001. |
भारतवर्ष के पास शास्त्रों, ऋषियों, संतों और भक्तों की धरोहर है जिस कारण हर आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर हमारे पास है । |
002. |
हमारे धर्म का असली नाम सत्य सनातन धर्म है यानी वह धर्म जो सत्य प्रभु से जुड़ा हुआ है । |
003. |
हमें जीवन प्रभु का बनकर ही गुजारना चाहिए । |
004. |
हमारा मन अपूर्ण संसार में लग जाता है पर परिपूर्ण प्रभु में नहीं लग पाता, यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है । |
005. |
प्रभु ही हमारे जीवन की प्राथमिकता होने चाहिए । प्रभु सदैव से हमारे जीवन में प्रथम स्थान चाहते हैं । वे दूसरे स्थान पर बैठना बिलकुल पसंद नहीं करते । |
006. |
प्रभु या तो हमारे मन में बैठेंगे या नहीं बैठेंगे पर अगर बैठेंगे तो प्रथम स्थान पर ही बैठेंगे । |
007. |
प्रभु के मन में बैठने के बाद में किसी अन्य के बैठने की जगह बचती ही नहीं । |
008. |
प्रभु को हम दूसरे नंबर पर बैठाना चाहे तो प्रभु नहीं बैठेंगे क्योंकि यह प्रभु का स्वभाव नहीं है । |
009. |
भक्त को बीच मार्ग में छोड़ना प्रभु का स्वभाव नहीं है । |
010. |
भक्ति प्रभु का आकर्षण करने वाली होती है यानी प्रभु को आकर्षित कर लेती है । |
011. |
मन अगर मंदिर में बैठकर व्यापार में जा सकता है तो मन के पास युक्ति है कि व्यापार में रहकर भी मंदिर में आ सके और प्रभु सानिध्य का अनुभव कर सके । |
012. |
भक्ति भगवान के सम्मुख भक्त को प्रस्तुत कर देती है । |
013. |
भक्ति परम शिखर है क्योंकि भक्ति से ऊँचा कुछ भी नहीं है । |
014. |
प्रभु कथा का श्रवण सदैव ईश्वर बुद्धि से करना चाहिए । |
015. |
प्रभु अपने गुणानुवाद का सौभाग्य कुछ बिरलों को ही प्रदान करते हैं । |
016. |
जब हम प्रभु का यश गाते हैं, गुणानुवाद करते हैं तो प्रभु हमारे अंतःकरण का परिष्कार कर देते हैं । फिर प्रभु अंतर्यात्रा में अनुभव होने लगते हैं । |
017. |
भक्ति के साथ सभी सद्गुण भक्तों के हृदय में आकर वास करने लगते हैं । |
018. |
जीव प्रभु की कृपा को पहचान नहीं पाता क्योंकि कितनी बार जीवन में प्रभु की कृपा जीव को स्पर्श करती है । |
019. |
कुछ प्रारब्ध से, कुछ पुरुषार्थ से, कुछ परिश्रम से, कुछ प्रतीक्षा से मिलता है पर प्रभु तो केवल प्रभु की कृपा से ही मिलते हैं । |
020. |
प्रभु की कृपा की अनुभूति और अनुभव में ही सच्चा परमानंद है । |
021. |
किसी भी मनुष्य देहधारी को लगे कि उस पर प्रभु की कृपा नहीं है तो उसे समझना चाहिए कि अगर प्रभु की कृपा नहीं होती तो उसे मनुष्य देह ही नहीं मिलती । |
022. |
प्रभु के लिए जीवन सदैव धन्यवाद के भाव से ही भरा रहना चाहिए । |
023. |
प्रभु के प्रति हमारा मन शिकायत की जगह धन्यवाद से भर जाना चाहिए । |
024. |
प्रभु के समक्ष हमारा मस्तक झुके तो मांगने या शिकायत के लिए नहीं बल्कि धन्यवाद के लिए ही झुके । |
025. |
जब जीव भगवत् भाव में स्थित होता है तो ही वह परम धन्य होता है । |
026. |
जो हृदय प्रभु का धन्यवाद करता है, जो प्रभु के लिए कृतज्ञता से भरा है वही हृदय स्वस्थ है । |
027. |
प्रभु की कृपा से ही जीवन के बंद मार्ग खुलते जाते हैं । |
028. |
जीवन में किसी को तो हम अपना मानते हैं । कितना अच्छा हो अगर हम केवल प्रभु को ही अपना माने । अपना मानना हमें आता है फिर क्यों न केवल प्रभु को ही अपना माना जाए । |
029. |
प्रभु हमारी प्रार्थना के हर शब्द को सुनते हैं । |
030. |
प्रभु हमारे आधे अधूरे भाव को भी स्वीकार करते हैं । इतने दयालु और कृपालु प्रभु हैं । |
031. |
मन नहीं लगे तो भी भजन करें क्योंकि भजन करना हमारे वश में है परंतु मन का नियंत्रण हमारे वश में नहीं है । मन का नियंत्रण प्रभु के वश में है । हमें वह करना चाहिए जो हमारे वश में है तभी प्रभु को लगेगा कि जो हमारे वश में है वह हमने किया और फिर प्रभु हमारे मन को भी भजन में लगा देंगे । |
032. |
भजन का प्रयास करना और अपनी भूल स्वीकार करना है कि प्रभु आपने यह अनमोल जीवन भजन के लिए दिया था पर उसका उपयोग हम अन्यत्र कर रहे थे । |
033. |
भारतवर्ष वह देश है जहाँ प्रभु का दीदार आँखें खोलकर ही नहीं बल्कि आँखें बंद करके भी संतों और भक्तों ने किया है । |
034. |
प्रभु के समक्ष हमारा सिर सदा झुका ही रहना चाहिए । |
035. |
श्रीहरि की कथा ही कथा है बाकी सब कुछ व्यथा-ही-व्यथा है । |
036. |
प्रभु ही हमारे एकमात्र रखवाले हैं यानी हमारी रक्षा करने वाले हैं । |
037. |
प्रभु के समक्ष हमारी शिकायत शुक्रिया में बदल जानी चाहिए । |
038. |
प्रभु के बिना जीव की गति नहीं है । इस जन्म नहीं तो अगले जन्म, नहीं तो हजारों लाखों जन्म बाद भी संयोग तो प्रभु से ही जोड़ना होगा तभी हमारी गति और हमारा उद्धार संभव है । |
039. |
बिना विनम्र हुए, बिना दीन हुए प्रभु की कृपा नहीं मिलेगी क्योंकि प्रभु का नियम है कि प्रभु के यहाँ दीन का ही आदर होता है । |
040. |
सच्चा भक्त वह है जो सदैव निश्चिंत और निर्भय रहता है क्योंकि वह सदैव प्रभु सानिध्य का अनुभव करता है । |
041. |
पवित्रता श्रीगंगा जल की शाश्वत संपत्ति है । प्रभु के श्रीकमलचरणों का धोवन होने के कारण यह पवित्रता श्रीगंगा जल की शाश्वत संपत्ति बन गई है । श्रीगंगा जल ने प्रभु के श्रीकमलचरणों का संग किया है इसलिए इतना महान गौरव प्राप्त है । |
042. |
जीवन में प्रभु का सुमिरन सतत होते रहना चाहिए । |
043. |
प्रभु के आधार के बिना हम जीवन में सफल नहीं हो सकते और हमें कभी आध्यात्मिक सफलता नहीं मिल सकती । |
044. |
हमारे मूल में प्रभु हैं । जब तक वृक्ष अपने मूल से जुड़ा रहता है तब तक उसका विकास होता है, इसी तरह जब तक हम अपने मूल प्रभु से जुड़े रहते हैं तभी तक हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है । |
045. |
जीवन में ठोकर लगने पर प्रभु का नाम ही हमारी जिह्वा पर आना चाहिए । |
046. |
प्रभु की शरण लेने पर सभी चिंताएं मिटती है और सभी दुविधाएं समाप्त हो जाती है । |
047. |
प्रभु की शरण में आने पर और प्रभु के श्रीकमलचरणों का सहारा पाने पर हमारे मन में निश्चिंतता आ जाती है । |
048. |
निर्बल के बल प्रभु ही होते हैं । |
049. |
प्रभु के स्वभाव पर भक्त रीझते हैं क्योंकि प्रभु का स्वभाव इतना दयालु और कृपालु जो है । |
050. |
प्रभु की दृष्टि विनम्र जीव पर ही पड़ती है । |
051. |
संसार में जो कुछ भी है वह सब प्रभु का ही है । |
052. |
अंतःकरण का विश्राम जीव को केवल भगवत् गुणानुवाद ही दे सकता है । |
053. |
हमें उसी मार्ग पर बढ़ना चाहिए जो प्रभु की ओर जाता है । |
054. |
प्रभु के बारे में श्रवण, कथन और सुमिरन करना श्रेष्ठ साधन है । |
055. |
जीवन में वही क्षण सार्थक होते हैं जो प्रभु के श्रवण, कथन और सुमिरन में बीते । |
056. |
असार संसार में एकमात्र सार प्रभु का नाम है । |
057. |
तन का विश्राम हमें सो कर मिलता है पर मन का विश्राम केवल और केवल प्रभु के सानिध्य में ही मिलता है अन्यथा मन इतना चंचल है कि कहीं भी विश्राम नहीं पाता । |
058. |
सत्संग ही वह विधि, युक्ति और साधन है जिससे हम प्रभु से जुड़ सकते हैं । |
059. |
भक्तों के अंदर भगवान का स्थाई निवास होता है । |
060. |
प्रभु का यश गाने से प्रभु की प्रतीति होती है । |
061. |
भगवती गंगा माता में श्रद्धा से जितनी बार गोता लगाएंगे पुण्य की अभिवृद्धि होती चली जाएगी । |
062. |
चरणामृत ने प्रभु के श्रीकमलचरणों का संग किया है और चरणामृत में उस संग की स्मृति होती है इसलिए वह इतना कल्याणकारी होता है । |
063. |
भक्त प्रभु को खोजता नहीं अपितु प्रभु में खो जाता है । |
064. |
हमारा मन हमारे पास नहीं अपितु प्रभु के पास होना चाहिए । |
065. |
श्रीगोपीजन के रोम-रोम में प्रभु श्री कृष्णजी थे इसलिए उन्हें साक्षात प्रभु श्री कृष्णजी की सदैव प्रतीति होती रहती थी । |
066. |
जो प्रभु का हो जाता है उसके लिए फिर संसार किसी काम का नहीं रहता । |
067. |
प्रभु कथा में जितनी बार गोता लगाएंगे उतनी बार मन निर्मल होगा और प्रभु का कोई पवित्र स्मृति धन हमें प्राप्त होगा । |
068. |
भक्तों के भाव मंदिर में सदैव प्रभु विराजते हैं । |
069. |
सभी नाते प्रभु से जोड़ लेने चाहिए और सभी बंधन प्रभु से बांध लेने चाहिए । |
070. |
जैसे अंधे को एकमात्र लाठी का सहारा होता है वैसे ही भक्तों को एकमात्र प्रभु का ही सहारा होता है । |
071. |
भक्ति सौभाग्यवती तभी होती है जब भक्ति प्रभु के लिए अनन्य होती है । |
072. |
जैसे प्रभु सनातन हैं वैसे ही प्रभु की भक्ति भी सनातन है यानी सदा से है । |
073. |
प्रभु हमेशा अपने भक्तों को स्नेह भरी और कृपा भरी दृष्टि से देखते रहते हैं । |
074. |
जीवन में भक्ति सिद्ध हो जाती है तो बिना प्रयास के भजन होने लगता है । फिर भजन सहज ही होने लगता है । |
075. |
भक्तों के मन में उठने वाला प्रत्येक संकल्प प्रभु के सुख के लिए ही होता है । |
076. |
भक्ति भक्त को प्रभु के लिए सजाती है । |
077. |
भक्ति जीव को प्रभु के अनुकूल कर देती है, प्रभु के योग्य बना देती है । |
078. |
जैसे एक माँ अपने छोटे बच्चे को नहला कर, सजा कर उसके पिता की गोद में बैठा देती है वैसे ही भक्ति माता जीव को सजा संवार कर परमपिता प्रभु की गोद में बैठा देती है । |
079. |
श्री वृंदावनजी में शरद और वसंत ऋतु सदैव प्रभु और माता की सेवा में रहती हैं । |
080. |
प्रभु ही भक्त पर कृपा करके उसे अपने प्रेम के रंग में रंग देते हैं । |
081. |
श्री वृंदावनजी की रज देवताओं और मुनियों के लिए भी अति दुर्लभ है । |
082. |
जीवन का सच्चा रस प्रभु से प्रेम करने में ही है । |
083. |
प्रभु एक बार हमें स्वीकार कर लेते हैं तो फिर हम कृतार्थ हो जाते हैं । |
084. |
संसार से थक-हारकर हमें अंत में प्रभु के पास ही आना पड़ता है । |
085. |
भजन करने से ही जीव की आध्यात्मिक उन्नति होती है । |
086. |
प्रभु की सत्ता का हमें पूर्ण विश्वास होना चाहिए । |
087. |
प्रभु की सहज कृपा भक्तों को अपने आप मिल जाती है । सहज अर्थात जिसके लिए कोई प्रार्थना या याचना न करनी पड़े । |
088. |
दयालुता और कृपालुता प्रभु और माता का सहज स्वभाव है । |
089. |
प्रार्थना और याचना पराभक्ति आने पर अपने आप ही छूट जाती है क्योंकि बिना बोले ही प्रभु सब कुछ जानते हैं । |
090. |
अपने को अपने इष्ट के अनुरूप और अनुकूल बनाना चाहिए । |
091. |
एक साधारण उदार व्यक्ति के दर पर कोई चला जाए तो वह व्यक्ति उसकी सुध लेता है तो परम उदार प्रभु के द्वार जाने पर क्या प्रभु हमारी सुध नहीं लेंगे ? |
092. |
सच्चा भक्त कभी भी नहीं चाहता कि उसकी प्रभु भक्ति संसार के समक्ष प्रकट हो जाए । वह अपनी भक्ति को गोपनीय बनाए रखना चाहता है । |
093. |
प्रभु प्रेम को हमेशा अपने हृदय में छुपाकर रखना चाहिए । |
094. |
भक्ति करने पर एक-न-एक दिन प्रभु की अनुभूति होगी पर उस अनुभूति को संसार के सामने कभी भी प्रकट नहीं करना चाहिए । |
095. |
जैसी इत्र की शीशी का ढक्कन खोल कर रखने पर इत्र उड़ जाता है वैसे ही प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम संसार के समक्ष प्रकट करने पर उसकी हानि होती है । |
096. |
प्रभु के स्वरूप को देखने में आनंद आए तो यह पक्का समझना चाहिए कि हम ही प्रभु को नहीं देख रहे हैं बल्कि प्रभु भी हमें देख रहे हैं तभी हमें आनंद की अनुभूति होती है । |
097. |
प्रभु सत्य, शाश्वत और सनातन हैं इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों से मिलने वाला आनंद भी सत्य, शाश्वत और सनातन होता है । |
098. |
प्रभु प्रेम की भाषा मौन है जो किसी से कही नहीं जाती । प्रभु प्रेम की भाषा मुखर नहीं होती जो सबके सामने प्रकट की जाए । |
099. |
भजन को पचाना ही भजन को बचाना है । |
100. |
गोपियों का प्रभु प्रेम भाव इतना प्रबल इसलिए है क्योंकि वे अपने प्रभु प्रेम को छिपाना जानती हैं । |
101. |
संसार में हमें जो कुछ भी प्रिय लगता है उसके आधार प्रभु ही हैं, यह तथ्य हमें कभी नहीं भूलना चाहिए । |
102. |
प्रभु श्री महादेवजी, प्रभु श्री ब्रह्माजी, श्री उद्धवजी भी जब याचना करते हैं तो श्रीबृज में जन्म की याचना करते हैं । वे यहाँ तक कि वृक्ष, लता, पशु-पक्षी तक बनने की याचना करते हैं, इससे श्रीबृज में मानव जन्म कितना अद्वितीय और दुर्लभ है इस तथ्य का पता चलता है । |
103. |
श्री वृंदावनजी किसी भूमि खंड का नाम नहीं है, यह एक भाव दशा का नाम है जहाँ प्रिया-प्रियतम रमण करते हैं । |
104. |
प्रभु की कृपा ही हमारे जीवन का आधार और जीवन का हेतु है । |
105. |
जो दवा से नहीं होता वह निश्चित ही दुआ से हो जाता है । |
106. |
प्रभु प्रेमी प्रभु से यह नहीं कहता कि आप मेरे ही हैं, वह तो यह कहता है कि मैं केवल आपका ही हूँ । |
107. |
प्रभु जब अपने भक्तों को कृपा दृष्टि से देखते हैं तो भक्त अपना तन, मन और प्राण सब कुछ प्रभु पर न्यौछावर कर देता है । |
108. |
मन को प्रभु प्रेम से पंगु कर दें यानि मन को प्रभु प्रेम में घायल कर दें जिससे कि वह प्रभु को छोड़कर इधर-उधर जा ही नहीं सके । |
109. |
प्रभु को प्रणाम करने से प्रभु हमारे मन की सभी चिंताओं का हरण कर लेते हैं । |
110. |
प्रभु के चिंतन से ही हमारी सभी चिंताओं का अंत होता है । |
111. |
प्रभु सहज ही हमें देख लें तो हम कर्मबंधन से तत्काल मुक्त हो जाते हैं । |
112. |
प्रभु से बिना मांगे ही हमें सब कुछ मिलता रहता है पर अगर प्रभु देने पर आ जाएं तो हम सोच भी नहीं सकते कि क्या मिल सकता है । |
113. |
संसार का सबसे सुरक्षित बीमा प्रभु पर किया गया भरोसा है । बस भक्ति की किश्त रोज भरते रहे तो यह बीमा जारी रहेगा । |
114. |
प्रभु की कृपा हमेशा सक्रिय रहती है । संतों ने एकमत से माना है कि प्रभु का कृपा तत्व सदैव सक्रिय रहता है । |
115. |
संसार जिसे उन्नति और विकास कहता है अध्यात्म उसे पतन कहता है । |
116. |
प्रभु के सभी गुण धर्मों में सबसे विशिष्ट प्रभु का कृपा तत्व है । |
117. |
प्रभु का कृपा तत्व भक्तों के जीवन में सदैव सक्रिय रहता है । |
118. |
प्रभु के लिए सदैव हमारे मन में प्रेम भरी व्याकुलता होनी चाहिए । |
119. |
भक्तों के लिए प्रभु से वार्तालाप बड़ा सुलभ होता है । |
120. |
प्रभु के दरबार में दीनों का बड़ा आदर होता है । यह प्रभु की सदा से चले आने वाली रीत है । |
121. |
सच्चा भक्त भगवान को भी मिलना दुर्लभ होता है इसलिए जब मिलता है तो प्रभु उसे बड़ा मान देते हैं । |
122. |
प्रभु सब नाते अपने भक्तों से ही मानते हैं । |
123. |
भक्ति कभी प्रलोभन नहीं देती । भक्ति प्रभु तक पहुँचने का मार्ग देती है । |
124. |
भक्ति कभी बहकाती, सताती और भटकाती नहीं है । भक्ति जीव को प्रभु मिलन के लिए सजाती है । |
125. |
भक्ति जीव का प्रभु से मिलन करवा कर ही रहती है । |
126. |
प्रभु प्रेम रस के सागर हैं । |
127. |
प्रभु के अनुकूल और अनुरूप हो जाना ही भक्ति है । |
128. |
प्रभु देने में स्वभाव से ही बहुत उदार हैं । |
129. |
प्रभु देने में उदार भी हैं, देने में सर्वसमर्थ भी है और देकर अति प्रसन्न भी होते हैं । यह तीनों गुण सिर्फ और सिर्फ प्रभु में ही मिलेंगे । |
130. |
श्रीबृज की भूमि ने श्री प्रिया-प्रियतम के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्नों को धारण किया है इसलिए वह परम धन्य है । |
131. |
हर दिन एकांत में कुछ घड़ी बैठकर प्रभु और माता के श्रीकमलचरणों का ध्यान करना चाहिए । |
132. |
प्रभु अपने आश्रित भक्त को इतना प्रेम देते हैं कि फिर वह आश्रित भक्त ही संसार में प्रभु प्रेम वितरण करने वाला दाता बन जाता है । |
133. |
भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखना चाहता है । |
134. |
साधक के लिए संसार से संबंध बस आवश्यकता भर का ही होना चाहिए । |
135. |
प्रभु की प्रतीति होने पर ही प्रभु से प्रीति होगी । प्रतीति प्रभु को जानने से होगी जो सत्संग और कथा के माध्यम से ही संभव है । |
136. |
हमारा मन अन्यत्र जाता है इसका मतलब यह है कि अभी प्रभु से हमारी प्रतीति नहीं हुई है । अगर प्रतीति होती तो मन प्रभु को छोड़कर अन्य कहीं नहीं जाता । |
137. |
सद्गुरुदेव जीव का संबंध और संपर्क प्रभु से करवाते हैं । |
138. |
श्रीरास के समय श्रीजी के द्वार का भिक्षु बनने में भी प्रभु श्री महादेवजी ने अपना गौरव माना । |
139. |
जिस दिन मार्ग में पड़े पत्थर को ठोकर मारने में हमें संकोच हो क्योंकि वह प्रभु की सृष्टि का अंग है, उस दिन मानना चाहिए कि हम प्रभु की प्रेमा भक्ति के योग्य हो गए हैं । |
140. |
जीव जन्मों-जन्मों की कामनाओं से पीड़ित रहता है । |
141. |
अगर प्रभु और माता पर भरोसा है तो हम निश्चिंत होकर सो जाएं तो भी कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा । |
142. |
जीव मात्र का कल्याण करना प्रभु ने अपना उत्तरदायित्व माना है । |
143. |
जगत की बाधा प्रभु की कृपा से ही दूर हो सकती है । |
144. |
अपने मन को श्री वृंदावनजी बनाएं जिससे श्री युगल सरकार वहाँ आकर विहार कर सकें । |
145. |
जैसे पैर में कांटा चुभा हो तो मखमल के बिस्तर में भी विश्राम नहीं मिलेगा, वैसे ही कामना का कांटा अगर हृदय में चुभा हुआ है तो संसार में हमें कहीं भी विश्राम नहीं मिलेगा । |
146. |
जीवन में केवल प्रभु का ही विश्वास रखें । |
147. |
भक्ति के मार्ग में प्रभु के समक्ष हमारा मस्तक सदैव झुका ही रहना चाहिए । |
148. |
प्रभु के दरबार में दीन का ही आदर होता है । इसलिए हमारा जीवन दीनतापूर्ण होना चाहिए । |
149. |
प्रभु का कृपा पात्र बनकर रहना ही श्रेष्ठतम उपलब्धि है । |
150. |
अगर भक्ति नहीं है तो धनवान के लिए भी और गरीब के लिए भी जीवन बोझ है । फर्क इतना है कि धनवान के सिर पर सोने की ईंट का बोझ है तो गरीब के सिर पर पत्थर की ईंट का बोझ है । |
151. |
प्रभु की कृपा सबको नित्य उपलब्ध है । |
152. |
प्रभु की प्रीति प्राप्त करने की लालसा जीवन में सदैव होनी चाहिए । |
153. |
जो जीव प्रभु के प्रति समर्पित होता है प्रभु उसके लिए सदा उपस्थित रहते हैं । |
154. |
जो भक्त नहीं है प्रभु उसके लिए मात्र दृष्टा है पर जो भक्त है उसकी मदद के लिए प्रभु सदैव उपलब्ध रहते हैं । |
155. |
भक्ति जीव का श्रृंगार करती है । जीवन में सौंदर्य भक्ति के बाद ही आता है । |
156. |
भक्ति हड्डी और चमड़ी की नहीं बल्कि अंतःकरण की सुंदरता प्रदान करती है जो सबसे महत्वपूर्ण है और प्रभु को सबसे प्रिय है । |
157. |
प्रभु को सच्चा प्रणाम करते ही हमें उत्तर मिलता है । |
158. |
भक्ति प्रभु के सामने हमें प्रस्तुत कर देती है । प्रभु के सामने जीव को निवेदन करने का काम भक्ति करती है । |
159. |
भक्ति को जीव को सजाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव स्वभाव से ही प्रभु से विमुख है और विमुख जीव प्रभु तक नहीं पहुँच सकता । |
160. |
भक्त और भगवान की वार्ता को भक्त हुए बिना नहीं समझा जा सकता । |
161. |
प्रभु अपने अनन्य भक्तों की तरफ सदैव अपनी कृपा दृष्टि से ही देखते हैं । |
162. |
प्रभु में कितनी दया, कितनी कृपा, कितनी करुणा है जिसका अनुमान भी हम नहीं कर सकते तो फिर वर्णन करना तो बहुत दूर की बात है । |
163. |
प्रभु के विग्रह को देखने पर दर्शन करने का लोभ और बढ़ता है तो ही हमारा दर्शन करना सफल है । |
164. |
सब प्रकार से जो निर्धन हो यानी भाव से निर्धन, सेवा से निर्धन, धन से निर्धन उन सबको भी प्रभु अपने श्रीकमलचरणों तक आने की छूट देते हैं । |
165. |
प्रभु के द्वार पर भांति-भांति के याचक आते हैं पर प्रभु को लेने तो कोई बिरला ही आता है । |
166. |
हमारी प्रभु से प्रार्थना केवल प्रार्थना होनी चाहिए, शिकायत नहीं होनी चाहिए । प्रायः लोग शिकायतरूपी प्रार्थना ही करते हैं । |
167. |
प्रभु की सत्ता पर हमें पूर्ण विश्वास रखना चाहिए तो फिर प्रभु से मांगने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी क्योंकि प्रभु अंतर्यामी हैं । |
168. |
भक्तों को प्रभु के समक्ष मौन ही रहते देखा गया है । भक्त प्रभु से कोई अभिलाषा नहीं रखते क्योंकि उन्हें पता होता है कि उनका योगक्षेम प्रभु बिना बोले ही वहन कर रहें हैं । |
169. |
संसार में अपने मन को कभी भी रमने नहीं देना चाहिए । |
170. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों से सदैव कृपा बहती रहती है । |
171. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों के नख से प्रभु के शीश तक का दर्शन करना चाहिए । |
172. |
प्रभु के सद्गुण, रूप, स्वभाव और प्रभाव की चर्चा जीवन में निरंतर सुननी चाहिए । |
173. |
प्रभु के पास पहुँचने पर कोई रिक्त नहीं रहता यानी कोई रिक्त नहीं लौटता । |
174. |
जितने भी जीव प्रभु की शरण में आए हैं वे सब विपत्ति और मुसीबत से उबर गए हैं । ऐसी प्रभु की रीत है । |
175. |
प्रभु और माता के एक कृपा कटाक्ष से सब कुछ संभव हो जाता है । |
176. |
प्रभु की कृपा के बिना हम क्या, हमारी वृत्ति भी प्रभु की ओर नहीं जा सकती । इसलिए अगर हमारी वृत्ति प्रभुमय है तो निश्चित ही इसे प्रभु की असीम कृपा माननी चाहिए । |
177. |
जीवन की ऊर्जा शक्ति को परमार्थ के काम में ही लेना चाहिए । |
178. |
हमारा स्थान सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही होना चाहिए । |
179. |
प्रभु के कृपारूपी प्रसाद को पाने की लालसा ही हमारे जीवन में होनी चाहिए । |
180. |
तीनों लोकों का वैभव पाने के बाद भी विश्राम नहीं मिलता । विश्राम तो केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचने पर ही मिलता है । |
181. |
प्रभु की कृपा दीन पर और विनम्र पर होती है । इसलिए जीवन में दीनता और विनम्रता का भाव धारण करना चाहिए । |
182. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों से कृपा निरंतर बहती ही रहती है । |
183. |
प्रभु का प्रेम पाने के लिए प्रभु की कृपा की हमें आवश्यकता होती है । |
184. |
हमें भक्ति के लिए अनुकूल और अनुरूप होना पड़ता है तभी हम भक्ति मार्ग पर सफल हो पाएंगे । |
185. |
मन को श्रेष्ठतम रस से परिपूर्ण भक्ति दीजिए तो उससे कम रस वाला संसार मन से स्वतः ही छूट जाएगा । |
186. |
एक बार मन प्रभु में लग जाए तो फिर कभी भी उन्हें छोड़कर नहीं जा पाएगा । यह सभी रसिक भक्तों का अनुभव है । इसलिए जरूरत है तो बस एक बार मन को प्रभु में लगाने की । |
187. |
प्रभु से यही अरदास करनी चाहिए कि प्रभु हमें सदैव अपने निकट रखें । |
188. |
प्रभु के द्वार से ही हमें सब कुछ मिलता है इसलिए प्रभु के गुण को सदैव ही गाना चाहिए । |
189. |
मस्तक झुकाकर, कृतज्ञ होकर प्रभु के द्वार में प्रवेश पाया जाता है । |
190. |
प्रभु के अनुरूप और अनुकूल स्वयं को बना लेना, यही भक्ति की साधना है । |
191. |
प्रभु से यह निवेदन करना चाहिए कि जैसे हम प्रभु को अति प्यारे लगे वैसा हमें कर दीजिए । |
192. |
भक्त प्रभु से कहता है कि मुझ जैसा कोई पतित नहीं फिर भी मुझे आपका पूर्ण भरोसा है क्योंकि आप पतितपावन हैं । |
193. |
जीवन में केवल एक प्रभु का ही भरोसा होना चाहिए । |
194. |
प्रभु की भक्ति में जो परमानंद है वह हमारे प्रयास से नहीं अपितु प्रभु की कृपा के कारण है । |
195. |
प्रभु के लिए प्रेम के अश्रु से अनमोल इस सृष्टि में कुछ भी नहीं है । |
196. |
अपने मन को प्रभु के रूप और रस में अटक जाने देना चाहिए पर ऐसा सौभाग्य बिरलों को ही नसीब होता है । |
197. |
प्रभु से निवेदन करें कि हमारे मन की चंचलता को हर लें और हमारे मन को प्रभु अपने श्रीकमलचरणों में स्थिर कर दें । |
198. |
हमारा मन प्रभु को छोड़कर इधर-उधर नहीं जाना चाहिए पर यह प्रभु कृपा बिना संभव नहीं क्योंकि जीव का मन स्वभाव से ही अति चंचल है । |
199. |
मन को प्रभु का रसपान करना चाहिए पर वह संसार के विषय रस का पान करने में लगा रहता है । |
200. |
एक रसिक अपने पद में कहते हैं कि प्रभु मुझे धूलि रज बना दें और फिर प्रभु उस धूलि रज पर अपने श्रीकमलचरण रखकर आगे जाएं । |
201. |
भक्ति हमारे जीवन में केवल चर्चा का विषय बनकर नहीं रह जाना चाहिए । |
202. |
जीवन में हमें भक्ति को बड़ी सहजता से ग्रहण करना चाहिए । |
203. |
किसी धरती पर प्रभु के पीर पैगंबर आते हैं, किसी धरती पर प्रभु के पुत्र आते हैं पर प्रभु ने अपने स्वयं के अवतारों के लिए जब धरती चुनी तो वह भारतवर्ष की ही पुण्य धरती थी । यह गौरव सिर्फ भारतवर्ष को ही मिला । |
204. |
जीता जागता मनुष्य मुक्त होना चाहिए । यही मुक्ति का सच्चा अर्थ है । |
205. |
प्रभु की आवश्यकता जीवन में सभी को, हर समय होती है । |
206. |
भक्त के जीवन में एक ही मार्ग रह जाता है और वह प्रभु की तरफ जाने वाला मार्ग होता है । संसार की तरफ जाने वाला मार्ग उसके लिए स्वतः ही बंद हो जाता है । |
207. |
भक्त निवृत्ति परायण जीव होते हैं । |
208. |
भक्त जब भक्ति से तृप्त हो जाता है तो सदा के लिए प्रभु के समक्ष वह झुक जाता है । |
209. |
जीवन में प्रभु के लिए कृतज्ञता का, धन्यवाद का भाव जागृत हो जाए तो हमारा कल्याण हो जाता है । |
210. |
भक्त लोक मंगल के लिए भक्ति का प्रचार करते हैं । |
211. |
ज्ञानी भटकता है पर भक्त जहाँ चलता है प्रभु उसके लिए वहीं आगे-से-आगे मार्ग बना देते हैं । |
212. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में भक्त और भक्ति की महिमा ही मिलेगी । |
213. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में विशुद्ध भक्ति का प्रतिपादन ही मिलता है । |
214. |
जन्मों-जन्मों का जीव के अभाव का भाव केवल प्रभु की भक्ति से ही मिटता है । |
215. |
जीवन में कभी भी आनंद आएगा तो वह भक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से नहीं आएगा । |
216. |
भक्ति के अलावा परमानंद के जीवन में आने की कोई और युक्ति नहीं है । |
217. |
जीव और प्रभु के बीच अगर रिश्ता है या अगर रिश्ता बनेगा तो वह भक्ति से ही बनेगा । |
218. |
भक्ति जीव को प्रभु के अनुकूल कर देती है । |
219. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की ओर ही जाना है, जीवन में यह लक्ष्य निश्चित हो जाना चाहिए । |
220. |
भक्ति प्रभु के श्रीकमलचरणों का परम विश्राम जीव को प्रदान करती है । |
221. |
भक्तों के चरित्र की प्रभु की कथा में चर्चा करने पर प्रभु प्रसन्न होते हैं । |
222. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रय के अतिरिक्त कोई अन्य युक्ति नहीं है जो हमें सदा के लिए आनंदित कर सके । |
223. |
आज, कल या किसी अन्य जन्म में भी आना हमें प्रभु के सम्मुख ही पड़ेगा तभी हमारा कल्याण होगा । |
224. |
मानव जन्म जैसा संयोग और सौभाग्य बार-बार नहीं मिलता इसलिए इसका उपयोग प्रभु प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए । |
225. |
आत्म-कल्याण से श्रेष्ठ कोई यज्ञ नहीं और यह आत्म-कल्याण भक्ति में निहित है । |
226. |
जब हम प्रभु का नाम लेते हैं तो प्रकृति हम पर प्रसन्न होती है । |
227. |
मानवता का शिखर भक्ति है और इसलिए मानव जन्म पाकर मानवता के शिखर को छूने का प्रयास जीवन में करना चाहिए । |
228. |
प्रभु के नाम का कीर्तन समस्त आभामंडल को पवित्र करता है । इसलिए अपने घर आंगन में प्रभु के नाम का कीर्तन होते रहना चाहिए । |
229. |
श्रीमद् भगवद् गीताजी में हमारे मन में उठने वाले हर प्रश्न का समाधान छिपा हुआ है । |
230. |
श्रीमद् भगवद् गीताजी जीवन की हर ग्रंथि को खोल देती है और जीवन में आनंद की स्थापना कर देती है । |
231. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में भक्ति के सूत्र और सिद्धांत छिपे हुए हैं । |
232. |
हमें प्रभु की कथा से सूत्र और सिद्धांत ग्रहण करना आना चाहिए तभी हमारी आध्यात्मिक दरिद्रता मिट सकती है । |
233. |
भक्ति हमारे भीतर के अभाव को दूर करती है । भीतर का अभाव दूर करने का सामर्थ्य अन्य किसी भी साधन में नहीं है । |
234. |
सद्विचार जीवन में आने के बाद जीवन कितना सरल और सुंदर बन जाता है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । |
235. |
प्रभु में हमारा दृढ़ विश्वास होना चाहिए क्योंकि प्रभु हमारे बिना बोले सब कुछ जानते हैं और हमारे बिना कहे सब कुछ करने में सक्षम हैं । |
236. |
सच्ची प्रभु कथा वह है जिसमें प्रवेश करने का मार्ग तो मिलता है पर लौट आने का कोई मार्ग नहीं होता । |
237. |
धर्म हमें हमारे किए हुए पाप को धोने की सुविधा नहीं देता । धर्म पाप न करने की समझ हमें देता है । |
238. |
जब संसार से ठोकर लगती है तभी जीव श्री ठाकुरजी की ओर मुड़ता है । |
239. |
कर्म का अधिकार देकर प्रभु ने जीव को स्वतंत्र छोड़ दिया है कि उसका जो मन करे वह कर सके । |
240. |
प्रभु की भक्ति का जीवन में बहुत ऊँचा स्थान है और बहुत गहरा महत्व है । |
241. |
धर्म हमें दुर्बल बनाने के लिए नहीं है । धर्म हमें सबल बनाने के लिए है । |
242. |
प्रभु भक्तों के भाव को स्वीकार करते हैं । कोई भक्त भाव से प्रभु का सखा या दास बनना चाहता है तो उस सखा या दास के भाव को प्रभु स्वीकार करते हैं और उस अनुकूल बन जाते हैं । |
243. |
प्रभु कहते हैं कि मैं अपने भक्तों के पीछे वैसे फिरता हूँ जैसे बछड़े के पीछे गाय फिरती है । |
244. |
संसार से हमारा अहित हो सकता है पर प्रभु से निश्चित हमारा हित-ही-हित होगा । |
245. |
प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में तीव्र भक्ति योग का ही प्रतिपादन किया है । |
246. |
भक्ति का भाव और भावना जीवन में बनी रहे इसके लिए सतत प्रयास करना चाहिए । संसार के प्रलोभन बार-बार जीवन में आएंगे पर हमारी भक्ति की भावना को वह खंडित न कर पाए इसके लिए हमें सदैव सावधान रहना चाहिए । |
247. |
प्रभु के अतिरिक्त जीवन में किसी को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए । |
248. |
प्रभु के जैसा प्रभु भी कहें तो भी जीवन में उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए । केवल और केवल प्रभु को ही स्वीकार करना चाहिए । भगवती द्रौपदीजी को प्रभु श्री कृष्णजी ने कहा कि मेरे जैसा ही अर्जुन है और उन्होंने श्री अर्जुनजी को स्वीकार कर लिया । स्वर्गारोहण के समय भगवती द्रौपदीजी सबसे पीछे थी पर उनका पैर फिसला पर आगे जा रहे पांचों पांडवों में से कोई भी नहीं रुका और कोई उनके बचाव के लिए नहीं आया । तब भगवती द्रौपदीजी को समझ आया कि प्रभु जैसे तो एकमात्र प्रभु ही है और प्रभु के कहने पर भी प्रभु के अतिरिक्त जीवन में किसी को नहीं स्वीकारना चाहिए । |
249. |
प्रभु से हमें जो वस्तु प्राप्त होती है उसी में हमारा कल्याण और हमारा मंगल छिपा होता है । |
250. |
जब प्रभु किसी जीव को अपने आश्रित देखते हैं तो प्रभु का वात्सल्य जाग जाता है । |
251. |
संसार के सभी द्वार बंद हो जाने पर भी एक प्रभु का द्वार हमेशा हमारे लिए खुला रहता है । प्रत्येक मार्ग बंद हो सकता है पर प्रभु का मार्ग किसी भी परिस्थिति में कभी भी बंद नहीं होता । |
252. |
जीवन में आने वाली प्रतिकूलता को प्रभु की कृपा प्रसादी मानना चाहिए । |
253. |
प्रभु की कृपा का द्वार सदा, सदा और सदा हमारे लिए खुला रहता है । |
254. |
सब आश्रय छोड़कर प्रभु की ओर देखें तब प्रभु की करुणा तत्काल जागृत हो जाती है । |
255. |
प्रभु अपने भक्तों का संसार और परमार्थ दोनों बिगड़ने नहीं देते । |
256. |
अगर भक्त की प्रार्थना अनसुनी रह जाए तो भक्ति को संसार में प्रमाणित कौन करेगा ? इसलिए भक्तों की हर सात्विक प्रार्थना पूर्ण होती है । |
257. |
श्री अर्जुनजी पर महाभारतजी के युद्ध में इतने शस्त्र चले पर प्रभु ने आगे बैठकर ऐसी व्यवस्था कर दी कि एक भी अस्त्र-शस्त्र श्री अर्जुनजी को छू भी नहीं सका । |
258. |
भक्त जब गिरता है तो करुणानिधान प्रभु का सिंहासन हिल जाता है और प्रभु उस भक्त को बचाने के लिए दौड़ कर आते हैं । |
259. |
प्रभु अपने भक्तों के कष्ट के समय हमेशा उनके साथ रहते हैं । |
260. |
दुःख में भी आनंद की अनुभूति हो, यही भक्ति की महिमा है, यही भक्ति का चमत्कार है । |
261. |
प्रभु की भक्त पर कृपा है यह अनुभव कराने के लिए भक्त के जीवन में कष्ट आते हैं । |
262. |
सुख में प्रभु कृपा का अनुभव नहीं होता । प्रभु ने हमारा हाथ पकड़ रखा है यह अनुभव दुःख आने पर ही होता है । |
263. |
भारतवर्ष सदैव से संस्कारों वाली भूमि रही है । |
264. |
भक्ति के मार्ग पर स्वस्थ तन भले न हो पर स्वस्थ मन होना अति आवश्यक है । |
265. |
भीतर से जो दरिद्र है वह क्रोध करेगा । भीतर से जो समृद्ध है वह क्षमा करेगा । |
266. |
क्षमा करना भक्तों का एक बड़ा गुण होता है । |
267. |
कुछ ऐसे सद्गुण है जो केवल भक्ति ही जीवन में ला सकती है । |
268. |
भक्ति के मार्ग पर कोई भीतर से स्वस्थ व्यक्ति ही चल सकता है । बाहर से स्वस्थ व्यक्ति तो बहुत होते हैं पर अंतरात्मा से स्वस्थ व्यक्ति बिरले ही होते हैं । |
269. |
भक्त स्वयं को संसार के सामने प्रकट करना ही नहीं चाहता । |
270. |
प्रभु श्री शुकदेवजी ने एक भी जगह श्रीगोपीजन का नाम पूरी श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रकट नहीं किया । |
271. |
भक्त अपने को प्रभु के श्रीकमलचरणों में छिपा कर रखना चाहते हैं और रखते भी हैं । |
272. |
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी भक्ति को सर्वोपरि प्रतिष्ठित करते हैं और भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं । |
273. |
कोई भी कामना प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने से ही परिपूर्ण होती है । |
274. |
याचना तो केवल प्रभु से ही करनी चाहिए । संसार से याचना करना हमें शोभा नहीं देता । |
275. |
मांगना जीव के स्वभाव में है, जीव मांगे बिना नहीं रह सकता । तो फिर मांगना ही है तो प्रभु से मांगना चाहिए, संसार से नहीं । |
276. |
प्रभु हमारे बिना मांगे भी सब कुछ जानते हैं फिर भी हम मांगने के लिए प्रभु से प्रार्थना करते हैं, अरदास करते हैं । |
277. |
किसी को क्षमा करने के लिए हमारे हृदय में भक्ति बल की आवश्यकता होती है । भक्ति बिना कौन अपमान सहकर किसी को क्षमा कर सकता है । |
278. |
बहुत सारे सद्गुण ऐसे हैं जो धन और बुद्धि के साथ नहीं आते । वे केवल भक्ति के साथ ही आते हैं और उनके आने पर ही मनुष्य सच्चा मानव कहलाता है । |
279. |
सबका हित हो, सबका मंगल हो यह आवाज विश्व में कहीं उठती है तो वह भारतभूमि से ही उठती है । केवल भारतवर्ष के ऋषियों और संतों के हृदय से ही यह भावना उठती है । |
280. |
संसार विश्व को बाजार के रूप में देखता है पर भारतवर्ष विश्व को परिवार के रूप में देखता है । यह देखने की दृष्टि का कितना बड़ा फर्क है । |
281. |
भगवती गंगा माता के जल में डुबकी लगाई तो शीतलता का अनुभव तो सबको होगा पर पवित्रता का अनुभव केवल उनको होगा जिनको माता में विश्वास और श्रद्धा है । |
282. |
भगवत् कृपा से ऐसी पवित्र भारत भूमि में जन्म मिला है और शास्त्रों, ऋषियों और संतों की परंपरा के विचारों को पाने का शुभ अवसर मिला है । |
283. |
सत्य को खोजने की जिज्ञासा भारत भूमि में बहुत जल्दी जागती है । |
284. |
भक्ति में तन से स्वस्थ होने से भी कहीं अधिक मन से स्वस्थ होने की आवश्यकता होती है । |
285. |
सच्ची जननी वह है जो अपने पुत्र या पुत्री को शुरु से ही भजन करने का संस्कार देती है । |
286. |
क्या हम अपने पुत्र या पुत्री को भगवत् महिमा यानी भगवान की महिमा बताते हैं ? |
287. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों को प्राप्त करने के बाद फिर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता । |
288. |
भय संसार में सभी जीवों के साथ लगा हुआ है । निर्भयता तो केवल प्रभु भक्तों में ही होती है । |
289. |
हमारी भक्ति का सही परिणाम आ रहा है या नहीं इसे जांचने का एकमात्र मापदंड यह है कि हमसे प्रभु का निरंतर चिंतन हो और हमें संसार की कोई चिंता न हो । |
290. |
भजन भी है और संसार की चिंता भी है, यह दोनों विरोधाभासी है । दोनों एक साथ नहीं हो सकते । |
291. |
गर्भ में अपने बच्चे को भजन का आहार भी देना चाहिए । हम सिर्फ भोजन का आहार ही देते हैं, भजन का आहार देने से चूक जाते हैं । |
292. |
एक प्रभु का ही द्वार है जिस द्वार से आज तक कोई खाली नहीं लौटा है । |
293. |
प्रभु का स्वभाव है कि जो प्रभु को अपना लक्ष्य मानकर एक पग आगे बढ़ाता है प्रभु उसकी पग-पग पर रक्षा करते हैं । |
294. |
प्रभु के प्रभाव, प्रभु के स्वभाव को जानकर जीवन में प्रभु पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए । |
295. |
जीवन में भगवत् प्राप्ति करने पर ही हमारा मनुष्य जीवन सफल और सार्थक होता है । |
296. |
प्रभु की कृपा हो तो जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है । |
297. |
अधिकारी जीव को एक दिन तो क्या, एक क्षण के लिए भी प्रभु अपने प्रेम से वंचित नहीं रखते । |
298. |
जीवन में यह उद्देश्य निश्चित कर लें कि अब तो केवल प्रभु ही हमें चाहिए । |
299. |
जीवन में यह निश्चित कर लें कि जो भी लेना है और पाना है वह प्रभु से ही लेना है और पाना है । |
300. |
भक्ति माता की कृपा से जीवन में आवश्यकताएं ही समाप्त हो जाती है । |
301. |
अब जीवन में कुछ और नहीं होना चाहिए, कोई और नहीं होना चाहिए, केवल और केवल प्रभु ही होने चाहिए । |
302. |
मांगना उन्हीं से चाहिए जो खुशी से दें और किसी को न कहें । ऐसे केवल और केवल प्रभु ही हैं । |
303. |
हमारी याचना भी भूषण बन जाती है जब हम केवल प्रभु से ही याचना करते हैं । |
304. |
कहीं भी और जाएंगे तो भटक जाएंगे पर प्रभु की तरफ चलेंगे तो आज नहीं तो कल जरूर पहुँचेंगे । |
305. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन के बाद जीव को कोई भय, कोई क्लेश नहीं रहता और कोई चिंता भी नहीं रहती । |
306. |
प्रभु श्री महादेवजी श्रीहरि कथा के आदि वक्ता हैं । उनसे अधिक प्रभु का रहस्य कोई जानता नहीं और कोई जान सकता भी नहीं । |
307. |
एक क्षण भी प्रभु चिंतन बिना व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि जीवन का एक-एक क्षण अमूल्य है और बीता क्षण कभी भी लौटकर वापस नहीं आएगा । |
308. |
जीवन में भगवत् भरोसा होने पर ही हम निर्भय रह सकते हैं । |
309. |
कभी भी और किसी भी काल में प्रभु के अतिरिक्त कौन हमारी रक्षा कर सकता है ? |
310. |
अगर हमारा लक्ष्य प्रभु हैं तो कोई भी हमारा अहित नहीं कर सकता । |
311. |
प्रभु श्री नारदजी ऐसे सद्गुरु हैं कि जिनके भी जीवन में आए हैं उनको प्रभु श्री नारायणजी से मिला कर ही छोड़ते हैं । श्री ध्रुवजी और श्री प्रह्लादजी इसके जीवंत उदाहरण हैं । |
312. |
प्रभु की कृपा का जीवन में परिपूर्ण भरोसा होना चाहिए । |
313. |
जब हम हमारे मूल प्रभु से जुड़ जाते हैं तो ही आनंद का संचार हमारे भीतर होता है । |
314. |
शास्त्रों ने जीवनमुक्त होने की बात कही है यानी जीवन रहते ही मुक्त हो जाना । |
315. |
सत्संग भीतर से सोए हुए जीव को भीतर से ही जगाता है । |
316. |
अपने मूल सनातन धर्म को भूल जाना बहुत बुरा है क्योंकि यह भूल हमारा पतन करवा देगी । |
317. |
मंत्र हमारे हृदय में प्रभु की मंत्रमूर्ति की प्रतिष्ठा करते हैं । |
318. |
भक्ति का मार्ग मिलने पर हमारी दुविधा खत्म हो जाती है क्योंकि हमें विश्वास हो जाता है कि हमने सही मार्ग पकड़ लिया है । |
319. |
भक्ति के मार्ग पर प्रभु के आने से पहले बहुत प्रतिकूलता और बहुत प्रलोभन आते हैं पर इन सबसे भक्तों को बचना चाहिए और अडिग रहकर प्रभु की प्रतीक्षा करनी चाहिए । |
320. |
सुनने वाला योग्य होता है तो ही कथा सही रूप में प्रकट होती है । |
321. |
सत्संग का मार्ग प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचकर ही विश्राम पाता है । |
322. |
भक्ति के मार्ग के लिए श्रद्धा हो जाए तो ही हमारा कल्याण सुनिश्चित हो जाता है । |
323. |
संसार में रस नहीं लेना चाहिए । संसार में सुख बुद्धि नहीं रखना चाहिए । |
324. |
जब हम अपनी अंतरात्मा की पुकार को नहीं सुनते तो वह स्वर मंद पड़ने लग जाता है और फिर अंतरात्मा मानो निद्रा में चली जाती है । |
325. |
भक्ति के मार्ग पर सबसे ज्यादा भय कीर्ति, मान और प्रतिष्ठा में फंसने का होता है । |
326. |
कुछ न था तो हम प्रभु के पास थे, कुछ बन गए तो प्रभु दूर हो गए । यह कितना बड़ा दुर्भाग्य होता है । |
327. |
बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो भक्ति की कमाई करता है जो सदैव के लिए उसकी ही होती है । |
328. |
हमें भक्ति के संकल्प का बल अर्जित करना चाहिए जो हमें प्रभु तक पहुँचा देता है । |
329. |
प्रभु मनोकामना पूर्ण करने में भी समर्थ हैं और मनोकामना का नाश कर जीव को सदा-सदा के लिए मुक्त करने में भी समर्थ है । |
330. |
श्रीमद् भागवतजी महापुराण में केवल भक्ति की बात नहीं कही गई है बल्कि तीव्रतम भक्ति की बात कही गई है । |
331. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों की छाया में बैठने वालों को कभी किसी भी चीज का भय नहीं होता । |
332. |
किसी के प्रति दुर्भावना रखने से हमारी हानि होगी, हम भीतर से अस्वस्थ हो जाएंगे । हमारे सात्विक संकल्प दुर्बल पड़ जाएंगे । |
333. |
मन स्वस्थ होने पर ही उस मन से भक्ति करना संभव होगा । |
334. |
हमारा उद्देश्य केवल प्रभु ही होने चाहिए तभी हम जीवन में भटकेंगे नहीं । |
335. |
भक्ति मार्ग के प्रथम आचार्य देवर्षि प्रभु श्री नारदजी हैं जिन्होंने भक्ति की घर-घर स्थापना करने का बीड़ा उठाया । |
336. |
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने जिसके सर पर हाथ रख दिया उसको भगवत् प्राप्ति करवाई, फिर उसे किसी माता के गर्भ में कभी नहीं जाने दिया । |
337. |
भक्ति का दान करना देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के अधिकार में है कि जिन्होंने भक्ति सूत्र देकर जीवन के कल्याण का मार्ग सबको दिखाया । |
338. |
प्रभु को पाने का मार्ग ही श्रेष्ठतम मार्ग है और उस मार्ग पर चलकर जहाँ पहुँचा जाता है उससे श्रेष्ठ कोई उपलब्धि नहीं है । |
339. |
हमारी वृत्ति जब प्रभुमय होती है तो प्रकृति प्रसन्न हो उठती है और हमारे ऊपर अनुग्रह करती है । |
340. |
प्रभु का आशीर्वाद जीवन में हमारे लिए रक्षा कवच का काम करता है । |
341. |
जीवन में प्रभु की तरफ चलने का उद्देश्य निश्चित करने पर ही मानव जीवन सफल होता है । |
342. |
प्रभु ने अगर हमें प्रभु कार्य के लिए चुन लिया है तो यह प्रभु का बहुत-बहुत बड़ा अनुग्रह हम पर है क्योंकि प्रभु चाहते तो हमारे जैसे लाखों का निर्माण क्षण भर में कर सकते थे । |
343. |
संसार की भीड़ से अगर हमें प्रभु कार्य के लिए चुना जाता है तो चुने जाने के लिए हमें प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए । |
344. |
कलियुग में केवल नाम का ही आधार है और कीर्तन की ही प्रधानता है । |
345. |
प्रभु को छोड़कर किसी और से कभी भी कुछ भी नहीं मांगना चाहिए । |
346. |
अपनी आशा की डोरी को केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही बांधना चाहिए । |
347. |
प्रभु जब अपने भक्तों को देते हैं तो स्वयं बहुत सुख अनुभव करते हैं । |
348. |
प्रभु अपना सर्वस्व भक्त को देना चाहते हैं पर सच्चा भक्त कुछ भी लेना ही नहीं चाहता । |
349. |
भक्त श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से मांगा कि मेरे मन में जन्मों-जन्मों तक केवल आपकी भक्ति की ही कामना रहे । |
350. |
प्रभु प्राप्ति के संकल्प में प्रकृति अपना सहयोग हमें अवश्य देती है । |
351. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रित हुए बिना माया से निवृत्ति संभव ही नहीं है । यह प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में स्पष्ट मत है । |
352. |
प्रभु के उपदेश और आदेश का जीवन में सदैव पालन होना चाहिए । |
353. |
आँखों से जो नहीं देखना चाहिए जब हम वह देखते हैं तो बहुत बड़ा दोष जीवन में आ जाता है । |
354. |
अपना दोष हमें तब दिखता है जब प्रभु कृपा होती है नहीं तो हम संसार के दोषों को ही देखते रहते हैं । |
355. |
हमारे मन में दोष नहीं होगा तो किसी अन्य का दोष भी हमें प्रभावित नहीं करेगा । |
356. |
हमें अपनी चेतना को प्रभु से ही बांधना चाहिए । |
357. |
प्रदर्शन से भक्ति का बैर है । भक्ति के प्रदर्शन से भक्ति की हानि होती है । |
358. |
भजन के अनुकूल, भजन के योग्य अपने मन को सदैव बनाए रखना चाहिए । |
359. |
जहाँ प्रभु का कीर्तन होता है, वहाँ श्रीबैकुंठ है । कीर्तन की बड़ी भारी महिमा है । कलियुग में कीर्तन प्रभु में पूर्ण श्रद्धा जागृत कर देता है । |
360. |
जिसका मन सांसारिक संकल्पों का अनुगमन नहीं करता वही भक्ति की साधना कर सकता है । |
361. |
मन को लगाने वाले आप हैं तो मन जैसा कोई मित्र नहीं, पर अगर आपको लगाने वाला मन है तो फिर मन के जैसा कोई शत्रु नहीं । |
362. |
भक्ति हमारे मन को मंदिर बना देती है । |
363. |
भक्त जहाँ जाता है वही स्थान तीर्थ हो जाता है । |
364. |
जीवन में यहाँ वहाँ क्यों चलना चाहिए ? चलना ही है तो प्रभु की ओर क्यों न चला जाए । |
365. |
सब कुछ में अंतिम निर्णय प्रभु का ही होता है । अंतिम निर्णय देने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । |
366. |
जब दुःख से बचने की चेष्टा न हो, सुख का आकर्षण न हो तो समझना चाहिए हमारी भक्ति फलीभूत हो रही है । |
367. |
भक्ति में ही इतना सामर्थ्य है कि काजल की कोठरी में भी कोई रहे फिर भी वह उजला बना रहेगा । |
368. |
भक्तों को जीवन में सदैव भगवत् कृपा अनुभव में आती रहती है । |
369. |
प्रभु अपने लाड़ले भक्तों का अपनी कृपा से अभिषेक करते रहते हैं । |
370. |
हमारी जिस कामना को हम जानते भी नहीं प्रभु उसे भी जानते हैं और उसे पूर्ण करते हैं । |
371. |
जो किसी को प्रभु का भजन करने की प्रेरणा देता है वह प्रभु को अत्यंत प्रिय होता है । |
372. |
प्रभु के ऋणी बने रहना चाहिए यही हमारे जीवन की सबसे श्रेष्ठ अवस्था है । |
373. |
प्रभु का नाम प्रभु की प्राप्ति करवाने वाला साधन है इसलिए श्रेष्ठतम है । |
374. |
जैसे एक नन्हा बीज अपने भीतर एक विशाल वृक्ष को छुपा कर रखता है वैसे ही प्रभु का नाम अपने अंदर प्रभु की विराट शक्ति को छुपा कर रखता है । |
375. |
संसार स्वार्थ पर टिका है और इस कारण अंत में पीड़ा ही देता है । |
376. |
आध्यात्म हमें मौन और एकांत की तरफ लेकर जाता है । एकांत हमारा स्वभाव बन जाता है और मौन हमें अच्छा लगने लग जाता है । |
377. |
हमें देखना चाहिए कि जीवन में हमें बाहर की प्राप्ति हो रही है या भीतर की प्राप्ति हो रही है । |
378. |
बाहर की प्राप्ति हमें बोलने पर विवश करेगी और भीतर की प्राप्ति हमें मौन रखेगी । |
379. |
भीतर की प्राप्ति यानी परमानंद वाणी का विषय नहीं होता इसलिए किसी से कहा नहीं जा सकता । |
380. |
भक्ति जिसके हृदय में प्रकट होती है प्रभु उसकी ओर आकर्षित होते हैं । भक्ति प्रभु को आकर्षित करने वाला साधन है । |
381. |
भक्ति प्रभु को भक्तों के पास खींच लाती है । यह सामर्थ्य केवल और केवल भक्ति का ही है । |
382. |
भक्त प्रभु का भरोसा करके जीवन को आनंद से जीता है । |
383. |
भक्ति एक बहुत ही सरल साधन है । |
384. |
भक्ति सदैव भगवान की तरफ ही देखती और दिखाती है । |
385. |
प्रभु की कृपा और करुणा को सदैव नमन करते रहना चाहिए । |
386. |
जीवन में केवल प्रभु से आशा रखने वाला ही भक्त कहलाने योग्य है । |
387. |
प्रभु तो जीव को नित्य प्राप्त हैं । जीव ही संसार के मायाजाल में खोया हुआ रहता है और प्रभु को भूला रहता है । |
388. |
अपने किसी भी शुभ कर्म के बदले प्रभु से कुछ नहीं मांगना चाहिए । |
389. |
भक्ति अर्थात भगवान का बनना और भगवान को अपना बना लेना । |
390. |
भक्ति भक्त के दुर्गुण देखकर भक्त का कभी त्याग नहीं करती । |
391. |
जैसे याचक अगर दुर्बल और अपंग हो तो अधिक दया का पात्र होता है वैसे ही भक्ति दुर्बल और दुर्गुणी व्यक्ति पर अधिक दया करती है । |
392. |
प्रभु पुनीत आचरण करने वालों से भी अधिक कृपा पतित पर करते हैं । इतने करुणानिधान प्रभु हैं । |
393. |
प्रभु की भक्ति करने के लिए कभी जीवन में दो विचार नहीं लाना चाहिए कि करें या न करें । एक विचार लाएं कि भक्ति करनी ही है । |
394. |
जो प्रभु को जैसे भजता है प्रभु भी उसे वैसा ही उत्तर देते हैं । |
395. |
प्रभु की तरफ मुड़ते ही हमारे संकल्पों को प्रकृति पूर्ण कर देती है । |
396. |
भक्ति हमें प्रभु के द्वार पर लाकर खड़ा कर देती है । |
397. |
मन ही हमारा पतन करवाता है और मन ही हमसे प्रभु का भजन कराता है । इसलिए मन को अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । |
398. |
मन को ग्रहण करने की आदत है इसलिए हमारा मन प्रभु के प्रेम को ग्रहण करे, ऐसा उपाय करना चाहिए । |
399. |
मन को कुछ ऐसा दीजिए जो संसार के रस से श्रेष्ठ हो तभी मन संसार को छोड़ेगा । इसलिए भक्त प्रभु में मन लगाते हैं तो उनका संसार अपने आप छूट जाता है । |
400. |
प्रभु के नाम, रूप, श्रीलीला और धाम में सबसे पहले मन को प्रभु के नाम को पकड़ा देना चाहिए क्योंकि यह सबसे सरल और सबसे मीठा साधन है । |
401. |
प्रभु की कृपा है कि प्रभु ने भारतवर्ष में मनुष्य बनाकर हमें भेजा है जहाँ हमें भक्तिरूपी अपार धन विरासत में मिला हुआ है । |
402. |
भक्ति की भावना पर जीवन में पूरा भरोसा रखना चाहिए । |
403. |
भक्ति कभी हमें प्रलोभन नहीं देती । जो प्रलोभन देती है वह भक्ति नहीं है । |
404. |
भक्ति केवल हमें प्रभु के लिए पूर्ण आशा रखने को कहती है । |
405. |
हमारी श्रद्धा कुब्जा है पर भक्ति के मार्ग पर चलते रहने से कभी प्रभु मिल जाएंगे जो श्रद्धारूपी कुब्जा को सुंदर बना देंगे । प्रभु हमारी श्रद्धा को दृढ़ और परिपूर्ण कर देंगे । |
406. |
प्रभु का अनुग्रह हो जाए तो फिर जीव को वापस कभी भी किसी माता के गर्भ से होकर संसार में नहीं आना पड़ता । |
407. |
भक्ति माता किसी को भी अस्वीकार नहीं करती । |
408. |
प्रभु प्राप्ति केवल भक्ति से ही संभव है । |
409. |
भक्ति केवल प्रभु की तरफ ही देखती है और अपनी शरण में आने वाले को प्रभु को ही दिखाती है । |
410. |
भक्ति प्रभु के अलावा किसी को नहीं देखती और न ही भक्ति करने वाले को प्रभु के अलावा कुछ देखने देती है या दिखाती है । |
411. |
भक्ति का सामर्थ्य अदभुत है । |
412. |
हमें अपने देश के संस्कारों को कभी नहीं भूलना चाहिए । |
413. |
हमें जो भी मिल रहा है उसे देने वाले प्रभु ही हैं । |
414. |
संसार सुविधा देगा पर उस सुविधा में परमानंद नहीं होगा । भक्ति सुविधा नहीं देगी पर परमानंद भरपूर देगी । |
415. |
साधक के मन में प्रभु के प्रति संशय नहीं होना चाहिए कि प्रभु कृपा उसके जीवन में होगी या नहीं होगी । उसे पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि प्रभु कृपा उसके जीवन में होकर ही रहेगी । |
416. |
कितने जन्म हमने संसार करने के लिए खोए हैं । एक जन्म प्रभु के लिए जी कर प्रभु को अर्पण करना चाहिए । |
417. |
संत श्री कबीरदासजी कहते हैं कि कोई सूरमा ही भक्ति कर सकता है क्योंकि कामी, क्रोधी और लालची से भक्ति संभव नहीं है । जाति, वर्ण और कुल को खोकर ही कोई सूरमा भक्ति करता है तभी भक्ति संभव होती है । |
418. |
जिसके जीवन में प्रभु के लिए प्रश्न है उसने सच्चा सुमिरन आरंभ ही नहीं किया । |
419. |
प्रभु नाम को ही जीवन में सर्वस्व माने । |
420. |
भक्ति हमारे भीतर जागृत हुई या नहीं यह प्रमाणित होता है उन गुणों से जो हमारे भीतर भगवत् कृपा के कारण जागृत हो जाते हैं । भक्त श्री नरसी मेहताजी सच्चे वैष्णव के लिए “वैष्णव जन तो तेने कहिए” नामक भजन में उन गुणों का वर्णन करते हैं जो भक्ति जागृत करती है । |
421. |
श्वास-श्वास पर भक्त प्रभु का नाम जपते हैं । वे एक भी श्वास नाम जपे बिना व्यर्थ नहीं जाने देते । |
422. |
जितने भी प्रभु की शरण में आए सभी प्रतिकूलता से उबर गए, ऐसी प्रभु की रीत है । |
423. |
हम संसार में रहने के लिए नहीं आए हैं । संसार से होकर प्रभु के पास जाने के लिए आए हैं । |
424. |
संबंध संसार से नहीं अपितु प्रभु से बनाना चाहिए, तभी जीव की जीवन में सफलता है । |
425. |
जो भी करें प्रभु का बनकर करें, प्रभु के लिए करें, प्रभु का समझकर करें, प्रभु का होकर करें, प्रभु को निवेदन करते हुए करें और प्रभु से अपना संबंध मानकर करें । |
426. |
जीवन में जितनी भूल है, जितनी त्रुटि है, जितनी प्रतिकूलता है, जितना क्लेश है, जितना कष्ट है, जितना प्रमाद है वह सब भगवत् विस्मृति के कारण ही है । |
427. |
प्रभु का नाम कल्पतरु है यानी सब कुछ प्रदान करने वाला है । |
428. |
प्रभु की समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ "कृपा" की शक्ति है । |
429. |
जीव के कल्याण के मूल में यदि कोई कारण है तो वह प्रभु की कृपा ही है । |
430. |
प्रभु नाम की महिमा का पता करना है तो प्रभु का नाम लेकर देख लें, अनुभव करें तो पता चलेगा कि प्रभु नाम का प्रभाव क्या होता है । |
431. |
हमारी सभी वृत्तियों का उद्देश्य संसार नहीं बल्कि प्रभु होने चाहिए । |
432. |
जब संसार से ठोकर लगती है तो ही प्रभु की तरफ चलने का आत्म-कल्याण का मार्ग हमें मिलता है । |
433. |
प्रभु के लिए संकल्प ऐसा होना चाहिए कि फिर हमारा मन प्रभु के अलावा किसी विकल्प की तलाश ही नहीं करे । |
434. |
भक्ति हमें कभी भी भयभीत नहीं होने देती । |
435. |
भक्ति में कभी चूक भी हो जाए तो भक्ति माता के पास भरपूर रूप में क्षमा है । |
436. |
सौ करोड़ श्लोकों की श्री रामायणजी के महाकाव्य की रचना प्रभु श्री महादेवजी ने की । देवता, मनुष्य और असुर प्रभु के पास प्रसादी लेने के लिए आए तो प्रभु श्री महादेवजी ने पूरे सौ करोड़ श्लोकों में से एक श्लोक रखकर बाकी तीनों में बांट दिए । जो श्लोक रखा उसमें 32 अक्षर थे । फिर देवताओं, मनुष्यों और असुरों ने निवेदन किया कि यह भी हमें प्रसादी रूप में दें तो प्रभु ने उस अंतिम श्लोक के 10-10-10 अक्षर तीनों में बांट दिए । जो दो शब्द पूरे श्री रामायणजी के सौ करोड़ श्लोकों में से बचे वह “रा” और “म” (राम) थे जिन्हें प्रभु श्री महादेवजी ने सदैव के लिए अपने पास अपने हृदय में रख लिया । |
437. |
अन्य युगों में जो कठिन-कठिन साधनों से भी उपलब्ध नहीं होता वह कलियुग में केवल प्रभु नाम से हो जाता है । प्रभु नाम की इतनी बड़ी महिमा है । |
438. |
प्रभु अपने धाम से पृथ्वी पर भांति-भांति के भक्तों और संतों को भेजते हैं क्योंकि पृथ्वी पर भांति-भांति के जीव हैं और उनकी अलग-अलग रुचि है जिसके पोषण के लिए प्रभु ऐसा करते हैं । |
439. |
प्रभु नाम की महिमा है कि वह नामी प्रभु को प्रेम से खींचकर ले आती है । |
440. |
प्रभु नाम के आश्रित जीव को प्रभु को पाने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । |
441. |
संसार को भोगने की आशा जीवन में नहीं रखनी चाहिए नहीं तो निराशा-ही-निराशा हमें मिलेगी । |
442. |
प्रभु का नाम जब जिह्वा पर आने लगे तो प्रभु से प्रार्थना करें कि जिह्वा तक तो आ गए अब दो कदम और चलकर मन-मंदिर में भी आ विराजे । |
443. |
नाम में नामी यानी प्रभु सदा विराजमान रहते हैं । |
444. |
संतों ने पूरे जग को धनहीन माना है, धनवान उन्हें ही माना है जिनके पास प्रभु नामरूपी धन है । |
445. |
मन इकतारे की तरह है जिसमें से एक ही स्वर निकलेगा । मन से या तो राम और या तो काम, या तो स्वार्थ या तो परमार्थ निकलेगा । एक साथ दो स्वर जैसे इकतारे से नहीं निकल सकते वैसे ही मन से भी नहीं निकल सकते । |
446. |
भक्त की सभी लज्जा भगवान को रखनी पड़ती है । |
447. |
जो प्रभु के आश्रित हैं उनकी चिंता प्रभु करते हैं । |
448. |
भक्ति केवल भगवान की ओर ही देखती है । जो भक्ति करता है उसे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । चिंता उसे होती है और उसे करनी पड़ती है जो प्रभु की भक्ति नहीं करता । |
449. |
भक्त प्रतिकूलता तो देख सकता है पर उसे जीवन में कभी पतन नहीं देखना पड़ता । |
450. |
प्रभु की घोषणा है कि मेरे भक्तों का कभी नाश नहीं हो सकता । |
451. |
जिसे भीतर से भक्ति का आनंद मिल गया हो तो वह संसार के सुख की तरफ देखेगा भी नहीं । |
452. |
भक्त संसार में रहकर भी संसार का नहीं होता, वह प्रभु का ही होता है । |
453. |
जिसके जीवन में भगवत् भाव और भजन न हो उसे भगवान की माया पल-पल मारती है । |
454. |
जैसे अंधेरे को दूर करने के लिए अंधेरे को उठाकर हमें कहीं नहीं ले जाना पड़ता बल्कि एक दीपक जलाते हैं और अंधकार दूर हो जाता है । वैसे ही मृत्यु के भय को दूर करने के लिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण का दीप जलाएं तो मृत्यु के भय से मुक्त हो जाएंगे जैसे राजा श्री परीक्षितजी हुए । |
455. |
जीवन में केवल प्रभु पर ही विश्वास करना चाहिए । |
456. |
माया की बड़ी लुभावनी पवन चलती है और हमारा थका मन उस पवन में सो जाता है । कोई संसार में हमें अपना लगता है, किसी संसार की वस्तु में हमें सुख दिखाई देता है तो हमारा मन प्रभु को भूल जाता है । |
457. |
प्रभु मिलन में प्रभु की तरफ से कोई विलंब नहीं है, विलंब तो सदैव जीव की ओर से होता है । |
458. |
हमारे मन में बसे संसार को हमें मारना चाहिए तभी हम मन से भक्ति कर पाएंगे । |
459. |
हम संसार को अपना सब कुछ देते हैं और वापस कुछ भी नहीं पाते हैं । हम प्रभु को कुछ नहीं देते और प्रभु से हम सब कुछ पाते हैं । |
460. |
जीवन का सर्वश्रेष्ठ लाभ भक्ति करने में ही है । |
461. |
संसार में हम जिसके लिए अपना जीवन दांव पर लगा देते हैं उससे अंत में खेद ही मिलता है । |
462. |
प्रभु की आशा भी आनंद देने वाली है जबकि हमें संसार मिलने का सुख भी अभाव ही देता है । |
463. |
पशु भी मैले स्थान पर नहीं बैठता और हम इस मैले संसार में जमकर बैठ गए हैं । यह हमारी कितनी बड़ी भूल है । |
464. |
हम भौतिकता के लिए नहीं बने हैं, हम आध्यात्म के लिए बने हैं पर हम भौतिक जीवन जीते हैं और आध्यात्म से दूर रहते हैं । |
465. |
जो हृदय प्रभु से प्रेम करने के लिए बना है उसे हमने संसार के व्यापार करने में लगा दिया है । |
466. |
हमारा आध्यात्मिक संकल्प बलशाली होना चाहिए नहीं तो वह टूट जाएगा । |
467. |
जब हमारा संयोग प्रभु से होता है, हमारी आत्मा को बल मिलता है । |
468. |
आत्मा को परमात्मा से संयुक्त रखना ही श्रेष्ठ है । |
469. |
जीवन में सकारात्मकता के स्त्रोत प्रभु ही हैं । |
470. |
जहाँ प्रभु हैं वहीं जय यानी जीत है । |
471. |
राजा श्री परीक्षितजी भय से युक्त आए थे और प्रभु श्री शुकदेवजी से श्रीमद् भागवतजी महापुराण श्रवण करने के बाद भय से मुक्त हो गए । उनका मृत्यु का भय ही खत्म हो गया । |
472. |
इच्छा बची हो और मौत आ जाए तो वह मृत्यु है । मौत आए उससे पहले इच्छा ही खत्म हो जाए तो वह जीवनमुक्ति है । |
473. |
हमारी प्रत्येक भावना का रुझान भगवान की ओर ही होना चाहिए । |
474. |
आप जैसे हैं वैसे ही चले जाएं, एक क्षण भी आपको स्वीकार करने में प्रभु देर नहीं करेंगे । |
475. |
भक्तों और संतों की वाणी में हमें सदैव पूर्ण विश्वास रखना चाहिए । |
476. |
भक्ति किसी क्रिया का नाम नहीं है, भक्ति भावना का नाम है । इसलिए तन के धरातल से भक्ति नहीं होती क्योंकि भक्ति हृदय का धर्म है । |
477. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में आकर हार मानने से ही हम जीवन में जीत जाते हैं । |
478. |
संसार में प्रलोभन है जो जीव के विवेक को सुला देता है । |
479. |
जब जीव प्रभु की तरफ बढ़ने का संकल्प मात्र कर लेता है तो उसका कल्याण उसी समय सुनिश्चित हो जाता है । |
480. |
प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है कि मेरी तरफ कोई चलना आरंभ करें तो उसी घड़ी मैं उसे संभाल लेता हूँ । |
481. |
प्रभु अपने भक्तों का पूरा उत्तरदायित्व उठा लेते हैं । |
482. |
जब सब आश्रयों को त्याग कोई जीव प्रभु के सन्मुख हो जाता है तो उसी घड़ी से प्रभु उसे अपनी कृपा दृष्टि में ले लेते हैं । |
483. |
भक्ति के पास तत्काल हमें प्रभु सानिध्य में ले जाने का सामर्थ्य है । |
484. |
जिसको देवर्षि प्रभु श्री नारदजी मिल जाए उसे प्रभु का मिलना एकदम तय है । |
485. |
प्रभु के जीवन में आते ही जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जाती है । |
486. |
भक्ति में प्रभु की प्रतीक्षा करने में भी आनंद है । |
487. |
साधक को प्रभु मिलन की अंतिम घड़ी तक सावधान रहना चाहिए । कोई चूक न हो जाए इसके लिए सदा सावधान रहना चाहिए । |
488. |
प्रभु के नाम जप की संख्या से कहीं महत्वपूर्ण जप करने की वृत्ति है कि हमारा मन जप करना चाहता है । |
489. |
जैसे जो जल प्रभु के श्रीकमलचरणों को स्पर्श करता है तो वह चरणामृत बन जाता है वैसे ही हमारी जो भावना प्रभु को स्पर्श करती है वह भावना भक्ति कहलाती है । |
490. |
हमारी भावना अगर संसार का स्पर्श करती है तो आसक्ति कहलाती है और वही भावना अगर प्रभु का स्पर्श करती है तो भक्ति कहलाती है । |
491. |
इस युग में और इस काल में हमें बचाने वाले केवल और केवल प्रभु ही हैं । |
492. |
संसार के असार होने का बोध होने पर ही हम प्रभु की तरफ आकर्षित होंगे और तभी हमारा जीवन धन्य होगा । |
493. |
देर है तो वह हमारी ओर से है प्रभु की ओर से कभी भी प्रभु मिलन में देर नहीं होती । |
494. |
हमारे शास्त्र जीवंत चेतना स्वरूप हैं । |
495. |
हमारे शास्त्र जागृत हैं और सुनने वाले को भी जागृत कर देते हैं । |
496. |
जिसे प्रभु अपने स्वयं को देना चाहते हैं उसे प्रभु पहले सबसे रिक्त करते हैं । |
497. |
हमें सदा के लिए प्रभु का बन जाना चाहिए । |
498. |
जब कर्म को आप प्रभु की तरफ मोड़ देते हैं तो प्रभु का स्पर्श पाकर कर्म का कर्मफल नष्ट हो जाता है और वह कर्मफल हमें बांध नहीं सकता । |
499. |
अगर बाहर प्रलयकालीन मेघ बरस रहे हो तो भी एक नवजात बालक अगर अपनी माँ की गोद में है तो वह निश्चिंत है क्योंकि चिंता उसकी माँ को होती है । उसी प्रकार प्रभु के प्रिय बनकर प्रभु की गोद में बैठ जाएं तो सभी तरफ से जीवन में पूर्ण निश्चिंत हो जाएंगे । |
500. |
प्रभु को सभी भक्तों और संतों ने करुणा सिंधु के रूप में देखा और अनुभव किया है । |
501. |
माँ की भावना से प्रभु की तरफ देखे तो आप पाएंगे कि आप तुरंत निर्भय हो गए । |
502. |
भक्ति कभी प्रलोभन नहीं देती बल्कि प्रभु से हमारा परिचय करवाती है । |
503. |
जब प्रभु की स्तुति की गई तो पहले संबोधन प्रभु को माता के रूप में ही दिया गया तभी हम मंदिर में कहते हैं “त्वमेव माता च पिता त्वमेव” । प्रभु को पहले माता फिर पिता कहकर संबोधित किया गया है । |
504. |
कोई कितना भी अवगुणी क्यों न हो जाए पर फिर भी प्रभु से मिलने की संभावना अभी भी उसमें शेष बची है क्योंकि शरणागति पर प्रभु किसी का भी कभी त्याग नहीं करते । |
505. |
संत कहते हैं कि जब तक श्वास है प्रभु मिलन की आशा जीवन में रहती है । |
506. |
प्रभु श्री हनुमानजी ने अपना कोई घर नहीं रखा और प्रभु श्री रामजी का हृदय ही उनका घर बन गया । |
507. |
प्रभु के नाम में पूर्ण निष्ठा रखनी चाहिए । कलियुग के बहुत सारे संतों और भक्तों ने नाम के बल पर ही प्रभु को पाया है । |
508. |
प्रभु का नाम सबसे बड़ा जागृत मंत्र है । इसलिए किसी अन्य मंत्र, तंत्र के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । |
509. |
प्रभु नाम के अतिरिक्त हम अगर कुछ और चाहते हैं तो न तो हम प्रभु के नाम की महिमा से परिचित हैं और न ही प्रभु का नाम लेने की गरिमा हममें है । |
510. |
हमें प्रभु के रंग में ही रंग जाना चाहिए । प्रभु के रंग में रंगने से हमारा जगत स्वतः ही छूट जाता है । |
511. |
एक संगीत ऐसा है जो भोग की भावना उत्पन्न करता है और दूसरा संगीत ऐसा है जो भक्ति की भावना उत्पन्न करता है । अब दोनों में से हमें चुनना है कि हमें क्या चाहिए । |
512. |
अंतर्यामी प्रभु हमारे अंतर्घट के हर एक भाव को जानते हैं । |
513. |
प्रभु के श्रीनाम से पत्थर भी तर गए जो जड़ थे तो मानव तो चेतन है इसलिए उसका तरना तो एकदम पक्का है । |
514. |
प्रभु नाम के समान सिर्फ प्रभु नाम ही है । नाम के समान अन्य कुछ भी नहीं । |
515. |
शुभ सत्कर्म करने की इच्छा हो तो उसे तत्काल ही कर लेना चाहिए । |
516. |
जो समय भजन किए बिना गया वह तो चला गया । अब आगे बचा समय भजन बिना नहीं जाने देना चाहिए । |
517. |
जीवन में प्रभु के लिए जिस हृदय में भाव होगा वहाँ भगवान को आकर बैठना ही पड़ता है । |
518. |
प्रभु भक्ति में इतनी प्रीति होना चाहिए कि प्रभु भी भक्ति के अलावा हमें कुछ और देना चाहे तो हमें लेने की इच्छा ही न हो । |
519. |
अपने मन के एकतारे पर प्रभु नाम के अलावा दूसरे नाम के तार को लगाना ही नहीं चाहिए । |
520. |
प्रभु सुमिरन की वृत्ति और भावना जीवन में होनी चाहिए । |
521. |
प्रभु की कथा का श्रवण करना तथा प्रभु का गुणगान करना हमारे विचारों को शुद्ध करता है तथा हमें सात्विक और आध्यात्मिक कर्म करने के लिए प्रेरित करता है जिससे हमारा अंतःकरण और जीवन पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है । |
522. |
अपना सर्वस्व न्यौछावर करके जीव रूपी बिंदु को प्रभु रूपी सिंधु में मिलाकर एक हो जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए । |
523. |
सभी का प्रभु पर आधा अधूरा नहीं बल्कि पूरा अधिकार है । |
524. |
प्रभु जितने श्री सूरदासजी, भगवती मीराबाई और श्री रैदासजी के हैं, उतने ही हमारे भी हैं । |
525. |
भक्ति कभी भी एक माँ की तरह अपने बच्चों में भेद नहीं करती । |
526. |
जो भक्ति माता के द्वार पर पहुँच गया है, भक्ति माता उसे प्रभु प्राप्ति का पात्र बना ही देती है । |
527. |
नाम हमें नामी यानी प्रभु को ही प्रदान कर देता है । |
528. |
क्षमा तो केवल मेरे प्रभु के दरबार में ही मिलती है, अन्यत्र कहीं नहीं मिलती । |
529. |
प्रभु अपने भक्त के समुद्र जितने अवगुण भी उस भक्त को अपना मानते हुए नहीं गिनते । |
530. |
प्रभु सुमिरन की वृत्ति जीवन में निरंतर बढ़ती रहनी चाहिए । |
531. |
धन्य हैं प्रभु जो भक्त कैसा भी हो उसे अपना लेते हैं । |
532. |
हमारे हाथ में प्रभु की सेवा हो तो ही हमारा जीवन धन्य होता है । |
533. |
हम संसार में रहकर अस्त-व्यस्त रहते हैं पर भक्ति हमें प्रभु की कृपा प्रसादी देकर मस्त बना देती है । |
534. |
भक्ति के बल पर भक्त के रोम-रोम में प्रभु का वास हो जाता है । |
535. |
प्रभु सभी जीवों का अपनी ओर आकर्षण करते हैं यानी सभी जीवों को अपनी ओर खींचते हैं पर अभागा जीव होता है जो प्रभु की तरफ जाता ही नहीं । |
536. |
आसक्ति जीवन में रहेगी क्योंकि यह जीव के स्वभाव में है फिर क्यों न यह आसक्ति प्रभु के लिए हो जाए । |
537. |
आसक्ति संसार में हो तो पतन है, वही आसक्ति प्रभु के लिए हो तो उद्धार है । |
538. |
प्रभु से मिलने के लिए, प्रभु मिलन की चाह हमारे मन में होनी चाहिए । |
539. |
हम संसार के लिए प्रयत्न और प्रार्थना करते हैं प्रभु प्राप्ति के लिए न तो प्रयत्न करते हैं और न ही उसके लिए प्रभु से प्रार्थना करते हैं । |
540. |
पुरुषार्थ प्रभु को पाने के लिए करना चाहिए तभी वह सच्चा पुरुषार्थ कहलाता है । |
541. |
प्रभु कृपा करते हैं तो जीव पर अपने नाम का माधुर्य प्रकट करते हैं, कभी अपने रूप की झलक दिखा देते हैं, कभी अपनी श्रीलीला का आस्वादन करवा देते हैं । |
542. |
जिस घड़ी प्रभु की दृष्टि जीव पर पड़ती है उसके कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं और प्रभु मिलन की व्याकुलता उसके हृदय में उमड़ पड़ती है । |
543. |
मन असंख्य जन्मों से न जाने कितने सांसारिक संबंध बनाता है पर प्रभु से संबंध बनाना हर बार चूक जाता है । |
544. |
जहाँ प्रभु के भक्त प्रभु की श्रीलीला को गाते हैं, प्रभु का गुणगान करते हैं, वहाँ प्रभु अवश्य मिलते हैं चाहे मंदिर या तीर्थ में मिले या न मिले । ऐसा प्रभु ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को कहा है । |
545. |
जिस घड़ी जीव प्रभु के अनुग्रह की दृष्टि में आता है उसी घड़ी उसका कल्याण सुनिश्चित हो जाता है । |
546. |
आत्मा को उसका विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों के अलावा कहीं भी नहीं मिल सकता । |
547. |
प्रभु सर्वदा हैं और सर्वत्र हैं । |
548. |
प्रभु की कृपा देखें कि प्रभु जीव को अपनी ओर आकर्षित करते हैं अन्यथा हम माया द्वारा रचित सुंदर संसार में ही उलझे रह जाएंगे । |
549. |
बहुत जन्म हमने बिगाड़ दिए और यह मनुष्य जन्म भी बिगड़ जाएगा अगर हम इसमें प्रभु प्राप्ति से वंचित रह गए । |
550. |
अगर हमने ध्यान नहीं दिया तो मनुष्य जन्म का इतना अमूल्य अवसर बिना प्रभु प्राप्ति के व्यर्थ चला जाएगा । |
551. |
जैसे कपूर उड़ जाता है वैसे ही जीवन की घड़ी उड़ी जा रही है और हमारा दुर्भाग्य देखें कि प्रभु प्राप्ति की हमें सुध तक नहीं है जिसके लिए हमें मनुष्य जन्म मिला है । |
552. |
प्रभु की करुणा देखें कि प्रभु भूले हुए जीव को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं ताकि उसका कल्याण हो सके । |
553. |
संसार का रस तभी तक है जब तक भगवत् भाव का रस हमें नहीं मिलता । |
554. |
जीवन में कथन, श्रवण और सुमिरन केवल और केवल प्रभु का ही होना चाहिए । |
555. |
अगर प्रभु कृपा न करें और अपने नाम, रूप और श्रीलीला का प्रकाश हमारे जीवन में न करें तो संसार में जन्मों-जन्मों से फंसा हमारा मन कभी प्रभु की तरफ आकर्षित नहीं हो पाएगा । मन का प्रभु में आकर्षण होना प्रभु की पूर्ण कृपा के कारण ही संभव होता है । |
556. |
प्रभु को पाने की योग्यता प्रभु की कृपा बिना जीव कभी अर्जित नहीं कर सकता । |
557. |
प्रभु ही जीव को परम विश्राम देते हैं । |
558. |
मन की जन्म-जन्म से प्रभु मिलन की इच्छा है पर हम अनेकों जन्मों तक ऐसा नहीं करके मन को संसार में लगाए रखते हैं । |
559. |
दस जगह बिखरे मन को एक प्रभु में लगाना चाहिए । |
560. |
मन को कहने और करने के लिए कुछ चाहिए । ऐसे मन को प्रभु में लगा देना ही श्रेष्ठ है । |
561. |
मन, बुद्धि और विचार से प्रभु का संग करना चाहिए । |
562. |
संसार से भागने की आवश्यकता नहीं, संसार में रहकर जागने की आवश्यकता है । |
563. |
भक्त अपना संग करने वाले को भक्ति रस में भिगो देते हैं । |
564. |
जीवन से कामना मिटते ही सच्चा सुख अनुभव होने लगता है । |
565. |
मन का परमानंद भक्ति में ही है । |
566. |
कभी मन को प्रभु का नाम पकड़ाएं, कभी मन को प्रभु का रूप पकड़ाएं और कभी मन को प्रभु की श्रीलीला पकड़ाएं । |
567. |
कलियुग में प्रभु की प्राप्ति केवल प्रभु नाम जपन से हो जाती है, जो अन्य युगों में कठिन-कठिन साधनों से भी नहीं होती । |
568. |
प्रभु नाम जप का निषेध किसी भी अवस्था में नहीं है । पवित्र, अपवित्र किसी भी अवस्था में प्रभु नाम लेने योग्य है । |
569. |
जैसे किसी फल की जब ऋतु होती है तो उसका फल तभी फलीभूत होगा वैसे ही कलियुग प्रभु नाम के अनुकूल ऋतु है । |
570. |
जीव के मन को भगवत् प्रेम की ही आवश्यकता होती है । |
571. |
भगवत् प्रेम ही मन की सच्ची तृप्ति करवाता है । |
572. |
जीवन में प्रेम हो पर प्रभु से न हो तो वह हमारे पतन का कारण बनता है । |
573. |
सात्विक संस्कारों का सेवन करने से हम सहज ही प्रभु के कृपापात्र बन जाते हैं । |
574. |
जो प्रभु में लगने वाला प्रेम है वह हम संसार में लगाते हैं तभी हमारी दुर्गति होती है । |
575. |
प्रभु कुछ भी कर सकते हैं परंतु जीव का अहित कभी नहीं कर सकते । |
576. |
प्रभु से किसी का अहित नहीं हो सकता, वे जब भी करते हैं जीव का हित ही करते हैं । |
577. |
जीव को खबर हो या न हो, जीव को समझ में आए या न आए पर प्रभु तो जीव का हित ही करते हैं । |
578. |
प्रभु से प्रेम न हो तो हमारा पतन निश्चित है । |
579. |
इस बात से संतोष नहीं करना चाहिए कि जीवन में प्रेम है । देखना यह चाहिए कि यह प्रेम जीवन में प्रभु के साथ है क्या यानी प्रभु प्रेम है क्या ? |
580. |
अपने प्रेम को संसार में लगाने का मतलब है कि मूल्यवान रत्न देकर कौड़ी खरीद लेना । |
581. |
संसार से प्रेम करेंगे तो वह प्रेम समाप्त भी होगा और अतृप्ति भी देगा । |
582. |
प्रभु जीव की वैभवता की ओर निहारते भी नहीं पर वे ही प्रभु जीव के रंच मात्र प्रेम में खुद को भी हार जाते हैं । |
583. |
प्रभु को हमसे हमारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए । |
584. |
प्रभु प्रेम में सबका बराबर अधिकार है । |
585. |
आप संसार को पा सकें या न पा सकें पर प्रभु को जरूर पा सकते हैं । |
586. |
प्रभु को पाने के लिए आपके स्वयं के अतिरिक्त किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । |
587. |
प्रभु को क्या दिया जा रहा है इसका मोल नहीं है पर प्रभु को प्रेम करके देने की भावना ही महत्वपूर्ण है । |
588. |
जैसे ही प्रभु प्रेम जीवन को स्पर्श करता है प्रभु से लेने की भावना समाप्त होती है और प्रभु को देने की भावना विकसित होती है । |
589. |
अगर प्रभु को आप देना चाहते हैं तो वह प्रेम है । अगर प्रभु से आप लेना चाहते हैं तो वह प्रेम नहीं है, व्यापार है । |
590. |
भजन को पचाना यानी भजन का दिखावा नहीं करना ही भजन को बचाना है । |
591. |
प्रभु से प्रेम करने वाला कभी अपना नाम पुस्तक में नहीं छपाता । प्रभु प्रेम प्रदर्शन रहित होता है । |
592. |
भक्त भक्ति करे और प्रभु स्वीकार कर लें तो ही भक्ति पूर्ण होती है । |
593. |
प्रभु प्रेम छुपाया जाए तो बढ़ता है और बताया जाए तो कम होता है । |
594. |
श्रीगोपीजन ने कभी संसार को अपना परिचय नहीं दिया । पूरे श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री शुकदेवजी ने किसी भी श्रीगोपीजन का नाम नहीं लिया । |
595. |
सच्ची विनम्रता भगवत् प्रेमी जीव का लक्षण होती है । |
596. |
प्रभु को अगर हमारे दोष दिखाई दे गए तो हम कभी भी प्रभु द्वारा स्वीकार करने योग्य नहीं बन सकते । इसलिए प्रभु अपने प्रेमी भक्तों के दोष नहीं देखते । |
597. |
हम सुख में प्रभु को भुला देते हैं । |
598. |
कहीं भी प्रभु का भोग लगे आज भी भगवती शबरीजी के बेर, श्री सुदामाजी के चिउड़े और भगवती विदुरानी के छिलके याद किए जाते हैं । इनका स्मरण किए बिना प्रभु भोग नहीं स्वीकारते । |
599. |
प्रभु के सुख में ही हमें सुखी होना चाहिए पर हम अपने सुख में ही सुख खोजते हैं जो कि गलत है । |
600. |
प्रभु की हर सेवा प्रभु के सुख को विचार करके ही करनी चाहिए । |
601. |
हमारा मन हमारा नहीं रहना चाहिए, वह प्रभु का हो जाना चाहिए । |
602. |
प्रभु की इच्छा ही हमारी इच्छा होनी चाहिए, हमारी अपनी कोई इच्छा नहीं हो । |
603. |
प्रभु श्री कृष्णजी के मन में भगवती राधा माता का सुख है । भगवती राधा माता के मन में प्रभु श्री कृष्णजी का सुख है । श्रीगोपीजन के मन में प्रिया प्रियतम दोनों के सुख का विचार है । |
604. |
प्रभु सबके रहे पर मैं केवल प्रभु का ही रहूँ । प्रभु से सच्चा प्रेम करने वाला अपने मन में यह विचार रखता है । |
605. |
भक्त अपना आत्म-निवेदन प्रभु के समक्ष कर देता है । |
606. |
श्री चैतन्य महाप्रभुजी कहते हैं कि प्रभु उन्हें स्वीकार करें या एक बार भी दृष्टि उठाकर उन्हें न देखें तब भी दोनों अवस्था में उनके एकमात्र स्वामी प्रभु ही हैं, प्रभु ही हैं और प्रभु ही हैं । |
607. |
प्रभु श्री कृष्णजी प्रेम के श्रीठाकुर हैं । |
608. |
हमें अपने स्वयं को प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । |
609. |
सेवक को इस भावना से सेवा करनी चाहिए कि उसके स्वामी प्रभु को सुख हो । हम प्रभु की सेवा योग्य नहीं हैं फिर भी प्रभु हमारी सेवा स्वीकारते हैं क्योंकि प्रभु चाहते हैं कि सेवक को सुख मिले । |
610. |
प्रभु के सुख में ही हमें सुखी रहना चाहिए । |
611. |
हमारी मन में कोई इच्छा उठती है उसके दो ही परिणाम हो सकते हैं । या तो पूरी होगी या अधूरी रह जाएगी । इस दोनों विकल्पों के अलावा कोई विकल्प नहीं होता । इसमें से एक विकल्प प्रभु इच्छा का होता है । इसलिए इच्छा पूरी हुई तो भी प्रभु इच्छा माननी चाहिए और इच्छा अधूरी रह गई तो भी उसे प्रभु इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए । |
612. |
अपनी इच्छा को सदैव प्रभु की इच्छा में मिला देना चाहिए । |
613. |
दो तिनके नदी में बह रहे थे पर उल्टी दिशा में । एक रोता चिल्लाता विपरीत दिशा में बहने का प्रयास करता रहा और दूसरे ने नदी के बहाव की दिशा में बहना स्वीकार कर लिया । ऐसे ही हमें प्रभु की इच्छा स्वीकार कर लेनी चाहिए तभी हमारी सच्ची जीत है । |
614. |
अपनी इच्छा न रहे । हम प्रभु के सुख में सुखी हो जाए, यही सबसे श्रेष्ठ युक्ति है । |
615. |
जो मिला है उसके लिए प्रभु को धन्यवाद करते हुए अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा में मिला देना चाहिए । |
616. |
हमारी इच्छा से कुछ होता भी नहीं है क्योंकि जो होता है और प्रभु इच्छा से ही होता है । इसलिए अपनी इच्छा को प्रभु इच्छा में मिला लेना ही श्रेष्ठ है । |
617. |
मन की इच्छाओं के कारण ही हम जन्म-जन्म से पीड़ित हैं । |
618. |
भक्त वही है जिसके रोम-रोम में प्रभु के अलावा कोई भी न हो । |
619. |
प्रभु हमारे विचार में, हमारे सुमिरन में आ जाए तो ही हमारा कल्याण है । |
620. |
जब-जब जीव का प्रेम प्रभु के अतिरिक्त कहीं और गया है तब-तब उस जीव का पतन हुआ है । |
621. |
प्रभु को हमसे हमारे प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए । |
622. |
हमें प्रभु प्राप्ति का अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित कर लेना जरूरी है तभी हम उस दिशा में प्रयास करेंगे और आगे बढ़ेंगे । |
623. |
संसार से अगर हमने प्रेम कर लिया तो वह सांसारिक प्रेम प्रभु को भी भुलवा देता है और हम प्रभु को भी भुल जाते हैं । |
624. |
प्रेम में बहुत बड़ा बल है पर वह संसार से हो तो पतन करता है और अगर प्रभु से हो तो हमारा कल्याण करवाता है । |
625. |
प्रभु की कथा कब तक सुननी चाहिए ? जब तक सुनने की आदत न पड़ जाए, जब तक सुने बिना रहा ही न जाए, जब तक सुनने का लोभ न जग जाए तब तक सुननी चाहिए । |
626. |
प्रभु का नाम कब तक जपें, जब तक नामी प्रभु हमें स्वीकार न कर लें । |
627. |
प्रभु का नाम हमारी श्वास-श्वास और नस-नस में रम जाना चाहिए । |
628. |
प्रभु सर्वदा और सर्वत्र व्याप्त हैं पर फिर भी प्रभु की माया प्रभु से हमें मिलने नहीं देती । माया के प्रभाव को मायापति प्रभु ही रोक सकते हैं । इसलिए ही संतों और भक्तों ने माना है कि प्रभु कृपा होने पर ही प्रभु मिलन होता है । |
629. |
प्रभु समान और परिपूर्ण रूप से सभी जगह हैं । |
630. |
इतना सुख किसी में नहीं है जितना सुख प्रभु के नाम जपन में है । |
631. |
हमें हमारी श्वास की संपत्ति प्रभु को पुकारने के लिए ही मिली है । |
632. |
भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर ऐसे-ऐसे भक्त और संत हुए हैं जिनकी एक वाणी, एक विचार हममें प्रभु की भक्ति और प्रभु प्रेम जागृत कर देती है । |
633. |
प्रभु प्राप्ति की इच्छा के साथ-साथ संसार प्राप्ति की इच्छा नहीं होनी चाहिए । |
634. |
कितने जन्म हम संसार के लिए जिए, एक जन्म प्रभु के लिए जी कर तो देखें । |
635. |
भक्ति वह दृष्टि प्रदान करती है कि जहाँ देखें वहीं प्रभु के दर्शन होते हैं जैसे श्री प्रह्लादजी को होते थे । |
636. |
संसार में कोई सुख अकेला नहीं आता वह अपने पीछे दुःख लेकर ही आता है । जैसे एक सिक्के की एक तरफ हम देखेंगे तो दूसरा तरफ भी उसके पीछे साथ में आएगा । |
637. |
प्रभु प्रेम का मार्ग अति सरल मार्ग है । |
638. |
जैसे भक्ति अनन्य होनी चाहिए वैसे ही प्रभु प्रेम भी अनन्य होना चाहिए यानी प्रेम केवल प्रभु से ही होना चाहिए । |
639. |
प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति जीव को एकदम निर्भय कर देती है । |
640. |
हमारी वृत्ति प्रभु के लिए अनन्य नहीं हो पाती और यहीं हम चूक जाते हैं । |
641. |
प्रभु के लिए अनन्यता के अभाव में वह परम परमानंद हमें नहीं मिल पाता । |
642. |
प्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य से कभी भी याचना नहीं करनी चाहिए । |
643. |
प्रभु से कृपा मांगने में हम अपना जीवन निकाल देते हैं पर जो प्रभु कृपा कर रहे हैं उसकी अनुभूति नहीं करते यानी उसका अनुभव नहीं करते । |
644. |
प्रभु की माया से लड़कर माया से जीता नहीं जा सकता । प्रभु की माया प्रभु की कृपा से ही हमें छोड़ती है । |
645. |
प्रभु की शरण में जाने पर प्रभु अपनी माया के प्रभाव से हमें मुक्त कर देते हैं । |
646. |
प्रभु तक पहुँचने का रास्ता प्रभु से ही मांगना चाहिए तभी प्रभु वह रास्ता देंगे । |
647. |
प्रभु ने हमें जो भी दिया है वह भी हमारी आवश्यकता से अधिक दिया है । |
648. |
एक भक्त संसार में आता है तो वह कितने लोगों को प्रभु तक पहुँचाने का मार्ग दिखा देता है । |
649. |
भजन कोई भी, कभी भी, किसी भी स्थिति में कर सकता है । |
650. |
प्रभु के यहाँ देर भी नहीं है और अंधेर भी नहीं है । |
651. |
हम किसी भी स्थिति में हो प्रभु का भजन कर सकते हैं और प्रभु का स्मरण कर सकते हैं । |
652. |
संसार में व्यर्थ में अपना अमूल्य मनुष्य जीवन नहीं गंवाना चाहिए । |
653. |
प्रभु के लिए मन में सदैव कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए । |
654. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव हमारा मस्तक झुका हुआ ही रहना चाहिए । |
655. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में जिसका मस्तक झुका रहता है फिर माया उसके जीवन से सदैव के लिए अंतर्ध्यान हो जाती है । |
656. |
विपत्ति के समय सब साथ छोड़ देते हैं, एक प्रभु ही साथ निभाते हैं । यही सभी संतों और भक्तों का अनुभव रहा है । |
657. |
अपने प्रेम की भावना को कभी संसार में न लगाएं, उसे केवल प्रभु में लगाना चाहिए । |
658. |
जितना मन प्रभु में एकाग्र होगा उतना मन स्वस्थ रहेगा । |
659. |
जिसने भी जीवन में आनंद पाया है वह प्रभु के सानिध्य में ही पाया है । |
660. |
भगवती मीराबाई को प्रभु का पूर्ण भरोसा था, फिर अगर हाथ में विष का प्याला आ गया तो भी वे विचलित नहीं हुई । |
661. |
मन में प्रभु के नाम का अमृत हो तो हाथों में विष का प्याला भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा । |
662. |
बिना किसी आशा के, बिना किसी कारण के हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए । |
663. |
हम प्रभु से प्रेम भी करते हैं तो किसी आशा या कारण के लिए करते हैं इसलिए वह सच्चा प्रेम नहीं हो पाता । |
664. |
प्रभु से प्रेम करने के और प्रभु के प्रेम को प्राप्त करने के अधिकारी सभी जीव होते हैं । |
665. |
जिस अवस्था में, जिस व्यवस्था में हम जैसे भी हैं प्रभु हमें वैसे ही स्वीकार करने के लिए तैयार हैं । |
666. |
भक्ति जीव का उत्थान कर देती है । यह परिवर्तन करने की शक्ति केवल भक्ति में ही है । |
667. |
रात को सोने से पहले के दो क्षण और सुबह जागने के बाद के दो क्षण प्रभु को धन्यवाद देने के लिए ही रखना चाहिए । |
668. |
प्रभु से प्रेम करने से ज्यादा मधुर एहसास जीवन में कहीं नहीं मिलेगा । |
669. |
प्रभु के प्रेम में निकले भक्त के अश्रुओं से अनमोल प्रभु कुछ नहीं मानते । |
670. |
प्रभु अपने भक्तों को अपने श्रीकमलचरणों के निकट रखते हैं जहाँ भक्त रहना चाहता है और जिसके लिए वह भक्ति करता है । |
671. |
प्रभु का नाम लेने से अगर प्रारब्धवश जीवन में सुख होगा तो वह बढ़ जाएगा और दुःख होगा तो वह घट जाएगा । |
672. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में शीश झुकाएं और प्रभु की श्रीकमलचरणों की रज को माथे पर लगाकर फिर संसार में कूदें तो फिर कभी बाल भी बाँका नहीं होगा । |
673. |
संसार में दिखने वाला दुःख तो दुःख है ही, सुख भी दुःख ही है इसलिए संसार को शाश्वत दुःखालय कहा गया है । |
674. |
प्रभु के लिए कृतज्ञता का भाव जीवन में सदा के लिए स्थिर होना चाहिए । |
675. |
मन को इस बात के लिए मनाए कि प्रभु की मेहरबानी का बोझ इतना है कि जिससे हम उबर ही नहीं सकते । हम कितनी भी प्रभु की भक्ति कर लें, कितना भी प्रभु से प्रेम कर लें फिर भी प्रभु की मेहरबानी से कभी उऋण नहीं हो सकते । |
676. |
कर्म करके उसका कर्मफल प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवेदन कर देना चाहिए । |
677. |
प्रेम जैसा अमूल्य भाव केवल प्रभु को निवेदन करने योग्य है पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम उसे संसार के किसी प्राणी को दे देते हैं । |
678. |
प्रेम है पर प्रभु से नहीं है तो निश्चित पतन हो जाएगा । |
679. |
जीवन में प्रभु भी हो और प्रभु से प्रेम भी हो तो ही जीवन सफल और सार्थक है । |
680. |
प्रेम तभी पूर्ण है जब उस प्रेम की दृष्टि प्रभु की तरफ होती है । |
681. |
हमारे मन को प्रभु को प्रियतम के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए । |
682. |
प्रभु के लिए अनन्यता का भाव होना भक्ति का गौरव है । |
683. |
जो याचना हो, प्रार्थना हो, कहना हो, सुनना हो वह अपने प्रभु से ही करना चाहिए । |
684. |
प्रभु ने तो हमें स्वीकार कर रखा है, जरूरत तो हमें प्रभु को स्वीकार करने की है । |
685. |
प्रभु को अपने भक्तों का चरित्र सुनना बहुत प्रिय लगता है । |
686. |
प्रभु श्री रामजी को अपने यश से भी ज्यादा प्रभु श्री हनुमानजी के यश को सुनने में आनंद आता है । |
687. |
प्रभु के श्रीमुख पर मुस्कान भक्त की बात सुनकर और भक्ति की बात सुनकर ही आती है । |
688. |
सबसे ऊँचा प्रेम का फल है, ऐसा प्रभु मानते हैं । |
689. |
प्रभु सब कुछ देकर अपनी आराधना करने वालों से पीछा छुड़वा लेते हैं पर अपनी प्रेमाभक्ति किसी बिरले को ही देते हैं । |
690. |
प्रेम हो और प्रभु से न हो तो वह पतन का कारण बनता है । प्रभु हमारे समक्ष हों और उनसे प्रेम न हो तो भी पतन है । प्रेम का संयोग केवल प्रभु के संग ही होना चाहिए । |
691. |
जल तभी चरणामृत बनता है जब वह प्रभु का संग करता है वैसे ही प्रेम तभी प्रेम कहलाता है जब उसका संयोग संसार से नहीं बल्कि प्रभु से होता है । |
692. |
प्रभु की आनंदमय सत्ता का भक्त सदैव और सर्वत्र अनुभव करता है । |
693. |
प्रभु की कृपा से ही सत्संग का सुयोग और सौभाग्य हमारे जीवन में बनता है । |
694. |
प्रभु की कृपा न हो तो जीव संसार में ही उलझकर पल-पल ठोकर खाता रहेगा । |
695. |
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्री रामचरितमानसजी में कहते हैं कि वही निपुण है, वही चतुर है, वही सयाना है, वही बुद्धिमान है, वही शास्त्रों का ज्ञाता है, वही गुणी है, वही वीर है और वही योग्य है जो प्रभु का भजन करता है । |
696. |
संसार को देख देखकर हमारी दृष्टि कमजोर हो गई है । सत्संग का चश्मा चढ़ता है तो हमें भक्ति का मार्ग दिखता है जो हमें प्रभु तक पहुँचा देता है । |
697. |
संसार के घटिया आकर्षण से मुक्त होकर हमारा मन प्रभु के अलौकिक आकर्षण में आकर्षित हो तभी हमारा कल्याण संभव है । |
698. |
प्रेम का आरंभ आकर्षण से होता है पर यह आकर्षण प्रभु का हो तो वह प्रेमाभक्ति कहलाता है । |
699. |
हमारा आकर्षण प्रभु की श्रीलीला, कथा, धाम, रूप, नाम और भक्तों के चरित्र में होना चाहिए । |
700. |
संसार इतना जटिल है जो हमारे मन को प्रभु से विमुख कर उलझाए रखता है । |
701. |
भक्त प्रभु से कहते हैं कि प्रभु कृपा करें जिसके कारण वे प्रभु का जीवन में गुणगान करते रहें । हमारा जीवन प्रभु का गुणगान करने में ही लगा रहे तभी हमारा कल्याण है । |
702. |
संत और भक्त हमारे मन को प्रभु में आकर्षित करने का प्रयास करते हैं । |
703. |
हमने संसार का जन्मों-जन्मों से खूब सेवन किया है और इस जन्म में भी कर रहें हैं । यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है । |
704. |
प्रभु में आकर्षण प्रभु प्रेम का आरंभ बिंदु है । पहले प्रभु में आकर्षण होगा जो फिर प्रभु प्रेम में परिवर्तित होगा । |
705. |
भक्तों को संसार नीरस जान पड़ता है तभी उनका मन प्रभु में रमता है । |
706. |
संसार के जाल में फंसा जीव भक्ति द्वारा संसार की उलझन से निकलकर प्रभु की तरफ बढ़ पाता है । |
707. |
एक बार प्रभु जिसे स्वीकार करते हैं फिर उसे कभी नहीं छोड़ते । |
708. |
प्रभु के बंधन में बंधने का मतलब हमारे मनुष्य जीवन को सफल करना है । |
709. |
जीव संसार के आकर्षण से मुक्त हो प्रभु की तरफ आकर्षित हो तभी उसका कल्याण है । |
710. |
प्रभु करुणावतार हैं और प्रेमावतार हैं इसलिए करुणा और प्रेम के साथ धरती पर अवतार लेकर आते हैं । |
711. |
प्रभु की श्रीमद् भगवद् गीताजी में घोषणा है कि प्रभु की माया से अगर कोई मुक्त होता है तो वह वही होता है जो प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करता है । |
712. |
भक्त संसार की प्रत्येक प्रतिकूलता का भक्ति की शक्ति से उत्तर देता है । |
713. |
भक्तों को भक्ति की प्रतिष्ठा करने के लिए प्रभु सदा धरती पर भेजते रहते हैं । |
714. |
भगवती मीराबाई के जीवन में वैभव था । राजकुल में जन्मी, राजघराने में ब्याही पर फिर भी उन्होंने इस प्रभुता को छोड़कर प्रभु को चुना । भगवती मीराबाई की भक्ति अभावग्रस्त की भक्ति नहीं बल्कि वैभवयुक्त की भक्ति थी । |
715. |
संसार की ठोकर खाने से ही हमें श्री ठाकुरजी याद आते हैं । |
716. |
संत कहते हैं कि मायापति प्रभु के अतिरिक्त सब कुछ माया है । |
717. |
संसार तब फीका लगेगा जब हमें उससे कही श्रेष्ठ भक्ति का रस मिलेगा । |
718. |
बहुत गुण होने पर भी अगर प्रभु की भक्ति न हो तो उस जीव का पतन कभी-न-कभी होता ही है । |
719. |
भजन करने वाले के लिए कलियुग भी सतयुग जैसा बन जाता है । सतयुग से भी ज्यादा जो कलियुग में प्रभु का भजन कर पाता है वही श्रेष्ठ और प्रभु का प्रिय होता है । |
720. |
जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण वही है जिसमें आप भजन कर पाते हैं । भजन में व्यतीत क्षण ही सर्वश्रेष्ठ होता है । |
721. |
कोई भी दोष जीवन में सीधा नहीं आता, वह किसी के संग से आता है । |
722. |
साधक को भक्तों के अलावा किसी का संग नहीं करना चाहिए । |
723. |
गलत व्यक्ति और गलत वस्तु का संग हमारा पतन करवाता है । |
724. |
जब जीवन में दोष आता है तो हमें लगता है कि वह हमारे नियंत्रण में है पर कुछ ही समय में वह हमें अपने नियंत्रण में ले लेता है । |
725. |
हमारा आहार शुद्ध होना चाहिए । संत कहते हैं कि आहार मुँह से, आँखों से और कानों से होता है । जो हम खाते हैं, देखते हैं और सुनते हैं वे सभी आहार शुद्ध होने चाहिए । |
726. |
अपनी आँखों और कानों के माध्यम से प्रभु को ही भीतर लेकर जाना चाहिए यानी आँखों से प्रभु के विग्रह का दर्शन करना चाहिए और कानों से प्रभु का गुणानुवाद सुनना चाहिए । |
727. |
हमारे पास भी प्रेम का बल है पर अभी वह प्रेम का बल संसार में लगा है । जब वह प्रभु में लगेगा तभी हमारा उद्धार होगा । |
728. |
संसार से प्रेम हो तो वह आसक्ति कहलाती है । प्रभु से प्रेम हो तो वह भक्ति कहलाती है । |
729. |
प्रेम का धागा बहुत कोमल होता है पर प्रबल इतना होता है कि प्रभु भी अपने भक्तों के प्रेम में बंध जाते हैं । |
730. |
प्रभु जिस पर प्रसन्न होते हैं वही प्रभु के गुण गा सकता है । हमारे गुण गाने से प्रभु प्रसन्न हो, यह कहना गलत है । प्रभु प्रसन्न होते हैं तो ही हम प्रभु के गुण गा सकते हैं, यह कहना सही है । |
731. |
प्रभु का संग सत्संग से पाया जा सकता है । |
732. |
संत श्री कबीरदासजी कहते हैं कि काठ की माला फेरते-फेरते हमारा मन भी सांसों पर माला फेरने लग जाए तो ही हमारी माला सफल होती है । |
733. |
मन कभी भी सत्य पथ पर आएगा तो सत्संग की चोट से ही आएगा । |
734. |
प्रभु तक जाने का निश्चय करना ही जीवन में महत्वपूर्ण है, मार्ग प्रभु अपने आप दिखा देंगे । |
735. |
पुकार प्रभु से की जाए और भक्ति के बल पर प्रभु तक पुकार पहुँच जाए, यह महत्वपूर्ण है । |
736. |
जीवन में प्रभु प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर रखना चाहिए । |
737. |
भक्तों के लिए कोई झंझट नहीं होता क्योंकि प्रभु का स्मरण करके जहाँ भी वे पैर रखते हैं वहीं से प्रभु अपने तक पहुँचने का मार्ग बना देते हैं । |
738. |
सत्संग हमारी संसार की आसक्ति को हटाकर उस आसक्ति को प्रभु के नाम, रूप और गुण में स्थापित कर देता है । |
739. |
प्रभु की कृपा होगी और कब प्रभु का नाम मधुर लगने लग जाएगा, प्रभु का रूप प्रिय लगने लग जाएगा हमें पता भी नहीं चलेगा । |
740. |
अगर प्रभु के लिए प्रेमाश्रु निकलते हैं तो इससे सरल कोई विधि नहीं जिसमें तीव्रता से प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं । |
741. |
हमारे नेत्रों से प्रभु के लिए निकलने वाले दो अश्रु तीनों लोकों के स्वामी को भिगो देते हैं । |
742. |
प्रभु मिलन की इच्छा होना एक बात है और प्रभु मिलन की तड़प होना दूसरी बात है । तीव्र तड़प हो तो ही प्रभु मिलते हैं । |
743. |
जीवन में प्रभु के दर्शन की आवश्यकता नहीं बल्कि विवशता हो जाए तो प्रभु दर्शन देने जरूर आते हैं । |
744. |
बड़भागी वे होते हैं जिनकी आँखों को प्रभु दर्शन की प्यास लगती है । |
745. |
जो प्रभु की तरफ चलता है वह एक-न-एक दिन प्रभु तक जरूर पहुँचता है । अगर वह भूलता, भटकता है तो भी प्रभु उसे संभाल लेते हैं । |
746. |
अगर प्रभु के पार्षद पृथ्वीलोक से किसी जीव को लेकर प्रभु के लोक जाते हैं और रास्ते में किसी अन्य भोग लोक को देखकर उस जीव की तनिक भी इच्छा जागृत हो जाती है तो प्रभु के पार्षद उस जीव को उस लोक में छोड़कर चले जाते हैं । फिर वह प्रभु के लोक से वंचित रह जाता है । प्रभु के अतिरिक्त इच्छा और वासना तनिक भी कहीं ओर रहे तो वह कभी भी हमारा निश्चित पतन करवा देगी । यह सिद्धांत है । |
747. |
जिसका प्रभु को पाने का उद्देश्य पवित्र है वह अगर गिरेगा भी तो भी प्रभु संभाल लेंगे, वह भटकेगा तो प्रभु फिर उसे मार्ग पर ले आएंगे और एक दिन या तो वह प्रभु तक पहुँच जाएगा या प्रभु चलकर स्वयं उसके निकट आ जाएंगे, यह निश्चित है । |
748. |
प्रभु प्रेम का रस ऐसा रस है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद अन्य कुछ भी प्राप्त करने की चाहत ही नहीं रहती । |
749. |
कौन सच्चा भक्त है यह तो केवल प्रभु ही जानते हैं । |
750. |
संसार के लोगों से अपने को भक्त मनवा लेना बहुत सरल है पर सच्चा भक्त वह है जिसे प्रभु भक्त मानते हैं । |
751. |
प्रभु के विषय में सुनने पर प्रभु की छवि हमारे हृदय पटल पर प्रतिबिंबित हो जानी चाहिए । हमारे हृदय का दर्पण स्वच्छ होगा तो ही ऐसा होगा । |
752. |
मन निर्मल न हो तो मंदिर में बैठकर भी व्यक्ति संसार और विषयों का ही चिंतन करेगा । |
753. |
हम भजन के अतिरिक्त जो भी करते हैं वह सब पशु भी करते हैं । विषय रस तो कूकर-शूकर को भी मिलता है । |
754. |
मनुष्य अपने जूते तक की चिंता करता है पर अपने भजन की चिंता नहीं करता । |
755. |
साधु कौन है ? जो संसार से सावधान हो गया है वही साधु है । |
756. |
हम अपने जीवन का सही इस्तेमाल भक्ति करने में कर सकते हैं और गलत इस्तेमाल संसार के विषयों को भोगने में कर सकते हैं । |
757. |
एकमात्र प्रभु के श्रीकमलचरण ही हैं जहाँ पर माया कभी भी प्रभाव नहीं डाल सकती । इसलिए हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों की छांव में ही रहना चाहिए । |
758. |
जिस पर प्रभु की सच्ची कृपा होती है वह अपने जीवन को प्रभु के गुणगान में लगा देता है । |
759. |
जो सुख मनुष्य को मखमली बिस्तर पर मिलता है उससे अधिक सुख एक शूकर को नाली की गंदगी में लोटने से मिलता है । इसलिए यह हमारा चयन और हमारा निर्णय होता है कि हमें विषयों का सुख चाहिए या भजन का परमानंद चाहिए । |
760. |
सत्संग हमें सावधान करता है । सत्संग के द्वारा हम संभल जाते हैं । |
761. |
संसार के विषय रस से श्रेष्ठ है ब्रह्मानंद का रस, पर उससे भी श्रेष्ठ और सबसे सर्वश्रेष्ठ है भक्ति का रस । प्रभु श्री शुकदेवजी श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दो श्लोक सुनकर और राजा श्री जनकजी प्रभु श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी को देखकर ब्रह्मानंद के रस को भी भूल गए । |
762. |
श्रीगोपीजन प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानती थीं और न जानने की इच्छा रखती थीं । हम प्रभु के अतिरिक्त सब कुछ जानते हैं और जानना चाहते हैं । यह कितना बड़ा फर्क है । |
763. |
भजन में ही आत्मा का सुख छिपा हुआ होता है । |
764. |
कुछ भी करने के लिए प्रयास करना पड़ता है । एक प्रभु से प्रेम है जिसे करने में कोई प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि वह भक्ति के कारण सहज ही हो जाता है । |
765. |
बहुत जन्म हमने प्रभु के बिना व्यर्थ किए हैं । इस जन्म को प्रभु के नाम लिख देना ही भक्ति है । |
766. |
प्रभु से प्रेम करने पर ही जीवन में विश्राम मिलेगा । |
767. |
प्रभु दर्शन की लालसा की ही जीव को जन्मों-जन्मों से तलाश होती है । |
768. |
कुछ पल जीवन में ऐसे हों जब अपने मन से ही प्रभु से बातें करें । |
769. |
तन को सत्संग में रखें, मन को प्रभु प्रेम के रस में भिगोकर रखें । |
770. |
मन की खोज और मन की पुकार प्रभु ही होने चाहिए । |
771. |
भक्ति जीवन में आने का मतलब है कि भगवान ही जीवन में आ गए । |
772. |
भक्ति कहने को भक्ति है पर होने को भगवान की अनुभूति है । |
773. |
प्रभु को निवेदन करने का भाव जीवन में होना बहुत महत्वपूर्ण है । यह भाव होगा तो ही कभी-न-कभी आत्म-निवेदन हो पाएगा । |
774. |
श्रीगोपीजन श्री उद्धवजी से कहतीं हैं कि प्रभु जहाँ भी रहे सुख और आनंद से रहें । श्रीगोपीजन कहतीं हैं कि प्रभु किनके भी हो हमें चिंता नहीं क्योंकि हम जानती हैं कि हम तो केवल प्रभु की ही हैं । |
775. |
प्रभु चाहे मुझे स्वीकार करें या न करें, मैं तो उनका ही हूँ । यह भाव आत्म-निवेदन भक्ति कहलाती है । |
776. |
हमारे भाव में संसार नहीं रहे, संसार हट जाए और उस भाव में पूर्ण रूप से प्रभु रहे ऐसी चेष्टा हमें करनी चाहिए । |
777. |
हम अभी अपने घर में रहते हैं पर जब भक्ति भाव आता है तो घर प्रभु का हो जाता है और हम प्रभु की सेवा में प्रभु के घर में सेवक के रूप में रहने लगते हैं । |
778. |
हम घर में रहते हैं तो चिंता है पर हम प्रभु शरण में रहने लग जाए तो कोई चिंता नहीं बचेगी । |
779. |
व्यक्ति बड़े भवन में रहकर सुखी नहीं होता, व्यक्ति प्रभु के भाव में रहकर ही सुखी हो सकता है । |
780. |
प्रभु के भाव में रहे तो सदा आनंदित रहेंगे पर हम संसार के भाव में रहने की त्रुटि कर देते हैं । |
781. |
जीवन में सुखी रहना है तो सामान भी कम रखें और अरमान भी कम रखें । |
782. |
प्रभु के अतिरिक्त भक्त के पास अपना कहने को कुछ भी नहीं होता । जो इस अवस्था में पहुँच जाता है वही सच्चा भक्त कहलाने योग्य होता है । |
783. |
संसार की कटुता को सहने से भक्ति बढ़ती है । |
784. |
जितना अधिक संसार जीवन में रहेगा उतनी अधिक वासना की दुर्गंध आएगी । |
785. |
जीवन में भक्ति के भाव को पा लेना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । |
786. |
प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही जीव को विश्राम मिलता है । |
787. |
हृदय में भक्ति भाव प्रकट होने के बाद ही अंतःकरण में प्रभु एक दिन प्रकट होते हैं । |
788. |
प्रभु को पाने का अर्थ प्रभु पर अधिकार करना नहीं है । प्रभु को पाने का अर्थ स्वयं का प्रभु को आत्म-निवेदन करना है । |
789. |
प्रभु को भाव निवेदन करना महत्वपूर्ण है, क्या वस्तु निवेदन की जाए यह महत्वपूर्ण नहीं है । |
790. |
भक्त श्री सुदामाजी ने अपना भाव चिउड़े के रूप में निवेदन किया और प्रभु उन चिउड़े का मोल तीन लोकों को देकर भी नहीं चुका पाए, ऐसा प्रभु ने स्वयं भगवती रुक्मिणी माता को कहा है । |
791. |
भाव से दो बिल्वपत्र चढ़ाने पर भी प्रभु श्री महादेवजी सर्वोच्च देने को सदैव तैयार रहते हैं । |
792. |
धर्म का व्यापार करेंगे तो कभी जीवन में विश्राम नहीं मिलेगा । |
793. |
भक्ति इतनी सबल और समर्थ है कि एक क्षण में प्रभु के समक्ष हमें प्रस्तुत कर देती है । |
794. |
प्रभु एक क्षण में तीनों लोकों के सभी पापियों के पाप नष्ट कर सकते हैं । |
795. |
संतों और भक्तों के शब्द हमारे अंतःकरण को प्रभु की तरफ मोड़कर परिवर्तित करने में समर्थ होते हैं । |
796. |
थोड़ा-सा कुसंग जीवन में बहुत बड़ा पतन करवा देता है । |
797. |
सुख बढ़ता जाए, संपत्ति बढ़ती जाए और प्रभु को भूल जाने लगे तो समझना चाहिए कि जीवन विपरीत दिशा में जा रहा है । |
798. |
हम सीधे प्रभु को पाना चाहते हैं, पहले प्रभु से मिलने की इच्छा तो जागृत करना जरूरी है । |
799. |
माला में मन न लगे तो भी हाथ में लेकर जपने बैठे । जपते-जपते एक दिन मन भी लगने लग जाएगा । माला हाथ में ही नहीं ली तो माला में मन कभी नहीं लगेगा । |
800. |
जो हमारे प्रयास की सीमा में है वह सत्कर्म हमें जरूर करने चाहिए । |