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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 13

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. प्रभु को पाने के लिए सभी भक्त रोते हैं तो भक्तों की याद में प्रभु भी रोते हैं । प्रभु ब्रह्ममुहूर्त में श्री मथुराजी के महल के छत पर जाकर श्री वृंदावनजी की तरफ देखकर श्रीगोपीजन को याद करके रोते थे । श्रीगोपीजन के प्रेम की कितनी बड़ी महिमा है ।
002. श्री उद्धवजी से प्रभु कहते हैं कि श्री मथुराजी में दास-दासियों द्वारा बनाई रसोई और व्यंजन इतने हैं पर फिर भी भगवती यशोदा मैया के हाथ से खाने वाले ग्रास के लिए प्रभु रोते हैं जिसे खिलाने से पहले मैया सौ बार प्रभु की मनुहार करती थीं कि प्रभु उसे खा लें ।
003. श्री उद्धवजी से प्रभु कहते हैं कि श्री मथुराजी में पलंग में रूई और मखमल के गद्दे और तकिए हैं पर प्रभु श्री नंदबाबा की उस गोद के लिए रोते हैं जब श्री नंदबाबा प्रभु को सुलाने के लिए भूमि पर बैठकर प्रभु को अपनी गोद में लेते थे ।
004. प्रभु के जीवन में सदैव प्रेम का अभाव रहता है इसलिए प्रभु को प्रेम करने वालों को प्रभु खोजते रहते हैं और मिलने पर उनके प्रेम का आस्वादन करके उनको अपनी पलकों पर बैठा लेते हैं ।
005. संत कहते हैं कि प्रभु केवल एक चीज के लिए अभावग्रस्त रहते हैं और वह चीज है प्रेम ।
006. प्रभु को प्रेम भाव की भूख लगती है और सदैव लगती रहती है ।
007. हमारी छोटी-सी चेष्टा से भी प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं । प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं ।
008. नित्य प्रभु के सानिध्य में रहने से प्रभु से संपर्क बढ़ता है और संपर्क बढ़ने से आत्मीयता बढ़ती है ।
009. भक्त का जो प्रेम भाव प्रभु को समर्पित होता है वह भाव अनंत होकर वापस भक्त के हृदय में आ बसता है ।
010. संसार के एक उदार व्यक्ति को आपने जो वस्तु दी है, उस उदार व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह उस वस्तु की और अधिक वृद्धि करके आपको वापस लौटाता है । प्रभु इतने उदार हैं कि भक्त जितना प्रेम प्रभु से करते हैं प्रभु उससे कई गुना अपने भक्तों पर अपना प्रेम न्यौछावर करके भक्तों का मान बढ़ाते हैं ।
011. बिना हमारे बोले भी प्रभु सब कुछ जानते हैं ।
012. श्री मथुराजी में सब लोग प्रभु की स्तुति करते थे पर फिर भी प्रभु कहते थे कि उन्हें वह सुख नहीं मिलता जो उन्हें श्री वृंदावनजी में श्रीगोपीजन के उलाहने सुनने में मिलता था । श्रीगोपीजन के उलाहने में भी बड़ा प्रेम भरा हुआ होता था इसलिए प्रेमभरा उलाहना भी श्री वेदजी द्वारा की गई स्तुति और जय-जयकार से अधिक प्रिय प्रभु को लगती थी ।
013. श्री उद्धवजी की प्रभु भक्ति ज्ञान से ढ़की हुई थी । श्रीगोपीजन की प्रभु भक्ति प्रेम से भीगी हुई थी । इसलिए प्रभु ने श्री उद्धवजी को श्रीगोपीजन के पास भेजा ।
014. भक्त के लिए सदैव प्रभु के हृदय में करुणा की लहरें उठती रहती हैं ।
015. यह सिद्धांत है कि जो प्रभु के निकट रहता है उस पर प्रभु की कृपा हो जाती है । इसलिए जीवन में सदैव प्रभु के निकट बने रहना चाहिए ।
016. हमें कितना छल, कपट, प्रतिकार, अपमान, पीड़ा, वेदना, कष्ट, क्लेश, संताप, दुःख, अभाव संसार से मिलता है पर फिर भी हम प्रभु के सन्मुख जाकर प्रभु को नहीं बल्कि संसार को ही मांगते हैं । यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
017. हमारे मन में छिपा कपट प्रभु को बड़ा अप्रिय लगता है ।
018. करुणासिंधु प्रभु की करुणा की लहर पाने का जीवन में सदैव प्रयास करना चाहिए ।
019. भक्ति हमारी दृष्टि संसार से हटाकर प्रभु में केंद्रित कर देती है ।
020. जिसके लिए हम संसार में अपना जीवन दांव पर लगा देते हैं प्रतिउत्तर में वहाँ से कुछ भी आने की संभावना नहीं होती फिर भी हम अपना जीवन व्यर्थ करते हैं । प्रभु के लिए जीवन दांव पर लगा दें तो प्रतिउत्तर में प्रभु अपने स्वयं को न्यौछावर कर देते हैं ।
021. हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम संसार में ही खोए चले जाते हैं ।
022. संसार करके हम अपने मनुष्य जीवन रूपी सुअवसर को गंवाते चले जाते हैं ।
023. माया ऐसी है कि हमें संसार में इतना उलझाए रखती है और मन को एक क्षण के लिए भी विचार करने की छूट नहीं मिलती और मन विचार ही नहीं कर पाता कि मनुष्य जीवन का सच्चा उद्देश्य क्या है ।
024. प्रेम का अभाव प्रभु को भी खटकता है इसलिए प्रभु प्रेमी भक्तों को खोजते रहते हैं ।
025. प्रभु के अतिरिक्त हमारे जीवन में कुछ भी नहीं होना चाहिए ।
026. प्रभु के प्रति आदर, श्रद्धा और प्रेम तीनों ही होना चाहिए ।
027. ज्ञान में भक्ति न हो यह संभव है पर भक्ति में ज्ञान न हो यह संभव नहीं है । ज्ञान और वैराग्य भगवती भक्ति माता के पुत्र हैं इसलिए जहाँ भक्ति होगी ज्ञान और वैराग्य स्वतः ही वहाँ होंगे । भक्ति होगी तो प्रभु का ज्ञान होगा ही और संसार से वैराग्य होगा ही ।
028. भक्ति ही वह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है जिसके भाव में स्थित हो जीव कृतार्थ होता है और तृप्त भी होता है ।
029. भक्ति को पाकर फिर कुछ भी पाने की कामना शेष नहीं रहती ।
030. कर्मयोगी तो बेचारा केवल परिश्रम ही करता है और वह अपने कर्म का केवल पारिश्रमिक ही पाता है । वह अपने कर्म का केवल फल पाता है पर उसे प्रभु की कृपा और प्रेम से वंचित रहना पड़ता है ।
031. कर्मयोगी से ज्ञानयोगी की स्थिति श्रेष्ठ है पर सबसे श्रेष्‍ठतम तो केवल और केवल भक्ति ही है ।
032. जिस हाथ से हम माला जपते हैं उसी हाथ में हम ताबीज पहनते हैं या उसी हाथ की अंगुली में किसी के द्वारा बताया रत्न जड़ित अंगूठी पहनते हैं तो इसका अर्थ होता है कि हमें अपनी माला पर भरोसा नहीं है और हमें हमारी माला द्वारा जपे प्रभु नाम के मंत्र पर पूर्ण आस्था नहीं है । ऐसी अवस्था में माला का पूर्ण लाभ नहीं मिलता । जो हाथ सच्चे मन से प्रभु की माला जपता है उसे कोई अन्य आलंबन की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि प्रभु नाम से बड़ा आलंबन कुछ है ही नहीं । ऐसा कोई काम नहीं है जो प्रभु नाम लेने से नहीं बने ।
033. प्रभु के श्रीकमलचरणों में आने के बाद हमारी भक्ति पुष्ट हो जाती है ।
034. प्रभु से आगाध प्रेम होना चाहिए यानी उस प्रेम की कोई सीमा न हो ।
035. भक्ति हमारे मन की चंचलता को खत्म कर देती है ।
036. प्रभु के अलावा जीवन में कोई और आश्रय कभी नहीं तलाशना चाहिए ।
037. जिस हाथ में श्रीहरि नाम की माला हो उसमें कुछ पहना हुआ हो तो वह हमें यह बताता है कि हमें श्रीहरि नाम में पूर्ण आस्था नहीं है ।
038. प्रभु के अलावा कोई दूसरा हमारे जीवन में होना ही नहीं चाहिए ।
039. भक्त सबमें और सब तरफ प्रभु को ही देखते हैं । प्रभु के अलावा संसार में दूसरा है ही नहीं तो फिर भय किससे । प्रभु के अलावा कोई दूसरा हो तो उससे हम भय करें । सूत्र यह है कि भक्त संसार में किसी से भी भय नहीं करता ।
040. संसार में प्रभु के अलावा दूसरा कोई नहीं इसलिए किसी से भी कपट नहीं करना चाहिए, किसी को भी कटु वचन नहीं कहना चाहिए, किसी से भी द्वेष नहीं करना चाहिए । अगर हम ऐसा किसी के साथ भी करते हैं तो मानो वह हम प्रभु के साथ ही कर रहे हैं ।
041. प्रभु के अतिरिक्त सच्चे भक्तों को संसार में कुछ भी प्रतीत नहीं होता, कुछ भी अनुभव नहीं होता ।
042. प्रभु का नाम जपने से हमारे भीतर हमारी क्षमताओं का विकास होता है ।
043. प्रभु अपने भक्तों के प्रेम का परित्याग कभी नहीं करते और कभी नहीं कर सकते । संत विनोद में कहते हैं कि यह प्रभु की क्षमता में नहीं है कि प्रभु अपने भक्तों के प्रेम का परित्याग करें ।
044. अगर प्रेम का अभाव है तो प्रभु के लिए की गई हमारी सेवा कोरा परिश्रम मात्र है ।
045. प्रभु को अपने भक्तों से सहज प्रेम होता है ।
046. भक्त को प्रभु से एकाकी प्रेम करना चाहिए ।
047. प्रभु हमारी भक्ति देखकर हम पर अकारण कृपा करते हैं ।
048. हमारे बिना बोले ही प्रभु सब कुछ जानते हैं ।
049. प्रभु की कृपा से ही हमें प्रभु का किंचित अनुभव जीवन में होता है ।
050. प्रभु की कृपा से ही हम प्रभु के स्वभाव का, प्रभु के सद्गुणों का किंचित परिचय पाते हैं ।
051. भक्त प्रभु को पाने के लिए जितना आतुर होता है प्रभु की आतुरता भक्तों को पाने के लिए उससे भी कई गुना अधिक होती है ।
052. भक्त के हृदय में प्रभु के लिए जो प्रेम का उल्लास होता है, प्रभु के हृदय में भी भक्तों के लिए उससे कहीं अधिक प्रेम का उल्लास होता है ।
053. प्रभु एक निर्मल दर्पण जैसे हैं । जैसे बिम्ब को हम दर्पण में देखते हैं तो वैसा ही प्रतिबिंब हमें दिखता है उसी तरह जो जिस भाव से प्रभु को भजता है प्रभु भी उसे वैसा ही प्रतिउत्तर देते हैं ।
054. हम जैसा भाव प्रभु को निवेदन करते हैं उसी भाव को प्रभु ग्रहण कर प्रतिउत्तर में उससे सुंदर भाव हमें लौटा देते हैं ।
055. भागवतरूपी कृपा की लहरें भक्तों को प्रेम में भिगो देती हैं जैसे समुद्र की लहरें तट पर खड़े जीव को भिगो देती हैं ।
056. सागर के तट पर उपलब्ध होने पर ही सागर की लहरें हमें स्पर्श करती हैं । वैसे ही प्रभु के निकट बने रहने पर प्रभु की कृपा लहर हमें स्पर्श करेगी ।
057. भक्ति परम सत्य प्रभु का अनुभव हमें करा देती है ।
058. भक्ति में एकमात्र नियम प्रभु से प्रेम करना ही होता है ।
059. प्रभु श्री रामजी का अवतरण ही संसार में मर्यादा की प्रतिष्ठा करने के लिए हुआ है ।
060. भगवती शबरीजी और भगवती विदुरानीजी के भाव से प्रभु का मन आज तक नहीं भरा । इसलिए आज भी वैष्णवजन जब प्रभु को भोग लगाते हैं तो मंत्र में भगवती शबरीजी और भगवती विदुरानीजी के भाव का ही निवेदन करते हैं ।
061. भक्तरूपी दास का कार्य है कि स्वामीरूपी प्रभु की सेवा में तत्पर और सदैव सावधान रहना ।
062. जब प्रभु ने श्री उद्धवजी को श्री वृंदावनजी जाने के लिए और गोपियों से मिलने के लिए कहा तो उन्हें याद करके प्रभु का इतना लाड़ उमर आया कि प्रभु ने अपने वस्त्र, पीतांबर, आभूषण और माला श्री उद्धवजी को पहना दिए । संत भाव देते हैं कि प्रभु ने सोचा कि वे तो श्री वृंदावनजी और श्रीगोपीजन से नहीं मिल पाएंगे पर उनके वस्त्र, पितांबर, आभूषण और माला तो श्री वृंदावनजी और श्रीगोपीजन का दर्शन कर लें ।
063. प्रभु अपने भक्तों को अपने श्रीहाथों से सजाते हैं । किस चीज से सजाते हैं । इसके उत्तर में संत कहते हैं कि प्रभु अपनी कृपा से सजाते हैं ।
064. प्रभु स्वयं अपने तक पहुँचने का भक्तिरूपी साधन भक्तों को देते हैं और भक्ति मार्ग उन्हें बताते हैं ।
065. जीवन में सदैव प्रभु के निकट बने रहना चाहिए ।
066. निकट बने रहने वाले को ही प्रभु अपनी सेवा के लिए चुनते हैं और उन्हें सेवा के लिए साधन संपन्न भी बनाते हैं ।
067. प्रभु ही हमें अपनी सेवा करने का सामर्थ्य भी देते हैं और सेवा करने के योग्य भी बनाते हैं ।
068. प्रभु श्री हनुमानजी जब भगवती जानकी माता का पता लगाकर लंका से वापस लौटे तो वानरों ने उनसे पूछा कि वानर सेना तो चारों दिशाओं में गई थी पर खोज प्रभु श्री हनुमानजी ही क्यों कर पाए । प्रभु श्री हनुमानजी ने उत्तर दिया कि प्रभु भक्तों के लिए पक्षपात करते हैं । उन्होंने सभी वानरों को चारों दिशाओं में भेजा पर सेवा उन्हें दी और सेवा करने की सामर्थ्यरूपी मुद्रिका उन्हें प्रदान की । उस मुद्रिकारूपी प्रभु के सामर्थ्य को धारण करके ही वे प्रभु कार्य कर पाए ।
069. अपनी सेवा प्रदान करके प्रभु हमें कृतार्थ करते हैं ।
070. प्रभु की सेवा मिलना मानव जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि और उपलब्धि है ।
071. जीव का स्वरूप है कि जीव प्रभु का नित्य दास है ।
072. प्रभु के हृदय में सदैव जीव के लिए अपार प्रेम और अपार करुणा भरी हुई होती है ।
073. भक्त प्रभु पर एक अलग ही प्रीतिपूर्ण अधिकार रखते हैं ।
074. प्रभु का नाम लेने वाला स्वयं तो तरता ही है और कितनों को नाम लेने की प्रेरणा देकर तरने योग्य बना देता है ।
075. बृजवासियों के लिए प्रभु कभी भी श्रीबृज से बाहर गए ही नहीं । आज भी बृजवासियों की यही मान्यता है ।
076. संसार हमसे हेतु रखकर सहेतु की प्रीति का ढोंग करता है । प्रभु हमसे अहेतु की यानी बिना किसी हेतु की शुद्ध प्रीति करते हैं ।
077. संसार की सहेतु की प्रीति ऐसी है कि जब हेतु खत्म हो जाए तो प्रीति भी खत्म हो जाती है ।
078. प्रभु भी अपने भक्तों से मिलने के लिए बड़े व्याकुल रहते हैं ।
079. मनुष्य जन्म सार्थक तब ही होता है जब हम प्रभु से प्रीति जोड़ते हैं ।
080. प्रभु अपने भक्तों से कितना प्रेम करते हैं यह कहना वाणी का विषय नहीं है । वाणी उस दिव्य प्रेम का बखान नहीं कर सकती । जब प्रभु ने श्री उद्धवजी को श्रीगोपीजन के लिए प्रेम संदेश देकर भेजा तो भगवती सरस्वती माता ने आकर प्रभु को प्रणाम किया और कहा कि उनकी क्षमता नहीं कि वे प्रभु के भक्तों के लिए प्रभु के प्रेम को शब्द देकर प्रकट कर पाएं ।
081. जो मनुष्य बनकर आया है उन एक-एक को प्रभु पुकारते हैं पर हम संसार के चक्कर में उलझे रहने के कारण वह प्रभु की पुकार सुन ही नहीं पाते । पर प्रभु के सच्चे भक्त जिनको संसार से वैराग्य हो गया है वे ही प्रभु की पुकार को सुन पाते हैं ।
082. प्रभु के प्रेमसिंधु की एक बूंद भी अगर हम पा लेते हैं तो हम कृतार्थ हो जाते हैं ।
083. श्रीगोपीजन को अपना प्रेम संदेश भेजते समय प्रभु कुछ भी नहीं कह पाए और भगवती राधा माता का स्मरण करके मौन हो गए ।
084. प्रभु प्रेम में प्रवेश पाने के लिए भगवती राधा माता के नाम का आश्रय लेना परम आवश्यक है । भगवती राधा माता की कृपा के बिना प्रभु प्रेम पाना असंभव है ।
085. श्रीगोपीजन ने भगवती राधा माता के श्रीकमलचरणों की श्रीरज को अपने मस्तक पर धारण किया था तभी उनके भीतर प्रभु प्रेम के बीज अंकुरित हुए । भगवती राधा माता के श्रीकमलचरणों की श्रीरज की कृपा होने पर ही वे प्रभु प्रेम के पात्र बन पाए ।
086. मैं केवल प्रभु का हो जाऊँ और केवल प्रभु ही मेरे हो जाएं, यही जीवन में एकमात्र रखने योग्य संकल्प है । अन्य सभी संकल्प दुःख की प्राप्ति कराने वाले हैं ।
087. प्रभु के बिना कहीं भी परमानंद नहीं मिल सकता ।
088. मन दुर्बल होगा तो सांसारिक संकल्पों में हम बह जाएंगे । मन सबल होगा तो मन में संकल्प केवल प्रभु के लिए ही उठेंगे ।
089. जिसे केवल जीवन व्यतीत करना है उसे कुछ आध्यात्मिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह तो अपने आप ही व्यतीत हो जाएगा । पर जिसे जीवन का सदुपयोग करना है उसे आध्यात्मिक प्रगति के लिए परिश्रम करना पड़ता है ।
090. बिना विरह में प्रभु के लिए रोए प्रभु मिलन संभव नहीं है ।
091. दु:ख और प्रतिकूलता हमें प्रभु की तरफ धकेल देते हैं । इसलिए संत दुःख और प्रतिकूलता को गले लगाते हैं ।
092. दु:ख और प्रतिकूलता में इतना बल होता है कि वह एक नास्तिक को भी भजन के पथ पर लाकर खड़ा कर देती है ।
093. जिसे जीवन केवल बिताना है वह तो मूढ़ है । जिसे प्रभु भक्ति करके जीवन सार्थक करना है वही सच्चा भाग्यवान है ।
094. प्रभु की भक्ति का संकल्प करना है तो तत्काल करना चाहिए । इसमें कल की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए ।
095. भक्ति के मार्ग में जो बाधक तत्व हैं उनका जीवन से तत्काल त्याग कर देना चाहिए ।
096. अपनी भक्ति को संसार की नजरों से बचा कर रखनी चाहिए । भक्ति केवल प्रभु और हमारे बीच का साधन है इसलिए इसे संसार में जाहिर करके संसार को दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
097. जिसको अपना जीवन सार्थक करना है वह तो अभी ही भक्ति करने में लग जाए । उसके लिए अन्य कोई कार्य की इससे ज्यादा प्राथमिकता जीवन में नहीं होनी चाहिए ।
098. संसार में हमारा मन लग जाए यह बहुत चिंताजनक दोष है ।
099. संसार से आशा कभी नहीं रखनी चाहिए । आशा केवल और केवल प्रभु से ही रखनी चाहिए ।
100. जीव के सात्विक संकल्प में बहुत बड़ा बल होता है और यह बल प्रभु उसे प्रदान करते हैं ।
101. हमारी सोच हमारा विचार बन जाती है और हमारे विचार आगे चलकर हमारे संकल्प बन जाते हैं । इसलिए सोचना भी हो तो सदैव प्रभु के बारे में ही सोचें ।
102. मन को संसार से रिक्त करके प्रभु की भक्ति में लगाना चाहिए ।
103. प्रभु की दी हुई समस्त शक्तियों के साथ प्रकृति भक्त के कल्याण के लिए दौड़ी चली आती है ।
104. प्रभु की दी हुई शक्तियों से युक्त प्रकृति हमारे सात्विक संकल्पों को सिद्ध करने में हमारा सहयोग करती है ।
105. प्रभु ने जीव पर कृपा करने में कहीं भी और कभी भी कमी नहीं की है ।
106. प्रभु जितने भक्त श्री सूरदासजी और भगवती मीराबाई के हैं उतने ही हमारे भी हैं । यह प्रभु की कितनी विलक्षण कृपालुता और दयालुता है ।
107. हमें प्रभु नाम निष्ठ होना चाहिए । प्रभु की नाम निष्ठा हमारा बहुत बड़ा कल्याण करती है ।
108. प्रभु ने अपनी समग्र शक्तियां अपने नाम में रख दी हैं ।
109. जीवन में मौन और जीवन में एकांत होना चाहिए और ऐसा समय केवल प्रभु के लिए ही अर्पित होना चाहिए ।
110. अन्य किसी कामना को न जोड़ते हुए प्रभु का नाम लेना जीवन में आरंभ करना चाहिए ।
111. भजन के आनंद के कारण ही भजन से बंध जाना चाहिए । भजन के आनंद को जीवन में प्रकट होने का अवसर देने पर वह एक-न-एक दिन प्रकट होकर रहेगा ।
112. हम जो भी करते हैं उसका परिणाम अवश्य आता है । इसलिए प्रभु की भक्ति करनी चाहिए जिससे आनंदरूपी परिणाम अवश्य आकर रहेगा ।
113. प्रभु की श्रीलीलाओं की कल्पना, श्रीलीलाओं का चिंतन जीवन में नित्य करना चाहिए ।
114. प्रभु कृपा से ही प्रभु की अनुभूति हमें जीवन में होती है । संतों और भक्तों ने प्रभु की अनुभूति जीवन में की है और उन्होंने उसे अपना प्रयास और पुरुषार्थ नहीं माना अपितु केवल और केवल प्रभु की कृपा और अनुग्रह ही माना है ।
115. संसार सत्य प्रतीत होने पर भी कल्पना है और प्रभु कल्पना प्रतीत होने पर भी सत्य हैं ।
116. हमारा मन प्रभु के चिंतन से हमारे द्वारा हटाए जाने पर भी हटना नहीं चाहिए । श्रीगोपीजन के साथ ऐसा ही होता था कि उनके हटाने पर भी उनका मन प्रभु चिंतन करने से कभी नहीं हटता था ।
117. मन प्रभु के अतिरिक्त कहीं और नहीं लगना चाहिए ।
118. प्रभु को हमारा संपूर्ण मन चाहिए । इसमें प्रभु को किसी की हिस्सेदारी नहीं चाहिए । प्रभु कभी हिस्सेदारी स्वीकार नहीं करते ।
119. जीवन में एकमात्र आधार प्रभु के नाम का ही होना चाहिए ।
120. भक्त के सभी तीर्थ और पुण्य स्वतः ही संपन्न हो जाते हैं । भक्ति के अलावा भक्त को कुछ अतिरिक्त करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती ।
121. प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती राधा माता प्रेम में एक दूसरे की निरंतर आराधना करते रहते हैं ।
122. प्रभु अकारण की करुणा और अहेतु की कृपा अपने भक्तों पर बरसाते रहते हैं ।
123. प्रभु के लिए हमारे मन में प्रभु की सेवा करने की भावना हमें प्रभु का कृपा पात्र बना देती है ।
124. किस प्रकार हम प्रभु के अनुकूल हो जाएं ऐसा भाव उत्तम भक्ति करने पर आता है ।
125. श्री वृंदावनजी के भंवरे भी गूंज कर प्रभु का ही गुणगान गाया करते हैं । संतजन श्री वृंदावनजी के भंवरे की गुंजन की भी ऐसी व्याख्या और विश्लेषण करते हैं ।
126. जिनके विरह में प्रभु इतने अधिक व्याकुल हो जाते हैं उन श्रीगोपीजन के प्रभु प्रेम की कल्पना करना भी हमारे लिए असंभव है ।
127. गौ-माता के बछड़े भी प्रभु से इतना प्रेम करते थे कि जैसे ही श्री उद्धवजी आए वे गौमाता का स्तनपान छोड़ दूध से भरा मुँह लेकर रथ की ओर भागे जैसे प्रभु ही वापस आ गए हों ।
128. श्रीगोपीजन ने प्रभु को प्रेम के कारण अपने वश में कर रखा था । सूत्र यह है कि प्रभु प्रेम के कारण भक्त के वश में हो जाते हैं ।
129. प्रभु के यहाँ से कोई आया तो भी श्री उद्धवजी के आने पर भी गौ-माताओं ने उल्लास व आनंद प्रकट किया ।
130. प्रभु जब अपनी सेवा अपने भक्त को देते हैं तो उसे निभाने का सामर्थ्य भी कृपा करके उसे साथ दे देते हैं । सूत्र यह है कि जीव प्रभु की सेवा अपने सामर्थ्य से नहीं कर सकता इसलिए प्रभु कृपा करके साथ में सेवा करने का सामर्थ्य भी देते हैं ।
131. प्रभु अपनी सेवा के लिए हमें चुनकर हमें कृतार्थ करते हैं । यह प्रभु की हम पर असीम कृपा होती है ।
132. भक्तों का सब कुछ केवल भगवान के लिए ही होता है ।
133. भक्ति हमारी माता है । जिस जीव ने प्रभु की भक्ति नहीं की उसने मानो अपनी माता का मातृत्व सुख जीवन में नहीं पाया । ऐसा जीव वृद्ध हो जाएगा तो भी अपूर्ण ही रहेगा ।
134. प्रभु का स्वरूप विशाल, अनन्त, असीम, अनुपम और अतुल्य है ।
135. प्रभु को ही जीवन में अपना बनाना चाहिए और जीवन में प्रभु का ही होकर और बनकर रहना चाहिए ।
136. प्रेम पाने के लिए प्रभु भी ललचाते हैं क्योंकि प्रेम की भूख प्रभु को भी लगती है ।
137. भक्तों के पास प्रभु प्रेम का भाव धन होता है ।
138. प्रभु को जीवन में प्रधानता दें तो जीवन ही उत्सव बन जाएगा ।
139. हमारे जीवन धन केवल प्रभु ही होने चाहिए ।
140. भक्ति का कोई विकल्प है ही नहीं और कभी हो ही नहीं सकता ।
141. जीवन की एकमात्र अभिलाषा जीवन काल में प्रभु प्राप्ति होनी चाहिए ।
142. भगवत् मिलन की लालसा और प्रतीक्षा जीवन में होनी चाहिए ।
143. सभी साधनों की सिद्धि यही है कि प्रभु मिलन की इच्छा हृदय में जग जाए और फिर जीवन का हर प्रयास उसी दिशा में होने लगे ।
144. प्रभु मिलन की इच्छा का अभाव जीवन में कभी भी नहीं होना चाहिए ।
145. प्रभु मिलन के लिए भक्ति का प्रयास जीवन में सदैव होते रहना चाहिए ।
146. हमें अपनी भक्ति की चेष्टा से प्रभु को प्रसन्न करने का प्रयास जीवन में सदैव करना चाहिए ।
147. जब कभी भी प्रभु सेवा का अवसर जीवन में आए तो यह नहीं समझना चाहिए कि प्रभु ने हमें योग्य समझा और सेवा का अवसर दिया बल्कि यह समझना चाहिए कि प्रभु ने कृपा करके मुझे अपनी सेवा करने योग्य बनाया है ।
148. तीनों लोकों के प्राणी मात्र का पोषण करने के लिए प्रभु को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता । बस प्रभु का एक संकल्प ही पर्याप्त है । प्रभु की इतनी विराट संकल्प क्षमता है ।
149. प्रभु सेवा का कोई कार्य हाथ में आ जाए तो यह सोचना चाहिए कि प्रभु ने कृपा करके हमें अपना प्रतिनिधि बनाया है और सेवा करने के लिए अपना गुण हमें प्रदान किया है ।
150. कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि प्रभु सेवा का यह कार्य हम नहीं करते तो कैसे होता । सत्य यह है कि कार्य हम नहीं कर रहे हैं, कार्य प्रभु की कृपा हमसे करवा रही है ।
151. प्रभु कृपा करके अपने कार्य करने के लिए हमें चुनते हैं वरना प्रभु का संकल्प मात्र सभी कार्य करने के लिए पर्याप्त है ।
152. प्रभु कृपा करके अपने कार्य करने योग्य हमें बनाते हैं ।
153. हमारा कृतज्ञ हृदय, प्रभु प्रेम में भीगी हुई नम आँखें और जुड़े हुए प्रणाम मुद्रा में हाथ सदैव प्रभु के समक्ष प्रस्तुत होने चाहिए ।
154. प्रभु की प्रतिज्ञा है कि प्रभु की चर्चा किसी से करने पर प्रभु हमारा जीवन अनमोल बना देते हैं ।
155. प्रभु की प्रतिज्ञा है कि एक बार प्रभु के मार्ग पर पैर रखने पर प्रभु हमारे लिए जीवन के सभी बंद मार्ग खोल देते हैं ।
156. प्रभु की प्रतिज्ञा है कि एक बार प्रभु का होने पर प्रभु उस जीव को अपनाते हैं और उसे अपना बना लेते हैं ।
157. भक्ति की गरिमा भक्ति को गुप्त रखने में है ।
158. प्रभु प्रेम की गरिमा प्रभु प्रेम को संसार से गुप्त रखने में है ।
159. श्री नंदबाबा को प्रभु से मिलने की इतनी उत्कंठा थी कि जब श्री उद्धवजी प्रभु का संदेश लेकर आए तो उनको देखते ही बिना कुछ सुने श्री नंदबाबा ने संकल्प कर लिया कि वे 10000 गौ-माता ब्राह्मणों को दान में देंगे अगर श्री उद्धवजी प्रभु के आगमन का संदेश उन्हें सुनाते हैं ।
160. प्रभु का सानिध्य अनुभव करने से हमें जीवन में बहुत बड़ा बल मिलता है ।
161. जैसा हमारा विचार होता है वैसी ही हमारी दिशा और दशा होती है । इसलिए जीवन में विचार केवल और केवल प्रभु का ही करना चाहिए ।
162. अपने जीवन का परिचय प्रभु प्रेम से ही होने देना चाहिए ।
163. जिसने प्रभु से प्रेम किया है उसने प्रभु का प्रेम पाया है और प्रभु को भी पाया है ।
164. प्रभु प्रेम की अनुभूति जीवन में अवश्य करनी चाहिए ।
165. प्रेम अपने अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहने देता, यह प्रेम का सिद्धांत है । इसलिए प्रेम केवल और केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
166. संसार में हम जिस प्राणी या विषय से प्रेम करते हैं वह अपूर्ण होता है । इसलिए पूर्ण प्रेम केवल पूर्ण परमात्मा से ही करना चाहिए ।
167. भक्ति प्रभु के स्वरूप, स्वभाव और प्रभाव का परिचय हमसे करवाती है ।
168. यह शास्त्र मत है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का भक्त जगत में सबसे श्रेष्ठ माना गया है ।
169. हमारे संचित पुण्यों से, सत्कर्म से बने प्रारब्ध से और सबसे जरूरी और सबसे अहम प्रभु कृपा से ही हमारे जीवन में भक्ति आती है । मनुष्य जीवन की सार्थकता केवल और केवल प्रभु की भक्ति में ही है ।
170. केवल भक्ति में ही वह सामर्थ्य है कि भक्ति हमें प्रभु का कृपा पात्र बना देती है ।
171. जीव का विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों के अतिरिक्त और कहीं नहीं है और किसी भी प्रकार से अन्यत्र कहीं हो भी नहीं सकता ।
172. जिस दिन से भगवती यशोदा माता को छोड़कर प्रभु श्री मथुराजी गए उस दिन से भगवती यशोदा माता ने अन्य किसी को देखा नहीं मानो उनकी आँखों का संकल्प था कि देखूंगी तो केवल प्रभु को ही देखूंगी ।
173. प्रभु के श्री मथुराजी जाने के बाद नंदभवन की रसोई शांत हो गई क्योंकि उनका भाव था कि रसोई केवल प्रभु के लिए ही बनती थी । जब श्री उद्धवजी आए तो श्री नंदबाबा ने कुछ ब्राह्मणों के घर से श्री उद्धवजी को खिलाने के लिए खाद्य पदार्थ मंगवाए ।
174. भक्ति में एक अदभुत-सी तृप्ति, एक अदभुत-सा संतोष होता है ।
175. भगवती यशोदा माता अर्ध चेतना में थी जब श्री उद्धवजी नंदभवन पहुँचे । जब भगवती यशोदा माता के कानों में कोई प्रभु का नाम उच्चारण करता था तो उन्हें चेतना आती थी फिर प्रभु के सामने नहीं देख कर उन्हें मूर्छा आ जाती थी ।
176. प्रभु कभी अपने भक्तों से दूर नहीं रहते और दूर नहीं रह सकते ।
177. प्रभु को संत पापचोरम कहते हैं यानी प्रभु अपने भक्तों के पापों को चुरा लेते हैं और उन्हें पाप रहित कर देते हैं ।
178. प्रभु से ही जीवन में विशुद्ध प्रीति रखनी चाहिए ।
179. प्रभु के वियोग में भी श्रीगोपीजन मानती थी कि प्रभु मिलन की आशा छुपी हुई है ।
180. बिना प्रभु के जीवन में आए कोई भी प्रसन्न नहीं रह सकता ।
181. सीधा-सीधा प्रभु से प्रेम का बंधन बांध लेना चाहिए ।
182. प्रभु की एक अनुभूति भी मानव जीवन की श्रेष्‍ठतम उपलब्धि है ।
183. जब एक गोपी दूसरी गोपी को सपने में प्रभु के दर्शन का अपना अनुभव सुनाती थी तो उसे सुनकर श्री उद्धवजी को लगता था कि वे प्रभु के इतने निकट साक्षात रहकर भी वह नहीं देख पाते थे जैसा दर्शन श्रीगोपीजन को सपने में प्रभु देते थे ।
184. प्रभु की कथा सुनने की अभिलाषा जीवन में सदैव होनी चाहिए ।
185. हमारा प्रभु से प्रेम बिना किसी सांसारिक संकोच के और सहज होना चाहिए जैसे भगवती मीराबाई का था ।
186. प्रभु प्रेम जीवन में आ जाए तो जीवन की पीड़ा में भी जीव आनंद का ही अनुभव करता है ।
187. भक्त का प्रबल प्रेम प्रभु को भक्त से मिलने के लिए व्याकुल कर देता है ।
188. प्रभु के अतिरिक्त जीवन में अन्य किसी भी भाव का प्रवेश ही नहीं होना चाहिए ।
189. प्रभु से प्रेम होने पर हमारा रोम-रोम आनंदित हो उठता है ।
190. भक्तों को सदैव और सर्वत्र प्रभु की अनुभूति होती रहती है । भगवती मीराबाई के पास पपीहा की आवाज पी-पी आई तो उसे सुनकर भगवती मीराबाई ने भजन में गाया कि पपीहा तुम मेरे प्रिया प्रभु की याद पी-पी सुनाकर मुझे दिलाते हो ।
191. श्री उद्धवजी ने महसूस किया कि श्रीबृज की बहती हुई वायु में श्रीगोपीजन के प्रभु के विरह में बहे आंसुओं की नमी है ।
192. प्रभु के प्रेमी भक्तों के प्रेम के गीत में इतनी सामर्थ्य होती है कि वे त्रिलोकी को पावन कर देते हैं ।
193. श्रीगोपीजन के रोम-रोम उनके नेत्र बनकर प्रभु के दर्शन करते थे ।
194. प्रभु के लिए जीवन में भाव होना जीवन जीने की ऊर्जा के रूप में काम करता है ।
195. प्रभु के प्रेम का कोई विकल्प है ही नहीं और हो ही नहीं सकता ।
196. प्रभु के प्रेम में जो परमानंद है उसका कोई भी विकल्प नहीं है यानी वह परमानंद अन्य किसी भी तरह से नहीं मिल सकता । वह केवल और केवल प्रभु प्रेम के द्वारा ही मिल सकता है ।
197. भक्ति के अतिरिक्त भगवत् भावना को स्पर्श करने की पहुँच और सामर्थ्य किसी में नहीं है ।
198. प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरणागति से पूर्व जीव को जगत में कहीं भी विश्राम नहीं मिल सकता । विश्राम केवल और केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरणागति में ही मिलता है ।
199. भक्ति अकेली हो, अन्य आश्रय से रहित हो तो ही परम लाभ देती है । उदाहरण स्वरूप हम भक्ति भी करते हैं और बांह में ताबीज भी पहनते हैं तो यह अन्य आश्रय हो गया जो भक्ति के साथ कदापि नहीं होना चाहिए ।
200. प्रभु ऐसी भक्ति से ही हमारे निकट आएंगे जिस भक्ति में अन्य आश्रय न हो ।
201. ऐसा हम कहते हैं और मानते हैं कि प्रभु भाव के भूखे हैं । जो प्रेम भाव प्रभु की भूख मिटाता है वह प्रेम भाव कितना श्रेष्ठ होता होगा, जरा कल्पना करें ।
202. जो भुवनमोहित यानी तीनों भुवनों को मोहित करने वाले प्रभु को भी मोहित कर लेता है वह प्रेमाभक्ति का भाव एक सच्चे भक्त का कितना श्रेष्ठ होता है ।
203. प्रेम का शील है कि वह मर्यादा के पात्र में ही टिकता है । इसलिए ही श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्रीकृष्ण प्रेम से पहले मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री रामजी आते हैं । सूत्र यह है कि जीवन में पहले मर्यादा आती है फिर प्रभु के लिए प्रेम आता है ।
204. प्रेममूर्ति प्रभु श्री कृष्णजी की बातें रसिक भक्त हुए बिना कोई नहीं समझ सकता ।
205. प्रभु श्री हनुमानजी की प्रभु भक्ति और भगवती राधा माता का प्रभु प्रेम इनकी हमारे द्वारा बात करना एक अनाधिकारी की चेष्टा जैसी है क्योंकि प्रभु श्री हनुमानजी की प्रभु भक्ति और भगवती राधा माता का प्रभु प्रेम हमारी जिह्वा तक आने की बात ही नहीं है । यह वाणी के विषय है ही नहीं क्योंकि यह तो अनुभव का विषय है ।
206. प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपने चित्त को निवेदन करने पर ही हमारे चित्त की यात्रा सफल, सार्थक और सुखद होती है और हमारे चित्त को परम विश्राम मिलता है ।
207. श्रीगोपीजन कहती है कि अगर उनकी जिह्वा प्रभु नाम के अलावा कुछ भी उच्चारण करें तो वे अपनी जिह्वा पर हलाहल विष रख देंगी और अगर उनकी आँखें प्रभु के अलावा कुछ भी देखें तो वह उन आँखों को जला देंगी ।
208. प्रभु का स्वभाव है कि अपने भक्तों के लिए कुछ भी करने को प्रभु तैयार रहते हैं । भगवती द्रौपदीजी की जूती को अपने पितांबर में उठाने में भी प्रभु ने संकोच नहीं किया जब महाभारत युद्ध के समय प्रभु उन्हें श्री भीष्मपितामह का आशीर्वाद दिलवाने ले गए ।
209. प्रभु भी अपने अतिरिक्त कुछ और हमें देना चाहें तो भी उसे कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
210. एक बंगला उपन्यास है जिसका नाम द्रौपदी है । उसमें भगवती द्रौपदीजी के चरित्र का चित्रण एक अलग रूप से किया गया है । भगवती द्रौपदीजी ने प्रभु से प्रभु को चाहा पर प्रभु ने कहा कि श्री अर्जुनजी मेरे जैसे ही हैं और मेरी विभूति हैं इसलिए तुम श्री अर्जुनजी को स्वीकार करो । भगवती द्रौपदीजी प्रभु के कहने पर श्री अर्जुनजी को स्वीकार करती हैं । उपन्यासकार ने लिखा कि भगवती द्रौपदीजी से यही चूक हो गई । प्रभु के कहने पर भी प्रभु के अतिरिक्त चाहे वह प्रभु की विभूति ही क्यों न हो उन्हें उन्होंने स्वीकार किया और उनके जीवन में विपत्ति-ही-विपत्ति आई । यह अलग बात है कि सभी विपत्तियों से प्रभु ने उन्हें उबारा । पर सूत्र यह है कि प्रभु के अतिरिक्त प्रभु स्वयं भी कुछ देना चाहें तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए और केवल और केवल प्रभु से प्रभु को ही मांगना चाहिए ।
211. दुनिया के सारे मार्ग बंद क्यों न हो जाएं पर जो मार्ग प्रभु हमारे लिए खोलते हैं उसे कोई बंद नहीं कर सकता ।
212. इस संसार में सुई की नोंक के बराबर चीज भी अपनी नहीं है पर इस संसार के मालिक श्री ठाकुरजी पूरे-के-पूरे अपने हैं ।
213. भक्ति पथ पर चलने के लिए वृद्ध होने का इंतजार कभी नहीं करना चाहिए ।
214. लोग रंग बदलते हैं पर प्रभु हमारा वक्त बदलते हैं और हमारा भाग्य बदलते हैं ।
215. ब्रह्मांड में सबसे तीव्र गति प्रार्थना की है । हृदय से मुख तक पहुँचने से पहले ही वह प्रभु तक पहुँच जाती है ।
216. प्रभु साधन से नहीं बल्कि समर्पण से मिलते हैं ।
217. हमारा समय और भाग्य केवल प्रभु की कृपा से ही परिवर्तनशील है । अन्य कोई उपाय नहीं उन्हें बदलने का ।
218. प्रभु पर विश्वास बिलकुल उस बच्चे की तरह होना चाहिए जिसको हम हवा में उछालते हैं तो वह हँसता है क्योंकि उसे पता होता है कि आप उसे गिरने नहीं देंगे ।
219. जब संसार के सारे दरवाजे बंद हो जाएं तो भी प्रभु का एक दरवाजा ऐसा है जो कभी भी बंद नहीं होता ।
220. लगन एक छोटा-सा शब्द है पर जिसे प्रभु की लगन लग जाती है उसका पूरा जीवन ही बदल जाता है ।
221. यह भाव जीवन में दृढ़ होना चाहिए कि प्रभु पूरे-के-पूरे अपने हैं ।
222. माया को चाहने वाला बिखर जाता है और प्रभु को चाहने वाला निखर जाता है ।
223. हमें अपने शरीर की सभी इंद्रियों को प्रभु सेवा में लगाकर रखना चाहिए ।
224. प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रभु का मंगलमय विधान देखना हमें आना चाहिए ।
225. प्रभु से मत कहें कि समस्या विकट है, समस्या से कहें कि मेरे प्रभु मेरे निकट हैं ।
226. प्रभु नाम जपने से जीवन के सभी उपद्रव शांत हो जाते हैं ।
227. जीवन में चिंता के होने का मतलब है कि प्रभु की हमारे लिए की गई व्यवस्था पर शक करना ।
228. जीवन में कोई साथ न दे तो भी कभी निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रभु से बड़ा साथ देने वाला हमसफर कोई नहीं है ।
229. प्रभु नाम जप का हर युग में महत्व है पर कलियुग में तो इसका बड़ा विशेष महत्व है ।
230. प्रभु को किया एक प्रणाम हमारे जीवन के परिणाम को बदल देता है ।
231. हमें प्रभु से यह मांगना चाहिए कि हमारी नहीं बल्कि प्रभु की इच्छा ही सदैव पूर्ण हो क्योंकि हमारे लिए क्या सही है यह सबसे बेहतर प्रभु ही जानते हैं ।
232. भक्त प्रभु से कहता है कि अब उसे डूबने का खौफ नहीं क्योंकि नाव भी प्रभु की है, सागर भी प्रभु का है, लहरें भी प्रभु की हैं और भक्त भी प्रभु का है ।
233. प्रभु पर भरोसा करने पर प्रभु का जो आशीर्वाद मिलता है वह दिखाई तो नहीं देता पर असंभव को भी संभव बना देता है ।
234. जब हमें प्रभु पर भरोसा होता है तो जीवन में आने वाला बड़ा-से-बड़ा तूफान भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
235. किसी तूफान की क्षमता नहीं कि भक्त का प्रभु पर से विश्वास को डिगा दे ।
236. अपनी परिस्थिति प्रभु को सौंप देनी चाहिए क्योंकि जितना हम जीवन भर परिश्रम में कर सकते हैं उससे कोटि-कोटि गुना ज्यादा प्रभु एक क्षण में हमारे लिए कर सकते हैं ।
237. हमारी इच्छाओं से भी ज्यादा सुंदर प्रभु की हमारे लिए योजना होती है ।
238. प्रभु की रुचि के सामने अपनी रुचि रखने का कोई लाभ नहीं क्योंकि प्रभु की रुचि ही कल्याणकारी होती है । इसलिए प्रभु की रुचि के सामने अपनी रुचि का सदा त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है ।
239. प्रभु भक्ति से बड़ा जीवन में अर्जित करने योग्य कुछ भी नहीं है । भक्ति जब जीवन में आती है तो प्रभु के लिए हमारे अंतःकरण में श्रद्धा और प्रेम का निर्माण करती है ।
240. प्रभु नाम का माहात्म्य विलक्षण है ।
241. भक्त केवल और केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही बैठा शोभा पाता है ।
242. भक्त के हृदय में संसार से विरक्ति के पीछे भी प्रभु को पाने के लिए बहुत गहन आसक्ति छिपी होती है ।
243. प्रभु को अपने भक्तों के प्रेम अश्रुओं से किया जाने वाला श्रृंगार सबसे प्रिय लगता है ।
244. श्री उद्धवजी ने श्रीगोपीजन से मिलने पर और उनके प्रभु प्रेम का आकलन करने के बाद मन-ही-मन प्रभु से विनती करी कि वे श्रीगोपीजन के प्रेमरूपी भास्कर के सामने ज्ञानरूपी जुगनू बन जाएं । उन्होंने विनती करी कि प्रभु कृपा करें और उनके ज्ञान के बिंदु श्रीगोपीजन के प्रेम के सिंधु में समा जाएं और वे कृतकृत्य हो जाएं ।
245. भक्त प्रभु का परम धन होता है और प्रभु भक्तों के परम धन होते हैं ।
246. भक्तों का प्रेम सीधे प्रभु तक पहुँच जाता है ।
247. प्रभु ने केवल एक ही मन बनाया है और हाथ, पैर, आँख, कान दो-दो बनाए हैं । इसलिए हमारा वह एक मन प्रभु के पास ही रहना चाहिए । भक्ति यही करती है कि जीव का वह एक मन सदैव प्रभु के पास ही रहे ।
248. भक्तों के योगक्षेम को वहन करने के प्रभु के श्रीवचन पर हमें जीवन में पूर्ण विश्वास होना चाहिए ।
249. प्रभु का प्रेमी सबसे बड़ा तपस्वी होता है क्योंकि प्रेम का एक-एक पल तपस्या जैसा ही होता है ।
250. प्रभु श्री कृष्णजी श्री मथुराजी में निद्रा में भी भगवती राधा माता के नाम को ही रटते रहते थे ।
251. प्रभु अपने भक्त के एक रंचमात्र सच्चे प्रेम पर स्वयं को अपने भक्त पर न्यौछावर कर देते हैं ।
252. अपने सभी इंद्रियों को प्रभु के प्रेमामृत को ग्रहण करने में लगाना चाहिए ।
253. जिन्होंने प्रभु से प्रेम किया उन्होंने ही जीवन में प्रभु को पाया है ।
254. जीवन में वस्तुतः पाना क्या है ? जीवन में वस्तुतः जाना कहाँ है ? शास्त्र इन दोनों का एक ही उत्तर देते हैं - प्रभु ।
255. मन को संसार की कामना का संग करने से मोड़कर प्रभु का संग करने के लिए प्रेरित करना चाहिए ।
256. मन प्रभु के मंदिर में बैठकर भी संसार की कामना करता है । हमें मन को संसार में बैठाकर भी प्रभु की कामना करने के लिए तैयार करना चाहिए ।
257. जैसे-जैसे मन प्रभु में लगने लगेगा वह पवित्र होता चला जाएगा ।
258. श्री भक्तमालजी में ऐसे बहुत भक्तों का चरित्र है जिन्होंने घोर प्रतिकूलता और विपदा में भी रहकर प्रभु की भक्ति नहीं छोड़ी ।
259. प्रभु कहते हैं कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं हो सकता । यह प्रभु का व्रत है ।
260. सच्ची भक्ति भक्त को कभी सांसारिक विषयों में उलझने नहीं देती ।
261. प्रभु का सच्चा भक्त संसार में सदैव निर्भय रहता है ।
262. कभी माला नहीं हो तो सांसों की माला पर ही प्रभु का नाम जपना चाहिए । संतों की हाथों की माला छूट जाती है और वे सांसों की माला पर ही प्रभु का नाम जपना आरंभ कर देते हैं ।
263. मंत्र वही जो हमें अंतर्मुखी कर दे यानी हमें भीतर देखना सिखा दे ।
264. भक्ति प्रभु के लिए भावना की सिद्धि कराती है ।
265. प्रभु के अलावा मन और बुद्धि से जो भी हम जानने की चेष्टा करते हैं वह सब चेष्टा व्यर्थ है ।
266. भाव भगवान का घर है । मंदिर में भगवान हो कि नहीं हो पर जहाँ भी भक्त हृदय में प्रभु के लिए भाव होगा वहाँ प्रभु जरूर होंगे ।
267. भक्तों के भाव में प्रभु सदैव विराजमान रहते हैं । प्रभु की उपस्थिति भावयुक्त हृदय में सदैव रहती है ।
268. प्रेम से ही प्रभु को अनुभव किया जा सकता है ।
269. प्रेम न धरती पर उपजता है, न बाजार में बिकता है । प्रभु प्रेम केवल भक्ति ही प्रदान करती है ।
270. शास्त्र वाणी में अर्थ अथाह होते हैं और शब्द थोड़े होते हैं ।
271. संसार का संग करेंगे तो हमारे मन में संसार ही आएगा । सत्संग का संग करेंगे तो हमारे मन में प्रभु आएंगे ।
272. तन से संसार का भोग भोगने से भी बहुत बुरा है मन से संसार का भोग करना ।
273. जीव मन से मैला है । यह मन का मैल केवल भक्ति ही धो सकती है ।
274. मन में लगा मैल प्रभु प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है और मन को मैल रहित और निर्मल केवल भक्ति ही कर सकती है ।
275. यदि जीवन में प्रभु कृपा से सत्संग नित्य हमें मिलने लग जाए तो हमें समझ जाना चाहिए कि प्रभु की हमसे मिलने की इच्छा हो गई है और प्रभु हमसे मिलना चाहते हैं ।
276. मानव तन मिलना प्रभु की असीम कृपा का फल होता है ।
277. मन में सत्संग का लोभ होना प्रभु की असीम-से-असीम कृपा है ।
278. प्रभु पर विश्वास और भरोसा जीवन में अर्जित करना चाहिए । यही हमारी सबसे बड़ी कमाई है ।
279. विश्वास युक्त होकर हमें भक्ति का साधन करना चाहिए ।
280. विश्वास युक्त होकर हम प्रभु को पुकारें और प्रभु नहीं सुनें ऐसा कभी हो ही नहीं सकता । श्री गजेंद्रजी ने विश्वास से भरकर प्रभु को पुकारा और प्रभु आधे नाम के उच्चारण पर ही आ गए ।
281. करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप भी जिसे लगा हो उसे भी प्रभु शरण में आने पर स्वीकार करते हैं, यह प्रभु ने श्री रामचरितमानसजी में कहा है । इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है और इससे बड़ा आश्वासन प्रभु का और क्या हो सकता है ?
282. प्रभु किसी भी समय भक्त को छोड़कर कहीं भी नहीं गए हैं । प्रभु भक्तों के संग सदैव ही रहते हैं ।
283. भक्त के जीवन में जो-जो प्रतिकूलता घटती है वैसी ही कुछ प्रतिकूलता हमारे जीवन में भी घटती रहती है । भक्त उस प्रतिकूलता के कारण अपनी भक्ति को और दृढ़ कर लेता है और हम ऐसा करने से चूक जाते हैं । यही फर्क है भक्त और संसारी में ।
284. भक्ति ऐसी करनी चाहिए कि प्रभु के प्रति पूर्ण विश्वास मन में जागृत हो जाए ।
285. अगर हमारे जीवन में भक्ति जागृत होती है तो हमें यह मानना चाहिए कि प्रभु ने अपने आगमन की पत्रिका हमें भेजी है ।
286. संत कहते हैं कि जीवन में प्रभु आगमन से पहले होने वाले शकुन यह होते हैं कि हमारे जीवन में सत्संग आ जाए ।
287. श्री विभीषणजी ने बहुत प्रतिकूल परिस्थिति में रहकर प्रभु का भजन किया । असुर कुल यानी तामस तन प्राप्त हुआ जहाँ तमोगुण का प्रभाव था और चारों तरफ असुरों के बीच रहकर लंबे काल तक उन्होंने प्रभु का भजन किया । इससे प्रसन्न होकर प्रभु ने गुरुरूप में प्रभु श्री हनुमानजी को भेजा और फिर स्वयं प्रभु श्रीराम रूप में उन्हें स्वीकार किया ।
288. हम किसी को एक वृक्ष देना चाहते हैं तो उसे उसका बीज देते हैं । ऐसे ही हम प्रभु को पाना चाहते हैं तो बीजरूप में प्रभु का नाम ग्रहण करना चाहिए ।
289. प्रभु ने भगवती शबरीजी के आश्रम की राह यह कहकर पूछा कि मेरी शबरी कहाँ रहती है । तात्पर्य यह है कि प्रभु ने दिखाया कि मिलने से पहले ही प्रभु ने भगवती शबरीजी को उनकी भक्ति के कारण स्वीकार कर लिया है ।
290. भक्ति करें तो लगातार आत्म-निरीक्षण करते रहें कि भक्ति का लक्षण जीवन में प्रकट हो रहा है कि नहीं । संसार से वैराग्य, भय से निर्भयता, प्रभु प्रेम की प्रगाढ़ता, प्रभु में विश्वास और आस्था एवं प्रभु में श्रद्धा बढ़ती जा रही है कि नहीं ।
291. प्रभु का स्वभाव करुणामय है और प्रभाव ऐश्वर्यमय है और यह कभी भी परिवर्तनशील नहीं होता । प्रभु सदैव इसमें स्थित रहते हैं ।
292. भक्ति किसी भी जाति, कुल, पंथ और धर्म के जीव को करने का पूर्ण अधिकार है ।
293. प्रभु कथा सुनने वालों की तीन श्रेणियां होती हैं । पहली, जिन्होंने एक बार कथा सुन ली तो उनके लिए बस हो गया । दूसरी, जिन्होंने कथा सुनी, उन्हें अच्छा लगा फिर मौका मिलने पर कभी भी सुन लेने की इच्छा है । तीसरी, जिन्हें निरंतर कथा सुनने का व्यसन ही लग गया । इनके लिए श्री रामचरितमानसजी में कहा गया है कि इनका श्रवण श्री समुद्रदेवजी के समान अथाह हो जाता है जो बिना किसी रोकथाम या अवरोध के चलता ही रहता है ।
294. प्रभु कथा ऐसी सुनें कि जीवन में कथा सुनने का लोभ और कथा सुनने की लालसा बढ़ती ही चली जाए ।
295. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचकर प्रभु की सेवा में अपने आपको स्थिर करने का लक्ष्य मानव जीवन में रखना चाहिए ।
296. विश्वास से भक्ति करनी चाहिए । विश्वास रखकर भक्ति करनी चाहिए कि भक्ति माता हमें प्रभु की प्राप्ति निश्चित करवा देंगी ।
297. मन देकर और अपना चित्त देकर प्रभु की कथा का श्रवण करना चाहिए जैसे राजा श्री परीक्षितजी ने किया था ।
298. एक कथा श्रवण करने वाला ऐसा होता है जिसको सदैव लगता रहता है कि कथा सुनने की प्रक्रिया का जीवन में कभी भी विश्राम न हो ।
299. कथा सुनना जीवन में तभी सफल होता है जब हम जितना सुनें उतना अधिक सुनने का लोभ बढ़ता ही चला जाए ।
300. संत और भक्त सोते, जागते निरंतर प्रभु का नाम रटते रहते हैं । उन्हें माला की जरूरत नहीं होती क्योंकि वे प्रभु का नाम अपनी श्वासों की माला पर रटना प्रारंभ कर देते हैं ।
301. संत ऐसा भाव प्रभु से निवेदन करते हैं कि उनकी जिह्वा सदैव प्रभु नाम लेने के लिए ललचाती रहे ।
302. भक्ति का साधन प्रभु में हमारी निष्ठा को बढ़ा देता है ।
303. वृतासुर ने असुर होते हुए भी प्रभु से मांगा कि उसे एक हजार कान प्रभु दें क्योंकि केवल दो कानों से प्रभु कथा सुनकर उसे तृप्ति नहीं होती है ।
304. जिस दिन हमें लगे कि आज हमने खूब भक्ति कर ली उस दिन ऐसा मानें कि हमने भक्ति नहीं की क्योंकि सच्ची भक्ति के बाद तृप्ति जागृत नहीं होती है अपितु और अधिक भक्ति करने का भाव हृदय में उमड़ता है ।
305. सुमिरन का लक्षण यही है कि जितना किया जाए उतनी अतृप्ति बढ़ती जाए और अधिक सुमिरन करने के लिए ।
306. साधक के जीवन में सावधानी और सजगता होनी नितांत जरूरी है ।
307. मन में आनंद स्थिर होगा तो वह केवल भक्ति से ही होगा ।
308. नाम की कृपा से ही नामी यानी प्रभु प्रकट होंगे ।
309. भजन करते हुए कभी यह भाव नहीं आना चाहिए कि बहुत कर लिया । कथा श्रवण करते वक्त कभी यह भाव नहीं आना चाहिए कि हमने बहुत श्रवण कर लिया और हमारे जितना श्रवण किसी ने नहीं किया होगा । ऐसा भाव हमारा पतन करवाता है ।
310. कलियुग में जिसमें प्रभु कथा श्रवण की आंतरिक लालसा हो ऐसा सच्चा श्रोता मिलना बहुत कठिन है ।
311. संत विनोद में कहते हैं कि कलियुग में प्रभु को भी सच्चा भक्त मिलना दुर्लभ होता है ।
312. कलियुग की विशेषता है कि भक्तों के लिए प्रभु का मिलना सुलभ है क्योंकि प्रभु प्राप्ति का साधन बहुत सुलभ है । पर कलियुग में माया के बीच फंसे जीवों में प्रभु को सच्चा भक्त मिलना दुर्लभ है ।
313. सत्संग वही सच्चा है जो हमें संसार की विस्मृति करा दे ।
314. जीवन में केवल प्रभु के लिए भक्ति भाव को ही जागृत करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
315. भक्ति अपने निकट संसार और संसार के व्यवहार को नहीं रहने देती । भक्ति सदैव अकेली रहती है और संसार को साथ में नहीं रहने देती ।
316. जीवन में निरंतर भगवत् स्मरण होते रहना चाहिए ।
317. मन में सदैव यह भाव रहना चाहिए कि हम प्रभु के दास हैं ।
318. भक्ति मार्ग पर चलने पर संसार के सुंदर-सुंदर प्रलोभन आते हैं पर हमें उनसे सावधान रहना चाहिए और उनमें फंसना नहीं चाहिए ।
319. प्रभु को हम श्रद्धा और विश्वास की दो आँखों से ही देख सकते हैं । श्रद्धा और विश्वास नहीं हो तो प्रभु सामने भी खड़े हों तो भी हम प्रभु को पहचान नहीं पाएंगे । उदाहरण के तौर पर दुर्योधन है जिसके इतने पास प्रभु होने के बाद भी वह प्रभु को पहचान नहीं पाया क्योंकि उसमें प्रभु के लिए श्रद्धा और विश्वास नहीं था ।
320. प्रभु की कृपा हमारे जीवन में निरंतर होती रहती है पर हम भक्ति के अभाव में उस कृपा को पहचान नहीं पाते ।
321. प्रभु में श्रद्धा और प्रभु पर विश्वास रूपी संपत्ति हमें जीवन में कमानी चाहिए ।
322. मन के अंदर प्रभु को पाने की व्याकुलता होनी चाहिए ।
323. कलियुग में मंदिर में सुबह और शाम लाखों लोगों की भीड़ होती है पर क्या यह भक्तों की भीड़ है । नहीं, यह कामना पूर्ति वाले लोगों की भीड़ है यानी कामना पूर्ति की मांग करने वालों की भीड़ है । प्रभु सुबह से शाम तक बैठे-बैठे सच्चे निष्काम भक्त की बाट जोहते रहते हैं कि कोई तो ऐसा आए जिसे प्रभु से नहीं बल्कि प्रभु की चाह हो ।
324. जो कामनाओं से भरा हृदय लेकर प्रभु के पास जाता है उसे तो प्रभु भक्ति का पता भी नहीं लगने देते । उसके अंदर भक्ति का भाव प्रकट ही नहीं हो पाता ।
325. प्रभु पहले देखते हैं कि जीव मन में क्या लेकर उनके पास आया है । क्या वह कामनाओं की सूची लेकर आया है या सच्चा निष्काम प्रेम भाव लेकर आया है ।
326. हमारे जीवन में प्रभु के लिए तन का साधन जैसे पूजा और कर्मकांड तो होता है पर प्रभु को प्राप्त करने के लिए मन की व्याकुलता नहीं होती । इसलिए प्रभु हमें नहीं मिल पाते ।
327. प्रभु का सुमिरन करना हमारे जीवन की विवशता बन जानी चाहिए । हम प्रभु सुमिरन किए बिना एक पल भी नहीं रह पाए ।
328. प्रभु की भक्ति करें तो संसार से छिपाकर करें ।
329. सच्चा वैष्णव यह मानता है कि उसने जो धर्मशाला या मंदिर में दान दिया है वह उसका था ही नहीं क्योंकि वह धन तो प्रभु का ही था । इसलिए उस दान की चीज पर वह अपना या अपने परिजन का नाम लिखवाने से बचता है क्योंकि ऐसा करने से वह मानता है कि यह उसका अपराध होगा और उसे पाप लगेगा ।
330. प्रभु की रजा न हो और हम प्रभु का गुण गाएं यह तो संभव हो ही नहीं सकता । हममें कहाँ यह सामर्थ्‍य है कि हम प्रभु के गुण अपने आप गा पाएं ।
331. भक्तों को प्रभु की बंदगी करने से पहले कौन जानता था । प्रभु का गुणगान करने के बाद ही विश्व ने उन्हें जानना प्रारंभ किया और वे प्रसिद्ध हो गए ।
332. जिनको प्रभु ने भक्तिमय जीवन जीने का अवसर दिया है उन्हें उसे प्रभु की उनके ऊपर बहुत बड़ी कृपा माननी चाहिए ।
333. अपना मस्तक और अपना हृदय सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही झुका रहना चाहिए ।
334. तीनों लोकों का एक साथ कल्याण करने के लिए प्रभु की सिर्फ एक कृपा दृष्टि ही पर्याप्त है ।
335. प्रभु किसी शुभ और पवित्र कार्य के लिए हमें निमित्त बनाते हैं तो इसे प्रभु की हम पर बहुत बड़ी कृपा और अनुग्रह के रूप में देखना चाहिए ।
336. प्रभु से सदैव भक्ति का दान मस्तक झुकाकर और हृदय द्रवित करके लिया जाता है ।
337. जब धरती माता में बीज बोया जाता है तो उसे उघाड़ा नहीं रखा जाता और उसे मिट्टी से ढ़क दिया जाता है ताकि वह अंकुरित हो सके । इसी तरह भक्ति साधन तभी परिपक्व होता है जब हम उसे संसार से ढ़क कर रखते हैं ।
338. भक्ति का बीज जीवन में पड़े तो उसे संसार की कीर्ति की हवा नहीं लगने देनी चाहिए नहीं तो वह फलेगा नहीं । ठीक वैसे ही जैसे किसान बीज डालता है धरती माता पर और उसे ढ़क देता है मिट्टी से जिससे हवा न लगे क्योंकि हवा लगने पर वह बीज अंकुरित नहीं होगा ।
339. सच्ची भक्ति करने वाला व्यक्ति स्वयं को और स्वयं की भक्ति को संसार से छिपाकर रखता है ।
340. भक्तों की यह भावना होती है कि उसमें जो भी गुण हैं वह सब प्रभु के कारण हैं और उनमें जो अवगुण हैं वह सब उसके स्वयं के कारण हैं ।
341. संसार में जितना शुभ, जितना मंगलमय जो कुछ भी हमें दिखता है वह सब प्रभु की कृपा का ही फल होता है ।
342. जीव के पास तो केवल अपूर्णता है । पूर्णता तो केवल और केवल प्रभु के पास ही है ।
343. यह प्रभु का हमारे ऊपर अनुग्रह होता है और प्रभु की असीम कृपा होती है जो हमारा मन प्रभु की भक्ति के अनुकूल बनता है ।
344. प्रभु का अनुग्रह और प्रभु की कृपा मस्तक झुकाकर जीवन में स्वीकार करनी चाहिए ।
345. मन की वाणी सीधे प्रभु के श्रीकानों में पहुँच जाती है । हम मंदिर में वाणी से प्रभु की स्तुति करते हैं और मन से मौन रहते हैं । हम अपने मन को उस स्तुति में शामिल नहीं कर पाते इसलिए वह स्तुति प्रभु तक नहीं पहुँचती ।
346. प्रभु को कुछ भी कहने, सुनने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु अंतर्यामी हैं ।
347. प्रभु अपने भक्तों की विनती पर उनके कष्ट हरने आते हैं और ऐसा करके अपने भक्तों का मान बढ़ाते हैं ।
348. भक्ति ही जीवन में यह संदेशा लाती है कि एक दिन जीवन में प्रभु जरूर आएंगे ।
349. प्रभु हमारे भीतर की बात को जानने वाले और सुनने वाले हैं ।
350. हमारा मन मंदिर हो जाए तो यह हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है ।
351. प्रभु के गुणानुवाद का हमारे जीवन में संकल्प होना चाहिए ।
352. प्रभु अपने भक्तों का परमार्थ कभी भी बिगड़ने नहीं देते ।
353. अपने हृदय को मंदिर बनाना चाहिए ताकि प्रेम से प्रभु उस हृदय में विराजमान हो जाएं ।
354. भक्त की भावना का पलड़ा प्रभु की दृष्टि में सदैव ही भारी रहता है ।
355. मन को प्रभु की भक्ति में ही स्थिर करना चाहिए ।
356. सच्ची भक्ति का परमानंद क्या है यह तो सच्ची निष्काम भक्ति करने वाला ही जानता है ।
357. प्रभु की सेवा की चिंता भी की जाए तो भी वह प्रभु चिंतन का ही फल देती है ।
358. एक प्रभु ही तो हैं जो बिना बोले हमारे मन की पीड़ा को और मन की चिंता को जानते हैं ।
359. जीवन में मांगना पड़े तो मांगना उन्हीं प्रभु से चाहिए जो सदैव खुशी से दें और कभी किसी से भी अपने किए उपकार को न कहें ।
360. जन्म-जन्म से जीव याचक बनकर प्रभु के द्वार जाता ही रहता है और प्रभु उसे देते ही रहते हैं । जरा कल्पना करें कि हमारे द्वार पर रोज-रोज कोई भिखारी आने लग जाए तो कुछ दिन बाद हम उसे वस्तु की जगह गाली देंगे ।
361. एक मार्ग अगर संसार की तरफ जाता है और दूसरा प्रभु की तरफ जाता है तो बिना सोचे प्रभु की तरफ जाने वाले मार्ग को ही पकड़ना चाहिए ।
362. भक्त गिरे या भक्त डूब जाए तो इससे प्रभु का अपयश होता है । इसलिए प्रभु ऐसा कभी नहीं होने देते ।
363. प्रभु का नाम लेने वाला कभी नहीं डूब सकता । श्री भक्तमाल में कथा आती है कि एक भक्त ने प्रभु का नाम लेकर श्री जगन्नाथपुरीजी के सागर में छलांग लगा दी । प्रभु दौड़कर आए और उसे बचाया और उसे अपने महल में लाकर उसकी सात दिन सेवा की । फिर प्रभु ने कहा कि अब वापस जाओ । भक्त ने वापस जाने से यह कहकर मना किया और कहा कि अब आप मिल गए तो अब वापस संसार में क्यों भेज रहे हैं । प्रभु ने जो जवाब दिया वह बड़ा मार्मिक है । प्रभु ने कहा कि मैं इसलिए भेज रहा हूँ कि संसार वाले देखें कि तुम बच गए क्योंकि तुम मेरा नाम लेकर सागर में कूदे थे अन्यथा अपयश मेरे नाम का होगा । प्रभु ने फिर आगे कहा कि मेरा नाम लेने वाला तो भवसागर में भी नहीं डूबता तो फिर संसार के सागर में अगर तुम डूब गए तो मेरा बड़ा अपयश होगा ।
364. भक्तों को प्रभु संभालते हैं । उनका कभी भी और किसी भी परिस्थिति में प्रभु पतन नहीं होने देते ।
365. प्रभु को सबसे प्रिय भक्त का घर होता है जिसे वे अपना ही मानते हैं ।
366. प्रभु सिर्फ भक्तों के निकट जाकर ही सुखी होते हैं ।
367. जो हमारे घर के श्री ठाकुरबाड़ी में विराजे हैं वे ही पूर्ण परमेश्वर हैं । उन्हें कभी अपूर्णता के भाव से नहीं देखना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि यहाँ तो प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई, आठों याम सेवा नहीं होती जैसे मंदिर में होती है । इसलिए यह भाव कभी नहीं लाए कि घर के श्री ठाकुरबाड़ी में प्रभु पूर्ण रूप से विराजमान नहीं हैं ।
368. प्रभु समस्त चराचर के पालनहार हैं ।
369. हमें प्रभु के आगे अबोध बालक जैसा और अज्ञानी बनकर ही रहना चाहिए ।
370. हम प्रभु की कृपा से ही किंचित प्रभु को जान सकते हैं ।
371. प्रभु की प्रतिमा में सदैव भगवत् बुद्धि ही रखनी चाहिए ।
372. प्रभु को सदैव यह स्वतंत्रता देनी चाहिए कि जैसी उनकी रुचि हो वैसे हमें रखें ।
373. प्रभु की इच्छा के बिना हमारे जीवन में भक्ति के क्षण आ ही नहीं सकते ।
374. बिना प्रभु अनुग्रह के भक्ति हो ही नहीं सकती । ऐसा संभव ही नहीं हो सकता कि कोई बिना प्रभु के अनुग्रह के भक्ति कर पाए ।
375. प्रभु को भक्तों के घर में रहना, मंदिर में रहने से भी ज्यादा प्रिय है क्योंकि मंदिर में भाव भावना का प्रदर्शन ज्यादा होता है ।
376. प्रभु को भक्त की कुटिया में, भक्त के आंगन में रहने में ही सच्चा सुख मिलता है, चाहे वह कुटिया या आंगन कितना भी छोटा क्यों न हो ।
377. प्रभु को भक्तों का संग सबसे ज्यादा प्रिय लगता है ।
378. प्रभु को अपने प्रिय भक्त के निकट रहकर जो आनंद मिलता है वह कहीं भी नहीं मिलता, यहाँ तक कि श्री बैकुंठजी में भी नहीं मिलता ।
379. जीवन में प्रभु सेवा के भाव को अपने अंतःकरण में स्थिर करके रखना चाहिए ।
380. अपने तन को भी प्रभु की सेवा में लगाना चाहिए और अपने मन को भी प्रभु की सेवा में लगाना चाहिए ।
381. सच्चा भक्त सदैव प्रभु के आनंद का कारण बनता है ।
382. अगर हमारी प्रभु के लिए भावना अपूर्ण भी है तो भी प्रभु उसे स्वीकार करते हैं । फिर जिस जीव की प्रभु के लिए भावना पूर्ण हो उसके तो क्या कहने, प्रभु दौड़कर उसे स्वीकार करते हैं ।
383. प्रेम प्रभु और भक्त को एक कर देता है, उन्हें दो नहीं रहने देता ।
384. भक्त और भगवान वस्तुतः एकरूप होते हैं । कहने, सुनने में दो होते हैं पर वैसे एक ही होते हैं ।
385. भक्त की मर्यादा और भक्त का धर्म है कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही बैठे, यह अलग बात है कि प्रभु प्रेम भाव के कारण उसे अपने हृदय में बैठा लेते हैं ।
386. अगर हमारे मन मंदिर में भाव है तो प्रभु वहाँ प्रत्यक्ष विराजमान होते हैं ।
387. जीवन में सभी साधन मन के भावरूपी मंदिर का निर्माण करने के लिए ही होते हैं ।
388. श्रद्धा की ईंट और भाव का चूना इसी को जोड़कर प्रभु के लिए हृदय में भावरूपी मंदिर का निर्माण किया जाता है ।
389. भक्तों के चरित्र सुनने से भगवान में प्रीति होती है ।
390. श्री भक्तमाल कथा के प्रमुख श्रोता तो प्रभु ही होते हैं । प्रभु स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होकर भक्तों की कथा का श्रवण करते हैं ।
391. यह सिद्धांत है कि भक्ति कभी भी निष्फल नहीं जा सकती ।
392. अन्य जितने भी साधन हैं वे पुण्य की प्राप्ति करवाते हैं पर भक्ति ही एकमात्र ऐसा साधन है जो प्रभु की प्राप्ति करवाती है ।
393. भक्ति भाव प्रधान साधन है । भाव बिना भक्ति नहीं होती ।
394. जीवन में परमानंद पाएंगे तो केवल और केवल भक्ति से ही पाएंगे ।
395. सत्संग हमारा मन प्रभु में लगाकर संसार का हमारा मोह नष्ट कर देती है ।
396. सत्संग श्रीहरि रूपी धन हमारे हृदय में भरकर हमारे हृदय से संसार के आकर्षण को छुड़ा देती है ।
397. सत्संग की चोट हमारे हृदय में बसे संसार को मार देती है ।
398. देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी भी श्री रामचरितमानसजी में प्रभु श्री रामजी से भक्ति और सत्संग निरंतर मिलती रहे यही कामना करते हैं ।
399. सत्संग जीवन में मिल जाए, सत्संग का लोभ मन में निरंतर बना रहे और सत्संग की प्रक्रिया जीवन में स्थिर हो जाए, यही प्रभु की कृपा जीवन में हमें प्रभु से मांगनी चाहिए ।
400. कोई भी हमारी चेष्टा हमें संसार की तरफ नहीं ले जाए, इस बात का सदैव हमें ध्यान रखना चाहिए ।
401. मन और चित्त से जितना ज्यादा हो सके प्रभु के निकट जाना चाहिए ।
402. भक्ति का सच्चा लक्षण यह है जितनी भक्ति हम करेंगे उतनी अधिक भक्ति करने की चेष्टा हमारे जीवन में बढ़ती जाएगी ।
403. जैसे एक दिन हमने दर्पण साफ किया फिर हवा के साथ बहने वाली धूल उस दर्पण पर जा चिपकती है । इसी तरह मन के दर्पण पर संसार की धूल मायारूपी वायु के कारण चिपक जाती है । इसलिए मनरूपी दर्पण को सत्संगरूपी कपड़े से रोज साफ करना पड़ता है ।
404. मन का दर्पण जब सत्संग से रोज स्वच्छ होता जाएगा तो एक दिन उसमें प्रभु का बिम्ब दिखेगा और दिखने लगेगा ।
405. प्रभु की कथा में अनुराग हो जाए, प्रभु का नाम और कीर्तन प्रिय लगने लगे तभी मानना चाहिए कि जीवन में प्रभु की सच्ची कृपा हुई है ।
406. भक्ति जीव के किसी पुरुषार्थ का परिणाम नहीं होती, भक्ति तो केवल और केवल प्रभु कृपा का ही परम फल होती है ।
407. प्रभु की कृपा पाने की पात्रता जीवन में हमें लानी चाहिए ।
408. धन, ऐश्वर्य, ज्ञान, पराक्रम, वैभव सब कुछ अर्जित करने के बाद भी मन अभावग्रस्त रहता है, अपूर्ण रहता है । मन को सच्चा विश्राम केवल प्रभु की भक्ति करने पर ही मिलता है ।
409. जीवन का उद्देश्य और परम पुरुषार्थ प्रभु की भक्ति ही है ।
410. संसार के सभी सुख भोगकर भी विश्राम का वह अंश भी नहीं मिल पाएगा जो पूर्ण विश्राम भक्ति करने से मिलता है ।
411. संसार के भोग हमें शरीर और मन के रोग ही देते हैं ।
412. प्रभु के श्रीकमलचरणों को ही अपने हृदय में धारण करना चाहिए ।
413. प्रभु को दृढ़ता से अपने मन मंदिर में बैठा लेना चाहिए और अपनी प्रेम की डोर से अपने आपको प्रभु के श्रीकमलचरणों में बांध लेना चाहिए ।
414. भक्ति हमारे हृदय के कामना के बीज को ही नष्ट कर देती है । भक्ति के कारण हमारे हृदय में कामना का बीज रहता ही नहीं और अंकुरित ही नहीं होता ।
415. प्रभु को निश्छल और निष्काम भक्ति ही सबसे प्रिय होती है ।
416. प्रभु ने जब हिरण्यकशिपु का वध किया और श्री प्रह्लादजी को अपनी गोद में बैठाया तो प्रभु ने श्री प्रह्लादजी से कहा कि मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ । श्री प्रह्लादजी ने कहा कि मुझे आपकी गोद मिल गई इससे अधिक मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । फिर भी प्रभु ने कहा कि तुम्हें मांगना पड़ेगा क्योंकि तुम्हें देने की मुझे आज इच्छा हो रही है । तब श्री प्रह्लादजी ने मांगा कि मैं जीव हूँ और मुझे मेरा भरोसा नहीं कि माया मुझ पर प्रभाव नहीं डालेगी । इसलिए मुझे यह वर दें कि मेरे जीवन में जो भी कामना हो या तो वह नष्ट हो जाए और या वह आपके लिए ही हो । सूत्र यह कि प्रभु के अतिरिक्त और किसी विषय की कामना हमारे भीतर होनी ही नहीं चाहिए ।
417. भक्ति कामना को नष्ट नहीं करती बल्कि उसका रूपांतर कर देती है । संसार की कामना की जगह प्रभु की कामना हृदय में जागृत कर देती है ।
418. जैसे कालिया नाग के अनेक फन थे वैसे ही हमारे मन में भी अनेक कामनाएं होती हैं । मन किस-किस कामना से विषैला हो जाएगा यह हमें पता नहीं होता । जैसे प्रभु ने कालिया को मारा नहीं ऐसे ही भक्ति कामना को मारती नहीं । जैसे प्रभु ने कालिया के फन पर अपने श्रीकमलचरण के चिह्न अंकित कर दिए वैसे ही भक्ति भी हमारे मन को प्रभु में लगाकर प्रभु की प्रीत को हमारे मन में अंकित कर देती है ।
419. कामना रहे मन में पर वह कामना संसार और विषय की न होकर प्रभु की हो तो वह कामना भी हमारा कल्याण करती है ।
420. हमारी कामना की आँख संसार की ओर न देखकर प्रभु की ओर देखें तभी हमारा मंगल होगा ।
421. हमारे जीवन की कामना की डोर प्रभु के श्रीकमलचरणों से बंध जाए तभी हमारा मानव जीवन सफल माना जाएगा ।
422. हमारी बुद्धि सत्संग में स्थिर हो जाए और सत्संग हमारी बुद्धि में स्थिर हो जाए तो हमारा कल्याण निश्चित हो जाएगा ।
423. सत्संग हमारे हृदय में प्रभु भक्ति के बीज डाल देती है ।
424. जो भी जीवन में मिला है उसे प्रभु की कृपा प्रसादी मानकर सिर माथे से लगाकर स्वीकार करना चाहिए ।
425. मन में प्रभु को पाने की लालसा प्रबल होनी चाहिए ।
426. प्रभु जब और जहाँ चाहेंगे हमारे लिए अपने तक पहुँचने का मार्ग बना देंगे ।
427. हमें संसार के लगते रहना चाहिए और हृदय से केवल प्रभु के बन जाना चाहिए । पर हम उल्टा करते हैं । हम माला, तिलक लगाकर लगते प्रभु के हैं पर बन जाते संसार के हैं ।
428. हमारे मन में संसार की ही कामना बसती है जबकि कामना केवल प्रभु प्राप्ति की ही होनी चाहिए ।
429. हमारे मन में धन की, मान की, सम्मान की, पद की, प्रतिष्ठा की, बड़ाई की, आत्म प्रतिष्ठा की कामना ही होती है जबकि कामना केवल और केवल प्रभु प्राप्ति की ही होनी चाहिए ।
430. हमारी दृष्टि सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों पर ही टिकी रहनी चाहिए ।
431. प्रतिकूलता देकर प्रभु ने हमें अपने पास बुलाने का अवसर दिया है । इस अवसर को कभी चूकना नहीं चाहिए ।
432. प्रतिकूलता जीवन में हो तो भक्ति की बेल बहुत जल्दी फलती-फूलती है ।
433. जीवन में इतनी अनुकूलता हो कि सुबह से रात्रि तक हम बिना विघ्न भजन कर सकें तो भी भजन कहाँ हो पाता है क्योंकि जीवन की अनुकूलता हमें भजन करने ही नहीं देती ।
434. जीवन में भजन केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव होता है ।
435. सर्वसमर्थ प्रभु हर परिस्थिति में हमारे संग हैं, इस बात का जीवन में सदैव विश्वास रखना चाहिए ।
436. जो भक्त अपनी दृष्टि में प्रभु को रखता है उसे जीवन की कोई भी प्रतिकूलता प्रभावित नहीं कर पाती ।
437. ज्ञान निष्फल हो सकता है, कर्म निष्फल हो सकता है पर भक्ति कभी भी निष्फल नहीं हो सकती ।
438. भगवान कभी भी भक्त को लांघकर आगे नहीं बढ़ते क्योंकि यह उनका नियम है ।
439. भक्ति का जो सच्चा साधन करता है उसके जीवन में सदा ज्यादा साधन करने की ललक होती है । उसे अभाव महसूस होता रहता है कि ज्यादा साधन कर ले, ज्यादा भक्ति कर ले ।
440. जिस दिन लगे कि हमने बहुत कथा सुन ली, बहुत माला फेर ली तो समझना चाहिए कि उस दिन हमने कथा सुनी ही नहीं, माला जपी ही नहीं क्योंकि तृप्ति भक्ति का परिणाम कभी नहीं हो सकती । भक्ति में सदैव और करने की लालसा और अतृप्ति बनी रहती है ।
441. सच्चा भजन और अधिक भजन करने की भूख को सदा बढ़ाता है ।
442. प्रभु कथा में मन न लगे तो हमें और अधिक कथा सुननी चाहिए क्योंकि कथा ही कथा में मन लगाने की विधि है ।
443. भजन में मन न लगे तो अधिक भजन करना चाहिए । ऐसा करने से भजन में मन लगना आरंभ हो जाएगा ।
444. जिस दिन माला करने की इच्छा न हो उस दिन दोगुनी माला करनी चाहिए क्योंकि मन को उस दिन माला की बहुत अधिक आवश्यकता है । ऐसा इसलिए क्योंकि हमारा मन उस दिन प्रभु से विमुख हो गया है ।
445. जीवन में आने वाली विपत्ति यह सूचक है कि हमारा मन भजन में नहीं लग रहा ।
446. जब मन प्रभु में नहीं लगे तो सोचना चाहिए कि कौन-सा ऐसा पाप हमसे हुआ है जिस कारण हमारा मन प्रभु के सन्मुख नहीं जा पा रहा ।
447. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि हमारे संचित पापों के कारण ही श्रीहरि चर्चा जीवन में हमें नहीं सुहाती ।
448. यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि संसार से हमने खूब धोखा खाया है, संसार से खूब पीड़ा और अपमान हमें मिला है, फिर भी जन्मों-जन्मों से हमारा मन संसार में ही लगता है ।
449. संसार ने हमें कटुता का अनुभव अवश्य जीवन में दिया है पर फिर भी हमारा दुर्भाग्य देखें कि हमारा मन प्रभु में नहीं लग कर संसार में ही लगता है ।
450. सोने की डिबिया में भी अगर विष पड़ा हो तो भी वह खाने योग्य नहीं बन जाता । इसी तरह संसार कितना भी सुंदर हमें क्यों न लगे फिर भी वह भोगने योग्य नहीं होता ।
451. कैसी विडंबना है कि संसार में कितनी आसानी से हमारा मन लगता है, कभी इसके लिए प्रयास ही नहीं करना पड़ता ।
452. मन बहाने बनाकर हमें प्रभु के समीप नहीं जाने देता । मन बहाना बनाता है कि आज समय नहीं मिला इसलिए मंदिर नहीं जा पाए ।
453. अनेक जन्मों के पुण्य के संचित होने पर ही जीवन में प्रभु कृपा करते हैं और भक्ति जीवन में आती है ।
454. भक्ति आने पर समस्त सद्गुण एक-एक करके हमारे भीतर आने लगते हैं क्योंकि भक्ति सकल गुणों की खान है ।
455. केवल भक्ति ही जीव को भवसागर से पार करने के लिए पर्याप्त है । भक्ति को अन्य किसी साधन के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
456. प्रभु का भक्त भक्ति के कारण करोड़ों में पहचाना जाता है । उसको पहचान के लिए किसी नाम और काम की आवश्यकता नहीं होती ।
457. हमारे हाथ में दिनभर माला घूमती रहती है और हमारा मन दिनभर संसार में घूमता रहता है ।
458. हमारे हृदय की भक्ति प्रभु के हृदय तक जाती है यानी वह प्रभु के हृदय को स्पर्श करती है ।
459. प्रभु के गुणानुवाद करने और सुनने में हमारी रति और प्रीति होनी चाहिए ।
460. संसारी का संग करेंगे तो वह हमारे मन में संसार को बसा देगा । सत्संग का संग करेंगे तो सत्संग हमारे मन में प्रभु को विराजमान कर देगा ।
461. अपने भक्ति के भाव को संसार के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए । अपने भक्ति के भाव को संसार से छिपाकर ही रखना चाहिए ।
462. अगर प्रभु कथा में सामूहिक रूप से बैठे होने पर भाव से आंसू आ जाए तो उन्हें पोंछकर छुपा लेना चाहिए । एकांत में प्रभु प्रेम में आंसू आए तो उन्हें बहने देना चाहिए ।
463. प्रभु के लिए भाव होना हमारा सबसे अनमोल धन होता है । इसलिए प्रभु के लिए भाव को संसार से छिपाकर और बचाकर ही रखना है ।
464. यह संचित पुण्यों के प्रभाव का फल होता है कि प्रभु के बारे में श्रवण करते हुए आँखें भीग जाएं, प्रभु का गुणानुवाद करते हुए कंठ अवरुद्ध हो जाए । इस भाव का दो कौड़ी के संसार से भक्त रूप में सम्मान पाने के लिए प्रदर्शन नहीं करना चाहिए ।
465. भक्ति में ही हमारे मन को सच्चा विश्राम मिलता है ।
466. यह दुराग्रह नहीं रखना चाहिए कि जैसा हम चाहें प्रभु वैसा करें । यह आग्रह जीवन में प्रभु से रखना चाहिए कि जैसा प्रभु चाहें वैसा करें ।
467. प्रभु को हम पर कृपा करने के लिए न तो हमें छूने की आवश्यकता है और न ही हमारी तरफ देखने की आवश्यकता है । उनका मात्र एक संकल्प ही पर्याप्त है ।
468. प्रभु का मात्र एक ही संकल्प हमारे कल्याण का कारण और हमारे कल्याण का हेतु बन जाता है ।
469. प्रभु की रजा में ही सदैव राजी होकर जीवन जीना चाहिए । यही जीवन जीने का सबसे सर्वश्रेष्ठ तरीका है ।
470. जिसने भक्ति का रस पिया है वही जानता है कि इतने परमानंद का एक अंश भी अन्य कहीं उपलब्ध नहीं हो सकता ।
471. जितना आनंद प्रभु के सानिध्य में है उतना कहीं अन्यत्र नहीं है, जिसने इस तथ्य का अनुभव किया है वही इसे जानता और मानता है ।
472. प्रभु के श्रीकमलचरणों में रहेंगे तो ही जीवन में गौरव और गरिमा रहेगी ।
473. हम बड़े होकर, श्रेष्ठ होकर प्रभु की माया से हार जाएंगे । जब हम छोटे हो जाते हैं और हमारी दीनता देखकर प्रभु हमें अपना लेते हैं तो फिर माया का प्रभाव हमारे ऊपर से समाप्त हो जाता है ।
474. जीवन में सदा भजन बना रहे और भक्ति बढ़ती रहे, यही हमारी प्रभु से कामना होनी चाहिए ।
475. प्रभु भजन का लोभ बना रहे, प्रभु भजन की लालसा जीवन में सदा बनी रहे तभी हमारा कल्याण सुनिश्चित होगा ।
476. हमारे मन को प्रभु प्राप्ति की आशा सदैव करनी चाहिए । प्रभु प्राप्ति की आशा जीवन में सदा कायम रहनी चाहिए ।
477. भक्ति हमारे मन और प्राण को संसार के ताप से शीतलता प्रदान करती है ।
478. जीवन में कितना भी अभाव हो, प्रतिकूलता हो पर प्रभु सानिध्य में ऐसा आनंद है जो भक्तों को सदैव प्रफुल्लित रखता है ।
479. भक्ति विषयी जीव का भी मन निर्मल कर देती है ।
480. जो स्वयं प्रभु को जपे और दूसरों को भी प्रेरित करके प्रभु का जाप कराए वही संत है फिर चाहे वह किसी भी कुल, जाति, धर्म या पंथ का क्यों न हो ।
481. जो अपने मन, वचन और कर्म से प्रभु पर ही आश्रित हो जाता है वही सच्चा संत कहलाता है ।
482. संसार के सभी सुखों को एक पलड़े में रख दें और सच्चे मन से लिया प्रभु के एक नाम का आनंद दूसरे पलड़े में रख दें तो प्रभु नाम रूपी पलड़ा सदैव भारी रहेगा ।
483. भक्ति के अलावा इस संसार में प्राप्त करने योग्य कुछ भी नहीं है ।
484. भक्ति पाकर ही जीवन पूर्ण होता है । भक्ति के अभाव में जीवन अपूर्ण ही रहता है ।
485. जो प्रभु से न जुड़ी हो वह भावना प्रेम कहलाने योग्य नहीं है ।
486. हमारी भावना केवल प्रभु से ही जुड़नी चाहिए ।
487. प्रभु प्रेम हमें फिर किसी और का नहीं रहने देता ।
488. सच्चा सत्संग हमारे मन को प्रभु का बोध करा कर हमारे मन को प्रभु में लगा देता है ।
489. जब हमने जान लिया कि हमारे हाथ में जो वस्तु है वह एकदम अशुद्ध है तो कितनी भी भूख लगने पर एक सात्विक व्यक्ति उसे खाएगा नहीं, उसी प्रकार भक्त के लिए संसार उपलब्ध होने पर भी भक्त संसार में नहीं रमता ।
490. प्रभु कृपा करते हैं तो हमारी सात्विक बुद्धि जागृत कर देते हैं और हमें बोध हो जाता है कि संसार फंसाने वाला है और भक्ति तारने वाली है ।
491. उसी के मन में भक्ति का संकल्प जगेगा जो प्रभु के मन को भा गया है ।
492. हमारे भाव में प्रभु आएं उससे भी बड़ा लाभ तब होता है जब प्रभु के भाव में हम आ जाएं ।
493. प्रभु के मन में भक्त की सच्ची और निष्काम भक्ति देखकर संकल्प जगता है और प्रभु उस जीव को अपनी तरफ बढ़ने देते हैं ।
494. प्रभु जिसे संसार की भीड़ से चुन लेते हैं वही जीव प्रभु की भक्ति कर पाता है ।
495. हमारे प्राण केवल प्रभु के लिए ही व्याकुल होने चाहिए ।
496. संसार से अपनी बड़ाई सुनना एक बुरी आदत है । इसका जीवन से त्याग होना चाहिए ।
497. आदत हमें अपना दास बना देती है और स्वतंत्र नहीं रहने देती बल्कि अपने पराधीन कर देती है ।
498. जो मस्तक झुकाकर प्रभु की कथा सुनता है वह सिर उठाकर ज्ञानी बनकर अभिमान से कथा कहने वाले से अधिक श्रेष्ठ होता है ।
499. जो मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकता है वही मस्तक श्रेष्ठ होता है ।
500. प्रभु के श्रीकमलचरण हो और हमारा मस्तक सदा उनके समक्ष झुका हो, यही कल्पना जीवन में सदैव करनी चाहिए तभी एक दिन यह साकार होगी ।
501. संसार की बुरी आदतें हमारे समक्ष पहले माथा झुकाकर आती हैं और फिर हमारे माथे पर ही चढ़ बैठती हैं ।
502. बुरी आदतों को पालने में पहले तो बहुत मजा आता है पर अंत में उसकी बहुत बड़ी सजा मिलती है ।
503. संसार में तो क्लेश-ही-क्लेश है, परमानंद तो केवल और केवल प्रभु सानिध्य में ही है ।
504. प्रभु के सानिध्य में रहकर भक्त बड़े आनंद से अपना जीवन जीता है ।
505. प्रभु मिलन की लालसा भी जीवन में जग गई तो वह लालसा भी हमारा कल्याण करा देगी ।
506. जब भक्ति जीवन में आती है तो भक्ति संसार को जीवन में नहीं रहने देती ।
507. संसार को छोड़ें मत, बस भक्ति को जीवन में लाएं । ऐसा करने पर संसार अपने आप छूट जाएगा जैसे पक जाने के बाद वृक्ष से फल अपने आप छूट जाता है ।
508. भगवत रस मिल जाए तो संसार का रस तत्काल छूट जाता है, यह सिद्धांत है ।
509. संसार को छोड़ने के लिए कुछ-न-कुछ तो पकड़ना पड़ेगा । प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ लें तो संसार स्वतः ही छूट जाएगा ।
510. भक्ति जब जीवन में आती है तो जीवन को आनंदित कर देती है ।
511. प्रभु जिनके जीवन में होते हैं उनके जीवन में नित्य उत्सव-ही-उत्सव होता है ।
512. भक्ति की प्रगाढ़ता ही हमें आनंद प्रदान करती है ।
513. भक्ति में ही मन की शांति है और मन का उल्लास है ।
514. प्रभु के सद्गुण परछाई के रूप में भक्तों के जीवन में संचय हो जाते हैं ।
515. प्रभु का नाम जहाज स्वरूप है, जो उस पर चढ़ता है वह भवसागर से पार उतर जाता है ।
516. कहते, सुनते, गुनगुनाते, रटते, जपते और गाते, कैसे भी हो प्रभु के नाम को जीवन में पकड़ कर रखना चाहिए ।
517. प्रभु के नाम को जीवन में ग्रहण करना चाहिए, जीवन में धारण करना चाहिए ।
518. प्रभु की असीम कृपा होती है तब प्रभु जीवन में भक्ति देते हैं तो ही जीवन से बड़प्पन का भाव और अहंकार छूटता है ।
519. एकलव्य को श्री द्रोणाचार्यजी ने शिष्य नहीं माना पर एकलव्य ने श्री द्रोणाचार्यजी को अपना गुरू मान लिया और बिना दिए ही श्रेष्‍ठतम विद्या प्राप्त कर ली ।
520. अपना मन, वचन और कर्म प्रभु को समर्पित करना चाहिए ।
521. कर्म संसार को दृष्टि में रखकर नहीं बल्कि प्रभु को दृष्टि में रखकर करना चाहिए । हमें यह सोचना चाहिए कि हमारे इस कर्म से प्रभु को कैसा लगेगा, इस तथ्य का सदैव हमें भान होना चाहिए ।
522. जीवन के प्रत्येक कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करें ।
523. प्रभु की कथा प्रभु के सद्गुणों से हमारा परिचय कराती है । हम प्रभु की करुणा, दया, कृपा से अवगत होते हैं । इससे प्रभु के लिए हमारे हृदय में प्रेम जागृत होता है ।
524. संसार के व्यवहार में, अपने स्वार्थ सिद्धि के उपक्रम में अपना अनमोल मनुष्य जीवन व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए ।
525. भक्ति के बीज को प्रभु कृपा का ही जल मिलेगा, प्रभु अनुग्रह की ही वायु मिलेगी तभी वह फलीभूत होकर जीवन में हमारा मंगल करेगा । ऐसा होगा इसका दृढ़ विश्वास हमें अपने मन में रखना चाहिए ।
526. प्रभु के लिए की गई कोई छोटी-से-छोटी क्रिया भी कभी निष्फल नहीं जाती, यह अटल सिद्धांत है ।
527. हमारे मन के संकल्प में प्रभु आ जाएं इसलिए जीवन में प्रभु कथा निरंतर सुनते रहना चाहिए ।
528. भक्ति का प्रसाद जीवन में केवल और केवल प्रभु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है ।
529. प्रभु सर्वसमर्थ हैं और अंतर्यामी हैं । प्रभु जानते हैं कि उनके भक्त को कब और किस चीज की आवश्यकता है ।
530. प्रभु इतने दयालु हैं कि हमें प्रभु तक जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, प्रभु की दया चलकर हमारे तक आ जाती है ।
531. प्रभु हमारे हृदय में विराजमान हैं । इसलिए मन में जो भी बात आए उसे अपने प्रभु को कह देनी चाहिए ।
532. सद्गुरु नहीं बनाया जाता बल्कि सद्गुरुदेव का शिष्य बना जाता है ।
533. प्रभु को न किसी ने रोकर पाया है और न किसी ने हँसकर पाया है । जिसने भी प्रभु को पाया है उसने प्रभु का बनकर ही प्रभु को पाया है ।
534. प्रभु के लिए हमारे हृदय में जागृत प्रेम हमें प्रभु का बनने के लिए विवश कर देता है ।
535. प्रभु की कृपा को संतों ने कृपा मेघ बताया है । भक्तरूपी हृदय की भूमि जब व्याकुलता से तप जाए तो प्रभु की कृपा बरस पड़ती है, जैसे ग्रीष्म ऋतु में धरती तपने पर मेघ बरसते हैं ।
536. भक्ति हमारे अन्तःकरण की शुद्धि कर देती है ।
537. प्रभु अपनी एकरूपता अपने भक्तों के साथ स्थापित करते हैं ।
538. भक्ति में संसार को बीच में नहीं आने देना चाहिए, नहीं तो भक्ति सिद्ध नहीं होगी और अपूर्ण ही रह जाएगी ।
539. कोई भी कर्म करते समय दृष्टि में केवल प्रभु को ही रखना चाहिए ।
540. हमें कर्म यह सोचकर और इस उद्देश्य से ही करना चाहिए कि इस कर्म से प्रभु प्रसन्न होंगे ।
541. प्रभु तक पहुँचने के लिए भी कर्म है और प्रभु से दूर हो जाने के लिए भी कर्म है । इसलिए कर्म का चुनाव सोच विचार करके करना चाहिए । वही कर्म करने चाहिए जिससे हम प्रभु को प्रसन्न कर सकें और प्रभु तक पहुँच सकें ।
542. जीव के पास कर्म के चुनाव का अधिकार है । इस अधिकार का बहुत सोच समझकर उपयोग करना चाहिए जिससे हम वही कर्म चुनें जो प्रभु की प्रसन्नता का कारण बने ।
543. जो प्रभु सत्यस्वरूप हैं केवल उन्हीं का मन, वचन और कर्म से संग किया जाना चाहिए । सत्संग हमें यही सिखाता है ।
544. प्रभु के बारे में श्रवण करने को मिले तो इसे प्रभु की अहेतु की कृपा माननी चाहिए ।
545. जो हमने प्रभु के बारे में सुना उसका चिंतन भी करना चाहिए । केवल सुनना नहीं, सुनने के बाद चिंतन करना भी आवश्यक है ।
546. प्रभु का गुणगान सुनने से हमारी बुद्धि का विवेक जग जाता है ।
547. प्रभु की कथा का श्रवण प्रभु के लिए श्रद्धा बढ़ाने के उद्देश्य से ही करना चाहिए ।
548. श्रवण वही सार्थक है जो प्रभु के लिए हमारे भाव और हमारी भावना को प्रगाढ़ कर दे ।
549. प्रभु वैसे तो सबको सदैव देखते हैं पर अपने भक्तों को कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखते हैं ।
550. प्रभु की भक्ति में जीवन को निरंतर लगाकर रखना चाहिए ।
551. भजन में मन नहीं लगे तो मन को लगाने की विधि भी यही है कि अधिक भजन करते रहिए और करते रहने से ही भजन में मन लगना प्रारंभ हो जाएगा ।
552. जन्मों से हमने संसार को भोगा है तो आज संसार ही हमें अपना लगने लगा है । इसलिए संसार भोगने के अभ्यास को छोड़कर हमें भक्ति करने का अभ्यास करना चाहिए ।
553. अभ्यास करते-करते भक्ति करने में हमारी रुचि जागृत हो जाएगी ।
554. हमारे भीतर आध्यात्मिक तत्व भरा है पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम सांसारिक तत्व को ही अपने जीवन में प्रधानता देते हैं ।
555. हमारे लिए भी प्रभु उतने ही उपलब्ध हैं जितने भक्त श्री सूरदासजी, भगवती मीराबाई और गोस्वामी श्री तुलसीदासजी के लिए थे ।
556. प्रभु ने कृपा करके हमें मानव देह दिया है । इसलिए प्रभु प्राप्ति के लिए इस मानव देह का सदुपयोग करना ही श्रेष्ठ है ।
557. प्रभु का ही हमारे साथ सनातन संबंध है पर हमें उस संबंध की विस्मृति हो गई है । भक्ति उस संबंध की स्मृति फिर से जागृत कर देती है ।
558. जीव प्रभु का नित्य दास है । यही जीव का सच्चा स्वरूप है ।
559. भक्तों के पास धन नहीं अपितु प्रभु के रूप में परमधन होता है ।
560. नित्य सत्संग से मन के दर्पण पर जमी धूल को रोज साफ करते रहना चाहिए । फिर एक दिन मन का दर्पण में प्रभु का बिम्ब हमें दिखाई देने लगेगा ।
561. यह विश्वास जीवन में दृढ़ रखें कि इसी जन्म में हमें प्रभु मिलेंगे । हमें प्रभु की प्राप्ति इसी जन्म में करनी है यह पक्का विश्वास जीवन में बनाकर रखना चाहिए और इसी दिशा में हमारा प्रयास भी होना चाहिए ।
562. संसार को छोड़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए अपितु प्रभु को पकड़ने का प्रयास जीवन में करना चाहिए । ऐसा करने पर संसार स्वतः ही छूट जाएगा ।
563. जिह्वा से प्रभु का नाम लेने की आदत डालें, कान से प्रभु का गुणानुवाद सुनने की आदत डालें और हाथों से प्रभु की सेवा करने की आदत डालें ।
564. जो भी कर्म करें प्रभु को दृष्टि में रखकर ही करना चाहिए ।
565. यह शाश्वत सिद्धांत है कि भक्ति कभी भी निष्फल नहीं हो सकती ।
566. जहाँ से भी शुभ विचार, सद्विचार मिले जिससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति हो सके तो उसे ग्रहण करना चाहिए ।
567. ऐसा नहीं है कि भक्त ही प्रभु से मिलने के लिए व्याकुल होता है । प्रभु भी बहुत व्याकुल होते हैं अपने प्रिय भक्तों से मिलने के लिए । संतों ने जीव की व्याकुलता को बिंदु बताया है और प्रभु की व्याकुलता को सिंधु बताया है । इससे ही पता चलता है कि प्रभु जीव से मिलने के लिए कितने गुना ज्यादा व्याकुल होते हैं ।
568. प्रभु के हृदय में अगर उस जीव से मिलने की इच्छा न हो तो जीव के हृदय में कभी प्रभु मिलन की इच्छा जग ही नहीं सकती । सूत्र यह कि अगर हमारे मन में प्रभु मिलन की इच्छा जगी है तो यह निश्चित मानना चाहिए कि प्रभु के हृदय में भी हमसे मिलने की इच्छा है तभी हमारे मन में ऐसी इच्छा जागृत हुई है ।
569. प्रभु जब कृपा करते हैं तो भक्त की बांह पकड़ उसे संसार के कुचक्र से अपनी ओर खींच लेते हैं ।
570. भक्ति का परमानंद प्रभु की इच्छा के बिना जीव को कभी प्राप्त नहीं हो सकता । इसलिए अगर हमें भक्ति में आनंद आने लगा है तो इसे अपने ऊपर प्रभु की असीम कृपा माननी चाहिए ।
571. प्रभु तक पहुँचने के मार्ग के बीच अगर कोई प्रतिकूलता भी आए तो उसे सहर्ष झेलना चाहिए ।
572. प्रभु अपनी भक्ति में रुलाते तो बहुत हैं पर प्रभु हमारे एक-एक आंसू का परमानंद से भरा मोल देना भी जानते हैं और ऐसा करने से कभी चूकते नहीं ।
573. माया हमें बार-बार भक्ति के मार्ग से विमुख करने का प्रयास करेगी पर अगर हम अपनी भक्ति कायम रखेंगे तो प्रभु को इसी जन्म में पा जाएंगे ।
574. भक्त के जीवन की हर प्रतिकूलता में भी प्रभु की कृपा छुपी हुई होती है जिसको एक भक्त ही देख पाता है ।
575. अपनी दृष्टि को हमें ऐसी बनानी चाहिए कि प्रभु का हर विग्रह हमें कृपा विग्रह के रूप में ही दिखे ।
576. प्रभु की कृपा का ही यह प्रतिफल होता है कि हमें जीवन में प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है ।
577. संसार हमारे भीतर आँखों और कानों के माध्यम से जाता है । इसलिए हमारी आँखों को और कानों को प्रभु को समर्पित करके रखना चाहिए ।
578. जीवन में सद्विचार हमारी बुद्धि में प्रभु की कृपा से ही स्थिर होते हैं ।
579. हमारे तन और मन को प्रभु की सेवा में ही लगाकर रखना चाहिए ।
580. मनुष्य जीवन का इससे सर्वोत्तम लाभ और कुछ नहीं हो सकता कि जीवन में प्रभु की निष्काम भक्ति हो ।
581. प्रभु भक्ति एक ऐसी हुंडी है जिसका भरपूर मोल परमानंद और प्रभु सानिध्य के रूप में प्रभु इसी जन्म में सदैव जीव को देते हैं ।
582. यह शाश्वत सिद्धांत है कि जीव केवल प्रभु का ही है ।
583. यह शाश्वत सिद्धांत है कि जीव प्रभु का दास है और प्रभु का नित्य सेवक है ।
584. जीव को केवल भक्ति करने पर ही परम विश्राम और परमानंद प्राप्त हो सकता है ।
585. प्रभु से ही हमारा सनातन संबंध है इसलिए प्रभु की कथा सुनने में, प्रभु का गुणानुवाद करने में, प्रभु के दर्शन करने में हमें आनंद मिलता है । यह आनंद मिलना इस बात का प्रमाण है कि प्रभु से ही हमारा स्थाई और सनातन संबंध है । उदाहरण स्वरूप देखें कि संसार में किसी पराए के बारे में सुनने में, किसी पराए को देखने में सुख नहीं मिलता, सुख अपनों के बारे में सुनने में और अपनों को ही देखने में मिलता है ।
586. हम केवल प्रभु के ही हैं और केवल प्रभु ही हमारे हैं ।
587. संसार भी कार्य करने पर मजदूरी देता है तो फिर प्रभु की भक्ति करने पर क्या प्रभु हमें मजदूरी नहीं देंगे । प्रभु परमानंद रूपी मजदूरी जरूर देंगे ।
588. प्रभु भी लालायित रहते हैं भक्तों की भावमयी भक्ति को पाने के लिए ।
589. जब जीव प्रभु की भक्ति करता है तो प्रभु को उससे भरपूर आनंद मिलता है ।
590. भक्ति में इतनी आसक्ति हो जानी चाहिए कि बिना प्रभु की भक्ति करे हम जीवन धारण ही नहीं कर पाए ।
591. प्रभु श्री कृष्णजी बहुत लाड़ के श्रीठाकुर हैं । जितना लाड़ हम लड़ाएं उतना लाड़ लड़वाते रहते हैं । इसलिए भक्तों ने अपने प्राणों से प्रभु को लाड़ लड़ाया है ।
592. रंच मात्र प्रभु प्रेम में इतना सामर्थ्‍य होता है कि प्रभु उसके कारण अपने भक्तों से सदैव हार जाते हैं ।
593. भक्त की भक्ति का सम्मान केवल भगवान ही करते हैं । संसार कभी भक्ति का सम्मान नहीं कर सकता क्योंकि भक्ति का मोल तो केवल प्रभु को ही पता होता है ।
594. प्रभु कितने कृपालु हैं कि प्रभु की वस्तु को भी प्रभु को निवेदन करने से प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं । जो भी हमारे पास है तो सब कुछ प्रभु का ही है । संसार में कुछ भी ऐसा नहीं जो प्रभु का न हो फिर भी प्रभु की वस्तु प्रभु को भक्त निवेदन करता है तो भी कृपालु प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं ।
595. प्रभु इतने में ही रीझ जाते हैं जब उनकी ही वस्तु केवल प्रेम से भक्त उन्हें निवेदन करता है ।
596. प्रभु के दरबार में हमारी हाजिरी नित्य लगनी चाहिए ।
597. कोई दिन भी जीवन में ऐसा न जाए जिस दिन प्रभु की भक्ति हम न कर पाएं ।
598. प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु अपने भोले भक्त के भोले भाव के पकड़ में आ जाते हैं ।
599. अपने घर की ठाकुरबाड़ी में प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा नहीं बल्कि प्रेम प्रतिष्ठा करनी चाहिए । प्रभु से प्रेम करने से अपने घर के ठाकुरबाड़ी के प्रभु के विग्रह में स्वतः ही प्राण जागृत हो जाते हैं ।
600. जितनी जल्दी भक्ति हमें प्रभु के निकट ले जाती है उतना अन्य कोई भी साधन कभी नहीं ले जा सकता ।
601. शास्त्रों, ऋषियों और संतों ने प्रभु प्राप्ति का प्रमुख साधन केवल भक्ति को ही माना है ।
602. जिसके जीवन में प्रभु हैं उसके जीवन में नित्य आनंद और उल्लास है ।
603. जब प्रभु की भक्ति जीवन में जागृत होती है तो हमें अपने पूर्व के जीवन से घृणा होने लगती है कि कहाँ संसार के विषयों में हम पूर्व में फंसे हुए थे ।
604. हम अपना अमूल्य मानव जीवन संसार के भोगों को भोगने में कैसे व्यर्थ गंवा सकते हैं, इसका कभी हमें चिंतन करना चाहिए ।
605. कितनी करुणा करके प्रभु ने हमें मनुष्य देह दिया है और हम उसे भोगों और संग्रह में व्यर्थ गंवा रहे हैं ।
606. भक्ति सही दिशा में आगे बढ़ रही है कि नहीं इसकी निशानी यह है कि हमारे हृदय में प्रभु मिलन की लालसा कितनी बढ़ रही है ।
607. पल-पल प्रभु से मिलन की लालसा जीवन में बढ़ती चली जानी चाहिए ।
608. भक्ति जब परिपक्व होती है तो सभी वासनाएं और कामनाएं छूट जाती हैं और केवल एक प्रभु मिलन की कामना ही शेष बचती है ।
609. भक्ति का फल अगर कोई है तो वह यही है कि प्रभु मिलन की लालसा जीवन में बिलकुल प्रबल हो जाए ।
610. जीव के मन में संसार की ही इच्छा होती है । केवल भक्त के हृदय में संसार की नहीं अपितु प्रभु मिलन की इच्छा होती है ।
611. अगर सच में प्रभु मिलन की इच्छा जीवन में है तो वह जीव भक्ति के अलावा कुछ कर ही नहीं सकता क्योंकि यही प्रभु मिलन का एकमात्र उपाय है ।
612. प्रभु के निकट जाने की प्रबल इच्छा जीवन में होना हमारे परम सौभाग्य का सूचक है ।
613. प्रभु सब कुछ बड़े सहज में दे देते हैं पर भक्ति सहज में बिलकुल नहीं देते ।
614. भक्ति किसी भी साधन से नहीं पाई जा सकती । भक्ति केवल प्रभु कृपा से ही मिलती है ।
615. प्रभु भक्ति देने से पहले पात्र को ठोक पीटकर सब प्रकार से देख लेते हैं । प्रलोभन एवं सिद्धियां भी जब उस पात्र को डिगा नहीं पाती तब प्रभु प्रसन्न होकर उसे अपनी भक्ति प्रदान करते हैं ।
616. भक्तों को प्रभु से प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं चाहिए होता है ।
617. जब जीवन में भक्ति सुदृढ़ हो जाती है तो भक्त जैसा चाहे प्रभु वैसा ही करते हैं ।
618. भक्त सदैव प्रभु को अपने व्यवहार से सुख देना चाहता है ।
619. सेवा वही जो सेव्य प्रभु को सुख दे ।
620. भक्ति प्रभु को केवल रिझाने के लिए ही की जाती है, जो हमारे प्राणों से भी अधिक हमें प्रिय हैं । भक्ति का यही एकमात्र उद्देश्य होता है और अन्य कोई उद्देश्य नहीं होता ।
621. भक्ति अगर हमारे जीवन में स्थिर और सिद्ध होती है तो ही हमारे उस मानव जीवन की हमें सफलता माननी चाहिए ।
622. प्रभु हमारे हृदयेश्वर हैं यानी हमारे हृदय में विराजे ईश्वर हैं ।
623. हमारी श्वासें श्वास नहीं बल्कि प्रभु पुकार बन जानी चाहिए और यह तभी संभव होता है जब श्वासों में प्रभु नाम की माला चलना प्रारंभ हो जाए ।
624. जब प्रभु जीवन में आते हैं तो ही जीवन में सच्चा आराम मिलता है ।
625. प्रभु को पुकारना सभी के अधिकार क्षेत्र में होता है ।
626. हमारे और प्रभु के बीच कोई नहीं था और कोई नहीं होना चाहिए । इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए और किसी को हमारे और प्रभु के बीच कभी भी आने नहीं देना चाहिए ।
627. प्रभु के विग्रह की प्रीतियुक्त सेवा करते रहने पर विग्रह के रूप में प्रभु का प्रकाश आ जाता है । वह प्रभु का विग्रह मधुर लगने लगता है और दिव्य लगने लगता है ।
628. प्रभु परिपूर्ण हैं । इसलिए प्रभु को परिपूर्ण जानकर प्रभु की परिपूर्ण सेवा करनी चाहिए ।
629. प्रभु अपने भक्तों को दर्शन के लिए तरसाते हैं क्योंकि विरह की ताप प्रभु मिलन के परमानंद को कई गुना बढ़ा देती है ।
630. प्रभु जिस रूप में हमारे ठाकुरबाड़ी में हैं वह वही रूप है जिसमें प्रभु हमारे निकट आना चाहते हैं और हमारी सेवा लेना चाहते हैं । इसलिए अपने ठाकुरबाड़ी के प्रभु के रूप का अपने जीवन में स्वीकार करना चाहिए और अन्यत्र कहीं नहीं भटकना चाहिए ।
631. संसार में एक ही संबंध सत्य है और वह प्रभु के साथ का संबंध है ।
632. प्रभु नाम का उच्चारण कलियुग के समस्त दोषों को धो देता है ।
633. संसार में आसक्ति हो तो परिणाम पतन है और प्रभु में आसक्ति हो जाए तो परिणाम उद्धार है ।
634. सत्संग भक्ति का भाव हमारे हृदय में स्थिर कर देता है ।
635. प्रभु प्रेम में इतना बल है कि उसके कारण जीव का मन प्रभु अपनी ओर आकर्षित करके खींच लेते हैं ।
636. जैसे नदी का जल सागर से मिलने के लिए अपने मार्ग में आने वाले सारे अवरोधों को, यहाँ तक कि चट्टानों को भी घिसकर दूर कर वेग से बहता है और सागर में मिल जाता है वैसे ही भक्त प्रभु से मिलने के लिए संसार के सारे अवरोधों को वेग से दूर करता हुआ चलता है ।
637. प्रभु ही हमारे प्राणधन, जीवनधन और परमधन हैं ।
638. जीवन में भक्ति का अभाव कभी भी नहीं आने देना चाहिए ।
639. भारतवर्ष की संस्कृति को एक समय पूरा विश्व प्रणाम करता था क्योंकि भारतवर्ष जैसी संस्कृति और सभ्यता संसार में किसी के पास नहीं थी । आज हमने भारतीय संस्कृति का कितना पतन कर दिया है ।
640. अपनी संस्कृति और विरासत को सदैव गौरव से धारण करना चाहिए ।
641. भारतवर्ष इतनी महान धरती है कि प्रभु इस धरती पर स्वयं अवतार लेकर आते हैं । अन्यत्र प्रभु अपने दूत, अपने पुत्र, अपने पीरों को भेजते हैं पर भारतवर्ष में खुद पधारते हैं ।
642. जब-जब प्रभु को क्रीड़ा करने का मन होता है तो प्रभु भारत भूमि को ही चुनते हैं । पूरे ब्रह्मांड में भारत भूमि को ही चुनते हैं इसलिए पूरे ब्रह्मांड में भारत भूमि श्रेष्ठ है ।
643. जब प्रभु को माटी खाने का की इच्छा होती है तो भारतवर्ष के श्रीबृज की माटी खाते हैं । जब प्रभु को माखन खाने का मन होता है तो भारतवर्ष के गोवंश की गौ-माता के अमृत तुल्य दूध से निकला माखन ही खाते हैं ।
644. जीवन में कितने पुण्य के बाद हमें उसके फलस्वरूप सनातन धर्म का आश्रय मिलता है यानी सनातन धर्म युक्त घर में जन्म मिलता है ।
645. प्रभु अपनी सहज कृपा से हमें सब कुछ देते हैं ।
646. भारतवर्ष में जन्म सहज ही प्राप्त नहीं होता । यह बहुत पुण्यों के फलस्वरूप ही प्राप्त होता है ।
647. भारतवर्ष में कण-कण में भगवान को देखने का अभ्यास कराया जाता है । इसलिए ही यहाँ जल, अग्नि, वायु, नदी, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति, अन्न, भूमि सबकी स्तुति का विधान है ।
648. जब भी संसार आध्यात्मिक ज्ञान की आकांक्षा रखता है तो भारतवर्ष के ऋषियों और मुनियों की तरफ ही देखता है ।
649. जीवन में भोग भोगते रहने से जीवन पतनोन्मुखी होता है ।
650. बड़े भाग्य से ही हमें भारतवासी और सनातनधर्मी बनने का अवसर मिला है ।
651. प्रभु का प्रेम जीवन में प्राप्त करने के लिए ही हमें मानव जीवन मिला है ।
652. भक्त की कोई सांसारिक जाति या कुल नहीं होता क्योंकि वह तो भगवान के कुल का होता है ।
653. भक्तों का जीवन प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही स्थित होता है ।
654. प्रभु से हमारा वही संबंध है जो श्री सूरदासजी, श्री तुलसीदासजी, श्री रैदासजी और भगवती मीराबाई का था, इस बात को हमें अपने मन में सदा के लिए बैठा लेनी चाहिए ।
655. जीवन में प्रभु के समक्ष निष्कामता का शुभारंभ करना चाहिए । हमने प्रभु से जीवन में बहुत कुछ मांगा और मांगते आए हैं बस अब आगे कुछ नहीं मांगना चाहिए ।
656. प्रभु के अतिरिक्त जो भाव जीवन में इकट्ठा हो गया है उसे हटा देना चाहिए जैसे एक मूर्तिकार एक पत्थर से अतिरिक्त चीज हटा देता है तो जो मूर्ति है वह उस पत्थर में से प्रकट हो जाती है ।
657. अहंकार शून्य जीव प्रभु को अति प्रिय होता है ।
658. जो अभिमान से भरा होगा वह अपने को दुनिया के सामने प्रकट करना चाहेगा और जो भगवान से भरा होगा वह अपने आप को संसार में अप्रकट रखेगा ।
659. पानी खाली जगह देखता है और जहाँ खाली जगह होती है वहाँ ठहर जाता है । ऐसे ही प्रभु कृपा खाली जीव तलाशती है और जो जीव सभी तरह से संसार से रिक्त होता है वहाँ जाकर ठहर जाती है ।
660. पानी बरसता सब जगह है पर जहाँ भूमि में पत्थर होता है वहाँ से वह बह जाता है और खाली स्थान में जाकर ठहरता है । ऐसे ही प्रभु कृपा सब पर बरसती है पर जो जीव संसार से भरा हुआ होता है उसके ऊपर से वह बह जाती है और जो जीव संसार से रिक्त होता है वहाँ ठहर कर उस जीव पर अनुग्रह करती है ।
661. प्रभु श्री रामजी प्रभु श्री हनुमानजी के वश में हैं इसलिए तो उनके हृदय में सदैव बसते हैं ।
662. जब वे लंका जा रहे थे तो प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु की मुद्रिका अपने श्रीमुख में रखी तो किसी ने पूछा कि क्या मुद्रिका मुख में रखने की चीज है । प्रभु श्री हनुमानजी ने बहुत मार्मिक उत्तर दिया कि मुद्रिका में जो श्रीराम नाम अंकित है वह तो सदैव मुख में ही रखने योग्य है इसलिए उन्होंने श्रीराम नाम अंकित मुद्रिका को अपने श्रीमुख में ही स्थान दिया है ।
663. अगर हम भी जीवन में विपत्ति नहीं चाहते और जीवन में सदैव उत्थान चाहते हैं तो हमें प्रभु का नाम सदैव अपने मुख में रखना चाहिए ।
664. मुख में प्रभु का नाम और हृदय में प्रभु का भरोसा सदैव रखना चाहिए ।
665. जीवन में त्याग तो हो पर उस त्याग का जीवन में अभिमान कदापि नहीं होना चाहिए ।
666. जीव को सदैव प्रभु की छत्रछाया में ही रहना चाहिए ।
667. प्रभु की कृपा का जीवन भर आश्रय लेकर ही रहना चाहिए ।
668. हमारा मन कहना नहीं मानता इसका कारण क्या है । जैसे तन को भोजन से शक्ति मिलती है और अगर हम सात दिन तक भोजन नहीं करते हैं तो तन कहना नहीं मान पाएगा यानी अगर हम कहते रहेंगे तन से की उठो तो तन भोजन शक्ति अभाव के कारण गिर जाएगा और उठ नहीं पाएगा । वैसे ही मन को शक्ति मिलती है प्रभु की भक्ति से इसलिए जीवन में अगर हमने भक्ति छोड़ दी तो मन हमारा कहना कभी नहीं मानेगा ।
669. भक्ति से ही हमारे मन को शक्ति मिलती है और विश्राम भी मिलता है, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
670. कंचन, कामिनी, कीर्ति हमारे मन को नहीं बिगाड़ सकते अगर भक्ति हमारे जीवन में रहती है ।
671. भक्ति और भजन की कभी भी गिनती नहीं करनी चाहिए । ऐसा करने पर हमारा मन अभिमान से भरता है कि हमने इतनी भक्ति और इतना भजन कर लिया ।
672. सात्विक कर्म तो हमें करना चाहिए पर कर्त्ता का भाव और अभिमान नहीं होना चाहिए । प्रभु कर रहे हैं और हम मात्र निमित्त बन रहे हैं, यही भाव हमारे मन में होना चाहिए ।
673. कर्म में अभिमान जुड़ जाता है तो वह हमारा पतन कराता है । कर्म को अगर हम भगवान से जोड़ लेते हैं तो वह योग बन जाता है जो हमारा उद्धार कराता है ।
674. जीवन के हर कर्म के कर्त्ता के रूप में प्रभु को ही देखना चाहिए ।
675. जीव की गति तो सदैव प्रभु के ही श्रीहाथों में होती है ।
676. मन और मुख प्रभु के नाम से ही सदैव भरा हुआ होना चाहिए ।
677. विपत्ति की परिभाषा बताते हुए प्रभु श्री हनुमानजी ने श्री सुंदरकांडजी में कहा है कि जब प्रभु का सुमिरन और भजन जीवन में नहीं होता तभी विपत्ति आती है ।
678. जैसे एक हवाई जहाज का दिशा सूचक यंत्र खराब हो जाए और हवाई जहाज तेज रफ्तार से बढ़ता चला जाए तो उसके चालक को पता ही नहीं चलेगा कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है । वैसे ही आज समाज का दिशा सूचक यंत्र खराब हो चुका है और वैज्ञानिक प्रगति के कारण हम तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं पर किस दिशा में बढ़ रहे हैं यह हमें भी पता नहीं ।
679. जीव का जब भी स्वभाव बदलेगा तो वह भक्ति से ही बदलेगा ।
680. प्रभु नाम के बिना हमारी वाणी कभी भी शोभा नहीं पाती ।
681. हमारे जीवन की वृत्ति सदैव प्रभु मुखी यानी प्रभु की तरफ होनी चाहिए ।
682. भोग करने वाले के भवन में भक्ति और शांति कभी नहीं रहती ।
683. भक्त कभी भी विवाद में नहीं पड़ते और अपने को किसी भी प्रकार के विवाद में नहीं उलझाते ।
684. संसाररूपी सागर के बीच जीवनरूपी लंका है जहाँ सुमतिरूपी श्री विभीषणजी और कुमतिरूपी कुम्भकर्ण दोनों सो रहे हैं । कुमतिरूपी कुम्भकर्ण को रावण जगाता है और उसका नाश होता है पर सुमतिरूपी श्री विभीषणजी को प्रभु श्री हनुमानजी जगाते हैं और उनको प्रभु की शरणागति मिलती है और लंका का अचल राज्य मिलता है ।
685. प्रभु का नाम अगर हमने जागते ही ले लिया तो उस दिन हमारा जागना सार्थक हो गया ।
686. प्रभु के श्रीकमलचरण हमारे हृदय में विराजमान हो तो आने वाली सभी जीवन की बाधाएं परास्त हो जाती हैं ।
687. प्रभु श्री हनुमानजी इतने अभिमान रहित हैं कि लंका से आने के बाद प्रभु को कहने लगे कि आपकी मुद्रिका मुझे यहाँ से लंका लेकर गई और माता की चूड़ामणि मुझे लंका से वापस यहाँ लेकर आई । उन्होंने कहा कि इसमें उनका कोई श्रम और पुरुषार्थ नहीं लगा ।
688. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर जाता है उसकी पूरी जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है ।
689. जिनके हृदय में अभिमान विराजमान नहीं रहता उन्हीं के हृदय में प्रभु विराजमान रहते हैं ।
690. आचरण उसी जीव का ठीक रहेगा जिसके हृदय में प्रभु के श्रीकमलचरण विराजमान रहेंगे ।
691. जीव का हृदय संसार से भरा हुआ देखते हैं तो प्रभु लौट जाते हैं । भक्त का हृदय प्रभु से भरा हुआ देखते हैं तो विकार लौट जाते हैं ।
692. प्रभु ही भक्तों के शरीर को माध्यम बनाकर अपनी श्रीलीला करते हैं । भक्त प्रभु की श्रीलीला के लिए रंगमंच बन जाते हैं ।
693. भक्तों के हृदय में सदैव भगवान के लिए भाव भरा हुआ होता है ।
694. जहाँ प्रभु रहेंगे वहाँ प्रभु का बल भी रहेगा । जैसे हम जहाँ जाकर बैठते हैं हमारी शक्ति भी हमारे साथ वहाँ बैठ जाती है । वैसे ही प्रभु भक्त के हृदय में रहेंगे तो प्रभु का बल भक्त की रखवाली करने के लिए उस भक्त के आस पास सदा बना रहेगा, यह सिद्धांत है ।
695. प्रभु श्री हनुमानजी कहते हैं कि मैं तो रिक्त हूँ, जो मेरे में बल है वह मेरे प्रभु का है । जैसे एक मकान में समान रखा हुआ है तो वह समान उस मकान का नहीं होता बल्कि उस मकान के मालिक का होता है, इसी प्रकार प्रभु श्री हनुमानजी स्वयं को मकान मानते हैं और उस मकान में रखा बल उस मकान के मालिक प्रभु श्री रामजी का मानते हैं ।
696. जो ज्ञान मार्ग पर है उनके उद्धार की जिम्मेदारी ज्ञान की होती है, जो कर्म मार्ग पर है उनके उद्धार की जिम्मेदारी कर्म की होती है, जो धर्म के मार्ग पर है उनकी उद्धार की जिम्मेदारी धर्म की होती है पर जो भक्ति के मार्ग पर चलते हैं, प्रभु कहते हैं उनके उद्धार की जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है ।
697. शरणागति लेने के बाद शरणागत जीव जीवन में एकदम निश्चिंत हो जाता है ।
698. मन, कर्म और वचन से जो प्रभु को समर्पित हो उसे सपने में भी कभी विपत्ति नहीं सता सकती ।
699. प्रभु अपने आश्रितों को कभी नहीं भुला सकते और कभी नहीं भुलाते, यह सिद्धांत है ।
700. प्रभु के मन में भक्तों का कल्याण करने की करुणा सदैव जगी हुई रहती है ।
701. जिन्होंने जगत बनाया है जग में उनकी ही इच्छा चलती है ।
702. प्रभु के श्रीकमलचरण कभी भी किसी को ठुकराना नहीं जानते ।
703. प्रभु श्री हनुमानजी सबको खुला निमंत्रण देते हैं कि जीव प्रभु श्री रामजी की शरण में आ जाएं तो उनका मंगल-ही-मंगल होता चला जाएगा ।
704. कोई भी अभिमान शून्य होकर प्रभु का कार्य करे तो प्रभु उसे माध्यम बनाकर स्वयं की श्रीलीला करने लगते हैं ।
705. मन के बनाए जंजाल में फंसा हुआ जीव प्रभु तक नहीं पहुँच पाता ।
706. जीव जब तक अपनी व्यथा दुनिया को सुनाता है वह व्यथा ही रहती है । अपनी व्यथा प्रभु को सुनाने से ही उस व्यथा का निवारण होता है ।
707. प्रभु की कृपा जीव पर होते ही, जीव की कोई भी व्यथा नहीं बचती ।
708. प्रभु श्री हनुमानजी अपने शरणागत जीव की व्यथा प्रभु को सुनाते हैं और उस जीव को प्रभु की कृपा दिलाते हैं । ऐसा ही उन्होंने श्री सुग्रीवजी और श्री विभीषणजी के साथ किया ।
709. जीव और प्रभु को मिला देने का काम प्रभु श्री हनुमानजी बड़े हर्षपूर्वक करते हैं ।
710. जिन्हें अपना बल याद रहता है उन्हें प्रभु का बल स्मरण नहीं रहता और जो प्रभु श्री हनुमानजी की तरह अपने बल को भूला देते हैं उन्हें ही प्रभु का बल याद रहता है ।
711. भगवान भक्त के मन की सभी बातें सदैव जानते हैं ।
712. जीव और प्रभु का मिलन सदैव प्रभु की कृपा के कारण ही होता है । जब प्रभु की कृपा होती है तभी यह मिलन संभव होता है ।
713. भारतभूमि समस्त भूमंडल का हृदयस्वरूप है ।
714. प्रभु ही हमारे हृदयबिहारी हैं और हमारे हृदय में ही सदैव क्रीड़ा करते हैं ।
715. भक्त प्रभु से याचना नहीं करते बल्कि प्रभु को सुख पहुँचाने का आजीवन प्रयत्न करते हैं । श्रीगोपीजन ने ऐसा ही प्रयास जीवन भर प्रभु के लिए किया ।
716. प्रभु मन और वाणी से परे हैं । उनको केवल भक्ति द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है ।
717. प्रभु की कृपा का वर्णन नहीं किया जा सकता । शास्त्र और ऋषि केवल संकेत मात्र करते हैं । इससे ज्यादा प्रभु की कृपा का वर्णन करने में वे भी अक्षम होते हैं ।
718. भक्ति द्वारा प्रभु जिन्हें भी प्राप्त होते हैं उन्हें पूर्ण रूप में प्राप्त होते हैं ।
719. प्रभु की इच्छा व शक्ति का कोई आदि और अंत नहीं है ।
720. जीव निर्बल है और प्रभु सबल हैं । जीव अल्प है और प्रभु अनंत हैं । जीव असमर्थ है और प्रभु सर्वसमर्थ हैं ।
721. जीवन में करने के लिए केवल प्रभु की चर्चा ही होनी चाहिए ।
722. शास्त्र के शब्द निरर्थक नहीं हैं । शास्त्रों के शब्द को शब्दब्रह्म कहा गया है । इसलिए प्रभु के बारे में ही शास्त्रों के शब्द हमें सुनने और पढ़ने चाहिए ।
723. भक्ति के मार्ग पर मन को मारना या इंद्रियों का दमन करना नहीं सिखाया जाता । बस मन और इंद्रियों का विषय प्रभु को बनाना सिखाया जाता है ।
724. सत्संग के अभाव से मन दुर्बल होता है ।
725. प्रभु के नाम का आश्रय लेने से हमें जीवन में भक्ति करने का उद्देश्य मिलता है ।
726. सत्संग हमें भीतर से समृद्धि प्रदान करता है ।
727. भक्ति हमारी कामना की पूर्ति न करके कामना को धीरे-धीरे नष्ट कर देती है और जीव को निष्काम बना देती है ।
728. भक्ति वही है जो हमें सकामता से निष्कामता की ओर ले जाए ।
729. प्रभु भक्त के मांगने पर भी भक्त को संसार नहीं देते क्योंकि प्रभु कभी भी भक्त या किसी का भी अहित नहीं करते क्योंकि वे ऐसा कर ही नहीं सकते ।
730. परमानंद का मूल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है । प्रभु के श्रीकमलचरण में जितना निकट हम जाएंगे उतना जीवन में परमानंद आता चला जाएगा ।
731. जैसे भीषण गर्मी में भी भगवती गंगा माता के घाट पर बैठने से भगवती गंगा माता के शीतल जल की स्पर्श की हुई वायु हमें आनंद देती है क्योंकि श्रीगंगाजल प्रभु के श्रीकमलचरणों की धोवन है, इसी प्रकार प्रभु के श्रीकमलचरणों के पास बैठने से हमें आनंद-ही-आनंद मिलता है ।
732. संसार की तरफ दृष्टि रखेंगे तो हम कभी भी भजन नहीं कर पाएंगे ।
733. अपने सुधार के लिए, अपने प्रचार के लिए भजन नहीं करना चाहिए । यह तो भजन करने से होगा ही, भजन प्रभु का प्रेम जागृत करने के लिए ही करना चाहिए ।
734. निश्चित माने कि आधे नाम पर भगवान आते हैं पर वह आधा नाम अभिलाषा शून्य होकर पुकारना होता है यानी वह पुकार केवल प्रभु के लिए ही होनी चाहिए ।
735. मन पर हमारा चिंतन पूर्ण प्रभाव डालता है । इसलिए जीवन में चिंतन प्रभु का ही होना चाहिए ।
736. जड़ संसार का चिंतन करते-करते हमारा चेतनस्वरूप मन भी जड़ हो गया है ।
737. जो प्रभु के प्रेम के सिंधु में डूब जाता है वह वापस कभी नहीं निकलता ।
738. जीव का विशुद्ध स्वरूप उसे स्मरण आ जाए कि वह जीव प्रभु का अंश है और केवल प्रभु ही उसके अपने हैं, इसलिए ही और केवल इतना-सा समझाने के लिए ही सारे शास्त्र और आचार्य हुए हैं ।
739. संसार की कोई भूमि कर्म भूमि है, कोई योग भूमि है पर भारत की भूमि भाव भूमि है और यहीं पर प्रभु के लिए भाव जागृत होते हैं ।
740. भारत भूमि में जिसने जन्म लिया वह भजन करने के लिए, साधन करने के लिए सबसे उपयुक्त है । प्रभु ने उसे उपयुक्त माना इसलिए ही उसे भारत भूमि में जन्म दिया है ।
741. प्रभु को भाव से जहाँ भी पुकारेंगे वहीं प्रभु जवाब देते हैं । जहाँ प्रभु को भाव से हम बैठाएंगे वहीं प्रभु बैठ जाते हैं ।
742. जिस प्रकार भक्तों का संग हमारे मन और चित्त में परिवर्तन ले आता है उसी प्रकार नास्तिक या संसारी या किसी विषयी का संग भक्ति और भजन से हमें विमुख कर देता है । सूत्र यह है कि अपना आध्यात्मिक पतन बचाने के लिए नास्तिक, संसारी या विषयी का संग कभी नहीं करना चाहिए ।
743. प्रभु अपने भक्तों का व्यवहार कभी बिगड़ने नहीं देते ।
744. बाहर की समृद्धि ओछी है, भक्ति से जो हमारे भीतर की समृद्धि होती है वही सच्ची है ।
745. बाहर की समृद्धि हमें चंचल करती है । भीतर की समृद्धि जो भक्ति देती है वह हमें शांत करती है ।
746. संसार का प्रेम हमारे शरीर और मन तक पहुँचता है पर प्रभु का प्रेम हमारी आत्मा को प्रभावित करता है ।
747. हमारे जीवन में प्रेम के विषय प्रभु हो जाने चाहिए ।
748. संसार में किसी से शुद्ध भाव से भी प्रेम करने से अंत में खेद ही प्राप्त होता है । इसलिए जीवन में प्रेम करना हो तो केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
749. संसार का सुख पाकर भी जीव भटकता है और प्रभु के लिए भटकने में भी जीव आनंद पाता है ।
750. प्रभु प्रेम में जो परमानंद है उसकी एक झलक मात्र भी संसार के प्रेम में कभी हमें देखने को नहीं मिलती ।
751. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के बारह स्कंध प्रभु के श्रीअंग हैं । उसमें से दशम स्कंध प्रभु का हृदय है और दशम स्कंध का श्री गोपीगीत प्रभु के हृदय की धड़कन है ।
752. हमारे एक मन को प्रभु को ले जाने देना चाहिए । मन दस बीस नहीं है, मन तो एक ही है और उसे प्रभु को ही समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर है ।
753. श्रीगोपीजन प्रभु के सुख के लिए प्रयासरत रहतीं थीं इसलिए उन्हें प्रभु के हृदय का अधिकार प्राप्त था । सूत्र यह है कि जो जीवन में प्रभु को अपनी भक्ति और प्रेम का सुख देता है उसका स्थान प्रभु के हृदय में होता है ।
754. हमारे जीवन की प्रत्येक चेष्टा प्रभु को सुख देने के लिए होनी चाहिए ।
755. हमें अपना जीवन प्रभु के लिए ही जीना चाहिए ।
756. यह प्रभु की अकारण कृपा है कि प्रभु हमें जीवन में सत्संग देते हैं जिससे कुछ देर बैठकर हम प्रभु की चर्चा सुन सकें ।
757. भक्ति भाव हमारे हृदय को स्पर्श कर जाए, यह जीव पर प्रभु की सबसे बड़ी कृपा होती है ।
758. प्रभु को जो प्रिय लगे जीवन में वही करना चाहिए ।
759. प्रभु को निज यश से भी कहीं ज्यादा अपने भक्तों के यश प्यारा होता है । प्रभु स्वयं यश लेना कभी नहीं चाहते अपितु अपने भक्तों को ही यश दिलाना चाहते हैं ।
760. प्रेम के संबंध में कोई कारण नहीं होना चाहिए । अगर कोई कारण है तो वह सच्चा प्रेम नहीं हो सकता । इसलिए प्रभु प्रेम में कोई भी किंचित स्वार्थ हमारा नहीं होना चाहिए ।
761. श्रीबृज भूमि प्रभु को बहुत अधिक प्रिय है ।
762. प्रभु को हमारे व्यवहार से प्रसन्नता और सुख मिले ऐसा प्रयास भक्तों का सदैव होता है ।
763. माया को पूरा जग भजता है पर मायापति प्रभु को कोई बिरला ही भजता है पर जो मायापति प्रभु को भजता है वही सच्चा सौभाग्यशाली होता है ।
764. भक्ति हमें भीतर से गंभीर करती है और हमारे मन की चंचलता को खत्म कर देती है ।
765. जैसे हम मंत्र के शब्दों को हिला नहीं सकते वैसे ही श्री गोपीगीत के शब्दों को भी हम हिला नहीं सकते क्योंकि यह प्रेम मंत्र के शब्द हैं । संतों ने श्री गोपीगीत को प्रेम मंत्र कहा है ।
766. जिसके हृदय में प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति विराजती है उसके पास सभी सद्गुण चलकर आ जाते हैं ।
767. हमारे हृदय में भगवान और भगवान की भक्ति के अलावा कुछ भी नहीं होना चाहिए ।
768. श्री वृंदावनजी कोई तीर्थ नहीं अपितु प्रभु का नित्य धाम है ।
769. प्रभु भी अपने नाम की महिमा नहीं गा सकते । प्रभु के नाम का महत्व प्रभु भी नहीं बता सकते । प्रभु नाम की इतनी विशाल महिमा है ।
770. भक्त को भगवान अपने पास बुलाते हैं । भक्तों का भाग्य इतना बड़ा होता है ।
771. संसार के सुख हम अपने पुरुषार्थ से इकट्ठा कर सकते हैं पर भक्ति जीवन में सदैव प्रभु की कृपा से ही मिलती है ।
772. भक्ति भाव को जीवन में दृढ़ रखना चाहिए, इसमें कभी भी भटकाव नहीं होने देना चाहिए ।
773. श्री बैकुंठजी में भी देवतागण अपने मस्तक के मुकुट के अग्रभाग से केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों की पादुका को नमन कर सकते हैं । देवतागण इसलिए ही श्रीबृज में जन्म चाहते हैं जहाँ के रज को प्रभु के पादुका का स्पर्श नहीं बल्कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का साक्षात स्पर्श मिला है । क्योंकि प्रभु श्रीबृज लीला में नंगे श्रीकमलचरणों से ही चले थे इसलिए श्रीबृज रज की इतनी बड़ी महिमा है ।
774. भक्ति करने से प्रभु के लिए जो भाव उत्पन्न होता है वह हमें प्रसाद रूप में मिलता है ।
775. जब प्रभु के हृदय में किसी जीव के कल्याण की इच्छा आती है तो ही उस जीव के हृदय में भक्ति और भजन की भावना जागृत होती है ।
776. बड़ा सौभाग्यशाली वह जीव होता है जिसके मन को प्रभु के अतिरिक्त कुछ समझ में नहीं आता ।
777. प्रेम का स्वभाव है कि वह दो को एक कर देता है । भक्त और भगवान भिन्न नहीं रहते बल्कि एकरूप हो जाते हैं ।
778. प्रभु के निकट हम कोई भी भाव लेकर जा सकते हैं, प्रभु उस भाव को स्वीकार करते हैं ।
779. प्रभु अपने भक्तों के भक्त बिना कहे हो जाते हैं । भक्त प्रभु की भक्ति करता है पर प्रभु भी अपने भक्तों की भक्ति करते हैं ।
780. प्रभु अपने भक्तों की सेवा के लिए सदैव तत्पर और आतुर रहते हैं ।
781. एक बार प्रभु से किसी ने पूछा कि आपके विग्रह में आप खड़े ही मिलते हैं, बैठे हुए नहीं मिलते । प्रभु ने उत्तर दिया कि एक बार बैठा था तो दुःशासन ने इतना उत्पात मचा दिया और भगवती द्रौपदीजी का चीरहरण करने का प्रयास किया । इसलिए अब खड़ा ही रहता हूँ क्योंकि कौन भक्त मुझे कब पुकार ले और मुझे दौड़कर जाना पड़े ।
782. प्रभु से प्रेम प्रभु पर एक अदभुत-सा अधिकार हमें देता है ।
783. तीनों लोकों को आनंद देने वाले प्रभु को कहीं आनंद मिलता है तो वह श्रीगोपीजन के पास ही मिलता है । श्री गोपीजन का प्रभु प्रेम इतना विलक्षण है ।
784. प्रभु के लिए किया गया कोई भी साधन हमें प्रभु की कृपा का पात्र बना देता है ।
785. प्रभु को जीवन में लाने के लिए पहले अपने मन के पात्र को तैयार करना पड़ता है ।
786. श्री गोपीगीत श्रीकृष्ण प्रेम का मंत्र हैं । जीवन में श्री गोपीगीत का नित्यगान करने से श्रीकृष्ण प्रेम हृदय में जागृत होता है ।
787. प्रभु प्रेम हमारे जीवन को एक अलौकिक गौरव प्रदान करता है ।
788. प्रभु की भक्ति हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग से विचलित नहीं होने देती ।
789. मिश्री से उसकी मिठास कोई अलग नहीं कर सकता । मिश्री क्रोध करके भी किसी के मुँह में जाएगी तो मिठास ही देगी । वैसे ही प्रभु से प्रभु की करुणा को कोई विलख नहीं कर सकता । प्रभु किसी दुष्ट पर क्रोध भी करेंगे तो वह करुणा का क्रोध होगा और उस क्रोध से भी करुणा ही बरसेगी ।
790. प्रभु हृदय में आते हैं तो सभी सद्गुण स्वतः ही हृदय में आ जाते हैं ।
791. प्रभु के भक्तों को संसार की किसी उपाधि की जरूरत नहीं होती । जो संसार की उपाधि चाहता है वह सच्चा भक्त नहीं होता ।
792. प्रभु की दयालुता और कृपालुता जग प्रसिद्ध है ।
793. प्रभु भक्तों के पापों की चोरी करते हैं और अपने भक्तों को पापरहित कर देते हैं ।
794. हमारे जैसा बिगाड़ने वाला कोई नहीं और प्रभु के जैसा संवारने वाला कोई नहीं ।
795. भक्त प्रभु से कहता है कि ऐसा लगता है कि आपमें और मेरे में कोई होड़ लगी है, मैं पल-पल बिगाड़ता रहता हूँ और आप पल-पल संवारते रहते हैं ।
796. हम बिगाड़ते जाएं और प्रभु संवारते जाएं तो यह क्रम चलता रहता है पर इस क्रम में अंत में जीत प्रभु की ही होती है क्योंकि हमारे कितने जन्मों से बिगाड़ने पर भी प्रभु की एक कृपा अंत में सबको संवार देती है ।
797. श्रीगोपीजन प्रभु से कहती है कि वे प्रभु की बिना मोल की दासी हैं ।
798. सुबह जब प्रभु गौचारण के लिए जाते थे तो सायंकाल प्रभु के दर्शन की लालसा में ही श्रीगोपीजन दिनभर प्राण धारण करके रखती थीं ।
799. जीव अपने स्वार्थ के लिए कर्म करता है लेकिन प्रभु के दिव्य कर्म सदैव परमार्थ के लिए होते हैं ।
800. प्रभु के अवतरण और पृथ्वी पर की गई हर श्रीलीला का एक ही हेतु है और वह है जीव का कल्याण करना । उन श्रीलीलाओं का चिंतन, गान करने से जीव का कल्याण हो, यही प्रभु का एकमात्र हेतु होता है ।