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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 18

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. भक्तों को प्रभु प्यारे होते हैं और प्रभु को अपने भक्त प्यारे होते हैं ।
002. ऐसा नहीं है कि प्रभु ने श्री अर्जुनजी की या श्री नरसीजी की ही गाड़ी चलाई है । अगर हम भी अपने जीवन रथ की बागडोर प्रभु को सौंप दें तो प्रभु वह चलाने को भी सहर्ष तैयार हैं ।
003. भक्ति परम स्वतंत्र साधन है । भक्ति को किसी अन्य साधन का सहारा नहीं लेना पड़ता । बाकी सभी साधनों को भक्ति माता का सहारा लेना पड़ता है ।
004. प्रभु की शरणागति बिना जीव का उद्धार कतई संभव नहीं है ।
005. हम एकमात्र प्रभु के ही हैं । यह विडंबना है कि हम अपने आपको संसार का, परिवार का मान बैठे हैं ।
006. जो सदा से हमारे हैं उन प्रभु से तो हम दूर रहते हैं और जो रिश्ते केवल इस जन्म के लिए हमें मिले हैं उनसे हम नजदीकियां बनाते हैं ।
007. पूरी श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार भगवत् शरणागति है ।
008. पूर्ण रूप से हमें प्रभु के शरणागत हो जाना चाहिए ।
009. इतनी विपत्ति में भी श्री नरसीजी का बाल भी बाँका प्रभु ने नहीं होने दिया ।
010. प्रभु की शरणागति लेने के लिए अभक्त का चित्त राजी नहीं होता, यह कितना बड़ा उसका दुर्भाग्य है ।
011. एक क्षण के लिए भी भक्त अपने मन से प्रभु का विस्मरण नहीं होने देता ।
012. भक्तों का चरित्र हमारे मन में प्रभु के प्रति हमारे विश्वास को सुदृढ़ करता है और हमें भक्ति की प्रेरणा प्रदान करता है ।
013. भक्त के बल तो भगवान ही होते हैं ।
014. आज तक प्रभु ने अपने किसी भक्त की लाज नहीं जाने दी जिसने प्रभु पर भरोसा किया हो ।
015. भक्त प्रेम से जहाँ पुकारते हैं, प्रभु वहीं पधारते हैं ।
016. प्रभु पर विपत्ति के समय तनिक भी अविश्वास नहीं होना चाहिए । विपत्ति से प्रभु ही निकालेंगे यह पूर्ण और निश्चित विश्वास सदैव होना चाहिए ।
017. प्रभु पर भरोसा सत्संग और कथा से पुष्ट होता है ।
018. प्रभु पर अपने भरोसे को कभी भी, किसी भी हालत में कमजोर नहीं होने देना चाहिए ।
019. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि संसार और परिवार में मोह सभी दुःखों का मूल है ।
020. अपनापन संसार और परिवार में न रखकर प्रभु में रखना चाहिए तभी हम जीवन में सुखी हो सकेंगे ।
021. भक्त का किया भजन ही उसका सच्चा धन होता है ।
022. प्रभु का भक्त विपत्ति में प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़े यह तो ठीक है पर अगर वह प्रभु को भूलकर दुनिया के पैर पकड़ता है तो प्रभु को अच्छा नहीं लगता ।
023. विपत्ति में संसार को भूलकर हमें सिर्फ प्रभु शरण में ही जाना चाहिए ।
024. प्रभु का नियम है कि जो केवल अनन्य भाव से प्रभु की शरण ग्रहण करता है प्रभु केवल उसी का योगक्षेम वहन करते हैं ।
025. प्रभु के शरणागत नहीं होना जीव की बड़ी भयंकर भूल होती है ।
026. प्रभु हमारी विपत्ति को जानते हैं पर शरणागत होने पर ही प्रभु उस विपत्ति से हमारी रक्षा करते हैं ।
027. जब तक हम विपत्ति में प्रभु के साथ दुनिया को भी पुकारते हैं तब तक प्रभु नहीं आते । जब हम सब भूलकर केवल प्रभु पर आश्रित होकर प्रभु को पुकारते हैं तो प्रभु आधे नाम पर ही आ जाते हैं ।
028. हम जब प्रभु की शरण होते हैं तो प्रभु की कृपा हमें अवश्य प्राप्त होती है । ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई शरणागत प्रभु कृपा से वंचित रहा हो ।
029. परम पवित्र भारत भूमि संतों की जननी सदा से रही है ।
030. पूरे ब्रह्मांड में प्रेम करने योग्य तो केवल प्रभु ही हैं ।
031. प्रभु के नाम में, श्रीलीला में, कथा में, भक्तों में, धाम में और श्रीग्रंथों में हमारी अटूट श्रद्धा होनी चाहिए और आदर बुद्धि होनी चाहिए ।
032. प्रभु से ही हमारे मन का संग होना चाहिए ।
033. हमें अपने मन को मनमोहन प्रभु में ही लगाना चाहिए ।
034. जो अपने मन को प्रभु में लगा चुका है वही‍ सच्चा साधु है फिर उसका बाहर से वेष कैसा भी हो सकता है ।
035. भक्तों को भविष्य की चिंता और परलोक की चिंता एकदम नहीं होती क्योंकि उन्हें प्रभु की कृपा पर अटूट भरोसा होता है ।
036. कामनाओं की पूर्ति में ही हम अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते हैं और मानव जीवन के उद्देश्य पूर्ति से हम चूक जाते हैं ।
037. हमें माया दास नहीं बल्कि प्रभु का दास बनकर जीवन गुजारना चाहिए ।
038. कलियुग की प्रधान भजन क्रिया का नाम जप है ।
039. मन बार-बार प्रभु को भूलकर इधर-उधर भागेगा, हमें उसी मन से बार-बार प्रभु को याद करना होगा ।
040. प्रभु में अपने मन को जोड़ने का नाम ही योग है ।
041. यह बात पक्की है कि प्रभु का आश्रय ग्रहण करने पर जीव का मंगल-ही-मंगल होगा, अमंगल तो कभी हो ही नहीं सकता ।
042. कर्म कभी भी अपने को कर्त्ता मानकर नहीं करना चाहिए ।
043. प्रभु भी अपने भक्तों से मिलने के लिए बेचैन रहते हैं इसलिए उनके जीवन में दुःख भेजकर उनके प्रारब्ध काटते हैं जिससे जल्दी-से-जल्दी उनका प्रभु से मिलन हो जाए ।
044. जिसने प्रभु का आश्रय ले रखा है उसे प्रभु कभी भी गिरने नहीं देते ।
045. भक्तों का प्रभु कभी पतन नहीं होने देते, उन्हें सदैव गिरने से पहले ही संभाल लेते हैं ।
046. प्रारब्ध को भोगते हुए भजन करने वाला प्रभु को प्रिय होता है और एक दिन ऐसा करते-करते वह प्रभु तक पहुँच जाता है ।
047. भजन मार्ग से भटकना नहीं है, इस मार्ग को कभी भूलना नहीं है ।
048. प्रभु की भक्ति करे बिना भक्तों से रहा नहीं जाता । ऐसी स्थिति जीवन में लानी चाहिए कि भक्ति बिना हम रह ही नहीं पाए ।
049. भक्ति हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए ।
050. हमारे रग-रग से भगवत् प्रेम बहना चाहिए ।
051. प्रभु की करुणा में और कृपा में कभी भी तनिक भी कमी नहीं होती है ।
052. किसी के दुःख को देखकर अगर हमारा हृदय नहीं पिघलता तो हमारा दुःख देखकर प्रभु भी द्रवित नहीं होते हैं ।
053. किसी का सहयोग करके हमारे मन में कभी अभिमान नहीं आना चाहिए ।
054. हमारे अंदर अभिमान आते ही हमने जो अच्छा किया है वह सब मिट्टी हो जाता है ।
055. जीव पर सबसे बड़ी दया उसे प्रभु से जोड़कर उसका कल्याण करने में होती है ।
056. इससे बड़ा उपकार किसी जीव पर हम क्या कर सकते हैं कि उस भूले-भटके जीव को प्रभु भक्ति के मार्ग पर ले आएं ।
057. भूखे को भोजन देने से कुछ देर की भूख मिटेगी, प्यासे को पानी पिलाने से कुछ देर की प्यास मिटेगी पर किसी को भगवत् भक्ति में लगा दिया तो उसका सदैव के लिए उद्धार हो जाएगा ।
058. भजन करने वाले को निंदा शून्य होना पड़ेगा यानी किसी की भी निंदा करने से बचना होगा क्योंकि सबमें उसके प्रभु का ही वास है ।
059. भक्त प्रभु से मांगता है कि प्रभु का यश सुनने के लिए उसके दस हजार कान हो जाए और प्रभु का यश गाने के लिए हजार जिह्वा हो जाए ।
060. जीवन की तृष्णा मिटानी है तो जीवन में कृष्णा-कृष्णा ही बोलना पड़ेगा, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
061. जीव को प्रभु की भक्ति में इतना रस आने लग जाता है कि उसके संसार के सारे स्वाद छूट जाते हैं ।
062. संसार का मोह छोड़ने का प्रयास नहीं करें, प्रभु से मोह करने लग जाए । इससे धीरे-धीरे संसार का मोह स्वतः ही खत्म हो जाएगा ।
063. प्रभु से मोह हो जाएगा तो जगत से स्वतः ही वैराग्य हो जाएगा, करना नहीं पड़ेगा ।
064. जो भीतर से साधु है वही असली साधु है ।
065. प्रभु के प्रति हमारी शरणागति होने में ही कमी है वरना प्रभु कृपा जीवन में क्या नहीं कर सकती ?
066. विपत्ति में भी प्रभु पर भरोसा रखना चाहिए कि जिन प्रभु ने आज तक बचाया है वे आगे भी बचाएंगे ।
067. हमारा हर कर्म प्रभु की सेवा और प्रभु की प्रसन्नता के लिए होना चाहिए ।
068. कोई अपनी कितनी भी चाहत करे पर होता वही है जो प्रभु चाहते हैं ।
069. भक्तों को जिताने में प्रभु को सदा ही आनंद आता है ।
070. जैसे भक्त प्रभु को पाकर स्वयं को धन्य मानता है वैसे ही प्रभु भी भक्तों को पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं ।
071. प्रभु में ही हमारा एकमात्र अपनापन होना चाहिए ।
072. प्रभु ही एकमात्र हमारे सर्वस्व होने चाहिए ।
073. इस जगत में हमारे अपने केवल प्रभु ही हैं ।
074. हमारे हृदय में कोई तनाव, कोई चिंता, कोई चर्चा नहीं रहे, केवल प्रभु ही रहें ।
075. प्रभु ही जीव को सभी विपत्तियों से उबारते हैं ।
076. प्रभु ही जीव के जन्मों-जन्मों की बिगड़ी बनाते हैं ।
077. प्रभु के द्वारा ही हमारे समस्त दुःखों का समाधान होता है ।
078. प्रभु के श्रीकमलचरणों के बिना हमारी कोई गति नहीं है ।
079. प्रभु के बिना हमारा कोई अपना नहीं है, भक्त के हृदय में यह भाव दृढ़ होता है ।
080. हमारे चित्त की चिंता और चंचलता दूर होने पर ही वह प्रभु योग्य बनेगा और प्रभु में लगेगा ।
081. प्रभु श्री हनुमानजी की महिमा इस बात से ही प्रकट होती है कि उनके निर्मल यश का बखान स्वयं प्रभु श्री रामजी अपने श्रीमुख से करते हैं ।
082. हमारे जीवन का सौभाग्य प्रभु के आशीर्वाद से ही है ।
083. प्रभु से मांगे की भक्ति और भजन से हमारी झोली भर दे पर हम संपत्ति और धन से अपनी झोली भरवाना चाहते हैं, यह हमारा दुर्भाग्य है ।
084. जहाँ-जहाँ प्रभु की कथा होती है प्रभु श्री हनुमानजी वहाँ-वहाँ बिना निमंत्रण के पहुँचते हैं क्योंकि वे बिना कथा के रह ही नहीं सकते ।
085. प्रभु के पास आशीर्वादरूपी सबसे बड़ी पूंजी होती है जो हमें नित्य प्रभु से जीवन में लेते रहना चाहिए ।
086. प्रभु को छोड़कर हम अन्यत्र जाएंगे तो दुःख के अलावा कुछ भी नहीं पाएंगे ।
087. प्रभु अपने भक्तों के दुःख देखकर पिघल जाते हैं और उनकी करुणा जागृत हो जाती है ।
088. प्रभु और प्रभु की भक्ति कभी तर्क का विषय नहीं होने चाहिए । ऐसा होता है तो वह बहुत बड़ा पातक है ।
089. जीवन में प्रभु का नाम जप शुरू हो जाता है तो पाप स्वतः ही हमें छोड़कर चले जाते हैं ।
090. प्रभु की कृपा के प्रमाणों से प्रभु के भक्तों का चरित्र भरा पड़ा है ।
091. प्रभु के भक्त जीवों को प्रभु की शरण में ले जाने का प्रयत्न करते हैं ।
092. प्रभु श्री हनुमानजी भक्तों के सबसे बड़े रक्षक हैं ।
093. श्री सुंदरकांडजी अपना श्रवण और पठन करने वाले के जीवन को ही सुंदर बना देता है ।
094. भक्ति जीव के अंतःकरण को सुंदर बना देती है । अंतःकरण की सुंदरता ही प्रभु को सबसे प्रिय है ।
095. भक्ति हमारे हृदय में भगवान को जागृत कर देती है ।
096. भगवत् प्राप्ति जीवन में करना है तो छोटे बनकर रहने पर ही यह संभव है ।
097. जो कार्य जगत में कोई नहीं कर सकता वह केवल और केवल प्रभु श्री हनुमानजी ही कर सकते हैं ।
098. प्रभु का विस्मरण जीवन में किसी भी अवस्था में कभी भी नहीं होने देना चाहिए ।
099. संतों ने बताया है कि जीव का स्वभाव है कि जब तक उसके जीवन में दुःख होता है वह प्रभु को याद करता रहता है ।
100. भक्ति को कभी भी कल पर नहीं टालना चाहिए ।
101. प्रभु के समक्ष सदैव हमारे जुड़े हुए हाथ होने चाहिए और सदैव हमारा झुका हुआ शीश होना चाहिए ।
102. प्रभु के श्रीकमलचरणों में जितना बैठेंगे उतनी ही आशीर्वादों की वर्षा हमारे ऊपर होगी ।
103. हमारे लिए प्रसन्नता होने पर प्रभु के आशीर्वाद प्रभु के हृदय से हमारे लिए तुरंत निकलते हैं ।
104. आज की शिक्षा पेट भरने की शिक्षा है, मनुष्य जीवन के उद्देश्य पूर्ति की शिक्षा नहीं है । यह हमारी शिक्षा प्रणाली का कितना बड़ा दोष है और हमारे बच्चों का कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
105. जो शिक्षा हमें परमात्मा की ओर और परमार्थ की ओर ले जाए वही सच्ची शिक्षा है ।
106. जब अभिमान का जीवन से त्याग होता है तभी भक्ति माता की जीव पर कृपा होती है ।
107. संसार से उपेक्षा मिलेगी तो ही प्रभु याद आया करेंगे, नहीं तो संसार ही याद आता रहेगा ।
108. प्रभु का जो चिंतन करता है प्रभु चलकर उसके द्वार चले आते हैं ।
109. अंतकाल में जीव के मुख से अगर प्रभु का नाम निकलता है तो वह कहीं नहीं रुकता, सीधा प्रभु के धाम को ही जाता है ।
110. भक्ति हमें पहले प्रभु के श्रीकमलचरणों में और फिर प्रभु की गोद में बैठा देती है ।
111. संत वही है जो हमारा तार प्रभु के संग जोड़ देता है ।
112. हमारी बुद्धि भोग, वासनारूपी अंधेरे की तरफ नहीं जानी चाहिए ।
113. भक्त के जीवन का हेतु ही प्रभु की भक्ति होती है ।
114. भक्ति के मार्ग पर पूरा समाज चले, यही भक्तों की चाहत होती है ।
115. प्रभु के लिए लिया हुआ नियम कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए ।
116. प्रभु ही भक्त की संभाल करते हैं । भक्तों को प्रभु ही संभाल कर रखते हैं ।
117. भक्ति को प्राप्त कराने वाला और प्रभु की शरण में ले जाने वाला कांड श्री सुंदरकांडजी है ।
118. हमें भगवान चाहिए या हमें भगवान से कुछ चाहिए, इन दोनों में कितना बड़ा फर्क है ।
119. जब हमें संसार व्यर्थ लगने लगेगा तो ही हम सार्थक प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हो पाएंगे ।
120. भजन क्रिया का नाम नहीं एक भाव का नाम है । भजन क्रिया के रूप में करेंगे तो आनंद नहीं आएगा पर भाव से किया जाएगा तो अति आनंद आएगा ।
121. हमें अपना जीवन प्रभु काज में अर्पण कर देना चाहिए ।
122. हम जो भी कर रहे हैं उससे प्रभु प्रसन्न हो रहे हैं क्या ? यह भक्त सदैव ध्यान रखता है ।
123. प्रभु श्री हनुमानजी की हर क्रिया ही प्रभु श्री रामजी का भजन है ।
124. संसार संघर्ष से मिलता है पर प्रभु समर्पण से मिलते हैं ।
125. प्रभु चाहिए तो सबसे पीछे हो जाएं क्योंकि प्रभु पीछे वालों को पहले देखते हैं ।
126. जीवन की वृत्ति शून्य करने से प्रभु मिलते हैं ।
127. जिसे संसार का गिला शिकवा याद रहता है उससे कभी भजन नहीं हो सकता ।
128. भक्ति के चिह्न ऊपर से धारण कर ले पर भीतर भक्ति न हो तो यह पाखंड है ।
129. भक्त उसे कहते हैं जो एक क्षण के लिए भी भगवान से विरक्त नहीं होता ।
130. सच्चा भक्त किसी भी प्रकार का प्रदर्शन करना तो दूर, प्रदर्शन की आकांक्षा भी नहीं रखता ।
131. भक्त को सदैव सोचना चाहिए कि प्रभु ने अपने कार्य का उसे वाहक बनाकर बड़ी कृपा की है । प्रभु के कार्य के लिए प्रभु द्वारा चुना जाना भक्त अहंकार के रूप में नहीं अपितु प्रभु की कृपा के रूप में लेता है ।
132. भक्त हमेशा मानता है कि वह भगवान के लिए ही है ।
133. प्रवचन बहुत आसानी से दिया जा सकता है पर उस प्रवचन पर स्वयं आचरण करना कठिन होता है ।
134. जब तक जीवन में ईर्ष्या है तब तक ईश्वर नहीं मिल सकते ।
135. भक्ति हमारे हृदय के भीतर से हमें प्रभु से जोड़कर प्रकाशित करती है ।
136. अभक्त भी पूजा करता है पर वह भोगों की प्राप्ति के लिए पूजा होती है जो हमें गिराती है ।
137. अपनी इंद्रियों को हम संसार में उलझाकर रखेंगे तो वह हमें बेचैन करके रखेगी । उन्हीं इंद्रियों को अगर हम प्रभु से जोड़ देते हैं तो ही हमें शांति मिलती है ।
138. भक्त कभी किसी का अहित नहीं कर सकता ।
139. विपत्ति भक्त के जीवन में उसे प्रभु का स्मरण करवाने और प्रभु का सानिध्य दिलाने के लिए ही आती है ।
140. जो प्रभु की इच्छा को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेता है उस पर प्रभु की कृपा बहुत जल्दी हो जाती है, यह सिद्धांत है ।
141. जब भक्ति प्रबल होगी तो प्रभु के अलावा हमारे मन को कोई भी नहीं भाएगा ।
142. संसार से ठोकर खाकर भी जो प्रभु के पास आता है प्रभु उसे भी प्रसन्नता से स्वीकारते हैं ।
143. शरण में आने वाले को प्रभु किसी भी सूरत में कभी भी नहीं त्यागते हैं ।
144. भक्त अपनी भक्ति को हमेशा छिपाकर ही रखता है ।
145. भक्ति गुप्त रहकर ही अच्छी तरह से होती है । भक्ति प्रकट नहीं होनी चाहिए, गुप्त ही रहनी चाहिए ।
146. भक्ति केवल भाव से ही होती है ।
147. साष्टांग दंडवत प्रणाम करने का अर्थ है हमारे छः अंग प्रभु को समर्पित हो जाए । यह छः अंग हैं पैर, हाथ, हृदय, आँखें, होंठ और सिर ।
148. भक्ति लोभ और भय से नहीं मिलती । भक्ति दीनता से, सिर झुकाने से, हाथ जोड़ने से, आंसुओं से और घुटने टेकने से मिलती है ।
149. भक्त प्रभु को इतना समर्पित हो जाता है कि वह अपनी आँखों से नहीं देखता, जो प्रभु दिखाते हैं वह देखता है । अपनी वाणी से नहीं बोलता, जो प्रभु बुलवाते हैं वह बोलता है । प्रभु जो करवाते हैं, वह करता है और प्रभु जिधर ले जाते हैं, उधर जाता है ।
150. हमारी गति प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है ।
151. हमारी वाणी, हमारी दृष्टि, हमारी करनी, हमारी मति सब कुछ प्रभु को समर्पित हो जानी चाहिए ।
152. भक्त अपनी प्रत्येक श्वास से भक्ति करता है । कोई भी श्वास भक्ति बिना व्यर्थ नहीं जाने देता ।
153. हर समय भक्त प्रभु की भक्ति में डूबा रहता है क्योंकि भक्ति कोई क्रिया नहीं, भक्ति एक भाव और एक दशा है । क्रिया थकाने वाली होती है पर भाव नित्य आनंद देने वाला होता है ।
154. प्रभु की कृपा चारों तरफ से सभी भक्तों के जीवन में बनी रहती है ।
155. भक्तों के जीवन में भी प्रारब्ध के कारण संकट आता है पर उस संकट से उबारने के लिए प्रभु पहले ही अपनी कृपा भेज देते हैं ।
156. जब भी प्रभु का नाम जीवन में छूट जाएगा तो जगत पीड़ा देने वाला बन जाएगा ।
157. भक्ति में इतना बल है कि माया उसके पास टिक ही नहीं सकती ।
158. प्रभु की कथा प्रभु की भक्ति को हमारे भीतर जागृत करके हमारे जीवन की व्यथा को दूर करती है ।
159. किसी की भक्ति को कभी भी डिगाना नहीं चाहिए, उसे सदैव बढ़ाने में सहायक बनना चाहिए ।
160. प्रभु श्री हनुमानजी के बल का एक अनुमान देखें जो संतों ने किया है । दस हजार हाथियों का बल एक दिगपाल में होता है । दस हजार दिगपालों का बल एक ऐरावत हाथी में होता है । दस हजार ऐरावत हाथियों का बल श्री इंद्रदेवजी में होता है । दस हजार श्री इंद्रदेवजी में जितना बल होता है उतना बल प्रभु श्री हनुमानजी के श्रीहाथ ‍की सबसे छोटी अंगुली के नख के अग्र भाग में है । प्रभु श्री हनुमानजी के पूरे बल का आप कैसे भी अनुमान ही नहीं कर सकते ।
161. संकट आने से पहले भक्त के जीवन में प्रभु की कृपा आकर खड़ी हो जाती है ।
162. जब रावण ने प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ में आग लगाने को कहा तो प्रभु श्री हनुमानजी ने मन-ही-मन प्रभु श्री रामजी का स्मरण किया कि लंका में आग लगाने की प्रेरणा भी आपने ही दी और उसके लिए घी, तेल का इंतजाम भी रावण से ही करवा दिया । फिर सब तरफ से वायु चलवा दी कि आग धधक उठे और इन सब का श्रेय अपने भक्त को दिला दिया ।
163. सच्चे सत्संग के प्रभाव से दुर्गुण छोड़ने का संकल्प मन में जग जाता है ।
164. अपने प्राण प्रभु के श्रीकमलचरणों में रख देने से कभी यमदूतों का भय जीवन में नहीं रहेगा ।
165. भक्त की रोती हुई पुकार प्रभु को एकदम सक्रिय कर देती है । प्रभु पुकार सुनकर द्रवित हो उठते हैं ।
166. जिधर धर्म होता है प्रभु उस पक्ष में होते हैं और प्रभु के साथ होने के कारण धर्म की सदा जय होती है ।
167. भक्ति माता का आशीर्वाद भगवत् प्रेम हमारे भीतर प्रकट करता है ।
168. प्रभु बुरे-से-बुरे जीव को भी अपनी शरण में लेने से कभी मना नहीं करते ।
169. सोते, उठते, बैठते, चलते, खाते प्रभु को याद करते रहे तो प्रभु भी हमें याद करेंगे ।
170. प्रभु श्री हनुमानजी श्रीरामदास होने का गौरव तो सदैव महसूस करते हैं पर इसका अभिमान अपने भीतर नहीं आने देते । यही उनकी महानता है ।
171. प्रभु की कथा श्रवण के लिए प्रभु श्री हनुमानजी प्रत्येक कथा में उपस्थित रहते हैं । यह उनका कितना बड़ा कथा प्रेम है ।
172. दीनता भक्ति माता के लिए सिंहासन है । जिन भक्तों में दीनता होती है भक्ति माता उनके हृदय में आकर विराजती हैं ।
173. भक्त हृदय में भगवान, भक्ति और भजन के अलावा कुछ हो तो वह शोभा नहीं पाता ।
174. प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय जीवन में होगा तो ही हमारा जगत में आचरण ठीक रहेगा ।
175. मनुष्य जन्म हो और मन एवं इंद्रियों का संयम न हो तो वह जीवन पशुतुल्य है ।
176. प्रभु को हमें केवल मंदिर में ही नहीं बल्कि सबके हृदय में अनुभव करना चाहिए ।
177. प्रभु किसी के कर्जदार नहीं रहते, हम थोड़ा-सा भी पुण्य करते हैं तो प्रभु ब्याज सहित हमारे जीवन में सुख, वैभव और अनुकूलता भेजकर उसे लौटा देते हैं । पर वे ही प्रभु कहते हैं कि प्रभु श्री हनुमानजी के ऋण से वे कुछ भी करके, कभी भी उऋण नहीं हो सकते ।
178. जो प्रभु को नहीं मानते और प्रभु का विरोध करते हैं, प्रभु इतने दयालु हैं कि उन्हें भी धूप, वायु और पानी देते हैं जिसके बिना वे जीवित भी नहीं रह सकते ।
179. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी के कितने बड़े सेवक हैं जो प्रभु उनसे कहते हैं कि वे उनकी सेवा द्वारा चढ़ाए ऋण से कभी और कुछ भी करके उऋण नहीं हो सकते ।
180. प्रभु श्री हनुमानजी ने पूर्ण निष्ठा के साथ प्रभु श्री सीतारामजी की सेवा की और बदले में कुछ भी नहीं चाहा । यही उनकी महानता है ।
181. जब प्रभु श्री रामजी ने प्रभु श्री हनुमानजी से कहा कि उनके कारण श्री सुग्रीवजी को किष्किंधा का पद, श्री विभीषणजी को लंका के राजा का पद और स्वयं प्रभु श्री रामजी को श्री अयोध्याजी के राजा का पद मिला पर प्रभु श्री हनुमानजी को कौन-सा पद मिला ? प्रभु श्री हनुमानजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया कि आप सबको मेरे कारण एक-एक पद मिला तो मुझे भी प्रभु श्री रामजी के दोनों श्रीकमलचरण पद मिले इसलिए वे दुगुने हर्षित हैं ।
182. भक्तों को प्रभु की सेवा के बदले कुछ नहीं चाहिए होता, उन्हें बस प्रभु की सेवा ही चाहिए होती है ।
183. संत कहते हैं कि भगवान भक्ताधीन होते हैं यानी भक्तों की अधीन होते हैं ।
184. बिना बोले एक अबोध बालक की जरूरत को संसार की एक माता समझती है तो क्या प्रभु हमारी जरूरत को बिना बोले नहीं जानते ?
185. भक्तों का कल्याण किसमें है यह केवल प्रभु ही समझते हैं ।
186. प्रभु के पास जाएं तो सदैव बालक बनकर ही जाएं ।
187. प्रभु के पास किसी भी चीज का, कैसा भी अभिमान लेकर कभी भी न जाए ।
188. प्रभु अंतर्यामी हैं और अपने भक्त के हृदय में उठने वाली हर भावना को समझते हैं ।
189. संसार में सबसे तेज गति प्रार्थना की है । वह हमारे हृदय से निकल कर मुँह तक पहुँचने से पहले ही प्रभु तक पहुँच जाती है ।
190. प्रभु की प्रार्थना की भाषा केवल भाव ही होने चाहिए ।
191. जब प्रार्थना में भाव के कारण आंसू जुड़ जाते हैं तो प्रभु भी द्रवित हो जाते हैं ।
192. हमें प्रभु की शरण में जाना चाहिए और प्रभु को ही अपना एकमात्र आश्रय मानना चाहिए ।
193. प्रभु इतने व्यापक हैं कि कोई समय और कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ प्रभु न हो । व्यापक का अर्थ ही है कि जिनका कभी भी, कहीं भी अभाव न हो ।
194. एक कस्बे में कई वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी तो सबने वर्षा के लिए यज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ की पूर्णाहुति के दिन उस कस्बे का एक बच्चा छाता लेकर यज्ञ के दर्शन करने गया । उस बच्चे को पक्का विश्वास था कि यज्ञ के बाद वर्षा होगी । यह विश्वास देखकर प्रभु रीझ गए और देवतागणों को आदेश दिया तो मूसलाधार वर्षा हुई ।
195. जब एक बच्चे के भाव को उसकी माता समझती है तो क्या एक भक्त के भाव को प्रभु नहीं समझते ? प्रभु अंतर्यामी हैं और भक्त हृदय में भाव प्रकट होने से पहले ही वे प्रभु तक पहुँच जाते हैं ।
196. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानसजी में जहाँ सत्संग शब्द का प्रयोग किया है वहाँ “सदा” शब्द साथ में लगाया है यानी सदा सत्संग होना चाहिए । उनका अभिप्राय यह है कि सत्संग नित्य और सदा होना चाहिए ।
197. भक्ति जैसे मूल्यवान साधन को रखने के लिए सत्संग एक तिजोरी है ।
198. हमें देखना पड़ेगा कि हम भगवान को चाहते हैं या हम भगवान से चाहते हैं । यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है जो हमें अपने आप से पूछना चाहिए ।
199. संत प्रभु के सद्गुणों को और अपनी दीनता दिखाते हुए अपने अवगुणों को प्रभु के समक्ष गाते हैं ।
200. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्री सुंदरकांडजी के आरंभ में प्रभु श्री रामजी से मांगते हैं कि भगवती सीता माता प्रभु श्री हनुमानजी को लंका में भक्ति का दान करें इससे पहले आप मुझे भक्ति का दान कर दें तो आपका यश माता से भी ज्यादा बढ़ जाएगा । प्रभु श्री रामजी ने पूछा कैसे ? तो गोस्वामीजी बोले कि माता तो सबसे सुपात्र भक्त प्रभु श्री हनुमानजी को भक्ति का दान करेगी पर आप तो सबसे कुपात्र गोस्वामीजी को उससे पहले ही भक्ति दान कर चुके होंगे । सब कहेंगे कि योग्य को देखकर तो सब देते हैं पर प्रभु श्री रामजी की उदारता देखें कि गोस्वामीजी जैसे अयोग्य को भी भक्ति का दान दे दिया ।
201. जैसे हमारी प्रभु से मांगों का कोई अंत नहीं है वैसे ही प्रभु की उदारता का भी कोई अंत नहीं है । हम उतना मांग ही नहीं सकते, मांगने की कल्पना भी नहीं कर सकते जितना प्रभु दे सकते हैं ।
202. प्रभु की कृपा कभी भी योग्य, अयोग्य का विचार नहीं करती, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
203. संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु के कृपा के नेत्र बंद होते हैं इसलिए उनकी कृपा योग्य और अयोग्य को नहीं देखती और सब पर बरसती है ।
204. सारे पापों को छोड़कर प्रभु की शरण में जाएं यह एक बात है पर प्रभु की शरण में जाने पर सारे पाप अपने आप छूट जाएंगे यह उससे भी बड़ी बात है ।
205. जीवन में सबसे महत्व की बात प्रभु की शरण में जाने की है ।
206. प्रभु अगर कहते कि सभी पापों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ तो भी कोई नहीं जाता क्योंकि पाप कर्म से हमारी प्रीति है । तभी प्रभु ने पहले कहा कि मेरी शरण में आओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा जिससे पापयुक्त जीवों के लिए भी शरणागति का मार्ग खुल जाए ।
207. भक्ति अपने पुरुषार्थ से नहीं मिलती, भक्ति केवल और केवल प्रभु की कृपा से ही मिलती है ।
208. मुक्ति दुर्लभ नहीं है पर भक्ति अति दुर्लभ है ।
209. संत कहते हैं कि प्रभु जिन पर अति कृपा करते हैं उन्हें ही प्रभु की भक्ति का दान प्रभु से मिलता है ।
210. प्रभु की कृपा अकारण होती है और योग्य और अयोग्य का विचार नहीं करती ।
211. प्रभु श्री हनुमानजी से श्रीराम भक्ति और प्रभु श्री रामजी के अतिरिक्त हम कुछ भी मांगेंगे तो वे दे देंगे पर देने पर भी उन्हें अच्छा नहीं लगेगा ।
212. प्रभु श्री महादेवजी करुणा की साक्षात मूर्ति हैं । उनमें करुणा सबसे ज्यादा उमड़ती है ।
213. प्रभु श्री हनुमानजी को प्रभु श्री रामजी से श्रीराम भक्ति के सिवा कुछ भी नहीं चाहिए ।
214. प्रभु श्री हनुमानजी ने अपने बल, बुद्धि और सारे सद्गुणों को श्रीराम काज हेतु अर्पित किया । आज संसार में बल, बुद्धि और गुण रखने वाले तो मिल जाएंगे पर उनमें कितने हैं जो उसका उपयोग प्रभु कार्य के लिए करना चाहते हैं ।
215. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु समर्पण के परिपूर्ण आदर्श हैं ।
216. जो जीवन में गिर जाता है पर सच्चा पश्चाताप करता है तो प्रभु उसे जरूर संभालते हैं ।
217. प्रभु श्री रामजी तक पहुँचने के लिए प्रभु श्री हनुमानजी की कृपा आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है ।
218. ईश्वर केवल मान्यता के विषय नहीं अपितु अनुभूति के विषय हैं ।
219. संसार के दुःख तो रहेंगे पर भजन करने पर हमारी मनःस्थिति बदल जाएगी जिससे वे दुःख हमें पीड़ा नहीं देंगे ।
220. संसार में मनुष्य बनकर अकारण नहीं आए हैं । मनुष्य बनकर जिन प्रभु प्राप्ति करने के लिए आए हैं वह नहीं की तो जीवन बेकार हो जाएगा ।
221. अंत समय प्रभु की स्मृति हो जाए इसका प्रयास जीवन भर प्रभु को याद करके सतत करना चाहिए ।
222. संसार में केवल प्रभु और प्रभु का नाम ही सत्य है बाकी सब स्वप्न की तरह मिथ्या है ।
223. प्रभु श्री रामजी जब प्रभु श्री हनुमानजी के गुण किसी से स्तुति में सुनते हैं तो वे प्रसन्न नहीं, अति प्रसन्न होते हैं ।
224. प्रभु श्री हनुमानजी श्री रामायणजी के सबसे बड़े वक्ता और सबसे बड़े श्रोता हैं ।
225. प्रभु श्री हनुमानजी से कोई उनका परिचय पूछे तो वे श्रीरामदास के रूप में ही सदैव अपना परिचय देते हैं ।
226. प्रभु श्री हनुमानजी श्रीराम सेवा और श्रीराम काज के लिए सदा तैयार और आतुर रहते हैं ।
227. नाम और नामी (प्रभु) कभी अलग नहीं है । जो नामी की शक्ति है वह सब नाम में होती है ।
228. प्रभु का नाम ही हमारी जिह्वा का सच्चा आभूषण है । इसलिए प्रभु श्री हनुमानजी ने श्रीराम नाम अंकित मुद्रिका को अपने श्रीमुख में जिह्वा पर रख लिया ।
229. बिना प्रभु नाम के हमारी वाणी की शोभा नहीं है ।
230. प्रभु भजन और प्रभु सेवा दोनों जीवन में होनी चाहिए ।
231. प्रभु का नाम भी जपना चाहिए और प्रभु का काम भी करना चाहिए ।
232. वास्तव में हमारा सच्चा नाता केवल प्रभु से ही है । हमें इसी शाश्वत संबंध को स्वीकार करना चाहिए पर हम संसार के माने हुए संबंध को ही स्वीकार करते हैं ।
233. मृत्यु बेला पर काम केवल प्रभु का नाम ही आएगा ।
234. भक्तों के लिए प्रभु कभी दुर्लभ नहीं होते ।
235. मृत्यु पर संसार से संबंध विच्छेद सुनिश्चित है इसलिए अपना संबंध प्रभु से जोड़ने में ही समझदारी है ।
236. भक्ति करना हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए ।
237. श्री जटायुजी ने अपने पंख श्रीराम कार्य में कटवाए और उनका पंख कटवाना सफल हो गया जब प्रभु ने उन्हें अपने धाम भेज दिया और उनकी सद्गति हो गई ।
238. जब श्री जटायुजी का प्रभु ने अपने श्रीहाथों से दाह संस्कार किया तो वहाँ उपस्थित श्री लक्ष्मणजी रो पड़े कि ऐसा भाग्य तो उनके पिता श्री दशरथजी को भी नहीं मिला ।
239. प्रभु श्री रामजी प्रभु श्री हनुमानजी का बखान अपने श्रीमुख से करते हुए कहते हैं कि उन्होंने बहुत बड़ा उपकार प्रभु पर किया है । प्रभु इसका बदला कैसे भी करके नहीं चुका सकते और प्रभु उनसे कैसे भी उऋण नहीं हो सकते । प्रभु बोले कि पूरे जगत में ऐसा कोई देव, मुनि, मनुष्य या अन्य कोई शरीरधारी नहीं है जो प्रभु श्री हनुमानजी जैसा उनका उपकारी हो । प्रभु बोले कि वे क्या प्रति उपकार करें और कैसे प्रभु श्री हनुमानजी की सेवा का उपकार चुकाए, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा । संत विनोद में कहते हैं कि प्रभु श्री रामजी प्रभु श्री हनुमानजी से इतना प्रेम करते हैं कि सदा के लिए उनके ऋणी बने रहना चाहते हैं ।
240. प्रभु सदा अपने सेवक से प्रेम करते हैं ।
241. हम प्रभु के भक्त बनकर अगर संसार में उसका प्रदर्शन करते हैं और वाहवाही लूटते हैं तो हम स्वयं के पुण्य वही खत्म कर लेते हैं । हमने अपने पुण्य को वाहवाही में भुना लिया ।
242. भक्ति को सदैव जगत से छुपाना चाहिए ।
243. अपने पाप को जगत के समक्ष प्रकट करने से पाप का नाश होता है और अपने पुण्य को जगत के सामने प्रकट करने से पुण्य का नाश होता है । इसलिए पाप के नाश के लिए अपने किए हुए पाप को जगत के सामने प्रकट करना चाहिए और पुण्य की रक्षा के लिए अपने किए हुए पुण्य को जगत से छुपाना चाहिए ।
244. भक्ति को बचाना चाहते हैं तो भक्ति को जगत के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए ।
245. एक संत का भाव है कि जब प्रभु श्री रामजी ने अपने श्रीमुख से प्रभु श्री हनुमानजी की प्रशंसा की तो प्रभु श्री हनुमानजी को पता था कि प्रशंसा से अभिमान आएगा और अभिमान गिराएगा । तो प्रभु श्री हनुमानजी ने सोचा कि गिरना ही है तो पहले ही प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर जाना चाहिए और रक्षा करें, रक्षा करें ऐसा कहकर वे प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों में गिर पड़े ।
246. प्रभु केवल अनुमान के विषय नहीं बल्कि अनुभव के विषय बनने चाहिए तभी हमारा कल्याण होगा ।
247. संसार की कोई भी समस्या भजन से या तो सुधर जाएगी या समाप्त हो जाएगी ।
248. प्रभु श्री रामजी से जब कोई जीव भक्ति मांगता है तो प्रभु श्री हनुमानजी बहुत राजी होते हैं और उसके पीठ पर हाथ रखकर कहते हैं कि प्रभु से यही मांगना चाहिए और उसकी सिफारिश प्रभु श्री रामजी से कर देते हैं ।
249. जो प्रभु श्री हनुमानजी की बात मानते हैं उन्हें प्रभु श्री रामजी अपना लेते हैं । श्री सुग्रीवजी ने बात मानी तो बालि को मारकर उन्हें अपनाया । श्री विभीषणजी ने बात मानी तो रावण को मारकर उन्हें अपनाया ।
250. प्रभु कार्य करने का उत्साह जीवन में सदैव होना चाहिए ।
251. बिना पाप को छोड़े पुण्य करना कोई सार्थक उपाय नहीं है । पुण्य करने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है पाप को छोड़ना ।
252. शांति के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, जो पाप कर्म हम कर रहे हैं उसे बंद करते ही शांति की अनुभूति होने लगती है क्योंकि शांति प्रभु का बनाया स्वभाव है, प्रभु का दिया उपहार है ।
253. शांति प्रभु का दिया हुआ हमारा स्वरूप है । इसलिए हमें 24 घंटे शांत रह सकते हैं । क्रोध हमारा स्वरूप नहीं है इसलिए कोई क्रोधी-से-क्रोधी जीव भी 24 घंटे क्रोध नहीं कर सकता ।
254. शांति में जो भी बाधक बातें हैं, चीजें हैं, उन्हें छोड़ना चाहिए ।
255. ब्रह्मांड में एकमात्र प्रभु ही सर्वसामर्थ्यवान हैं ।
256. प्रभु ने कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ा, हमने ही संसार की उठापटक में प्रभु का साथ छोड़ दिया है ।
257. संसार से भागने से भगवान नहीं मिलते । एक संत ने कहा है कि भगोड़े के लिए भगवान नहीं हैं । संसार से, धन से, जमीन-जायदाद से, परिवार से आसक्ति खत्म हो जाए तो हम जहाँ हैं, वहीं भगवान मिल जाएंगे ।
258. संत कहते हैं कि अंतःकरण से जागने वालों को ही श्रीजगदीश मिलते हैं ।
259. हमें अपने शत्रु काम, क्रोध, मद, लोभ से लड़ना चाहिए पर हम उन्हें भूलकर संसार से लड़ते हैं ।
260. हमें संसार से भागने की नहीं अपितु जागने की आवश्यकता है ।
261. संत कहते हैं न भोगना है, न भागना है, केवल जागना है ।
262. प्रभु प्रेमी के पास जाते हैं, अहंकारी के पास कभी नहीं जाते ।
263. हम संसार के भीतर रहे पर संसार हमारे भीतर नहीं रहना चाहिए ।
264. बाहर के शत्रु को जीते वह साधारण वीर है पर अपने मन के शत्रु को जो जीत ले वही सबसे बड़ा परमवीर है ।
265. प्रभु श्री हनुमानजी से जो कुछ भी मांगे वह मिलता है पर अगर उनसे हम प्रभु श्री रामजी की प्रीति मांगते हैं तो वे अत्यधिक प्रसन्न होते हैं ।
266. प्रभु श्री रामजी बालि से मैत्री करते तो बालि रावण को आदेश दे देता और रावण को बात माननी पड़ती । पर प्रभु श्री रामजी राजनीति से नहीं रामनीति से चलते हैं जो निर्बल का साथ देती है और अन्याय से सताए का साथ देती है जैसे उन्होंने श्री सुग्रीवजी का साथ दिया ।
267. निर्बल के बल तो प्रभु ही होते हैं पर अभिमानी की रक्षा प्रभु नहीं करते ।
268. अपनी अच्छाइयों का भी अभिमान सबसे बड़ी बुराई है ।
269. प्रभु चाहते हैं कि जीव किसी भी तरह प्रभु पर भरोसा करके प्रभु की शरण में आ जाए, यह प्रभु की कितनी अद्वितीय करुणा है ।
270. श्री सुग्रीवजी प्रभु पर भरोसा करने से पहले प्रभु की परीक्षा लेते हैं पर जीव का कल्याण करने के लिए कि जीव कैसे भी करके प्रभु पर भरोसा कर ले, जगत के मालिक प्रभु परीक्षा तक देते हैं । साधारण मालिक की भी अगर उसका कोई कर्मचारी परीक्षा ले तो मालिक रुष्ट होकर उसे नौकरी से निकाल देगा पर जगत के मालिक प्रभु ऐसा नहीं करते । यह उनकी कितनी अद्वितीय करुणा है ।
271. हमें देखना चाहिए कि जब हम प्रभु से बोलते हैं तो होठों से बोलते हैं या दिल से बोलते हैं ।
272. प्रभु के लिए हमारे हृदय में कभी भी अविश्वास का भाव नहीं होना चाहिए ।
273. श्री सुग्रीवजी में अनेक कमियां होते हुए भी प्रभु श्री रामजी ने उन्हें अपनाया क्योंकि प्रभु श्री हनुमानजी उनके पक्ष में थे, यही एकमात्र कारण था ।
274. जीव प्रभु को भूल जाता है पर प्रभु जीव को कभी नहीं भूलते ।
275. विषयी जीव का भरोसा प्रभु के ऊपर भी कायम नहीं रह पाता । एक-दो काम हुए तब तक भरोसा करेगा, तीन-चार काम नहीं हुए तो मंदिर जाना बंद कर देगा ।
276. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु श्री रामजी को लेकर श्री सुग्रीवजी के पास गए । वे श्री सुग्रीवजी को लेकर प्रभु के पास आ सकते थे पर प्रभु श्री हनुमानजी जानते थे कि श्री सुग्रीवजी अगर नाता जोड़ेंगे तो तोड़ भी सकते हैं पर अगर प्रभु नाता जोड़ेंगे तो कभी तोड़ेंगे नहीं ।
277. श्री अग्निदेवजी देवतागणों के मुख स्वरूप हैं इसलिए आहुति में जो भी श्री अग्निदेवजी को अर्पण होता है वह देवतागणों तक पहुँच जाता है ।
278. सद्गुरुदेव का यही कार्य है कि जीव का हाथ प्रभु को पकड़ा कर ब्रह्म-संबंध करवा दे ।
279. जीव को स्वयं को दास मानकर अपने आपको प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए ।
280. प्रभु ही सबके नाथ है तभी उन्हें श्रीजगन्नाथ कहा गया है ।
281. जैसे पंडितजी वधू का हाथ वर को सौंप देते हैं वैसे ही श्री सदगुरुदेव जीव का हाथ प्रभु को सौंप देते हैं ।
282. जीव के सच्चे स्वामी प्रभु ही हैं ।
283. जो प्रभु के भरोसे रहता है वह संसार सागर की बड़ी-बड़ी बाधाओं से पार हो जाता है ।
284. नागमाता सुरसा ने प्रभु श्री हनुमानजी से कहा कि आप बल और बुद्धि में निपुण है । सुरसा ने प्रभु श्री हनुमानजी का बल तब देखा जब वे अपना कद दुगुना करते गए और बुद्धि तब देखी जब वे लघु बन गए ।
285. सिंहिका को मारकर मानो प्रभु श्री हनुमानजी कहते हैं कि अब तक तो उसने उन जीवों की छाया पकड़ कर उन्हें गिराया और खाया जिन पर प्रभु के श्रीकरकमलों की छाया न थी । पर जिनके ऊपर प्रभु के श्रीकरकमलों की छाया होती है उनकी छाया को भी कोई नहीं पकड़ सकता और उन्हें कोई भी नहीं गिरा सकता ।
286. उदास और हताश लोगों में उत्साह भर देने का काम प्रभु श्री हनुमानजी करते हैं क्योंकि उनके उत्साह में कभी कोई कमी नहीं होती ।
287. प्रभु की करुणा याद करके भक्तों का हृदय गदगद हो जाता है और नेत्र सजल हो जाते हैं ।
288. जो प्रभु को भुला दे वह विपत्ति में रहता है और जिसे प्रभु भुला दें वह अति विपत्ति में पड़ जाता है । इसलिए हमारा आचरण ऐसा होना चाहिए कि प्रभु को हमारी याद निरंतर आती रहे ।
289. हम अपना मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में रख देते हैं तो हमारी हर बात की चिंता प्रभु करते हैं ।
290. जीवन में आराम चाहिए तो आ-राम की शरण में जाना पड़ेगा ।
291. प्रभु श्री हनुमानजी जैसा बड़भागी कोई नहीं और प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों का परम अनुरागी भी उनके जैसा कोई नहीं है । यह बात स्वयं प्रभु श्री महादेवजी ने भगवती पार्वती माता को कही है ।
292. प्रभु श्री हनुमानजी के प्रभु प्रेम और प्रभु सेवा का बखान बार-बार प्रभु श्री रामजी अपने श्रीमुख से करते हैं ।
293. जितना भक्त प्रभु को पाकर प्रसन्न होता है उससे कहीं ज्यादा प्रभु अपने भक्तों को पाकर प्रसन्न होते हैं ।
294. प्रभु श्री रामजी कहते हैं कि उनके पास वह धन नहीं है जिसे देकर वे प्रभु श्री हनुमानजी के ऋण से उऋण हो सकें ।
295. प्रभु श्री रामजी श्री अयोध्याजी की राज्यसभा में प्रभु श्री हनुमानजी से बोले कि प्रभु श्री हनुमानजी के कारण से श्री सुग्रीवजी को किष्किंधा का राज्यपद मिला, श्री विभीषणजी को लंका का राज्यपद मिला और स्वयं प्रभु श्री रामजी को श्री अयोध्याजी का राज्यपद मिला पर प्रभु श्री हनुमानजी को कोई भी पद नहीं मिला । प्रभु श्री हनुमानजी ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया कि सबको एक पद मिला है पर उन्हें प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों के रूप में दो-दो पद मिले हैं ।
296. जहाँ प्रभु हों वहाँ प्रभु की कथा हो यह जरूरी नहीं है पर जहाँ प्रभु की कथा होगी वहाँ प्रभु जरूर उपस्थित होंगे ।
297. जहाँ प्रभु के भक्त प्रभु श्री रामजी के सद्गुणों का गायन करते हैं वहाँ प्रभु श्री हनुमानजी सदैव उपस्थित रहते हैं ।
298. जो प्रभु की कथा निरंतर सुनेंगे उन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग हो जाएगा ।
299. हम अगर संसार के जंजालों से निकलकर प्रभु तक नहीं पहुँच सकते तो हमें प्रभु श्री हनुमानजी का आश्रय लेना चाहिए जिससे वे प्रभु श्री रामजी को हम तक ले आएंगे जैसे वे प्रभु को श्री सुग्रीवजी के पास ले गए थे ।
300. प्रभु के मंदिर में ऐसे दर्शन करना चाहिए कि मन प्रभु के लिए प्रेम भाव से भर जाए ।
301. भक्ति के बिना भगवान को देखेंगे तो भ्रम हो जाएगा, इसलिए प्रभु को जब भी देखें भक्ति के साथ ही देखें ।
302. जिनके हृदय में प्रभु बसते हैं उनको ही बाहर प्रभु के दर्शन होते हैं ।
303. भक्त और भगवान दोनों अपने को संसार से छिपाकर रखते हैं ।
304. जगत के मूल कारण एकमात्र प्रभु ही हैं ।
305. प्रभु के सानिध्य में रहने पर जीवन में कोई व्यथा ही नहीं बचती ।
306. प्रभु श्री हनुमानजी भक्तों को भगवान की कथा सुनाकर और भगवान को भक्तों की व्यथा सुना कर दोनों को जोड़ देते हैं ।
307. प्रभु श्री हनुमानजी का आश्रय लेने से जीवन में कल्याण होना सुनिश्चित है ।
308. जब तक प्रभु को हम बिके न थे तब तक कोई पूछता न था पर प्रभु ने खरीद कर हमें अनमोल कर दिया ।
309. चारों तरफ निराशा हो और किसी भी दिशा से आशा न हो तो भी ऐसी स्थिति से प्रभु हमें बचाकर निकाल लेते हैं ।
310. अपने मन को प्रभु का गुलाम बना देना चाहिए ।
311. भक्त प्रभु के पूरे स्वरूप का दर्शन करता है पर उसका मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही अटका रहता है ।
312. माया मोहित जीव के उद्धार का एकमात्र उपाय प्रभु की भक्ति ही है ।
313. जैसे अबोध बच्चा माता के भरोसे सदैव निश्चिंत रहता है वैसे ही भक्त प्रभु के भरोसे सदैव निश्चिंत रहता है ।
314. जैसे बालक को गोद में लेकर माता चलती है तो बालक को चलना नहीं पड़ता फिर भी वह पहुँच जाता है वैसे ही प्रभु की कृपा हमें प्रभु तक पहुँचा देती है ।
315. जिस-जिस पर हम संसार में विश्वास करेंगे वे ही हमें एक दिन निराश करेंगे, इसलिए विश्वास केवल प्रभु पर ही करें ।
316. श्रीहरि सुमिरन ही जीवन का एकमात्र सार है ।
317. प्रभु के भरोसे हम सदा शान से जीवन जी सकते हैं ।
318. प्रभु श्री हनुमानजी के प्रेम और सेवा की सराहना प्रभु श्री रामजी बार-बार अपने श्रीमुख से करते ही रहते हैं ।
319. सदगुरुदेव जीव का नाता प्रभु से जोड़ देते हैं ।
320. कुसंग हमारे मन को संसार से बांधता है और सत्संग हमारे मन को प्रभु से जोड़ता है ।
321. लोग हमसे पूछते हैं कि हमारा व्यापार कितना है पर कोई यह नहीं पूछता कि हमारा प्रभु से प्रेम कितना है ।
322. जगत में लोग हमारे क्या लगते हैं यह हमें पता है पर प्रभु हमारे क्या लगते हैं इस प्रश्न के उत्तर में हम मौन हैं ।
323. भक्त प्रभु से कहता है कि प्रभु आप दानी हैं तो हम भिखारी हैं, प्रभु आप दयालु हैं तो हम दीन हैं, प्रभु आप पापहारी हैं तो हम पापी हैं, प्रभु आप नाथ हैं तो मेरे जैसा अनाथ कोई नहीं है ।
324. प्रभु अनाथों के नाथ हैं । इसलिए किसी भी परिस्थिति में अपने को अनाथ या अकेला नहीं मानना चाहिए ।
325. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने प्रभु को बहुत सारे नाते गिनाए और कहा कि उनसे नाता मानने में चूक हो सकती है या वे नाते को भूल सकते हैं । पर प्रभु अगर एक नाता उनसे जोड़ते हैं तो प्रभु से कभी भूल नहीं होगी और प्रभु सदैव उस नाते को निभाएंगे ।
326. प्रभु से हमारा कोई भी नाता जुड़ जाए, प्रभु हमें अपना कुछ भी मान लें तो हमारा कल्याण हो जाएगा ।
327. प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपना मस्तक रखने के बाद हमें किसी भी बात की चिंता नहीं रहती ।
328. माया हमें दुःख में सुख दिखाती है और बड़ों-बड़ों को अपना गुलाम बनाती है ।
329. जो अपना बल भूल सकेगा उसे ही भगवान का बल याद रहेगा ।
330. यह सिद्धांत है कि अंतर्मुखी सदा सुखी होता है और बहिर्मुखी सदा दुःखी होता है ।
331. जगत को देखने के लिए आँखें खोलनी पड़ती है पर परमात्मा को देखने के लिए आँखें बंद करनी पड़ती है ।
332. विश्वास पूर्वक प्रभु को मानना हमें भक्ति सिखाती है ।
333. भक्ति और भगवान में कोई भेद नहीं है ।
334. भगवान को खोजने वाले शांति प्राप्त करते हैं और संसार को खोजने वाले अशांति प्राप्त करते हैं ।
335. प्रभु की कृपा कभी भी भक्तों को डूबने नहीं देती ।
336. हम कभी अपने पुरुषार्थ से संसार सागर पार नहीं कर सकते । हम केवल प्रभु कृपा से ही संसार सागर पार कर सकते हैं ।
337. प्रभु के शरणागत को कभी कोई चिंता नहीं होती ।
338. भक्ति करके प्रभु की तरफ बढ़ने वाला फिर संसार में कभी नहीं लौटता ।
339. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों की कृपा छाया में सदैव रहना चाहिए ।
340. हमें प्रभु के भरोसे ही जीवन में रहना चाहिए ।
341. प्रभु को अपना संचालक मानना चाहिए और स्वयं को प्रभु का केवल यंत्र मानना चाहिए ।
342. अपने जीवन को एक पतंग बनाना चाहिए जिसकी डोर प्रभु को संभालने देना चाहिए ।
343. जीवन का लक्ष्य माया यानी धन नहीं बल्कि मायापति यानी प्रभु होने चाहिए ।
344. जीव की प्रशंसा उसकी भक्ति को बाधित करके उसे प्रभु तक नहीं पहुँचने देती । इसलिए हम बड़े भक्त हैं इस प्रशंसा से भी बचना चाहिए तभी भक्ति मार्ग में सफलता मिलेगी ।
345. बड़ा बनकर प्रशंसा से कोई नहीं बच पाया है । प्रशंसा से बचना है तो लघु होना पड़ेगा । प्रशंसा से नहीं बचेंगे तो अभिमान पनपेगा जो हमें प्रभु से दूर कर देगा ।
346. हमारे अपने भी अपने नहीं हैं क्योंकि सच्चे अपने तो केवल प्रभु ही हैं ।
347. प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देने का नाम ही भक्ति है ।
348. जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रभु की इच्छा सर्वोपरि माननी चाहिए ।
349. संत कहते हैं कि जो जीवन भर भक्ति करता है और जीवन की अंतिम अवस्था में प्रभु का नाम लेकर मर जाता है वही दुनिया में अपना नाम अमर कर जाता है ।
350. संसारी को सांसारिक कामकाज से फुर्सत नहीं होती है और भक्तों को श्रीराम काज से फुर्सत नहीं होती है ।
351. भगवती गंगा माता को देखकर प्रभु के श्रीकमलचरणों की याद आनी चाहिए क्योंकि उनका उद्गम वहीं से हुआ है ।
352. प्रभु अपने भक्तों को क्षण भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते और सदा उनके साथ रहते हैं ।
353. प्रकृति को देखकर और उसकी सुंदरता को देखकर उसके रचनाकार प्रभु की याद आनी चाहिए ।
354. एक संत कहते हैं कि पृथ्वी माता पर पाप मिटाने हेतु प्रभु अवतार नहीं लेते । क्या पाप में इतनी शक्ति है कि प्रभु को बुला ले ? प्रभु अपने भक्तों के लिए आते हैं क्योंकि केवल भक्ति में ही इतनी शक्ति है कि वह प्रभु को भी आकर्षित कर लेती है ।
355. सदैव यह ध्यान में रखें कि प्रारब्ध के ऊपर परमात्मा हैं इसलिए जब परमात्मा कृपा करते हैं तो प्रारब्ध शांत हो जाते हैं ।
356. अपनी प्रशंसा सुनकर अभिमान से भर जाने वाला अपने अभिमान के कारण भगवान की कृपा को भूल जाता है ।
357. जब हमारे अच्छे दिन आते हैं तो ही हमें अच्छी बातें सुहाती है अन्यथा नहीं सुहाती ।
358. जब मन अभिमान से भरता है तो मनुष्य को प्रभु का अनुग्रह नहीं दिखता, अपनी विशेषताएं ही दिखाई देती है ।
359. प्रभु की कृपा के किले में बैठने से हम सभी विपत्तियों से बच जाते हैं ।
360. प्रभु की माया विश्वमोहिनी है यानी विश्व को मोहित करने वाली है ।
361. प्रभु श्री हनुमानजी को महाप्रभु भी कहते हैं । सारा संसार जिनके वश में हो वे प्रभु श्री रामजी और ऐसे प्रभु जिनके वश में हो वे महाप्रभु श्री हनुमानजी ।
362. प्रभु श्री रामजी प्रभु श्री हनुमानजी को स्वयं से भी अधिक प्रेम और मान देते हैं ।
363. अंत समय में केवल और केवल प्रभु का नाम ही काम आता है ।
364. प्रभु श्री हनुमानजी से बड़ा बड़भागी कोई नहीं है और न ही उनके समान कोई प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों का अनुरागी है ।
365. सारा संसार प्रभु श्री रामजी के गुणों का गान करता है और प्रभु श्री रामजी प्रभु श्री हनुमानजी के गुणों का बखान अपने श्रीमुख से करते कभी थकते नहीं ।
366. भक्ति माता अति लघु बनने पर ही मिलती है । प्रभु श्री हनुमानजी ने लघु रूप धारण करके भक्ति स्वरूपा भगवती सीता माता को लंका में खोजा तब माता मिली ।
367. 20 किलोग्राम मिट्टी की रेत में 5 किलोग्राम चीनी मिला दे फिर किसी बड़े पहलवान को भी बुला ले तो भी वह उन्हें अलग नहीं कर सकता । पर लघु चींटी उन्हें बिना परिश्रम के अलग कर देती है और चीनी को मिट्टी से निकाल लेती है । वैसे ही लघु बनने से हम संसार की धारा में उपलब्ध भक्ति की धारा को निकाल सकने में सफल होते हैं यानी संसार में रहकर भी भक्ति करने में सफल होते हैं ।
368. जब प्रभु श्री हनुमानजी से किसी ने पूछा कि आप प्रभु की मुद्रिका लेकर गए थे तो प्रभु श्री हनुमानजी ने जवाब दिया कि प्रभु की मुद्रिका में अंकित श्रीराम नाम ही उन्हें लेकर गया था ।
369. जो सुबह जागकर प्रभु का भजन करे वही सच्चा जगा हुआ है अन्यथा जागने पर भी वह सोया हुआ ही है ।
370. हमारी आँखों के अश्रुओं के बिंदु दीनदयाल प्रभु के हृदय को द्रवित कर देते हैं ।
371. जिस जीव में कुछ भी विशेषताएं दिखाई देती है वह प्रभु की कृपा के कारण ही होती है । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
372. प्रभु की कथाएं पहले भी होती थी जिसमें व्यक्ति माध्यम होता था प्रभु की भक्ति के प्रचार के लिए । पर आज दुर्भाग्य से व्यक्ति ने कथा द्वारा प्रभु को माध्यम बना लिया स्वयं के प्रचार के लिए ।
373. पहले कथाओं में प्रभु मुख्य होते थे पर आज हमने कितना बड़ा आयोजन किया इस कारण हमारा अभिमान मुख्य हो जाता है ।
374. जैसे भोजन नहीं मिलने पर शरीर दुर्बल हो जाएगा वैसे ही सत्संग नहीं मिलने पर मन दुर्बल हो जाएगा और विकारों से भर जाएगा ।
375. सत्संग से हमारे मन को बल मिलता रहता है ।
376. जैसे संसारी के लिए संसार आवश्यक है उससे भी कहीं ज्यादा वैष्णव के लिए सत्संग रोजाना मिलना आवश्यक है ।
377. तन को रोग लगे तो एक जन्म नष्ट होगा पर मन को रोग लग जाए तो कितने ही जन्म नष्ट हो जाएंगे ।
378. हमारे चिंतन का विषय प्रभु के श्रीयुगलचरण ही होने चाहिए ।
379. अन्य युगों की अपेक्षा प्रभु कलियुग में बहुत कृपा करते हैं । कलियुग में सीमित साधन के बल पर भी भक्तों ने प्रभु की बहुत कृपा अर्जित की है ।
380. हमें अपने चिंतन को कभी बिगड़ने नहीं देना चाहिए ।
381. प्रभु अपने भक्तों के लिए अति सहायक बन जाते हैं ।
382. प्रभु अपने भक्तों के सदैव सन्मुख रहते हैं ।
383. मैं और मेरा यह बंधन है । तू (प्रभु) और तेरा (प्रभु का) यह मुक्ति है ।
384. जब कोई भक्ति मार्ग में बढ़ता है तो उसे भगवत् प्रेरणा प्राप्त होती रहती है ।
385. प्रभु अपने भक्तों को प्रेम दान और कृपा दान करते हैं ।
386. जैसे एक माता की ममता अपने पुत्र में होती है वैसे ही प्रभु की ममता अपने भक्तों में होती है ।
387. भक्तों का चरित्र सुनने से प्रभु के स्वभाव का बोध होता है कि प्रभु अपने भक्तों के प्रति कितने दयालु और कृपालु हैं ।
388. प्रभु का दीनबंधु वाला स्वभाव है यानी दीनों पर अकारण कृपा करने वाला स्वभाव है ।
389. भक्तों का चरित्र सुनने से प्रभु की करुणा का दर्शन होता है जो हमारी भक्ति के पोषण के लिए संजीवनी का काम करती है ।
390. प्रभु को अनिवेदित वस्तु कभी भी ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।
391. श्री भक्तमालजी में वर्णित कितने ही भक्त केवल प्रसाद भक्ति करते थे यानी प्रभु को निवेदित किए बिना कुछ ग्रहण नहीं करते थे और उसी प्रसाद भक्ति ने ही केवल उन्हें तार दिया ।
392. हम प्रभु से बेटा-बेटी मांगते हैं पर कितने होंगे जो प्रभु से भगवत् भक्त अपने घर में जन्म ले, यह मांगते हैं ।
393. माता-पिता को अपने बच्चों को भक्ति के संस्कार जरूर देने चाहिए ।
394. भक्ति के कारण भक्तों के भाव की सदैव जीत होती है ।
395. हमें अपने घर की ठाकुरबाड़ी में प्रभु विग्रह को साक्षात प्रभु ही मानना चाहिए ।
396. प्रभु के विग्रह को मूर्ति या धातु माना तो यह एक बहुत बड़ा सेवा अपराध है, ऐसा शास्त्रों में वर्णित है ।
397. प्रभु की भक्ति में केवल भाव के कारण ही हमें फल मिलता है ।
398. भक्त प्रभु के भरोसे अपना जीवन गुजारते हैं ।
399. प्रभु के सच्चे भक्तों को पग-पग पर प्रभु का सहारा मिलता रहता है ।
400. भक्तों ने अनुभव किया है कि जब संसार के सब द्वार बंद मिलते हैं तो प्रभु का द्वार सदैव खुला मिलता है ।
401. प्रभु के भक्तों को प्रभु का सहारा मिलता रहता है । इस ओर चलो, इस ओर बचो यह इशारा मिलता रहता है ।
402. प्रभु कलियुग में भी आने के लिए प्रेमी का घर ढूंढते हैं और उन्हें सेवा का सुअवसर देते हैं ।
403. भक्त भगवान का दास है, यही उसकी एकमात्र पहचान है ।
404. भक्त भक्ति की जिस अंतिम अवस्था में पहुँच जाते हैं वहाँ नियम छूट जाते हैं क्योंकि नियम की पहुँच वहाँ तक नहीं होती । प्रभु श्री जगन्नाथजी ने एक साधु द्वारा दिए भगवती करमा बाई को स्नान और संध्या के नियम को कहकर वापस छुड़वाया ।
405. सच्चा भक्त सदैव गोपनीय भक्ति करना पसंद करता है । वह भक्त के रूप में विख्यात होना नहीं चाहता ।
406. जीवन का हर कार्य करते हुए उसका लक्ष्य भगवत् प्रसन्नता होना चाहिए ।
407. प्रभु भक्त प्रेम के वशीभूत होकर प्रकट हो जाते हैं ।
408. कंचन, कामिनी और कीर्ति संसारी पर हावी ही रहती हैं पर जो भक्ति करता है उस भक्त की भक्ति इन तीनों पर हावी हो जाती है और इनसे अपने भक्त की रक्षा करती है ।
409. जिसको प्रभु की चाह के अलावा अन्य कोई सांसारिक चाह नहीं है उसे संतों ने धरती का सच्चा शहंशाह बताया है ।
410. भक्ति की महिमा देखें कि प्रभु भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर उसके पीछे-पीछे चलते हैं ।
411. भक्त कभी भी प्रभु से किसी भी बात की शिकायत नहीं करता । भक्त कभी भी अभाव की शिकायत नहीं करता । शिकायत तो संसारी ही करते हैं ।
412. भक्त प्रभु से कहता है कि जो आपकी मर्जी हो वैसा ही उसके जीवन में होता रहे, इसी में उसे आनंद है ।
413. निष्काम भक्त प्रभु को सबसे ज्यादा प्यारे होते हैं ।
414. जो अनन्य भाव से प्रभु की शरणागति ले लेता है उसके योगक्षेम का वहन प्रभु करते हैं । यह श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु की प्रतिज्ञा है ।
415. भक्तों के मुख से हम भगवान की महिमा तो सुनते ही हैं पर प्रभु भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं क्योंकि वे भी अपने श्रीमुख से भक्ति और भक्त की महिमा का बखान करते कभी नहीं थकते ।
416. अपनी भक्ति में दाग न लग जाए इसलिए निष्काम भक्त जीवन में बड़े सावधान रहते हैं ।
417. प्रभु कहते हैं कि निष्काम भक्त प्रभु की इतनी भक्ति करते हैं पर बदले में कुछ लेते नहीं इसलिए प्रभु कहते हैं कि उन निष्काम भक्तों का ऋण प्रभु अपने ऊपर मानते हैं ।
418. निष्काम भक्ति ही सर्वोपरि है । प्रभु से भक्ति के एवज में कुछ चाहना भक्त की दृष्टि में प्रभु की कृपा का मूल्यांकन करना है, जो की एक परम अपराध है ।
419. भक्त हर अवस्था में प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही अपना ध्यान लगाकर रखता है ।
420. भक्तों के हृदय में भक्ति की प्रेरणा भी भगवान ही देते हैं ।
421. प्रभु अपने निष्काम भक्तों से यहाँ तक मनुहार करते हैं कि मेरा मन रखने के लिए, मेरी गरिमा रखने के लिए ही सही कुछ तो मांग लो ।
422. प्रभु सदैव अजीत हैं पर सदैव अपने भक्तों से हारने में आनंद मनाते हैं । अजीत प्रभु अपने भक्तों से हारते आए हैं ।
423. प्रभु का भी अपने भक्तों के साथ श्रीलीला किए बिना मन नहीं भरता ।
424. भक्त के भोले और निष्कपट भाव के कारण उन्हें प्रभु की कृपा प्राप्त होती है ।
425. तमाम जगत स्वार्थ का है, अंत समय कोई काम आने वाला नहीं है । एकमात्र सहायक श्रीहरि का नाम है और अंत का साथी भी एक प्रभु का नाम ही है ।
426. प्रभु कहते हैं कि एक बार अपने जीवन की रखवाली प्रभु पर छोड़ कर तो देखें एक बाल भी बाँका नहीं होगा ।
427. यथार्थ यश भजनानंदी होने का यश है यानी भक्त होने का यश ही सच्चा यश है ।
428. प्रभु की कृपा सभी जाति और सभी वर्णों पर समान रूप से होती है इसलिए हर जाति, हर कुल, हर युग और हर वर्ण में पूर्व में भी भक्त हुए हैं, वर्तमान में भी हैं और आगे भी होते रहेंगे ।
429. प्रभु की कृपा प्राप्त करने का एकमात्र हेतु प्रभु की भक्ति होती है ।
430. केवल एक भक्ति के नाते को ही प्रभु मानते हैं ।
431. प्रभु को भज कर ही प्रभु का हुआ जा सकता है ।
432. प्रभु की भक्ति ही एकमात्र है जो प्रभु के श्रीकमलचरणों तक हमें पहुँचा सकती है । अन्य कोई साधन ऐसा नहीं कर सकता ।
433. प्रभु का एक नाम अच्युत है । संत कहते हैं कि प्रभु जीव पर कृपा करने से कभी भी चूकते नहीं इसलिए उनका नाम अच्युत है यानी जो चूके नहीं उसे अच्युत कहते हैं ।
434. भक्ति की हानि कभी भी नहीं होने देनी चाहिए ।
435. प्रभु भक्त के हित के लिए कल्पवृक्ष हैं, ऐसा सभी भक्तों का अनुभव रहा है ।
436. प्रभु को अपने भक्तों की रुचि अपनी रुचि से भी अधिक प्रिय लगती है ।
437. शास्त्रों में प्रभु की भक्ति करने की ही आज्ञा है ।
438. प्रभु के लिए आँखों में प्रेमाश्रु आए यही तो प्रभु की सबसे बड़ी कृपा है ।
439. प्रभु अपने भक्तों की प्रेम डोर के बंधन को स्वीकार करते हैं और उस प्रेम डोर को कभी नहीं तोड़ते ।
440. जैसे गौ-माता को अपना बछड़ा सबसे प्रिय होता है और गौ-माता उनके पीछे चलती हैं वैसे ही प्रभु को अपने भक्त सबसे प्रिय होते हैं और प्रभु अपने भक्तों के पीछे-पीछे सदा रहते हैं ।
441. संसार में आकर भक्त बनना सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
442. शास्त्रों में भक्ति महिमा प्रभु अपने श्रीमुख से गाते हैं ।
443. इस जगत में एक प्रभु ही प्रेम करना जानते हैं और इस जगत में एक प्रभु ही प्रेम करने योग्य है ।
444. प्रभु श्रीमद् भागवतजी महापुराण में भक्तों को अपना मुकुट नहीं बल्कि मुकुट में लगने वाली बहुमूल्य मणि यानी मुकुटमणि बताते हैं और स्वयं को भक्त का दास कहलाना पसंद करते हैं । इतना मान और बड़ाई प्रभु अपने भक्तों को देते हैं ।
445. प्रभु कहते हैं कि जो भक्त मुझे भजते हैं, मैं भी उन भक्तों को भजता हूँ ।
446. जितना प्रेम प्रभु अपने भक्तों से करते हैं उतने प्रेम की मिसाल संसार में कहीं भी नहीं मिलेगी । न उतना प्रेम माँ अपने पुत्र से करती है और न ही गौ-माता इतना प्रेम अपने बछड़े से करती है । इसलिए प्रभु और भक्तों का प्रेम उपमा रहित है ।
447. भक्त अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित कर देता है ।
448. सभी भक्त चरित्र भक्ति से ओत-प्रोत मिलते हैं ।
449. प्रभु निष्ठा जीव का बहुत बड़ा परिचय होती है । यह जीव प्रभु-निष्ठ है इतना कहना ही उसका पर्याप्त परिचय है क्योंकि यही सबसे बड़ा परिचय है ।
450. अपने शीश को प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए जिससे वह निरंतर प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुका ही रहे ।
451. अपना हृदय भक्ति से पवित्र करके प्रभु के वास करने योग्य बनाना चाहिए ।
452. प्रभु निष्ठा हमें प्रभु का अनुभव करवा देती है ।
453. अगर भक्ति नहीं है तो यथार्थ में तो क्या, सपने में भी प्रभु मिलने वाले नहीं हैं ।
454. प्रभु के प्रति हमारी निष्ठा की परीक्षा समय लेती है जिसमें अगर हम उत्तीर्ण हो जाते हैं तो प्रभु हमें सुलभ हो जाते हैं ।
455. भक्ति हमें संसार के अंधकार से अध्यात्म के प्रकाश की ओर ले जाती है ।
456. भक्ति हमारे अंतःकरण को प्रकाशित करती है ।
457. मंदिर में हमें प्रभु की मूर्ति की जगह प्रभु की सूरत दिखाई देनी चाहिए ।
458. भक्तों ने प्रभु को प्रगट करके प्रभु का लाड़ किया है ।
459. सच्चे सद्गुरु वे ही हैं जो श्रीहरि से मिला दे ।
460. प्रभु प्रसाद को अन्न मानना, प्रभु के विग्रह को पत्थर मानना, प्रभु के चरणामृत को जल मानना और प्रभु के नाम और मंत्र को शब्द मानना, ये सभी शास्त्र अपराध माने गए हैं ।
461. जिसको भक्ति मार्ग का प्रगाढ़ अनुभव हो वही सच्चा संत होता है ।
462. प्रभु के किसी भी स्वरूप में भेदभाव नहीं करना चाहिए । ऐसी भेद बुद्धि शास्त्रों के अनुसार अपराध है ।
463. सभी भगवत् स्वरूप हमारे इष्टदेव के ही स्वरूप हैं, सदैव यही भाव हृदय में रखना चाहिए ।
464. नाम निष्ठा और श्रीग्रंथ निष्ठा से जीव का कल्याण होता है ।
465. संसार के हर व्यवहार का हेतु स्वार्थ होता है । प्रभु ही केवल हमसे निःस्वार्थ व्यवहार करते हैं ।
466. जो कर्म अन्य युगों में पाप माने जाते थे, कलियुग का विचित्र प्रभाव देखें कि वे कलियुग में पाप नहीं माने जाते ।
467. भक्त कभी भी किसी को, यहाँ तक कि जीव-जंतु को भी कभी कष्ट नहीं पहुँचाते ।
468. संसार को तो राजा युद्ध करके जीत लेते हैं पर अपनी इंद्रियों को जीत पाना ही शास्त्रों में सच्ची विजय मानी गई है । यह विजय केवल भक्ति से ही संभव है ।
469. प्रभु की भक्ति ही परम धर्म है । प्रभु की भक्ति को धर्म नहीं अपितु परम धर्म कहा गया है ।
470. अपने हृदय कुंज को मंदिर बनाना चाहिए तभी वहाँ प्रभु विराजमान होंगे ।
471. यह नर देह हमें श्रीहरि की भक्ति के लिए ही मिली है, यह शास्त्र मत है ।
472. करोड़ों में कोई एक प्रभु प्रेम में आंसू बहाने वाला मिलता है ।
473. बिना श्रीहरि भक्ति के जीव मृतक समान है, ऐसा शास्त्र कहते हैं ।
474. जिस मुँह में प्रभु का नाम नहीं विराजता है उस मुँह में धूल भरी होती है, ऐसा संत श्री कबीरदासजी कहते हैं ।
475. हमें प्रभु को ही अपना सब कुछ मान लेना चाहिए ।
476. हमने सबको अपना मान कर देख लिया अब सिर्फ प्रभु को ही अपना मानें ।
477. जीवन में केवल प्रभु के भरोसे ही रहना चाहिए ।
478. भक्त अपने हृदय में प्रभु को रखता है और स्वयं प्रभु के श्रीकमलचरणों में रहता है ।
479. आज कलियुग में धर्म में आडंबर और दिखावा ज्यादा देखने को मिलता है ।
480. प्रभु की कथा का श्रवण हमारे हर मनोरथ को सिद्ध करने में सक्षम है ।
481. प्रभु की सेवा सदैव जीवन में करनी चाहिए ।
482. अपनी चित्त वृत्ति को हमें प्रभु की सेवा में लगा देना चाहिए ।
483. प्रभु के सुख के लिए ही प्रभु की सेवा करनी चाहिए । प्रभु सेवा का हमारा उद्देश्य प्रभु का सुख ही होना चाहिए ।
484. प्रभु की प्रेमपूर्वक सेवा जहाँ होती है वहाँ के सेवक को प्रभु अपना अनुभव देते हैं । ऐसे अनेकों उदाहरण हैं ।
485. जो प्रभु सेवा को खेल और आडंबर समझते हैं वे लोग दया के पात्र होते हैं । उनके अज्ञान पर और प्रभु के लिए श्रद्धा भाव नहीं होने पर उन पर दया आनी चाहिए ।
486. जिसमें प्रभु के लिए जितनी निष्ठा होगी वह भक्ति मार्ग पर उतना आगे पहुँच पाएगा ।
487. शास्त्रों की अवहेलना करके कोई भी साधन मार्ग पर उन्नति नहीं कर सकता ।
488. संसार में धनवान, रूपवान और बलवान बहुत मिलेंगे पर भक्तिवान लाखों में एक ही मिलेगा ।
489. जिन आँखों से प्रभु के प्रेम में जल बहा करता है उन आँखों में प्रभु सदा रहा करते हैं ।
490. प्रभु कहते हैं कि वे अपने भक्तों को अपने हृदय और नैनों में रखते हैं ।
491. प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्रीवचन है कि जो अनन्य भाव से प्रभु के शरणागत होते हैं उनके योगक्षेम का प्रभु वहन करते हैं ।
492. प्रभु की कथा प्रभु प्रेम का वितरण करने के लिए ही होनी चाहिए ।
493. हम घर संसार में रहे पर घर संसार हमारे भीतर नहीं रहे तभी हम साधन कर पाएंगे ।
494. सद्गुण भक्तों का वरण कर लेते हैं इसलिए भक्त सद्गुणों से युक्त होते हैं ।
495. अगर प्रभु के आश्रय में हैं तो कभी अमंगल नहीं होगा, इस बात का हृदय में पूरा भरोसा सदैव रखना चाहिए ।
496. हम जिनका भजन करते हैं वे मंगल के भवन और अमंगल हारी हैं इसलिए भजन करने वाले का अमंगल कभी हो ही नहीं सकता ।
497. अपने भक्तों की इंद्रियों को सात्विकता प्रभु ही प्रदान करते हैं ।
498. प्रभु अपने आश्रितों का बाल भी बाँका नहीं होने देते ।
499. जैसे एक फूल प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पण हो जाए तो उसका खिलना सार्थक हो जाता है वैसे ही जो जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पण हो जाता है उसका जगत में जन्म सार्थक हो जाता है ।
500. संसार के विषयों में फंसकर हमें अपने जन्म को नहीं बिगाड़ना चाहिए ।
501. प्रभु को अपना जीवन समर्पित करने से हमारा जीवन अनमोल बन जाता है ।
502. भक्तों के सारे योगक्षेम प्रभु कलियुग में भी स्वयं संभालते हैं और इसके अगणित उदाहरण कलियुग में भी मिलते हैं ।
503. भक्त हर परिस्थिति में पूरा भरोसा अपने प्रभु पर ही रखता है ।
504. जीवन की विपरीत परिस्थिति में भी एक सच्चा भक्त कभी भी प्रभु से शिकायत नहीं करता ।
505. कोई प्रभु का होकर तो देखे, प्रभु उसे संसार में अनमोल कर देते हैं ।
506. भक्त की पगड़ी प्रभु हमेशा ऊँ‍‍ची रखते हैं क्योंकि संत कहते हैं कि ऐसा नहीं हो तो इसमें बदनामी प्रभु की होती है ।
507. जो भक्त जीवन भर प्रभु का स्मरण करता है उसके अंतिम क्षण प्रभु स्वयं उसके स्मरण में आ जाते हैं ।
508. डूबते को केवल प्रभु का ही एकमात्र सहारा होता है ।
509. प्रभु इतने करुणामय हैं कि अपने भक्तों के वचन की लाज रखते हैं और उसे सदा निभाते हैं ।
510. जो संसार का आश्रय नहीं लेता और केवल प्रभु का ही आश्रय लेता है उसे जीवन में प्रभु खूब अच्छी तरह से पालते और निभाते हैं ।
511. प्रभु अपने भक्तों की वाणी को सदा सत्य करते हैं ।
512. भक्ति नहीं करने वाला जीव नीच योनि में जाता है और नर्क जाता है । इसलिए मानव जीवन पाकर भक्ति करनी ही चाहिए तभी हमारा कल्याण है ।
513. धरती कभी भी भक्तों से विहीन नहीं रहती । ऐसा कभी नहीं हुआ कि धरती पर प्रभु भक्त न रहे हो ।
514. प्रभु अपने भक्तों की वाणी और संकल्प को सदा सत्य करते हैं । इसके अगणित उदाहरण श्री भक्तमालजी ग्रंथ में मिलते हैं ।
515. भक्ति के कारण ही भक्तों का प्रभु से लगाव होता है ।
516. एक संत एक बहुत सुंदर निवेदन करते थे कि दिन-रात मिलाकर आठ पहर होते हैं, इसमें से पूरे दिन-रात में एक पहर यानी 3 घंटे प्रभु को देना चाहिए ।
517. जग में प्रभु से बड़ा हमारा हित करने वाला कोई नहीं है ।
518. प्रभु से बढ़कर प्रीत निभाने वाला जगत में कोई भी नहीं है ।
519. प्रभु से ज्यादा प्रीत की रीत को जानने वाला, मानने वाला और निभाने वाला कोई भी नहीं है ।
520. जिसको जगत में कोई नहीं पूछता उसका भी ख्याल प्रभु रखते हैं ।
521. प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण में आने पर जीव का कोई भी भय नहीं बचता, सभी भय का अंत हो जाता है ।
522. संत कहते हैं कि मन को इधर-उधर नहीं भटकने देना चाहिए और उसे प्रभु के नाम में अटका देना चाहिए तो हमारा निश्चित कल्याण हो जाएगा ।
523. प्रभु की महिमा इतनी है कि प्रभु भी स्वयं अपनी महिमा का बखान नहीं कर सकते ।
524. प्रभु की करुणा देखें कि रावण की राक्षस सेना से युद्ध के बाद जब प्रभु ने देवतागण को कहकर युद्धभूमि में अमृत वर्षा करवाई तो वानर और भालू जीवित हो उठे पर राक्षस जीवित नहीं हुए क्योंकि प्रभु ने अपनी करुणा के कारण उन्हें पहले ही मुक्त करके अपने धाम भेज दिया था ।
525. भक्ति महारानी को शास्त्रों ने माता माना है और सद्गुणों को माता की संतान माना है । तात्पर्य यह है कि जहाँ भक्ति होगी उस भक्त में सद्गुण होंगे ही, यह निश्चित है ।
526. तालाब का तल नीचे होता है इसलिए आसपास का जल अपने आप तालाब में भर जाता है । ऐसे ही भक्ति जीवन में दीनता और नम्रता लाती है जिस कारण सद्गुण अपने आप आकर उस भक्त हृदय में वास करने लगते हैं ।
527. भक्त किसी भी क्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता से दूर रहता है । उसकी किसी को हटाने की वृत्ति नहीं होती बल्कि खुद हट जाने की वृत्ति होती है, यह भक्ति सिखाती है ।
528. प्रभु के लिए प्रेम प्रकट करना, हृदय भाव से द्रवीभूत करना यही किसी श्रीग्रंथ के श्रवण का मूल फल होता है ।
529. हमारी वाणी की सफलता और मानव जीवन की सफलता प्रभु का यशगान करने में ही है ।
530. भक्त लौकिक कामनाओं से रहित रहता है ।
531. हमारे जीवन का प्रयोजन भगवत् प्रेम अर्जित करना ही होना चाहिए ।
532. प्रभु की प्रेम प्राप्ति के लिए ही भक्ति का साधन करना चाहिए ।
533. श्रीग्रंथों के शब्दों को बीज कहा गया है जिसमें पूरा वृक्ष समाहित है जो टीका के जरिए प्रकट होता है । टीका के द्वारा उनका विस्तार होता है ।
534. सभी आचार्यों को श्री तुलसीदल के रूप में देखना चाहिए जैसे छोटे-बड़े सभी श्री तुलसीदल प्रभु के श्रीकमलचरणों में चढ़ जाते हैं और पूज्य हो जाते हैं और बराबर का दर्जा पा जाते हैं वैसे ही सभी आचार्य जो प्रभु की भक्ति और प्रेम का प्रतिपादन करते हैं वे युग में आगे-पीछे होने पर भी एक समान ही पूज्य हैं ।
535. भक्त कभी किसी के लिए दुःखद नहीं बनता है यानी दुःख का कारण नहीं बनता ।
536. अगर कोई भक्त किसी का भी हृदय दुखाता है तो उसकी भक्ति की हानि होगी, होगी और पक्की होगी । यह पक्का सिद्धांत है क्योंकि सबके भीतर प्रभु का वास है और किसी को दुःख देने का अर्थ है प्रभु को ही दुःख देना । हम एक तरफ प्रभु की भक्ति करते हैं और दूसरी तरफ प्रभु को ही दुःख दे रहे हैं, यह कितना विरोधाभास है ।
537. प्रभु की भक्ति और प्रेम का रस जो लेता है और जिस पर प्रभु भक्ति का रंग चढ़ता है वही जगत में सच्चा भाग्यवान होता है ।
538. प्रभु के यश को गाने में ही भक्त अपना जीवन लगाते हैं और ऐसा करके परमानंद पाते हैं ।
539. जैसे संसारी के पास लौकिक संपत्ति होती है वैसे ही संतों और भक्तों के पास भक्तिरूपी अलौकिक संपत्ति होती है ।
540. प्रभु की कथा, प्रभु की सेवा और प्रभु का स्मरण, यह भक्ति के प्रधान साधन हैं ।
541. प्रभु की कथा संसार के लिए वैराग्य और प्रभु के लिए अनुराग उत्पन्न करें तभी वह सार्थक है ।
542. दूसरों का बुरा चाहने वाला अभी भक्ति से नहीं, भक्ति की छाया से भी बहुत दूर है ।
543. प्रभु की माया आकर भक्तों की परीक्षा लेती है और जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं प्रभु अपनी माया का प्रभाव उनके ऊपर से सदा के लिए हटा लेते हैं ।
544. प्रभु के प्रेम में रोने का आनंद निराला ही होता है ।
545. प्रभु अपने भक्तों को अभाव में नहीं रहने देते ।
546. प्रभु की सेवा बड़े भाग्य से ही मिलती है ।
547. प्रभु के श्रीकमलचरणों में अहेतु की यानी निष्काम भक्ति अति दुर्लभ है और कोई भाग्यवान ही इसके लिए जीवन में प्रयास करता है ।
548. संसार में रूपवान, बलवान, धनवान और ज्ञानवान बहुत मिलते हैं पर भक्तिवान जीव मिलना अति दुर्लभ है ।
549. भक्तों की कथा सुनकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीति उत्पन्न होती है ।
550. संसार के विषय रस से विरक्ति और भक्ति रस से अनुरक्ति होने पर ही मानव जीवन का कल्याण है ।
551. शास्त्रों का मर्म नहीं जाना तो हम जीवन भर शास्त्रों का भार ही ढोते रहेंगे । सारे शास्त्र पढ़ने और सुनने का फल और निष्कर्ष प्रभु की अहेतु की भक्ति है ।
552. जीवन में भक्ति को धारण नहीं किया तो हमारा शास्त्र ज्ञान व्यर्थ ही है ।
553. थोड़े पुण्य वाले प्रभु की भक्ति की महिमा नहीं समझ पाते । जब अनंत जन्मों के पुण्यों का समूह उदय होता है तभी भक्ति मिलती है ।
554. भक्ति में पूर्ण निष्ठा अनंत जन्मों के पुण्यों के समूह के उदय होने पर ही संभव होती है ।
555. भक्ति की अत्यंत महिमा सभी श्रीग्रंथों, संतों और भक्तों ने गाई है ।
556. शास्त्र कहते हैं कि जो नर्क के लक्षण वाले प्राणी हैं उन्हें ही प्रभु की भक्ति में श्रद्धा नहीं होती ।
557. प्रभु की भक्ति में प्रेम होना सबको नसीब नहीं होता ।
558. श्री भक्तमालजी की कथा सुनकर संत कहते हैं कि प्रभु अपने भक्तों पर कृपा करने की हद ही पार कर देते हैं । इतनी असीम कृपा प्रभु अपने भक्तों पर करते हैं ।
559. प्रभु जो नित्यानंद हैं वे ही एकमात्र अनहोनी को होनी करने का सामर्थ्य रखते हैं ।
560. कलियुग में प्रभु का नाम प्रभु की तरह ही सर्वशक्तिमान है ।
561. ऐसे भी संत हुए हैं जो भिक्षा भी बचाकर कभी नहीं रखते थे । जो भी भिक्षा में आया उसे खुद पाकर और दूसरों को देकर समाप्त कर देते थे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिन प्रभु ने आज दिया है वे कल भी देंगे । यह कितना बड़ा विश्वास है । यह विश्वास एक संसारी या धनवान नहीं रख पाता ।
562. भक्त भवसागर को प्रभु की कृपा के सेतु से पार कर जाते हैं ।
563. जीव के अंतिम रक्षक प्रभु ही होते हैं ।
564. जब भक्त पुकारता है तो प्रभु उसका समाधान किए बिना रह ही नहीं पाते ।
565. प्रार्थना सच्ची होने के लिए भीतर से हमारे भाव जागृत होने चाहिए ।
566. संत कहते हैं कि प्रभु को वरदान देते समय एवमस्तु यानी ऐसा ही हो कहने की बहुत जल्दी होती है ।
567. जितनी शास्त्रों की मर्यादा का जीवन में पालन होगा उतना-उतना जीवन भी दिव्य होता चला जाएगा ।
568. अगर भक्ति सच्ची है तो जीवन में जैसे विघ्न आएंगे वैसे ही वापस बिना हानि दिए चले जाएंगे ।
569. भक्ति का सिद्धांत है कि अगर हम गलती नहीं करेंगे तो हमारे साथ कुछ भी गलत नहीं होगा ।
570. भगवान की कृपा सदैव भक्तों को संभालती आई है और संभालती रहेगी ।
571. प्रभु ने सबको भक्ति करने के लिए ही मानव शरीर प्रदान किया है ।
572. सर्वत्र भगवत् भक्ति का प्रचार होना चाहिए क्योंकि इस प्रचार से कल्याणकारी कोई प्रचार नहीं हो सकता ।
573. ऋषियों, आचार्यों, संतों और भक्तों के कारण ही भारतवर्ष को आध्यात्मिक धन प्राप्त हुआ है ।
574. सांसारिक उपलब्धि परमार्थ के क्षेत्र में कोई महत्व नहीं रखती ।
575. सत्कर्म कभी भी पुण्य प्राप्ति के लिए नहीं करना चाहिए । सत्कर्म केवल और केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए और प्रभु को अर्पण करके ही करना चाहिए ।
576. प्रभु की प्रसन्नता के लिए किए सत्कर्म बंधक कारक नहीं होते, वे परम कल्याण कारक होते हैं ।
577. सद्गुरुदेव सदैव हमारा भगवत् संबंध करवाते हैं ।
578. अन्य वस्तुओं की हृदय में लालसा समाप्त होगी तभी भगवत् प्रेम की लालसा हृदय में उत्पन्न होगी ।
579. भक्तों का जन्म प्रभु की इच्छा से संसार में भगवत् प्रेम बांटने के लिए और भक्ति का मार्ग जनमानस को दिखाने के लिए होता है ।
580. भक्ति माता का प्रसाद होता है जब प्रभु कथा सुनते हुए हृदय द्रवीभूत होकर अश्रुधारा निकलती है ।
581. प्रभु अपने भक्तों से इतना प्रेम करते हैं कि जिस प्रेम की व्याख्या या जिस प्रेम को शब्दों में बयान कोई नहीं कर सकता ।
582. भक्तों का चरित्र पढ़ने से पता चलता है कि प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के कितने अधीन हो जाते हैं ।
583. भक्त तो भगवान से प्रेम करता है पर भगवान अपने भक्तों से अतिशय प्रेम करते हैं ।
584. भक्तों के पास सीमित प्रेम का सामर्थ्य होता है, प्रभु के पास अतिशय प्रेम होता है । प्रभु भक्तों से कहते हैं कि तुम अपना पूरा प्रेम मुझे दे दो तो मैं भी अपना पूरा प्रेम तुम पर न्यौछावर कर दूंगा । इसमें सदैव घाटे में प्रभु रहते हैं । एक दृष्टांत से समझे । एक सेठ एक भिखारी से कहे कि तू अपना सब कुछ मुझे दे दे और मैं अपना सब कुछ तुम्हें दे दूंगा तो घाटे में तो सेठजी ही रहेंगे क्योंकि भिखारी के पास देने के लिए सीमित है और सेठजी के पास बहुत है । ऐसे ही भक्तों के पास सीमित प्रेम होता है और प्रभु अपना असीमित प्रेम भक्तों को देते हैं ।
585. प्रभु जीव का ऐसा हृदय खोजते हैं जो पूरी तरह से रिक्त हो और प्रभु अकेले रह पाएं । प्रभु जिस भी हृदय में रहते हैं अकेले ही रहते हैं, यह प्रभु की रीत है । इसलिए अपने को पूरी तरह से प्रभु के लिए रिक्त करना भक्ति सिखाती है ।
586. जो प्रभु को अपना सर्वस्व दे देते हैं, प्रभु भी चूकते नहीं और पूरी तरह से उसके बन जाते हैं । पांडवों के साथ प्रभु ने ऐसा ही करके दिखाया ।
587. भक्त सभी को भगवत् प्रेम प्रदान करने के लिए प्रयासरत रहते हैं ।
588. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी जिसके सिर पर हाथ रखते हैं उसे प्रभु से मिलाकर ही छोड़ते हैं ।
589. प्रभु को अपने प्राण प्यारे भक्तों की सदैव चिंता रहती है ।
590. कभी भी प्रभु को अनिवेदित वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए । जिस वस्तु का निवेदन प्रभु को हो गया है वही भक्तों के लिए ग्रहण योग्य होती है ।
591. सच्चे संतों का सानिध्य पाने पर प्रभु की भक्ति करने में मन लगने लगता है ।
592. भक्तों के चारों तरफ प्रभु का रक्षा कवच सदैव रहता है ।
593. हम एकमात्र भगवान के हैं और एकमात्र भगवान ही हमारे हैं, यही हमारा सच्चा स्वरूप है जिसको हम भूल गए हैं और स्वयं को संसार का मान बैठे हैं ।
594. प्रभु से जो प्रेम कर पाते हैं संसार में उन जीवों को ही मनुष्य जन्म लेने का सच्चा लाभ मिलता है ।
595. प्रेम से ही प्रेम-पुरुषोत्तम प्रभु मिला करते हैं ।
596. प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिंतन में भक्त डूब जाता है ।
597. जब तक प्रभु से अनुराग नहीं होगा तब तक हमारे द्वारा किए साधन फलीभूत नहीं हो पाएंगे ।
598. जीवन की हर क्रिया प्रभु की प्रसन्नता के हेतु से ही करनी चाहिए ।
599. प्रभु के प्रेम की प्राप्ति का उद्देश्य ही जीवन में सर्वोपरि होना चाहिए ।
600. चित्त की वृत्ति को सब तरफ से हटाकर प्रभु में ही लगाना चाहिए ।
601. प्रभु से प्रेम हो जाने से जीव जीवन में निर्भय हो जाता है ।
602. योग्य भक्त वह होता है जिसकी केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीत होती है ।
603. भगवत् चिंतन करने वाले जीव पर कलियुग का प्रभाव नहीं होता । इसलिए प्रभु चिंतन और सुमिरन निरंतर जीवन में होना चाहिए ।
604. मृत्यु बेला पर संसारी को लेने काल आता है पर भक्तों को लेने प्रभु के पार्षद आते हैं ।
605. अमरता तो केवल प्रभु की भक्ति से ही प्राप्त होती है । जो प्रभु की भक्ति करते-करते शरीर छोड़ते हैं वे ही अपना नाम संसार में अमर कर पाते हैं । भगवती मीराबाई, गोस्वामी श्री तुलसीदासजी, भक्त श्री सूरदासजी और भक्त श्री नरसी मेहताजी इसके जीवंत उदाहरण हैं ।
606. भगवत् भक्त द्वारा अर्जित कीर्ति ही यथार्थ कीर्ति है ।
607. सबसे बड़ी लड़ाई माया की सेना से हमें लड़नी पड़ती है यानी काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार से लड़नी पड़ती है ।
608. कामी, क्रोधी और लालची अपने दोषों के कारण भजन मार्ग में प्रायः असफल होते हैं ।
609. भजन के हिस्से में हम आ जाएं और भजन हमारे हिस्से में आ जाए तो ही जीवन में सच्चा आनंद है । धन हिस्से में आने पर आनंद नहीं है, भजन हिस्से में आने पर सच्चा आनंद है ।
610. भक्त अपने प्यारे प्रभु के विमल यश का जगत में खूब विस्तार करके स्वयं परमानंद प्राप्त करता है ।
611. भक्त जन्म से ही अपने संचित पुण्यों के कारण प्रभु प्रेम की पूंजी लेकर ही जीवन में आते हैं ।
612. भक्त प्रभु का कार्य पूरा करने के लिए ही धरती पर आते हैं ।
613. कोई बहुत बढ़िया व्यंजन बनाना जानता हो, कोई बहुत सुंदर सिलाई करना जानता हो, कोई सुरीला गायन करना जानता हो तो उसे अपने हुनर को प्रभु के प्रसाद बनाने में, पोशाक बनाने में, भजन करने में क्रमशः लगाना चाहिए तभी उसका हुनर धन्य होगा ।
614. हर योग्यता का उपयोग प्रभु की सेवा में करने से ही उस योग्यता की सार्थकता है ।
615. प्रभु का ध्यान जितना रसमय है उसका लेशमात्र भी अन्य कोई ध्यान हो ही नहीं सकता ।
616. प्रभु अपने भक्तों का मन लूट लेते हैं ।
617. प्रभु की भक्ति करने का सबको समान अधिकार है ।
618. प्रभु के श्रीकमलचरणों में मन लगना जीव की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
619. भक्त अपराध प्रभु को एकदम सहन नहीं होता ।
620. साधक वह है जिसको अपना समय संभालना आ गया और अपने समय का व्यय प्रभु के लिए करना आ गया ।
621. साधक कभी भी संसार के प्रपंच में पड़कर अपना समय नहीं बिगाड़ता है ।
622. हमारे जीवन का जो समय प्रभु भक्ति बिना जा रहा है वह व्यर्थ ही जा रहा है ।
623. भजन परायण का काल सार्थक होता है और विषय परायण का काल व्यर्थ होता है ।
624. श्री ठाकुरजी को लाड़ लड़ाने का उत्सव नित्य घर में होना चाहिए ।
625. प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम नहीं करना एक सेवा अपराध है ।
626. हम संसार की रिश्तेदारी निभाने में कुशल होते हैं पर हमारी सच्चे रिश्तेदारी तो प्रभु के संग है जो हम निभाना भूल जाते हैं ।
627. अपने भजन को सुरक्षित रखने के लिए सभी सेवा अपराधों से सदैव बचना चाहिए नहीं तो हमारे भजन का पुण्य नष्ट होता है और हमारे भजन की हानि होती है ।
628. प्रभु को मानसिक रूप से निवेदन किए बिना किसी सामग्री, वस्तु, भोजन और जल को पाना अपराध है ।
629. अपने मुख से अपनी भक्ति, पूजा और भजन की दूसरों के सामने प्रशंसा करना सेवा अपराध है ।
630. अपने इष्ट को मानते हुए किसी दूसरे की इष्ट और देव का निरादर करना बहुत बड़ा अपराध है । सूत्र यह है कि अपने इष्ट को सभी के इष्ट और देव में देखने की कला हमें आनी चाहिए ।
631. सेवा तब सार्थक होती है जब सेवा प्रभु के लिए प्रेम का भाव हमारे अंतःकरण में निर्माण कर दे ।
632. प्रभु नाम का बल अनुभव करके पाप करते रहना और पाप करने की वृत्ति का त्याग नहीं करना, यह नाम अपराध है ।
633. इस विषय पर हर श्रीग्रंथ, हर पंथ और हर संत एकमत हैं कि कलियुग में प्रभु नाम जप और कीर्तन सबसे प्रबल भक्ति के साधन है ।
634. अन्य साधनों को नाम से बड़ा या नाम के समकक्ष मान लेना, एक बड़ा नाम अपराध है ।
635. हमारे नेत्र हमें प्रभु दर्शन करने के लिए ही मिले हैं क्योंकि सही मायने में नेत्रों से देखने योग्य एकमात्र प्रभु ही हैं ।
636. साधक का जीवन अपराध शून्य होना चाहिए । अपराध से बचकर ही भजन करना चाहिए ।
637. सच्चे भक्त का प्रभु के विभिन्न रूपों में भेद कभी नहीं होता । वे प्रभु के सभी रूपों को एक ही मानते हैं ।
638. शास्त्रों का एक ही उद्देश्य है कि हमारा मन प्रभु में लग जाए ।
639. जिनके पास वैराग्य की दृष्टि है उन्हें संसार असार दिखता है पर जिनके पास नहीं है उन्हें ही संसार में सार दिखता है ।
640. प्रभु से संबंध बना लें तब प्रभु की कृपा जीवन में होकर ही रहेगी ।
641. भक्ति के मूल में प्रभु के लिए प्रेम होना चाहिए ।
642. संसार से संबंध जुड़ेगा तो आसक्ति होगी और प्रभु से संबंध जुड़ेगा तो भक्ति होगी ।
643. जीवन में जब भी गिरने का मौका आए तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही गिरना चाहिए ।
644. जब प्रभु श्री हनुमानजी के लंका दहन के बाद प्रभु श्री रामजी ने उनसे उऋण नहीं होने की बात कही तो वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर पड़े । संत भाव देते हैं कि प्रशंसा हो तो अभिमान आता ही है और अभिमान आने पर जीवन में गिरना ही होता है । इसलिए प्रभु श्री हनुमानजी ने दिखाया कि संसार में गिरने से बचना है तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर जाना चाहिए ।
645. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिरते हैं उन्हें फिर कहीं भी संसार में गिरना नहीं पड़ता ।
646. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर जाता है उसकी पूरी जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है और प्रभु उस जिम्मेदारी को उठाने के लिए सदैव लालायित रहते हैं ।
647. प्रभु श्री हनुमानजी प्रभु सेवा के भी आदर्श हैं और प्रभु प्रेम के भी आदर्श हैं ।
648. माता प्रभु की कृपा शक्ति हैं यानी कृपा करने वाली शक्ति है ।
649. जिसके मूल में प्रभु की कृपा शक्ति हो उसी को जीवन में आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ मिलती है ।
650. भगवत् कृपा ही हमारे प्राण होने चाहिए ।
651. हमारे विकार और दोष ही हमें प्रभु का भजन नहीं करने देते ।
652. जैसे 70 वर्षों से कमरा बंद है तो दीपक को उस कमरे के अंधेरे को मिटाने में क्षण भी नहीं लगता वैसे ही नास्तिक का भी कल्याण करने में प्रभु की कृपा को क्षण भी नहीं लगता ।
653. संत कहते हैं कि श्रीजगन्नाथ का भक्त जगत से कभी हार नहीं सकता ।
654. भक्तों की पूछ जगत में प्रभु के कारण ही होती है ।
655. सारे श्रीराम भक्त प्रभु श्री हनुमानजी के ऋणी हैं क्योंकि उनकी अनुकंपा से ही प्रभु श्री रामजी से उनका मिलन संभव होता है ।
656. संत मानते हैं कि पूरा जगत ही प्रभु श्री हनुमानजी का ऋणी है क्योंकि जब प्रभु श्री रामजी और भगवती सीता माता ही उनके ऋणी हैं तो फिर ऋणी होने से बचा कौन ? क्योंकि सिद्धांत है कि जिनके जगतपति और जगतमाता ऋणी होते हैं उनका जगत स्वतः ही ऋणी होता है ।
657. श्रीराम भक्त यही चाहता है कि श्री सीतारामजी के श्रीकमलचरणों में प्रभु श्री हनुमानजी रहें और प्रभु श्री हनुमानजी के श्रीकमलचरणों में श्रीराम भक्त रहे ।
658. जीवन का लक्ष्य संसार को न मानकर प्रभु प्राप्ति को ही मानना चाहिए ।
659. संतों ने प्रभु श्री महादेवजी को परम और महा वैष्णव माना है । उनसे बड़ा वैष्णव ब्रह्मांड में और तीनों लोकों में कोई न हुआ है, न है और न कोई होगा ।
660. प्रभु श्री महादेवजी की करुणा देखें कि जब श्री चंद्रदेवजी उनकी शरण में उनके श्रीकमलचरणों में स्थान पाने के लिए आए तो प्रभु श्री महादेवजी ने उन्हें अपने श्रीकमलचरणों में नहीं बल्कि अपने मस्तक पर स्थान दिया । प्रभु श्री महादेवजी ने कहा कि क्योंकि श्री चंद्रदेवजी का नाम प्रभु श्री रामजी से जुड़ा हुआ है यानी प्रभु श्री रामजी श्री रामचंद्रजी कहलाते हैं और प्रभु श्री कृष्णजी श्री चंद्रवंश में पधारे हैं इसलिए श्री चंद्रदेवजी को सम्मान देकर उन्हें मस्तक पर स्थान दिया ।
661. प्रभु श्री महादेवजी इतने उदार हैं कि मांगने वाले पर छोड़ देते हैं कि उसे क्या मांगना है और मांगने वाले की हर मांग के अनुसार उसे तत्काल दे देते हैं ।
662. सभी देवों में एक प्रभु श्री महादेवजी ही ऐसे हैं जिनका पूरा परिवार जगत में पूजा जाता है । परिवार के हर सदस्य की जगत में पूजा होती है ।
663. शास्त्रों में श्री गौरीशंकरजी को सबसे बड़ा और अनुकूल गृहस्थ माना गया है ।
664. प्रभु श्री महादेवजी के यहाँ निरंतर सत्संग और श्रीहरि कथा होती रहती है ।
665. प्रभु श्री महादेवजी से बड़ा श्रीराम नाम और श्रीकृष्ण नाम का प्रभाव जानने वाला कोई नहीं है ।
666. प्रभु श्री महादेवजी के परिवार में प्रभु श्री गणेशजी से बड़ा नाम जापक और प्रभु श्री कार्तिकेयजी से बड़ा मंत्र जापक ब्रह्मांड में कोई नहीं है ।
667. संसार तो प्रारब्ध के अनुसार मिल ही जाएगा इसलिए प्रभु से मांगना ही है तो भक्ति मांगनी चाहिए ।
668. हमें प्रभु श्री महादेवजी से उनके हृदय के सबसे अमूल्य धन प्रभु के प्रेम को ही मांगना चाहिए ।
669. व्याकुल होकर सच्चाई से मांगने पर ही प्रभु की भक्ति मिलती है ।
670. हमारी बुद्धि संसार का विचार करने में बड़ी कुशल है पर हमें हमारी बुद्धि को प्रभु के चिंतन में लगाना चाहिए तभी बुद्धि की सार्थकता है ।
671. अपनी बुद्धि को संसार में उलझाकर रखेंगे तो हमारा आध्यात्मिक कल्याण नहीं हो पाएगा ।
672. हमें अपनी आंतरिक उन्नति पर ध्यान देना चाहिए ।
673. भक्त एक भी क्षण भगवत् भक्ति किए बिना व्यतीत नहीं करते हैं ।
674. जीवन में प्रतिकूलता आने पर ही संसार की असारता का ज्ञान हमें होता है और हमारा मन प्रभु की तरफ आकर्षित होता है ।
675. भक्त संसार की विपत्ति सहकर भी प्रभु प्रेम के दो अश्रु देने की प्रभु से मांग करता है ।
676. भक्त सांसारिक दुःख के लिए नहीं रोते, वे प्रभु मिलन के लिए ही रोते हैं ।
677. हम दास हैं और प्रभु हमारे स्वामी हैं इसलिए हमें अपनी कभी नहीं चलानी चाहिए । हमारे जीवन में सदैव प्रभु की ही चलनी चाहिए ।
678. प्रभु तो हमारे हृदय में आना चाहते हैं पर हमने अपने हृदय में इतना संसार भरा हुआ है कि प्रभु के लिए जगह ही नहीं है ।
679. प्रभु जीव में खाली हृदय को ढूँढ़ते रहते हैं और जब भी संसार से रिक्त हृदय प्रभु को मिलता है प्रभु उस जीव को अपना लेते हैं ।
680. श्री ठाकुरजी को अपने घर का स्वामी माने और स्वयं को श्री ठाकुरजी का सेवक मानकर श्री ठाकुरजी की सेवा करने के लिए घर में रहें ।
681. गृहस्थ में रहकर जो श्री ठाकुरजी को घर और व्यापार का स्वामी मानता है और सत्संग का लाभ जीवन में लेता है, प्रभु कहते हैं ऐसे गृहस्थी को कर्मबंधन नहीं बांधते ।
682. संसार के चिंतन से कभी भी सुख नहीं मिल सकता । परमानंद तो प्रभु चिंतन करने पर ही मिलेगा ।
683. प्रेम करने योग्य तो जगत में केवल प्रभु ही हैं ।
684. प्रभु को सुख देने की भावना का नाम ही प्रभु प्रेम है ।
685. माया के दास से श्रीहरि का दास बनने की यात्रा करनी चाहिए ।
686. प्रभु का नाम लेने की इच्छा को आदत बना लेना चाहिए । जीवन की मृत्यु बेला पर अगर इंद्रियां शिथिल भी हो जाए तो भी अभ्यासवश मुँह से प्रभु का नाम ही निकले ।
687. भक्ति रस की चर्चा सुनने में ही हमारा मन लगना चाहिए ।
688. असली चतुर तो भक्त होता है क्योंकि वह संसार की नश्वर वस्तु में नहीं अटकता, वह तो शाश्वत लाभ देने वाली भक्ति में अटकता है ।
689. प्रभु में तन्मयता का अर्थ यह है कि हमारा मन सदैव प्रभु में लगा रहना चाहिए ।
690. संसार की उपलब्धि कांच है और भगवत् उपलब्धि हीरा है । विवेकी जीव वही कहलाता है जो कांच को छोड़कर हीरा ले लेता है ।
691. भक्त जिस भी स्थिति में रहेंगे उस स्थिति में भी अपना मन प्रभु में ही लगाकर ही रखेंगे ।
692. श्री रामचरितमानसजी में भगवती पृथ्वी माता कहती हैं कि बड़े-बड़े पहाड़, गहरे सागर भी उन्हें भार नहीं लगते पर दूसरों से द्रोह करने वाला जीव उन्हें भार स्वरूप लगता है ।
693. मन को प्रभु में लगाकर देखें, कितनी आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जिसकी हम कभी कल्पना भी नहीं कर पाएंगे ।
694. प्रभु को सिर्फ प्रेम की भूख लगती है ।
695. प्रभु से प्रेम करने पर प्रभु से इतना प्रेम वापस मिलेगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि प्रभु प्रेम के सागर हैं ।
696. प्रभु की कृपा सर्वत्र और समान रूप से हो रही है पर उस कृपा को ग्रहण करने के लिए हमें कृपा पात्र बनना पड़ेगा ।
697. मन, कर्म और वचन की चतुराई छोड़कर जो प्रभु का भजन करता है उस पर प्रभु कृपा अवश्य होती है ।
698. हमारे हृदय में प्रभु का ही एकमात्र वास होना चाहिए ।
699. प्रभु से स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं बल्कि निस्वार्थ प्रेम करना चाहिए ।
700. भक्त से भूल होने पर भी प्रभु अपने भक्त को कभी त्यागते नहीं हैं ।
701. मन को मनमोहन प्रभु में लगाने का प्रयास करना चाहिए ।
702. दुःखों से ठोकर खाने पर ही प्रभु की याद आती है ।
703. हम अपनी सभी इंद्रियों को अपने मन को खुश करने के लिए लगाते हैं जबकि उन्हें प्रभु को खुश करने में ही लगाना चाहिए ।
704. भूतकाल का शोक, वर्तमान काल का मोह और भविष्य काल का भय, यह प्रभु भजन बिना नहीं मिट सकते ।
705. प्रभु की तरफ बढ़ना है तो हमें अपना भजन बढ़ाना होगा ।
706. प्रभु को खिला हुआ फूल चढ़ाया जाता है, मुरझाया फूल नहीं चढ़ाया जाता । इसलिए युवावस्था से ही भक्ति करनी चाहिए और बुढ़ापे का इंतजार नहीं करना चाहिए ।
707. भक्ति हमारे मन में जगत से वैराग्य और प्रभु के लिए अनुराग निर्माण कर देती है ।
708. जब तक प्रभु प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक किसी भी तरह की परीक्षा प्रभु ले सकते हैं ।
709. साधक को अपनी आँखें, जिह्वा और कानों को बहुत जतन से संभालना चाहिए कि आँखें बुरी चीजें नहीं देखे, जिह्वा चटपटी चीजें नहीं खाए और कटु वचन नहीं बोले और कान व्यर्थ वाणी नहीं सुने ।
710. जिसने निश्चय कर लिया कि उसे भक्ति करनी है और जिसको विश्वास है कि भक्ति से बड़ा करने योग्य कुछ भी नहीं है, ऐसा जीव एक दिन अवश्य प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।
711. प्रभु परीक्षा लेते हैं क्योंकि हमें स्वीकार करने से पूर्व और हमारे सभी कर्मबंधनों को छुड़ाने से पूर्व वे हमें परखते हैं जैसे हम एक मिट्टी का घड़ा लेने जाते हैं तो उसे ठोक बजाकर परखते हैं कि वह पानी को रखने में सक्षम है कि नहीं ।
712. अनन्य का सीधा अर्थ है न अन्य । प्रभु के अलावा सभी आश्रयों का त्याग, यही सच्ची अनन्यता है ।
713. हमारी प्रभु के लिए अनन्यता हमारे सभी विकारों और दोषों को एक दिन मिटा देती है ।
714. प्रभु अपने भक्तों को कभी भी गिरने नहीं देते । भक्तों को प्रभु सदैव संभालते हैं, विपदा में तो विशेष संभालते हैं ।
715. ज्ञानी, योगी, कर्मकांडी को प्रभु संभालते हैं या नहीं यह पक्का नहीं है पर भक्तों को प्रभु संभालते हैं, यह पक्का है ।
716. भीतर की आँखों से प्रभु के दर्शन होते हैं ।
717. प्रतिकूलता में ही पता चलता है कि हमारी प्रभु निष्ठा कितनी प्रबल है ।
718. सभी जीवात्माओं के परमात्मा प्रभु हैं ।
719. भगवती राधा माता का एक नाम बरसाने वाली है । इसका एक अर्थ संतजन यह करते हैं कि माता देना नहीं बल्कि बरसाना जानती है यानी कृपा की वर्षा करना जानती है ।
720. संसार से ठोकर लगती है तो हम श्री ठाकुरजी की ओर जाते हैं क्योंकि उस समय श्री ठाकुरजी ही हमें याद आते हैं ।
721. भक्ति करने वाले भक्तों के प्रेम की प्यास कभी बुझती नहीं अपितु निरंतर बढ़ती ही चली जाती है ।
722. भक्ति जगत के बंधन को छुड़ाती है और हमारे हृदय में प्रभु प्रेम को बढ़ाती है ।
723. प्रभु श्रृंगार पाकर सुशोभित नहीं होते बल्कि श्रृंगार प्रभु को पाकर सुशोभित हो जाता है ।
724. संसार के विषयों में न गिरे, अगर गिरना ही है तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिरे ।
725. संसार की आसक्ति के बंधन को भक्ति के अलावा कोई नहीं छुड़ा सकता ।
726. संसार के सुख का निरंतर ह्रास होता है और भक्ति का परमानंद निरंतर नवीन ऊँचाइयों को प्राप्त होता रहता है ।
727. भक्त प्रभु से कहता है कि उसके हृदय के नयन के आगे प्रभु सदैव प्रकट होकर रहें ।
728. संसार के विषय हमें तभी तक आकर्षित करते हैं जब तक प्रभु का आकर्षण चित्त में जन्म नहीं लेता । प्रभु का आकर्षण होने के बाद अन्य कोई आकर्षण संसार का बच ही नहीं सकता ।
729. संसार के विषय को संतों ने विषय विष माना है जो हमारा प्रभु में मन नहीं लगने देता ।
730. हरदम प्रभु का यशगान करते रहना चाहिए ।
731. अगर हम जीवन में प्रभु सेवा और प्रभु कार्य कर पा रहे हैं तो हमें पक्का मानना चाहिए कि प्रभु ने अति कृपा करके हमें चुना है । ऐसा करोड़ों में एक के साथ होता है । उस जीव को अपने आपको प्रभु का परम कृपा पात्र और परम सौभाग्यशाली मानना चाहिए ।
732. हमारे जिस हुनर का प्रभु ने वरण नहीं किया वह हुनर तो विधवा समान है । अगर संगीत की विद्या प्रभु के यशगान में काम नहीं आती तो वह संगीत की विद्या तो विधवा है ।
733. अगर हम अपनी वाणी के द्वारा प्रभु के यशगान के साथ दूसरे का भी यश गाते हैं तो यह तो वैसा ही हुआ जैसा एक स्त्री का विवाह तो किसी के साथ हुआ और वह संबंध अन्य के साथ भी रखती है । ऐसे में व्यभिचार का पाप लगेगा ।
734. अपनी रसना यानी वाणी को प्रभु को गिरवी रखना सबसे श्रेष्ठ है ।
735. प्रभु से विनती करें कि हमारी वाणी का वरण कर लें जिससे हमेशा के लिए हमारी वाणी से केवल और केवल प्रभु का ही यशगान हो ।
736. अपनी रसना को प्रभु का बिन दाम का गुलाम बना देना चाहिए ।
737. प्रभु प्रेम की व्याख्या नहीं हो सकती, उसको तो अनुभव ही करना पड़ता है ।
738. कुसंग हमें कहाँ तक गिरा सकता है और सत्संग हमारा कहाँ तक उत्थान कर सकता है, यह हम सोच भी नहीं सकते ।
739. प्रभु के नाम का आश्रय हमारा लोक और परलोक दोनों सुधार देता है ।
740. प्रभु के सभी स्वरूपों में भेद करना अनन्यता के नाम पर कलंक है जिससे वैष्णवता की हानि होती है ।
741. असली अनन्यता होगी तो जिधर देखेंगे अपने प्रभु का ही दर्शन हमें होगा ।
742. प्रभु से कभी संसार नहीं मांगना चाहिए नहीं तो हमारी बुद्धि संसार से ही मोहित रहेगी । प्रभु से केवल और केवल भक्ति ही मांगनी चाहिए ।
743. सच्चा भक्त प्रभु कथा और कीर्तन सुनते वक्त महाभाव में डूब जाता है ।
744. सच्चा संत भीड़ इकट्ठी करने में कभी भी विश्वास नहीं करता ।
745. भक्ति में अनन्य और निष्काम होना भक्ति का परम गौरव है ।
746. निष्काम भक्ति में भक्त प्रभु की कृपा के अलावा कुछ भी नहीं मांगता ।
747. प्रभु के लिए सकाम भाव होता है तो हम जो प्रभु से मांगते हैं वह मिलता है पर जब निष्काम भाव जागृत होता है तो ही प्रभु सबसे मूल्यवान प्रभु की भक्ति हमें देते हैं । प्रभु के पास देने के लिए सबसे अमूल्य प्रभु की भक्ति ही है ।
748. निष्काम भक्त कभी भी घाटे में नहीं रहता ।
749. जिसकी सेवा प्रभु स्वीकार करते हैं उसे प्रभु अपने सानिध्य का आनंद प्रदान करते हैं ।
750. प्रभु को कृपासिंधु कहते हैं यानी उनकी कृपा असीम है और अनंत है ।
751. एक सेठ के यहाँ दो सेवक रहते हैं । एक मासिक तनख्वाह लेता है और साल भर में मांगकर तनख्वाह में बढ़ोतरी भी करवा लेता है । दूसरा सेवक कुछ नहीं लेता और सेवा करता है । मांगने वाले सेवक को जो मांगा वह मिलेगा पर नहीं मांगने वाला सेवक उस सेठ के घर का सेवक न रहकर सदस्य बना लिया जाता है । ऐसे ही सकाम भक्त को प्रभु जिसका वह हकदार होता है और मांगता है वह देते हैं पर निष्काम भक्त को प्रभु अपना लेते हैं ।
752. भक्त कभी भी प्रभु से मांग कर अपनी भक्ति को लज्जित नहीं करता, वह सदैव निष्काम बने रहता है ।
753. प्रभु अपने विभिन्न रूपों में परस्पर एक-दूसरे के सेवक, सखा और स्वामी होते हैं ।
754. भक्त प्रभु से कहते हैं कि इतनी परीक्षा देने लायक वह नहीं है क्योंकि कहीं परीक्षा में वह प्रभु को भूल न जाए और भक्ति मार्ग से भटक न जाए ।
755. प्रभु की भक्ति में लगे और संसार न छूटा और प्रभु के दीवाने न हुए तो सब प्रयास बेकार गया ।
756. भक्त मृत्यु बेला पर निरंतर प्रभु को हृदय में धारण करके और प्रभु का चिंतन करके अपनी मृत्यु को भी उत्सव बना लेता है ।
757. संत कहते हैं कि असलियत तो यह है कि भक्त में सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु तक पहुँचे, प्रभु ही कृपा करके भक्त तक चलकर आते हैं । श्री प्रह्लादजी प्रभु के पास नहीं गए, प्रभु ही श्री नृसिंह अवतार लेकर आए । श्री ध्रुवजी प्रभु के पास नहीं गए, प्रभु ही श्री ध्रुवजी को दर्शन देने के लिए आए ।
758. जैसे एक माता कोई काम कर रही है और उसका बच्चा रोता है तो वह एक खिलौना बच्चे को पकड़ा आती है, फिर बच्चा थोड़ी देर खेल कर रोता है तो दूसरा खिलौना पकड़ा देती है । जब दो-तीन बार खिलौना बदलने के बाद भी बच्चा रोता है तो माता को स्वयं आना पड़ता है । इसी तरह प्रभु भक्ति मार्ग में बढ़ रहे भक्तों को धन का खिलौना, कीर्ति का खिलौना, मोक्ष का खिलौना देते हैं पर जब सच्चा भक्त उससे खेलता नहीं और प्रभु के लिए रोता है तो ऐसे में प्रभु को स्वयं आना पड़ता है और तब प्रभु उसे अपना कर उसे अपनी भक्ति देते हैं ।
759. प्रभु की माया भक्ति करने वाले भक्त की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसे संसार में उलझाने की कोशिश करती है पर भक्त अगर माया की वस्तुओं में नहीं उलझता तो प्रभु तत्काल उस भक्त को अपना लेते हैं ।
760. बिना तड़प के प्रभु किसी को भी नहीं मिलते । जब हम प्रभु मिलन के लिए अंतःकरण में तड़पते हैं तभी प्रभु का हृदय द्रवित होता है और प्रभु मिलते हैं ।
761. प्रभु की कृपा का फल है कि जीव को सत्संग प्राप्त होता है ।
762. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमारे लौकिक और अलौकिक दोनों संकल्पों को पूर्ण करती है ।
763. श्रीमद् भागवतजी महापुराण जगत से विरक्ति और प्रभु प्रेम प्राप्ति करवाने वाला श्रीग्रंथ है ।
764. भक्ति मार्ग से सहज और सरल दूसरा कोई मार्ग नहीं है ।
765. जीव को केवल प्रभु कृपा पर ही भरोसा रखना चाहिए ।
766. आज तक जगत जिसको भी मिला है अधूरा ही मिला है और प्रभु जिसको भी मिले हैं पूरे ही मिले हैं । संसार किसी को पूरा नहीं मिलता और प्रभु किसी को अधूरे नहीं मिलते ।
767. भक्त जनमानस को प्रभु प्रेम का दान करते हैं ।
768. लौकिक वस्तुओं की चाह को संतों ने पिशाचिनी यानी प्रेत कहा है ।
769. भक्ति की महिमा देखें कि देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि वे संसारी के लिए नहीं, नर्क गामी के लिए नहीं पर मोक्ष प्राप्त हुए जीव के लिए रोते हैं । ऐसा इसलिए कि जो संसारी है वह कभी भक्ति पथ पर किसी सत्संग के प्रभाव से आ सकता है और भक्ति का रसास्वादन कर सकता है । जो नर्क गामी है वह नर्क भोगकर पाप काटकर फिर मृत्युलोक में जन्म पाएगा और संभावना है कि भक्ति का रसास्वादन कर पाएगा । पर जो मुक्त हो चुके हैं उनका जन्म-मरण ही खत्म हो गया और वे प्रभु में विलीन हो गए इसलिए उनके लिए रोना आता है क्योंकि अब वे भक्ति का रसास्वादन कभी नहीं कर पाएंगे ।
770. भक्त प्रभु का भजन करता है, प्रभु से प्रेम करता है, प्रभु की शरणागति लेकर रहता है, प्रभु का नाम जपता है और प्रभु के लिए भाव में रोता है ।
771. भक्तों को प्रभु का लीला सुख, प्रेम सुख और सेवा सुख मिलता है ।
772. भक्तों का जन्म कर्मबंधन के कारण नहीं होता, उनका जन्म प्रभु इच्छा से प्रभु कार्य जैसे भक्ति का प्रचार करने के लिए होता है ।
773. भक्तों को ही प्रभु के धाम में प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता है जो अन्य किसी को प्राप्त नहीं होता ।
774. सच्चे बुद्धिमान वे होते हैं जो मुक्ति न लेकर प्रभु की भक्ति को चुनते हैं ।
775. श्री वृंदावनजी की महिमा देखें कि मुक्ति भी अपनी मुक्ति के लिए प्रभु से कहती है कि श्री वृंदावनजी की श्रीबृज रज उन्हें मिले ताकि मुक्ति भी मुक्त हो जाए ।
776. जीव का कल्याण न स्वर्ग जाकर है, न कहीं अन्य जाकर है । उसका कल्याण केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचकर ही है ।
777. संसार में अपने मन को कहीं भी अटकने नहीं दें, मन अटके तो प्रभु में ही अटके ।
778. जो वाणी प्रभु का यश गाती है वह परम पवित्र हो जाती है ।
779. भजन का बल सबसे बड़ा बल होता है ।
780. हमें मन, वचन और कर्म से प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम करने वाला बनना चाहिए ।
781. प्रेम बिना प्रभु नहीं मिल सकते चाहे कोटि उपाय कोई कर ले ।
782. संसार आज परिवार, व्यापार की बात हमसे पूछता है पर प्रभु की भक्ति कितनी है यह पूछने वाला कोई नहीं है ।
783. सच्चे भक्त की हर इच्छा प्रभु मान्य करते हैं और स्वीकार करते हैं ।
784. सबसे निकट से भक्तों को ही भगवान का अनुभव होता है ।
785. प्रभु नाम में निष्ठा प्रबल होनी चाहिए ।
786. प्रभु का नाम जप भी अपने आप में प्रभु की पूर्ण सेवा और पूजा है ।
787. कलियुग में नाम जप का इतना महत्व है कि नाम जप हो गया तो यज्ञ, योग, दान, तप, पूजा, तीर्थ और व्रत सब हो गया लेकिन और सब कुछ कर लिया पर नाम जप नहीं हुआ तो फिर कुछ भी नहीं हुआ ।
788. जीवन में पूज्य और प्रिय उसे ही मानना चाहिए जो प्रभु से प्रेम करता है और प्रभु की भक्ति करता है ।
789. जो प्रभु से प्रेम नहीं करता, प्रभु की भक्ति नहीं करता उसे कदापि अपना न मानें । उससे उदासीन रहें ।
790. नाम जपने पर नामी यानी प्रभु बोलते हैं, यह सिद्धांत है ।
791. नाम और नामी प्रभु में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं ।
792. नामी प्रभु अपने नाम के अधीन रहते हैं ।
793. हमारा नाम लेकर कोई भीड़ में भी पुकारता है तो हमारा ध्यान उस ओर जाता है तो क्या प्रभु का नाम लेकर पुकारने पर प्रभु का ध्यान पुकारने वाले की तरफ नहीं जाएगा ।
794. एक संत एक सत्य घटना बताते थे कि एक हवेली में एक सेठ-सेठानी रहते थे जिनका नाम राम और सीता था और वे सच्चे वैष्णव थे । उनकी सेवा भी प्रभु श्री रामजी और भगवती सीता माता की थी । एक रात उनके वृद्ध पिता को प्यास लगी । पास में रखा पानी खत्म हो चुका था तो उन्होंने अपनी बहू को आवाज लगाई । घर में बहू सीता गहरी नींद सोई हुई थी तो वह नहीं उठ पाई पर भगवती सीता माता एक आवाज में तुरंत पहुँच गई और माता ने स्वयं आकर उन्हें जल पिलाया और कृतकृत्य कर दिया ।
795. अगर सच्ची भावना से नाम जप होता है तो नाम पुकारने से नामी प्रभु तुरंत पुकार सुनते हैं ।
796. किसी और को लक्ष्य करके भी प्रभु का नाम पुकारा जाए तो भी प्रभु कृपा करते हैं क्योंकि प्रभु इतने करुणामय हैं । इसलिए ही पुराने जमाने में बच्चों का नाम प्रभु के नाम पर रखा जाता था, यह भारतीय परंपरा थी ।
797. प्रभु का नाम तो तीनों लोकों के जीवों को प्रभु के परम धाम पहुँचा देता है ।
798. सभी साधनों का फल प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान मिलना ही है ।
799. संत कबीरदासजी के दोहों पर आज के विद्वान पीएचडी करते हैं । उनकी वाणी का यह प्रभाव केवल प्रभु नाम प्रताप के कारण आया ।
800. प्रभु के बारे में श्रवण का फल प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति है ।