ऐसे समय सुनाते हैं कि कृपानिधान प्रभु उस भक्त पर कृपा करने पर बाध्य हो जाते हैं । |
473. |
प्रभु की प्रशंसा और गुणगान करने का नाम ही प्रभु कथा है । |
474. |
भक्तों को कभी भी नकारात्मक चिंतन में या अमंगल के संदेह में नहीं रहना चाहिए । |
475. |
भक्तों को कभी नहीं मानना चाहिए कि यह होगा या नहीं होगा । उन्हें प्रभु पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि जो उनके हित में है वही प्रभु कृपा से होकर रहेगा । |
476. |
प्रभु जो भी कर रहे हैं वह हमारे हित में ही कर रहे हैं, यह विश्वास जीवन में पक्का रखना चाहिए । |
477. |
भक्ति में संदेह का कोई भी स्थान नहीं होता है । |
478. |
हमें प्रभु के ऐश्वर्य का स्मरण निरंतर होते रहना चाहिए । |
479. |
प्रभु की सेवा करने पर प्रभु हमारे सिर पर स्वयं ही अपना श्रीहाथ रख देते हैं । |
480. |
प्रभु से अपेक्षा रहित होकर यानी प्रभु से कुछ भी चाहत नहीं रखते हुए प्रेम करना चाहिए । |
481. |
भगवती माता से यह आशीर्वाद लेना चाहिए कि प्रभु हम पर कृपा करें । ऐसा ही आशीर्वाद लंका में भगवती जानकी माता से प्रभु श्री हनुमानजी ने लिया था । |
482. |
हमें प्रभु को अपनी आँखों के माध्यम से हृदय में उतारना चाहिए । |
483. |
भगवती माता को जब भी हम पुकारते हैं तो करुणामयी माता के हृदय से हमारे लिए सदैव आशीर्वाद निकलता है । |
484. |
शास्त्र कहते हैं कि विनोद में भी हमें मिथ्या नहीं बोलना चाहिए । |
485. |
शास्त्र कहते हैं कि गलत कर्म होने पर हमारे निर्णय भी गलत होते चले जाते हैं । इसलिए गलत कर्मों से जीवन में सदैव बचना चाहिए । |
486. |
सत्पथ में प्रवेश करने पर रोशनी मिलती चली जाएगी । कुपथ में प्रवेश करने पर अंधेरा मिलता चला जाएगा । |
487. |
भक्तों को अपने भक्ति भाव में सदा स्थिर रहना चाहिए । |
488. |
भगवती माता से विनती करनी चाहिए कि प्रभु से हम पर कृपा करने की दया करवा दें । |
489. |
हमें ऐसा पुत्र बनना चाहिए कि परमपिता हमें अपने गले से लगा लें । |
490. |
मन, वाणी और कर्म से जो प्रभु का है उस पर विपत्ति का प्रभाव कभी आ ही नहीं सकता । |
491. |
जिन प्रभु श्री रामजी का सब उपकार मानते हैं, वे प्रभु कहते हैं कि मैं प्रभु श्री हनुमानजी के उपकार से उऋण नहीं हो सकता । |
492. |
कुछ भी करो पर कहो और मानो यही कि मेरे श्रीराम की कृपा से सब कुछ हो रहा है । सब कुछ करते हैं राघव पर मेरा नाम हो रहा है । |
493. |
प्रभु परम दयावान और कृपावान हैं । |
494. |
प्रभु इतने करुणावान हैं कि जब ऋषि श्री विश्वामित्रजी ने प्रभु को दिव्यास्त्र समर्पित किए तो प्रभु ने कहा कि इनको चलाने की विद्या तो आपने बता दी पर इन्हें वापस लेने की विद्या भी सिखाएं क्योंकि यदि किसी असुर पर मैं अस्त्र छोड़ता हूँ और वह मेरी शरण में आ जाए तो उसकी रक्षा करने के लिए मुझे अस्त्र वापस लेने की विद्या भी आनी चाहिए । |
495. |
संतों का ऐसा मानना है कि अगर हम प्रभु की भक्ति नहीं करते तो हमारी आत्मा हमें धिक्कारती है । |
496. |
जब भगवती माता प्रभु के साथ होती है तो प्रभु की कृपा, दया, सुंदरता और भी बढ़ जाती है । इसलिए सदैव युगल छवि के दर्शन करने की अभिलाषा मन में होनी चाहिए । |
497. |
मनुष्य प्रभु द्वारा स्थापित आदर्श की पालना करें इसलिए प्रभु ने श्रीरामावतार में ब्रह्म के रूप में नहीं अपितु मनुष्य के रूप में स्वयं को स्थापित किया । |
498. |
दुनिया के लोग प्रभु को खोजने जाते हैं पर भगवती शबरीजी को खोजने प्रभु स्वयं चले आते हैं । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है । |
499. |
सदैव वही होता है जो प्रभु चाहते हैं । |
500. |
जैसे श्री तुलसीदल के बिना प्रभु भोग नहीं स्वीकारते वैसे ही किसी भी श्री रामायणजी का श्रवण, चाहे वह ऋषि वाल्मीकिजी की श्री रामायणजी ही क्यों न हो, श्री तुलसीदासजी की श्री रामचरितमानसजी की चौपाई के बिना अपूर्ण है, ऐसा संत मानते हैं । |
501. |
प्रभु श्री रामजी ने अपने मर्यादा अवतार में सबको आदर्शपूर्ण जीवन जीकर दिखाया । उन्होंने दिखाया कि एक पुत्र कैसा हो, एक शिष्य कैसा हो, एक पति कैसा हो, एक मित्र कैसा हो, एक भाई कैसा हो और एक शत्रु भी कैसा हो । यह सब प्रभु ने जीवंत करके दिखाया । |
502. |
श्री रामचरितमानसजी के उत्तरकांड में गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने कलियुग के सभी प्रश्नों के उत्तर रख दिए । |
503. |
श्री रामायणजी कल्पवृक्ष है । बालकांड इस कल्पवृक्ष की जड़, अयोध्याकांड इसका तना, अरण्यकांड इसकी शाखा, किष्किंधाकांड इसके पत्ते, सुंदरकांड इसके फूल, लंकाकांड इसके फल और उत्तरकांड इसके फलों का रस है । |
504. |
एक बार पूरे मन से और पूरे भाव से श्री रामायणजी को सुन लेने से हमारा जीवन ही बदल जाता है । |
505. |
श्रीराम कथा सुनने और पढ़ने के लिए मन की पवित्रता अनिवार्य है । |
506. |
प्रभु के अनन्य सेवक प्रभु श्री हनुमानजी के श्रीकमलचरणों में ध्यान लगाना चाहिए तभी श्री रामायणजी में प्रवेश मिल सकता है । |
507. |
जो भक्ति मार्ग में चलकर रुकता है तो उसे बाधा आती है पर जो बिना रुके हुए चलते रहता है उस पर कोई बाधा नहीं आती । |
508. |
मन को प्रभु श्री रामजी में लगा लेने से संसार के दुःख-सुख हमें अनुभव नहीं होंगे क्योंकि प्रभु में मन लगा होने के कारण फिर जीव सदा आनंदित ही रहेगा । |
509. |
हमें प्रभु प्रेम में रोना चाहिए क्योंकि यह आनंद के आंसू होते हैं । |
510. |
संसारी अपनी कामना पूर्ति के लिए रोते हैं पर संत और भक्त प्रभु के लिए रोते हैं । |
511. |
जिनकी सत्ता निरंतर बनी रहती है, जो सदा स्थिर रहते हैं वही सत्य स्वरूप प्रभु हैं । |
512. |
जो सबमें व्याप्त हैं, सबमें वास करते हैं वही प्रभु हैं । |
513. |
जो सदा आनंद स्वरूप में विराजमान रहते हैं वही आनंदस्वरूप प्रभु हैं । |
514. |
सब कुछ करने वाले प्रभु हैं हम तो निमित्त मात्र होते हैं । इसलिए जीवन में यही मानना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा है वह मेरे प्रभु ही कर रहे हैं । |
515. |
कोई भी जीव प्रभु के समक्ष भक्तिभाव से आ जाए तो उसके कोटि-कोटि जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । |
516. |
प्रभु एक ही कृपा दृष्टि में हमारे सभी पापों का हरण कर लेते हैं । |
517. |
अगर जीव आगे पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा करे तो प्रभु उसे तत्काल पूर्व किए पापों से मुक्त कर देते हैं । |
518. |
बार-बार हमें प्रभु की शरण में आना चाहिए क्योंकि संसार में रहकर बार-बार हमारा मन पतित होता है । इसलिए बार-बार प्रभु की शरणागति की आवश्यकता है । |
519. |
प्रभु ही दुःख सहने की क्षमता जीव को देते हैं । |
520. |
दुःख सहने की क्षमता उसमें ही आती है जो प्रभु की भक्ति करता है । |
521. |
भक्त दुःख हाय-हाय करके नहीं बल्कि हरि-हरि कहकर सहते हैं । |
522. |
प्रभु के भक्तों ने कभी दुःख से भागने की कोशिश नहीं की बल्कि उस प्रतिकूल समय के आने पर अपने जीवन में प्रभु के भजन को बढ़ाया है । |
523. |
सनातन धर्म में युगल उपासना का विधान है । इसलिए श्रीसीतारामजी, श्रीराधेकृष्णजी एवं श्रीउमाशंकरजी की उपासना करनी चाहिए । |
524. |
प्रभु का भजन, पूजन, जप अगर हम याद रखते हैं और उसे गिनते हैं तो हम अहंकार के शिकार होते हैं । इसलिए अपने पुण्य को, तीर्थ और व्रत को याद रखने की जरूरत नहीं । |
525. |
जीवन में याद ही रखना है तो केवल प्रभु की कृपा और दया मात्र को याद रखना चाहिए । |
526. |
हमारा अध्यात्म सही दिशा में चल रहा है यह देखना हो तो इसके दो पैमाने संतों ने बताए हैं । पहला, जब हम हर तरफ प्रभु की कृपा देखने लग जाएं और दूसरा जब हम सभी में प्रभु को देखने लग जाएं तो ही समझना चाहिए कि हमारा अध्यात्म सही दिशा में चल रहा है । |
527. |
हम नंगे आए थे, मल मूत्र में लिपटे आए थे, न खाना आता था, न पढ़ना आता था, सब कुछ तो प्रभु का ही दिया हुआ है । इसलिए आज हम जो कुछ भी हैं वह प्रभु कृपा का ही फल है । |
528. |
बीमारी अगले जन्म में हमारे संग नहीं जाएगी, इस जन्म की बीमारी इसी जन्म तक ही रहेगी तब भी हम उसका इलाज करते हैं पर कैसी विडंबना है कि जो कर्म हमारे साथ अगले जन्म में जाने वाले हैं उनका इलाज हम नहीं करते । |
529. |
हमें सभी को प्रभु कथा की तरफ मोड़ना चाहिए । |
530. |
ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्री कृष्णजी ने ही कलियुग में श्रीमद् भागवतजी महापुराण का रूप धारण किया है । |
531. |
प्रभु के नाम और भगवत् चर्चा से ऊँचा कुछ भी नहीं है । |
532. |
उन्हें ही जीवन में रिझाना चाहिए जो हमारा लोक और परलोक दोनों सुधार सकते हैं और ऐसा करने वाले केवल और एकमात्र प्रभु ही हैं । |
533. |
देवतागण के पास अमृत है फिर भी उन्हें कथामृत की लालसा रहती है । इससे पता चलता है कि अमृत से भी बड़ा और श्रेष्ठ कथामृत है । |
534. |
प्रभु की कथा सुननी चाहिए तो पूरे ध्यान और लगन से सुननी चाहिए तभी सच्चा लाभ मिलता है । |
535. |
सच्चे मन से प्रभु की कथा सुनने से जीवन की कोई भी व्यथा नहीं बचती । |
536. |
समस्त शास्त्रों का सार श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । जैसे मन भर दूध से भी दीपक नहीं जलता पर उस दूध से निकाले दो बूंद घी से दीपक की बत्ती जल जाती है क्योंकि घी दूध का सार है । सार का महत्व सबसे ज्यादा होता है इसीलिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण का महत्व सबसे ज्यादा है । |
537. |
जीवन में मृत्यु का भय नहीं आए, यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण के परायण से होता है । |
538. |
मृत्यु से मुक्त होना जरूरी नहीं और यह संभव भी नहीं । पर मृत्यु के भय से मुक्त होना जरूरी है जो श्रीमद् भागवतजी महापुराण कराती है । |
539. |
प्रभु की कथा श्रवण करने से हमारा जीवन दिव्य होता चला जाता है । |
540. |
प्रभु के लिए जिसने भी अपने जीवन में कुछ किया उसका नाम सदा के लिए अमर हो गया । |
541. |
अमृत जीवन को दीर्घ करता है पर कथामृत जीवन को दिव्य करता है । |
542. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण की इच्छा होने मात्र से ही हमारे पाप कटने प्रारंभ हो जाते हैं । |
543. |
हमारे द्वारा धर्म का आचरण ही प्रभु को प्रसन्न करता है । |
544. |
तीर्थों में सदैव तप और त्याग पूर्वक रहना चाहिए । कभी भी भूलकर भी मौज-मस्ती और सैर सपाटा नहीं करना चाहिए । |
545. |
भजन ही जीवन में सुख का सच्चा स्त्रोत है । |
546. |
हमें मनुष्य देह प्रभु मिलन के लिए मिली है । |
547. |
हमने अपनी देह का व्यर्थ काम के लिए उपयोग किया और प्रभु नाम रूपी अमूल्य खजाना पाने का अवसर खो दिया । |
548. |
प्रभु हमारे दो हाथों की जगह हमें दो पंख दे देते यानी हमें नभचर बना देते या दो और पैर दे देते हैं यानी जानवर बना देते तो क्या होता । पर प्रभु ने कृपा करके हमें दो हाथ दिए यानी मनुष्य योनि में जन्म दिया और उस योनि में आकर हम प्रभु को ही भूल गए । |
549. |
मन में सदैव यह भरोसा रखना चाहिए कि हमारा पोषण प्रभु करेंगे । हमें निश्चिंत होकर सिर्फ प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । |
550. |
पूर्ण समर्पण किए बिना प्रभु नहीं मिलते । |
551. |
संत कहते हैं कि प्रभु के अवतार का प्रयोजन अपने भक्तजन से मिलना होता है । कुछ राक्षसों को मारने के लिए प्रभु को अवतार लेने की जरूरत नहीं होती क्योंकि वह तो प्रभु अपने धाम में बैठे-बैठे संकल्प मात्र से भी कर सकते हैं । |
552. |
प्रभु अपने भक्तों से मिलने पृथ्वी पर आते हैं और पृथ्वी पर आने पर राक्षसों की सफाई भी कर देते हैं । |
553. |
जीवन में भगवत् प्राप्ति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । |
554. |
गौ-माता घर में अगर हों तो चौबीस घंटे घर में स्वतः ही यज्ञ होता रहता है ऐसा मानना चाहिए । गौ-माता की इतनी बड़ी महिमा है । |
555. |
वही लोग सबसे ज्यादा दुःखी होते हैं जो हमारे ऋषियों की बनाई परंपराओं को अपने जीवन में बंद कर देते हैं । |
556. |
प्रभु ने कलियुग के अंत तक की व्यवस्था की हुई है । श्री कल्कि अवतार प्रभु ने पहले से ही तय कर रखा है । |
557. |
जीवन की एक-एक श्वास हमें प्रभु को न्यौछावर करनी चाहिए । |
558. |
एक भगवती गंगा प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली उसे हम भगवती गंगा माता कहते हैं । एक भगवती गंगा प्रभु के श्रीमुख से निकली उसे हम श्रीमद् भगवद् गीताजी कहते हैं । |
559. |
सबसे पहले श्रीमद् भागवतजी महापुराण को प्रभु ने अपने भक्तों के चरित्र के रूप में गाया । फिर वह प्रभु श्री ब्रह्माजी के पास पहुँची, फिर देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के पास पहुँची, फिर प्रभु श्री वेदव्यासजी के पास पहुँची जिन्होंने उसे लिपिबद्ध किया और फिर प्रभु श्री शुकदेवजी के पास पहुँची और फिर पूरे विश्व में फैल गई । |
560. |
जीवन में कभी भी प्रभु के बारे में कुतर्क नहीं करना चाहिए । प्रभु को कुतर्क का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए तभी हम जीवन में सुखी रह सकेंगे । |
561. |
श्री वेदजी प्रभु के श्रीमुख की वाणी हैं । |
562. |
धन और कामनाओं की पूर्ति में संतोष करना चाहिए और भजन करने में कभी भी संतोष नहीं करना चाहिए । आखिरी श्वास तक हमारा भजन चलते रहना चाहिए । भजन अधिक-से-अधिक करते रहने की इच्छा जीवन में होनी चाहिए । |
563. |
जीवन का सार ही भगवत् प्रेम है । |
564. |
प्रभु से जुड़े रहने पर हम पापों से बचते हैं । पाप से बचने से हम दुःख से बचते हैं । |
565. |
सच्चा प्रेम सिर्फ प्रभु से ही होना चाहिए क्योंकि वे शाश्वत हैं । संसार से कभी सच्चा प्रेम नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अनित्य है । |
566. |
संसार के रिश्ते सत्य नहीं हैं क्योंकि मृत्यु उन रिश्तों से हमारा वियोग करवा देती है । |
567. |
भक्त संसार के जीवों को प्रभु से प्रेम करना सिखाते हैं । |
568. |
भक्त प्रभु के पीछे लग जाते हैं तो यह अच्छी बात है । पर जब प्रेमवश प्रभु अपने भक्तों के पीछे हो जाते हैं तो वह सर्वोत्तम बात हो जाती है । |
569. |
हम श्वास-श्वास से प्रभु से प्रेम करने लग जाए तो प्रभु प्रेमवश हमारे पीछे हो जाते हैं । |
570. |
प्रभु से प्रेम करने में सबसे पहला नाम भगवती श्रीराधा माता का है । प्रभु की भक्ति करने में सबसे पहला नाम प्रभु श्री हनुमानजी का है । प्रभु की भक्ति का प्रचार करने में सबसे पहला नाम देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का है । |
571. |
प्रभु से प्रेम किए बिना कोई भी सत्कर्म किए जाने में कोई सार नहीं है । |
572. |
संत और भक्त कहते हैं कि सिर्फ प्रभु से ही सच्चा प्रेम करना चाहिए । |
573. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण प्रभु के प्रेमियों की कथा है । जिन्होंने प्रभु से प्रेम किया उनका प्रेम श्रवण करने पर हमें भी प्रभु से प्रेम करने की प्रेरणा मिलती है । |
574. |
भक्त अपनी भक्ति और प्रेम भाव के कारण प्रभु की श्रीलीलाओं में प्रवेश कर जाते हैं । |
575. |
संत प्रभु कथा को सरल और तरल करके संसार के जीवों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । |
576. |
सभी कथाओं का आरंभ प्रायः प्रभु श्री महादेवजी ही करते हैं क्योंकि वे कथा के सबसे बड़े प्रेमी हैं । इसलिए प्रायः सभी कथाओं का उद्गम स्थान श्री कैलाशजी ही होता है । |
577. |
संसार में अगर कहीं अमृत है तो वह प्रभु के कथामृत में ही है । |
578. |
मन, बुद्धि और चित्त को प्रभु में लीन करके ही प्रभु की कथा सुननी चाहिए । |
579. |
हमारा मन प्रभु कथा में रमना चाहिए । |
580. |
प्रभु की कथा हमारे जीवन की व्यथा का नाश करती है । |
581. |
पूर्व जन्मों के पुण्यों का पूर्ण उदय होने पर ही प्रभु की कथा हमें श्रवण करने को मिलती है । |
582. |
प्रभु की श्रीलीलाओं के प्रति हमारा पूर्ण समर्पण का भाव होना चाहिए । |
583. |
संसार में आते ही माया हमें नचाती है । प्रभु की कृपा ही हमें इस माया से छुड़ा सकती है । |
584. |
प्रभु की कथा के श्रवण के बाद अगर जीवन में हमारा भजन नहीं बढ़े तो मानना चाहिए कि कथा श्रवण सार्थक नहीं हुआ । |
585. |
जिसका जीवन में भजन सुंदर होता है वही जगत में सच्चा सुंदर होता है । |
586. |
सत्संग नहीं मिले तो संत और भक्त बहुत दुःखी हो जाते हैं । |
587. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण का आकर्षण ही है जो हमें इस श्रीग्रंथ तक खींच लाता है । |
588. |
गौ-माता के चरणों से उठने वाली धूलि हमें भयंकर रोगों से मुक्ति देती है । |
589. |
गौ-माता की कृपा से हम प्रभु श्री गोपालजी से मिल सकते हैं क्योंकि प्रभु श्री गोपालजी तक जाने का रास्ता गौ-माता ही जानती हैं । |
590. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में अपने भक्तों पर प्रभु की कृपा का वर्णन हमें सुनने को मिलता है । |
591. |
प्रभु के सौंदर्य का चिंतन हमें मुक्ति देता है । संसार के सौंदर्य का चिंतन हमें फंसाता है । |
592. |
संत मानते हैं कि प्रभु प्रेम का अवतार लेकर अपने भक्तों से मिलने के लिए आते हैं । |
593. |
जब हम संकट में फंस जाते हैं तो एकमात्र प्रभु ही हमारी नैया को पार लगाते हैं । |
594. |
जब जीवन में भयंकर आंधी चलती है और हमारी नैया भंवर में फंस जाती है तो प्रभु ही हाथ पकड़ के हमारा बेड़ा पार करते हैं । |
595. |
जैसे हम डॉक्टर को अपना रोग बताते हैं वैसे ही प्रभु को हमें अपने दोष निवेदन करने चाहिए । |
596. |
अपने पाप को प्रभु के सामने प्रकट करके उसका सच्चा प्रायश्चित करके पुनः उसे नहीं करने का प्रण लेने पर प्रभु प्रसन्न होते हैं । पाप को प्रभु से छुपाने से प्रभु प्रसन्न नहीं होते । |
597. |
कलियुग में नाम संकीर्तन से ही मुक्ति मिलती है । इसलिए प्रभु के नाम, रूप, श्रीलीला और धाम का कीर्तन करना चाहिए । |
598. |
बार-बार प्रभु का नाम जुबान से निकले वही श्रेष्ठ कीर्तन है । जीवन में बार-बार प्रभु नाम का संकीर्तन होते रहना चाहिए । |
599. |
जिन संतों और भक्तों ने प्रभु के नाम रस का कीर्तन किया उन्होंने पाया कि वह मीठा-ही-मीठा है, उससे मीठा और कुछ भी नहीं है । |
600. |
संतों और भक्तों का एकमत है कि प्रभु का नाम संकीर्तन ही कलियुग के लिए श्रेष्ठतम साधन है । |
601. |
कलियुग में प्रभु मिलन, प्रभु की कथा और प्रभु के कीर्तन बिना संभव नहीं है । |
602. |
पूरी भक्तमाल की कथा पढ़ लें, उसमें एक भी भक्त बिना प्रभु के बारे में श्रवण किए और बिना प्रभु के कीर्तन का सहारा लिए प्रभु से नहीं मिल पाया है । |
603. |
जीवन निर्वाह के लिए जितनी जरूरत है उतना समय संसार के व्यवहार को दें, बाकी पूरा समय प्रभु को देना चाहिए । |
604. |
जीवन निर्वाह थोड़ा-सा समय चाहता है पर हमारी कामना पूर्ति को भरपूर समय चाहिए होता है । इसलिए कामना पूर्ति की इच्छा को त्याग कर सिर्फ जीवन निर्वाह जितना समय संसार को देना चाहिए । |
605. |
कामना पूर्ति की लालसा लेकर प्रभु का भजन नहीं करना चाहिए । यह तो शर्त लगाकर भजन करने जैसा है । शर्त लगाकर प्रभु का भजन करना एकदम गलत होता है । |
606. |
जैसे एक माँ अपने एक वर्ष के बच्चे का ज्यादा ध्यान रखती है जो कुछ नहीं मांगता, वैसे ही प्रभु उस जीव पर ज्यादा ध्यान देते हैं जो उनसे कुछ नहीं मांगता । |
607. |
निष्काम होकर प्रभु का भजन करना चाहिए क्योंकि प्रभु हमसे बेहतर जानते हैं कि हमारी क्या जरूरत है । |
608. |
प्रत्येक कण में और प्रत्येक जन में प्रभु विराजते हैं । |
609. |
जैसे कुम्हार ने जो बनाया उसमें मिट्टी है, जैसे हलवाई ने जो मिठाई बनाई उसमें दूध है, जैसे सुनार ने जो आभूषण बनाया उसमें सोना है वैसे ही संसार के प्रत्येक कण में प्रभु हैं । |
610. |
प्रभु जो एक हैं वे ही अनेक रूप धारण करते हैं । इस तरह प्रभु एक से अनेक बन जाते हैं । |
611. |
सर्वत्र प्रभु की सत्ता को स्वीकार करना चाहिए । हर परिस्थिति में प्रभु को स्वीकार करना चाहिए । |
612. |
हमारा बुढ़ापा मोह, कामना और रोग से ग्रस्त होता है और उसमें भक्ति नहीं हो पाती । इसलिए जवानी से ही भक्ति करनी चाहिए तब जाकर बुढ़ापे में भी सिर्फ भक्ति हो पाएगी । |
613. |
प्रभु के नाम और प्रभु में कोई अंतर नहीं होता । |
614. |
प्रभु हमारी विनम्रता से रीझ जाते हैं । |
615. |
हमारे जीवन में प्रभु आ जाएं तो मानना चाहिए कि मनुष्य जीवन का हमारा सकल मनोरथ पूर्ण हो गया है । |
616. |
जीवन में प्रभु के आने के बाद जीवन के सभी काम स्वतः ही बनते चले जाते हैं । |
617. |
जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए कि जीवन में प्रभु को हम प्रकट कर पाएं । |
618. |
प्रभु का भजन जीवन में निरंतर होते रहना चाहिए, यह सबसे जरूरी है । |
619. |
हम सबकी शोभा केवल प्रभु से ही है । |
620. |
परिवार पालन को परम धर्म नहीं मानना चाहिए । भगवत् प्राप्ति को ही शास्त्रों ने परम धर्म माना है । |
621. |
हम संसार में आकर मोह, ममता और आसक्ति कमाते हैं पर हमें संसार में आकर केवल भक्ति की कमाई करनी चाहिए । |
622. |
जीव जब भी प्रभु के पास जाता है प्रभु उसका स्वागत करते हैं । |
623. |
सच्चे सद्गुरु वही होते हैं जो हमें प्रभु की शरणागति दिलवा दें । |
624. |
प्रभु श्री ब्रह्माजी ने सद्गुरु की उपमा दी है कि वह ज्ञान को पैदा करने वाला होना चाहिए । प्रभु श्री विष्णुजी ने सद्गुरु की उपमा दी है कि वह भक्ति का पोषण करने वाला होना चाहिए । प्रभु श्री शिवजी ने सद्गुरु की उपमा दी है कि वह अज्ञान, वासना और काम का नाश करने वाला होना चाहिए । इसलिए ही हम सद्गुरु को प्रभु श्री ब्रह्माजी, प्रभु श्री विष्णुजी और प्रभु श्री शिवजी के रूप में देखते हैं । सद्गुरु प्रभु श्री ब्रह्माजी, प्रभु श्री विष्णुजी और प्रभु श्री शिवजी की व्याख्या अनुसार होना चाहिए । |
625. |
जीवन में और जीवन के बाद केवल हमारा किया भजन ही हमारे काम आएगा । |
626. |
प्रभु जब मिलते हैं तो उससे पहले हमारे भीतर प्रभु से मिलने की इच्छा को प्रभु जागृत करते हैं । |
627. |
प्रभु की कथा के द्वारा प्रभु की महिमा और कीर्ति का श्रवण करना श्रवण भक्ति कहलाती है । इसलिए प्रभु कथा के श्रवण को श्रेष्ठतम साधन माना गया है । |
628. |
प्रभु की शरणागति हमें सदैव आनंद देने वाली होती है । |
629. |
साक्षात प्रभु की पत्नी भगवती रुक्मिणी माता और असुर योनी में जन्मे श्री विभीषणजी ने पहले प्रभु के बारे में श्रवण किया तभी दोनों में प्रभु के लिए प्रेम का उदय हुआ और उन्हें प्रभु की प्राप्ति हुई । |
630. |
प्रभु के बारे में श्रवण होने के बाद प्रभु के लिए प्रेम बढ़ता है जिसके कारण जीवन में प्रभु का भजन और कीर्तन भी बढ़ता चला जाता है । |
631. |
जीवन में सदैव प्रभु को याद रखना चाहिए । अपने घर में बैठे-बैठे ही प्रभु का स्मरण करें और प्रभु का ध्यान करें । ऐसा करते रहने पर हम प्रभु के बहुत निकट पहुँच जाते हैं । |
632. |
प्रभु के धाम जाना जितना जरूरी है उससे भी जरूरी प्रभु को निरंतर जीवन में याद करते रहना है क्योंकि ऐसा करने पर ही हम प्रभु के धाम पहुँच पाएंगे । |
633. |
प्रभु सुनते हैं पर हम प्रभु को पुकारना ही नहीं जानते । |
634. |
हर स्थिति में जीवन में प्रभु की याद बनी रहनी चाहिए । |
635. |
प्रभु की दया अगर जीवन में चाहते हैं तो प्रभु को जीवन में याद करें क्योंकि दया का उल्टा शब्द याद होता है । |
636. |
प्रभु का ध्यान कर उस ध्यान में प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करनी चाहिए । |
637. |
प्रभु का पूजन और प्रभु की वंदना करनी चाहिए । |
638. |
प्रभु मेरे मालिक हैं और मैं प्रभु का दास हूँ, यह भाव जीवन में निरंतर रखना चाहिए । |
639. |
कभी कर्त्ता का भाव जीवन में नहीं लाना चाहिए क्योंकि कर्त्ता को कर्मफल भोगना पड़ता है । इसलिए प्रभु को ही कर्त्ता बनाए रखना चाहिए तो हमें कर्मफल नहीं भोगना पड़ेगा । |
640. |
आत्मनिवेदन भक्ति को बहुत विलक्षण भक्ति माना गया है क्योंकि यहाँ पर खुद को ही प्रभु को समर्पित कर दिया जाता है । |
641. |
श्री अर्जुनजी का पक्ष महाभारत में कमजोर था पर उन्होंने अपना आत्मनिवेदन प्रभु को कर दिया इसलिए युद्ध जीत गए । उन्होंने श्रीभीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण जैसे योद्धाओं के आगे भी जीत हासिल की । |
642. |
वह प्रभु को प्रिय होता है जो दूसरों को भक्ति पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । |
643. |
प्रभु ने राजा बलिजी का सब कुछ ले लिया फिर भी उनका प्रभु पर से विश्वास एक क्षण के लिए भी कम नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने स्वयं को प्रभु को आत्मनिवेदन कर दिया था । |
644. |
प्रभु अपने भक्त का एहसान मानते हैं और ऐसा करने पर वह भक्त धन्य हो जाता है जैसे राजा श्री बलिजी धन्य हो गए थे । |
645. |
प्रभु की कृपा और दया की कथा जीवन में बार-बार सुननी चाहिए । |
646. |
भक्तों को हमेशा विनम्र बने रहना चाहिए क्योंकि विनम्रता प्रभु को बेहद प्रिय है । |
647. |
भक्त हमेशा स्वयं को प्रभु की चौखट का भिखारी समझते हैं । |
648. |
प्रभु के दर पर झाड़ू लगाना यह प्रभु की एक बहुत महत्वपूर्ण सेवा मानी गई है । राजा श्री अम्बरीषजी राजा होते हुए भी नित्य झाड़ू सेवा करते थे । |
649. |
अपने संपूर्ण शरीर को प्रभु सेवा में समर्पित कर देना चाहिए । |
650. |
स्नान के बाद पाठ-पूजा होनी चाहिए तभी उस स्नान का लाभ है । |
651. |
प्रभु कहते हैं कि मेरी सत्ता स्वतंत्र नहीं है । मैं भी अपने भक्तों के पराधीन हूँ । |
652. |
पत्नी, पुत्र, धन में कभी हमारी रुचि नहीं होनी चाहिए । रुचि सिर्फ प्रभु भक्ति में होनी चाहिए तभी हमारा मानव जीवन कल्याणकारी सिद्ध होगा । |
653. |
प्रभु भक्तों से इतना प्रेम करते हैं कि स्वयं को अपने भक्तों के पराधीन मानते हैं । |
654. |
भगवती राधा माता के श्रीचरणों का दास कहलाना प्रभु पसंद करते हैं । इतना प्रेम प्रभु अपने प्रेमी जनों से करते हैं । |
655. |
एक बार जीवन में प्रभु से कहे कि मैं सिर्फ आपका हूँ । एक बार प्रभु के पास आकर भक्त यह कह दें तो प्रभु उसे तत्काल अपना लेते हैं । |
656. |
प्रभु नाम के जप को संतों ने विजय मंत्र कहा है । |
657. |
भगवत् आराधना के बिना किसी काम में सफलता नहीं मिल सकती । |
658. |
श्रीलीला करते हुए प्रभु श्री रामजी पर जब मानव अवतार में विपत्ति आई तो प्रभु श्री हनुमानजी ने उन्हें विपत्ति से निकाला । इसलिए ही प्रभु श्री हनुमानजी को संकटमोचन कहा जाता है । |
659. |
प्रभु इतने कृपालु हैं कि वे पापी-से-पापी को भी अपनाना चाहते हैं । |
660. |
प्रभु का प्रेम प्रभु के भक्तों को कई रूपों में सदैव मिलता रहता है । |
661. |
प्रभु का हमारे भीतर वास है । बस हमें यह भावना मन में बनाकर रखनी है कि प्रभु हमारे भीतर विराजमान हैं । |
662. |
संत कहते हैं कि प्रभु को केवल पकड़ना आता है, छोड़ना नहीं आता । इसलिए प्रभु जीव को एक बार पकड़ लेते हैं तो फिर उसे छोड़ते नहीं । |
663. |
हमारी दृष्टि प्रभु पर केंद्रित होगी तो हम जीवन में कभी भी नहीं गिरेंगे । |
664. |
अगर हमारी दृष्टि प्रभु पर केंद्रित रहेगी तो प्रभु की माया हमें कभी प्रभावित नहीं करेगी । |
665. |
हमारे जीवन के लक्ष्य प्रभु ही होने चाहिए । |
666. |
जीवन में हमें प्रभु की अंगुली कभी नहीं छोड़नी चाहिए । |
667. |
जहाँ भी जाए प्रभु का नाम जपते हुए जाना चाहिए । प्रभु के नाम का साथ जीवन में कभी नहीं छूटे । |
668. |
पूतना के प्राणों का भोग प्रभु ने लगा लिया इसलिए वह पवित्र होकर सीधी श्रीबैकुंठ धाम पहुँच गई । |
669. |
प्रभु को जिस वस्तु का भोग लग जाए वह पवित्र हो जाती है क्योंकि वह प्रभु की प्रसादी बन जाती है । |
670. |
जीवन में सुखी रहना चाहते हैं तो जीवन में सदैव प्रभु का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए । प्रभु का प्रसाद पाते-पाते चित्त शुद्ध हो जाता है । |
671. |
प्रभु से बड़ा दयालु और कृपालु कौन हो सकता है जो पूतना जैसी जहर देने वाली राक्षसी को भी मोक्ष दे देते हैं । |
672. |
हमारा मन राक्षस तब बनता है जब हम संसार के विषय रस को ऊपर और प्रभु को नीचे रखते हैं । |
673. |
हम प्रभु को सबसे बाद में याद करते हैं और सबसे कम समय देते हैं । यह हमारी बहुत बड़ी गलती है । |
674. |
जीवन में प्रभु ही हमारी प्राथमिकता होने चाहिए । |
675. |
श्रीबृज की श्रीगोपीजन का सबसे पहला काम सुबह-सुबह प्रभु के दर्शन करना होता था । |
676. |
श्रीगोपीजन ने प्रथम दिवस के प्रथम दर्शन से ही प्रभु को अपना सब कुछ मान लिया था । |
677. |
श्रीगोपीजन अपनी आँखें बंद करके अपने घर से नंदभवन जाती थीं जिससे कि उनको प्रथम दर्शन प्रभु का ही हो । |
678. |
प्रभु इतने कृपालु हैं कि श्री रामावतार में प्रभु के जन्मोत्सव के समय एक महीने का एक दिन हुआ और प्रभु श्री सूर्यनारायणजी ने प्रभु का एक महीने तक दर्शन किया । |
679. |
प्रभु इतने कृपालु हैं कि प्रभु ने कृपा करते हुए श्री चंद्रदेवजी को श्री कृष्णावतार में चार महीने के लिए दर्शन दिए और जन्मोत्सव की रात्रि चार महीने की हो गई । |
680. |
चार महीने बाद जब प्रभु को पहली बार भगवती यशोदा माता धूप में ले गईं और प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के दर्शन करवाए तो पहले स्वयं आकर परखा कि कहीं धूप तेज तो नहीं है । ताप मिटाने वाले प्रभु को कहीं ताप तो नहीं लगेगा । इतना प्रेम भगवती यशोदा माता प्रभु से करती थीं । |
681. |
हमें जीवन में प्रभु को ही लाड़ लड़ाना चाहिए । प्रभु हमसे सिर्फ लाड़ चाहते हैं । |
682. |
जो प्रभु की बात नहीं मानते तो प्रभु उनके लिए भारी हो जाते हैं । |
683. |
हम विषयों की तरफ मुड़ेंगे तो प्रभु भारी दिखेंगे । हम सत्संग की तरफ मुड़ेंगे तो प्रभु हमें हमारे अनुकूल दिखेंगे । |
684. |
प्रभु जगत के नाथ हैं इसलिए उनका एक नाम जगन्नाथ पड़ा । |
685. |
प्रभु को भोग लगाने पर पूरी सृष्टि का भंडारा स्वतः ही हो जाता है । |
686. |
प्रभु को जो भोग लगता है वह महाप्रसाद कहलाता है । वही प्रसादी जब भक्त पाता है तो उसका कल्याण होता है । |
687. |
जीवन की जिस खुशी में हमने प्रभु को मिला लिया तो वह खुशी अक्षय हो जाती है यानी वह खुशी कभी खत्म नहीं होती । |
688. |
किसी भी कार्य में जब हम प्रभु को आगे ले आते हैं तो उस कार्य द्वारा हमारा मंगल-ही-मंगल निश्चित हो जाता है । |
689. |
भक्तों को प्रभु के दर्शन का ऐसा नशा लग जाता है कि प्रभु विग्रह से वे अपनी आँखों को हटाते ही नहीं । |
690. |
प्रभु श्री कृष्णजी अपने नाम के अनुसार सबको अपनी तरफ आकर्षित करते हैं । |
691. |
श्री गर्गाचार्यजी ने श्रीनंदबाबा से प्रभु के नामकरण के अवसर पर दक्षिणा नहीं ली । जो उन्होंने कहा वह बहुत मार्मिक है । उन्होंने कहा कि उनको सबसे बड़ी दक्षिणा मिल गई कि युगों-युगों को पवित्र करने वाले श्री कृष्ण नाम का सर्वप्रथम उच्चारण उनके मुँह से हुआ । |
692. |
भाव में स्थित होकर प्रभु के श्रीकमलचरणों से लिपटकर भक्त को जो आनंद मिलता है वह श्री बैकुंठजी में भी नहीं मिलेगा । |
693. |
महारास की कथा उसे ही समझ में आती है जिस पर भगवती राधा माता कृपा करती हैं । |
694. |
जिस जीव का माया का बंधन छूट जाए उस जीव का ही ब्रह्म मिलन होता है । |
695. |
क्रम यह है कि पहले प्रभु कृपा करके माया का हरण करेंगे फिर ब्रह्म मिलन होगा । |
696. |
अगर भक्त को प्रभु मिलन की प्यास है तो प्रभु भी उस भक्त से मिलने के लिए व्याकुल रहते हैं । |
697. |
प्रभु मिलन की लालसा जीवन में सदैव होनी चाहिए । |
698. |
प्रभु ने श्रीगोपीजन को महाभाग्यशाली कहा । कौन है महाभाग्यशाली, जो सब कुछ छोड़कर प्रभु की शरण में आ जाता है । |
699. |
प्रभु उन्हें ही मिलते हैं जो त्याग करते हैं । संचय और संग्रह करने वाले को प्रभु कभी नहीं मिलते । |
700. |
संतों और भक्तों को अपने जीवन का आदर्श बनाना चाहिए । उनका मार्गदर्शन लेकर भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए । |
701. |
जीवन में किए गए भजन का तेज हमारे चेहरे पर स्पष्ट चमकता है । |
702. |
जब बुलावा आएगा तो रुपया काम नहीं आएगा, प्रभु का किया हुआ भजन ही काम आएगा । |
703. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण मृत्यु को एक कल्याणकारी उत्सव बना देता है । |
704. |
जो शब्द हमें प्रभु की तरफ मोड़ दें वे शब्दब्रह्म होते हैं । |
705. |
विवाह के बाद ऐसा देखा गया है कि भजन कम हो जाता है क्योंकि जिम्मेदारी का पहाड़ उठाना पड़ता है । साधक को चाहिए कि वह अपना भजन कभी भी, किसी भी अवस्था में कम नहीं होने दे । |
706. |
भजन करने का श्रेष्ठ समय बचपन है । बचपन का भजन जीवन में बहुत काम आता है । जैसे श्री ध्रुवजी, श्री प्रह्लादजी और भगवती मीरा बाई के बालपन के भजन ने ही उन्हें प्रभु का साक्षात्कार करवाया और उनके जीवन को दिशा दी । |
707. |
आँखों को वह मत दिखाएं जो वह देखना चाहें । कोशिश यह करनी चाहिए कि हमारी आँखें वह देखें जो हम उसे दिखाना चाहते हैं । आँखों को सदैव प्रभु दर्शन करने में लगाना चाहिए । |
708. |
प्रभु कहते हैं कि मन को जीतना सबसे बड़ी उपलब्धि होती है । |
709. |
हमारी यह गलतफहमी होती है कि हम अपने परिवार को पालते हैं । पालने वाले तो सदा पालनहार प्रभु ही होते हैं । |
710. |
भक्तों के लिए मानव जीवन का उद्देश्य सदैव भगवत् प्राप्ति ही होता है । |
711. |
बच्चा माता के गर्भ में मल-मूत्र में पड़ा रहता है । मल-मूत्र के कीड़े उसे नोंचते रहते हैं । वह असीम वेदना में तड़पता है और वह प्रभु को वहाँ से निकालने के लिए पुकारता है और प्रभु कृपा करके संसार में उसे जन्म देते हैं । |
712. |
मूर्ख है वे जो चौरासी लाख योनियों बाद मानव जीवन रूपी अनमोल हीरा पाकर उसे व्यर्थ में दो पैसे कमाने और संग्रह करने में ही गंवा देते हैं । |
713. |
भजन नहीं करने पर जीवन में दर्द-ही-दर्द बना रहेगा । |
714. |
हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हमारे द्वारा धर्म आगे बढ़ना चाहिए । |
715. |
हम सच्चिदानंद स्वरूप प्रभु का त्याग कर झूठी दुनिया पर भरोसा करते हैं । |
716. |
भरोसा सिर्फ संसार बनाने वाले पर करना चाहिए । संसार का भरोसा नहीं करना चाहिए पर हमारा दुर्भाग्य है कि हम संसार का भरोसा करते हैं । |
717. |
हमें प्रभु को मनाने की कोशिश करनी चाहिए । दुनिया किसी से नहीं मानी, उसे मनाने की व्यर्थ कोशिश नहीं करनी चाहिए । |
718. |
शास्त्रों के उपदेशों को जीवन में उतारना चाहिए । |
719. |
प्रभु हमारे मन की सुंदरता को मानते हैं । हमारे तन की सुंदरता का प्रभु के पास कोई औचित्य नहीं है । |
720. |
जो प्रभु कथा का श्रवण करते रहते हैं उनका मन स्वतः ही सुंदर हो जाता है । |
721. |
जब दुनिया ठोकर मार दे तो मानना चाहिए कि प्रभु हमें अपनी तरफ बुला रहे हैं । प्रभु का बनने का अवसर मिल रहा है, यह मानना चाहिए । |
722. |
हमें अपनी संतानों का प्रभु से परिचय करवाना चाहिए । |
723. |
संसार का प्रेम थोड़े समय के लिए है । प्रभु का परमानंद से भरा प्रेम निरंतर जीव को मिलता रहता है । |
724. |
सांसारिक माता-पिता शायद हमारा वजन नहीं उठा पाए पर परमपिता प्रभु सदैव हमारी जिम्मेदारी उठाते हैं । |
725. |
अपमान करने वाले का भी जो सम्मान करे वह व्यक्ति प्रभु को प्रिय होता है । |
726. |
प्रभु का नाम लेते-लेते मृत्यु हुई तो उद्धार निश्चित है । |
727. |
प्रभु की कथा प्रभु से इतना प्रेम करा देती है कि हमारा कल्याण हो जाता है । |
728. |
हमारी आँखों को सुंदरता देखने की आदत है तो फिर आँखों को प्रभु पर टिका देना चाहिए जिनसे सुंदर पूरे ब्रह्मांड में और कोई नहीं है । |
729. |
जिन्हें प्रभु मिले वही भक्ति के कारण मालामाल हुए । जिन्हें सांसारिक धन मिला है वे अध्यात्म की दृष्टि से आखिर कंगाल ही रह गए । |
730. |
प्रभु से वह धन मत मांगें जिसको अंत में संसार में छोड़कर हमें जाना पड़ेगा । |
731. |
प्रभु से धन, मकान और संतान कभी नहीं मांगनी चाहिए । जब देने वाला इतना बड़ा और महान है तो उनसे सिर्फ भक्ति ही मांगनी चाहिए । |
732. |
जब हम प्रभु के बन जाएंगे तभी हमारा उद्धार संभव होगा । |
733. |
प्रभु द्वारा चलाया हुआ धर्म ही सनातन धर्म कहलाता है । |
734. |
प्रभु श्री महादेवजी श्रीरामकथा, श्रीमद् भागवतजी महापुराण एवं श्रीमद् भगवद् गीताजी के आदि वक्ता हैं । भगवती पार्वती माता, प्रभु श्री कार्तिकेयजी, प्रभु श्री गणेशजी, श्री नंदीजी एवं श्री शिवगण प्रभु श्री महादेवजी द्वारा कही कथा को श्री कैलाशजी पर सुनते हैं । |
735. |
हमारे मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा होनी चाहिए । |
736. |
संसार में जितनी भी शक्तियां हैं वह प्रभु के पास से ही आती हैं । |
737. |
प्रकृति सदैव प्रभु के इशारे पर ही काम करती है । |
738. |
अपनी वाणी से प्रभु का गायन करने से, अपनी लेखनी से प्रभु का वर्णन करने से वह वाणी और वह लेखनी धन्य होती है । |
739. |
प्रभु तो हमें नित्य प्राप्त हैं । प्रभु हमसे कभी दूर नहीं थे, कभी खोए हुए नहीं थे । यह सिर्फ समझने की जरूरत है । |
740. |
भारतीय संस्कृति में शास्त्र ही प्रमाण होते हैं । जो शास्त्रों में कहा गया है वही भारतीय संस्कृति में सही माना गया है । |
741. |
शास्त्रों की वाणी बिलकुल सत्य ही है ऐसा भरोसा करने का नाम ही श्रद्धा है । |
742. |
श्री वेदजी कल्पतरु है और उस कल्पतरु का पका हुआ फल श्रीमद् भागवतजी महापुराण है । |
743. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण एक श्रीग्रंथ नहीं अपितु साक्षात प्रभु ही हैं । |
744. |
फल में जो रस होता है वह वृक्ष में नहीं होता । इसी तरह श्रीमद् भागवतजी महापुराण में जो रस है वह श्री वेदजी में नहीं है । |
745. |
प्रभु श्री शुकदेवजी के श्रीमुख से आने के कारण श्रीमद् भागवतजी महापुराण अमृततुल्य हो गया क्योंकि शुक यानी तोता किसी फल पर चोंच मार देता है तो वह फल मीठा हो जाता है । |
746. |
आदिकाल से भक्तों ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण के अमृत रस को पिया है । |
747. |
श्रवण में कान से प्रभु के रस को पीना होता है । कीर्तन में जिह्वा से प्रभु के रस को पीना होता है और दर्शन में आँखों से प्रभु रस को पीना होता है । |
748. |
प्रभु रस पीते-पीते मुक्ति कब हो जाएगी यह पता भी नहीं चलेगा । मुक्ति स्वतः ही मिल जाती है । |
749. |
हमारे सभी श्रीग्रंथ और श्रीपुराणों का प्रारंभ आत्मकल्याण के प्रश्नों से ही हुआ है । |
750. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण को संतों ने आध्यात्मिक दीपक कहा है जो कि हमारे अंतःकरण को प्रकाशित करता है । |
751. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण एवं श्री रामचरितमानसजी की रचना प्रभु श्री वेदव्यासजी एवं गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने प्रसिद्धि के लिए नहीं की अपितु ऐसा उन्होंने अपने आत्मसुख के लिए किया । |
752. |
परमहंस महात्मा परोपकार के पचड़े में भी नहीं पड़ते । वे न तो आश्रम बनाते हैं, न विद्यालय बनाते हैं और न ही अस्पताल बनाते हैं क्योंकि यह उनका काम नहीं है । उनका कार्य जीवन में सिर्फ प्रभु प्राप्ति ही होता है । |
753. |
बड़े-बड़े विद्वान और महापुरुष भी प्रभु के बारे में ही सुनना पसंद करते हैं । |
754. |
जीवन का वही श्रेष्ठ समय है जब हम प्रभु की तरफ मुड़ जाएं । |
755. |
जब बुढ़ापे में आँखें कमजोर होती हैं तो यह प्रभु का संकेत होता है कि अब संसार को देखना बंद करो और अंतर्मुखी होकर मुझ प्रभु को देखो । |
756. |
भक्त पर जब मुसीबत आती है तो उस मुसीबत से उस भक्त को निकालने की जिम्मेदारी प्रभु ले लेते हैं । |
757. |
प्रभु का नाम जीवन में लेना जीवन के लिए बहुत कल्याणकारी होता है । |
758. |
जीवन में प्रेम करना है तो सिर्फ प्रभु से ही करना चाहिए । |
759. |
किसी की भी वाणी में इतना सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु के अति सुंदर स्वरूप का वर्णन कर सके । |
760. |
प्रभु को अपने भक्तों के लिए कुछ भी करना पड़े उसके लिए प्रभु सदैव तैयार रहते हैं और सदैव करते भी हैं । |
761. |
प्रभु से हाथ जोड़कर अपनी हर गलती के लिए रोजाना क्षमा मांगनी चाहिए । |
762. |
संसार को फल देने वाले श्री बालगोपाल अपनी श्रीलीला में फलवाली से फल लेते हैं और उसका उद्धार कर देते हैं । |
763. |
प्रभु को एक बार देखने के बाद उन पर से भक्तों की नजर हटती ही नहीं । |
764. |
प्रभु से जीवन में कोई भी रिश्ता बनाना चाहिए तभी हम प्रभु से निरंतर प्रेम कर पाएंगे । |
765. |
प्रभु को सिर्फ हमारे मन से लेना-देना होता है । इसलिए प्रभु चित्तचोर कहलाते हैं और हमारे मन को ही चुराते हैं । प्रभु को हमसे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए होता । |
766. |
हमारे पास जो सबसे सुंदर वस्तु है वही प्रभु को अर्पण करनी चाहिए । |
767. |
श्रीगोपीजन प्रभु से कहती हैं कि हमारे मन को चुरा लो जिससे यह मन अन्य कहीं भी, कभी भी नहीं भटके । |
768. |
प्रभु हर पल हर स्थान पर मौजूद हैं । |
769. |
जिसने प्रभु के साथ सत्य संबंध बनाया है उसे फिर संसार का कोई बंधन बांध नहीं सकता । |
770. |
प्रभु के साथ हमारी आत्मा का संबंध होना चाहिए । शरीर का संबंध यानी शरीर से प्रभु की सेवा करना छोटा संबंध होता है और आत्मा का संबंध सबसे बड़ा संबंध होता है । |
771. |
हमारा अहंकार प्रभु से मिलन में सबसे बड़ी बाधा है । |
772. |
भक्त यह मानता है कि वह खुद का भी नहीं होता, वह सिर्फ प्रभु का ही होता है । |
773. |
भक्त प्रभु से अपना रिश्ता निभाने के लिए अपना जीवन लगा देता है । |
774. |
प्रभु अपने भक्तों की हर सद्भावना को पूर्ण करते हैं । |
775. |
प्रभु की श्रीलीला में दोष दृष्टि रखना महापाप है । |
776. |
प्रभु की श्रीलीला को प्रभु की कृपा के बिना हम समझ नहीं सकते । |
777. |
प्रभु की भक्ति में काम, क्रोध, मद और लोभ अवरोध करते हैं । |
778. |
जितना हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी का संग करेंगे उतना-उतना हम प्रभु के करीब पहुँचते चले जाएंगे । |
779. |
प्रभु से मिलना है तो भक्ति के मार्ग पर चलना ही होगा । |
780. |
अभिमान करने पर यहाँ तक कि भक्ति का भी अभिमान करने पर प्रभु रूठ जाते हैं । |
781. |
जब अभिमान का अंकुर हमारे हृदय में उत्पन्न होता है, प्रभु हमें छोड़ कर चले जाते हैं । |
782. |
प्रभु हमें तब मिलते हैं जब प्रभु विरह की व्याकुलता हमारे भीतर उत्पन्न होती है । |
783. |
जो प्रभु कथा का तन्मयता से श्रवण करते हैं उनके कलियुग के पाप कट जाते हैं । |
784. |
प्रभु से प्रेम प्रभु की कथा श्रवण के द्वारा होता है । प्रभु की कथा ही प्रभु से हमारा प्रेम करवा देती है । |
785. |
प्रभु से सदैव निस्वार्थ प्रेम करना चाहिए । |
786. |
प्रभु की सेवा का धर्म कठिन पर बहुत मधुर होता है । |
787. |
हम प्रभु की सेवा कर रहे हैं ऐसा अभिमान हमें कतई नहीं होना चाहिए । |
788. |
भक्त अपने अस्तित्व को खत्म करके प्रभु के प्रेम में रम जाते हैं । |
789. |
जब हम अपने प्रभु के पास होते हैं तो प्रभु से कुछ निवेदन करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि प्रभु सब कुछ जानते हैं । इसलिए जीवन में कभी भी प्रभु से दूर नहीं होना चाहिए । |
790. |
हमारे बुरे कर्मों का फल कट जाता है, गल जाता है जब हम भगवत् सेवा करते हैं । |
791. |
जब हम प्रभु के निकट होते हैं तो कलियुग हमसे उतना ही दूर भाग जाता है क्योंकि जब हम प्रभु के सानिध्य में होते हैं, कलियुग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता । |
792. |
हमारा कितना प्रेम प्रभु से है यह हमें बार-बार मन में तोलकर देखना चाहिए । |
793. |
जैसी हमारी दृष्टि होती है हमें वैसे ही प्रभु के दर्शन होते हैं । |
794. |
प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करने से प्रभु का आशीष हमारे लिए कवच रूप धारण कर लेता है । |
795. |
भागवत का अर्थ है भगवान का हो जाना । |
796. |
जब भक्त प्रभु पर सब कुछ छोड़ देता है तो प्रभु उनकी रक्षा ऐसे करते हैं जैसे एक माँ अपने नवजात बच्चे की करती है । |
797. |
जो भोगों को छोड़कर भक्ति की तरफ मुड़ जाता है उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड़ पाता । |
798. |
अंत में केवल और केवल भक्ति ही जीव के काम आएगी । |
799. |
प्रभु के बिना जीव का कल्याण हो ही नहीं सकता । |
800. |
जीवन में कभी भी प्रभु के चिंतन के बिना नहीं रहना चाहिए । |