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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 17

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. माला का मनका प्रभु नाम लेकर घुमाएं । ऐसा करने पर एक दिन मन का मनका भी प्रभु नाम लेकर घूमने लग जाएगा ।
002. प्रभु की तरफ चलना महत्वपूर्ण है । चलते हुए गिरेंगे भी पर अगर चलने का निश्चय पक्का है तो प्रभु गिरने पर उठाकर फिर खड़ा कर देंगे और आगे चलने के लिए प्रेरित कर देंगे ।
003. भक्ति के कारण प्रभु जीव को क्षमादान देते हैं ।
004. भक्ति सभी सद्गुण हमारे भीतर विकसित करती है ।
005. प्रभु के जीवन में आने पर सद्गुणों का अभाव जीवन में कभी नहीं रहता ।
006. सतत भक्ति भाव से प्रभु का संग करें क्योंकि ऐसा नहीं करने से संसार का कुभाव हमारे भीतर प्रवेश कर जाएगा ।
007. श्रीहरि नाम लेने का कोई मोल नहीं देना पड़ता । संत कहते हैं कि न कौड़ी लगे न दाम ।
008. प्रभु नाम लेने से ही परम सुख मिलता है ।
009. जितना सुख प्रभु के नाम में है, उतना कहीं नहीं है ।
010. भजन करने पर जीवन में भजन का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता ।
011. तीनों लोकों में एकमात्र प्रभु का नाम ही सत्य है ।
012. भक्तों की भक्ति भावना पर प्रभु को भी गर्व होता है ।
013. साधक को एकांत में अपने मन का संग कर अपने मन के पास बैठना चाहिए ।
014. प्रभु हमें संभाल कर रखें हैं यह भाव और भरोसा जीवन में दृढ़ करके रखना चाहिए ।
015. प्रभु की माया प्रबल है इसलिए प्रभु के समक्ष सदैव सिर झुकाकर ही रहना चाहिए ।
016. जीव भूल सकता है, भटक सकता है, यह संभव है पर प्रभु कहते हैं कि मेरी भक्ति करने वाले को मैं सन्मार्ग पर वापस लेकर आता हूँ ।
017. भक्त गिरे और भगवान संभाले नहीं तो प्रभु की अकीर्ति होती है जो प्रभु कभी भी नहीं होने देते ।
018. प्रभु अपनी याद में भक्तों को बहुत रुलाते हैं पर भक्त के एक-एक अश्रु का मोल भी चुकाते हैं ।
019. अपने मन को केवल मनमोहन की पहुँच में ही रखना चाहिए ।
020. संसार दूसरे को दंड देता है पर साधक अपने मन को दंड देता है अगर उसका मन गलती करता है या भटकने लगता है ।
021. भजन की इच्छा और प्रभु से मिलन की लालसा यह बड़ा प्रबल पुरुषार्थ है ।
022. जब संसार को मन से हटा लेने में हम सफल हो जाते हैं तो मन में अकेले प्रभु ही बचते हैं । प्रभु को यही चाहिए होता है कि मैं भक्तों के मन में अकेला रहूँ ।
023. श्रद्धा और विश्वास के भीतर के नेत्र जब खुलते हैं तो वे केवल प्रभु का ही दर्शन करना चाहते हैं ।
024. जितना-जितना हम संसार के भाव से मुक्त होते जाएंगे उतना-उतना हम अध्यात्म के मार्ग पर प्रगति करते चले जाएंगे ।
025. हमारे साथ अगर माया है तो मायापति प्रभु नहीं रहेंगे और मायापति प्रभु हैं तो माया अपने आप हट जाएगी ।
026. प्रभु और अपने बीच में मार्ग में जो भी आए उसे हटाते चलना चाहिए ।
027. भक्ति करना शूरवीरों का कार्य है ।
028. भक्त केवल, केवल और केवल प्रभु को ही चाहता है ।
029. भक्त हुए बिना भक्तों के भाव को समझना कठिन है ।
030. प्रभु को आने के लिए केवल भक्त विवश करता है ।
031. जब हमें प्रभु के अतिरिक्त किसी का आश्रय नहीं रहता तो प्रभु आने पर बाध्य हो जाते हैं ।
032. जब तक हमें इस संसार का आश्रय रहता है तब तक प्रभु केवल दृष्टा होते हैं पर जब हम संसार का आश्रय छोड़ देते हैं तो प्रभु हमारी बागडोर संभाल लेते हैं । यह प्रभु ने भगवती द्रौपदीजी के प्रसंग में कहा जब श्री उद्धवजी ने प्रभु से पूछा कि आपको अंत में चीर बचाने जाना ही था तो जब दुशासन ने भगवती द्रौपदीजी के केश पकड़े तब आप क्यों नहीं चले गए ।
033. प्रभु के यहाँ न देर है, न अंधेर है । हम ही पुकारने में देर करते हैं और अंधकार भी हमारे जीवन में ही होता है ।
034. अपने मन का देर और अंधेर दूर करें तो प्रभु के आने में तनिक भी समय नहीं लगेगा ।
035. अगर संसार छूट जाता है तो भक्ति के मार्ग में प्रभु का मिलना सबसे सरल है ।
036. प्रभु से मिलन की प्यास जीवन में हमें लगनी चाहिए ।
037. मन को विषय का रस देना है या मन को भजन का रस देना है यह निर्णय हमें करना होता है ।
038. भक्ति जीवन में नहीं होगी तो हम सद्विचारों से दूर हो जाएंगे ।
039. प्रभु बहुत सुलभ हैं, यह हर संत और भक्त का अनुभव है ।
040. प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में वचन है कि मेरे पथ पर चलने वाला ही नहीं बल्कि जो मेरे पथ पर चलने का संकल्प मात्र भी कर लेता है उसका पूरा दायित्व प्रभु उठा लेते हैं ।
041. प्रभु से प्रेम भाव का संबंध बनाना चाहिए ।
042. हमारा जीवन पल-पल हाथ से जा रहा है । पल-पल हम मृत्यु की तरफ बढ़ रहें हैं फिर भी हम प्रभु की भक्ति नहीं करते ।
043. जीवन को प्रभु के अतिरिक्त सबसे रिक्त कर लेना चाहिए ।
044. भक्तों के अतिरिक्त सभी भय में, चिंता में या पीड़ा में होते हैं ।
045. भक्त ही निश्चिंतता का सुख जीवन में लेता है क्योंकि उसे प्रभु की शरणागति प्राप्त होती है ।
046. हम, प्रभु और संसार के अलावा कोई चौथा तत्व है ही नहीं इसलिए जीवन से जब संसार हट जाता है तो हम और प्रभु ही बचते हैं । यही परमानंद की अवस्था है जो भक्ति कराती है ।
047. संत अपने मन से कहते हैं कि बहुत जन्मों से मैंने तेरा कहा किया अब तू भी इस जन्म में एक बार मेरा कहा मान और प्रभु का भजन कर ।
048. देखने और सुनने से ही संसार हमारे भीतर प्रवेश करता है ।
049. हमारी मन की बात अंतर्यामी प्रभु जानते भी हैं, सुनते भी हैं और समझते भी हैं ।
050. जिसके जीवन में प्रभु हैं उसके जीवन में नित्य उत्सव है ।
051. प्रभु के सामने बैठकर रोने में भी सुख है ।
052. प्रभु के बारे में श्रवण ही हमें प्रभु की ओर लेकर जाता है ।
053. संसार आपके जीवन का "प्रभु उत्सव" स्वीकार नहीं करेगा । संसार ने भक्तों को हरदम कष्ट ही दिया है इसलिए संसार भक्तों से भी चाहेगा कि वे प्रभु को छोड़कर संसार में ही रमें । यही संसार की रीति है ।
054. प्रभु जीवन में आते हैं तो मन में उल्लास आता है ।
055. भक्ति जीवन को ही उत्सव बना देती है ।
056. रूपनिधि, गुणनिधि और आनंदनिधि प्रभु ही हैं जो हमें परमानंद दे सकते हैं ।
057. प्रभु को रिझाने की सुंदर लालसा हमारे मन में सदैव होनी चाहिए ।
058. प्रभु का प्रण है कि जो शरण में आता है उसकी संभाल प्रभु को करनी ही पड़ती है ।
059. भक्त अपना जीवन केवल प्रभु के लिए ही जीता है ।
060. प्रेम संसार से होने लगे तो वह अंत में पीड़ा देकर जाएगा और वही प्रेम प्रभु से होने लगे तो वह भक्ति कहलाती है । भक्ति परमानंद भी देगी और हमारा उद्धार भी करवाएगी ।
061. भजन कम हो तो चिंता नहीं पर संसार अधिक नहीं होना चाहिए ।
062. आज नहीं तो कल, जीव को कभी भी विश्राम पाना है तो प्रभु सानिध्य में ही वह पा सकता है ।
063. संत श्री सूरदासजी को एक बार भगवती राधा माता ने नेत्र ज्योति दे दी । संत श्री सूरदासजी ने प्रभु और माता का जी भरकर दर्शन किया और फिर कहा कि नेत्र वापस ले लें क्योंकि जिन नेत्रों से उन्होंने युगल सरकार का दर्शन कर लिया उससे अब वे वापस संसार को नहीं देखना चाहते । उनका उत्तर सुनकर प्रभु और माता की आँखें भर आई ।
064. हमारा मन प्रभु के लिए जीवन बलिदान करने को तत्पर रहना चाहिए ।
065. जब-जब भक्त गिरता है भगवान संभालते हैं और हरदम संभालते रहेंगे । भक्त के गिरते ही प्रभु दौड़कर आते हैं ।
066. भजन करने से क्या मिलेगा यह विचार नहीं करना चाहिए । भजन सिर्फ भजन के लिए ही करना चाहिए ।
067. प्रभु जब रीझ जाते हैं तो आधे नाम पर ही आ जाते हैं । पूरे नाम की भी उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती ।
068. आधा अधूरा जीवन प्रभु को कभी नहीं देना चाहिए । प्रभु पर पूरा-पूरा जीवन ही न्यौछावर करना चाहिए ।
069. आधा जीवन प्रभु को, आधा जीवन संसार के व्यवहार को निभाने में लगा दें तो यह सौदा प्रभु स्वीकार नहीं करते ।
070. वस्तु का प्रभु तक प्रवेश नहीं है, केवल उस वस्तु के पीछे छिपे हमारे भाव का ही प्रभु तक प्रवेश होता है ।
071. भोजन को सदैव प्रभु को निवेदन करके प्रभु के प्रसाद के रूप में ही करना चाहिए ।
072. प्रभु के लिए कृतज्ञता का भाव सदा जीवन में बना रहना चाहिए ।
073. भजन का सुख लेना हो तो सिर्फ भजन के लिए ही भजन करना चाहिए ।
074. प्रभु की तरफ चलना महत्वपूर्ण है, यह निर्णय जीवन में जितना जल्दी ले लेंगे उतना जल्दी कल्याण होगा ।
075. हम अपनी माला गिनते हैं पर संत कहते हैं कि असीम कृपालु प्रभु यानी जिनकी कृपा की गिनती नहीं हो सकती उन प्रभु को उनका नाम गिनकर कैसे पाया जा सकता है ?
076. मन प्रभु की तरफ नहीं चलेगा तो फिर संसार की तरफ चलेगा क्योंकि चलना मन की विवशता है । इसलिए बेहतर है कि हमारा मन प्रभु की तरफ ही चले ।
077. मन को प्रभु के विचार में, प्रभु के चिंतन में लगाया जाए नहीं तो वह संसार का विचार करेगा ।
078. मन भगवत् भाव में रम जाना चाहिए ।
079. भक्त गिरे तो यह प्रभु को शोभा नहीं देता इसलिए प्रभु भक्तों को गिरते ही उठा लेते हैं ।
080. संत सत्संग को प्रभु का बढ़ाया हुआ श्रीहाथ मानते हैं जिसे पकड़कर हम प्रभु तक पहुँच सकते हैं ।
081. प्रभु के श्रीकमलचरणों में हम गिरते हैं तो कुछ और होते हैं पर उठते ही कुछ और हो जाते हैं ।
082. जिनके जीवन में प्रभु से संबंध नहीं है उनका जीवन ही व्यर्थ जिया गया जीवन है ।
083. रोना और प्रभु को पुकारना यह सुख सिर्फ भक्तों के हिस्से ही आता है ।
084. मन को रस की पिपासा है पर मन को कौन-सा रस देना है यह निर्णय हमारे हाथ में होता है । विषयों का रस या भगवत् प्रेम रस ।
085. मन को भजन का अभ्यास कराना बहुत जरूरी है ।
086. प्रभु अपने भक्तों को हर अवस्था में स्वीकारते हैं ।
087. बिना भक्ति मार्ग पर चले प्रभु नहीं मिलते ।
088. भक्ति हमें विकार से संस्कार की ओर ले जाती है ।
089. भक्ति ही हमें प्रभु के लिए भाव सिद्ध बनाती है ।
090. भक्ति जीव को सद्गुणों से श्रृंगार करके प्रभु के श्रीकमलचरणों में भेजती है ।
091. प्रभु के सन्मुख मांगने के लिए नहीं बल्कि स्वयं को न्यौछावर करने के लिए जाना चाहिए ।
092. प्रभु अपने भक्तों की विनती पर आते हैं और अपने भक्तों का मान बढ़ाते हैं ।
093. प्रभु भक्तों के रखवाले भी हैं और भक्तों के सहारे भी हैं ।
094. प्रभु करुणानिधान और पतितपावन हैं ।
095. प्रभु हमारे तन, मन, धन और प्राणों के स्वामी हैं ।
096. प्रभु से प्रार्थना प्रेम की हो, प्रेम के लिए हो और प्रेम से हो ।
097. प्रभु प्रेम एकांत में घटने वाली घटना है । भीतर और बाहर का एकांत होना चाहिए ।
098. प्रभु के लिए जीवन में एक भाव, एक विचार और एक संकल्प होना चाहिए ।
099. प्रभु को पुकारने में बहुत आनंद है । प्रभु के दर्शन की लालसा में भी बहुत आनंद है ।
100. प्रभु का प्रभाव देखकर हम आकर्षित होते हैं । प्रभु का स्वभाव जानकर हम प्रभु को समर्पित हो जाते हैं ।
101. अनन्य भक्ति निराकार प्रभु को साकार होने के लिए बाध्य कर देती है ।
102. भक्ति के रस को पाने के लिए ही भक्ति करनी चाहिए ।
103. प्रभु के आगे जब संसार फीका लगने लग जाए तब मानना चाहिए कि प्रभु की कृपा हो गई ।
104. जीव अल्पायु लेकर आता है और आधा अधूरा भजन करता है । ऐसे साधन से प्रभु कहाँ मिल सकते हैं पर यह प्रभु की कृपा और करुणा है कि फिर भी वे भक्त के लिए उपलब्ध हो जाते हैं ।
105. प्रभु प्रेम का रस हमें स्पर्श करते ही पहले प्रभु के समक्ष हमारा मस्तक सदैव के लिए झुक जाता है ।
106. अगर प्रभु कृपा से भक्ति पथ पर कुछ सफर हमने तय किया है तो उसी प्रभु कृपा पर विश्वास रखना चाहिए कि आगे भी भक्ति पथ पर प्रभु कृपा हमें लेकर जाएगी ।
107. चलना जीव की विवशता है तो फिर क्यों न प्रभु के मार्ग पर चला जाए ।
108. जिसका हाथ प्रभु एक बार पकड़ते हैं फिर उसे कभी नहीं छोड़ते ।
109. आध्यात्मिक उन्नति का लक्षण है कि धीरे-धीरे संसार से मन खाली होता जाएगा ।
110. अंतर्यामी प्रभु हमसे भी पहले हमारे मन की भावना को जानते हैं इसलिए प्रभु से कभी छल नहीं करना चाहिए ।
111. हमें अपने मन का मार्ग स्वयं बुहारना पड़ेगा जिस पर चलकर प्रभु हमारे जीवन में आएंगे ।
112. हमारे भीतर केवल प्रभु की ही पहुँच होनी चाहिए ।
113. हमें यह जानना चाहिए कि हमारे मन का द्वार क्या प्रभु के लिए खुला है या सिर्फ संसार के लिए ही खुला है ।
114. हमारा मन मंदिर क्या प्रभु के विराजमान होने योग्य है, यह हमें देखना चाहिए । अगर योग्य नहीं है तो भक्ति करके उसे योग्य बनाना चाहिए ।
115. प्रभु प्राप्ति का प्रयास हमें ही हमारे लिए करना पड़ेगा, कोई अन्य आकर नहीं करेगा ।
116. योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत, पूजा कठिन साधन हो सकते हैं पर प्रभु से प्रेम करना कठिन नहीं बल्कि एकदम सरल साधन है क्योंकि प्रेम करना मनुष्य का सहज स्वभाव है । हम संसार से और संसार की वस्तुओं से प्रेम करने में कितने माहिर होते हैं ।
117. मनुष्य योनि में जन्म मिलते ही हम अपने प्रयत्न से प्रभु को पाने योग्य बन सकते हैं ।
118. संत कहते हैं कि "गई सो गई, अब राख रही को" यानी जो समय गया उसे भूल जाए जो बचा है उसे भक्ति करने में और प्रभु प्राप्ति में लगाएं ।
119. प्रभु का दर्शन होने पर मन परमानंद और आदर से भर जाता है, ऐसा भक्तों का अनुभव है ।
120. जब कोई प्रभु के लिए तड़प से तरसता है तो प्रभु की कृपा और अनुग्रह उस पर बरसती है ।
121. उत्सव, उल्लास और आनंद प्रभु के आते ही जीवन में आ जाते हैं ।
122. जिसकी आँखें स्वयं का दोष देखना सीख लेती है उसे दोष मार्जन की विधि भी प्रभु कृपा से मिल जाती है जिससे वह दोषमुक्त हो प्रभु को पाने के लिए प्रस्तुत हो जाता है ।
123. पूरे प्रयास से संसार करने पर भी अंत में कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है ।
124. प्रभु कृपा करके जीव को भक्ति के कारण स्वीकार करते हैं ।
125. प्रभु का यश और प्रभु के गुण जीवन भर गाते रहना चाहिए ।
126. प्रभु का कीर्तन हमारे मन के दर्पण को शुद्ध करता है ।
127. जिससे मन का संबंध होता है मन उसे याद करता है । इसलिए मन का संबंध केवल प्रभु से रखें तो प्रभु ही हमें सदैव याद आते रहेंगे ।
128. जन्मों से हमारा मन विश्राम खोज रहा है जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही मिलेगा ।
129. हमारा मन सदैव से प्रभु के परम आनंद रस के बिना व्याकुल ही रहा है ।
130. हम जन्म-जन्म से जिन्हें खोजते रहे हैं वह संसार नहीं है बल्कि संसार को बनाने वाले हैं, वह माया नहीं है बल्कि मायापति हैं ।
131. मन जब तक सूक्ष्म रूप से भी किसी अन्य आश्रय पर आश्रित रहता है तब तक प्रभु नहीं आते । मन के सब आश्रय जब छूट जाते हैं और प्रभु का ही पूर्ण आश्रय मन लेता है तो प्रभु आधे नाम पर आते हैं । प्रभु का पूरा नाम लेने की भी जरूरत नहीं पड़ती ।
132. प्रभु शब्दों से भी ज्यादा भाव की पुकार सुनते हैं ।
133. हमारे जीवन में प्रभु को आत्म-निवेदन करने का क्षण आना चाहिए ।
134. भक्त प्रभु के स्वभाव, प्रभाव और स्वरूप से परिचित हो जाता है । यह कृपा भी प्रभु ही भक्त पर करते हैं ।
135. भक्ति में भाव आ जाए तो वह भगवत् प्राप्ति करवा देती है ।
136. हम जीवन में निरंतर भक्ति करते रहेंगे तो भक्ति हमारे जीवन में स्थिर रहेगी ।
137. भक्ति जीव को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लेने हेतु सजा देती है ।
138. भजन के अतिरिक्त जो मनुष्य के जीवन में है वह पशु के जीवन में भी है । पशु भी वह सब कुछ करता है जो मनुष्य करता है पर भजन के लिए प्रभु ने केवल मनुष्य को ही बनाया है ।
139. अंत समय तक भी मन के प्रभु को भूलने और संसार में भटकने की संभावना रहती है । इसलिए भक्ति निरंतर करनी चाहिए, कभी उसमें चूक नहीं होनी चाहिए क्योंकि भक्ति ही हमें प्रभु को भूलने और संसार में भटकने से बचाती है ।
140. अपने मन को प्रभु का नाम पकड़ाए, प्रभु के रूप को पकड़ाए, प्रभु की श्रीलीला पकड़ाए तो वह मन संसार की पकड़ को छोड़ देगा ।
141. हमें अपनी सांसों की माला प्रभु के नाम कर देनी चाहिए ।
142. मेरा कौन है, मेरा क्या है ? भक्त हृदय इसके जवाब में कहेगा कि मेरे एकमात्र प्रभु ही हैं ।
143. हमें सदैव प्रभु का गुणानुवाद सुनना चाहिए ।
144. भगवती गंगा माता के अमृत जल के पास प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्पर्शरूपी आशीर्वाद है इसलिए वह सदा से और सदा के लिए पवित्र है ।
145. प्रभु का हो जाना ही भक्ति है ।
146. जीवन में परमानंद के शिखर का नाम ही भक्ति है ।
147. भक्त कभी भी संप्रदाय नहीं बनाता, वह लोगों को बांटता नहीं अपितु प्रभु से जोड़ता है ।
148. भक्त प्रभु के नाम को, प्रभु के गुणों को गाता-गाता अपनी जीवन यात्रा करता है ।
149. प्रभु को अपना मन समर्पित कर देना चाहिए ।
150. प्रभु को जीवन समर्पित करने का संकल्प मन में भक्ति जागृत करती है ।
151. एक ही जीवन है हमारे पास उसे प्रभु को दे देना चाहिए ।
152. कितनी योनियों की पीड़ा सहने के बाद हमें यह अनमोल मनुष्य जन्म मिला है ।
153. जब तक हम प्रभु को बाहर ढूंढ़ेंगें तब तक हम परिश्रम मात्र ही करेंगे । प्रभु हमारे भीतर ही हैं उन्हें भीतर ही ढूंढ़ना चाहिए ।
154. प्रभु का सच्चा प्रेमी कभी अपने प्रभु प्रेम का प्रदर्शन नहीं चाहता ।
155. प्रभु का भक्त कभी नहीं चाहता कि उसे कोई जाने या उसे कोई पहचाने ।
156. जो हमारे भीतर प्रभु बैठे हैं वे हमारे भीतर की सभी बातों को जानते हैं ।
157. हमारे और प्रभु के मध्य एक द्वार है जो हमारे गलत विचारों के कारण बंद पड़ा है ।
158. आत्म-परिचय के लिए आत्म-चिंतन आवश्यक है ।
159. प्रभु से मिलने का कार्य तो हमें स्वयं को ही करना पड़ता है ।
160. भक्ति हमें ही करनी पड़ेगी । हमारी जगह अन्य कोई नहीं कर सकता जिसका फल हमें मिल जाए ।
161. जीवन की अवधि का समय नित्य हमारे हाथ से निकलता जा रहा है ।
162. विवेक युक्त विचार ही हमें प्रभु की तरफ लेकर जाते हैं । बिना विवेक वाले विचार हमें विकार की ओर लेकर जाएंगे ।
163. भक्ति के अनुभव का शब्द एक ही होगा । स्थान अलग रहे, अभिव्यक्ति अलग रहे, कहने-सुनने वाले अलग रहे पर अनुभव सबके एक ही मिलेंगे ।
164. प्रभु एक थे, एक हैं और एक ही रहेंगे । दो हो ही नहीं सकते ।
165. सत्संग की चोट से हमारा सोया हुआ विवेक जग जाता है ।
166. प्रभु परिपूर्ण हैं और हमारा परिपूर्ण मन चाहते हैं । आधे-अधूरे का व्यापार प्रभु को करना नहीं आता ।
167. दो लक्ष्य कोई नहीं भेद सकता । इसलिए हमारे जीवन का एक ही लक्ष्य होना चाहिए और वह प्रभु होने चाहिए ।
168. जब हम बड़े बनकर जाते हैं तो प्रभु के द्वार में प्रवेश नहीं दिया जाता ।
169. हमारी प्रार्थना के शब्द दूषित होते हैं क्योंकि उसमें हमारा स्वार्थ छिपा हुआ होता है ।
170. हमारी प्रार्थना स्वस्थ होनी चाहिए उसमें कोई स्वार्थ छुपा हुआ नहीं होना चाहिए तभी वह प्रभु के दर पर स्वीकार होगी ।
171. हमारी प्रार्थना स्वस्थ हो तो प्रभु उसी क्षण उसका जवाब देते हैं ।
172. प्रभु से मिल सके ऐसा मन प्रभु ने सबको दिया है ।
173. हमारे पास जो भी हो उसे प्रभु को निवेदन करना चाहिए ।
174. प्रभु को क्या निवेदन किया गया है यह महत्वपूर्ण नहीं है, निवेदन करने का संकल्प महत्वपूर्ण है ।
175. मानव जीवन में श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ अगर कुछ पाया जा सकता है तो वह भक्ति है ।
176. हम भीतर से दुर्बल हैं तभी तो प्रभु का हमें जीवन में विश्वास नहीं होता ।
177. एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही संसार का व्यवहार धर्मयुक्त तरीके से कर सकता है ।
178. अगर भक्त अपने प्रयासों के बाद भी भगवान तक नहीं पहुँच पाता तो भगवान स्वयं भक्त के पास पहुँच जाते हैं ।
179. पहला आकर्षण प्रभु के लिए प्रभु के बारे में सुनने से ही होता है ।
180. सदैव प्रभु का गुणानुवाद सुनना चाहिए ।
181. संसार के बारे में सुनेंगे तो संसार मन में आएगा और अगर प्रभु के बारे में सुनेंगे तो प्रभु मन में आएंगे ।
182. प्रभु की कथा प्रभु को हम तक लेकर आती है ।
183. प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी में श्री उद्धवजी को कहा है कि मैं कानों के माध्यम से किसी के हृदय में जाता हूँ ।
184. प्रभु सबकी पहुँच में है पर केवल भक्त ही प्रभु तक पहुँच पाता है ।
185. जिसका दुर्भाग्य होता है वह शास्त्रों और ऋषियों के वचनों का विश्वास और आदर अपने जीवन में नहीं करता ।
186. प्रभु का दर्शन जब भी होगा तो हमें अपने मन के दर्पण में ही होगा ।
187. कौन बरसाते हैं मेघों को, कौन खिलाते हैं फूलों को, कौन धरती माता को धैर्य धारण करने की शक्ति प्रदान करते हैं, यह सब प्रभु ही करते हैं ।
188. भक्ति का उपयोग शक्ति, पद, धन, मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए नहीं होना चाहिए ।
189. धर्म को अपनी तरफ खींचने का प्रयास न करें, स्वयं धर्म के पास और धर्म के पक्ष में जाकर खड़े हो जाएं ।
190. प्रभु का यश सुनने से हमारा कल्याण होता है, यह सिद्धांत है ।
191. प्रभु का यश प्रभु को सुनाने के लिए या प्रभु को प्रसन्न करने के लिए नहीं गाया जाता । प्रभु का यश अपने अंतर्मन को निर्मल करने के लिए गाया जाता है ।
192. हमारे मन का मैल प्रभु के यशगान के बिना नहीं धुलता ।
193. संसार के बंधन से मुक्ति तो प्रभु कृपा से ही संभव है ।
194. प्रभु से यह कृपा मांगे कि हम प्रभु का गुण गा सके ।
195. अपनी जड़ को समझें । हमारी जड़ प्रभु में हमारा विश्वास है और उस जड़ को भक्ति रस से सदैव सींचें ।
196. भगवत् यश सुन-सुनकर ही प्रभु से पहला परिचय जीवन में होता है ।
197. अपनी सांसों की माला को प्रभु के नाम कर देना चाहिए ।
198. प्रभु की भक्ति करने से जो अनावश्यक बुराइयां जीवन में है वह धीरे-धीरे करके चली जाएंगी ।
199. जिस भी परिस्थिति में हम हैं हमें वहीं से भक्ति आरंभ कर देनी चाहिए ।
200. भक्ति के मार्ग पर प्रेम ही प्रेम है ।
201. भक्ति के बीज सबके भीतर पड़े हुए हैं । हमें सिर्फ हृदयरूपी भूमि उस बीज के अंकुरित होने के लिए तैयार करनी है ।
202. प्रभु नाम का आश्रय जीवन में कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए ।
203. भक्ति निर्भयता और प्रसन्नता दोनों जीवन में लेकर आती है ।
204. प्रभु के बिना कोई हमें जीवन में निर्भय नहीं कर सकता ।
205. या माया या मायापति, या जगत या जगन्नाथ, चुनना हमें ही है ।
206. भक्तों के लिए जीवन जीने का सहारा प्रभु का नाम होता है और उन्हें दुनिया वालों से कोई काम नहीं होता ।
207. प्रभु के रंग में रंग जाने से संसार छूट जाता है ।
208. जब हम प्रभु के सानिध्य में होते हैं तो हम सुरक्षित श्रीहाथों में होते हैं ।
209. चाहे सकामता की इच्छा हो, चाहे निष्काम प्रयास हो, चाहे मोक्ष की कामना हो सबकी पूर्ति के लिए भक्ति ही एकमात्र मार्ग है ।
210. आत्मबल केवल हमें प्रभु ही दे सकते हैं ।
211. प्रभु को पाने के लिए भक्ति भाव से समर्पण आवश्यक है ।
212. भक्ति ही केवल एकमात्र साधन है जो साधन काल में भी मधुर और सुखद अनुभूति देती है ।
213. भक्ति की उपलब्धि को जीवन में अकेले अपने प्रयास से ही प्राप्त करना होता है ।
214. जीव प्रभु का नित्य दास है ।
215. जीवन में अगर कामना हो तो भी उसे निवेदन प्रभु को ही किया जाना चाहिए, यहाँ वहाँ निवेदन नहीं करना चाहिए ।
216. कैसे भी हो हमारा संबंध प्रभु से ही बनना चाहिए ।
217. प्रभु के अतिरिक्त कहीं और नहीं भटकना चाहिए ।
218. प्रभु के पास कैसे भी आएं पर संबंध केवल प्रभु से ही बनाएं ।
219. संसार में आवागमन से हमें कोई मुक्त कर सकता है तो वे प्रभु ही कर सकते हैं ।
220. अपने मन को प्रभु की कथा सुनानी चाहिए ।
221. प्रभु के बारे में श्रवण के बाद ही प्रभु के दर्शन की योग्यता जीवन में आती है ।
222. प्रभु के दर्शन की लालसा जीवन में सदैव होनी चाहिए ।
223. जो आपका अपना हो उससे मिलना कठिन नहीं होता । प्रभु को हमें अपना बनाना चाहिए जिससे प्रभु से मिलन हो सके ।
224. जीव के लिए प्रभु से अपना संसार में और कोई भी नहीं है ।
225. प्रभु का द्वार आप कभी भी खटखटा सकते हैं, चौबीस घंटे और तीन सौ पैंसठ दिन, कोई पाबंदी नहीं है ।
226. प्रभु से मिलने की इच्छा जागृत हो जाए तो प्रभु से मिलना कठिन नहीं है । हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारी प्रभु से मिलने की इच्छा ही जागृत नहीं होती ।
227. प्रभु के प्रेम के दरिया में डूब जाने को हमारा दिल चाहना चाहिए ।
228. प्रभु के दर पर न देर है और न अंधेर है । देर भी हमारी तरफ से ही है और अंधेर भी हमारी तरफ से ही है ।
229. कलियुग की भक्ति में कीर्तन भक्ति श्रेष्ठ है ।
230. अन्य युगों से भी अधिक कलियुग में प्रभु कृपा करते हैं ।
231. कलियुग में प्रभु बड़ी सरलता और सहजता से मिल जाते हैं ।
232. संसार को अपना जीवन देकर प्रभु प्राप्ति का अवसर हम खो देते हैं ।
233. प्रभु अपने भक्तों के सात्विक संकल्पों को सदैव पूर्ण करते हैं ।
234. भक्ति भवबंधन से मुक्ति की युक्ति है ।
235. मन को रस चाहिए और भक्ति का रस श्रेष्ठतम है ।
236. हमने मन को भक्ति का श्रेष्ठतम रस नहीं दिया तो हमारा मन संसार में रस ले रहा है ।
237. हमें निर्णय करना है कि हम अपने मन को संसार के विषयों का रस देते हैं या भजन का रस देते हैं ।
238. संसार की ठोकर बार-बार लगने का अर्थ है यह है कि प्रभु हमें अपने सानिध्य में बुला रहे हैं ।
239. प्रभु की रचना का स्वागत करें क्योंकि प्रभु जैसा रचनाकार अन्य कोई नहीं है ।
240. प्रभु की हर श्रीलीला भक्तों के लिए सब प्रकार से सुखमयी होती है ।
241. प्रभु इतने कृपालु और दयालु है कि वे कभी भी हमें कष्ट नहीं देते । जब भी जीवन में अपने संचित कर्मों के कारण हमें कष्ट आता है तो प्रभु ही तो उसको हरते हैं ।
242. इतने परिश्रम के बाद चौरासी लाख योनियों के बाद बड़े भाग्य से जीव को प्रभु कृपा से मनुष्य देह प्राप्त हुई है ।
243. जो भी मनुष्य बना है उसके पास अभी भी भगवत् प्राप्ति की संभावना शेष है ।
244. प्रभु प्राप्ति के लिए मानव जीवन ही एकमात्र सक्षम है ।
245. प्रभु ने आपको मनुष्य देह दे दी अर्थात आपको प्रभु ने अपने से मिलने के योग्य बना दिया ।
246. मनुष्य जीवन का लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति करना निर्धारित है पर मनुष्य उस ओर प्रयास ही नहीं करता ।
247. सद्गुरुदेव के जीवन में आते ही सभी दुविधांए जीवन से समाप्त हो जाती है क्योंकि जीवन का उद्देश्य सद्गुरुदेव तय कर देते हैं ।
248. जो प्रभु यहाँ तक लाए हैं वे ही प्रभु आगे भी लेकर जाएंगे - यह विश्वास जीवन में दृढ़ होना चाहिए ।
249. प्रभु हमारे साधन के बल पर नहीं मिलते । प्रभु सदैव अपनी कृपा और अपनी इच्छा से ही मिलते हैं ।
250. जब प्रभु देखते हैं कि जीव प्रभु को पाने के लिए दृढ़ निश्चय से साधन कर रहा है तो प्रभु की भी मिलन की इच्छा जग जाती है और प्रभु कृपा करते हैं और जीव से मिलन हो जाता है ।
251. केवल प्रभु ही जीव को जग के जंजाल से छुड़ा सकते हैं ।
252. जैसे आवश्यकता से अधिक भोजन करने से शरीर रुग्ण होता है, वैसे ही आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से मन रुग्ण होता है ।
253. संग्रह करना ही है तो शास्त्रों द्वारा बताए सत्कर्मों का संग्रह करना चाहिए ।
254. हमें प्रभु के धाम जाना है जहाँ संसार का सिक्का नहीं चलता वहाँ तो भक्ति का सिक्का ही चलता है इसलिए उसे ही जीवन में जमा करना चाहिए ।
255. भक्ति माता का स्वरूप है कि पहले चरण में आप आगे बढ़े तो दूसरे चरण में वे अपनी कृपा से ले जाती हैं । फिर प्रभु कृपा से तीसरे चरण को पूरा करते-करते भक्ति माता हमें प्रभु की गोद में पहुँचा देती हैं ।
256. मन का स्वरूप और स्वभाव है कि मन स्मृतियों का संग्रह करता है इसलिए जीवन में प्रभु की स्मृतियां बनाते चले जाना चाहिए ।
257. प्रभु को याद करना नहीं पड़े बल्कि प्रभु याद आने लगे, यह भक्ति कराती है ।
258. प्रभु के स्वरूप और स्वभाव का स्मरण जीवन में करते रहना चाहिए ।
259. प्रभु का स्मरण जीवन में स्थिर हो जाए तो ही हमारा कल्याण है ।
260. सच्चा प्रभु सुमिरन वह है जिसमें प्रभु को याद करना नहीं पड़ता बल्कि प्रभु की याद स्वतः ही आती है ।
261. जैसे ही प्रभु के स्वभाव और स्वरूप से हमारा परिचय होता है हमारा मन चाहेगा कि वह प्रभु से प्रेम करे और प्रभु का बन जाए ।
262. जब हमारे जीवन में यह भाव स्थिर हो जाए कि मैं प्रभु का दास हूँ, सेवक हूँ तो अपना आत्मबल देखें कि वह कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाएगा ।
263. कभी भी भगवत् विमुख का संग जीवन में नहीं करना चाहिए ।
264. जीवन में प्रेम के विषय केवल और केवल प्रभु ही बन जाने चाहिए ।
265. प्रभु की जब भी सेवा हो प्रभु के श्रीकमलचरणों में दृष्टि रख के हो यानी दीन बनकर, नम्र बनकर प्रभु की सेवा करनी चाहिए तभी सेवा का अभिमान नहीं होगा ।
266. प्रभु की सेवा करनी सीखनी हो तो प्रभु श्री हनुमानजी से सीखनी चाहिए ।
267. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु कथा सुनने के लिए बिना निमंत्रण के सदा जाते हैं । वे निमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करते । दूसरी बात, प्रभु श्री हनुमानजी स्वयं को छिपा कर जाते हैं ताकि किसी को पता नहीं चले कि सबसे बड़ा श्रीराम भक्त कथा में बैठा है । हम दिखा कर जाते हैं पर प्रभु श्री हनुमानजी छिपा कर जाते हैं और सबसे पीछे बैठते हैं । हम सबको हटा कर आगे विशिष्ट बनकर बैठते हैं ।
268. संसार की भीड़ में प्रभु अपने कार्य के लिए अगर हमें चुनते हैं तो यह सबसे बड़ी बात है जिसके धन्यवाद के रूप में सदैव हमारा मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुका हुआ रहना चाहिए ।
269. प्रभु को अगर अपने साथ मानते हैं तो आने वाले कल की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
270. प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना कभी नहीं भूले क्योंकि यह एक चीज है जो हमें जीवन में बहुत ऊँचाइयों तक ले जाएगी ।
271. कोई पल या कोई दिन न जाए जिस दिन आपने प्रभु का शुक्रिया न किया हो ।
272. प्रभु को धन्यवाद देते रहने से आपका जीवन आनंद से भरता जाएगा ।
273. प्रभु की योजना हमारे लिए हरदम सटीक होती है और किसी भी दोष से रहित होती है ।
274. प्रभु के दरबार में सदैव दीनों का आदर होता है इसलिए दीनता लेकर प्रभु के पास जाना चाहिए । जीवन में दीनता रहेगी तो आप प्रभु को प्रिय हो जाएंगे ।
275. हम संस्कार लेकर प्रभु के पास जाते हैं या विकार लेकर जाते हैं यह प्रभु नहीं देखते । प्रभु अपने पास आने वाले का बस प्रेम भाव देखते हैं ।
276. प्रभु जीव से प्रणाम की भी अपेक्षा नहीं रखते पर शास्त्र कहते हैं कि प्रभु को सच्चे भाव से प्रणाम करने का फल यह होता है कि उस जीव की सभी कामनाएं प्रभु पूर्ण करते हैं ।
277. अपने नेत्रों से केवल प्रभु के लिए प्रेमाश्रु प्रभु को निवेदन कर सकें तो बस कहना ही क्या है ।
278. मैं कुछ और नहीं, कोई और नहीं, बस प्रभु का नित्य दास हूँ, यही भक्त की एकमात्र पहचान होती है ।
279. मन के स्तर से संसार के सभी बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही भक्ति कर सकता है ।
280. अपने जीवन की डोर प्रभु के श्रीहाथों में देकर खुद को प्रभु के श्रीकमलचरणों में न्यौछावर कर देना चाहिए तभी हम सदा के लिए निश्चिंत और निर्भय हो सकेंगे ।
281. प्रभु श्री हनुमानजी भक्तों में अग्रगण्य हैं यानी भक्ति करने में सबसे अग्रणी हैं । प्रभु श्री हनुमानजी भक्त शिरोमणि हैं यानी उनसे बड़ा भक्त न तो कभी हुआ है और न आगे कभी होगा ।
282. भक्त भगवान का भजन करते हैं तो प्रभु भी अपने भक्तों का भजन करते हैं ।
283. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु का नाम लेने के साथ-साथ प्रभु का काम भी करते हैं ।
284. अपनी भक्ति की साधना को बल देने के लिए प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा का आश्रय लेना चाहिए ।
285. मैं कौन हूँ और मेरा कौन है, इन दोनों बातों का जिसे बोध हो जाए वह सच्चा ज्ञानी है । संसारी ज्ञान वाला ज्ञानी नहीं है, आत्मज्ञान वाला ही सच्चा ज्ञानी है । जिसे आत्मज्ञान से बोध हो जाए कि मैं प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं वही परम ज्ञानी कहलाता है ।
286. जैसे हम बिना भोजन, बिना जल के कुछ दिन जीवित रह सकते हैं पर बिना पवन के शरीर को जीवित रखना एक पल के लिए भी संभव नहीं है वैसे ही बिना पवनपुत्र प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा के भगवत् भक्ति और प्रभु प्राप्ति एकदम संभव नहीं है ।
287. प्रभु सब मंगलों के मूल हैं और सभी अमंगलों को मूल से नष्ट करने वाले हैं ।
288. जीवन के सभी अमंगलों का मूल प्रभु से विमुख होने के कारण ही जीवन में उपस्थित होता है । जीव प्रभु से विमुख होता है तो ही अमंगल उसके पास आते हैं ।
289. जीवन का सबसे बड़ा मंगल प्रभु के सन्मुख हो जाना है ।
290. भक्ति से प्रभु के सन्मुख होने पर प्रभु का व्रत है कि जीव के कोटि-कोटि जन्मों के पापों का भी प्रभु क्षण में नाश कर देते हैं ।
291. श्री सुग्रीवजी के पास राज्य, संपत्ति, पत्नी, सेना कुछ भी नहीं थी पर उनके पास प्रभु श्री हनुमानजी थे और जिसने प्रभु श्री हनुमानजी का श्रीहाथ पकड़ा है उसे प्रभु के पास भी जाना नहीं पड़ता क्योंकि प्रभु स्वयं चलकर उसके जीवन में आ जाते हैं ।
292. भगवान का यशगान सुनकर भक्त बहुत राजी होते हैं ।
293. प्रभु श्री रामजी का यशगान सुनकर प्रभु श्री हनुमानजी राजी होते हैं और प्रभु श्री हनुमानजी का यशगान सुनकर प्रभु श्री रामजी राजी होते हैं ।
294. श्री हनुमान चालीसाजी गाने से हमें प्रभु श्री रामजी और भगवती सीता माता की प्रसन्नता प्राप्त होती है - इसी उद्देश्य से श्री हनुमान चालीसाजी का पाठ करना चाहिए ।
295. प्रभु श्री रामजी को राजी करने का सबसे उत्तम उपाय यही है कि उनके समक्ष प्रभु श्री हनुमानजी का यशगान किया जाए ।
296. जिनकी प्रीति प्रभु श्री हनुमानजी से है उनके जीवन से प्रभु श्री रामजी, प्रभु श्री कृष्णजी और प्रभु श्री महादेवजी दूर नहीं है ।
297. जिनकी सिफारिश प्रभु श्री हनुमानजी कर देते हैं उन्हें आँख मूंदकर प्रभु श्री रामजी अपना लेते हैं । श्री सुग्रीवजी और श्री विभीषणजी इसके उदाहरण हैं ।
298. प्रभु कृपा जीवन में न दिखती हो तो प्रभु श्री हनुमानजी का आश्रय ग्रहण करें । प्रभु कृपा करने पर बाध्य हो जाएंगे ।
299. प्रभु कृपा को जीवन में धारण करने की पात्रता हम बना पाए इसके लिए प्रभु श्री हनुमानजी को प्रसन्न करना आवश्यक है ।
300. भगवत् सेवा, भगवत् साधना का लोभ सदा भक्तों और संतों के हृदय में होता है ।
301. प्रभु सेवा का सच्चा अर्थ है कि प्रभु के अनुकूल बनकर प्रभु को सुख देना ।
302. हम प्रभु के सेवक होकर प्रभु को ही अपना काम सिद्ध करने के लिए कहने लग जाते हैं तो फिर हम सेवक कहाँ रहे, हम तो स्वामी का चोला पहन लेते हैं । ऐसा करके हम प्रभु से अपने स्वामी-सेवक के संबंध को ही खंडित कर देते हैं ।
303. हमारे जीवन की हर चेष्टा प्रभु सेवा के लिए ही होनी चाहिए, प्रभु के सुख के लिए ही होनी चाहिए ।
304. सारी दुनिया के कार्य प्रभु बनाते हैं और प्रभु के कार्य प्रभु श्री हनुमानजी बनाते हैं ।
305. ऐसा कौन-सा संकट है, ऐसी कौन-सी विपत्ति है जो प्रभु कृपा से दूर न होती हो ।
306. जगत के विरोधों को सहते हुए, अवरोधों को सहते हुए, निंदा को सहते हुए भक्ति मार्ग पर चलते रहना और प्रभु प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए, यही कलियुग का तप है ।
307. भक्ति के लिए निष्ठा और भक्ति के साधन में सदैव मजबूत रहना चाहिए ।
308. संसार हमें गिराकर खुश होता है । उठाने का काम तो केवल प्रभु ही करते हैं ।
309. कलियुग का सबसे बड़ा रोग यह है कि लोग क्या कहेंगे ? यह भावना हमें प्रभु प्राप्ति का साधन नहीं करने देती ।
310. संसार हमारे लिए क्या सोचता है यह भूल जाना चाहिए । प्रभु हमारे लिए क्या सोचते होंगे यही ध्यान रखना चाहिए क्योंकि यही सबसे महत्वपूर्ण है ।
311. जिसको साधना करनी है उसको अंतर्मुखी होना पड़ेगा तभी साधना कर पाएगा । हम अभी बहिर्मुखी हैं ।
312. प्रभु और प्रभु नाम की शरणागति जीवन में लेकर रखनी चाहिए ।
313. एकमात्र प्रभु ही हमारे हैं यह भावना जीवन में दृढ़ करके रखनी चाहिए ।
314. यह जन्म हमें प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है, ऐसी भावना भक्त अपने हृदय में रखता है ।
315. यह मन से मानना चाहिए कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ ।
316. एकमात्र प्रभु ही हमारे सर्वस्व हैं ।
317. दुनिया का बनकर देख लिया अब श्रीहरि का बनकर देखना चाहिए ।
318. दुनिया के चक्कर में पड़कर हमने अपने कितने ही जन्म अभी तक बर्बाद कर लिए हैं ।
319. जो भक्ति मार्ग पर चलते हैं वे जगत में अमर हो जाते हैं ।
320. प्रभु अपनी भुजा फैलाकर हमें बुला रहे हैं पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम संसार में ही उलझे रहते हैं और प्रभु की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता ।
321. साधन मार्ग पर हर जीव अकेला ही होता है ।
322. मनुष्य देह देकर भारतवर्ष में जन्म दे दिया, यह प्रभु की क्या कम कृपा है ?
323. प्रभु ने हमें सन्मार्ग दिखाने के लिए श्रीग्रंथ दे दिए, संत दे दिए, यह प्रभु की क्या कम कृपा है ?
324. प्रभु में आसक्ति होना ही भक्ति है ।
325. आसक्ति संसार में हो तो वह डुबाने का कारण बनती है, वही आसक्ति प्रभु से हो जाए तो वह भवसागर पार करा देती है ।
326. सत्संग से जीवन को दिशा मिलती है ।
327. प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा जीव को प्रभु भक्ति करने के लिए जागृत करती है ।
328. प्रभु से कुछ नहीं मांगना चाहिए, प्रभु से हमें प्रभु को ही मांगना चाहिए ।
329. जो भी उन्हें पुकारता है प्रभु श्री हनुमानजी उन सबके अमंगलों का मूल से नाश करने वाले हैं ।
330. प्रभु श्री शिवजी के नाम का अर्थ है कल्याण । इसलिए वे सबका कल्याण ही करते हैं और किसी का भी अकल्याण कर ही नहीं सकते ।
331. प्रभु श्री हनुमानजी के नाम का एक अर्थ है जिन्होंने अपने मान का हनन कर लिया यानी जिनके भीतर अभिमान का लेशमात्र भी नहीं है ।
332. प्रभु श्री हनुमानजी हाथ जोड़कर निरंतर प्रभु श्री रामजी की आज्ञा पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं । यही सेवक का धर्म होता है ।
333. हम प्रभु के हैं, इस भूले हुए स्वरूप को याद दिलाने का एक साधन सत्संग है ।
334. इंद्रियों को अपने धर्म तब व्यापते हैं जब उनका मन से संयोग होता है । इसलिए जब मन सत्संग में तीन घंटे लगता है तो उस समय हमें भूख और प्यास भी नहीं लगती ।
335. भक्ति के कारण प्रभु अहैतुकी कृपा करते हैं ।
336. प्रभु ही केवल मेरे हैं, उनके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह मेरा नहीं है क्योंकि वह सब कुछ क्षणभंगुर है और छिन जाने वाला है ।
337. सत्संग से भगवत् प्रेम हमारे भीतर उत्पन्न हुआ या नहीं, यह देखना चाहिए ।
338. प्रभु से मिलन की लालसा उत्पन्न हुई या नहीं हुई, यह देखना चाहिए । अगर प्रभु मिलन की लालसा उत्पन्न हुई है तो ही हमारा साधन सही दिशा में चल रहा है ।
339. यह अकाट्य नियम है कि भगवत् प्राप्ति की प्रबल इच्छा हृदय में जागृत होने पर प्रभु अनुग्रह करके वह इच्छा पूर्ण करते हैं ।
340. प्रभु अकारण करुणा करने वाले और कृपा करने वाले हैं ।
341. जीवों का सबसे ज्यादा प्रयोजन प्रभु की करुणा वाले सद्गुण से है जिस कारण प्रभु सभी जीवों पर अनुग्रह करते हैं ।
342. जिसकी प्रभु कथा सुनने की लालसा निरंतर बढ़ती जाए उसने ही सही मायने में कथा श्रवण की है ।
343. प्रभु की मधुर श्रीलीलाओं को सुनकर हमें उनका ध्यान करना चाहिए ।
344. वही आँखें धन्य हैं जो प्रभु के लिए रोया करती है, किसी संसारी कामना या दुःख के लिए नहीं रोती ।
345. भगवान के लिए कोई भाग्यशाली ही रोता है, संसार के लिए तो सभी रोते हैं ।
346. जिनकी नेत्रों में प्रभु के लिए अश्रु रहते हैं उन्हीं के हृदय में प्रभु पधारा करते हैं ।
347. उसी का नाचना सार्थक है जो जगत के आगे नहीं बल्कि श्रीजगदीश के आगे नाचे ।
348. प्रभु की शरण में आने पर जीव के सभी बंधन खुल जाते हैं ।
349. प्रभु के श्रीकमलचरणों में आकर किसी को भी फिर संसार में लौटना नहीं पड़ा ।
350. प्रभु श्री हनुमानजी का श्रीराम नाम रटन हमेशा चलता ही रहता है ।
351. प्रभु का भरोसा जीवन में कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए ।
352. कभी आशा न टूटे, सदैव यह आशा बनी रहे कि मुझे इसी जन्म में और इसी शरीर से प्रभु के श्रीकमलचरणों की प्राप्ति होगी । इसी आशा का नाम ही भक्ति है ।
353. बिना विश्वास और भरोसे के भक्ति नहीं होती ।
354. बिना प्रभु की कृपा के जीव को कहीं भी और कभी भी विश्राम नहीं मिलता ।
355. अन्य चीजें जीवन में प्रारब्धवश मिलती रहती है पर जीवन में विश्राम केवल प्रभु कृपा से ही मिलता है ।
356. जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों में विश्राम प्रभु कृपा होने पर ही मिलेगा, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
357. आराम चाहिए तो आ-राम यानी आओ राम को जीवन में लाएं और उनकी शरण में जाएं और श्रीराम-श्रीराम जपें ।
358. प्रभु श्री हनुमानजी श्री सुग्रीवजी के साथ हैं तो उन पर श्रीराम कृपा होनी ही थी । सिद्धांत यह है कि जिसके साथ प्रभु श्री हनुमानजी होते हैं श्रीराम कृपा उस जीव पर होकर ही रहती है ।
359. संदेह और शंका की आँखों से प्रभु नहीं देखे जा सकते । प्रभु केवल प्रेम और भक्ति की आँखों से ही देखे जाते हैं ।
360. भगवती अहिल्याजी की कुटिया में जाकर प्रभु उनका उद्धार कर सकते हैं तो हमारे पास आकर हमारा क्यों नहीं कर सकते ? हमें विश्वास होना चाहिए कि प्रभु हमारा उद्धार करेंगे तो प्रभु निश्चित करेंगे ।
361. संत प्रभु से कहते हैं कि प्रभु की माया बहुत कठिन है और प्रभु की कृपा बना जीव उससे छूट नहीं सकता ।
362. प्रभु की माया इतनी शक्तिशाली है कि बड़ों-बड़ों को अपना गुलाम बना लेती है पर प्रभु जिसको अपना लेते हैं उस पर फिर वह अपना प्रभाव नहीं डालती ।
363. दीनों को प्रभु अभय कर देते हैं ।
364. प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी को श्री सुग्रीवजी के पास ले जाने के लिए अपने कंधों पर बैठाया और हाथों की हथेली पर नहीं बैठाया । ऐसा क्यों किया ? संत कहते हैं कि हाथों की हथेली पर बैठाने से प्रभु श्री हनुमानजी को प्रभु श्री रामजी को पकड़ना होता पर कंधे पर बैठाने से प्रभु श्री रामजी ने श्री हनुमानजी को पकड़ा । जीव प्रभु को पकड़ कर भी संसार के जंजाल में उलझा रहेगा और इस उलझन में प्रभु को छोड़ सकता है इसलिए उचित यह है कि प्रभु जीव को पकड़ ले क्योंकि प्रभु फिर उसे कभी भी नहीं छोड़ेंगे ।
365. जीव का कोई सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु को कब पकड़े और कब छोड़े । एक मिनट प्रभु में मन लगता है बाकी समय मन संसार में भटकता है । यही कारण है कि भक्त चाहता है कि प्रभु उसे पकड़ लें क्योंकि प्रभु पकड़ने के बाद फिर उसे कभी नहीं छोड़ेंगे ।
366. प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा से श्री सुग्रीवजी और श्री विभीषणजी को भगवत् प्राप्ति हुई ।
367. बालि से रावण डरता था । बालि ने मरते समय प्रभु से कहा था कि आप मुझसे सहायता ले लेते तो आपका काम यहीं बैठे-बैठे हो जाता । पर प्रभु ने श्री सुग्रीवजी से मित्रता की क्योंकि बालि के पास अभिमान था और श्री सुग्रीवजी के पास अभिमान नहीं था बल्कि प्रभु श्री हनुमानजी थे ।
368. जैसे काठ के भीतर आग होती है तभी वह आग से जलता है । पत्थर में आग नहीं होती तो वह आग से नहीं जलता । वैसे ही मनुष्य में प्रभु के लिए प्रेम की अग्नि होती है, संत उसे सत्संग की हवा देकर प्रज्वलित कर देते हैं ।
369. भक्ति के कारण ही भक्त और भगवान का संबंध जुड़ता है ।
370. जीव का स्वभाव है कि वह प्रभु पर भी पूर्ण भरोसा नहीं करता कि प्रभु उसे विपत्ति से बचा लेंगे ।
371. हमें प्रभु से कहना चाहिए कि प्रभु सदैव हमें अपना बनाकर रखें ।
372. यह काम प्रभु कर दें तो सवामणी यानी प्रसादी करूँगा, यह भक्ति की भाषा नहीं है और भक्ति के लक्षण नहीं है । यह व्यापारी की भाषा और लक्षण है ।
373. प्रभु को यह कहना कि "ऐसा करें" से यह प्रतीत होता है कि हम सोचते हैं कि प्रभु को कम समझ है तभी तो हम प्रभु को क्या करना है यह उन्हें बता रहे हैं ।
374. हमें अपना हित करने का भी प्रभु से नहीं कहना चाहिए । प्रभु से कहना चाहिए कि जिसमें आपकी प्रसन्नता हो वही करें यानी जो करने से प्रभु प्रसन्न हो वह करें ।
375. प्रभु से कहना चाहिए कि अपने सुमिरन में और अपनी सेवा में हमें सदैव रखें ।
376. हमारे हृदय में प्रभु कृपा का अनुभव हमें सदैव होते रहना चाहिए ।
377. जीव का सच्चा स्वरूप यह है कि वह नित्य प्रभु का दास है ।
378. हम परिवार में, संसार में, व्यापार में प्रभु को इतने भूल जाते हैं कि पूरा दिन निकल जाता है, हफ्ते निकल जाते हैं, महीने निकल जाते हैं, वर्ष निकल जाते हैं और हमें प्रभु की याद ही नहीं आती कि मैं प्रभु का हूँ और प्रभु प्राप्ति के लिए ही मुझे मनुष्य जन्म मिला है ।
379. हम फुरसत के वक्त को भी प्रभु सुमिरन का वक्त नहीं बनाते और उस फुरसत के वक्त को भी व्यर्थ कर देते हैं ।
380. हम प्रभु के हैं यही हमारा सच्चा परिचय होना चाहिए ।
381. सत्संग प्रभु से भूले हुए परिचय को याद करने के लिए है । यह परिचय कि हम प्रभु के अंश हैं और प्रभु के हैं ।
382. प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय जीवन में सदैव लेकर रखना चाहिए ।
383. जगत में हमने जो कुछ इकट्ठा किया है वह यहीं रह जाने वाला है ।
384. हमारा सच्चा परिचय यह है कि हम केवल प्रभु के हैं और केवल प्रभु ही हमारे हैं ।
385. प्रभु का हर समय स्मरण रखना ही भक्ति है ।
386. जैसे रास्ते के कुत्ते फालतू होते हैं और पाला हुआ कुत्ता पालतू होता है और उसकी पूरी जिम्मेदारी उसका मालिक वहन करता हैं । वैसे ही हमें भी प्रभु के दर का पालतू बनकर रहना चाहिए एवं संसार का फालतू बनकर नहीं रहना चाहिए ।
387. हम अनाथ नहीं हैं क्योंकि प्रभु हमारे नाथ हैं ।
388. एक मंगलसूत्र और सिंदूर के बाद विवाह में जैसे कन्या अपनी पति की हो जाती है और उसके पिता की गोत्र, पिता के परिवार का सुआ-सूतक और पिता की संपत्ति उसकी नहीं रहती । अब पति की गोत्र, पति के परिवार का सुआ-सूतक और पति की संपत्ति उसकी हो जाती है । ऐसे ही हम जब प्रभु के नाम की माला, कंठी और तिलक लगा लेते हैं तो हम प्रभु के हो जाते हैं और संसार से हमारा संबंध खत्म हो जाता है ।
389. प्रभु ही सदा-सदा से हमारे रहे हैं और हमारे रहेंगे ।
390. प्रभु से बड़ा कृपानिधान ब्रह्मांड में और कोई भी नहीं है ।
391. जो प्रभु की तरफ बढ़ता है उसे संसार सागर से उठाकर डूबने से प्रभु बचा लेते हैं और अपने पास ही रख लेते हैं ।
392. प्रभु से उनके प्रेम और करुणा की जीव को सदा आशा रखनी चाहिए ।
393. हमारे पास जो योग्यता है, सामर्थ्‍य है, समय है उसे भगवत् सेवा में लगाना चाहिए ।
394. जीवन में प्रभु की कृपा का सदैव भरोसा रखना चाहिए ।
395. प्रभु ने भगवती द्रौपदीजी का चीर बढ़ाया नहीं बल्कि संत कहते हैं कि प्रभु ने अपने भक्त के लिए चीर अवतार ले लिया । चीर का अंबार लग गया पर भगवती द्रौपदीजी की लज्जा पर प्रभु ने कोई संकट नहीं आने दिया ।
396. भगवती द्रौपदीजी ने धृतराष्ट्र, श्री भीष्म पितामह, गुरु श्री द्रोणाचार्यजी, धर्मगुरु श्री कृपाचार्यजी और अपने पांचों पतियों से मदद मांगी । फिर अपने दाँत और दोनों हाथों से साड़ी पकड़े रखी । फिर दाँत से साड़ी छोड़ी और मुँह से प्रभु को पुकारा । फिर एक हाथ से साड़ी छोड़ी पर जब दोनों हाथों से साड़ी छोड़ी तब प्रभु आधे नाम पर आए । संकेत यह है कि हमें विपत्ति में अपना कुटुंबबल, बुद्धिबल, धनबल और शरीरबल सब भूलकर प्रभु के बल को ही याद रखना चाहिए और प्रभु को पुकारना चाहिए तभी प्रभु आते हैं । यह प्रभु की जीव से अपेक्षा होती है कि जीव सिर्फ प्रभु का एक भरोसा रखे ।
397. न भूतकाल के लिए शोक करें, न भविष्य काल का भय करें । केवल अपने वर्तमान काल को प्रभु भक्ति करके संभाले ।
398. प्रभु से ज्यादा कृपालु और दयालु कोई नहीं इसलिए जब प्रभु दया करते हैं तो हमारे संचित और विपरीत कर्मफल नष्ट हो जाते हैं ।
399. प्रभु को दया याचिका दी जाए तो प्रभु अवश्य उस पर हस्ताक्षर करते हैं और उस जीव को बचा लेते हैं ।
400. जो जीव प्रभु के सन्मुख हो जाता है तो प्रभु उस जीव से बहुत राजी हो जाते हैं ।
401. प्रभु का नाम हमारी जिह्वा लेती रहे, प्रभु का स्मरण हमें सदैव बना रहे तो ही हमारा निश्चित कल्याण होगा ।
402. श्रीराम कृपा के मूल में श्रीहनुमंत कृपा होती है । प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा से ही प्रभु श्री रामजी की कृपा जीव को मिलती है ।
403. प्रभु श्री हनुमानजी जिस पर कृपा करने को कहते हैं प्रभु श्री रामजी सोचते भी नहीं कि वह कृपा करने के लायक है भी या नहीं और प्रभु श्री हनुमानजी के कहने भर से तत्काल उस पर कृपा कर देते हैं ।
404. जब तक जीव प्रभु शरण में है तब तक ही वह दुःखों से बचा हुआ है ।
405. अपने प्रभु की चर्चा सुनने हर जगह प्रभु श्री हनुमानजी उपस्थित होते हैं । यह उनका प्रण है कि जहाँ उनके प्रभु का यश गाया जाता है वहाँ पर वे रहते हैं ।
406. प्रभु जब तक नहीं छुड़ाएं प्रभु की माया के बंधन से कोई नहीं छूट पाता ।
407. अपना हर कर्म भगवत् प्रसन्नता को लक्ष्य करके करना चाहिए और भगवत् सेवा मानकर करना चाहिए ।
408. संसार जिसको भी मिला है अधूरा ही मिला है पर प्रभु जिसको भी मिले हैं पूरे ही मिले हैं ।
409. हमें शास्त्रों के अनुसार ही अपना जीवन जीना चाहिए ।
410. संसार में आसक्ति हमें रुलाती है पर वह आसक्ति जब केवल प्रभु के लिए हो जाती है तो वही हमें परमानंद देती है ।
411. भक्त प्रभु से ही अपना काम रखते हैं, जगत रूठे तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ।
412. प्रभु का नाम ही हमारी जिह्वा का आभूषण है ।
413. प्रभु के स्वरूप की अनुभूति भक्तों को सहज में ही भक्ति के कारण होना प्रारंभ हो जाती है ।
414. प्रभु श्री हनुमानजी सदैव मानते हैं कि उनका अपना कोई बल नहीं है, जो भी है वह प्रभु श्री रामजी का बल है ।
415. प्रभु का ज्ञान भक्तों के हृदय में प्रभु कृपा से स्वयं प्रकाशित होता है । यह ज्ञान कहीं पढ़ने से नहीं मिलता ।
416. श्री सुंदरकांडजी में सुंदर श्री हनुमानजी सुंदर श्री रामजी की सुंदर प्राणप्रिया भगवती सीताजी की सुध लाने का सुंदर कार्य करते हैं । गोस्वामी श्री तुलसीदासजी की समझ में जीवन में सुंदर वही है जिसकी गति भक्ति की ओर हो, जिसके मुँह में प्रभु का नाम हो, जिसके हाथों में प्रभु का काम हो, जिसके हृदय में प्रभु का ध्यान हो और यह सब प्रभु श्री हनुमानजी में है, इसलिए इस कांड का नाम सुंदरकांड रखा गया ।
417. श्री सुंदरकांडजी में एक भक्त प्रभु श्री हनुमानजी ने भक्ति माता भगवती सीता माता को प्राप्त करने की यात्रा की है ।
418. जीवन में सबसे मूल्यवान चीज प्रभु का नाम है ।
419. एक जीवित शरीर प्रभु का नाम ले सकता है । एक मृत शरीर प्रभु का नाम नहीं ले सकता । इसलिए प्रभु का नाम नहीं ले सकने वाले शरीर को छूने से नहाना पड़ता है ।
420. जिस शरीर के साथ परिवार वाले 70 वर्ष रहे उसके भीतर से प्रभुरूपी चेतना निकल जाने के बाद उस शरीर को 2 दिन रखने के लिए भी उसके घर वाले तैयार नहीं होते ।
421. इस मानव शरीर को पाकर बाहर वाले सभी लोगों से हमने संबंध बनाया पर जो भीतर प्रभु बैठे हैं उनसे संबंध नहीं बनाया । यह कितनी बड़ी जीवन में चूक होती है ।
422. भीतर के प्रभु से जुड़े होंगे तभी बाहर मंदिर के प्रभु हमसे बात करेंगे । इसलिए भीतर के प्रभु से जुड़ाव सबसे जरूरी है ।
423. हमारे भीतर प्रभु दासत्व की जागृति होनी चाहिए कि हम प्रभु के नित्य दास हैं ।
424. प्रभु से कहते रहें कि हे प्रभु, मुझे संभालना । बार-बार कहें और कहते रहें । यही भगवत् आश्रित होना है ।
425. भजन करने वाले को अनुकूलता देना भी, सहायता करना भी प्रभु को प्रसन्न करने का एक उत्तम साधन है ।
426. हमारा सब कुछ श्री ठाकुरजी का है, हमारे तो केवल श्री ठाकुरजी हैं ।
427. धन का जीविका चलाने के लिए उपयोग करें पर उपभोग न करें । जैसे एक चींटी शहद की बूंद को दूर से ग्रहण करती है तो बची रहती है पर वह सोच ले कि इतने मीठे शहद के ऊपर चढ़कर इसको ग्रहण करूँगी तो उसके पैर और शरीर शहद में चिपक जाते हैं और उसे दम तोड़ना पड़ता है । वैसे ही बिना विवेक धन का उपभोग करने वाले का नुकसान होता है, पतन होता है ।
428. संसार प्रभु का बगीचा है, प्रभु ही उसके मालिक हैं । हमको अपने आपको उस बगीचे का केवल सेवक और माली ही मानना चाहिए ।
429. हमें जीवन में भक्ति करके प्रभु को पाना है इसलिए ही हमें मनुष्य जन्म देकर भेजा गया है ।
430. हमें केवल प्रभु के काम की ओर ही ध्यान देना चाहिए ।
431. संसार के किसी भी झमेले में उलझे तो प्रभु प्राप्ति मार्ग में भटक जाएंगे ।
432. प्रभु से अपना प्रेम बढ़ाना चाहिए । जैसे-जैसे प्रभु से प्रेम बढ़ेगा संसार से प्रेम कम होता चला जाएगा ।
433. अपने प्रेम को संसार से समेटकर प्रभु में केंद्रित करना चाहिए ।
434. भक्ति पथ पर सब अकेले-अकेले ही हैं, कोई किसी के साथ नहीं होता ।
435. यह मानव जन्म तो हमें प्रभु को भजने के लिए ही मिला है ।
436. जो प्रभु का नहीं हो सका वह एक भक्त का भी नहीं होता है ।
437. संतों ने कहा है कि 10000 हाथियों में जितना बल उतना एक दिगपाल में होता है, 10000 दिगपालों में जितना बल उतना ऐरावत हाथी में होता है, 10000 ऐरावत हाथियों में जितना बल उतना एक श्री इंद्रदेवजी में होता है, 10000 श्री इंद्रदेवजी में जितना बल उतना प्रभु श्री हनुमानजी के बाएं हाथ की छोटी अंगुली के नख में है । प्रभु श्री हनुमानजी के बल का पूरा अनुमान तो लग ही नहीं सकता ।
438. प्रभु की प्रशंसा करने से प्रभु के सद्गुण हमारे भीतर प्रकाशित होने लगते हैं ।
439. प्रभु से जीव को मिलाना, जीव के भजन की रक्षा करना, यह प्रभु श्री हनुमानजी का सबसे प्रिय काम है ।
440. जिस डाल में कोई फल नहीं होता वही अभिमान से ऊँ‍‍ची उठी होती है पर जिस डाल में फल लगे होते हैं वह उतनी ही झुकी होती है । इस तरह भक्त सदैव नम्र और झुका हुआ होता है क्योंकि उसके भीतर भक्ति का फल होता है ।
441. भगवती भक्ति माता का वाहन है दीनता । संत कहते हैं कि जब भी जीवन में भक्ति आती है दीनता का भाव जीवन में लबालब भर जाता है । यह दीनता का भाव प्रभु को अतिशय प्रिय है । प्रभु दीनता का भाव देखकर रीझ जाते हैं ।
442. अपने अभिमान का त्याग होने पर ही हमें भक्ति मार्ग में प्रवेश मिलता है ।
443. गौ-माता, भगवती गंगा माता की चिंता करने का दायित्व हर वैष्णव को अनिवार्य रूप से होना चाहिए । गौ-माता का रक्षण और भगवती गंगा माता में प्रदूषण न फैले इसका हर वैष्णव को ध्यान रखना चाहिए ।
444. सत्कर्म करके पुण्य पाने की इच्छा नहीं, भगवत् प्रसन्नता की इच्छा होनी चाहिए ।
445. जीवन में भगवत् भक्ति, नाम जप और भगवत् शरणागति जरूर होनी चाहिए ।
446. भगवत् नाम के अलावा अन्य किसी उपाय को अपने उद्धार का कारण मानना नाम अपराध है ।
447. गौ-माता की सेवा करने से प्रभु श्री गोपालजी प्रसन्न होते हैं क्योंकि प्रभु श्री गोपालजी की इष्ट माता गौ-माता है ।
448. प्रभु का आश्रय ही चित्त में सदैव होना चाहिए ।
449. हमारी मंजिल कहाँ है और वहाँ तक पहुँचने का रास्ता क्या है यह तो हमें जीवन में पता होना चाहिए ।
450. सत्संग करने पर हमारे भीतर सुमति का जागरण हो जाता है ।
451. भक्त जब प्रभु को याद करता है तो उसी समय प्रभु भी उस भक्त को याद कर रहे होते हैं । प्रेम की तरंगों का दोनों तरफ से आदान-प्रदान होता है ।
452. घर के द्वार पर प्रभु के आयुध का निशान और प्रभु का नाम लिखा होने से सभी अनिष्टों की निवृत्ति होती है ।
453. कलियुग में सभी का जीवन आपदाग्रस्त है जिसकी निवृत्ति के लिए केवल प्रभु का आश्रय ही लेना चाहिए ।
454. श्री हनुमान चालीसाजी का पाठ करने से हर चीज में आराम मिलेगा, अनिष्ट दूर होंगे, भजन करने की ताकत बढ़ेगी, नाम जप करने की ताकत मिलेगी और जीवनी शक्ति बढ़ेगी ।
455. रात को सोते समय अंतिम शब्द भगवत् नाम का हो और सुबह उठते ही पहला शब्द भगवत् नाम का हो, यह हमें जीवन में सुनिश्चित करना चाहिए ।
456. सुबह उठने पर पहला विचार प्रभु का ही होना चाहिए ।
457. कलियुग की प्रधान साधना प्रभु नाम का जप ही है ।
458. नाम जप से ही प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु श्री रामजी को अपने प्रेम के वश में कर लिया है ।
459. अपने इस जन्म और पूर्व जन्म के अपराधों के लिए प्रार्थना में प्रतिदिन प्रभु से क्षमा मांगनी चाहिए ।
460. भगवत् स्मृति बराबर और निरंतर बनी रहे, इसका जीवन में प्रयास करना चाहिए ।
461. प्रभु में हमारा विश्वास कभी भी कमजोर नहीं पड़ना चाहिए ।
462. प्रभु भवसागर में अपने आश्रितों को कभी डूबने नहीं देते ।
463. प्रभु श्री हनुमानजी से कहे कि मेरे भजन मार्ग के अवरोधों को आप कृपा करके हटा दें ।
464. प्रभु श्री हनुमानजी के रूप में प्रभु का अवतार जीव का प्रभु से मिलन कराने के लिए हुआ है ।
465. हम सारे संसार से बात करते हैं यहाँ तक कि अपरिचित लोगों से भी बात करते हैं पर प्रभु से बात नहीं करते । प्रभु से बात नहीं करने की भूल हम कर बैठते हैं ।
466. हम किसी अनजान व्यक्ति से बात करके रिश्ता बना लेते हैं पर विडंबना यह है कि प्रभु से कोई परिचय या कोई रिश्ता नहीं बनाते जो हमारे सबसे अपने हैं ।
467. जिसके भीतर जितनी भक्ति होती है वह अपने आपको उतना दीन मानता है ।
468. प्रभु की कृपा सत्संग में हमारी रुचि बढ़ा देती है ।
469. प्रभु श्री हनुमानजी हमारी वाणी से प्रभु श्री रामजी का नाम सुनकर सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं ।
470. श्री रामचरितमानसजी की एक-एक चौपाई और दोहे मंत्र स्वरूप हैं और बड़े अनमोल हैं ।
471. भक्ति हमारा संबंध प्रभु के साथ जोड़ देती है ।
472. संसार की उपलब्धि भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति करने वाले के लिए किसी काम की नहीं होती ।
473. प्रभु से अपना संबंध जीवन में स्थिर करके रखना चाहिए ।
474. हम प्रभु श्री हनुमानजी का भजन करके प्रभु श्री रामजी को पा सकते हैं ।
475. भक्त सदैव भगवती भक्ति माता के आश्रय में ही रहते हैं ।
476. जैसे जल में जो रस डाल दें उसमें उसी का रंग और स्वाद आ जाता है वैसे ही भक्ति में दास रस डाल दें तो दास भाव की भक्ति हो गई, सखा रस डाल दें तो सखा भाव की भक्ति हो गई ।
477. हमारे मन मंदिर में प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा होनी चाहिए ।
478. भगवती सीता माता ने जब लंका में प्रभु श्री हनुमानजी को अजर अमर होने का आशीर्वाद दिया तो प्रभु श्री हनुमानजी उतने प्रसन्न नहीं हुए जितना सुत यानी पुत्र सुनने से और रघुपति प्रिय होने का आशीर्वाद प्राप्त करने से हुए ।
479. हमारे हृदय पटल पर प्रभु के श्रीकमलचरणों की अमिट छाप होनी चाहिए ।
480. हृदय में यह भाव सदैव रखें कि मैं अकेला नहीं हूँ, मैं प्रभु के सानिध्य में हूँ ।
481. हमारे शास्त्रों और ऋषियों की हर परंपरा में एक रहस्य छुपा है और एक कारण छुपा है ।
482. संसार में प्रभु ने हमें भजन के लिए भेजा है और हम संसार के विषयों से नाक कटवा कर प्रभु के पास वापस जाएं तो यह कितनी बेइज्जती की बात होगी ।
483. दुःख के समय ही हमें प्रभु की याद आती है । यह गलत है क्योंकि हर समय ही हमें प्रभु को याद करना चाहिए ।
484. प्रभु की अदभुत कृपा देखें कि प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ से पूरी लंका जल गई और उस श्रीपूंछ का एक बाल तक नहीं जला ।
485. प्रभु श्री रामजी ने प्रभु श्री हनुमानजी को सबसे बड़ी बात कह दी कि मैं सबके ऋण से उऋण हो जाऊँगा पर तुम्हारे ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकता ।
486. यह जीवन का सूत्र है कि जिसको दुःख के समय केवल प्रभु प्रताप याद आता है दुःख उसके जीवन में टिक नहीं सकता ।
487. भगवत् कृपा का अनुभव करना जीवन में आना चाहिए ।
488. प्रभु का आश्रय ही हमें विपत्तियों से बचाता है ।
489. प्रभु श्री हनुमानजी काम तो सब करते हैं पर करते-करते भी उनकी दृष्टि प्रभु श्री रामजी पर ही रहती है ।
490. हम अपनी प्रभु निष्ठा में इधर-उधर हो जाते हैं पर प्रभु श्री हनुमानजी ऐसे हैं जिन्हें सर्वत्र केवल प्रभु का ही अनुभव होता रहता है और उनकी प्रभु निष्ठा सदैव अडिग रहती है ।
491. जिस जीव को प्रभु श्री हनुमानजी मिलते हैं उन्हें ही प्रभु श्री रामजी भी स्वतः ही मिल जाते हैं ।
492. संत कहते हैं कि ऐसा नहीं था कि प्रभु श्री हनुमानजी संजीवनी को पहचान नहीं पाए क्योंकि वे तो रसायन शास्त्र के परम ज्ञाता हैं पर पर्वत की समस्त बूटियां प्रभु के दर्शन करना चाहती थीं इसलिए प्रभु श्री हनुमानजी पूरे पर्वत को ही उठा लाए ।
493. प्रभु का प्रण है कि जिस दुष्ट को मारते हैं उसे भी अपनी कृपा से स्वीकार करते हैं ।
494. प्रभु श्री हनुमानजी हमारे ही नहीं बल्कि प्रभु श्री रामजी के भी कार्य संवारने वाले हैं ।
495. जहाँ प्रभु श्री हनुमानजी हैं वहीं प्रभु श्री सियारामजी भी हैं ।
496. श्रीरामराज्य के बाद सभी की विदाई हुई पर प्रभु श्री हनुमानजी ने विदा नहीं ली और प्रभु के पास ही रुक गए । प्रभु ने कहा कि मेरा राज्याभिषेक हो गया है अब राज्यसभा में रहना पड़ेगा तो प्रभु श्री हनुमानजी भी कोई राज्यसभा का पद ले लें । प्रभु श्री हनुमानजी बोले कि मुझे देना ही है तो एक नहीं दो पद दें और वे दो पद हैं आपके श्रीकमलचरणरूपी दोनों पद ।
497. जीव को प्रभु से मिलाने का कार्य प्रभु श्री हनुमानजी का है । भगवती सीता माता को लंका में, श्री भरतलालजी को श्री अयोध्याजी में उन्होंने प्रभु से मिलवाया ।
498. भगवती सीता माता ने अपने पुत्र श्री लवजी और श्री कुशजी को उतना स्नेह नहीं किया जितना प्रभु श्री हनुमानजी को किया । अपने पुत्रों से भी बढ़कर पुत्ररूप में स्नेह प्रभु श्री हनुमानजी को भगवती सीता माता ने किया ।
499. प्रभु श्री रामजी जब श्री अयोध्याजी छोड़कर वन गए तो श्री अयोध्याजी में दुर्भाग्य की होड़ लग गई और जब प्रभु वापस आए और उनका राज्याभिषेक हुआ तो श्री अयोध्याजी में सौभाग्य की होड़ लग गई । सूत्र यह है कि प्रभु जिसके जीवन में नहीं है वहाँ दुर्भाग्य है और प्रभु जिसके जीवन में हैं वहीं सौभाग्य है ।
500. बिना प्रभु श्री हनुमानजी की आज्ञा के श्रीराम दरबार में किसी को प्रवेश प्राप्त नहीं होता ।
501. कोई ऐसा क्षण नहीं जब प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी की सेवा न करते हो । वे निरंतर प्रभु सेवा में ही रहते हैं ।
502. प्रभु श्री हनुमानजी निरंतर प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों को अपनी गोद में लेकर रखते हैं ।
503. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी की कोई भी सेवा कभी छोड़ते ही नहीं क्योंकि सभी सेवा उन्हें ही करनी आती है ।
504. प्रभु कहते हैं कि जो मुझमें जैसा भाव रखता है मैं भी उसी भाव को ग्रहण कर लेता हूँ । जो मुझे पुत्र मानता है मैं उन्हें माता-पिता मान लेता हूँ । जो मुझे सखा मानता है मैं उन्हें मित्र मान लेता हूँ । जो मुझे प्रियतम मानता है मैं उनका प्रियतम बन जाता हूँ । जो मुझे स्वामी मानता है मैं उन्हें दास रूप में स्वीकार कर लेता हूँ ।
505. श्रीराम नाम में ही प्रभु श्री हनुमानजी विराजते हैं ।
506. अपनी संस्कृति और संस्कार को त्यागना अच्छी बात नहीं है क्योंकि अपने मूल को त्यागना अच्छा नहीं होता ।
507. भक्ति में क्रिया नहीं भावना देखी जाती है ।
508. प्रभु प्रसन्न हो वही कार्य भक्त सदैव करता है ।
509. प्रभु अपने भक्तों की महिमा जगत के सामने प्रकट करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ।
510. प्रभु श्री हनुमानजी का भोजन ही श्रीराम नाम है ।
511. श्रीराम नाम से ही प्रभु श्री हनुमानजी तृप्त होते हैं ।
512. हमारे स्वभाव में ही भक्ति होनी चाहिए । किसी कामना पूर्ति के लिए भक्ति की, फिर नहीं की, यह गलत है ।
513. प्रभु की शरण में रहने से कोई दुःख हमें सताता नहीं ।
514. प्रभु की शरण में रहने से बिना कहे ही हमारे काम बन जाते हैं ।
515. प्रभु को निवेदन करने के बाद भी अगर हमारे मन अनुसार काम नहीं बने तो यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वह काम हमारे हित में नहीं है तभी प्रभु ने नहीं बनाया ।
516. कैसे कृपा करनी है यह निर्णय प्रभु पर ही छोड़ देना चाहिए ।
517. प्रभु की इच्छा स्वीकार कर ली तो इस लोक और परलोक दोनों में ही हमारा परम कल्याण होगा ।
518. हम प्रभु से संसार ही मांगते रहेंगे तो प्रभु तो दयालु हैं वे हमें हमारी इच्छानुसार संसार ही देते रहेंगे और हम संसार में ही अटके रहेंगे ।
519. बात सकामता से शुरू हो पर यात्रा निष्कामता तक जाए तो ही हमारा कल्याण होगा ।
520. जैसे-जैसे भक्ति में समय बीते हमें भक्ति की ऊँचाइयों को प्राप्त करना चाहिए । सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की तरफ हमें बढ़ना चाहिए । जैसे एक बच्चा नर्सरी में दाखिल हुआ और 10 वर्षों तक नर्सरी में ही रहे तो क्या उसके माता-पिता को अच्छा लगेगा वैसे ही भक्ति करते 10 वर्ष बीत गए और हम सकाम भक्ति में ही रहे तो क्या परमपिता प्रभु को यह अच्छा लगेगा ?
521. हम भक्ति में उन्नति कर रहें हैं इसका लक्षण यह है कि हमारा चित्त कामनाओं से रहित हो रहा है क्या ?
522. भक्ति मार्ग में अंत में एक ही कामना बाकी रहती है कि मुझे प्रभु की प्राप्ति कब होगी ।
523. प्रभु श्री हनुमानजी से प्रार्थना करें कि आपके हृदय में जो भक्ति का सागर लहराता है उसका छींटा आपकी कृपा से मुझे भी लग जाए ।
524. प्रभु श्री हनुमानजी जैसी इष्ट निष्ठा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगी ।
525. जब भगवती अंजना माता से मिलने प्रभु श्री रामजी और भगवती सीता माता गए तो उन्होंने अपने पुत्र प्रभु श्री हनुमानजी को ही उन्हें प्रदान कर दिया । उन्होंने कहा कि मैंने जीवनभर तप कर यही चाहा कि मुझे श्रीरामभक्त पुत्र हो और जब ऐसा पुत्र मिला तो अब मैं उनको आपकी नित्य सेवा में प्रदान करती हूँ ।
526. भजन करना हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए ।
527. प्रभु का भजन प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करना चाहिए । प्रभु का भजन कर प्रभु से कुछ मांगना नहीं चाहिए ।
528. प्रभु श्री रामजी का नाम जपने वाले की सदा प्रभु श्री हनुमानजी रक्षा करते हैं ।
529. प्रभु श्री रामजी का बाण भी श्रीराम नाम जापक का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । श्रीरामबाण अमोघ है फिर भी श्रीराम नाम जापक का बाल भी बाँका नहीं कर सकता । प्रभु ने अपने भक्तों का अमंगल करने की शक्ति अपने शस्त्रों को भी नहीं दी है ।
530. संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु के शस्त्र भी ऐसे हैं कि प्रभु कहेंगे कि किसी भक्त पर प्रहार करो तो नहीं करेंगे । संत कहते हैं कि प्रभु ने महाभारतजी के युद्ध में श्री भीष्म पितामह के लिए श्री सुदर्शनजी का आह्वान किया तो वे आए नहीं, तब प्रभु को रथ का टूटा पहिया उठाना पड़ा । प्रभु के शस्त्रों को भी पता है कि प्रभु भक्तों का अमंगल वे भी नहीं कर सकते ।
531. जीवन में प्रभु नाम का आश्रय सदैव ग्रहण करके रखना चाहिए ।
532. प्रभु भक्ति के मार्ग में आए विघ्नों को सहज ही दूर कर देते हैं ।
533. प्रभु के भक्त प्रभु नाम के सहारे ही रहते हैं ।
534. प्रभु श्री हनुमानजी की अनुभूति करना सबसे सहज है, ऐसा भक्तों का मत है ।
535. प्रभु जीव को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखते हैं । ऐसा कुछ है ही नहीं जो प्रभु नहीं दे सकते ।
536. प्रभु हमारा परम कल्याण करने वाले हैं ।
537. प्रभु नाम में निष्ठा होने से हमारा बेड़ा पार हो जाता है ।
538. भगवती तुलसी माता जीव का परम मंगल करतीं हैं ।
539. प्रभु को भक्तों का गर्व करना एकदम अच्छा नहीं लगता ।
540. मैं भी कुछ हूँ, यह भावना सभी अनर्थों का कारण है ।
541. जैसे ही जीव को गर्व आता है प्रभु उस जीव से दूर हो जाते हैं और उस जीव के गर्व का प्रभु हरण करते हैं ।
542. प्रभु द्वारा जीव को दिया सौभाग्य यानी कृपा का भी मद एक गलत मद है जो प्रभु को अप्रिय लगता है ।
543. प्रभु का कृपा करने का स्वभाव है, हमारे साधन में कोई औकात नहीं प्रभु कृपा पाने की, यह भाव हमारे भीतर होना चाहिए ।
544. श्री अर्जुनजी कितने भाग्यवान थे जिनके रथ की डोर प्रभु श्री कृष्णजी के श्रीहाथों में थी और जिनके रथ के ऊपर प्रभु श्री हनुमानजी विराजे थे जो विजय के देव हैं ।
545. अपने जीवन के रथ की डोर प्रभु के हाथ में दे दें तो कितनी भी बड़ी संसाररूपी महाभारत हो हम पार हो जाएंगे । इस संसार की महाभारत में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, राग, द्वेष और ईर्ष्या से साधक को लड़ना पड़ता है ।
546. मोम के घोड़े पर सवार होकर हमें संसाररूपी आग के दरिया को पार करना है जो कि प्रभु को रथ की बागडोर सौंपने पर ही संभव है ।
547. प्रभु श्री हनुमानजी का आश्रय कलियुग में सब विघ्नों से बचाने वाला आश्रय है ।
548. प्रभु श्री हनुमानजी अनंत रूप धारण करके कलियुग में सभी जगह प्रभु कथा और प्रभु नाम जप सुनते हैं ।
549. हमें नियम पालन के लिए प्रभु नाम जप नहीं अपितु भगवत् प्राप्ति को लक्ष्य रखकर प्रभु नाम जप करना चाहिए ।
550. प्रभु कृपा से ही हमारे सभी संकल्प पूरे होते हैं ।
551. जीवन में प्रभु कृपा का हमें निरंतर अनुभव करते रहना चाहिए ।
552. जब श्री काशीजी में प्रभु श्री हनुमानजी गोस्वामी श्री तुलसीदासजी की श्रीरामकथा सुनने आते थे तो एक बार गोस्वामीजी ने उनके श्रीकमलचरण पकड़ लिए । प्रभु श्री हनुमानजी ने पूछा क्या चाहिए तो गोस्वामी श्री तुलसीदासजी बोले कि मुझे श्री सीतारामजी के दर्शन करवा दें । प्रभु श्री हनुमानजी से मांगने योग्य इससे बड़ा कुछ नहीं हो सकता ।
553. श्रीहनुमत कृपा का उपयोग केवल भगवत् प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए ।
554. प्रभु को जीवन में पा लिया तो फिर जीवन में कोई दुःख प्रभु नहीं रहने देंगे ।
555. प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा से श्री सुग्रीवजी, श्री विभीषणजी, गोस्वामी श्री तुलसीदासजी और समर्थ श्री रामदास स्वामीजी जैसे अगणित जनों को प्रभु श्री रामजी के दर्शन हुए तो हमें भी हो सकते हैं ।
556. सत्संग बिना प्रभु कृपा के नहीं मिल सकता ।
557. प्रभु नाम का स्वाद जब हमारी जिह्वा को लग जाएगा तो फिर जिह्वा और कुछ बोलना बंद कर देगी ।
558. जिस दिन प्रभु कथा का रस आने लगेगा हमारे कान कुछ अन्य श्रवण करना पसंद ही नहीं करेंगे ।
559. भक्त जगत से केवल व्यवहार निभाने का कार्य करता है पर ऐसा करते हुए उसका मन प्रभु को कभी नहीं छोड़ता ।
560. प्रभु श्री हनुमानजी के हृदय में भगवत् कृपा का सिंधु लहराता है उसमें से हमें कुछ बूंदे मिल जाए, यह अरदास प्रभु श्री हनुमानजी से करनी चाहिए ।
561. प्रभु श्री कृष्णजी से कहें कि प्रभु आप माखन चोरी करते हैं इसलिए इस बार माखन की जगह सदैव के लिए मेरे इस मन को ही चुरा लें ।
562. जैसे सर्वत्र श्री पवनदेव हैं वैसे ही सर्वत्र श्री पवनपुत्र हैं और उनकी कृपा जीव पर निरंतर बरस रही है । हमें बस अनुभव करना आना चाहिए । जैसे हम पवन का अनुभव सांस लेने में करते हैं वैसे ही पवनपुत्र प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा हमें हर मंगल में अनुभव करना आना चाहिए तो जीवन में मंगल-ही-मंगल होते चले जाएंगे ।
563. मनुष्य शरीर पाकर कोई कहता है कि उसका भाग्य खराब है यह कितनी विडंबना है क्योंकि देव दुर्लभ मनुष्य शरीर मिल गया फिर कोई कैसे कह सकता है कि भाग्य खराब है ।
564. त्याग बाहर से नहीं मन के भीतर से होना चाहिए तभी वह टिक पाएगा । श्रीगोपीजन बाहर से साधु नहीं बनी पर मन से प्रभु के लिए सब कुछ त्यागकर साधु बन गई ।
565. बाहर से संन्यास नहीं, मन से संन्यास लेना सबसे जरूरी है ।
566. हमारा सर्वस्व अपने प्रियतम प्रभु के लिए समर्पित हो जाना चाहिए ।
567. प्रभु का हर श्रीअंग और प्रभु की धारण की हुई हर वस्तु भी प्रभु ही हैं ।
568. प्रभु को देखने पर ही हमारे नेत्र सफल होते हैं ।
569. प्रभु ने सात दिन और सात रात तक प्रभु श्री गिरिराजजी को धारण कर संदेश दिया कि हफ्ते के सातों दिन और सातों रात प्रभु हमारा संरक्षण करने के लिए तैयार हैं, बस हमें प्रभु की शरण में जाने मात्र की देर है ।
570. कलियुग में भटक जाने का, बहक जाने का बहुत भय रहता है इसलिए कलियुग में प्रभु सानिध्य में ही रहना श्रेष्ठ होता है ।
571. जो भगवती राधा माता के श्रीकमलचरणों में आता है माता उस पर श्रीकृष्ण प्रेम की वर्षा कर देती है । भगवती राधा माता को बरसाने वाली कहते हैं । वे बरसाने धाम से हैं इसलिए नहीं बल्कि इसलिए कि वे श्रीकृष्ण प्रेम बरसाती है ।
572. प्रभु का प्रत्येक विधान मंगलकारी होता है ।
573. प्रभु मंगल को छोड़ किसी का अमंगल कभी कर ही नहीं सकते, ऐसा कदापि संभव नहीं है ।
574. प्रभु के पास तिरस्कार तो है ही नहीं इसलिए प्रभु ने आज तक किसी का तिरस्कार नहीं किया है ।
575. भक्तों का चरित्र प्रभु प्रेम को हमारे हृदय में जागृत करने वाला होता है ।
576. प्रभु अपने किसी भी भक्त को “नहीं” कहना नहीं जानते ।
577. भक्त किसी का भी प्रणाम नहीं लेना चाहता क्योंकि वह चाहता है कि सबका प्रणाम केवल प्रभु को ही निवेदन हो ।
578. प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती राधा माता एक से दो बने और दो बनकर भी एक ही हैं ।
579. प्रभु की प्रेममयी सेवा ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
580. गृहस्थ आश्रम में स्त्री पुरुष को प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु का कोई भक्त उन्हें पुत्र या पुत्री रूप में प्रभु प्रदान करें ।
581. माता-पिता का अपनी संतान के प्रति प्रधान कर्तव्य यह है कि उन्हें ऐसी शिक्षा दें कि वे प्रभु की भक्ति करके प्रभु को प्राप्त करें जिससे फिर उन्हें संसार में किसी के गर्भ से जन्म न लेना पड़े ।
582. गर्भावस्था में यदि स्त्री मन लगाकर श्रीमद् भागवतजी और श्री रामायणजी सुनती है तो उसके यहाँ भक्त संतान का जन्म होता है ।
583. भक्त प्रभु को पूर्ण रूप से प्यारे होते हैं ।
584. प्रभु अपने नाम के भीतर सदा विराजमान रहते हैं ।
585. प्रभु के विग्रह को कभी प्रतिमा मानकर नहीं अपितु साक्षात प्रभु मान कर सेवा करनी चाहिए ।
586. हमारे मन और प्राणों के भीतर प्रभु को ही बसाना चाहिए ।
587. जो हमें भक्ति मार्ग में सहयोग करे ऐसे जीव को प्रभु भक्तों के लिए उपलब्ध करवाते हैं ।
588. तीर्थ की महिमा को जानकर ही तीर्थ यात्रा करनी चाहिए जिससे पूरी श्रद्धा तीर्थ के प्रति मन में भरी रहे ।
589. प्रभु एकमात्र भक्ति के नाते को ही मानते हैं ।
590. भक्तों का सुहाग प्रभु प्रेम होता है ।
591. जीव को भक्ति रूपी ऐसा साधन करना चाहिए कि प्रभु को भी उस जीव की याद आती रहे ।
592. भक्ति का रस अन्य सभी रसों से अनंत गुना मीठा है ।
593. जीवन में प्रभु को और प्रभु कृपा को पाने की ही लालसा होनी चाहिए ।
594. भक्त प्रभु से मिलन को जितने बेचैन होते हैं प्रभु उससे ज्यादा बेचैन होते हैं अपने सच्चे और प्रिय भक्तों से मिलने के लिए ।
595. हर जन्म में योनि, परिवार, माता-पिता, पत्नी, पुत्र सब बदल जाते हैं । अगर कुछ नहीं बदलता है तो केवल प्रभु ही नहीं बदलते क्योंकि वे एक ही हैं और उनसे ही हमारा सनातन रिश्ता है ।
596. संसार के सभी संबंध परिवर्तनशील है क्योंकि मृत्यु सबका परिवर्तन कर देती है ।
597. जो अपने नहीं है और हर जन्म में नए मिलते हैं उन्हें तो हम अपना मानते हैं और जो सदा-सदा से हमारे हैं और सदा-सदा हमारे रहने वाले हैं उन प्रभु को हम दूर का मानते हैं ।
598. हम पत्नी, पुत्र, पौत्र, व्यापार, पैसे से प्रेम करते हैं जबकि हमें सच्चा प्रेम केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
599. प्रभु को केवल अपना मानते ही सहज में प्रभु से प्रेम हो जाएगा ।
600. प्रभु में ही हमारा अपनत्व होना चाहिए तभी प्रभु ही हमें एकदम प्रिय लगेंगे और संसार हमें प्रपंच लगेगा ।
601. जगत में प्रभु के अतिरिक्त हमारा अपना कोई भी नहीं है, यह भाव हृदय में प्रगाढ़ हो जाना चाहिए ।
602. हमारा मन जो संसार से चिपका है उसे वहाँ से निकालकर प्रभु में लगाना चाहिए । यह हमने कर लिया तो सारे शास्त्रों के उपदेश हमारे लिए सफल हो जाएंगे क्योंकि सबका सार यही है ।
603. सब कुछ पढ़ कर, सब कुछ सुन के, सब कुछ करके अगर मन प्रभु में लगाना नहीं सीखा तो सब व्यर्थ परिश्रम मात्र है ।
604. हमारा मन क्या कर रहा है प्रभु यही देखते हैं ।
605. हमारा मन निरंतर और निरंतर प्रभु से जुड़ा रहना चाहिए ।
606. इस संसार में रहते हुए कपड़ों से संन्यास लेने से भी बड़ा है कि मन से संन्यास लिया जाए ।
607. मन से संसार को छोड़ देना चाहिए और मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगाना चाहिए ।
608. प्रभु के रुख और सुख का भक्त हमेशा ख्याल रखता है ।
609. प्रभु की कृपा बरसाने में कोई कमी नहीं है, अगर कमी है तो उसे ग्रहण करने की हमारी पात्रता में कमी है ।
610. सांसारिक विघ्न आने पर भी जो भक्त प्रभु के नाम को पकड़े रखता है वह विघ्नों को सहज में लांघ जाता है ।
611. प्रभु हमारे समर्पण से प्रसन्न होते हैं ।
612. प्रेम का निर्वाह करना एकमात्र प्रभु ही जानते हैं ।
613. साकार प्रभु की भक्ति बड़ी रसदायी है ।
614. प्रभु के अनेक रूप भक्तों की रुचि के कारण हैं । प्रभु सबको स्वतंत्रता देते हैं कि जिसको जो रूप प्रिय लगे वह उस रूप के सहारे प्रभु तक पहुँच सकता है ।
615. हर प्रतिकूल-से-प्रतिकूल षड्यंत्र भगवती मीराबाई के लिए प्रभु कृपा से अनुकूल हो गया ।
616. इस संसार में जो भी भक्ति मार्ग पर चलता है उसके जीवन में विपरीत परिस्थिति, विरोध, कठिनाई, संकट, दुःख, तकलीफ, निंदा आती है पर अगर प्रभु में निष्ठा है तो संसार के ये सभी विष अमृत बन जाते हैं । कोई विपत्ति हमें डुबाने वाली नहीं होती है अपितु वह हमें प्रभु के और निकट ले जाने वाली होती है ।
617. संसार के सम्मान में प्रभु को हम भुला देते हैं पर संसार के तिरस्कार और अपमान में हम प्रभु के करीब पहुँच जाते हैं ।
618. संसार से ठोकर लगती है तो ही श्री ठाकुरजी हमें याद आते हैं ।
619. संतों ने माना है कि सुख प्रभु भक्ति में सहायक नहीं है, दुःख ही प्रभु भक्ति में अति सहायक है ।
620. प्रभु की कृपा के सहारे भक्त हर विपत्ति को पार कर जाता है ।
621. प्रभु नाम का अमृत हमें संसार के विष से सदैव बचा लेता है ।
622. भगवती मीरा बाई प्रभु के साथ चौसर खेलती । बाजी में दांव लगाती कि हारी तो मैं पिया (प्रभु) की और जीती तो पिया (प्रभु) मेरे ।
623. जीवन की किसी भी परिस्थिति में प्रभु का विस्मरण कभी नहीं होने देना चाहिए ।
624. प्रभु अपने भक्तों से सदा हारते आए हैं । प्रभु को अपने भक्तों से हारने में आनंद आता है । वैसे शास्त्र प्रभु को अजीत कहते हैं यानी प्रभु को कोई भी, कैसे भी जीत नहीं सकता पर प्रभु यह नियम भी अपने भक्तों के लिए तोड़ देते हैं ।
625. भक्ति मार्ग का नियम है कि जिन्हें श्रीहरि के श्रीकमलचरणों से प्रेम है वे ही हमारे रिश्तेदार होने चाहिए । इस मार्ग में खून के रिश्ते कोई मायने नहीं रखते । श्री भरतलालजी ने प्रभु से विमुख होने के कारण अपनी माता भगवती कैकेयीजी का त्याग कर दिया । राजा श्री बलिजी ने प्रभु से विमुख होने की चेष्टा के कारण अपने गुरुदेव का त्याग कर दिया ।
626. जिसके सानिध्य से प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा प्रेम होता है वही हमारा सच्चा हितकारी है ।
627. जो भगवान से जोड़े वही सच्चे मायने में हमारा है ।
628. दुनिया का बनकर हमने देख लिया, अब प्रभु का बनकर हमें देखना चाहिए ।
629. जो प्रभु की भक्ति करते हैं उनका नाम जग में अमर हो जाता है ।
630. गिरे हुए को उठाने वाला प्रभु के सिवा और कोई नहीं हो सकता ।
631. भक्त कष्ट पाए यह प्रभु को सहन नहीं होता ।
632. जिन भक्तों की सारी इंद्रियां प्रभु से जुड़ी हैं वे ही गोपी हैं क्योंकि गो का अर्थ इंद्रियां होता है ।
633. बिना गोपी बने हमें श्रीगोपीनाथ नहीं मिलेंगे ।
634. कानों से कथा सुनने से भी ऊँ‍‍ची स्थिति होती है कि आँखों से कथा देखी जाए । कथा के दृश्य हमारी आँखों के सामने स्वतः ही चलने लगें ।
635. जिनकी कथा सुनी उन प्रभु का अनुभव नहीं हुआ तो हमारी कथा सुनने में कोई दोष रह गया ।
636. भक्तों के हृदय में प्रभु का नित्य वास होता है ।
637. भक्तों की उम्र प्रभु का यश गाते-गाते ही बीतती है ।
638. संसार से हमारा जो लगाव है उसे मोह कहते हैं और यही लगाव जब संसार से हटकर प्रभु से हो जाता है तो उसे भक्ति कहते हैं ।
639. संसार का लगाव हमें डुबाने वाला होता है पर प्रभु से लगाव हमें प्रभु की गोद में बैठाने वाला होता है ।
640. हमें बदलाव इतना ही करना है कि जिस प्रेम की हमारी दिशा संसार की तरफ है उसे मोड़कर प्रभु की तरफ करना है ।
641. प्रभु के अवतरण से जीवों का भवतरण होता है ।
642. प्रभु के भीतर ही सभी जगत है और सभी जगत के भीतर केवल प्रभु हैं ।
643. जिसके जीवन में भक्ति बढ़ेगी उसके जीवन में दीनता भी बढ़ेगी क्योंकि दीनता प्रभु को अति प्रिय है ।
644. भगवती भक्ति माता का वाहन ही दीनता है ।
645. कोई भी अभिमान हमें जीवन में हो तो वह हमें प्रभु से दूर कर देता है । एक अभिमान कि “मैं प्रभु का दास हूँ” इसके अलावा कोई दूसरा अभिमान कभी नहीं रखना चाहिए ।
646. भजन करने वाले को सावधान रहना चाहिए कि उनसे कोई अपराध जीवन में न हो जाए ।
647. संसार से परिचय कोई लाभ देने वाला नहीं है । केवल प्रभु से परिचय ही कल्याण करने वाला है ।
648. संसार से परिचय रखने पर व्यवहार निभाने में ही सारे जीवन का समय निकल जाएगा ।
649. प्रभु सानिध्य में वह आनंद मिलता है कि संसार के सारे सुख उसके सामने कड़वे लगने लग जाते हैं ।
650. प्रभु की भक्ति में डूबने से क्या मिला, यह डूबने वाले से पूछें । वह भी उस परमानंद का बयान नहीं कर पाएगा ।
651. प्रभु के प्रेम में रोने में जो परमानंद है वह तीनों लोकों की संपत्ति भी प्रभु दे दें तो भी नहीं है ।
652. जिसके पास भगवत् प्रेम है वही जीव इस धरती पर सच्चा धनवान और भाग्यवान है ।
653. जिस दिन प्रभु के नाम का रस लग जाएगा दुनिया के सभी रस फीके पड़ जाएंगे ।
654. मनुष्य शरीर हमें प्रभु सानिध्य का परमानंद प्राप्त करने के लिए ही मिला है ।
655. जगत में आकर हम जगत के सुख लूटते हैं पर मृत्यु के बाद अपना प्रबंध करना भूल जाते हैं ।
656. जैसे हम सागरदेव में कितना जल है यह नहीं माप सकते वैसे ही प्रभु की श्रीलीलाओं का हम पार नहीं पा सकते ।
657. अनंत प्रभु का सब कुछ अनंत है ।
658. प्रभु अपने भक्तों के भक्त को भी अपनाते हैं ।
659. भक्तों ने सदैव भारतवर्ष की भूमि को भगवत् प्रेम से सिंचित किया है । यह भारतवर्ष का गौरव रहा है ।
660. सभी धर्मों ने सनातन धर्म से शिक्षा ली है । ऐसे ही भारतवर्ष को धर्मगुरु नहीं कहा जाता है ।
661. श्री नरसी मेहताजी को अपने जीवन काल में अनंत बार प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन हुए ।
662. कठिन परिस्थिति में भी हमारा मन प्रभु से जुड़ा हुआ ही रहना चाहिए ।
663. जीवन में कभी भी प्रभु की विस्मृति नहीं होनी चाहिए ।
664. प्रभु कलियुग में भक्ति का प्रचार करने के लिए अपने भक्तों को धरती पर भेजते रहते हैं ।
665. प्रभु श्री महादेवजी को आशुतोष कहा गया है । आशु का अर्थ है शीघ्र और तोष का अर्थ है संतुष्ट होना । प्रभु श्री महादेवजी सबसे शीघ्र संतुष्ट होते हैं इसलिए वे आशुतोष कहलाते हैं ।
666. प्रभु होनी को भी मिटा सकते हैं, अपने भक्तों के लिए प्रभु श्री महादेवजी ने होनी को भी कई बार मिटाया है ।
667. प्रभु से विमुख हो जाना ही जीवन का सबसे बड़ा कष्ट है ।
668. जो प्रभु को हमारे लिए प्रिय लगता हो, वही अनुग्रह प्रभु से मांगना चाहिए । अपनी बुद्धि से कभी नहीं मांगना चाहिए ।
669. कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी प्रभु से यह नहीं कहना चाहिए कि ऐसा कर दें । प्रभु को रास्ता कभी नहीं बताना चाहिए क्योंकि यह दर्शाता है कि हम प्रभु से ज्यादा समझदार हैं । प्रभु को कभी सलाह नहीं देनी चाहिए । कहना यह चाहिए कि जिसमें हमारा हित हो और जिसमें प्रभु की प्रसन्नता हो प्रभु वही करें ।
670. प्रभु का प्रत्येक विधान अपने आश्रितों के लिए मंगलरूप होता है ।
671. प्रभु की करुणा में कोई कमी नहीं है, उसे ग्रहण करने की हमारी पात्रता में ही कमी रह जाती है ।
672. गो यानी इंद्रियां और पी यानी प्रियतम । जिसकी समस्त इंद्रियां अपने प्रियतम प्रभु श्री कृष्णजी से जुड़ी है वही गोपी है ।
673. हमारे कान प्रभु कथा का श्रवण करें, हमारी जिह्वा प्रभु नाम को रटे, हमारी आँखें प्रभु के लिए रोए, हमारी नासिका प्रभु के सुगंध को ग्रहण करें, हमारी त्वचा प्रभु का स्पर्श करें । इस प्रकार करने वाला हर स्त्री या पुरुष गोपी है ।
674. श्रीगोपी भाव में देह का कोई मूल्य नहीं है, वहाँ केवल भावना का मूल्य है ।
675. हमें माया का दास नहीं बल्कि मायापति प्रभु का दास बनना चाहिए ।
676. संसारी का पता नहीं कि कब हमें रुला दे और सत्संग का पता नहीं कि कब हमें प्रभु से मिला दे ।
677. एक प्रभु के अनंत रूप, अनंत नाम, अनंत श्रीलीलाएं, अनंत धाम, अनंत भक्त, अनंत यश और अनंत परमानंद है ।
678. हम गृहस्थ के समाधान में ही लग कर अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं और प्रभु को भूल जाते हैं ।
679. प्रभु अपने भक्तों को गिरने और डूबने नहीं देते ।
680. दुःख से अगर ठोकर नहीं खाते तो प्रभु की मधुर याद नहीं आती । संत उस ठोकर को प्रणाम करते हैं जो उन्हें प्रभु के मार्ग पर लाती है ।
681. प्रभु पर विश्वास है तो यह भी प्रभु की एक बहुत बड़ी कृपा है नहीं तो अधिकतर लोगों का प्रभु पर विश्वास ही नहीं होता ।
682. जीवन की प्रत्येक घटना में भक्त प्रभु के मंगल विधान का ही अनुभव करता है ।
683. प्रभु के आश्रित का लक्षण यह है कि वह केवल प्रभु पर ही विश्वास करता है ।
684. प्रभु से भक्त यह भी नहीं कहता कि मेरा हित करें । भक्त कहता है कि जिसमें प्रभु की प्रसन्नता है वह करें ।
685. प्रभु भक्त को जिस अवस्था में रखकर प्रसन्न होते हैं, भक्त कहता है प्रभु उसे वैसे ही रखें ।
686. परिस्थिति कैसी भी हो प्रभु का स्मरण बना रहने से मन की स्थिति सदैव ठीक रहती है ।
687. संतान के लिए शास्त्रों के अनुसार माता-पिता का सबसे बड़ा दायित्व यह होता है कि उन्हें प्रभु से जोड़ दें जिससे कि इस बार तो वे माता के गर्भ में आए पर आगे उन्हें किसी भी माता के गर्भ में कभी नहीं आना पड़े ।
688. आज की शिक्षा बालकों का भीतर से आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं कर रही । शिक्षा प्रणाली वह होनी चाहिए जो आध्यात्मिक चेतना का पोषण करें ।
689. भक्ति कुछ भी छोड़ने को नहीं कहती बल्कि सब क्रिया में प्रभु को जोड़ने को कहती है ।
690. भक्त के जीवन में भी बाधा आती है पर उस बाधा के पीछे-पीछे प्रभु भी उस भक्त को उस बाधा से बचाने के लिए आते हैं ।
691. संत कहते हैं कि कल की चिंता वे करते हैं जिनको प्रभु पर भरोसा नहीं होता । भक्त को विश्वास होता है कि जिन प्रभु ने आज दिया है, वे कल भी देंगे ।
692. हमारे पास जो साधन है, जो योग्यता है उसे ईमानदारी से प्रभु सेवा में लगाना चाहिए ।
693. हमारे एकमात्र आश्रय प्रभु हो जाने चाहिए ।
694. तन से भले ही हम जग में रहे पर मन से हमें संसार में नहीं होना चाहिए ।
695. जिन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों से प्रेम है वे ही एक भक्त के रिश्तेदार होते हैं ।
696. जीव प्रभु को भूल जाता है पर प्रभु जीव को कभी नहीं भूलते ।
697. संत कहते हैं कि प्रभु के नाम उच्चारण से सुख उपजते हैं और दुःख भाग जाते हैं ।
698. प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं सदा सदा से तेरा हूँ पर जीव कहने से चूक जाता है कि प्रभु मेरे हैं क्योंकि वह संसार को ही अपना मानता है ।
699. हृदय की सफाई सिर्फ सत्संग से ही संभव है ।
700. जीवन में संग का बहुत प्रभाव पड़ता है । संग का रंग लगे बिना नहीं रह सकता । इसलिए जीवन में संग सिर्फ भक्तों का ही करना चाहिए ।
701. प्रभु से लोगों को जोड़ने वाला प्रभु को प्रिय होता है ।
702. संसार से मन हटेगा तो ही वह मन प्रभु में लगेगा ।
703. विपत्ति में अपनी ओर देखने से भरोसा डगमगा जाएगा पर विपत्ति में प्रभु की तरफ देखने से भरोसा मजबूत होगा ।
704. सभी विपत्तियों से बचने का उपाय केवल, केवल और केवल भगवत् शरणागति है ।
705. भगवत् भक्ति निरंतर परमानंद देने वाली है ।
706. संसार का सुख घटता जाता है जबकि भगवत् भक्ति का परमानंद निरंतर बढ़ता ही चला जाता है ।
707. भक्ति एक दिन हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचा देती है ।
708. भक्तों को जहाँ गिरने का भय होता है वहीं प्रभु आकर उन्हें संभाल लेते हैं ।
709. जैसे एक बच्चे की प्रशंसा सुनकर उसके सांसारिक माता-पिता खुश होते हैं वैसे ही भक्तों की प्रशंसा श्रीभक्तमाल कथा में सुनकर उन भक्तों के असली माता-पिता प्रभु प्रसन्न होते हैं ।
710. जितना प्रभु अपने यशगान से प्रसन्न नहीं होते उतने प्रभु अपने भक्तों के महिमा गान से प्रसन्न होते हैं ।
711. भक्तों की कथा के प्रधान श्रोता प्रभु स्वयं होते हैं ।
712. भक्तों की कथा सुनने से हमें भक्ति करने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।
713. भक्तों के जीवन में बाधा आती है पर उन्हें प्रभु पर ऐसा भरोसा, ऐसा विश्वास होता है कि प्रभु उन्हें बाधा से पार करेंगे और प्रभु ऐसा करने से कभी चूकते नहीं ।
714. भक्ति के, भजन के बल पर भक्तों का कभी बाल भी बाँका नहीं होता ।
715. जैसे माता गोदी के बालक की सारी चिंताएं करती है वैसे ही प्रभु अपने भक्तों की सारी चिंताएं करते हैं ।
716. भक्ति का मूल है कि हमें केवल प्रभु के आश्रित हो जाना चाहिए ।
717. प्रभु पापियों की दया याचिका सहर्ष स्वीकार करते हैं अगर पापी पाप करना छोड़ देता है ।
718. प्रभु की अदालत में किसी की दया याचिका खारिज हो गई है, ऐसा आज तक नहीं सुना गया ।
719. प्रभु ही एकमात्र मेरे हैं, इस भाव को चित्त में परिपक्व करके रखना चाहिए ।
720. जैसे संसार के कानून में दया याचिका की व्यवस्था है वैसे ही प्रभु के दरबार में तो दया याचिका की महान व्यवस्था है पर अभागा जीव प्रभु के यहाँ तो दया याचिका लगाता नहीं और संसार की दया के भरोसे भटकता रहता है ।
721. भोगकर भी कर्म से हमें छुटकारा नहीं मिल सकता, केवल प्रभु की दया से ही हम कर्मफल से छूट सकते हैं ।
722. प्रभु से क्षमा मांगी जाए क्योंकि प्रभु क्षमा के सिंधु हैं और सदा क्षमा करने को लालायित रहते हैं ।
723. जीव प्रभु के सन्मुख हो जाए तो प्रभु कोटि-कोटि जन्मों के उसके पापों को क्षमा करने के लिए तैयार हैं । विडंबना यह है कि विमुख जीव प्रभु के सन्मुख ही नहीं होता ।
724. वही कार्य करना चाहिए जिससे हमारा कार्य प्रभु के मन को भा जाए ।
725. जीवन में भगवत् प्राप्ति की अभिलाषा जरूर होनी चाहिए ।
726. प्रभु के नाम में, श्रीग्रंथ में, प्रभु की श्रीलीला में श्रद्धा जागृत होनी चाहिए । यह श्रद्धा प्रभु के बारे में श्रवण करने से जगती है ।
727. जैसे कोई अनजान व्यक्ति अगर सत्संग में आता है और वहाँ भगवती गंगा माता की महिमा एक घंटे सुनता है तो उसके मन में भी श्रद्धा जागृत हो जाती है और वह भगवती गंगा माता के दर्शन की कामना मन में लेकर वहाँ से जाता है । श्रवण का इतना बड़ा लाभ होता है ।
728. प्रभु के बारे में श्रवण से प्रभु मिलन की इच्छा जीवन में प्रबल हो जाती है ।
729. संत संसार के भूले भुलाए और भटके जीव का संबंध प्रभु से करवा देते हैं ।
730. प्रभु शरणागति से विपत्ति में फंसे जीव विपत्ति से उबर जाते हैं ।
731. भगवत् प्राप्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य है, इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए ।
732. भक्तों के हर संकल्प को प्रभु पूरा करते हैं ।
733. सब अनर्थों का मूल स्वयं को स्वामी मान लेना है । हमें सदैव प्रभु को स्वामी और अपने को प्रभु का दास मानना चाहिए ।
734. प्रभु का दास बनने से जीवन की सभी बाधाएं दूर हो जाती है ।
735. भक्त सदैव यह ध्यान रखता है कि उसके मन, वचन और कर्म से किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचे क्योंकि सबमें वह अपने प्रभु का दर्शन करता है ।
736. हमारा चिंतन जैसा होता है हमारी क्रियाएं भी वैसी ही होने लगती है । इसलिए चिंतन सदैव प्रभु का ही हो तो जीवन में क्रिया भी प्रभु के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए होगी ।
737. जिसको भक्ति करनी है उसे व्यर्थ बोलना बंद करना होगा तभी वह भक्ति कर पाएगा ।
738. एक श्वास भी प्रभु नाम स्मरण बिना चली जाती है तो हमारा घाटा तीनों लोकों की संपत्ति चूकने के बराबर होता है ।
739. जो समय को प्रभु भजन बिना बर्बाद करता है, समय भी उसका जन्म ही बर्बाद कर देता है ।
740. बाहर की व्यवस्था हमारा परलोक नहीं सुधार सकती । केवल भीतर से किया भजन ही हमारा परलोक सुधार सकता है ।
741. हम अपनी सारी जिंदगी केवल परिवार और संसार की दुनियादारी को संभालने में ही बिता देते हैं ।
742. हमारा मुख ही यज्ञकुंड है और जिह्वा से जो प्रभु का नाम ले रहे हैं वही आहुति जा रही है । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है कि मैं यज्ञों में जप यज्ञ हूँ । यज्ञ में स्वाहा होता है तो जप यज्ञ करने से हमारे अनंत जन्मों के पापों का ही स्वाहा हो जाता है ।
743. नाम जप का कोई भी नियम नहीं है । हर परिस्थिति और हर अवस्था में प्रभु का नाम लिया जा सकता है ।
744. हम निरंतर प्रभु की दृष्टि में होते हैं और प्रभु निरंतर हमें देख रहे होते हैं ।
745. संसार से तो हम बहुत बातें करते हैं पर क्या हम कभी प्रभु से भी बातें करते हैं ।
746. प्रभु इसका इंतजार करते हैं कि कोई संसार को भुलाकर मुझसे भी बातें करें ।
747. प्रभु से बात करने से हमारा कितना बोझ कम हो जाता है और हमारा मन कितना हल्का हो जाता है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
748. हम अपने भीतर भक्ति का संचार करेंगे तो भक्ति प्रभु को हमारे पास खींच लाएगी ।
749. जब मोबाइल की तरंगें एक हजार किलोमीटर दूर बैठे व्यक्ति से हमारी बात करा देती है तो वैसे ही भक्ति की तरंग हमें प्रभु से बात करवा देती है ।
750. हमारे मन की सुई संसार पर टिकी है उसे वहाँ से हटाकर प्रभु में केंद्रित करने की जरूरत है ।
751. जैसे पर्वत से बहुत सारी नदियां निकलती है पर सभी सागर की तरफ ही बहती है वैसे ही सभी धर्म और पंथ प्रभु की तरफ ही हमें ले जाते हैं ।
752. जीवन में एक इष्ट, एक सद्गुरु और एक मंत्र ही होना चाहिए ।
753. प्रभु हमारे क्या लगते हैं यह भाव हमारा दृढ़ और प्रबल होना चाहिए कि मेरे सब कुछ मेरे प्रभु ही हैं ।
754. प्रभु से कोई एक संबंध बनाए बिना अध्यात्म में हमारी प्रगति नहीं हो सकती ।
755. भटकने का नाम भक्ति नहीं है, प्रभु में अपने मन को अटका देने का नाम ही भक्ति है ।
756. हमारे पास जो भी वस्तु है वह भगवत् सेवा के लिए है, यह भक्तों का दृष्टिकोण होता है । भक्त अपना कुछ भी नहीं मानते ।
757. भक्त मानता है कि वह प्रभु का नौकर और माता की नौकरानी है ।
758. जहाँ का चिंतन होता है व्यक्ति वही खिंचा चला जाता है । इसलिए चिंतन प्रभु की श्रीलीलाओं का होना चाहिए तो हम प्रभु की श्रीलीलाओं में एक-न-एक दिन प्रवेश कर पाएंगे ।
759. जो भक्ति का दूसरों को दान करते हैं यानी दूसरों को भक्ति करने में लगाते हैं वे ही इस भूमंडल पर सबसे बड़े दानी होते हैं ।
760. भक्तों की लाज श्री ठाकुरजी बचाते आए हैं और सदैव बचाते रहेंगे ।
761. प्रभु भक्तों की विपत्ति को कभी नहीं भूलते हैं ।
762. हमारे आश्रय केवल और केवल प्रभु ही होने चाहिए ।
763. प्रभु ही हमारी चिंता और हमारी विपदा को दूर करते हैं ।
764. भक्तों के सहायक सदैव भगवान ही होते हैं ।
765. हमारे भजन में विघ्न न हो, यह व्यवस्था हमें करके रखनी चाहिए ।
766. प्रभु के प्रति हमारी अनन्य शरणागति होनी चाहिए ।
767. जो अनन्य भाव से प्रभु की शरणागति ग्रहण कर लेता है और एकमात्र प्रभु के प्रति समर्पित हो जाता है और एकमात्र प्रभु का ही जीवन में विश्वास रखता है उसके योगक्षेम का प्रभु जीवनभर वहन करते हैं ।
768. भक्ति मार्ग में प्रभु से अनन्यता और अपने स्वभाव में दीनता से ही प्रभु रीझ जाते हैं ।
769. अनन्यता का सच्चा अर्थ है कि जगत में एक मेरे प्रभु के अतिरिक्त मेरा अपना कोई भी नहीं है ।
770. प्रभु से बड़ा जगत में हमारा कोई हितैषी नहीं हो सकता ।
771. यह जीवन हमें प्रभु को प्राप्त करने के लिए ही मिला है ।
772. हमारे किसी भी कर्म के द्वारा प्रभु को कष्ट न हो, इसका सदैव हमें ध्यान रखना चाहिए ।
773. प्रभु हमारे किसी भी कर्म से अप्रसन्न नहीं होने चाहिए ।
774. हमें यह भाव हृदय में प्रगाढ़ रखना चाहिए कि हम कभी भी अकेले नहीं हैं, प्रभु सदैव हमारे साथ हैं ।
775. प्रभु की कृपा में कोई कमी नहीं है । पहली कृपा, प्रभु ने मनुष्य तन दिया है । दूसरी कृपा, प्रभु ने भारतवर्ष में जन्म दिया है । तीसरी कृपा, हमारे उद्धार के लिए प्रभु ने हमें श्रीग्रंथ और संत प्रदान किए हैं ।
776. हमारा कोई भी भाव जो अनन्यता को खंडित करता हो वह प्रभु के हृदय को वेदना देता है ।
777. अनन्यता का अर्थ है कि अन्य नहीं यानी अन्य का आश्रय नहीं, केवल और केवल प्रभु का ही एकमात्र आश्रय ।
778. प्रभु के रहते हमें कभी यह नहीं कहना चाहिए कि मेरा कौन है ?
779. प्रभु के रहते हमें कभी यह नहीं कहना चाहिए कि हमारा आगे क्या होगा । इससे प्रभु के प्रति हमारा अविश्वास झलकता है ।
780. भक्तिरूपी गंगा माता बहती हैं तो एक किनारा अनन्यता का होता है और दूसरा किनारा दीनता का होता है । दोनों किनारों के बीच ही भक्तिरूपी गंगा माता बहती हैं ।
781. भक्तों को प्रभु हर विपत्ति के सागर से बाहर निकाल लाते हैं ।
782. भक्ति को अनन्यता और दीनता पोषण देती है ।
783. प्रभु स्वामी हैं और जीव सदा से उनका दास रहा है ।
784. प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु अपने भक्तों को बहुत आदर देते हैं ।
785. भजन करते हुए भक्त के जीवन में ऐसी स्थिति आती है जब उसे पूरा संसार प्रपंच दिखाई देने लगता है और उसकी रुचि संसार से हट जाती है ।
786. भक्त की भगवत् उपलब्धि के आगे संसारी की संसार की उपलब्धि बहुत गौण है ।
787. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही आश्रय लेना चाहिए ।
788. भक्तों के मुँह से निकलने वाले हर वचन को प्रभु निभाते हैं ।
789. संसार के लोगों से कभी आशा नहीं रखनी चाहिए । आशा एकमात्र प्रभु से ही रखनी चाहिए ।
790. संसार में कोई भी अपना नहीं है, केवल प्रभु ही एकमात्र अपने हैं ।
791. जीवन के समुद्र में तूफान आते हैं पर जो श्रीहरि के सहारे हैं श्रीहरि उन्हें जीवन के तूफान से भी पार लगा देते हैं ।
792. जीना उन्हीं का सफल है जो भगवान के होकर जीवन जीते हैं ।
793. प्रभु भक्तों के सदा से सहायक रहे हैं और रहेंगे ।
794. पूर्व में कोई वैष्णव घर ऐसा नहीं होता था जहाँ भगवती माता तुलसीजी महारानी नहीं विराजती थीं । वैष्णव घर की पहचान ही ऐसे होती थी ।
795. प्रभु जो करें भक्त उसमें ही अपनी भलाई देखता है ।
796. जिन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों से प्यार है वे ही हमारे सच्चे रिश्तेदार होने चाहिए ।
797. प्रभु बिना हमारा दुःख सुनने वाला कोई भी नहीं है ।
798. प्रभु भक्ति के कारण भक्त के वश में रहने में अपना गौरव मानते हैं ।
799. भक्तों का भाव होता है कि जिन प्रभु ने आज तक निभाया है वे प्रभु आगे भी सदैव निभाएंगे ।
800. भक्तों की लाज रखने के लिए प्रभु अपना धाम छोड़कर अनेकों-अनेकों बार पृथ्वी पर आए हैं और आते रहेंगे ।