001. |
जीवन में सत्संग मिल जाए और सात्विक संस्कार मिल जाए तो यह प्रभु की दो बहुत बड़ी कृपा जीव पर होती है । |
002. |
प्रभु खोजने से नहीं मिलते बल्कि प्रभु हमें प्रभु के प्रेम में खो जाने से मिलते हैं । |
003. |
हमारा अस्तित्व विसर्जित होता है तो ही प्रभु का अस्तित्व हमारे सामने प्रकट होता है । |
004. |
जीवन में केवल प्रभु का आश्रय लेना चाहिए बाकी सभी काम जीवन में प्रभु कृपा से स्वतः ही होते चले जाएंगे । |
005. |
जो हमारी ममता धन में, संपत्ति में, पद में, प्रतिष्ठा में, परिवार में बिखरी हुई है उसे समेटकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में केंद्रित कर देना चाहिए । प्रभु ने श्री रामचरितमानसजी में यही कहा है । |
006. |
प्रभु को सच्चे मन से पुकारने पर प्रभु तत्काल ही उत्तर देते हैं । |
007. |
विषयों की रात्रि में ही जीव अपना जीवन जी रहा है । |
008. |
सकामता का मल जीवन से हटने पर ही प्रभु जीवन में प्रकट होंगे । |
009. |
प्रभु जब कृपा करेंगे तो उस कृपा को ग्रहण करने के लिए हमारे मन का पात्र तैयार होना चाहिए । |
010. |
हम विषय को नहीं भोगते अपितु विषय ही हमें भोग डालते हैं । |
011. |
जीवन में सभी लोग बहुत निकट से प्रभु कृपा का अनुभव करते हैं । किसी विपत्ति में या प्रतिकूल परिस्थिति में हमें प्रभु की कृपा का अनुभव होता है और फिर हम उस प्रभु कृपा को और प्रभु को भूल जाते हैं । यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है । |
012. |
संसार का व्यवहार हम करते हैं और ऐसा करते-करते संसार का मैला आवरण हम पर चढ़ जाता है । इससे बचने का एक ही उपाय है - प्रभु की भक्ति । |
013. |
जहाँ प्रभु का कीर्तन होता है वहीं भक्तों का श्री बैकुंठजी होता है । |
014. |
प्रभु का भजन और साधन करने के लिए जीव में कोई सामर्थ्य नहीं । ऐसा ही मानना चाहिए कि हम जो भी भजन और साधन करते हैं वह प्रभु कृपा के कारण ही हम से होता है । यही उसे देखने की सही दृष्टि है । |
015. |
जीव स्वभाव से ही दुष्ट है क्योंकि प्रभु पल-पल जीव को अपने सन्मुख करने का प्रयास करते हैं और जीव पल-पल प्रभु से दूर होता चला जाता है । |
016. |
अनंत कोटि जन्मों में भी हम इतना पुण्य नहीं कर सकते जिसके कारण हम प्रभु का भजन करने की पात्रता पा जाए । अगर हम जीवन में भजन कर पा रहें हैं तो यह केवल और केवल करुणानिधान प्रभु की अहेतु की कृपा है । |
017. |
हमारी प्रभु में श्रद्धा सदैव बलवती होती रहनी चाहिए । |
018. |
जीवन में अगर हम प्रभु की सेवा कर पाते हैं तो सदैव इसके लिए प्रभु के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए क्योंकि हम प्रभु की कृपा के कारण ही ऐसा कर पा रहे हैं । |
019. |
प्रभु में हमारा विश्वास सदैव सुदृढ़ होना चाहिए । |
020. |
हम जन्म लेकर गलत दिशा में संसार की तरफ दौड़ते जाते हैं और ऐसा करके हम प्रभु से दूर होते चले जाते हैं । |
021. |
सत्संग हमें संसार की निरर्थकता का बोध कराता है जिससे हम संसार की उलझन से बचकर प्रभु की भक्ति जीवन में कर सकें । |
022. |
प्रभु की माया संसार में एक से अनेक करने में हमारा सहयोग करती है पर हमें भक्ति द्वारा अपने मन के अनेक भावों को एक करके प्रभु में लगा देना चाहिए । |
023. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपनी प्रीत की डोर बांध देना चाहिए । यह केवल भक्ति से ही संभव है । |
024. |
मनुष्य ने संसार में आकर कितनी-से-कितनी बड़ी उपलब्धि की पर आज कोई उसके लिए रोने वाला नहीं है । अगर वही मनुष्य जीवन में भक्ति की उपलब्धि करता तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए पहुँच जाता । |
025. |
भक्त प्रभु के मन को सुख पहुँचाता है । जो ऐसा कर पाए वही भक्त कहलाने योग्य है । |
026. |
सच्चा भक्त प्रभु के जितना निकट पहुँचता है उससे भी और अधिक निकट जाने की अभिलाषा रखता है । |
027. |
मन, चित्त की सभी वृत्तियों को प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थिर कर लेना, यही सच्चा स्थितप्रज्ञ है । |
028. |
जब तक हम प्रभु को प्रभु मानेंगे हम प्रभु से विनती कर सकते हैं पर जब हम प्रभु को अपना प्रेमी मानेंगे तो ही हम प्रभु से प्रेम कर सकेंगे । |
029. |
प्रेम जीव को प्रभु पर अधिकार प्राप्त करवा देता है । |
030. |
श्रीगोपीजन को प्रभु के श्रीरास में अंतर्ध्यान होने पर एक क्षण के लिए भी संशय नहीं हुआ कि प्रभु मिलेंगे या नहीं । उन्हें अपने प्रेम के कारण पक्का पता था कि प्रभु उन्हें छोड़कर जा ही नहीं सकते । श्रीगोपीजन को बस यह पीड़ा थी कि प्रभु कब मिलेंगे क्योंकि एक-एक क्षण का वियोग उनके लिए कल्प के समान बीत रहा था । |
031. |
अगर हमारी अंतरात्मा में भाव हो तो निराकार प्रभु हमारे ठाकुरबाड़ी के विग्रह में साकार हो जाते हैं । |
032. |
भक्तों का भाव ही प्रभु का पोषण करता है । प्रभु को अपने पोषण के लिए कुछ नहीं चाहिए केवल भक्त के प्रेमाभक्ति का भाव चाहिए । |
033. |
गोपीगीत के माध्यम से श्रीगोपीजन ने प्रेम के उस स्तर का स्पर्श किया जिसकी कल्पना मात्र भी हम नहीं कर सकते । |
034. |
भक्त प्रभु के यंत्र होते हैं । संसार को भक्ति और प्रेम का मार्ग दिखाना भक्तों का कार्य होता है जिससे संसार के जीवों का कल्याण और उद्धार हो सके । प्रभु भक्तों के माध्यम से यह भक्ति और प्रेम का मार्ग सबको दिखाते हैं । |
035. |
भक्तों के रोम-रोम में प्रभु ही विराजते हैं । |
036. |
अगर संसार में कोई अपना सगा है तो वह केवल प्रभु ही हैं । संसार के रिश्ते मतलब के होते हैं इसलिए संसार में कोई भी हमारा सगा नहीं है । |
037. |
प्रभु हमें कब मिलेंगे यह प्रभु की मर्जी के ऊपर निर्भर करता है । हमारे पास अधिकार नहीं कि हम यह निर्णय करें कि प्रभु हमें कब मिलेंगे । प्रभु हमारी भक्ति और प्रेम से कब रीझते हैं और कब हमसे मिलने का मन बनाते हैं यह पूरी तरह से प्रभु पर निर्भर करता है । |
038. |
प्रभु को हमारा हृदय पसंद आना चाहिए । प्रभु जगत के स्वामी हैं इसलिए वे अपने अनुकूल हृदय को चुन लेते हैं । जैसे कोई सुंदर और कोमल पुष्प को हम बगिया से चुन लेते हैं वैसे ही प्रभु एक भक्त हृदय को चुन लेते हैं । |
039. |
प्रभु कोटि-कोटि वैभव देकर अपनी पूजा करने वाले से अपना पिंड छुड़ा लेते हैं पर अपनी प्रेमाभक्ति किसी-किसी बिरले को ही प्रदान करते हैं । |
040. |
जन्मों का साधन और यत्न होता है तो ही जीव को अंत समय प्रभु का स्मरण हो पाता है । |
041. |
संसार में जिस भी चीज के कारण हमारे भक्ति भाव की हानि होती है उस चीज को जीवन से त्याग देना चाहिए । |
042. |
प्रभु प्रेम का मार्ग प्रेम में मिटने का मार्ग है, पाने का मार्ग नहीं है । हम प्रभु से प्रेम कुछ पाने की आकांक्षा से करते हैं जो एकदम गलत है । |
043. |
अपने आपको प्रभु के श्रीकमलचरणों में पूर्ण रूप से अर्पण कर देना चाहिए । |
044. |
प्रभु का प्रेम भक्तों की आवश्यकता नहीं बल्कि उसकी विवशता होती है । भक्त विवश हो जाए प्रभु से प्रेम करने के लिए और प्रभु प्रेम के अलावा उसके जीवन का ध्येय ही कुछ नहीं हो तो ही मानना चाहिए कि उसकी प्रेमाभक्ति सार्थक हुई । |
045. |
हमें अपनी दीनता प्रभु के समक्ष प्रकट करनी चाहिए, इससे प्रभु बहुत जल्दी रीझते हैं । |
046. |
यह बात जगत के लिए रहस्य है और सदा ही रहस्य रहने वाली है कि न जाने कौन-सी बात पर दयानिधि प्रभु रीझ जाते हैं । |
047. |
संत कहते हैं कि प्रभु कब, क्यों और कैसे मिलेंगे यह पता नहीं पर कोई एक बार प्रभु के मार्ग पर चल पड़े तो प्रभु उसे अवश्य मिलते हैं - यह पक्का, पक्का और पक्का है । |
048. |
हमारा जरा-सा भी हेतु जीवन में कुछ और होगा तो हम सच्ची भक्ति के भाव का जीवन में आस्वादन नहीं कर पाएंगे । |
049. |
रोजाना श्री नरसी मेहताजी प्रभु को रिझाने के लिए गाते थे और प्रभु की माला मूर्ति से प्रसादी के रूप में उनके सामने गिर जाती थी । एक दिन गांव वालों ने कहा कि श्री नरसीजी जानबूझकर माला कमजोर बनाते हैं जिससे वह माला गिर जाए । इसलिए आज माला गांव वाले मिलकर माला बनाएंगे और फिर माला गिरेगी तो वे मानेंगे कि श्री नरसीजी भक्त हैं । गांव वालों की बनाई माला प्रभु को धारण करा दी गई और श्री नरसीजी गाने लगे । पूरा दिन गा लिया पर माला मूर्ति से नहीं गिरी । तो श्री नरसीजी ने प्रभु को उलाहना दिया तो प्रभु बोले कि आज तुम मुझे रिझाने के लिए नहीं गा रहे हो, तुम माला गिरवाने के लिए गा रहे हो । तुम्हारा भजन गाने का हेतु आज बदल गया है, इसलिए माला नहीं गिरी और माला रूपी प्रसादी तुम्हें नहीं मिला । श्री नरसीजी को अपनी गलती तुरंत समझ में आ गई । |
050. |
इतनी बात हमें जीवन में समझ लेनी चाहिए कि प्रभु के अतिरिक्त और प्रभु से अधिक हमारे हित का चिंतन करने वाला और हमारा हित करने वाला दूसरा और कोई भी जगत में नहीं है । |
051. |
हमारे मंगल का विधान प्रभु से अधिक कोई नहीं कर सकता । |
052. |
हम प्रभु के हैं और हमें जीवन भर प्रभु का ही बनकर रहना चाहिए । प्रभु हमारे हैं और प्रभु सदैव हमारा बनकर रहने के लिए तैयार हैं । |
053. |
चित्त जितना प्रभु में एकाग्र होगा हम जीवन में उतने ही शांत और गंभीर होते चले जाएंगे । |
054. |
भक्ति इतना प्रभु प्रेम निर्माण कर देती है कि भक्त चाहे भी तो प्रभु को छोड़कर नहीं जा सकता । श्रीगोपीजन ने प्रभु से गोपीगीत में यही कहा कि हम चाहे तो भी प्रभु को नहीं भूला सकते । |
055. |
संत कहते हैं कि जो प्रभु प्रेम में डूब जाता है उसे कभी वापस बाहर निकलते नहीं देखा गया । |
056. |
संसार का प्रेम कहने के लिए प्रेम है पर सच्चा प्रेम तो प्रभु ही जीव से करते हैं । |
057. |
सत्संग और भजन में मन तब लगता है जब अनेक जन्मों के पुण्य संचित हो जाते हैं । |
058. |
जहाँ प्रभु के गुण, नाम, ऐश्वर्य, करुणा, कृपा और दया की चर्चा निरंतर होती है वह धरती श्री बैकुंठजी के समान पूज्य हो जाती है । |
059. |
भक्त प्रभु प्रेम में बिक जाते हैं और प्रभु उन्हें खरीद कर अनमोल बना देते हैं । |
060. |
आज तक कोई भी प्रभु की इच्छा के बिना प्रभु के निकट नहीं पहुँच पाया है । |
061. |
जब प्रभु की कृपा जीव पर होती है तभी उस जीव के मन में भक्ति करने का संकल्प जागृत होता है । |
062. |
हमारा आध्यात्मिक जीवन कहाँ है इससे हमें रूबरू होना चाहिए और उस सत्य को स्वीकार करना चाहिए । हमारी योग्यता होनी चाहिए कि हमारे आध्यात्मिक जीवन का हम उत्थान कर पाए । |
063. |
हम प्रभु का गुणगान करते हैं और प्रभु की स्तुति करते हैं तो उसका एकमात्र उद्देश्य हमारे तन, मन और प्राणों को निर्मल करना होता है । प्रभु को हमारी स्तुति की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रभु की स्तुति करने से प्रभु के स्वरूप में हम कोई अभिवृद्धि नहीं कर सकते । |
064. |
एक सांसारिक माता-पिता भी अपने अयोग्य-से-अयोग्य बालक को भी दिए बिना नहीं रहते तो प्रभु तो हम सबके परमपिता हैं इसलिए उन्हें तो जीवों को देने में ही सुख मिलता है । |
065. |
अपने भक्तों से मिलने के लिए प्रभु की व्याकुलता भी असीम होती है । |
066. |
हमारा मन हमें संसार में हजारों प्रलोभन दिखाएगा कि शायद यहाँ सुख मिले, शायद वहाँ सुख मिले पर सच्चा परमानंद तो केवल प्रभु सानिध्य में ही मिलता है । |
067. |
बुद्धि को तब यह बात समझ में आती है कि भक्ति करनी चाहिए जब तन के पास ऐसा करने के लिए सामर्थ्य नहीं रहता है क्योंकि हमारा बुढ़ापा आ जाता है । |
068. |
बूढ़े व्यक्ति के पास अपने संकल्प-विकल्पों को संयमित करने की ऊर्जा नहीं रहती । इसलिए यौवन काल में ही भक्ति करनी चाहिए जिससे हमारा बुढ़ापा भी प्रभु को समर्पित हो जाए । |
069. |
भजन करने का सच्चा समय यौवन काल है जब हमारा शरीर और बुद्धि ठीक-ठीक कार्य करती है । |
070. |
हमारे मन और चित्त की वृत्ति कुछ भी करे, कहीं भी रहे पर प्रभुमय ही होनी चाहिए । |
071. |
अगर हमारे जीवन में भक्ति नहीं है तो हम जीवन में कुछ भी हासिल करें वह शून्य के आगे शून्य लगाने जैसा ही है । |
072. |
जीव संसार में सुख पाने का अथक प्रयास करता है पर अंत में खेद ही पाता है । |
073. |
जब हम विषयों का सुख लेने में डूब जाते हैं तो भजन करना बहुत कठिन हो जाता है । |
074. |
जो आज, अभी, इसी समय से भक्ति करेगा वही सफल हो पाएगा । जिसने भक्ति को कल पर छोड़ दिया वह कभी भी सफल नहीं हो पाएगा । |
075. |
हमारे हृदय में प्रभु के श्रीकमलचरणों का चिह्न होगा तो हम निर्भय होंगे जैसे कालिया नाग के फन पर प्रभु ने अपने
श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न अंकित किए और वह सदैव के लिए श्री गरुड़जी से निर्भय हो गया । |
076. |
हमारे जीवन में सकामता की यात्रा पर विश्राम लगना चाहिए और यह विश्राम भक्ति ही लगा सकती है । |
077. |
जीवन के प्रपंच का कभी अंत नहीं आता क्योंकि यह अंतहीन है । जीवन से संसार के प्रपंच का त्याग करना पड़ता है और प्रभु की भक्ति करनी पड़ती है । |
078. |
जीवन में पाप करने की वृत्ति केवल प्रभु की भक्ति ही छुड़वाती है और छुड़वा सकती है । अन्य किसी तरह से यह नहीं छूटती । |
079. |
सत्संग के बाद प्रसाद नहीं बाटे क्योंकि सत्संग का वास्तविक प्रसाद प्रभु के लिए भक्ति और प्रेम जगाना है । |
080. |
हमारे पास भगवत् चर्चा के अलावा कुछ भी नहीं होना चाहिए । |
081. |
प्रभु से कुछ भी जीवन में छिपाने का प्रयास करना सबसे बड़ा पाप है । |
082. |
जब हम भोग की थाल रखते हैं तो प्रभु का ध्यान सामग्री पर नहीं अपितु उसके पीछे छिपे भाव पर जाता है । |
083. |
अगर भक्ति नहीं करेंगे तो मन चंचल हो उठेगा और मन कभी भी नियंत्रण में नहीं आएगा । |
084. |
प्रभु की कृपा कभी श्रीग्रंथ के रूप में, कभी भक्त के रूप में, कभी संत के रूप में, कभी विचार के रूप में, कभी भाव के रूप में आती है और भक्त को जीवन का आधार और अवलंबन देकर जाती है । |
085. |
जीव ही प्रभु से विमुख हो जाता है, प्रभु तो स्वभाव वश सदैव जीव के सन्मुख ही रहते हैं । |
086. |
बहुत जन्मों के पुण्य उदित होते हैं तो ही हमें इस जीवन में प्रभु चर्चा सुहाती है वरना लोग व्यर्थ की सांसारिक चर्चा में ही जीवन भर लिप्त रहते हैं । प्रभु के बारे में श्रवण करने का, पठन करने का मन तभी बनता है जब हमारे जन्म-जन्मों के पाप क्षीण होने लगते हैं । जिनको प्रभु के बारे में श्रवन और पठन में रुचि होने लगी है उन्हें ऐसा मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा दृष्टि उन पर पड़ी है जिस कारण ही ऐसा संभव हुआ है । जीवन में वही पल धन्य और सार्थक होता है जो हम प्रभु चर्चा में व्यतीत करते हैं । इसलिए प्रभु के बारे में सुनने और पढ़ने का अवसर जीवन में कभी भी गंवाना नहीं चाहिए । जो ऐसा नहीं करता उसका इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाता है । |
087. |
जिसने प्रभु की शरण ली उसका उद्धार निश्चित है, उसके उद्धार को संसार की कोई ताकत रोक नहीं सकती । |
088. |
प्रभु प्रेम स्वरूप हैं, प्रेम की बात ही सुनते हैं और प्रेम की भाषा ही समझते हैं । |
089. |
बिना प्रेम और बिना भाव की प्रार्थना और स्तुति प्रभु पसंद नहीं करते । |
090. |
भक्ति के मार्ग पर जो दीर्घकाल से चल रहा है उसे प्रभु की स्वीकृति है तभी वह ऐसा कर पा रहा है । |
091. |
प्रभु के लिए निष्ठा और जीवन में अनुशासन प्रभु की भक्ति के लिए परम आवश्यक होती है । |
092. |
भक्ति ही केवल प्रभु का दर्शन हमें करवा सकती है क्योंकि भक्ति ने ही ऐसा प्रभु का दर्शन भक्तों को पूर्व में करवाया है । |
093. |
प्रभु के माहात्म्य, ऐश्वर्य और सर्वसामर्थ्यता का ज्ञान हमें जीवन में हर पल रखना चाहिए । |
094. |
प्रभु की हमें भक्ति में स्वीकृति की कसौटी यही है कि जीवन में अवरोध और प्रतिकूलता आने पर भी अगर हमारा प्रभु में विश्वास दृढ़ रहता है और हमारी प्रभु की भक्ति कायम रहती है तो यह मानना चाहिए कि प्रभु हमसे भक्ति करवाना चाहते हैं । |
095. |
प्रभु की कृपा दृष्टि में हमें अपने आपको तब समझना चाहिए जब भक्ति और भजन में हमारा मन लगने लगे । |
096. |
संसार से मिलने वाला सुख पानी के बुलबुले के समान है, अभी बनता है और अभी मिट जाता है । |
097. |
भक्ति विहीन होने पर जिसका संकल्प अशुद्ध होता है और जिसका उद्देश्य अशुद्ध होता है उसी के मन में कुविचार आते हैं । |
098. |
सच्चा संत कभी भी अपनी पूजा नहीं करवाता और न ही करवा सकता है । सच्चा संत सबसे प्रभु की ही पूजा करवाता है । |
099. |
अपने आपको प्रभु का जन्मों-जन्मों का नित्य दास मानना चाहिए । |
100. |
भक्ति वही सार्थक कहलाती है जो हमारे हृदय को प्रभु की तरफ मोड़ दे । |
101. |
प्रभु के गुणानुवाद और प्रभु की चर्चा करने से हमारा चित्त कोमल होता है । |
102. |
भक्त सारे संसार को प्रभु की भक्ति और प्रभु के प्रेम का उपदेश अपने आचरण से देते हैं । |
103. |
प्रभु की भक्ति को जो जानता है वह जगत के सामने उसका प्रदर्शन नहीं करता और जो प्रदर्शन करता है वह जानता ही नहीं है । |
104. |
प्रभु के बारे में शब्दों से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि शब्द मौन हो जाते हैं और हमारी बुद्धि हार जाती है । |
105. |
श्रीगोपीजन की प्रभु से प्रीति निष्कपट और अविचल थीं । |
106. |
श्रीगोपीजन को जब श्रीरास में बुलाने पर प्रभु ने कहा कि तुम पर-पुरुष के पास क्यों आई हो तो श्रीगोपीजन ने बहुत सुंदर उत्तर दिया कि वे परम-पुरुष के पास आईं हैं । |
107. |
सकल जगत में परम पुरुष तो एक प्रभु ही हैं । जब भगवती मीराबाई श्री जीव गोस्वामीजी से मिलने गई तो उन्होंने कहलवा दिया कि वे स्त्री से नहीं मिलते । तो भगवती मीराबाई ने कहा कि चौदह भुवन में पुरुष तो केवल एक प्रभु ही हैं, यह दूसरा पुरुष कौन-सा आ गया । जब श्री जीव गोस्वामीजी को यह बात पता चली तो उनको अपनी गलती का तत्काल एहसास हुआ और वे बाहर आकर तुरंत भगवती मीराबाई के चरणों में गिर पड़े । |
108. |
भक्तों के रोम-रोम में प्रभु प्रेम स्थित होता है । |
109. |
भक्ति करने वाले की कोई जाति नहीं होती, कोई आयु नहीं होती और कोई कुल नहीं होता । किसी भी जाति में, किसी भी आयु का, किसी भी कुल का भक्त हो सकता है । |
110. |
सच्चा संत वही है जो जीव से संसार के विषय छुड़ाए और जो जीव को प्रभु का नाम जपाए । सच्चे संत का यही एकमात्र लक्षण होता है । |
111. |
जीव के कल्याण करने का सामर्थ्य केवल और केवल प्रभु की भक्ति में ही है । |
112. |
प्रभु का प्रेम कभी भी हमें जीवन में, जीवन के प्रत्येक क्षण में प्रभु को भूलने नहीं देता । |
113. |
प्रभु के सामर्थ्य को, प्रभु के ऐश्वर्य को, प्रभु की करुणा को भक्त जीवन में कभी भी नहीं भूलता है । |
114. |
प्रभु की कृपालुता देखकर हमें जीवन में सदैव प्रभु के कृतज्ञ बनकर ही रहना चाहिए । |
115. |
भक्त सदैव प्रभु के निर्देशन में प्रभु का यंत्र बनकर जीवन में काम करता है । |
116. |
भक्त प्रभु के लीला यंत्र बनते हैं । प्रभु भक्तों को माध्यम बनाकर श्रीलीला करते हैं । श्रीगोपीजन को कभी भी प्रभु प्रेम का अहंकार नहीं हो सकता था पर जगत को प्रभु प्रेम का अहंकार न हो यह बताने के लिए प्रभु के निर्देशन में वे प्रेम का अहंकार की श्रीलीला में सहभागी हुई । |
117. |
भक्त प्रभु से कहता है कि अगर उसके प्रभु विरह में रोने से प्रभु को हंसी आती है तो वह रो-रो कर प्रभु को हंसाया करेगा । |
118. |
भक्तों के मन में केवल प्रभु को सुख प्रदान करने की ही भावना होती है । |
119. |
जब प्रभु ने हमें बेहिसाब दिया है तो हम क्यों गिन-गिन कर प्रभु का नाम लें । |
120. |
हमने अपने विश्वास की ऊर्जा को बेकार के स्थानों में खर्च कर दिया है और प्रभु के लिए हमारा विश्वास बचा ही नहीं है । उदाहरण स्वरूप हम एक टैक्सी वाले की गाड़ी में बिना उसका लाइसेंस देखें विश्वास में बैठ जाते हैं पर जगत को चलाने वाले प्रभु पर प्रतिकूलता की घड़ी में विश्वास नहीं करते । |
121. |
प्रभु पर भरोसा करने का जब जीवन में समय आता है तो हम सौ प्रतिशत प्रभु पर भरोसा करने से चूक जाते हैं । |
122. |
हमें प्रभु के सामने जाने का अदब आना चाहिए । हम प्रभु के मंदिर में बड़े होकर जाते हैं, ऊँचे होकर जाते हैं पर प्रभु उसे ही देखते हैं जो छोटा बनकर और दीनता का भाव लेकर प्रभु तक आता है । |
123. |
जो हमने जीवन भर परिश्रम करके कमाया है उसमें से एक फूटी कौड़ी भी हमारी नहीं है और हमारे साथ जाने वाली नहीं है । |
124. |
प्रभु प्रेम में पूर्ण तृप्ति है, फिर भी और अधिक प्रेम पाने की अतृप्ति भी बनी रहती है । |
125. |
सच्चे भक्तों को प्रभु से कुछ नहीं चाहिए होता, केवल एक सहज प्रेम प्रभु से पाने की अभिलाषा उनके मन में होती है । |
126. |
प्रभु की एक मूर्ति या फोटो हम खरीद कर घर ले आते हैं पर जब हम अपने भक्ति भाव से उसका पोषण करते हैं और हमारी आत्मा का संबंध उस प्रभु के विग्रह से जुड़ जाता है तो हम तीनों लोकों की संपत्ति लेकर भी उस विग्रह को किसी को नहीं देते । |
127. |
भक्ति प्रभु को भक्तों के अधीन कर देती है । प्रभु सर्वेश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं फिर भी भक्तों के भक्ति भाव के कारण उनके अधीन हो जाते हैं । |
128. |
प्रभु सबको कोटि-कोटि वरदान देकर अपना पीछा छुड़वा लेते हैं पर अपनी श्रीकमलचरणों की भक्ति किसी निष्काम भक्त को ही प्रदान करते हैं । |
129. |
प्रभु को केवल जीव के प्रेम की ही आवश्यकता है । |
130. |
प्रभु की भक्ति हमें प्रभु के स्वरूप का और प्रभु का अनुभव करवाती है । |
131. |
ज्ञानी प्रभु का प्रेमी हो यह आवश्यक नहीं है पर प्रभु का प्रेमी ज्ञानी होता ही है क्योंकि प्रभु के ज्ञान के बाद ही उसका प्रभु प्रेम जागृत होता है । भगवती मीराबाई ने अपने भजन में सीधी-सी बातें कहकर कितने ब्रह्म ज्ञानियों के ज्ञान को भी छोटा कर दिया । |
132. |
भजन करिए और जीवन में करते रहिए । क्या हो रहा है भजन से इस बात की प्रतीक्षा यह समीक्षा नहीं करें नहीं तो आप गलती कर बैठेंगे । हमें बीज डालकर बंदर की तरह बार-बार जमीन को खोदकर नहीं देखना चाहिए कि बीज अंकुरित हुए कि नहीं । |
133. |
प्रभु पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहिए । |
134. |
तीनों लोकों के नियंता प्रभु को हम भक्ति से अपना बना सकते हैं । |
135. |
प्रभु, जिनके भृकुटी के इशारे मात्र से सारा जगत नाचता है, उन प्रभु को प्रेमाभक्ति के कारण श्रीगोपीजन ने अपने प्रेम में नचाया । |
136. |
भक्तों की बातें भक्त बने बिना कोई दूसरा समझ नहीं सकता । |
137. |
प्रभु पुकारने से उत्तर अवश्य देते हैं । |
138. |
जीव प्रभु को पुकारता है और प्रभु को ढूँढ़ता है पर श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम के कारण अधिकार देखें जब वे प्रभु को कहती हैं कि आप ही हमें पुकारे और हमें ढूंढ़ें । |
139. |
जगत नियंता प्रभु भी भक्तों के प्रेम के आगे झुक जाते हैं । |
140. |
प्रभु खोजने से नहीं बल्कि भक्ति में खो जाने से मिलते हैं । |
141. |
कोई दूसरा व्यक्ति न हमें भजन के मार्ग पर ला सकता है और न ही हमें भजन के मार्ग से हटा सकता है । हमारा मन ही है जो हमें भजन के मार्ग पर ला या भजन के मार्ग से हटा सकता है । |
142. |
माया हमें संसार में भटकाती है और भटकते-भटकते हमारा पतन करवा देती है । |
143. |
हम भक्ति का प्रदर्शन करके अपनी ही हानि करते हैं । |
144. |
जीव भटक कभी भी सकता है, कहीं भी सकता है इसलिए उसे भक्ति करते हुए सदैव सावधान रहना चाहिए । |
145. |
जो दीर्घकाल से भजन कर पा रहा है वह प्रभु की स्वीकृति से ही ऐसा कर पा रहे अन्यथा यह कतई संभव नहीं हो सकता । |
146. |
जीव को कभी भी अपने भजन का, अपने साधन का अभिमान नहीं होना चाहिए अन्यथा उसका पतन हो जाएगा । |
147. |
प्रभु और हमारे बीच कंचन, कामिनी, कीर्ति, आलस्य और अहंकार है । इन पांच चीजों पर विजय हुई तो प्रभु तत्काल मिल जाते हैं । |
148. |
जीव को पापों से मुक्त करने का सामर्थ्य और अधिकार केवल प्रभु के ही पास है । |
149. |
प्रभु अगर नाराज हो तो भी हमारा भला ही करेंगे । |
150. |
प्रभु जब हमें अपना बनाते हैं तो पहले हमें रिक्त करते हैं और इसलिए हमारा सब कुछ लूट लेते हैं । |
151. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु सरेआम घोषणा करते हैं कि जिन पर वे कृपा करते हैं उसका पहले सर्वस्व हर लेते हैं । ऐसा इसलिए कि प्रभु हमें पहले रिक्त करते हैं उस दिव्य प्रेमभाव को भरने के लिए जिसको पा लेने के बाद जीवन में परमानंद छा जाता है और कुछ भी पाना शेष नहीं बचता । |
152. |
प्रभु और प्रेम दो बातें नहीं है । प्रेम से ही प्रभु मिलते हैं और प्रभु प्रेम के वश में ही रहते हैं । |
153. |
जो केवल प्रभु को ही चाहता है उसे जीवन में कोई नहीं भटका सकता । |
154. |
यह प्रभु के लिए भाव, यह भक्ति के संस्कार हमारे ऋषि-मुनियों की कमाई है जो भारतवर्ष में जन्मे लोगों को उत्तराधिकार और विरासत के रूप में मिले हैं । |
155. |
जीव का कल्याण कोई कर सकता है तो वह केवल, केवल और केवल प्रभु ही कर सकते हैं । |
156. |
प्रभु को हमारे कर्मों से सुख देने के अतिरिक्त हमें अन्य कोई अभिलाषा जीवन में नहीं रखनी चाहिए । |
157. |
प्रभु के अतिरिक्त किसी भी अन्य चीज का ज्ञान होने को अध्यात्म में अज्ञान माना गया है । |
158. |
प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि मैं केवल भक्ति से नहीं बल्कि अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता हूँ । |
159. |
अनन्य भक्ति का एक अर्थ है कि जिस भक्ति में प्रभु के अलावा अन्य किसी का आश्रय ही न हो । |
160. |
प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्रीवचन है कि केवल मेरी, एक मेरी शरण में आ जाने से मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा । |
161. |
संसार की कामना पूरी हो जाने से भी चित्त को कभी संतोष नहीं मिलता क्योंकि नई कामनाएं तुरंत जन्म ले लेती है । |
162. |
एक रक्तबीज नाम का असुर था, जिसकी एक रक्त की बूँद जमीन पर गिरते ही एक नया रक्तबीज असुर उत्पन्न हो जाता था । संत कहते हैं कि कामना भी ऐसा ही असुर है जो एक पूर्ण होती है तो दूसरी कामना को जन्म देकर ही पूर्ण होती है । जैसे भगवती दुर्गा माता ने रक्तबीज असुर का संहार किया वैसे ही भगवती भक्ति माता ही कामनारूपी असुर का संहार कर सकती है । |
163. |
कामना रहित होने पर ही जीव को संसार में विश्राम मिलता है । |
164. |
प्रभु की भक्ति जीव को निर्भय और निडर बना देती है । |
165. |
प्रभु से श्रीगोपीजन ने एक ही निवेदन किया । उन्होंने कहा कि न उनसे प्रभु बिसरे और न प्रभु से वे बिसरे यानी न श्रीगोपीजन प्रभु को भूले और न ही प्रभु श्रीगोपीजन को भूले । |
166. |
प्रभु अपनी शरण में आने वाले के कोटि-कोटि अपराधों को भी नहीं देखते । |
167. |
मन को लगने के लिए, टिकने के लिए, मिटने के लिए रस चाहिए और यह रस केवल भक्ति में ही है । |
168. |
प्रभु श्री महादेवजी जैसा कोई भजनानंदी नहीं है । सब कुछ करने का सामर्थ्य होते हुए भी श्मशान में बैठकर निरंतर प्रभु का भजन करते रहते हैं । |
169. |
प्रभु श्री महादेवजी जैसा कोई भक्त नहीं, कोई विरक्त नहीं । |
170. |
प्रभु हमारे एकमात्र इष्ट हो जाएं, यह साधारण बात नहीं है । यह अनंत जन्मों के पुण्यों के उदय होने के बाद ही होता है । |
171. |
प्रभु में अनन्य भाव होने पर ही अध्यात्म में हमारी प्रगति होगी । |
172. |
संसार की वस्तुओं का, धन-संपत्ति का लोभ हमारी दुर्गति करने वाला है पर जब वही लोभ प्रभु प्रेम के लिए जागृत हो जाता है तो वह हमारी उन्नति करने वाला बन जाता है । |
173. |
संसार के लिए संतोष होना चाहिए पर भक्ति और प्रभु प्रेम में कभी संतोष नहीं होना चाहिए बल्कि सदैव लोभ होना चाहिए कि और अधिक भक्ति और प्रभु से प्रेम हम कर पाएं । |
174. |
भक्ति में संतोष हो जाएगा तो भक्ति की गति और अनन्यता बाधित हो जाएगी । |
175. |
हमें मानना चाहिए कि हम भक्ति तभी ठीक कर रहे हैं जब भक्ति करते-करते भक्ति की पिपासा बढ़ती जाए । |
176. |
भक्ति में कभी भी प्रमाद या आलस्य नहीं करना चाहिए । |
177. |
भजन हमारी आत्मा का भोजन है । जैसे हमारे शरीर को नित्य भोजन की आवश्यकता होती है वैसे ही हमारी आत्मा को भी नित्य भोजन की आवश्यकता होती है । |
178. |
आत्मा को भजनरूपी भोजन नहीं मिलता तो उसमें दुर्बलता आ जाती है और फिर हम गले और हाथ में ताबीज और अंगुलियों में पत्थरों की अंगूठी पहनने लगते हैं । |
179. |
भक्तों की सब लज्जा प्रभु को होती है । इसलिए भक्त निर्भयता का अपने जीवन में आनंद लेता है । |
180. |
जिस चीज का संग करेंगे उसका ही भाव जीवन में आएगा । हाथ में माला रखेंगे तो भजन का भाव आएगा, हाथ में मोबाइल रखेंगे तो संसार का भाव आएगा । |
181. |
विज्ञान भी मानता है कि हम जिसका संग करेंगे हमारे संस्कार वैसे होते चले जाएंगे । इसलिए जीवन में प्रभु का संग करें तो भक्ति के संस्कार जीवन में आएंगे । |
182. |
जीवन में प्रतिकूलता आने पर भी भक्ति हमें भयभीत नहीं होने देती और निश्चिंत बनाकर रखती है क्योंकि भक्तों को प्रभु पर पूर्ण भरोसा होता है कि प्रभु के होते उनका अहित कोई भी, कभी भी नहीं कर सकता इसलिए उनका अहित कभी हो ही नहीं सकता । |
183. |
भक्ति वही है जो हमें भीतर से सुदृढ़ करे और निर्भय करे । |
184. |
भक्ति के बावजूद अगर हमें जीवन में चिंता है तो हमारी भक्ति के मार्ग पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि भक्ति का मार्ग चिंता रहित होने का मार्ग है । भक्त की चिंता करने का दायित्व प्रभु सदैव उठाते हैं और उठाते रहेंगे इसलिए भक्ति का मार्ग भक्त के लिए चिंता रहित होने का मार्ग है । |
185. |
केवल प्रभु ही हैं जो कि जीव के अनंत-अनंत अपराध को भी क्षमा कर देते हैं और उस जीव पर कृपा करते हैं जो जीव प्रभु की शरण में आ जाता है । |
186. |
संसार का लोभ बढ़ता है तो हम प्रभु से दूर होते चले जाते हैं और भक्ति का लोभ जैसे-जैसे बढ़ता है हम प्रभु के समीप पहुँचते चले जाते हैं । |
187. |
प्रभु अपने भक्तों के प्रेम का मोल ऐसा देते हैं कि खुद को भी न्यौछावर कर देते हैं । |
188. |
जो जीवन प्रभु की सेवा से रहित हो वह जीवन कहलाने योग्य ही नहीं है । |
189. |
प्रभु की सेवा करें तो इस कृतज्ञता के साथ करें कि प्रभु आपने मुझे इस लायक समझा, मुझे चुना और मुझे अवसर दिया । |
190. |
प्रभु कृपा नहीं करते तो भक्ति का क्षण जीवन में कभी भी नहीं आ सकता था । |
191. |
प्रभु की सत्ता सर्वत्र कोटि-कोटि ब्रह्मांडों में समान रूप से चलती है । |
192. |
प्रभु से प्रेम किए बिना जीवन में कभी भी विश्राम नहीं मिलेगा । |
193. |
प्रभु प्रेम हमें पूर्ण संतुष्ट कर देता है और मानव जीवन की पूर्णता के निकट हमें ले जाता है । |
194. |
जिसके महाभाग्य का उदय होता है उस जीव के मन में प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकने की अभिलाषा जागृत होती है । |
195. |
श्रीगोपीजन को भजन करने के लिए, ध्यान करने के लिए आँखें बंद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि उन्हें खुली आँखों से ही प्रभु दिखते थे । |
196. |
हमारे मन में प्रभु आते नहीं और श्रीगोपीजन के मन से प्रभु जाते नहीं । यह कितना बड़ा भाग्य है श्रीगोपीजन का, जरा कल्पना करें । |
197. |
प्रभु के अलावा किसी की प्रदक्षिणा, स्तुति और ध्यान करना अपराध है । |
198. |
भक्तों का आभूषण ही भक्तों के हृदय का प्रभु के लिए भाव होता है । |
199. |
भक्तों का भाव ही प्रभु को सच्चे मायने में सजाता है । |
200. |
अगर प्रभु हमारे मन में आ जाए तो मन जितना भी चंचल हो वह स्थिर हो जाता है । |
201. |
प्रभु की शरण में आते ही प्रभु हमें अभयदान दे देते हैं । |
202. |
प्रभु के श्रीकरकमल हमारे सिर पर रहेंगे तो हमारा दिमाग कभी बिगड़ेगा नहीं और कभी विपरीत कार्य नहीं करेगा । |
203. |
सकामता जीव को प्रभु से विमुख करती है । |
204. |
अपने सुख की कामना रखना यानी निष्काम नहीं होना प्रभु मिलन में सबसे बड़ी बाधा है । |
205. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा सिर झुकते ही प्रभु की करुणा तत्काल जागृत हो जाती है । |
206. |
प्रभु पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहिए । |
207. |
तीनों लोकों का वैभव भी किसी के पास हो फिर भी अगर उसे परमानंद चाहिए तो उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही आकर अपना मस्तक झुकाना होगा । |
208. |
जैसे रसीले फल से लदे पेड़ की डाल झुक जाती है वैसे ही भक्ति से भरा भक्त भी सदैव झुका रहता है । |
209. |
श्री वृंदावनजी की श्रीरज का इतना महत्व है कि उनका ध्यान करने से ही जीव का भजन बढ़ जाता है । |
210. |
श्रीबृज की श्रीरज जीव को तारने में अति समर्थ है क्योंकि वे प्रभु का स्पर्श पाई हुई हैं । सिद्धांत यह है कि प्रभु का जो स्पर्श पा जाता है वह खुद तो तरता ही है दूसरों को भी तारने का सामर्थ्य रखता है । |
211. |
श्रीनिधिवन आज भी प्रभु और माता की श्रीलीला रस का पान करता है । |
212. |
बादल तब बरसते हैं जब भूमि तपती है वैसे ही जब व्याकुलता में जीव का हृदय तड़पता है तो प्रभु की कृपा बरसती है । |
213. |
सच्चा भक्त वही है जिसके जीवन में प्रभु के अलावा अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं और बचता ही नहीं । |
214. |
भक्ति हृदय को स्पर्श करती है तो मन प्रभु में लगना प्रारंभ हो जाता है । |
215. |
यह प्रेमाभक्ति की महिमा है कि जो प्रभु ऋषि, मुनि, महात्माओं के ध्यान लगाने पर भी उनके हृदय में नहीं पधारते उन प्रभु को ध्यान से निकालने के लिए श्रीगोपीजन प्रयत्न करती हैं, प्रयास करती हैं । |
216. |
जीव जो बिंदु समान है, भक्ति उस जीव को प्रभु रूपी सिंधु में मिला देती है । हम एक लोटा जल ले जाकर सागरदेव में मिला दें और फिर सागरदेव से कहें कि वही एक लोटा जल वापस दे दें तो ऐसा नहीं हो सकता । वह लोटा जल हमेशा के लिए सागरदेव का हो गया । वैसे ही भक्ति जीव को सदैव के लिए प्रभु का बना देती है । |
217. |
जब तक हम प्रभु से मांगते रहेंगे और मांगने का स्वभाव रखेंगे तब तक अतृप्त और दुःखी रहेंगे । जब हम प्रभु से केवल प्रभु को मांगेंगे तभी जीवन में आनंद और परमानंद आएगा । |
218. |
अन्य अभिलाषाओं से शून्य हृदय ही प्रभु को सर्वाधिक प्रिय होता है । |
219. |
भक्तों को संसार के रूठने की, संसार के बिगड़ने की चिंता कभी नहीं होती क्योंकि उनका समर्पण केवल प्रभु के लिए होता है । |
220. |
प्रभु का यश गाने से भक्तों को दिव्य सुख मिलता है । |
221. |
प्रभु को अपने यश से अधिक अपने भक्तों का यश प्रिय होता है । प्रभु सदैव अपने भक्तों को यश देते हैं और संसार से दिलाते हैं । |
222. |
प्रभु का गुणानुवाद करना सभी साधनों का शिरोमणि साधन है । |
223. |
प्रभु को पुकारने का आनंद अदभुत होता है । |
224. |
कामनाएं हमारे जीवन को भगवत् विमुख करती है । |
225. |
काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार यह पांच दोष हैं जो पंच दोष कहलाते हैं । जब प्रभु के श्रीकरकमल की पांच श्रीअंगुली हमारे मस्तक को स्पर्श करती है तो वे पंच दोषों को दूर कर देती है, ऐसा संतों का भाव है । |
226. |
जब तक देह भाव रहेगा तब तक देव भाव जीवन में नहीं आएगा । |
227. |
प्रभु का नाम ही केवल धरती पर अमृत है । |
228. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में मस्तक रखने योग्य नहीं बनना पड़ता है, कोई भी, कैसा भी जीव प्रभु की शरणागति लेकर अपना मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में रखने का अधिकार रखता है । |
229. |
हम भक्ति के योग्य हो गए इसमें साक्षात प्रभु कृपा का दर्शन हमें करना चाहिए । |
230. |
प्रभु भी अपने स्वभाव के वशीभूत हैं । कृपा करना, करुणा करना प्रभु का स्वभाव है और प्रभु इसके अलावा या इससे कम कुछ कर ही नहीं सकते । |
231. |
जैसे एक क्रोधी को न चाहने पर भी स्वभाव के कारण क्रोध आ जाता है वैसे ही स्वभाव के कारण प्रभु को जीव मात्र पर कृपा आ जाती है । |
232. |
एक कहावत है कि जीव एक पग प्रभु की तरफ चलता है तो प्रभु दस पग भक्तों की तरफ चल कर आते हैं । पर संत ऐसा मानते हैं कि जीव को मात्र एक पग ही चलना पड़ता है बाकी दस नहीं बल्कि सभी पग प्रभु ही चलकर आते हैं, प्रभु इतने करुणामय हैं । |
233. |
जीव का एक पग क्या है प्रभु की तरफ बढ़ने का – मन, कर्म, वचन से प्रभु को समर्पित हो जाना और प्रभु की शरणागति में चले जाना । |
234. |
कोई प्रभु की शरण में नहीं आए यह उसका दुर्भाग्य है पर शरण में आने पर प्रभु किसी को कभी भी त्यागते नहीं । |
235. |
बिना प्रभु की असीम कृपा के प्रभु की माया के पार कोई नहीं जा सकता । |
236. |
जो प्रभु की शरण में आ जाता है केवल वही प्रभु की माया से बच पाता है । |
237. |
जो प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरणागति जीवन में ले लेगा वह जीव संसार में माया से बच जाएगा । |
238. |
संसार की प्राप्ति होगी भी तो भी वह अंत में छूट जाएगी, टूट जाएगी । इसलिए मानव जीवन लेकर प्रभु की प्राप्ति ही करनी चाहिए । |
239. |
संसार की कोई वस्तु सदैव के लिए हमारे पास रह नहीं सकती । वस्तु रहेगी तो हम नहीं रहेंगे, मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे और अगर हम रहेंगे तो वस्तु से वियोग हो जाएगा । इसलिए संसार को अपूर्ण माना गया है । |
240. |
योग्य, अयोग्य का विचार किए बिना अकारण प्रभु अपनी कृपा जीव पर बरसाते रहते हैं । |
241. |
हमारे महाभाग्य का उदय होता है तो ही हम प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचने का प्रयास जीवन में करते हैं । |
242. |
भक्त संसार का बहुत थोड़ा खोता है और उसके बदले में प्रभु के सानिध्य का बहुत-बहुत और बहुत बड़ा लाभ पाता है । |
243. |
कोयला दबाव झेल कर हीरा बन जाता है । वैसे ही जीव जो संसार के दबाव को झेल कर भक्ति करता रहता है वह हीरा बन कर प्रभु तक पहुँच जाता है । |
244. |
प्रभु के प्रेम के लिए रोना यह भी सबके भाग्य की बात नहीं होती है । संसार के लिए तो सभी रोते हैं पर प्रभु के लिए कुछ बिरले ही रोते हैं । |
245. |
प्रभु के लिए अश्रु किसी सौभाग्यशाली की आँखों से ही आते हैं । |
246. |
दो अश्रु प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवेदन वही कर सकता है जिसका अनेक जन्मों का संचित भजन हो । |
247. |
प्रभु की कृपा से हम दोष मुक्त होकर प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा के योग्य बन जाते हैं । |
248. |
प्रभु की भक्ति प्रभु का अनुभव और आस्वादन करवा देती है । |
249. |
प्रभु हमारे मन के भावों की भी रक्षा करते हैं । इसलिए प्रभु का भक्त कभी भी कुविचार नहीं करता । |
250. |
प्रभु जिसे देख कर मुस्कुरा देते हैं मानो उसका हृदय छीन लेते हैं । वह जीव फिर संसार का नहीं रहता, वह सदा के लिए प्रभु का हो जाता है । |
251. |
एक भक्त ने एक बहुत सुंदर भाव प्रभु से निवेदन किया । उसने कहा कि मेरा मन बहुत दुष्ट है वह अपने आप कभी भी प्रभु आपके पास नहीं आएगा, उसे तो प्रभु आपको ही छीनना पड़ेगा । |
252. |
प्रभु की दया, प्रभु की कृपा, प्रभु का अनुग्रह, प्रभु की मेहर जीवन में और जीवन भर पाने का प्रयास करना चाहिए । |
253. |
नर तन पाकर भजन का प्रयास नहीं करना, यह सबसे बड़ा पाप है । |
254. |
मनुष्य जन्म लेकर जो भक्ति करके आत्म कल्याण नहीं कर पाता, ऐसे मनुष्य को शास्त्र धिक्कारते हैं । |
255. |
संत यहाँ तक कहते हैं कि प्रभु नाम को छोड़कर बाकी सब कहे वचन और वाणी निरर्थक और अशुद्ध है । |
256. |
प्रभु की सेवा तब ही कोई कर पाता है जब उस जीव पर प्रभु की नजर पड़ती है । उसे प्रभु द्वारा सेवा के लिए चुना जाता है । |
257. |
प्रभु की जिस पर नजर पड़ जाती है फिर संसार और तंत्र-मंत्र किसी की भी नजर उस पर कभी नहीं लग सकती । |
258. |
प्रभु के लिए भाव में कभी भी अभाव नहीं आने देना चाहिए । |
259. |
किसी भी कुसंग से हमारी प्रभु के लिए श्रद्धा को दुर्बल या कमजोर नहीं होने देना चाहिए । |
260. |
प्रभु और हमारे बीच कोई नहीं होना चाहिए । जब तक कोई है तब तक तार जुड़ेगा नहीं । |
261. |
कोई हमारे और प्रभु के बीच आने का प्रयास करता है तो वह हमें भजन से विमुख कर देगा । |
262. |
प्रभु और हमारे बीच द्वार होता है, दीवार कभी नहीं होती । हमें वह द्वार भक्ति के द्वारा पार करके प्रभु तक पहुँचना पड़ता है । यह द्वार केवल भक्ति ही पार करवाती है । |
263. |
किसी के प्रभु तक पहुँचने वाला मार्ग को कभी छोटा नहीं माने । जिसका भी मार्ग सही होगा वह ठीक प्रभु तक पहुँच जाएगा । |
264. |
सत्संग सच्चा हो और सच्चे मन से सुना जाए तो जीवन में निश्चित परिवर्तन ले आता है । |
265. |
भक्ति मार्ग पर सभी जीव मात्र का अधिकार है । |
266. |
कलियुग में श्रीहरि नाम, श्रीहरि नाम और श्रीहरि नाम केवलम कहा गया है । इसका सीधा अर्थ यह है कि केवल श्रीहरि नाम ही कलियुग में पर्याप्त है । |
267. |
प्रभु नाम समान केवल प्रभु का नाम ही है, अन्य कुछ भी नहीं हो सकता । |
268. |
संत तो यहाँ तक कहते हैं कि प्रभु श्री रामजी भी अपने नाम “राम” की बढ़ाई नहीं गा सकते । प्रभु का नाम ब्रह्मांड में अतुल्य है । |
269. |
भक्त और संत सदैव प्रभु नाम का ही आश्रय जीवन में लेते हैं । |
270. |
जीव स्वभाव से कुटिल है, दीन है, हीन है, फिर भी प्रभु उसे स्वीकार करते हैं । |
271. |
जीव का प्रभु की तरफ चलना तो दूर की बात, प्रभु का चिंतन करने का भी उसमें सामर्थ्य नहीं होता पर केवल और केवल प्रभु कृपा से ही वह ऐसा कर पाता है । |
272. |
कितनी जगह है मन के पास लगने के लिए भाई है, बंधु है, पत्नी है, पुत्र है, व्यापार है, दुनियादारी है । मन इतना दुष्ट है कि इन सबको छोड़कर प्रभु की तरफ कभी नहीं जाता । |
273. |
केवल भक्ति में ही बस सामर्थ्य है कि वह हमारे मन को प्रभु तक ले जा सके । |
274. |
प्रभु का अपने और जीव के बीच डाला माया का आवरण प्रभु की कृपा से ही हटता है । |
275. |
प्रभु जहाँ कल थे वहीं आज भी है और वहीं कल भी रहेंगे । अगर भटक रहा है तो जीव ही भटक रहा है । |
276. |
प्रभु परम सत्य हैं । प्रभु को सत्य से ही पाया जाता है और सत्य होकर ही पाया जाता है । |
277. |
हमारा मन कभी भी संसार में विश्राम नहीं पा सकता । वह कभी भी विश्राम पाएगा तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही पाएगा । |
278. |
हम प्रभु को जितनी बार देखेंगे प्रभु हमें नवीन लगेंगे और नया अनुभव देंगे । |
279. |
प्रभु प्रतिक्षण, प्रतिदिन भक्तों को नए लगते हैं । इसलिए भक्त सदैव प्रभु को निहारते ही रहना चाहते हैं । |
280. |
एक बार किसी जीव को प्रभु का करुणामय स्वभाव पता चल जाए तो वह प्रभु की भक्ति को छोड़कर अन्य कुछ कर ही नहीं सकता । |
281. |
कोई बहुत बड़ी बात नहीं कि यह मनुष्य जन्म भी यूं ही बीत जाए क्योंकि कितने ही जन्म हमने बिना प्रभु प्राप्ति के बिता कर बर्बाद कर दिए । |
282. |
हमें प्रभु की भक्ति करने के प्रति बहुत गंभीर होना चाहिए । ऐसा नहीं होने पर हमें ही इसकी हानि होगी । |
283. |
प्रभु पर जीवन में पूर्ण भरोसा रखना चाहिए, पूर्ण विश्वास रखना चाहिए । |
284. |
प्रभु पर जो अपना जीवन लुटा देता है वही प्रभु को पा पाता है । |
285. |
प्रभु को जीवन में किसी भी भांति, किसी भी प्रकार प्रसन्न करना हमारा हेतु होना चाहिए । |
286. |
प्रभु अपनी भगवत्ता् भुलाकर जीव से प्रेम करने दौड़े चले आते हैं । |
287. |
हमें अपनी भक्ति के सौभाग्य का कभी अहंकार नहीं होना चाहिए । |
288. |
प्रभु और हमारे बीच केवल प्रेम का ही संबंध होना चाहिए । |
289. |
प्रेम और भक्ति के मार्ग में लोभ बहुत बड़ा गुण होता है । प्रभु प्रेमी और प्रभु भक्तों को अपने प्रेम और भक्ति का कभी संतोष नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें और अधिक वृद्धि का लोभ बना रहना चाहिए । |
290. |
प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति में हमें सदैव अतृप्ति रहनी चाहिए यानी और प्राप्त करने की इच्छा सदैव बनी रहनी चाहिए । |
291. |
संत श्री तुलसीदासजी प्रभु से कहते हैं कि मैं प्रसिद्ध पातकी हूँ और आप मेरे प्रभु पाप हरने वाले हैं । संत श्री सूरदासजी भी कहते हैं कि मैं सभी पतितों का नायक हूँ । प्रभु को ऐसी दीनता बहुत प्रिय है । |
292. |
प्रभु सभी के एकमात्र समर्थ स्वामी हैं । |
293. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीनख के तेज के उजाले बिना सब जग में अंधेरा है । संत श्री सूरदासजी ने अपने एक पद में यह भाव प्रकट किए हैं । |
294. |
भक्त प्रभु का निज जन और प्रिय जन होते हैं । |
295. |
भक्ति का परिचय देने पर ही प्रभु के द्वार जीव के लिए खुलते हैं । हम भक्ति के अलावा अन्य कुछ भी जीवन में करें और उसका परिचय दें तो प्रभु के द्वार नहीं खुलेंगे । |
296. |
प्रभु का कोटि गुना महत्वपूर्ण परम वाक्य है कि शरण में आए हुए पापियों के शिरोमणि को भी प्रभु कभी नहीं त्यागते । |
297. |
कितना भी भयंकर पाप हमने किया है पर किसी पाप में सामर्थ्य नहीं कि वह शरण जाने पर प्रभु की कृपा से हमें वंचित कर सके । |
298. |
प्रभु के नाम में पाप से जीव को तारने की असीम शक्ति है । प्रभु नाम की इतनी विराट महिमा है कि वह जीव के भयंकर से भयंकर पापों का भी क्षय कर देती है । |
299. |
भक्तों का विशुद्ध परिचय प्रभु के श्रीकमलचरणों का दास होना ही है । |
300. |
प्रभु हमारे एकदम अपने हैं । इस अपनेपन के कारण ही प्रभु के सानिध्य में जाने पर हमें परमानंद मिलता है । |
301. |
प्रभु के नाम के आगे “मेरा” शब्द जोड़ देने पर यानी मेरे प्रभु कहने पर प्रभु को अति प्रसन्नता होती है । यह अपनत्व प्रभु को बहुत प्रिय है । |
302. |
प्रभु के लिए अपनत्व ही जीव को जीवन में प्राप्त करना होता है तभी उसका जीवन सफल होता है । |
303. |
प्रभु केवल प्रेम से ही संतुष्ट हो जाते हैं । उन्हें जीव से और कुछ नहीं चाहिए होता है । |
304. |
केवल प्रभु को किया एक प्रणाम ही जीव का कल्याण कर देता है । |
305. |
प्रभु जैसा भक्तों का भक्त कोई नहीं हो सकता । जो भक्त श्री सुदामाजी के प्रसंग में दो मुट्ठी चिउड़े के बदले तीनों लोकों का वैभव लुटाने के लिए उतारू हो गए थे । जो अपने पितांबर में भगवती द्रौपदीजी के जूते तक उठा लेते हैं । |
306. |
हमारी भक्ति को हमें और अधिक गहरा और गहन करने की आवश्यकता है । |
307. |
हम प्रभु के द्वार को खटखटाते हैं पर अपना परिचय नहीं दे पाते । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने प्रभु को अभी तक अपना नहीं बनाया है । इसलिए प्रभु के पूछने पर हम यह नहीं कह पाते कि हम केवल आपके हैं और यही हमारा एकमात्र परिचय है । |
308. |
प्रभु की सच्चे मन से भक्ति करने पर प्रभु के सद्गुणों का अंश भक्ति करने वाले में उतर जाते हैं । इसलिए हमें सकल सद्गुणों के निधान प्रभु की भक्ति करते रहना चाहिए । |
309. |
हमें प्रभु से यह कहते रहना चाहिए कि मैं जैसा भी हूँ पर केवल आपका ही हूँ । |
310. |
हमारा परिचय हमें मालूम होना चाहिए कि हमारा असली घर प्रभु का धाम है और हमारा असली स्थान प्रभु के श्रीकमलचरणों में है । यही हमारा सच्चा परिचय है । |
311. |
हमारा परम विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही होगा, अन्यत्र कहीं भी नहीं हो सकता । |
312. |
तीनों लोकों की संपत्ति पाकर भी परमानंद, चैन और विश्राम नहीं मिलेगा । वह तो केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही मिलेगा । |
313. |
अपने मन के सुदृढ़ भाव से अगर हम प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ले लेते हैं तो माया हम पर प्रभाव नहीं डाल सकती । |
314. |
संसार पर आश्रित न होकर अगर हम प्रभु पर आश्रित रहते हैं तो माया हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती । |
315. |
परमानंद, शांति और विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों को छोड़कर कभी कहीं नहीं गए । इसलिए अगर जीवन में परमानंद, शांति और विश्राम पाना हो तो प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही आश्रय लेना होगा । |
316. |
हमें उस फूल की तरह बनना चाहिए जिसके खिलने का उद्देश्य ही एक है कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पित हो जाए । |
317. |
प्राणी मात्र पर यानी सब पर प्रभु कृपा करते हैं । |
318. |
प्रभु के यश का गान करना सबके भाग्य में नहीं होता । कितने जन्मों का पुण्य उदित होता है तब ही प्रभु के यशगान का परम पवित्र संकल्प मन में आता है । |
319. |
प्रभु जीव पर कृपा करते हैं तभी जीव प्रभु को पा सकता है । |
320. |
जैसे भक्त प्रभु का स्मरण करता है वैसे ही प्रभु भी अपने प्रिय भक्तों का स्मरण करते हैं । |
321. |
भूले भटके जीव को केवल भक्ति ही प्रभु मार्ग पर ला सकती है । |
322. |
जीव का कल्याण करने का सामर्थ्य केवल और केवल प्रभु में ही है । |
323. |
शास्त्र और संत हमें संकेत करते हैं, सचेत करते हैं अपना जीवन प्रभु प्राप्ति में अर्पण करने के लिए । |
324. |
हमारा प्रभु प्रेम प्रभु को प्रेम बंधन में बांध देता है । |
325. |
हमें संसार के लगते रहना चाहिए और प्रभु का बन जाना चाहिए पर हम जीवन में ठीक इसका उल्टा करते हैं । |
326. |
यह अभिमान भी नहीं रखना चाहिए कि हमारे प्रेम और भजन के कारण प्रभु हमें मिले । प्रभु मिलते हैं तो केवल और केवल अपनी कृपा के कारण और जीव पर अनुग्रह करने हेतु मिलते हैं । |
327. |
दुनिया की भीड़ से प्रभु अनुग्रह करते हुए अपने भक्तों को चुन लेते हैं । |
328. |
हम प्रभु की भक्ति करेंगे, यह भाव जीवन में जग जाए तो उसके लिए भी प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । सबमें यह भाव नहीं जगता है । |
329. |
संसार की किसी भी चीज में ऐसा सामर्थ्य नहीं जो हमें प्रभु की तरफ जाने से रोक सके । हम खुद ही रुके रहते हैं, यह हमारी ही गलती है । |
330. |
किसी के मन को प्रभु से मिलने के लिए कोई भी नहीं रोक सकता । |
331. |
शरीर से प्रभु के निकट रहने से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हमारी भाव देह सदैव प्रभु की सेवा में और प्रभु के निकट ही रहे । |
332. |
हमारे और प्रभु के मध्य में कोई भी नहीं है और कोई आ भी नहीं सकता । यह प्रभु की हमारे ऊपर कितनी विलक्षण कृपा है । |
333. |
संसार की किसी भी प्रतिकूलता में भी यह सामर्थ्य नहीं कि वह हमें भक्ति करने से रोक सके । भक्त श्री नरसी मेहताजी ने उस संध्या भी प्रभु का बड़े मन से भजन किया जिस दिन उनकी पत्नी का देहांत हुआ था । |
334. |
किसी भी सच्चे भक्त ने संसार से प्रमाण पत्र नहीं लिया कि वह भक्त है । संसार के सम्मान और प्रमाण की कोई आवश्यकता किसी भी सच्चे भक्त को कभी नहीं होती । |
335. |
प्रभु सत्यम शिवम सुंदरम् हैं । प्रभु परम सत्य हैं, शिव हैं यानी हमेशा के लिए शाश्वत हैं और परम सुंदर हैं । |
336. |
जब हम प्रभु से कुछ मांगते हैं तो हम प्रभु के अंतर्यामी होने पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं । प्रभु को सब कुछ पता है, वह भी पता है जो हमने अभी तक सोचा भी नहीं है । |
337. |
जब प्रभु पूछे कि क्या चाहिए तो हमें यही कहना चाहिए कि केवल आपका सहज स्नेह चाहिए । |
338. |
प्रभु हमें हमसे अधिक जानते हैं । |
339. |
देना प्रभु का स्वभाव है, दिए बिना प्रभु रह ही नहीं सकते । हम धन, संसार मांगते हैं तो प्रभु वह दे देते हैं पर हम कुछ नहीं मांगते तो फिर प्रभु अपने स्वयं को ही दे देते हैं । |
340. |
देना प्रभु के स्वभाव में है, प्रभु बिना मांगे ही हमें जरूरत अनुसार देते रहते हैं । इसलिए प्रभु से कभी मांगना नहीं चाहिए । हमारे नहीं मांगने पर भी प्रभु देंगे क्योंकि देना प्रभु का स्वाभाविक स्वभाव है । |
341. |
प्रभु के आगे कभी भी चतुर नहीं बनना चाहिए । |
342. |
जैसे ही हम अपने को केवल प्रभु का मानने लग जाते हैं हमारे जीवन के सारे अवरोध एक-एक करके हटते चले जाते हैं । |
343. |
हम प्रभु के ही हैं, प्रभु के लिए ही हैं और प्रभु से ही हैं यानी प्रभु के कारण ही हम हैं । |
344. |
प्रभु का एक-एक नाम शरणागत प्रतिपालक होता है यानी अपने शरणागत का पालन-पोषण करने वाला होता है । |
345. |
प्रभु सदैव अपने शरणागत का रक्षण किया करते हैं । यह प्रभु का लिया हुआ व्रत है । |
346. |
श्रीगोपीजन ने प्रभु को एक नया नाम दिया । उन्होंने कहा कि प्रभु अनेक जन्मों के जीव के संचित पापों को अपनी कृपा से चुराने वाले हैं । |
347. |
भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही अपना स्थाई स्थान चाहता है । |
348. |
भक्त प्रभु पर कभी अधिकार नहीं चाहते पर भक्ति के बल पर वे बिना चाहे भी प्रभु पर अधिकार स्वतः ही पा लेते हैं । |
349. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की इतनी विराट महिमा है कि उनका स्मरण मात्र ही जन्म-जन्मांतर के हमारे संचित पापों की राशि को तत्काल नष्ट कर देते हैं । |
350. |
जैसे किसी कमरे में वर्षों वर्ष से अंधकार है पर यह जरूरी नहीं कि उस अंधकार को हटाने में भी उतने ही वर्ष लगेंगे । कोई दीपक जलाए तो क्षणमात्र में वर्षों वर्ष का अंधकार मिट जाता है । वैसे ही जन्मों-जन्मों के हमारे संचित पाप प्रभु की एक कृपा दृष्टि से उसी समय तत्काल नष्ट हो जाते हैं । |
351. |
हमें सदैव जीवन में प्रभु का यशगान करते रहना चाहिए । |
352. |
भक्त कहते हैं कि प्रभु जो करते हैं वह उन्हें अच्छा लगता है और भक्तों को जो अच्छा लगता है और भक्तों के लिए जो अच्छा होता है, प्रभु वही करते हैं । |
353. |
प्रेम का स्वभाव है कि वह दो को एक कर देता है । इसलिए प्रभु से ही प्रेम करना चाहिए जिससे प्रभु से एकाकार होकर हम प्रभु में लीन हो सके । |
354. |
हम अपने मन को कितनी बार समझाते हैं कि संसार की जगह प्रभु से प्रेम करना चाहिए पर संसारी इसमें सफल नहीं हो पाते और भक्त सफल हो जाते हैं । |
355. |
प्रेम तो सभी करते हैं पर भक्त उस प्रेम की दिशा को बदल कर उसे प्रभु की तरफ कर देता है । ऐसा करने पर भक्त धन्य हो जाता है । |
356. |
तन से भी कहीं ज्यादा इस बात का महत्व है कि अपने मन को प्रभु तक पहुँचाया जाए । |
357. |
मन प्रभु का चिंतन करते-करते प्रभु के योग्य बन जाता है । इसलिए मन से सदैव प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए । |
358. |
प्रभु किसी भी अधिकारी जीव को कभी भी अपने तक पहुँचने से वंचित नहीं रखते । |
359. |
जब प्रभु देना चाहे तो फिर रोकने वाला कौन है ? पूरे ब्रह्माण्ड में रोकने वाला कोई नहीं है । |
360. |
प्रभु किसी को अपने पास बुलाना चाहे तो किसी की ताकत नहीं कि कोई ऐसा होने से रोक दे । |
361. |
हमें अपने आपको प्रभु मिलन के लिए जीवन में तैयार करना चाहिए । |
362. |
हम भक्ति द्वारा अपने को प्रभु की कृपा का पात्र बना सकते हैं । |
363. |
प्रभु का एक वैभव प्रभु का कृपा-वैभव भी है । |
364. |
प्रभु की कृपा, प्रभु के प्रताप और प्रभु के प्रभाव का हर युग में भक्तों ने प्रत्यक्ष दर्शन किया है । |
365. |
प्रभु की कृपा होती है तो जीव को नित्य सत्संग मिलता रहता है । |
366. |
प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को अंधकार नष्ट करने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता । वैसे ही जो जीव प्रभु के सन्मुख हो जाता है उसके पाप नष्ट करने के लिए प्रभु को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती या कोई संकल्प नहीं करना पड़ता है । वह तो स्वतः ही हो जाता है क्योंकि यह प्रभु का प्रभाव है कि प्रभु के समक्ष जीव का पाप टिक ही नहीं सकता जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के समक्ष अंधकार नहीं टिक सकता । |
367. |
हमारे मन में दो भाव "राम" और काम एक साथ नहीं रह सकते । मन में एक ही भाव रहेगा या तो श्रीरामजी रहेंगे या फिर काम यानी संसार की कामनाएं और वासनाएं रहेंगी । |
368. |
यह प्रभु की असीम कृपा है कि प्रभु ने जीव को एक ही मन दिया है । अगर दो दे देते तो जीव इतना चालाक है कि एक में "राम" और एक में काम रखता । ऐसे में उस जीव को कभी भी भगवत् प्राप्ति नहीं होती । |
369. |
भक्त अगर अपना मन प्रभु को नहीं भी देता तो भी प्रभु उसे छीनकर ले लेते हैं । यह प्रभु का अपने भक्तों पर कितना बड़ा अनुग्रह है । |
370. |
प्रभु के सानिध्य के बिना हमारा मन कहीं भी और कभी भी परमानंद नहीं पा सकता । |
371. |
अगर हमारा मन संसार के विषयों में नहीं लगे, अगर हमारा मन संसार के क्षणिक सुख में नहीं लगे तो इसे अपने ऊपर प्रभु की बहुत बड़ी कृपा माननी चाहिए । यही सच्ची कसौटी है प्रभु कृपा को जांचने की । |
372. |
जिसका मन संसार में अभी सुख अनुभव करता है उस पर प्रभु की किंचित कृपा भी नहीं हुई है, ऐसा शास्त्र मत है । |
373. |
जो संसार में संतुष्ट हो जाता है उस पर प्रभु की कृपा नहीं है । कृपा उस पर है जो संसार में तनिक भी संतुष्ट नहीं होता और संसार से विमुख हो प्रभु के सन्मुख होने के लिए प्रयास करता है । |
374. |
संसार का प्रलोभन हमें मिलता रहे पर हमें संसार की जगह प्रभु अच्छे लगने लगे तो यह प्रभु की कृपा माननी चाहिए क्योंकि प्रभु ने हमारे ऊपर अपनी कृपा दृष्टि डाली है तभी ऐसा संभव हुआ है । |
375. |
प्रभु की कृपा होती है तब संसार के मार्ग में ठोकर लगती है और फिर प्रभु का मार्ग खुलता है । |
376. |
जिसको संसार की ठोकर लगती है उसी को श्री ठाकुरजी मिलते हैं - यह सिद्धांत है । |
377. |
जीव आज संसार और भोगों के बंधन में बंधा हुआ है । भक्ति ही यह बंधन तोड़ती है और हमें प्रभु तक पहुँचाती है । |
378. |
भक्त संसार को अपने से दूर रखता है जिससे उसके और प्रभु के बीच संसार न आ पाए । |
379. |
भक्त संसार को प्रभु प्राप्ति के मार्ग में बाधा स्वरूप मानता है । |
380. |
भक्तों का संसार केवल और केवल प्रभु ही होते हैं । |
381. |
भक्त कभी संसार की भीड़ में नहीं आना चाहता । वह एकांत चाहता है । जैसे संसारी पुरुष और स्त्री भी प्रेम करने के लिए एकांत खोजते हैं वैसे ही भक्त भी प्रभु से प्रेम करने के लिए एकांत खोजता है । |
382. |
प्रभु में अपनी श्रद्धा और विश्वास की हानि कभी भी नहीं होने देनी चाहिए । |
383. |
प्रभु अंतरात्मा में बैठकर सबको बताते हैं कि क्या सही है और क्या गलत । यह अलग बात है कि हम माने या न माने । जब हम लगातार नहीं मानते तो कुछ समय के बाद वह आवाज भी हमें सुनाई देनी बंद हो जाती है । |
384. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान जब हमारे हृदय में आता है तो वे हमारे जन्मों-जन्मों की संचित पाप राशि को तत्काल नष्ट कर देते हैं । |
385. |
प्रभु से प्रेम हो जाए तो जीवन की सकामता नष्ट हो जाती है । |
386. |
प्रभु की भक्ति के परमानंद का तो शब्दों से संकेत मात्र किया जा सकता है पर उसका सच्चा अनुभव तो प्रभु से प्रेम करने वाला भक्त हृदय ही जान पाता है । |
387. |
जिन शब्दों से प्रभु का हमारे द्वारा गुणगान किया जाता है उन शब्दों में ऊर्जा भी प्रभु ही भरते हैं, नहीं तो किसी भी शब्द में सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु का लेशमात्र भी गुणगान अपने बल पर कर सके क्योंकि प्रभु इतने दिव्य हैं । |
388. |
अगर हमारे मन में सकामता होगी तो हमारा मन कभी भी प्रभु से निश्छल प्रेम नहीं कर पाएगा । |
389. |
जहाँ प्रभु से वास्तव में हमारा सच्चा प्रेम होना चाहिए वहाँ हम प्रभु से प्रेम करते नहीं और चूक जाते हैं । |
390. |
प्रभु को हम अपने हृदय का एक प्रेम भाव अर्पण करेंगे तो दस प्रेम भाव लौटकर वापस हमारे पास आएंगे । |
391. |
प्रभु के पास हम सदैव व्यापार के भाव से जाते हैं यानी हम प्रभु की पूजा करते हैं तो उसके बदले अपने मन की इच्छापूर्ति की आशा प्रभु से रखते हैं । |
392. |
हम प्रभु के सामने सदैव सूची लेकर जाते हैं और यह मांगने की सूची हमारी कभी समाप्त ही नहीं होती । |
393. |
हम गिन कर नाम प्रभु का लेते हैं और यह नहीं सोचते कि प्रभु सदैव बेहिसाब हमें देते हैं तो उनका गिन कर नाम क्यों लिया जाए ? |
394. |
हम हाथ की माला से प्रभु का सुमिरन करते हैं पर प्रभु का सच्चा भक्त अपनी सांसों की माला से, जो कभी बंद नहीं होती और चलती ही रहती है, उस पर प्रभु नाम का सुमिरन करता है । |
395. |
भजन के मार्ग पर संतोष करना एक बहुत बड़ा अपराध है । पर हम ऐसा करते हैं और भजन में संतोषी हो जाते हैं और धन कमाने में लोभी बने रहते हैं जबकि होना इसका ठीक उल्टा चाहिए । |
396. |
अध्यात्म के मार्ग पर कोई सांसारिक संबंध साथ नहीं चलता । अध्यात्म अकेले चलने का मार्ग है । |
397. |
भजन का आग्रह करना हो तो सर्वोत्तम है कि अपने मन से करें पर हम पत्नी, बच्चे और दुनिया से भजन करने का आग्रह करते हैं और इस चक्कर में खुद भी भजन करने से चूक जाते हैं । |
398. |
अध्यात्म के मार्ग पर कभी संसार के संबंध को थोपना नहीं चाहिए । सबके साथ में अध्यात्म नहीं होता । सभी को अकेले ही अध्यात्म मार्ग पर चलना होता है । |
399. |
भक्तों का संग लोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनके आभामंडल से भक्ति का आनंद उन्हें मिलता है । |
400. |
भक्ति हमें आत्मा का परमानंद प्रदान करती है । |
401. |
भजन करते रहें तो भजन का प्रभाव जीवन में अपने आप आएगा । |
402. |
हमारा पतन कभी भी हो सकता है इसलिए सदैव प्रभु से कहते रहें कि अपनी कृपा दृष्टि हम पर बनाए रखें । |
403. |
मनुष्य देह पाकर भक्ति न करना यह आध्यात्मिक पाप है जिसे पापों का भी शिरोमणि पाप कहा गया है । |
404. |
कोई भी साधन भक्ति की समानता कदापि नहीं कर सकता क्योंकि भक्ति सर्वोपरि है । |
405. |
जीवन की प्राथमिकता प्रभु की भक्ति ही होनी चाहिए । |
406. |
श्री रामावतार मर्यादा अवतार है और श्री कृष्णावतार प्रेमावतार है । |
407. |
प्रभु प्रेम हमारे दुर्बल मन को सबल बनाता है । |
408. |
जो प्रभु के शरणागत हो जाता है प्रभु उससे निषेध यानी गलत कर्म कभी नहीं होने देते । |
409. |
भक्तों को प्रभु सदैव अपनी कृपा की छांव में रखते हैं । |
410. |
भक्ति अनन्य होनी चाहिए यानी भक्त को प्रभु के अलावा किसी का भी आश्रय कभी नहीं होना चाहिए । |
411. |
सच्चे भक्त कहते हैं कि मैं अपना मन प्रभु के संग जोड़कर संसार के संग तोड़ता हूँ । |
412. |
भजन के मार्ग पर जैसे-जैसे भजन करने का लोभ बढ़ता जाएगा हम प्रभु के निकट पहुँचते चले जाएंगे । |
413. |
भक्ति हमें भगवत् रस का अधिकार प्रदान कर देती है । |
414. |
प्रभु के प्रेम भरे स्पर्श का सदैव मन में चिंतन करना चाहिए । |
415. |
प्रभु को श्री वृंदावनजी के कंटक-कांटे भी अतिशय प्रिय लगते हैं । श्री वृंदावनजी का अदभुत भाग्य देखें । |
416. |
भगवती मीराबाई को जिन्होंने प्रभु प्रेम के मार्ग में जाने से रोकना चाहा उनका नाम भी आज कोई नहीं लेना चाहता । पर भगवती मीराबाई सबके रोकने के बावजूद प्रभु प्रेम के मार्ग में चली गई तो वे अमर हो गई । |
417. |
प्रभु भक्ति की अभिलाषा हमारे जीवन में आरंभ से ही होनी चाहिए । |
418. |
सच्चा धनवान वही है जिसके पास श्रीराम नाम रूपी परमधन है । |
419. |
भक्तों को सदैव विवाद से बचना चाहिए क्योंकि विवाद अधिकतर व्यर्थ ही होते हैं । |
420. |
भगवत् रस में जो डूब जाता है वह फिर बोलता नहीं जैसे नदी में डूबा हुआ कभी बोल नहीं सकता । बोलने के लिए उसे जल से निकलना पड़ेगा वैसे ही साधक जो भगवत् रस में डूबा है उसे बोलने के लिए उस रस से बाहर निकलना पड़ेगा । इसलिए वह ऐसा नहीं करता । |
421. |
हम तैर कर गोल्ड मेडल पा सकते हैं पर मोती तो जल में डूबकर तह तक जाने वाला ही पाएगा । इसलिए भगवत् प्रेम में डूबना सीखना चाहिए । |
422. |
भक्ति प्रभु प्रेम में डूबने की कला सिखाती है । |
423. |
जब लगन लग जाती है तो फिर मन केवल प्रभु को ही चाहता है । |
424. |
प्रभु प्रेम पाने के बाद ही हमारा परिचय परमानंद से होता है । |
425. |
प्रभु प्रेम का आनंद प्रतिक्षण वर्धमान है । वह आता है तो फिर जाता नहीं और पल-पल जीवन में बढ़ता ही चला जाता है । |
426. |
भक्ति हमारी आत्मा को समृद्धि प्रदान करती है । |
427. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का इतना सामर्थ्य है कि केवल उनका चिंतन करने से ही जीव का कल्याण हो जाता है । |
428. |
प्रभु के श्रीकमलचरण अपनी शरण में आने वाले के पापों का नाश कर देते हैं । |
429. |
जीवन में निष्कामता ही भीतर की सबसे बड़ी समृद्धि है । |
430. |
धन-संपत्ति होना बाहर की सांसारिक समृद्धि है पर जीव के भीतर निष्कामता होना यह भीतर की समृद्धि है । |
431. |
एक युवा साधक ने संन्यास लिया और एक महात्मा से कहा कि मुझे शांति चाहिए । महात्मा ठहाका मार के हंसे और बोले कि कितना विरोधाभास है तुम्हारी बात में क्योंकि तुमने कहा कि मुझे शांति चाहिए, जब तक तुम कुछ चाहोगे तब तक शांति कैसे आएगी । |
432. |
जिह्वा पर श्रीहरि नाम आता रहे तो जीव धन्य हो जाता है । |
433. |
मुक्त व्यक्ति ही भक्ति कर सकता है । |
434. |
जिसको कुछ चाहिए वह भक्त नहीं हो सकता क्योंकि जो भक्त होता है उसे कुछ भी चाहिए नहीं होता । |
435. |
इच्छा के रहते प्राण चले जाए तो वह मृत्यु है पर प्राण के रहते इच्छा चली जाए तो वह मुक्ति है । |
436. |
जीवन में की गई भक्ति ही जीवन में प्रभु को प्रकट करती है । |
437. |
प्रभु की सच्ची भक्ति जीवन में से सकामता को नष्ट कर देती है । |
438. |
मन को लगने के लिए ठिकाना चाहिए । प्रभु से बड़ा और व्यापक ठिकाना जगत में कोई भी नहीं है । |
439. |
मनुष्य जीवन में हमारा गंतव्य निश्चित होना चाहिए । सबसे बड़ा और शास्त्र निर्देशित गंतव्य प्रभु के श्रीकमलचरण हैं । |
440. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने वाले को प्रभु जन्म-मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त कर देते हैं । |
441. |
प्रभु का सच्चे हृदय से स्मरण मात्र ही जीव को निष्पाप कर देता है । |
442. |
प्रभु से अनुरोध करें कि जो मार्ग प्रभु को हमारे लिए उचित नहीं लगे उसमें बाधा भेजें कि हम उस मार्ग में आगे बढ़ ही न पाएं । |
443. |
प्रभु से कहें कि जैसा हम प्रभु को सबसे प्रिय लगे वैसा ही हमें बना दें । |
444. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्मरण मात्र ही हमें पाप से निवृत्ति दिला देता है । प्रभु के श्रीकमलचरण के स्मरण मात्र में इतना बड़ा सामर्थ्य है । |
445. |
पुण्य कमाना सरल है पर पापों से निवृत्त होना लगभग असंभव है । यह प्रभु के अनुग्रह और कृपा के बिना कतई संभव ही नहीं है । |
446. |
प्रभु से निश्छल प्रेम परिपक्व भक्ति के होने पर ही संभव होता है । |
447. |
हम जड़ संसार का चिंतन करते हैं जबकि हमें चेतन प्रभु का चिंतन करना चाहिए । |
448. |
हमारा सारा संसार केवल हमारे प्रभु ही होने चाहिए । |
449. |
प्रभु प्रेम जीवन की आवश्यकता नहीं बल्कि विवशता बन जाने चाहिए । |
450. |
भक्तों के हृदय का प्रभु के लिए प्रेम भाव कभी शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रभु प्रेम के लिए शब्दों में व्यक्त भाव अपूर्ण ही हुआ करते हैं । |
451. |
सत्संग को जीवन की आवश्यकता नहीं बनाएं बल्कि उसे जीवन की विवशता बनाएं जिससे उसके बिना जीवन में रहा ही नहीं जाए । |
452. |
संसार की कामना से ग्रसित व्यक्ति भजन करेगा तो वह प्रभु से कामनापूर्ति ही भजन के माध्यम से मांगेगा । इसलिए सच्चा भजन तो मुक्त व्यक्ति यानी कामनाओं से मुक्त व्यक्ति ही कर सकता है । |
453. |
जीवन में कभी भी आध्यात्मिक प्रगति करनी है तो किसी व्यक्ति से नहीं जुड़ना चाहिए बल्कि उसके अच्छे विचार और उत्तम सिद्धांत से जुड़ना चाहिए । |
454. |
संसार के मार्ग से भजन तक आए तो यह ठीक है पर भजन के मार्ग से वापस संसार में चले जाएं तो यह अपराध स्वरूप है जो क्षमा योग्य नहीं होता । |
455. |
एक है जिसको जीवन में श्री ठाकुरजी “ही” चाहिए और दूसरा है जिसको जीवन में श्री ठाकुरजी “भी” चाहिए । दूसरे को श्री ठाकुरजी भी चाहिए और संसार भी चाहिए इसलिए सर्वश्रेष्ठ पहला वाला है जिसे सिर्फ श्री ठाकुरजी ही चाहिए । |
456. |
प्रभु “भी” चाहिए यहाँ से आरंभ करें और प्रभु “ही” चाहिए वहाँ तक पहुँचने का प्रयास करें । |
457. |
प्रभु प्राप्ति की आवश्यकता ही बाद में प्रभु प्राप्ति के लिए विवशता बनती है । प्रभु के लिए इच्छा ही बाद में प्रभु के लिए तड़प का रूप ले लेती है जैसे कोयला ही तपने के बाद में जाकर हीरा बनता है । |
458. |
प्रभु की अगर बात हो तो प्रभु के लिए कहा हर शब्द अधूरा है क्योंकि शब्द प्रभु के लिए भाव को बयां ही नहीं कर सकते । |
459. |
जीवन में भक्ति का कहीं से भी आरंभ करें पर आरंभ जरूर करें और जल्दी करें क्योंकि यही भाग्यशाली होने का असली सूचक है । |
460. |
सच्चा भाग्यशाली वह है जो प्रभु की राह पर चल निकलता है । |
461. |
प्रभु तो एक ही हैं पर प्रभु को तो हमने बांटा है । हम यह कहते हैं कि यह हमारा मंदिर, यह तुम्हारा मंदिर । यह हमारा धर्म, यह तुम्हारा धर्म । यह हमारी उपासना पद्धति, यह तुम्हारी उपासना पद्धति । |
462. |
सच्ची प्रार्थना वह है जब जिह्वा मौन हो जाए और हृदय बोले । |
463. |
संत कहते हैं कि प्रभु के ऐश्वर्य का भजन करने से जीव मुक्त हो जाता है पर प्रभु के माधुर्य का भजन करने से जीव भक्त हो जाता है । |
464. |
संसार के सभी तालों की चाबी प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने पर ही मिलती है । |
465. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों को हृदय में रखने का भाव जीवन में जागृत करने से हमारा मन निर्मल होता है और निर्मल मन होने से प्रभु मिलते हैं । प्रभु ने श्री रामचरितमानसजी में कहा है कि निर्मल मन वाला ही मुझे पाता है । |
466. |
संचय करने की प्रवृत्ति होना भीतर से दरिद्र होने का सूचक होता है । |
467. |
अपनी वाणी का सर्वश्रेष्ठ उपयोग प्रभु के प्रेम की गाथा सुनाने में ही है । |
468. |
प्रभु की कथा का अमृत हृदय को बहुत सुख और आनंद देने वाला होता है । |
469. |
प्रभु को शब्दों की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है । भक्तों के लिए उनकी मुस्कान ही बोल देती है और दुष्टों के लिए उनकी भृकुटी का क्रोध में हिलना ही पर्याप्त होता है । |
470. |
श्रीगोपीजन अपने रोम-रोम से प्रभु का दर्शन करती थीं । |
471. |
श्रीगोपीजन की दृष्टि ही श्याममय हो गई थी यानी जिधर भी वे देखती उन्हें प्रभु ही दिखते । |
472. |
भक्त प्रभु से कहते हैं कि वे प्रभु की शरण में हैं इसलिए अब प्रभु जैसा चाहे उन्हें नाच नचाएं और जैसा चाहे उनसे खेल खिलाएं । |
473. |
भक्त अपने हानि-लाभ को प्रभु को समर्पित कर देता है और प्रभु का दास बनकर रहता है एवं जीवन में अपना मालिक प्रभु को बना देता है । |
474. |
सत्संग से ही विवेक जाग्रत होता है । |
475. |
भक्त प्रभु से कहते हैं कि उनमें जो गुण हैं वे सब प्रभु के ही हैं और जो अवगुण हैं वह उनके स्वयं के हैं । |
476. |
शास्त्रों की बात सभी नहीं मानते हैं, वे ही मानते हैं जिनकी बुद्धि में विवेक जग जाता है । |
477. |
प्रेमी की प्रेम में प्रार्थना कैसी होती है यह प्रभु ने श्रीगोपीजन के साथ श्रीलीला करके हमें दिखाया । |
478. |
प्रभु की जय बोलने से ही जीव की संसार में सदैव जय होती है । |
479. |
श्री अर्जुनजी से प्रभु कहते हैं कि श्रीगोपीजन उनकी आत्मा हैं । संतों ने श्रीगोपीजन को प्रभु प्रेम की ध्वजा कहा है । जैसे मंदिर में ध्वजा के दर्शन करने पर भी देव दर्शन का फल मिलता है वैसे ही श्रीगोपीजन का प्रभु प्रेम का दर्शन करने से प्रभु प्रेम का फल हमें मिलता है । |
480. |
प्रभु कहते हैं कि मैं देवताओं की आयु लेकर भी धरती पर रहूँ तो भी श्रीगोपीजन के प्रेम का ऋण नहीं उतार सकता । अपने प्रेमी के प्रेम को कितना बड़ा मान प्रभु देते हैं । |
481. |
प्रभु स्वभाव से ही श्रीगोपीजन के प्रेम के ऋणी बने रहना चाहते हैं । |
482. |
श्रीगोपीजन के प्रबल प्रेम के सामने प्रभु अपनी भगवत्ता् का भी विस्मरण करने में देर नहीं लगाते । |
483. |
कोई भी हो, वह कहीं-न-कहीं तो बंधा हुआ है । भाग्यशाली वे होते हैं जो प्रभु से बंध जाते हैं । |
484. |
प्रभु के निर्देशन में अपने जीवन को बांध देना चाहिए । |
485. |
प्रभु की प्राप्ति का अगर हम निष्काम भक्त बनकर जीवन में प्रयास करते हैं तो वह प्रयास सफल होकर ही रहता है । |
486. |
जो प्रभु की शरण में आता है प्रभु उसके पापों का हरण कर लेते हैं । यह शाश्वत सिद्धांत है । |
487. |
प्रभु की शरण में जब कोई आता है तो बड़े प्रेम से प्रभु उस जीव का अंगीकार कर लेते हैं । |
488. |
प्रभु के सन्मुख होने का अर्थ क्या है ? अर्थ यह है कि हम संसार से विमुख हो गए तो ही प्रभु के सन्मुख हो पाएंगे । |
489. |
संसार मांगने के लिए कभी भी प्रभु के आगे नहीं जाना चाहिए । कभी भी संसार की कोई कामना या प्रार्थना लेकर प्रभु के सन्मुख नहीं जाना चाहिए । |
490. |
संसार से खाली होने पर ही हम अपने मन को प्रभु के सन्मुख कर सकते हैं । |
491. |
प्रभु बहुत मुश्किल से अपनी निष्काम भक्ति का दान देते हैं । संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु शीघ्रता से तो क्या, कठिनाई से भी भक्ति का दान नहीं देते । |
492. |
प्रभु सभी को सब कुछ देते हैं पर अपनी भक्ति कुछ बिरलों को ही चुन कर देते हैं । |
493. |
प्रभु के ऐश्वर्य का भक्त नहीं बल्कि प्रभु का भक्त बनना चाहिए यानी हमारी भक्ति निष्काम होनी चाहिए । |
494. |
हमारा मन प्रभु की अमानत है । इसलिए अपने मन को संसार में इधर-उधर नहीं लगाया जाना चाहिए । |
495. |
श्रीगोपीजन की संध्या, प्रातः, रात्रि, दिवस, श्रृंगार, चिंतन, मनन, श्रवण, स्मरण, कीर्तन और जीवन का सब व्यवहार प्रभु के लिए ही था और ऐसे प्रेम के सम्मुख प्रभु को प्रेम में झुक जाना पड़ता है । |
496. |
केवल प्रभु के दरबार में ही दीन एवं दुखियों का आदर और सम्मान होता है । |
497. |
प्रभु की दृष्टि केवल हमारे हृदय पर जाती है और प्रभु केवल हमारे हृदय के भाव को ही स्वीकार करते हैं । |
498. |
भक्त प्रभु के कोमल-कोमल श्रीहाथों में कमल का पुष्प पकड़ाने में संकोच करते हैं कि प्रभु को इससे वेदना होगी । वे ही प्रभु अपने भक्त श्री अर्जुनजी के रथ के घोड़ों की लगाम भी पकड़ लेते हैं । |
499. |
प्रभु की स्मरण भक्ति को संतों ने श्रेष्ठ माना क्योंकि इसमें प्रभु का निरंतर स्मरण बना हुआ रहता है । |
500. |
जागते, सोते और सपने में भी प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्मरण हमेशा बना रहे, ऐसा भक्त प्रभु से मांगते हैं । |
501. |
प्रभु के नाम को शास्त्रों ने नाम-ब्रह्म कहा है । |
502. |
हमारी जिह्वा पर सदैव प्रभु का नाम होना चाहिए और हमारी वाणी से सदैव प्रभु का गुणगान होते रहना चाहिए । |
503. |
प्रभु की अभिलाषा मन में होना प्रभु की कृपा के कारण ही संभव होता है । इसलिए अगर हमारे मन में प्रभु को पाने की अभिलाषा हो तो सत्य मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा जीवन में फलित हो रही है । |
504. |
संसार तो मांगने पर भी नहीं देता और प्रभु के यहाँ से बिना मांगे ही मिल जाता है । यह प्रभु की असीम और विलक्षण दयालुता है कि प्रभु मांगने का भी अवसर हमें नहीं देते । |
505. |
बिना बोले ही हमारी व्यथा को जानने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । |
506. |
हम अवगुणी, अयोग्य, अपात्र होते हैं फिर भी प्रभु हमें शरण देते हैं । |
507. |
एक भाव है कि प्रभु केवल मेरे हैं । दूसरा भाव है कि प्रभु सबके हैं पर मैं केवल प्रभु का ही हूँ । दूसरा भाव पहले से भी सुंदर है । |
508. |
हमारे मन का सुख संसार के हाथों में यानी पत्नी, व्यापार, बच्चों के हाथों में होगा तो हम सदैव दुःखी रहेंगे । पर अगर हमारे मन का सुख प्रभु के श्रीहाथों में होगा तो हम सदैव ही सुखी रहेंगे । |
509. |
संसार को अपनाकर हमें अपना अमूल्य मानव जीवन व्यर्थ नहीं करना चाहिए । |
510. |
प्रभु ही केवल हमारे प्रेम का सच्चे मायने में प्रतिउत्तर दे सकते हैं । |
511. |
प्रभु से प्रेम करना दिव्य प्रेम है और संसार से प्रेम करना दूषित प्रेम है । हमें कौन-सा प्रेम चाहिए यह हमें चुनना होता है । |
512. |
संसार में हमें सदैव अपूर्ण और अधूरा प्रेम ही मिलता है । प्रेम की पूर्णता तो केवल प्रभु से प्रेम करने में ही है । |
513. |
हमारे प्रेम करने का यथायोग्य स्थान प्रभु के श्रीकमलचरण ही हैं । |
514. |
श्रीगोपीजन अपने आपको तिनके की उपमा देती हैं । तिनके से छोटी चीज क्या हो सकती है जिसे हवा जहाँ चाहे और जब चाहे उड़ाकर ले जाती है । इस उपमा से ही पता चलता है कि श्रीगोपीजन में अहंकार का लेशमात्र भी नहीं है । |
515. |
जो निम्न-से-निम्न है, नीचे-से-नीचे है, हीन से भी हीन है उससे भी प्रभु प्रेम करते हैं और उस पर भी प्रभु कृपा बरसाते हैं । यह प्रभु की जीव मात्र पर कितनी विलक्षण करुणा है । |
516. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण होना यानी शरणागति लेना जीव का सबसे बड़ा धर्म है । |
517. |
आज नहीं तो कल उद्धार के लिए प्रभु की शरणागति ग्रहण करनी ही पड़ेगी । बात आज और इस जन्म में समझ में आ जाए तो ठीक अन्यथा कितने जन्मों को गंवाने के बाद भी यही बात समझनी पड़ेगी । |
518. |
प्रभु के अलावा जीव को कहीं भी और कभी भी विश्राम नहीं मिल सकता है । |
519. |
मनुष्य जन्म पाकर सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ कुछ पाया जा सकता है तो वह प्रभु का सानिध्य है । |
520. |
प्रभु कहते हैं कि प्रभु की भक्ति का संसार को रसपान कराने वाला प्रभु की नजरों में बड़ा-से-बड़ा है और सर्वश्रेष्ठ होता है । |
521. |
श्रीगोपीजन का रुदन भी कितना सुंदर है क्योंकि वह संसार के लिए नहीं बल्कि प्रभु के लिए हुआ है । |
522. |
श्रीगोपीजन ने प्रभु की कथा को कथा नहीं बल्कि कथा-अमृत बताया है । |
523. |
प्रभु की कथा-अमृत कान के मार्ग से जाकर हृदय को निर्मल और भक्ति के लिए अनुकूल कर देती है । |
524. |
प्रभु की कथा एक कहानी समझकर सुनने से एक सात्विक मनोरंजन होगा पर वही कथा अगर भाव से सुनेंगे तो भवरोग से ग्रस्त जीव के लिए संजीवनी का काम करेगी । |
525. |
प्रभु की कथा को कभी भी व्यापार नहीं बनाना चाहिए । ऐसा करना बहुत बड़ा पातक होता है । |
526. |
प्रभु की कथा ने हमारे हृदय को स्पर्श किया इसका पता तब चलता है जब जितनी कथा हम सुनते हैं उतनी लालसा सुनने की और बढ़ती चली जाती है । |
527. |
भगवत् गुणानुवाद सुनना चाहिए और उसे सुनने की लालसा सदैव बढ़ती ही रहनी चाहिए । |
528. |
हमारे और प्रभु के बीच में किसी की आवश्यकता नहीं है । सच्चा सद्गुरु प्रभु का मार्ग बताकर बीच से हट जाता है । जो हमें उलझाए रखे वह सद्गुरु नहीं है । |
529. |
सद्गुरू आत्मा और परमात्मा के बीच में द्वार होता है, दीवार नहीं । |
530. |
प्राणी मात्र की एकमात्र गति, एकमात्र विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है । |
531. |
प्रभु का चित्र अपने मन के कक्ष में लगाने पर संसार के सभी फैसले फिर हमारे पक्ष में होते हैं । |
532. |
जिसके ऊपर स्वयं प्रभु का हाथ हो उसकी जीवन रूपी नैया हिलोरे ले सकती है परंतु कभी भी डूब नहीं सकती । |
533. |
प्रभु के ही बल का आश्रय हमें जीवन में लेना चाहिए, खुद के बल का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए । |
534. |
जीवन में ऐश्वर्य आए तो उसमें उलझना नहीं चाहिए, उसे प्रणाम करके निकल जाना चाहिए जिससे उस ऐश्वर्य का अपमान भी नहीं हो । सागर लांघते समय प्रभु श्री हनुमानजी ने मैनाकरूपी ऐश्वर्य को प्रणाम किया और प्रभु कार्य के लिए आगे बढ़ गए । |
535. |
जीवन में प्रतिद्वंद्विता आए तो छोटे बनकर यानी लघु बन कर निकल जाना चाहिए । सागर लांघते समय प्रभु श्री हनुमानजी के सामने सुरसारूपी कद बढ़ाने की प्रतिद्वंद्विता आई और प्रभु श्री हनुमानजी उससे छूटने के लिए लघु बन गए । |
536. |
जीवन में कभी ईर्ष्या पनपे तो उसका दमन करना यानी उसे नष्ट कर देना चाहिए । सागर लांघते समय सिंहीकारूपी ईर्ष्या को प्रभु श्री हनुमानजी ने नष्ट कर दिया । |
537. |
प्रभु श्री हनुमानजी ने भगवती सीता माता को अंगूठी देने पर भी अपना परिचय श्रीराम दूत कह कर दिया, यही जीव का सही परिचय है कि वह प्रभु का दास है । यही परिचय देने पर भगवती सीता माता उन पर प्रसन्न हुई । |
538. |
जब हम जीवन में ठोकर खाकर भी नहीं गिरे तो यह पक्का समझना चाहिए कि श्री ठाकुरजी ने हमारा हाथ पकड़ा हुआ है । |
539. |
अगर हमारी प्रभु में रति नहीं है तो हमारे जीवन का मूल्य एक कौड़ी का भी नहीं है । |
540. |
यकीन करें कि प्रभु के फैसले सदैव हमारी ख्वाहिशों से बहुत बेहतर होते हैं । |
541. |
प्रभु की शरण होना निर्बल का बल है, भक्तों का महामंत्र है और दुःखी जीव के लिए संजीवनी है । |
542. |
घड़ी का समय ठीक करने वाले तो जीवन में बहुत मिल जाएंगे पर जीवन का समय सिर्फ प्रभु ही ठीक कर सकते हैं । |
543. |
दुनिया पर किया भरोसा टूटता है पर दुनिया के मालिक प्रभु पर किया भरोसा कभी भी नहीं टूटता । |
544. |
जो प्रभु रात को पेड़ों पर बैठे परिंदों को नींद में भी कभी गिरने नहीं देते क्या उन पर भरोसा करने पर वे किसी इंसान को कभी गिरने देंगे । |
545. |
दुनिया में कोई चीज कितनी भी कीमती क्यों न हो पर प्रभु ने जीवन में जो श्वास, शांति, निद्रा और आनंद मुफ्त में दिया है इससे ज्यादा कीमती कुछ नहीं हो सकता । |
546. |
प्रभु के सिवाय दूसरे के साथ अपना सनातन संबंध मानना भूल है, मोह है और बंधनकारक है । |
547. |
एक सिद्धांत है कि प्रभु को अपने हृदय के कक्ष में रखने पर जीवन के सभी फैसले हमारे अनुकूल और हमारे पक्ष में होंगे । |
548. |
हम उद्देश्य तो प्रभु प्राप्ति का रखते हैं पर उस उद्देश्य पूर्ति में रुचि नहीं लेते । |
549. |
सत्संग का वास्तविक प्रसाद प्रभु मिलन की इच्छा जीवन में जागृत करना है । |
550. |
वैराग्य के कारण संसार से संबंध छूटता है और भक्ति के कारण प्रभु से संबंध जुड़ता है । |
551. |
प्रभु वह नहीं देते जो हमें अच्छा लगता है बल्कि वह देते हैं जो हमारे लिए अच्छा होता है । |
552. |
प्रभु के नाम स्मरण में हमें पवित्र करने की जितनी शक्ति है उतनी शक्ति दुनिया के किसी भी पुण्य में नहीं है । |
553. |
संसार में नफा नुकसान दोनों है पर परमार्थ में तो नफा-ही-नफा है क्योंकि नुकसान का वहाँ कोई काम ही नहीं है । |
554. |
लगन एक छोटा-सा शब्द है पर यह लगन अगर प्रभु से लग जाए तो हमारा जीवन ही बदल जाता है । |
555. |
दुनिया के रिश्ते निभाने के लिए हम घंटों का समय व्यतीत करते हैं । एक प्रभु से रिश्ता निभाने के लिए अगर हम कुछ समय उन्हें देते हैं तो प्रभु इतने से ही इतने प्रसन्न हो जाते हैं कि हमें भवसागर से पार कर देते हैं । |
556. |
दिन की शुरुआत करने का प्रार्थना सबसे श्रेष्ठ और अच्छा तरीका है । |
557. |
संसार का सबसे सुरक्षित बीमा प्रभु पर किया जाने वाला भरोसा है, बस भक्ति की किस्त समय पर भरते रहना चाहिए । |
558. |
यकीन कीजिए हमारे जीवन के प्रभु के सभी फैसले हमारी इच्छाओं से कहीं बेहतर होते हैं । |
559. |
जीवन में भय केवल इसलिए हमें सताता है क्योंकि हमें प्रभु पर विश्वास नहीं होता । जब हम विश्वास करने लग जाते हैं तो सर्वसामर्थ्यवान प्रभु नित्य निरंतर हमारे साथ हो जाते हैं और भय हमारे जीवन से उसी क्षण लुप्त हो जाता है । |
560. |
प्रभु की भक्ति का प्रचार करके आप दुनिया का जितना उपकार कर सकते हैं उतना करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करके भी नहीं कर सकते । |
561. |
प्रभु की तरफ जो हमें लगाए वही हमारा सच्चा शुभचिंतक है । |
562. |
प्रभु से विमुख होते ही जीव अनाथ हो जाता है । प्रभु के सन्मुख होते ही जीव सनाथ हो जाता है । |
563. |
प्रभु के आश्रय से बढ़कर ब्रह्मांड में कोई दूसरा आश्रय नहीं है । |
564. |
भक्तों के लिए प्रभु के प्रत्येक विधान में उन भक्तों का परम हित छुपा हुआ होता है । |
565. |
प्रार्थना करके आप विश्व को संकेत देते हैं कि आप अकेले नहीं हैं क्योंकि प्रभु सदैव आपके साथ हैं । |
566. |
प्रभु अपने भक्तों का इम्तिहान सख्त लेते हैं पर यह भी सच है कि प्रभु अपने भक्तों को कभी भी हारने नहीं देते । |
567. |
सबसे अच्छी शुभकामना यह होती है कि हम किसी का दिन भक्तिमय हो इसके लिए प्रार्थना करें । |
568. |
प्रभु से की गई आशा ही एकमात्र सच्ची आशा हैं । |
569. |
प्रभु के मार्ग पर जब कोई एक कदम बढ़ाता है तो प्रभु उससे मिलने के लिए दस कदम आगे बढ़ाते हैं । |
570. |
गुनाह करने वाले को डर होता है कि प्रभु देख रहे हैं पर भक्त को भरोसा होता है कि प्रभु देख रहे हैं । प्रभु दोनों को देखते हैं पर इस देखने में कितना बड़ा फर्क छिपा है । |
571. |
यकीन करें प्रभु दूसरा दरवाजा खोले बिना पहला दरवाजा कभी बंद नहीं करते । |
572. |
भक्ति कभी नहीं छोड़नी चाहिए चाहे संसार निंदा भी करें क्योंकि श्री वेदजी का यही सार है कि भक्ति में ही परमानंद है । |
573. |
मन का झुकना बहुत जरूरी है क्योंकि केवल सर झुकने से प्रभु नहीं मिलते । |
574. |
प्रभु का नाम निरंतर लेने वाले को प्रभु प्राणों से भी ज्यादा प्रिय लगने लग जाते हैं । जैसे जल के लिए मछली व्याकुल रहती है वैसे ही नाम जप करने वाला प्रभु के लिए व्याकुल रहता है । नाम जप की इतनी बड़ी महिमा है । |
575. |
दुनिया के हर रिश्ते को निभाने के लिए 24 घंटे हम लगे रहते हैं फिर भी सभी को हर समय खुश नहीं रख पाते । एक प्रभु से अगर हम रिश्ता निभाने लग जाए तो वे इतने खुश हो जाते हैं कि संसार सागर से हमारा बेड़ा पार कर देते हैं जिससे हमारा संसार में आवागमन ही खत्म हो जाता है । |
576. |
शरीर और संसार कभी किसी के साथ सर्वदा रहता नहीं और प्रभु कभी किसी का साथ छोड़ते नहीं । प्रभु ही एकमात्र सर्वदा साथ रहने वाले हैं । |
577. |
प्रभु जब भक्ति के कारण हमारे मन के कक्ष में विराजेंगे तो हमारा जीवन हर तरह से अनुकूल हो जाएगा । |
578. |
प्रभु का नाम लेने में तो छोटा-सा है पर जपने लगे तो बड़े-बड़े कार्य उसके कारण होते चले जाते हैं । |
579. |
जिस भक्त की कलम से स्याही नहीं आंसू की बूंद टपकती है, ऐसे भक्त के संदेश को पढ़ने के लिए प्रभु की आँखें भी तरसती है । |
580. |
संसार के लोग जरा-सी बात पर हमारा साथ छोड़ देते हैं पर प्रभु जरा से प्रयास पर सदैव के लिए हमारा हाथ थाम लेते हैं और फिर कभी नहीं छोड़ते । |
581. |
हमें किस्मत पर नहीं बल्कि प्रभु की कृपा पर भरोसा होना चाहिए क्योंकि प्रभु की कृपा से ही किस्मत सुधरती है । |
582. |
प्रभु की थोड़ी-सी स्तुति हमारे जीवन के बहुत भयंकर कष्टों और दुखों का तत्काल नाश कर देती है । |
583. |
संत कहते हैं कि प्रभु का नाम अक्षर में छोटा है पर जपने लगे तो बड़े-से-बड़े काम स्वतः ही होते चले जाते हैं । |
584. |
सदैव यकीन करना चाहिए कि प्रभु के फैसले हमारी इच्छाओं से बहुत बेहतर हमारे लिए सदैव साबित होते हैं और होते रहेंगे । |
585. |
दुनिया का विज्ञान कितनी भी सदियों-सदियों में और अधिक भी प्रगति कर ले और विकसित होकर उपकरणों से हमारा जीवन सुखद बना दे पर मानसिक शांति तो फिर भी केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकने पर ही मिलेगी । |
586. |
भक्त यह मानता है कि उसकी जितनी भी सांसे चले उसकी हर सांस पर प्रभु का नाम भी चले । |
587. |
केवल प्रभु पर विश्वास होना चाहिए । प्रभु पर विश्वास कायम होते ही सब काम अपने आप पहले से ही प्रभु कृपा से बने बनाए हैं । |
588. |
यदि जीवन में किसी का होकर या बनकर रहना है तो केवल प्रभु का होकर और प्रभु के बनकर ही रहना चाहिए । |
589. |
प्रभु का जीवन में संग होने से जीवन की सभी निर्बलताएं स्वतः ही मिटती चली जाती हैं । |
590. |
जिंदगी खूब इम्तिहान लेती है पर जब हम स्वयं को प्रभु की शरणागति में सौंप देते हैं तो नतीजे से कभी डर नहीं लगता । |
591. |
प्रभु की ही तलब और प्रभु से ही ताल्लुक जीवन में होना चाहिए, यही भक्ति है । |
592. |
एक प्रभु का आश्रय ही संसार में केवल पक्का आश्रय है । |
593. |
यदि प्रभु ने आपसे वह ले लिया जिसे खोने कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते तो निश्चित मानिए कि प्रभु आपको कुछ ऐसा देंगे जिसे पाने के बारे में आपने कभी सोचा भी नहीं होगा । |
594. |
प्रभु की थोड़ी-सी स्तुति विकट-से-विकट परिस्थिति को भी हमारे पक्ष में करने की क्षमता रखती है । |
595. |
प्रभु हमारे बिना भी प्रभु हैं पर हम प्रभु के बिना कुछ भी नहीं हैं क्योंकि हमारा अस्तित्व ही प्रभु से है । |
596. |
विश्व का सबसे सुरक्षित बीमा प्रभु पर भरोसा रखना है जिसकी किस्त के रूप में हमें भक्ति और भजन करते रहना चाहिए । किस्त जाती रहेगी तो बीमा चलता रहेगा और हम जीवन भर निश्चिंत बने रहेंगे । |
597. |
जिसके पास एक ही गुनाह की भी सजा हो वह न्यायाधीश है और जिनकी शरण में जाने पर कोटि-कोटि जन्मों के गुनाह भी माफ हो जाए वे प्रभु श्री द्वारकाधीशजी हैं । |
598. |
न संसार में कोई हमारा भला कर सकता है न ही भला कर पाने का सामर्थ्य किसी में है । एकमात्र प्रभु ही ऐसा करने के लिए सर्वसमर्थ हैं । जो ऐसा मानता है और अनुभव करता है वही सच्चा भक्त होता है । |
599. |
आत्मा का परमानंद केवल प्रभु से जुड़ने पर ही है । प्रभु के अलावा अन्यत्र कहीं भी परमानंद नहीं है । |
600. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में आकर ही परमानंद का अनुभव जीव को होता है । |
601. |
जो जीव को भक्ति मार्ग पर लाता है संसार में उससे बड़ा हित करने वाला कोई नहीं है । |
602. |
संसार की भीड़ में रहकर भी भक्त अकेला ही रहता है । |
603. |
सच्चा भक्त कभी भी अपनी कामना पूर्ति का भार भी अपने कोमल प्रभु पर डालना नहीं चाहता । |
604. |
सभी जीव सदा स्थिर रहने वाला आनंद चाहते हैं जो कि केवल प्रभु की भक्ति से ही संभव है । |
605. |
मन से हमें केवल प्रभु के संग में ही सदा रहना चाहिए । |
606. |
जो जल प्रभु के अभिषेक के समय प्रभु का संग कर लेता है वह चरणामृत बन जाता है और श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ संत उसे अपने मस्तक पर लगाते हैं । प्रभु संग का इतना बड़ा प्रभाव है । |
607. |
भगवती गंगा माता का कोसों दूर बैठकर भी श्रद्धा से स्मरण कर लिया जाए तो भी अनंत जन्मों के पाप क्षय हो जाते हैं । |
608. |
भक्ति जीवन काल में भी और जीवन के बाद भी हमारा कल्याण ही करती है । |
609. |
हमें मन से सदैव प्रभु का ही संग करना चाहिए क्योंकि जीवन में मन का सही संग होना बहुत महत्वपूर्ण है । |
610. |
मन से संग का जीवन में बहुत गहरा प्रभाव होता है इसलिए मन से सदैव प्रभु का ही संग करना चाहिए । |
611. |
सत्संग में केवल तन से बैठने के लिए ही नहीं आना चाहिए बल्कि मन से प्रभु के साथ जुड़ने के लिए आना चाहिए । |
612. |
सत्संग मन से भगवत् संग करने की पाठशाला है । |
613. |
किसी भी प्रकार से मन से प्रभु का संग करें, यह सबसे जरूरी है । |
614. |
मन संसार का विचार करना छोड़कर, प्रभु का विचार करे तभी हमारा कल्याण संभव है । |
615. |
कर्म करने से पहले प्रभु का संग करें, कर्म करने के बाद इच्छित फल के लिए प्रभु को याद करना गलत है । प्रभु से जुड़ने की आवश्यकता कर्म से पहले है न की कर्म के पश्चात । |
616. |
व्यवहार करना संसार सिखा देता है पर भक्ति के संस्कार तो केवल सत्संग ही सिखाता है । |
617. |
भक्ति से ही जीवन में परिपूर्ण शांति मिलती है । |
618. |
संसार को रिझाने के लिए हम कितने प्रयास करते हैं, उनका एक चौथाई भी प्रभु के लिए और प्रभु को रिझाने के लिए कर ले तो हमारा निश्चित उद्धार हो जाएगा । |
619. |
प्रभु को जानने के बाद कुछ भी जानने योग्य नहीं बचता । |
620. |
भक्तों के हृदय में ही प्रभु विश्राम पाते हैं इसलिए प्रभु भक्ति का इतना गौरव सदैव बताते हैं । |
621. |
संत श्री कबीरदासजी कहते हैं कि जब प्रभु के घर से बुलावा आया तो वे रो दिए क्योंकि पृथ्वी पर जो सत्संग में रस है वह श्री बैकुंठजी में भी नहीं है । |
622. |
अपने पुरुषार्थ और पराक्रम से संसार में सब कुछ मिलेगा पर सत्संग केवल प्रभु कृपा से ही मिलता है । |
623. |
भक्ति जो करता है वह बताता नहीं और जो बताता है वह सच्ची भक्ति करता नहीं । |
624. |
प्रभु प्रेम केवल और केवल अनुभव का ही विषय है । |
625. |
प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि भक्ति का प्रसाद हमें जीवन में मिल जाए । |
626. |
सत्संग में वही आता है जिसे प्रभु याद करते हैं । |
627. |
भक्त प्रभु का सुमिरन करते हैं और प्रभु भी अपने भक्तों का सुमिरन करते हैं । |
628. |
हमारा सत्संग में जाने का मन तब होता है जब प्रभु हमारे जीवन में आने का मन बनाते हैं । |
629. |
जीवन में कभी परिवर्तन आएगा, मन प्रभु के सन्मुख होगा तो वह सत्संग से ही होगा । |
630. |
सत्संग के कोई शब्द हमारे मन पर चोट करेंगे और हमारे मन में प्रभु के लिए जगह बन जाएगी । |
631. |
मन को प्रभु के लिए अनुकूल करना केवल भक्ति से ही संभव है । |
632. |
मन का स्वभाव है कि बड़ी चीज उसके हाथ में आते ही वह छोटी चीज को छोड़ देता है । इसलिए जिन भक्तों का मन प्रभु में रम गया उनका संसार का आकर्षण स्वतः ही छूट जाता है । |
633. |
मन का भ्रम है कि संसार में सुख है । इस भ्रम को सत्संग तोड़ देता है । |
634. |
जिह्वा पर प्रभु के नाम को सदैव धारण करके रखना चाहिए । |
635. |
मंदिर में प्रभु को देखना एक बात, श्रद्धा से प्रभु का दर्शन करना दूसरी बात, पर प्रभु को अनुभव करना सबसे श्रेष्ठ बात होती है । |
636. |
संसार हमें विकार देता है जबकि सत्संग हमें प्रभु प्रेम का संस्कार देता है । |
637. |
अनेक जन्मों के अर्जित पुण्यों से ही हम प्रभु की तरफ जा पाते हैं, नहीं तो लोग पूरे जीवन संसार में ही उलझे रहते हैं और अपना मानव जन्म व्यर्थ कर लेते हैं । |
638. |
भक्ति हमें संसार के व्यवहार से हटाकर प्रभु प्राप्ति तक ले जाती है जो कि मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य होता है । |
639. |
सच्चा भक्त सदैव अपने को संसार से छुपा कर रखता है । |
640. |
प्रभु के श्रीकमलचरण भक्तों के मन को विश्राम देने का सबसे उत्तम माध्यम होते हैं । |
641. |
संसार कभी भी जीव के मन को विश्राम नहीं दे सकता । संसार नींद में तन को विश्राम दे सकता है पर मन को विश्राम नहीं दे सकता । मन का विश्राम केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है । |
642. |
शब्दों के पास सामर्थ्य नहीं कि प्रभु प्रेम का वर्णन कर सके । प्रभु प्रेम इसलिए सिर्फ अनुभव का ही विषय है । |
643. |
केवल भक्ति ही हमारे जीवन को बदलने का सामर्थ्य रखती है । |
644. |
सच्ची भक्ति ऐसी होती है जैसे पारस होता है । जैसे पारस लोहे को छू दे तो वह लोहा बदल जाता है, इसी प्रकार भक्ति जीव को छू दे तो उस जीव का गुणधर्म, स्वरूप और स्वभाव सब बदल जाता है । |
645. |
सत्संग, सेवा और सुमिरन की त्रिवेणी में से ही प्रभु प्रकट होते हैं । |
646. |
भक्त संसार में भक्ति करने नहीं बल्कि भक्ति का मर्म सबको बताने और उसे सबके लिए उजागर करने के लिए आते हैं । |
647. |
किसी के जीवन में आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ है तो भक्ति के कारण ही हुआ है । |
648. |
जीवन में भक्ति की भावना को सदैव स्थिर करके रखना चाहिए । |
649. |
मन का बिना सोचे और बिना जाने संसार को ग्रहण करने का अभ्यास है । उसे अब इस अभ्यास से हटाकर भक्ति के माध्यम से प्रभु प्रेमरूपी अमृत को ग्रहण करने में लगाना चाहिए । |
650. |
मन का रंग पानी जैसा है यानी जिसमें मिला दे उस जैसा हो जाता है । इसलिए मन को प्रभु से प्रीति कराके प्रभु से ही मिलाना चाहिए । |
651. |
धीरे-धीरे जीवन में भक्ति की भावना को सुदृढ़ करना आवश्यक है । |
652. |
प्रभु के सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती । स्वामी प्रभु की इच्छा ही सेवक की इच्छा होती है । |
653. |
बार-बार जब हम प्रभु की कथा का श्रवण करते हैं तो कथा के शब्द हमारे भीतर छिपे विकारों के खिलाफ एक क्रांति कर देते हैं । |
654. |
बार-बार प्रभु की कथा सुनने से हमारे मन में भक्ति के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं । |
655. |
संसार की बातें सुनने से मन संसार का हो जाता है और प्रभु की बातें सुनने से मन प्रभु का हो जाता है । |
656. |
सत्संग और भजन की भावना सदैव हमें स्पर्श करती रहनी चाहिए । |
657. |
मन सत्संग का रस लेने लगेगा तो संसार का रस भूल जाएगा । |
658. |
मन संसार का संग करेगा तो संसार का हो जाएगा और वही मन अगर प्रभु का संग करेगा तो प्रभु का बन जाएगा । यह हमारे ऊपर है कि हमारा मन किसका संग करे और किसका बनकर रहे । |
659. |
भक्ति हमें भीतर से स्वस्थ कर देती है । |
660. |
संतों के मत से वही सबसे बड़ा धनवान है जिसके पास प्रभु नामरूपी धन होता है । |
661. |
जन्मों से हमारे भीतर हमने जो संसार इकट्ठा कर लिया है भक्ति के द्वारा हम उसका विसर्जन करते हैं । |
662. |
संसार से मुक्त होने का विचार जीवन में आए इसका विवेक प्रभु ने हमें दिया है । |
663. |
संसार अधिक-से-अधिक हमें संसार के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता पर भक्ति हमें प्रभु की गोद में पहुँचा देती है । |
664. |
संसार मिट जाने वाला है, मर जाने वाला है इसलिए संसार अंत तक हमें क्लेश देने वाला ही रहेगा । |
665. |
जीव संसार से जाने के लिए आता है पर वह यहाँ बसने का इंतजाम करने लगता है, यहीं चूक हो जाती है । |
666. |
संसार का कोई ऐसा सुख नहीं जो हमें बड़ा दुःख देकर न जाता हो । |
667. |
सत्संग एक तरफ संसार के अभाव से हमारा परिचय कराता है और दूसरी तरफ भक्ति की पूर्णता से भी हमारा परिचय कराता है । |
668. |
प्रभु का नाम, रूप, सद्गुण, श्रीलीला और धाम का आकर्षण जीव को अनेक जन्मों के प्रयासों के बाद होता है । |
669. |
भक्ति का स्वांग करना दूसरी बात है पर सच्ची भक्ति करना एक अलग ही उपलब्धि है । |
670. |
हमारे लिए क्या उचित है और क्या उचित नहीं है, इसका विवेक हमें सत्संग कराता है । |
671. |
हमारे हित और अहित का बोध हमें सत्संग कराता है । |
672. |
जिसका जीवन सत्संग युक्त है उसे स्वतः भगवत् स्मरण होता ही रहता है । |
673. |
भक्ति अयोग्य-से-अयोग्य जीव को भी प्रभु प्राप्ति के योग्य बना देती है । |
674. |
पारस नहीं पूछता कि लोहा मंदिर से आया है या कसाई के घर से आया है । पारस तो दोनों को स्वर्ण बना देता है । ऐसे ही भक्ति पात्र और अपात्र दोनों को पवित्र करती है और प्रभु तक पहुँचा देती है । |
675. |
भक्ति कभी जीव से अधिकार नहीं पूछती क्योंकि प्रभु ने भक्ति करने का अधिकार सबको दिया हुआ है । |
676. |
प्रभु कथा ऐसा चमत्कार करती है कि जन्मों से बिगड़े हमारे मन को प्रभु में वापस लगा देती है । |
677. |
सत्संग का प्रभाव और प्रसाद यही है कि हमारा मन प्रभु का हो जाए । |
678. |
साधुता मन का धर्म है, तन का नहीं । तन से साधु नहीं हुआ जाता, मन से साधु हुआ जाता है । |
679. |
भक्तों का एक गुण होता है कि उन्हें देखकर भगवत् स्मृति होती है यानी प्रभु याद आ जाते हैं । |
680. |
जीवन में यह अवसर सबके पास आता है कि हम प्रभु का बन सकें पर उस समय सत्संग के अभाव से हमारा विवेक नहीं जगता और हम वह अवसर चूक जाते हैं । |
681. |
जीवन के अंत में प्रभु याद आए या नहीं आए, यह सबसे महत्वपूर्ण बात । अंतकाल में प्रभु स्मृति होनी ही चाहिए । ऐसी याचना सभी भक्त और संत जीवन भर प्रभु से करते हैं । |
682. |
भक्त श्री सूरदासजी प्रभु से कहते हैं कि चाहे जीवन भर प्रभु उनकी तरफ न देखें पर अंतकाल में प्रभु जरूर उनकी सुध लें । |
683. |
प्रभु सेवा का भाव ही जीव को पवित्र कर देता है । सेवा हो यह तो बहुत बड़ी बात है पर सेवा का भाव ही जीवन में आ जाए तो ही जीव पवित्र हो जाता है । प्रभु सेवा का इतना बड़ा माहात्म्य है । |
684. |
हमें अपने जीवन में अर्जित सारी संपत्ति को प्रभु को निवेदन करने का अगर जीवन में कभी मौका आए तो एक क्षण के लिए भी हमें नहीं सोचना चाहिए और अपना सब कुछ प्रभु को तत्काल अर्पण कर देना चाहिए । |
685. |
सच्चे भक्त और संत के मुँह से प्रभु बोला करते हैं । |
686. |
जिसका तन प्रभु सेवा में लगता है, धन प्रभु सेवा में लगता है उसका मन भी देर-सवेर प्रभु की सेवा में लग ही जाता है । |
687. |
हमारा तन, मन और धन प्रभु का हो जाए तो हम कृतकृत्य हो जाते हैं । |
688. |
भक्तों के जीवन में कौन से दिन प्रभु आएंगे यह खबर नहीं होती पर एक दिन प्रभु जरूर आएंगे यह पक्की बात होती है । |
689. |
कोई घड़ी जीवन में ऐसी जरूर आएगी जब प्रभु की कृपा दृष्टि हमारे ऊपर होगी । |
690. |
प्रभु के प्रेम की उत्पत्ति सत्संग, सेवा और सुमिरन की त्रिवेणी का फल होता है । भक्त ऐसी त्रिवेणी में अपने मन को स्नान कराते रहते हैं । |
691. |
प्रभु प्रेम का आरंभ करना है तो प्रभु के विषय में श्रवण करना प्रारंभ करना पड़ेगा । |
692. |
जीव का दुर्भाग्य देखें कि वह संसार में दौड़ने के लिए, संसार से लिपटने के लिए व्याकुल होता रहता है और इस तरह अपना मानव जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है । |
693. |
प्रभु कृपा करके भक्ति का मार्ग हमें दिखाते हैं पर जीव पुनः पुनः संसार में ही उलझकर रह जाता है । |
694. |
सत्संग के बिना आँखें तो हो सकती है पर जीवन जीने की दृष्टि नहीं मिलती । |
695. |
संसार के पास जो अंतिम वस्तु हमें देने के लिए है वह संसार ही है । |
696. |
विषयों में भटकने के लिए, वासनाओं की पूर्ति के लिए मानव शरीर हमें नहीं मिला है । हमें मानव शरीर प्रभु प्राप्ति के लिए मिला है पर भीतर की आँखें खुलने पर ही इसका आभास होता है । |
697. |
हमारा किस लिए संसार में आना हुआ, हमारे मानव जीवन का उद्देश्य क्या है, इसका बोध हमें सत्संग कराता है । |
698. |
भवसागर पार करने के लिए प्रभु अपने भक्तों को अपनी कृपा की नौका दे देते हैं और अपनी कृपा की हवा भी उसी दिशा में चला देते हैं । भक्तों के लिए भवसागर पार करना प्रभु कृपा से इसलिए सुलभ हो जाता है । |
699. |
जन्मों-जन्मों से संसार में रहते, संसार की सुनते हमें संसार का अभ्यास हो गया है । हम संसार में ही रहे, संसार की ही सुनी इसलिए हमें गलती से लगने लगा कि हम संसार "से" ही हैं और संसार "के" ही हैं । हमें अपने असली स्वरूप की विस्मृति हो गई है । |
700. |
भक्ति के अभाव में ही हमें संसार के सारे झंझटों को झेलना पड़ रहा है । |
701. |
भक्तों की कोई जाति, कुल या संप्रदाय नहीं होता । भक्तों की तो एक ही पहचान होती है कि वे प्रभु के हैं । |
702. |
हमारे मन को संसार का आश्रय न हो, केवल प्रभु का ही आश्रय हो तो ही हमारा कल्याण होगा । |
703. |
प्रभु के आश्रय पर ही हमें जीवन में निर्भर होना चाहिए तभी हमारी भक्ति सच्ची है । |
704. |
हमारा मन केवल प्रभु का ही संग करे, यह सबसे जरूरी है । |
705. |
संसार की बात सुनने पर मन संसार का हो जाएगा और प्रभु की चर्चा सुनने पर मन प्रभु का हो जाएगा । |
706. |
भक्त को जीवन में ठोकर भी लगती है तो वह ठोकर भी उसे श्री ठाकुरजी की तरफ ले जाती है । |
707. |
जीव का स्वभाव है कि वह माया के कारण प्रभु को भूल जाता है । इसलिए जीवन में सतत सत्संग होते रहना नितांत जरूरी है । |
708. |
नवधा भक्ति का एक अंग भी जीवन में स्थापित हो जाए तो अन्य सभी अंग खुद चलकर जीवन में स्वतः ही आ जाते हैं । |
709. |
भक्ति हमें प्रभु से मिलने की इच्छा प्रदान करती है । |
710. |
भक्त सिर्फ प्रभु के बारे में ही बात करता है, निरंतर प्रभु का ही गुणानुवाद करता है । |
711. |
प्रसाद का अर्थ है प्रभु ने जो आपको प्रसन्न होकर दिया है इसलिए प्रसाद को तत्काल अपनी जिह्वा पर रखना चाहिए । |
712. |
प्रभु के बारे में सुनने की सतत लालसा हो, लोभ हो तो ही जीवन कृतार्थ होता है । |
713. |
कथा सुनने की बात शास्त्रों में नहीं आई है कथामृत पीने की बात आई है । निरंतर कथारूपी अमृत के पान करने की ही बात शास्त्रों में आई है । |
714. |
जब प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु श्री रामजी से पूछा कि आप सभी अयोध्यावासियों को अपने धाम ले जा रहे हैं और मुझे पृथ्वी पर रुकने का आदेश दे रहे हैं तो मेरे पास आधार क्या रहेगा तो प्रभु ने उन्हें प्रभु कथा का आधार दिया । इस तरह प्रभु श्री रामजी ने प्रभु श्री हनुमानजी को ब्रह्मांड के अंत तक पृथ्वी पर रहने को कहा और कथा सुनने का आधार दिया । |
715. |
जब प्रभु श्री हनुमानजी हमारा कल्याण चाहते हैं तो प्रकृति को हमारे लिए सत्संग की व्यवस्था करनी पड़ती है । सत्संग प्रभु श्री हनुमानजी की विशेष कृपा प्रसादी के रूप में ही हमें मिलता है । |
716. |
पुरूषार्थ से सत्संग नहीं मिलता, भगवत् कृपा से ही सत्संग मिलता है । |
717. |
भक्ति की महिमा ज्यादातर लोगों को पहचान में ही नहीं आ पाती, यह उनका कितना बड़ा दुर्भाग्य होता है । |
718. |
राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु कथा सुनना आरंभ किया और उनका मृत्यु का भय तत्काल ही जाता रहा । |
719. |
जब प्रभु अतिशय प्रसन्न होते हैं तो ही जीव को भक्ति का दान देते हैं । |
720. |
देना प्रभु का स्वभाव है । प्रभु प्रसन्न नहीं होते तो संसार देते हैं और प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं तो सत्संग, प्रेम और भक्ति का दान देते हैं । |
721. |
हमारी चेतना का प्रवाह सत्संग की ओर बना रहे इससे बड़ी भगवत् कृपा क्या हो सकती है । |
722. |
जिसके जीवन में भक्ति स्थिर हो गई है वह इस बात के लिए निश्चिंत हो जाए कि प्रभु उसके जीवन में एक-न-एक दिन जरूर आएंगे । |
723. |
जिसके जीवन में नित्य सत्संग आ गया है तो उसे भरोसा रखना चाहिए कि उसका उद्धार जरूर होगा । |
724. |
जीव का सहज स्वरूप है कि जीव प्रभु का नित्य दास है । |
725. |
सत्संग मिला तो उसे साक्षात प्रभु की कृपा माननी चाहिए । प्रभु कृपा बिना सत्संग कदापि नहीं मिल सकता । |
726. |
सत्संग में प्रभु प्रेम में आनंद आए और मन को प्रभु प्रेम के कारण सुखानुभूति हो तभी वह सत्संग सार्थक है । |
727. |
सत्संग में मन न लगे तो मन लगाने का उपाय क्या है ? उपाय भी सत्संग ही है । सत्संग करते-करते मन लगने लगेगा । |
728. |
समुद्र में गोता लगाया और मोती नहीं मिले तो इसका अर्थ यह नहीं कि श्री समुद्रदेवजी में मोती नहीं हैं । मोती हैं पर हमें गोता तह तक लगाना पड़ेगा । इसी तरह सत्संग भी गहराई से हमें अपने भीतर उतारना पड़ेगा । |
729. |
जीवन में जब भी सत्संग के क्षण आएं प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए । |
730. |
हमें प्रभु का नाम अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए लेना चाहिए । उसे लेने का और कोई उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए । |
731. |
प्रभु के बारे में क्यों श्रवण करना है ? अपने को मन, वचन और कर्म से पवित्र करने के लिए प्रभु के बारे में श्रवण करना चाहिए । |
732. |
अपने आपको प्रभु के योग्य बनाएं तो जन्मों-जन्मों की संसार की यात्रा का सदैव के लिए प्रभु अंत कर देंगे । |
733. |
प्रभु सदैव देख लेते हैं कि यह जीव मेरे पास क्यों आ रहा है ? मुझसे कुछ लेने या अपना सब कुछ मुझे अर्पण करने । |
734. |
प्रभु का एक ही हिसाब है कि पूरा-का-पूरा अपने आपको समर्पित कर दो और बदले में पूरे-के-पूरे प्रभु को ले लो । |
735. |
प्रभु परिपूर्ण हैं इसलिए हमें पूरा चाहते हैं । प्रभु के यहाँ कम में बात नहीं बनती । |
736. |
प्रभु को भक्त का पूरा-पूरा मन चाहिए होता है । |
737. |
संत श्री नामदेवजी और भक्त श्री सेन नाईजी प्रभु श्री पांडुरंगजी के दर्शन करने अपने गांव से जाते थे । एक बार प्रभु ने संत श्री नामदेवजी से पूछा कि आज श्री सेन नाईजी नहीं आए जबकि श्री सेन नाईजी संत श्री नामदेवजी के बगल में ही उपस्थित थे । संत श्री नामदेवजी समझ गए प्रभु क्या कहना चाहते हैं । लौटते वक्त उन्होंने श्री सेन नाईजी से पूछा कि आज आपका मन कहाँ था जो प्रभु के दरबार में आपकी हाजिरी नहीं लगी । श्री सेन नाईजी बोले कि आज मैं श्रीपंढरपुर में अपनी हजामत की दुकान के लिए उस्तरा में धार करने का पत्थर भी खरीदने का संकल्प लेकर आया था और सोचा था कि दर्शन करूँगा फिर पत्थर खरीद लूंगा । यही गलती हो गई । सूत्र यह है कि प्रभु के साथ कोई अन्य संकल्प को कभी नहीं जोड़ना चाहिए । |
738. |
हमारा मन सभी संकल्पों को छोड़कर केवल प्रभु का संग करे तभी हमारा कल्याण संभव है । |
739. |
स्मृति में केवल प्रभु रहें, इसी का नाम भक्ति है । |
740. |
संसार में रहकर भी मन संसार का संग नहीं करे, संसार में रस नहीं ले, तो ही हमारा कल्याण संभव है । |
741. |
सुखी रहना है तो संसार पाने का कभी भी संकल्प नहीं करना चाहिए । |
742. |
प्रभु को स्वीकार नहीं है कि उनके सच्चे भक्तों का मन राई के दाने जितना भी संसार का संग करे । |
743. |
प्रभु बहुत कुछ से भी बहुत ज्यादा अपना सबकुछ यानी अपने स्वयं को भी भक्तों को दे देते हैं । |
744. |
प्रभु को आधा-अधूरा न तो लेना आता है और न ही आधा-अधूरा देना आता है । |
745. |
हमारे मन को मैला हमारे मन में उठने वाले संसार के संकल्प करते हैं । |
746. |
संसार का संकल्प ही जीव को क्लेश देता है । |
747. |
प्रभु "भी" हमारे जीवन में हों, यह साधारण बात है पर प्रभु "ही" हमारे जीवन में हों, यह श्रेष्ठतम उपलब्धि है । |
748. |
संसार में हम जो भी पाने का प्रयास करते हैं वह तो हमसे एक दिन बिछड़ेगा और बिछड़ने पर संताप देगा । |
749. |
जो प्रभु के निकट आ जाते हैं प्रभु उन्हें भवसागर से पार लगा देते हैं । |
750. |
संसार में रहते मन प्रभु में लग जाए यह धरती पर सबसे बड़ा चमत्कार है । |
751. |
संसार बिना मांगे आ जाता है और उससे पीछा छुड़ाए भी नहीं छूटता पर हमारी मूर्खता देखें कि हम फिर भी प्रभु के सामने जाकर संसार ही मांगते हैं । |
752. |
प्रभु से संसार कभी नहीं मांगना चाहिए, इससे हमारा अहित ही होगा । |
753. |
प्रभु के दर के जो भिखारी होते हैं उनका इतना प्रताप होता है कि उनसे पूरा जग भिक्षा मांगता है । |
754. |
मन संसार का संकल्प तभी छोड़ेगा जब उसके संकल्प के विषय प्रभु बन जाएंगे । यह सिद्धांत है । |
755. |
संसार के संकल्प को प्रभु के संकल्प से ही मिटाया और दूर किया जा सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है । |
756. |
मन संसार का संकल्प न करे इसके लिए मन के पास प्रभु का श्रेष्ठतम संकल्प होना चाहिए । तभी मन द्वारा संसार का संकल्प न होना संभव हो पाएगा । |
757. |
सत्संग का आनंद संसार के सुख से बहुत-बहुत श्रेष्ठ है । |
758. |
सदैव इस बात से सावधान रहना चाहिए कि हमारा मन किसी गलत चीज का संग नहीं करे । |
759. |
संसार में दो तरह की पवन चलती है । एक माया की पवन और एक प्रभु कृपा की पवन । माया और कृपा में हमें चुनना है कि हमें किस पवन के साथ बहना है । |
760. |
सत्संग में सदैव रिक्त चित्त जाना चाहिए । कभी यह सोचकर नहीं जाना चाहिए कि हम इतना जानते हैं या इतनी कथा और सत्संग हमने अभी तक सुन रखा है । |
761. |
कथा के आदि श्रोता प्रभु श्री हनुमानजी हैं जो बिना किसी निमंत्रण के प्रभु की सभी कथाओं में प्रत्यक्ष रूप से आते हैं । |
762. |
सांसारिक धन के साथ चिंता, क्लेश, दुर्गुण, दोष, प्रमाद, लोभ, भय, विकृतियां भी आती है पर प्रभु नामरूपी धन के साथ केवल मुक्ति, कल्याण और मंगल ही आता है । |
763. |
स्वामी से भी अधिक सुख सेवक लेता है क्योंकि वह चिंता रहित होता है । इसलिए संसार में कभी स्वामी बनने का प्रयास न करें, सदैव प्रभु के सेवक बनकर संसार में रहे । |
764. |
जैसे किसी तन से सुंदर लगने वाली स्त्री पर एक संसार के राजा की दृष्टि पड़ जाए और उसे वह प्रिय लगे तो वह तत्काल रानी बनाकर अपना लेता है । वैसे ही मन से सुंदर लगने वाला जीव ब्रहमांड के राजा प्रभु की दृष्टि में आ जाए तो प्रभु उसे तुरंत अपना लेते हैं और उस जीव का कल्याण और मंगल हो जाता है । प्रभु को जीव का निर्मल मन, शुद्ध मन और सुंदर भाव वाला मन बहुत प्रिय है । संसार तन की सुंदरता देखता है और प्रभु मन की सुंदरता देखते हैं । यह कितना बड़ा फर्क है । |
765. |
एक क्षण में प्रभु कृपा से हम जीवन में निर्भय हो जाते हैं । |
766. |
भक्ति का एक पग हम प्रभु की तरफ बढ़ा दें तो बाकी सभी पग प्रभु चल कर आ जाते हैं । |
767. |
प्रभु के बारे में बहुत सुनने से प्रभु से मिलने का हमारा मन होने लगेगा, तभी हम भक्ति करके प्रभु से मिलने का प्रयास करेंगे । इसलिए प्रभु के बारे में जीवन में निरंतर सुनते रहना चाहिए । |
768. |
आनंद सिर्फ प्रभु के पास ही है इसलिए आनंद के लिए हमें प्रभु के पास ही जाना पड़ेगा । |
769. |
आनंद अपने आप में परिपूर्ण शब्द है जिसका शब्दकोश में विपरीत अर्थ का यानी कोई विलोम शब्द ही नहीं है पर आनंद मिलता प्रभु के सानिध्य में ही है । |
770. |
संसार में हमें सुख भी मिलता है और दुःख भी मिलता है पर प्रभु के पास सुख से भी अनंत गुना बड़ा केवल और केवल परमानंद ही मिलता है । |
771. |
भक्ति ही जीवन में हमें सच्ची अलौकिक मौज और मस्ती दे सकती है । |
772. |
जब हम जीवन में सतत प्रभु के बारे में सोचते हैं तो प्रभु भी हमारे बारे में सोचने लगते हैं । |
773. |
हमारे भीतर अपने अंशी प्रभु से मिलने की सोई हुई इच्छा होती है और सत्संग उसी सोई हुई इच्छा को जगा देता है । |
774. |
प्रभु से मिलने का मतलब है परमानंद से मिलना जो हमारे जीवन को सदैव के लिए आनंद से युक्त कर देता है । |
775. |
माया की पवन ने हमारे भीतर प्रभु मिलन की जो इच्छा होती है उसे सुला रखा है । जीवन में प्रभु कृपा की पवन जब चलेगी तो प्रभु मिलन की इच्छा फिर जग जाएगी । इसलिए जीवन में सदैव प्रभु कृपा अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए । |
776. |
इच्छा में बहुत बड़ी शक्ति होती है । इसलिए प्रभु प्राप्ति के लिए इच्छा करनी चाहिए तभी जीवन में प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयास होगा । |
777. |
प्रभु के आसपास, ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं यानी सब तरफ केवल और केवल आनंद-ही-आनंद है । |
778. |
हम प्रभु का श्रृंगार करते हैं तो इससे प्रभु की सुंदरता नहीं बढ़ती क्योंकि हम क्या प्रभु का श्रृंगार करेंगे, प्रभु तो पहले से ही अति-अति सुंदर हैं । पर ऐसा करके हम प्रभु के स्वरूप को देखने का सुख अपने नेत्रों को प्रदान करते हैं और अपने हाथों को प्रभु सेवा का अवसर देते हैं । |
779. |
श्री इंद्रदेवजी ने प्रलयकारी सावर्तक मेघों को भेजा कि जाओ श्रीबृज में एक तिनका भी नहीं बचना चाहिए । प्रभु ने भी उसी समय संकल्प किया कि श्रीबृज में एक तिनका भी इधर-से-उधर नहीं होना चाहिए । |
780. |
मैं प्रभु का सेवक हूँ, इस भाव में स्थिर हो जाने का अर्थ है कि जीवन में निश्चिंत हो जाना । |
781. |
प्रभु सेवा करने का आनंद करने वाला ही जानता है और करने वाले को ही मिलता है । |
782. |
प्रभु सेवा की कृपा का भान जीवन में आना चाहिए कि मैं बहुत कृपापात्र हूँ कि प्रभु ने मुझे अपनी सेवा दी । |
783. |
प्रभु श्री हनुमानजी ने लंका जाने से पहले श्री जाम्बवन्तजी और श्री अंगदजी से कहा कि आप सब उत्सव की तैयारी करें । मैं गया और आया क्योंकि प्रभु कार्य के लिए मैं जा रहा हूँ इसलिए मुझे रोकने वाला कोई नहीं हो सकता । यह निर्भयता जीवन में भक्तों की होती है क्योंकि उनको प्रभु कृपा पर पक्का विश्वास होता है । |
784. |
जीव भय से ग्रसित है, केवल प्रभु की भक्ति ही निर्भयता देती है । |
785. |
हम भगवत् संबंध भूल गए हैं । हमें यह भान नहीं कि हम किसके हैं । हम यह भूल गए हैं कि हम अंश हैं और हमारे अंशी यानी मूल प्रभु हैं । |
786. |
भाव के बिना भक्ति संभव नहीं होती । |
787. |
संसार में आज जो भी हमारे हाथ आ रहा है वह जाने के लिए ही आया है, ठहरने के लिए नहीं आया । |
788. |
संसार की उपलब्धि हमें भीतर से भयभीत बनाती है कि कही वह उपलब्धि छीन न जाए । |
789. |
भक्ति सबसे जल्दी फलीभूत होती है । |
790. |
भक्ति कभी भी हमारी पात्रता का विचार नहीं करती । भक्ति के लिए सभी पात्र हैं । |
791. |
भक्ति का मन बनाने वाले भक्त को कभी भी भक्ति से वंचित नहीं रखा जाएगा । यह प्रभु का सिद्धांत है । |
792. |
भक्ति जीवन में स्थिर होने के बाद हमारा संसार को देखने का दृष्टिकोण ही बदल जाता है । |
793. |
भक्ति सुख की प्रतीक्षा नहीं करती । भक्ति हमें दुःख में भी सुख अनुभव करना सिखा देती है । |
794. |
सच्चे भक्त के जीवन में सुख पाने की प्रार्थना होती ही नहीं क्योंकि वह प्रभु से जुड़ने के कारण हर परिस्थिति में सुख अनुभव करता है । |
795. |
सदा वही मुस्कुरा सकता है जिसके जीवन में भक्ति स्थिर हो जाती है । |
796. |
जीवन में समस्त सद्गुण भक्ति से अपने आप ही आ जाते हैं । |
797. |
जीवन में प्रभु के बारे में श्रवण करने का अभ्यास बनाना चाहिए । |
798. |
प्रभु कथा सुनने से परम लाभ होता है । देखा जाता है कि कितने ही लोगों का जीवन प्रभु कथा सुनते रहने से पूरी तरह परिवर्तित हो गया । |
799. |
प्रभु ने मानव जन्म देकर हमें नौका दे दी भवसागर पार करने के लिए । अगर हम मनुष्य जीवन पाकर प्रभु की भक्ति करते हैं तो साथ ही प्रभु अपने अनुग्रह की पवन भी उसी दिशा में चला देते हैं जिससे हमारी नौका भवसागर पार कर सके । |
800. |
भक्ति का रस जीवन में मिलने पर हमें संसार का सुख नहीं सुहाएगा और उसे भोगने की इच्छा नहीं होगी । |