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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 28

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. संचित पाप कर्मों को मिटाने का एक ही उपाय है कि प्रभु की पूर्ण शरणागति जीवन में ली जाए ।
002. मनुष्य जन्म संचित पाप कर्म भोगने के लिए नहीं मिला है, उन संचित पाप कर्मों को प्रभु की भक्ति करके सदा-सदा के लिए मिटाने के लिए मिला है ।
003. जो परम धन प्रभु का नाम हमारे साथ जाएगा वह समय हम संसार में माया के चक्कर में फंसकर सांसारिक धन कमाने में व्यतीत कर रहे हैं ।
004. धन्य हो गया वह जिसकी जिह्वा पर प्रभु का नाम और हृदय में प्रभु के श्रीकमलचरणों का वास हो गया ।
005. अजीत प्रभु को कोई जीत नहीं सका और न सकेगा । अजीत प्रभु हारते हैं तो अपने केवल अपने प्रेमी भक्तों के आगे और ऐसा करने में वे परम आनंद और गौरव मनाते हैं ।
006. प्रेमाधीन प्रभु अपने प्रेमी भक्तों के पीछे-पीछे चलते हैं ।
007. प्रभु का यश गाने को मिले इससे बड़ा भाग्य हो ही नहीं सकता ।
008. हमें सुख देने वाला धन और शरीर हमारे मित्र नहीं हैं, हमारा सच्चा मित्र तो भजन है ।
009. जितनी महत्व बुद्धि हमारी धन कमाने में होती है उसका कुछ प्रतिशत भी प्रभु नाम जपने में हो जाए तो हमारा परम मंगल हो जाएगा ।
010. जगतजननी माता हमारे गुण देखकर हमें प्रेम नहीं करती, मेरा बच्चा है यह मानकर प्रेम करती है ।
011. इंद्रियों के वशीभूत नहीं होना चाहिए नहीं तो वे हमें भोगों में लगाकर हमारा सर्वनाश कर देंगी ।
012. भक्त प्रभु से कहता है कि मेरे और आपके बीच में एक होड़ मची है । मैं बार-बार बिगड़ता रहता हूँ और आप प्रभु बार-बार मेरी बिगड़ी को संवारते रहते हैं ।
013. हम सब कृपालु प्रभु की कृपा के कारण ही जीवित हैं ।
014. हमारी सांसे प्रभु को समर्पित करने से हमारा सर्वमंगल जीवन में होता चला जाएगा ।
015. भक्त का प्रेम प्रभु को भी मोहित कर देता है ।
016. भक्ति ही प्रभु को लुभा सकती है । केवल भक्ति के अलावा प्रभु को अन्य कुछ भी नहीं लुभा सकता ।
017. महा विश्राम, महा परमानंद केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचने पर ही मिलेगा ।
018. केवल भक्ति की योग्यता ही जीवन में हमारा कल्याण करवा सकती है ।
019. भक्त जहाँ भी पैर रख दे वह स्थान पावन हो जाता है, भक्ति की इतनी महिमा है ।
020. प्रभु की कृपा का ही केवल जीवन में आश्रय लेना चाहिए ।
021. प्रभु का नाम जप को ही परम धर्म माना गया है ।
022. हमें अपनी इंद्रियों की अधीनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
023. भोगों में सुख बुद्धि कभी नहीं रखनी चाहिए ।
024. हमारी सारी चेष्टाएं प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही होनी चाहिए ।
025. हमारा एक-एक क्षण जा रहा है और मृत्यु नजदीक आ रही है । इसलिए अविलंब जीवन में भक्ति प्रारंभ कर देनी चाहिए ।
026. अज्ञान के कारण हमारा मोह शरीर में, शरीर संबंधियों में, विषयों में, वस्तु में, भोगों में होता है और यह सब हमारे विनाश का कारण बनते हैं । मोह भगवत् चर्चा रूपी सत्संग से ही दूर होता है, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
027. श्रीहरि का स्मरण मात्र से ही सारी विपत्तियां नष्ट हो जाती है, एक भी बाधा उस जीव को परास्त नहीं कर सकती ।
028. प्रभु नाम जापक का गला दबा सके इतना सामर्थ्य किसी में भी नहीं है ।
029. तृष्णा का अर्थ है कि भोगे हुए भोगों को बार-बार भोगने की इच्छा । अतृप्ति इसका मूल है । तृप्ति और परमानंद केवल भजन में ही आएगा, अन्यत्र कहीं से नहीं आएगा ।
030. हमारे मन, वचन और कर्म प्रभु अर्पित होने चाहिए ।
031. प्रभु की शरणागति ही कंचन, कामिनी और कीर्ति से हमें बचा सकती है अन्यथा इनसे कोई नहीं बच पाया है ।
032. भोगों के सानिध्य में संसार में रहने पर भी उन्हें भोगने की इच्छा न हो, यह केवल भक्ति से ही संभव है ।
033. भगवत् चर्चा सुनने की, नाम जप करने की भूख जीवन में बढ़ने लगे तब अपने को सच्चा भाग्यवान समझना चाहिए ।
034. प्रभु की भक्ति नहीं तो जीवन की दुर्दशा और दुर्गति कोई भी नहीं रोक पाएगा ।
035. अगर भगवत् प्राप्ति करनी है तो एक पल भी भगवत् विस्मरण नहीं होना चाहिए । प्रभु का स्मरण निरंतर बने रहना चाहिए ।
036. पूरे त्रिभुवन का वैभव देने पर भी जो आधे क्षण भी प्रभु का विस्मरण नहीं करता वही महा भागवत कहलाता है ।
037. एक भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान हमारे आशा और भरोसा का केंद्र नहीं होना चाहिए । आशा और भरोसा जीवन में केवल प्रभु का ही होना चाहिए ।
038. भगवान का सच्चा दास किसी अन्य से कोई आशा कर ही नहीं सकता ।
039. जिसके जिह्वा पर प्रभु का नाम होता है उसे भगवत् बल का अनुभव होता रहता है । वह सदैव निर्भय और निडर रहता है ।
040. प्रभु का नाम जप हमें हर संकट से बचा सकता है क्योंकि वह प्रभु की तरह ही सर्वसामर्थ्यशाली है ।
041. प्रभु के नाम जापक की दसों दिशाएं मंगल-ही-मंगल करती है ।
042. प्रभु श्री कृष्णजी छ: वर्ष की आयु में गौ-माता की पूजा की बात गोपों के सामने कहते हैं । प्रभु श्री रामजी गौ ब्राह्मण हितार्थ का वचन ऋषि श्री विश्वामित्रजी को पहली राक्षसी मारने से पहले सोलह वर्ष की आयु में कहते हैं । प्रभु ने दोनों अवतारों में प्रथम गौ रक्षा का प्रण लिया है । गौ-माता का सनातन धर्म में महत्व इससे ही पता चलता है ।
043. प्रभु निर्णायक हैं परंतु असीम दयालु भी हैं ।
044. नाम जप पीछे का, वर्तमान का और भविष्य का पाप कर्म मिटाने का सामर्थ्य रखता है ।
045. भगवत् प्राप्ति के लिए प्रभु के अलावा सबका विस्मरण हो जाए, तभी भगवत् प्राप्ति संभव है ।
046. मन प्रभु को अर्पित हो जाए यह मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है ।
047. प्रभु हमारे अंदर की सब बात और सब कुछ जानते हैं ।
048. हम संसार को लुभाने के लिए आचरण करते हैं । अगर यही आचरण प्रभु को लुभाने के लिए किया जाए तो भगवत् प्राप्ति निश्चित हो जाएगी ।
049. प्रभु से मिलना कठिन नहीं है पर जीव संसार में रमना चाहता है, प्रभु से मिलना ही नहीं चाहता ।
050. भगवत् प्राप्ति होना कठिन नहीं, भगवत् प्राप्ति की लालसा जीवन में होना कठिन है ।
051. प्रभु का चिंतन ही एकमात्र जीवन में आनंद देने वाला साधन होता है ।
052. जीव को प्रभु की तरफ से देने के लिए केवल प्रेम-ही-प्रेम है ।
053. प्रभु को पकड़ लें तो हम जीवन मुक्त हो जाएंगे और प्रभु को भूल गए तो फिर अनंत जन्म लेने पड़ेंगे ।
054. अदभुत परमानंद जगत में नहीं है केवल प्रभु श्री जगदीशजी के पास ही है ।
055. सारे दुःखों को मिटाने का सामर्थ्‍य प्रभु के नाम में है इसलिए जिसने नाम को पकड़ लिया वह एक दिन दुःख मुक्त होकर ही रहेगा ।
056. इस जीवन को अपना आखिरी जीवन बना लेना ही श्रेष्ठ होता है ।
057. कलियुग में कोई भी साधन से बड़ा साधन प्रभु का नाम जप है ।
058. जो प्रभु की अनन्य होकर भक्ति करता है प्रभु कहते हैं कि मैं उसके लिए एकदम सुलभ हो जाता हूँ ।
059. भगवत् प्राप्ति प्रभु के सतत चिंतन से ही संभव होती है ।
060. प्रभु के बिके हुए दास बनकर ही जीवन जीना श्रेष्ठ होता है ।
061. नाम और श्वास का भेद मिटाना चाहिए यानी हर श्वास पर प्रभु का नाम चलना चाहिए ।
062. भजन करने का हमारा स्वभाव ही बन जाना चाहिए ।
063. दीर्घकाल और निरंतर नाम जप होने पर वह हमारे सभी पापों को नष्ट कर देता है ।
064. गौ-माता के बारे में सुनने से, बोलने से पुण्य मिलता है । गौ-माता के दर्शन से तो पुण्य है ही ।
065. गौ-माता से मूल्यवान भगवती पृथ्वी माता के पास कुछ भी नहीं है, ऐसा शास्त्रों और ऋषियों का एकमत है ।
066. देसी गौ-माता का दूध पीने से और प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को सुबह अर्ग देने से गर्भावस्था में ऐसा करने वाले महिलाओं के संतान दस हजार बच्चों में अलग ही दिखेंगे । उन संतान में तेज, सुंदरता और बुद्धि अत्यधिक होगी ।
067. भक्ति प्रभु की प्रसन्नता के लिए करनी चाहिए, किसी कामना पूर्ति के लिए नहीं करनी चाहिए ।
068. कामना पूर्ति के लिए की गई भक्ति वैसी ही है जैसे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग मच्छर मारने के लिए किया जाए ।
069. कभी दुःख न मिले ऐसा एक ही स्थान है और वह हैं प्रभु के श्रीकमलचरण ।
070. प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचाने के लिए प्रभु की शरणागति और प्रभु का नाम जप, भक्ति के अंतर्गत बस यह दो ही साधन कलियुग में करने होते हैं ।
071. संसार का चिंतन छोड़कर प्रभु का चिंतन करना चाहिए नहीं तो मानव जीवन ही व्यर्थ चला जाएगा ।
072. चाहे पूरा संसार हमसे प्रेम करे पर हमारे प्रेम की स्वीकृति तो केवल प्रभु के लिए ही होनी चाहिए ।
073. प्रवचन तो हम बहुत सुनते हैं पर उन्हें जीवन में उतारा जाए तभी आध्यात्मिक रंग हम पर चढ़ेगा ।
074. अनेकों जन्मों की बिगड़ी केवल इस जन्म में प्रभु की शरणागति लेने पर बन जाती है ।
075. भजन का फल यह नहीं है कि दुःख जीवन में नहीं आएगा पर वह दुःख हमें परास्त नहीं कर पाएगा ।
076. प्रभु की शरण में रहकर निरंतर प्रभु का स्मरण करना चाहिए । यही हमारे जीवन में मंगल की अचूक औषधि है ।
077. हमारे जीवन के स्तर को ऊपर उठाने वाले और हमें ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
078. प्रभु का अविश्वास कभी भी, किसी भी कीमत में नहीं होने देना चाहिए ।
079. भूतकाल को प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित कर दें, भविष्य के लिए प्रभु का आश्रय लेकर निश्चिंत रहें और वर्तमान में प्रभु की भक्ति करें – यही सफलता का रहस्य है ।
080. प्रभु प्रतिक्षण हमारा इतना दुलार और हमें इतना प्यार करते हैं जो कोटि-कोटि माता की ममता भी साथ मिलकर नहीं कर सकती ।
081. जो हमें भगवत् विस्मरण कराए और संसार के भोगों की प्रियता जताए, ऐसे व्यक्ति, पदार्थ के संग का मन से तत्काल त्याग कर देना चाहिए ।
082. हृदय से प्रभु के साथ ही संबंध रहे तो फिर माया हमें परास्त नहीं कर पाएगी ।
083. प्रभु का आश्रय होगा तो जीवन का उत्साह कभी भी नहीं टूटेगा ।
084. प्रभु की शरणागति लेने पर हम लोक-परलोक में उन्नति प्राप्त कर सकते हैं ।
085. प्रभु का स्वभाव है कि वे शरणागत के अवगुणों को नहीं देखते और उन्हें शरण दे देते हैं ।
086. कोई पाप नहीं छोड़ा, सब कर डाले, ऐसा दुराचारी भी प्रभु की शरण में आ जाता है तो प्रभु उसे साधु स्वभाव का बना देते हैं, यह प्रभु की प्रतिज्ञा है ।
087. इस बात से कभी नहीं डरें कि अब मेरा उद्धार नहीं हो सकता, प्रभु पर पूर्ण विश्वास रखें ।
088. किसी भी स्थिति में मनुष्य जीवन में परम लाभ देने वाली भक्ति ही हमें करनी है । इस परम लाभ को कभी भी खोना नहीं चाहिए ।
089. हम तो केवल और केवल प्रभु के ही हैं, यही एकमात्र सत्य है ।
090. प्रभु का नाम जप और प्रभु का आश्रय, यही कलियुग में भक्ति का स्वरूप है ।
091. पूरी सृष्टि में प्रभु ही सबकी निरंतर व्यवस्था करते रहते हैं ।
092. केवल आश्रय और भरोसा प्रभु का ही जीवन में होना चाहिए ।
093. बिना सत्संग के पशुवत बुद्धि की वृद्धि हमारे भीतर होती चली जाती है, ऐसा शास्त्र मत है ।
094. नाम जप से सभी पवित्रता जीवन में आ जाती है ।
095. हमारा मन ही बंधन या मोक्ष का कारण होता है ।
096. जो नाम जप करके महापुरुष बने हैं, वही प्रभु का नाम हमारे लिए भी उपलब्ध है ।
097. प्रभु में लगा मन सर्वोच्च अवस्था में हमें पहुँचा देता है ।
098. जब तक हमारी इंद्रियां भोगों के लिए मचलती है तब तक हम प्रभु से बहुत दूर हैं ।
099. जिनको श्रीहरि का भरोसा हो गया उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
100. याद रखें कि इस दुनिया में प्रभु ही हमारे सबसे बड़े साथी, सखा, शुभचिंतक, हमसफर हैं । ऐसा अन्य कोई भी नहीं हो सकता ।
101. जीव का सबसे बड़ा अपराध उससे जीवन में भगवत् विस्मरण होना है ।
102. भगवत् आनंद के आगे संसार के विषय सुख टिक ही नहीं सकते पर क्योंकि हमें भगवत् आनंद का परिचय नहीं है इसलिए संसार के विषय सुख हमें आकर्षित करते हैं ।
103. संसार में सभी सुख की चाह में जी रहे हैं पर सच्चा सुख किसी को नहीं मिल पाया है क्योंकि संसार में सुख है ही नहीं । संसार को शास्त्रों में दुखालय कहा गया है ।
104. जो प्रभु को भूला है वह बर्बाद है । प्रभु जिसको याद है वह आबाद है । यह शास्त्र मत है ।
105. प्रभु को भूलते ही हम माया के चुंगल में फंस जाते हैं ।
106. भगवत् आसक्त होना हमें जीवन में सबसे बड़ा लाभ देता है ।
107. प्रभु पर अपना भार छोड़ देना चाहिए, तब मंगल-ही-मंगल होगा ।
108. प्रभु उनका चिंतन करने से ही मिलते हैं । इसलिए जैसे भी बने प्रभु का चिंतन करें । नाम जप प्रभु चिंतन का बहुत प्रबल साधन है ।
109. हर चेष्टा जीवन में प्रभु को समर्पित करने पर निश्चित भगवत् प्राप्ति हो जाती है ।
110. शांति प्रभु से विमुख होने वाले को कभी मिल ही नहीं सकती ।
111. प्रभु की प्रसन्नता ही मनुष्य जीवन का परम लाभ है ।
112. ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो गौ-माता की सेवा करने पर प्राप्त नहीं हो सकता ।
113. गौ-माता की सेवा करने वाले अपने जीवन की हर सात्विक इच्छा को गौ-माता की कृपा से पूर्ण कर पाते हैं ।
114. प्रभु श्री महादेवजी के मंदिर में श्री नंदीश्वरजी के कान में अपनी मनोकामना कहने से वह कामना प्रभु श्री महादेवजी पूर्ण करते हैं । श्री नंदीश्वरजी का यह महत्व है ।
115. प्रभु सर्वज्ञ हैं और आगे की जानते हैं इसलिए भक्त के लिए जो उचित होता है वही प्रभु करते हैं ।
116. भक्ति प्रभु की स्मृति हमें प्रदान करती है । भक्ति के कारण प्रभु हमें सर्वदा याद रहते हैं ।
117. प्रभु से कुछ सांसारिक वस्तु भी मांगनी है तो यही कहना चाहिए प्रभु से कि आपको उचित लगे और मेरे हित में हो तो दे दें ।
118. बिना भजन के सत्य का और सत्य मार्ग का रहस्य समझ में ही नहीं आएगा ।
119. भगवत् अर्पित होते ही हर वस्तु प्रसाद बन जाती है ।
120. पक्षी दो पंख से उड़ते हैं । संत उपमा देते हैं कि कलियुग में मनुष्य के भी दो पंख हैं, एक नाम जप का और एक सत्संग का और उसे लेकर उड़ाना चाहिए तभी वह जीव आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँच पाएगा ।
121. साधना सही हो यानी नाम जप, सत्संग, श्रीहरि चर्चा, भजन होता हो तो हम कलियुग में रहकर भी सतयुग में ही हैं ।
122. प्रभु का नाम जप से बढ़कर कलियुग में सर्वसामर्थ्यशाली कुछ भी नहीं है । कलियुग भी नाम जापक को पथभ्रष्ट नहीं करता बल्कि नाम जापक का कलियुग भी आदर करता है और उनका कुछ नहीं बिगाड़ता ।
123. कलियुग तब प्रभाव करता है जब हम भगवत् विमुख होते हैं ।
124. प्रभु ने हमें मानव देह देकर हमारे कल्याण का सुअवसर हमें दिया है ।
125. प्रभु पर किया भरोसा विश्व का सबसे कल्याणकारी और हमारा परम मंगल करने वाला भरोसा है ।
126. प्रभु के सिवाय हमारे हृदय में और कोई आसरा या आस नहीं होनी चाहिए ।
127. प्रभु की तरफ जाने का मार्ग ही सत्य का मार्ग है ।
128. हर क्षण चित्त का चिंतन प्रभु से जुड़ा हुआ होना चाहिए ।
129. प्रभु केवल हमारा भाव देखते हैं और उस पर रीझ जाते हैं ।
130. जहाँ भी गौ-माता जाती है वहाँ का वातावरण पवित्र हो जाता है, वहाँ के परमाणु में मंगल करने की क्षमता आ जाती है । यह अलौकिक प्रभाव गौ-माता का है ।
131. गौ-माता के दोनों सींग के बीच का मस्तक का स्थान मानो सिद्धियों का द्वार है । इसलिए गौ-माता के मस्तक का पूजन करने से सिद्धियां जीवन में आती हैं ।
132. भारतवर्ष गौ संस्कृति वाला देश पूर्व काल से ही रहा है ।
133. हमारा मन हमें अपना दास बनाए हुए हैं । इस परिस्थिति से हमें निकलना चाहिए ।
134. जहाँ हमें मन लगाना चाहिए वहाँ मन लग जाए यानी हम प्रभु में मन लगाना चाहते हैं तो मन प्रभु में लग जाए तभी हमारी जीत है । मन प्रभु को छोड़कर संसार में लग गया तो हमारी हार है ।
135. हर प्रश्न का समाधान प्रभु की भक्ति में ही मिलेगा । भक्ति बिना हमारी कोई गति ही नहीं है ।
136. प्रभु की कृपा बल से ही हमारा जीवन चल रहा है ।
137. भरोसा केवल सर्वसामर्थ्यवान प्रभु का ही जीवन में रखना चाहिए ।
138. समाज और जनता का भरोसा, तन का भरोसा, धन का भरोसा - यह सब भरोसे लायक नहीं हैं ।
139. प्रभु सर्वशक्तिमान, सर्वसामर्थ्यवान, सर्वत्र और सर्वज्ञ है ।
140. अनन्यता से जीवन में केवल और केवल प्रभु का ही चिंतन होना चाहिए ।
141. एक संत ने उपदेश में सुना कि प्रभु आश्रित होने पर प्रभु पूरा योगक्षेम वहन करते हैं । उन संत ने निश्चय किया कि आज एक पेड़ पर चढ़ जाता हूँ और भोजन नहीं करूँगा तो क्या प्रभु भोजन पेड़ तक पहुँचाएंगे । तभी एक सेठजी उस वृक्ष के नीचे आए और गरमा-गर्म भोजन खोलकर खाने लगे तभी उनके नौकर ने कहा कि चोरों की टोली आ रही है । सेठजी भोजन वही छोड़कर भागे । चोरों ने देखा कि भोजन पड़ा है । उनके मुखिया ने कहा कि यह भोजन हमें मारने के लिए जहर मिलाकर रखा गया है । भोजन रखने वाला आसपास ही होगा । देखा तो वृक्ष के ऊपर संत बैठे मिले । उन्हें दो चोरों ने मिलकर नीचे उतारा और जबरदस्ती भोजन चोरों ने अपने हाथों से पवाया । संत भोजन पाकर प्रभु से बोले कि प्रभु ऐसे योगक्षेम का वहन करते हैं कि पेड़ से उतारकर भोजन दूसरे के हाथ से पवा दिया । उतरना भी खुद नहीं पड़ा और अपने हाथों से भोजन भी नहीं करना पड़ा । फिर भी पेट भरकर भोजन पा लिया । यह प्रभु का योगक्षेम है ।
142. जिस भी सनातन धर्म के श्रीग्रंथ में देखें गौ-माता का अपरंपार माहात्म्य वहाँ मिलेगा ।
143. प्रभु हम पर प्रसन्न होते हैं तो सभी देवतागण, ग्रह, सृष्टि एवं प्रकृति भी हम पर स्वतः ही प्रसन्न हो जाते हैं ।
144. साधारण तौर पर प्रभु से विमुख होकर जीव विषयों में भटकता है पर भक्त विषयों से विमुख होकर प्रभु से प्रीति जोड़ लेता है ।
145. प्रभु का निरंतर चिंतन ही भगवत् प्राप्ति का मूल है ।
146. प्रभु और प्रभु के विधान में कभी दोष दर्शन नहीं करना चाहिए ।
147. प्रभु में पूर्ण श्रद्धा जागृत करके रखनी चाहिए ।
148. जिन्होंने प्रभु नाम में प्रीति कर ली उन्होंने मानो नामी प्रभु को अपने वश में कर लिया ।
149. जैसे डोरी हाथ में हो तो पतंग कहीं नहीं जा सकती वैसे ही प्रभु नाम जिह्वा पर हो तो प्रभु कहीं नहीं जा सकते ।
150. गौ-माता जहाँ रहती है वहाँ अपवित्रता और अभाव का वातावरण सदैव के लिए नष्ट हो जाता है ।
151. अनुकूलता में भजन करने से भी बड़ी बात है प्रतिकूलता में भजन करना क्योंकि अनुकूलता के भजन को तो प्रतिकूलता परास्त कर सकती है पर प्रतिकूलता के भजन को कोई परास्त नहीं कर सकता ।
152. हमारा मन अगर यह चाह ले कि भजन करना है तो फिर हमें भजन करने से कोई भी नहीं रोक सकता । गड़बड़ यह है कि हमारा मन ही भजन करना नहीं चाहता ।
153. भूमि का सर्वोत्तम आहार गोमूत्र और गोबर है । इससे गौ-माता के महत्व का पता चलता है ।
154. किसी भी दिन बिना मुहूर्त देखे कोई शुभ काम करने की बेला गोधूलि बेला मानी गई है । गोधूलि बेला वह बेला है जब गौ-माता वन से वापस आती है और उनके चरणों की धूलि उड़ती है । इसलिए शास्त्रों में इस बेला को गोधूलि और अबूझ माना गया है । इतनी विशाल गौ महिमा है ।
155. जिसकी जिह्वा पर सदैव प्रभु का नाम हो उस जीव को कोई भी परास्त नहीं कर सकता ।
156. हम दुःखी तभी होते हैं जब हम संसार को अपना मानते हैं और प्रभु को अपना नहीं मानते । केवल और केवल प्रभु को अपना मानने वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता । दुःख की ताकत नहीं कि उस भक्त को दुःखी कर दे ।
157. इस मानव जन्म को हमें जन्म देने वाले प्रभु के समीप पहुँचने वाला कार्य करने में लगाना चाहिए ।
158. भक्ति में भगवान का पूर्ण भरोसा, पूर्ण आश्रय लेने पर प्रभु का पूर्ण बल हमारी रक्षा करता है ।
159. अन्य मार्गों में अपने बल से चलना होता है पर भक्ति मार्ग में प्रभु का बल हमें मिल जाता है जो हमारा सदैव मार्गदर्शन और हमारी रक्षा करता है ।
160. भगवत् प्राप्ति मार्ग पर सबसे विशेष सावधानी अपने अहंकार की रखनी होती है नहीं तो वह हमारा पतन और हमें भगवत् मार्ग से विमुख कर देता है ।
161. समस्त किए हुए साधनों को नष्ट करने की एकमात्र क्षमता हमारे अहंकार में है ।
162. प्रभु में पूर्ण समर्पण होने पर वह हमें भगवत् प्राप्ति मार्ग का स्वतः ही बोध करवा देती है ।
163. प्रभु का दासत्व स्वीकार करते ही हमारे विकार नष्ट होने लग जाते हैं ।
164. केवल एक अभिमान जीवन में रहे कि मैं प्रभु का दास हूँ तथा धन, रूप, पद, प्रतिष्ठा, जाति और अन्य कर्म का अभिमान नष्ट हो जाए तो हमारा मंगल और कल्याण निश्चित है ।
165. प्रभु शरणागत होने पर कोई शोक और चिंता हमें जीवन में परेशान नहीं कर सकती ।
166. प्रभु की चर्चा सुनना और प्रभु की चर्चा करना जीवन का सबसे श्रेष्ठ कर्म होता है ।
167. कहीं भी रहें प्रभु के बनकर, प्रभु के होकर रहें तभी जीवन सार्थक होगा ।
168. सब बलों से सबसे बड़ा महाबल प्रभु का आश्रय बल है ।
169. जीवन में सदैव प्रभु को ही लक्ष्य रूप में रखना चाहिए ।
170. एक धर्म प्रधान देश भारतवर्ष में जन्म पाना प्रभु की बहुत बड़ी और विलक्षण कृपा है ।
171. सबसे बड़ा जीवन का फल यही है कि मन प्रभु में लग जाए ।
172. प्रभु में मन लगाना ही मंगल और शुभ का सूचक है ।
173. भगवत् प्राप्ति के बिना मानव जीवन का कोई महत्व नहीं है ।
174. जो भक्ति करता है वह भगवत् आश्रय में पूर्ण निश्चित हो जाता है ।
175. कोई भी भयानक से भयानक दुःख भी भगवत् शरणागत को परास्त नहीं कर सकता ।
176. विषय भोग की सामग्री बटोरने में और विषय भोग की सामग्री भोगने में अपना मानव जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहिए ।
177. प्रभु के नाम जप का सिक्का ऐसा है जो सब समय हमारे साथ रहेगा और हर लोक में चलेगा ।
178. जिसके जीवन में अध्यात्म का प्रवेश नहीं आखिर में पतन को ही प्राप्त होगा । एकमात्र अध्यात्म ही हमें पतन से बचा सकता है ।
179. सनातन धर्म ने सभी का पोषण किया है, किसी का शोषण कभी नहीं किया है ।
180. भक्ति विहीन जीवन पशुवत जीवन होता है ।
181. प्रभु के आश्रित होना हमारे परम मंगल का विधान होता है ।
182. माया का बहुत मेला हमने जन्मों-जन्मों से देख लिया अब अपने घर प्रभु के धाम लौटने का पक्का मन बनाना चाहिए । अब आगे जन्म लेकर माया का मेला नहीं देखना पड़े ।
183. केवल प्रभु चाहिए - यह चाहत हमारा कल्याण करने वाली चाहत है ।
184. जब प्रभु का दृढ़ भरोसा हो जाता है तो हम सच्चे मायने में निर्भय हो जाते हैं ।
185. प्रभु अपने आश्रितों को अपने दोनों भुजाओं को गोलाकार बनाकर उसके बीच में रखते हैं ।
186. स्वयं असमर्थता का अनुभव होने पर हमारी प्रभु के प्रति शरणागति पुष्ट होती है ।
187. प्रभु की शरणागति होने पर वह निर्भयता जागृत होती है कि काल भी उस जीव को डरा नहीं सकता ।
188. नाम में तारण शक्ति है, पाप नाशक शक्ति है इसलिए नाम जप की इतनी महिमा है ।
189. इतिहास इस बात का साक्षी है कि नाम जप ने घोर पापाचारियों को भी महात्मा बना दिया ।
190. प्रभु का नाम जप हमारी उन्नति में जो बाधक तत्व है उसे नष्ट कर देता है ।
191. अधर्म और पाप कर्म कभी किसी को बख्शता नहीं है, दंड देकर ही रहता है ।
192. प्रभु का नाम और गुणगान ही हमारी बुद्धि को ठीक रख सकती है नहीं तो माया हमारी बुद्धि को दूषित कर देती है ।
193. शास्त्रों के विपरीत कुछ भी आचरण करेंगे तो हम गिरते चले जाएंगे और जीवन में हमारा पतन निश्चित होगा ।
194. भगवत् भक्ति से बड़ा जीवन में कोई लाभ नहीं है ।
195. अधर्म आचरण में सुख बुद्धि कभी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसका परिणाम अत्यंत दुःख भरा ही आएगा ।
196. जितना-जितना हमने जन्मों-जन्मों में संचित पाप किए हैं अगर उसका हमें पता चल जाए तो हम यह जरूर मानेंगे कि प्रभु अत्यंत कृपालु और दयालु हैं जो इतना कम दंड देते हैं ।
197. बिना धर्म से चले किसी भी युग में हम सुखी नहीं हो सकते, शांति को प्राप्त नहीं कर सकते ।
198. प्रभु का आश्रय हो तो हर दुःख से निपटने का सामर्थ्य हमारे को प्रभु दे देते हैं ।
199. प्रभु से अलग होना ही हमारी दुर्गति का मुख्य कारण होता है ।
200. नाम जप हमारे उन कर्मों को नष्ट कर देता है जो आगे चलकर हमें दुःख देने वाले बन जाते हैं ।
201. किसी भी तरह से प्रभु से जुड़ना हमारे लिए महामंगलकारी होता है ।
202. सच्चा भक्त अपनी कामना प्रभु पर छोड़ देता है । प्रभु पूरी करते हैं तो वह दया मानता है और प्रभु पूरी नहीं करते तो वह प्रभु की कृपा मानता है ।
203. अपने प्राणों को अर्पण करके प्रभु को पाया जाता है ।
204. प्रभु की शरण में जाते ही हमारे विकार हमें छोड़कर भाग जाते हैं । प्रभु का प्रभाव ही ऐसा है ।
205. जो भी प्रभु का अनन्य चिंतन करेगा प्रभु उसके लिए सुलभ हो जाते हैं ।
206. जिससे प्रियता होती है तो उस चीज का चिंतन होता है । इसलिए संत कहते हैं कि अपने जीवन में प्रभु को सबसे प्रिय बनाएं तो फिर सतत चिंतन प्रभु का ही होता रहेगा ।
207. प्रभु का प्रेमी होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है ।
208. प्रभु के श्रीकमलचरणों के दासत्व को जीवन में प्राप्त करना चाहिए जिसके लिए यह जीवन हमें मिला है ।
209. प्रभु के नाम में अपार सामर्थ्य होती है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
210. प्रभु को जीव का कपट एकदम अच्छा नहीं लगता ।
211. एकमात्र प्रभु नाम, एकमात्र प्रभु नाम में ही सब कुछ संभव करने का सामर्थ्य है ।
212. प्रभु तक पहुँचने के लिए सिर्फ प्रभु की कृपा ही कारण बनती है ।
213. नाम जप से अजीत प्रभु के मन को भी भक्त जीत लेता है ।
214. प्रभु के लावण्य रूप का कोई चित्रण कर सके ऐसा कोई स्याही, रंग और आकृति बन ही नहीं सकती । प्रभु के रूप लावण्य पर कोटि-कोटि श्री कामदेवजी मूर्छित हो जाते हैं । जो प्रभु के रूप का चित्रण हम प्रकाशित देखते हैं वह सिंधु में बिंदु से भी कम है ।
215. नाम का आश्रय लेने पर नामी प्रभु तो कृपा करेंगे ही करेंगे ।
216. प्रभु के आश्रित को प्रभु कभी भी गिरने नहीं देते ।
217. जो भी हम कर्म करें, जो भी हम चेष्टा करें उसको भगवत् अर्पित कर देना उस कर्म को भक्तियोग बना देता है ।
218. जो कर्म प्रभु को अर्पित नहीं करेंगे उसे भोगने पड़ेंगे । प्रभु को अर्पित करने पर हम उसके कर्मफल से मुक्त हो जाते हैं ।
219. भगवत् प्रसन्नता के लिए ही हर कर्म करना चाहिए ।
220. कलियुग में जो निषेध कर्म है उसकी स्वीकृति हो रही है और जो उचित कर्म है उसका त्याग हो रहा है ।
221. भगवत् आज्ञा के विरुद्ध चलने वाले को त्रिभुवन में कहीं भी शांति प्राप्त नहीं होती ।
222. आत्म-समर्पण भक्ति की अंतिम सीढ़ी है । प्रभु में आत्म-समर्पण हो जाए तो सभी प्रकार की भक्ति सिद्ध हो जाती है ।
223. अपना अस्तित्व ही प्रभु को समर्पित कर देना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है ।
224. प्रभु को अहंकार बिल्कुल पसंद नहीं फिर चाहे वह हमारे सद्गुणों का अहंकार ही क्यों न हो ।
225. संत मानते हैं कि प्रभु श्री रामजी ने नवधा भक्ति का उपदेश भगवती शबरीजी को नहीं किया बल्कि नवधा भक्ति रूपी स्तुति भगवती शबरीजी की करी है ।
226. जो प्रभु को समर्पित हो जाता है उसका बोलना प्रभु अपनी स्तुति मानते हैं, उसका चलना प्रभु अपनी परिक्रमा किया ऐसा मानते हैं और उसका सोना भी प्रभु समाधि और ध्यान मानते हैं । ऐसा इसलिए क्योंकि वह जीव अपना अस्तित्व ही प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित कर चुका होता है ।
227. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री कपिलजी उपदेश में कहते हैं कि जो मंदिर में तो मेरी बहुत अच्छी पूजा करता है पर सभी में मुझे नहीं देखता और लोगों से द्रोह करता है उसकी पूजा वैसी ही है जैसे हवन सामग्री को अग्नि के बजाए राख में डाल दी जाए ।
228. प्रभु साक्षात अपने नाम में विराजमान रहते हैं । इसलिए नाम कभी हमारी जिह्वा से न हटे, इसका सदैव जीवन में ध्यान रखना चाहिए ।
229. प्रभु का पहला साक्षात्कार हृदय में होता है और वह होता है प्रभु के अनन्य चिंतन के द्वारा ।
230. बड़े-से-बड़े सुख और बड़े-से-बड़े दुःख में भी प्रभु का नाम जप कभी नहीं छूटना चाहिए ।
231. सभी नाम प्रभु के सत्य हैं और बराबर फल देने वाले हैं ।
232. मन और बुद्धि प्रभु में लग जाए तो वह जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।
233. जब पाप भोगने का समय आएगा तो प्रभु का लिया नाम ही हमें उससे बचा पाएगा ।
234. नाम जप हमें गलतियों और विकारों से बचाता है और एक रक्षा कवच की तरह काम करता है ।
235. बिना प्रभु के आश्रित हुए अपने मन को जीतना असंभव है ।
236. प्रभु हमारी क्रिया से प्रसन्न हो जाएं तो पल में सब बिगड़ी बात बना देते हैं ।
237. कलियुग में हम भोगों की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं और प्रभु की प्राप्ति के लिए यत्न नहीं करते, यह कितना बड़ा हमारा दुर्भाग्य है ।
238. बिना प्रभु के नाम जप के जीवन में सब कुछ अधूरा है ।
239. प्रभु का आश्रय लेकर नाम जप करने से सभी आध्यात्मिक ज्ञान का बोध अपने आप हो जाता है ।
240. जीवन में जो भी अंतिम ऊँचाई में पहुँचे हैं वे प्रभु की कृपा से ही पहुँचे हैं ।
241. श्रीहरि की स्मृति और नाम से सभी असंभव संभव हो जाते हैं ।
242. प्रभु में जितना हमारा विश्वास बढ़ता जाएगा, जीवन में उतनी विजय हम प्राप्त करते जाएंगे ।
243. हमारी मान्यता में जो अमंगल है उसे भी प्रभु का मंगल विधान मानकर स्वीकार करना चाहिए ।
244. हमारी बुद्धि केवल भजन से ही शुद्ध होती है ।
245. बिना प्रभु के भजन के विश्राम और शांति कदापि नहीं मिल सकती ।
246. प्रभु का नाम बल मिलने पर हम संसार के विकार और बुराइयों से लड़ सकते हैं और विजयी हो सकते हैं ।
247. भक्त अपने जीवन के कष्टों को प्रभु की जय बोलकर सहते हैं इसलिए कष्ट उन्हें प्रभावित नहीं करते ।
248. जीवन में जब प्रतिकूलता आती है तभी सच्ची प्रभु की शरणागति का जीवन में उदय होता है ।
249. अपने बल के कारण हमारी प्रभु की शरणागति पुष्ट नहीं हो पाती ।
250. प्रभु की शरणागति तभी पुष्ट होती है जब हम अपना सब बल यानी धन बल, कुटुंब बल, शरीर बल, विवेक बल हार जाते हैं ।
251. प्रभु की भक्ति में अपार सामर्थ्य होती है ।
252. संतों और भक्तों का उद्देश्य होता है कि भूले भटके जीव को प्रभु की भक्ति में लगाया जाए ।
253. जब तक जीव प्रभु का आश्रय जीवन में नहीं लेता तब तक वह जीव परम सुख को प्राप्त नहीं कर सकता ।
254. भगवान का भरोसा, भगवान का चिंतन और भगवान का महिमा गान हमें सुखी करने वाले साधन हैं ।
255. हमारे कल्याण के लिए प्रभु का नाम जप ही कलियुग में पर्याप्त है ।
256. चित्त की निरंतर स्थिति चितचोर प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगी होनी चाहिए ।
257. जीवन का सार ही प्रभु का स्मरण और भजन है ।
258. प्रभु की स्तुति ही जीवन का सबसे बड़ा लाभ है और प्रभु को भूलना ही जीवन की सबसे बड़ी हानि है ।
259. भगवत् प्राप्ति क्रिया प्रधान नहीं, चिंतन प्रधान है यानी किसी भागवतिक क्रिया से प्रभु प्राप्ति नहीं होती, भागवतिक चिंतन से भगवत् प्राप्ति होती है ।
260. जीवन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पित करना जीवन की सबसे बड़ी धन्यता है ।
261. एक हजार बार भी साधक गिर जाए तो भी परमार्थ का मार्ग उसे कदापि नहीं छोड़ना चाहिए ।
262. अंदर के शत्रु यानी काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार पर विजय प्राप्त करना वाला ही शास्त्र दृष्टि में असली बलवान है । यह बल प्रभु की भक्ति से ही मिलता है ।
263. ब्रह्मचर्य से शारीरिक बल, आध्यात्मिक बल और दिव्य भाव जीवन में मिलता है । ब्रह्मचर्य में अपार सामर्थ्य है ।
264. संसार में रहकर संसार के भोगों से अनासक्त रहना ही सच्चा वैराग्य है ।
265. अंदर हृदय में केवल प्रभु को अपना मानें और प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही कर्म करें यानी ऐसे कर्म करें जिससे प्रभु प्रसन्न हो जाएं ।
266. नाम जप करते प्राण गए तो हमारी सीधी पहुँच प्रभु के श्रीकमलचरणों में हो जाती है । इसलिए नाम जप जीवन में निरंतर करना चाहिए क्योंकि अंतिम श्वास का किसी को भी पता नहीं होता ।
267. हमारा लक्ष्य बीच में अटकना नहीं अपितु प्रभु के पास पहुँचना होना चाहिए । निश्चित रूप से प्रभु को प्राप्त करना ही हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए ।
268. अगर हमें किसी दूसरे में कोई दोष दर्शन होता है तो वही दोष दर्शन पहले हमें स्वयं के लिए भी करना चाहिए ।
269. अपने में गुण दृष्टि और दूसरे में दोष दृष्टि - यही अहंकार की खास पहचान है ।
270. परमार्थ में चतुर खिलाड़ी वही है जिसको कोई न जान पाए कि वह प्रभु से इतना प्रेम करता है ।
271. जब भक्ति प्रबल हो जाएगी तो कोई भी विकार हमें परास्त करने की क्षमता नहीं रखेंगे ।
272. हमारी चित्त वृत्ति का निरंतर प्रभु में लगा रहना जीवन का सर्वोच्च लाभ है ।
273. बिना अध्यात्म के किसी का भी सुधार संभव नहीं है ।
274. शास्त्र और अध्यात्म को नहीं समझा गया और जीवन में नहीं उतारा गया तो जीवन में बस पशुता ही रहेगी ।
275. बुद्धि एक ड्राइवर है और शरीर गाड़ी है । अगर ड्राइवर नशे में होगा तो गाड़ी की दुर्घटना निश्चित है । वैसे ही अगर बुद्धि भ्रष्ट होगी तो शरीर का नाश कर देगी । मानव शरीर मिलना कितना दुर्लभ है पर भ्रष्ट बुद्धि उसका विनाश कर देती है ।
276. माया के समूह यानी काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार हमारे ऊपर आक्रमण करते हैं । उनसे कोई बचा सकता है तो केवल और एकमात्र प्रभु ही हैं जो हमें बचा सकते हैं ।
277. मन का अंकुश है शास्त्र और अध्यात्म । जैसे अंकुश से बलवान हाथी भी घुटनों पर बैठ जाता है वैसे ही मन रूपी हाथी को भी घुटनों पर बैठाना है तो शास्त्र और अध्यात्म का अंकुश जरूरी है ।
278. कलियुग के भयंकर प्रकोप से बचने का एक ही रास्ता बचा है और वह है प्रभु का आश्रय लेना और प्रभु का नाम जप करना ।
279. अर्थ प्रधान बुद्धि, भोग प्रधान बुद्धि नहीं हमें भगवत् प्रधान बुद्धि विकसित करनी चाहिए ।
280. जब तक जीवन में धन की प्रधानता रहेगी भगवत् प्रीति संभव नहीं हो पाएगी ।
281. जीवन में हमारा भगवत् प्राप्ति का लक्ष्य पुष्ट हो जाना चाहिए ।
282. प्रभु नाम में परम धन बुद्धि होनी चाहिए । परम धन हमें प्रभु नाम ही लगना चाहिए ।
283. विपत्ति आएगी पर प्रभु का भरोसा और प्रभु का आश्रय रखने वालों का बाल भी बाँका नहीं कर पाएगी ।
284. प्रभु की कृपा होने पर संसार में कुछ भी असंभव और दुर्लभ नहीं रहता ।
285. मलिन हृदय में प्रभु के लिए श्रद्धा और विश्वास प्रकट नहीं होता क्योंकि मलिनता उन्हें प्रकट नहीं होने देती ।
286. प्रभु हृदय के भाव को देखते हैं । जब प्रभु को लगेगा कि यह जीव हृदय से मुझे पाना चाहता है तो प्रभु ऐसी अनुकूल व्यवस्था प्रभु प्राप्ति की कर देंगे कि हमें बहुत सहज में ही प्रभु प्राप्ति संभव हो जाएगी ।
287. प्रभु में विश्वास की कमी कदापि नहीं होनी चाहिए । प्रभु पर दृढ़ और पूर्ण विश्वास सदैव होना चाहिए ।
288. संसार में इंतजाम हम वर्षों का कर रहे हैं और जीवन के रहने का विश्वास सेकेंड का भी नहीं है ।
289. भजन करने वाला कभी घाटे में नहीं होता और किया हुआ भजन कभी नष्ट नहीं होता, यह दो पक्के सिद्धांत हैं ।
290. गरीब, मूर्ख, अपवित्र और पापी कोई भी प्रभु की भक्ति करने में सक्षम है ।
291. भगवत् नाम ही केवल हमारे प्रारब्ध को परास्त कर सकता है ।
292. प्रभु सर्वज्ञ, सर्वत्र और सर्वसामर्थ्यवान हैं ।
293. अगर जीवन में भजन नहीं तो दुःख का डर, अशांति, धन की चाह, भोगों की चाह, भयभीत रहना, विषाद में रहना यह जीवन का हिस्सा होगा क्योंकि भगवान हमारे जीवन के हिस्से नहीं हैं ।
294. प्रभु के सन्मुख होते ही निर्भयता, निश्चिंतता अपने आप जीवन में आ जाएगी ।
295. जीव से सच्चा प्रेम करने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
296. जो प्रभु का भजन नहीं करता उसकी अंत में बहुत बुरी दशा होती है ।
297. सभी दुःखों से बचाने वाले एकमात्र भगवान ही होते हैं ।
298. जीवन की हर परिस्थिति में कोई है जो हमसे बहुत प्रेम करता है और वे प्रभु हैं ।
299. अगर भगवत् प्राप्ति करनी है तो कोई कितना बड़ा अपराध करे हम क्षमा करना सीख जाएं तो ही भगवत् प्राप्ति संभव होती है ।
300. संत कहते हैं कि कलियुग में भजन करना कठिन, भजन बचाना कठिन और भजन पचाना कठिन ।
301. भजन करने वाले को अपने भजन के धन को बचाना चाहिए, जग जाहिर करके लुटाना नहीं चाहिए ।
302. समय को बहुत कीमती धन समझना चाहिए और व्यर्थ कार्यों में नष्ट नहीं करना चाहिए । समय का सदुपयोग भजन, सत्संग, नाम जप में ही करना चाहिए ।
303. प्रभु के चिंतन के अलावा जो भी संसार का चिंतन होता है वह हमारे हृदय को मलिन ही करता है ।
304. अहंकार बड़ा विष है और हमारी दुर्गति का कारण बनता है ।
305. उत्साह पूर्वक, प्रेम पूर्वक और आदर पूर्वक प्रभु का नाम जप करना चाहिए ।
306. एक बार प्रभु श्री महादेवजी भगवती पार्वती माता के साथ भगवती गंगा माता के तट पर भ्रमण करने आए । उस दिन बहुत लोग श्रीगंगा स्नान कर रहे थे । प्रभु श्री महादेवजी ने कहा कि सब स्नान तो कर रहे हैं पर विश्वास की कमी है । माता ने पूछा कैसे ? तो प्रभु वृद्ध बनकर लेट गए और माता से कहा कि जो भी स्नान करके निकले उसे मुझे उठाने को कहना और साथ में कहना कि पापयुक्त हुआ तो भस्म हो जाओगे । कोई भी तैयार नहीं हुआ । अंत में एक भोला भक्त आया वह तैयार हो गया । माता ने कहा कि पापयुक्त हुए तो भस्म हो जाओगे तो उस भक्त ने कहा कि अभी श्रीगंगा स्नान करके आ रहा हूँ इसलिए मेरे सभी पाप नाश हो चुके हैं । इसलिए भगवती गंगा माता के कारण मैं पाप मुक्त हूँ और मुझे भस्म होने का कोई भय नहीं है । प्रभु श्री महादेवजी और भगवती पार्वती माता प्रकट होकर उसे गले लगाया और कहा कि यही विश्वास होता है जो करोड़ों में कोई एक बिरले में ही मिलता है ।
307. प्रभु से अपनापन हो जाए तो प्रभु हमारे साथ खेलने लगते हैं, हमें अपनी श्रीलीलाओं में शामिल कर लेते हैं ।
308. प्रभु हमारे सबसे ज्यादा प्राण प्यारे होने चाहिए ।
309. हम विग्रह का भाव करते हैं तो प्रभु छिपे रहते हैं और हम विग्रह में साक्षात प्रभु का भाव करते हैं तो प्रभु बोलेंगे, खेलेंगे, खाएंगे, सब कुछ हमारी तरह करेंगे - ऐसा संतों और भक्तों ने करके दिखाया है ।
310. बुद्धि प्रभु में अर्पित रहे तो ही वह सही रहती है और मन के गलत संकल्प पर हस्ताक्षर नहीं करती है ।
311. माया के विषय इतने बलवान है कि हमारी इंद्रियों को खींच लेते हैं, इंद्रियां इतनी बलवान है कि हमारे मन को खींच लेती है और मन इतना बलवान है कि हमारी बुद्धि को खींच लेता है ।
312. इंद्रियों का निर्विषय होना सबसे श्रेष्ठ है ।
313. केवल प्रभु से प्रेम हो जाए पर दुर्भाग्य से हमारा प्रेम संसार में बहुत जगह बंटा हुआ है ।
314. प्रभु का यशगान परम मंगल कारक होता है ।
315. जिसके जीवन में श्रीहरि नाम आ गया ऐसा समझें कि उसके जीवन में श्रीहरि आ गए क्योंकि नाम आश्रय ही प्रभु आश्रय है ।
316. प्रभु नाम के समान न ज्ञान, न व्रत, न कोई परमार्थ का फल है, न दान, न पुण्य, न ही कोई अन्य साधना है । कलियुग में नाम से ही परम मुक्ति और परम गति प्राप्त होती है ।
317. धन की भूख दुर्गति करती है पर प्रभु नाम जपने की भूख हमें जीवन-मरण के चक्र से मुक्त कर देती है ।
318. जब अकेले हो तो प्रभु से बात किया करें और जब किसी के साथ हो तो प्रभु की बात उनसे किया करें ।
319. जब मनुष्य सच्चे हृदय से प्रभु की शरण में चला जाता है तो प्रभु पर उसके उद्धार की जिम्मेदारी आ जाती है ।
320. प्रभु से प्रेम होने के समान कोई भजन नहीं क्योंकि सभी साधनों का सार प्रभु से प्रेम होना ही है ।
321. अगर जीवन में प्रभु में विश्वास और एकमात्र प्रभु का आश्रय है तो लोक-परलोक बिगड़ नहीं सकता ।
322. प्रभु के भरोसे हो जाएं तो प्रभु हमें बहुत अच्छे से रखते हैं ।
323. प्रभु ही ब्रह्मांड में सबका निर्वाह करते हैं ।
324. हमें जीवन में बस प्रभु को समर्पित होने की आवश्यकता है ।
325. अगर जीवन में भजन नहीं किया तो क्या साथ लेकर जाएंगे क्योंकि बाकी सब कुछ तो यहीं छूट जाने वाला है ।
326. माया हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर नहीं चलने के लिए प्रलोभन देकर सौदा करती है और हम उसमें फंस जाते हैं ।
327. प्रभु की करी हुई हमारे लिए व्यवस्था पर हमें पूर्ण भरोसा होना चाहिए ।
328. संसार के प्रलोभन को छोड़कर जो भगवत् मार्ग में चलता है उसे प्रभु को अपनाना ही पड़ता है ।
329. शरणागत होने पर आनंद की वर्षा प्रभु हमारे ऊपर कर देते हैं ।
330. दुःख में प्रभु को भूले नहीं तो दुःख ज्यादा नहीं टिकेगा और सुख में प्रभु को भूले नहीं तो सुख खंडित नहीं होगा ।
331. भक्त धर्म की तरफ दृष्टि रखता है, धन की तरफ नहीं ।
332. धर्म से युक्त धन नहीं होगा तो वह हमसे जीवन में पापाचरण अवश्य कराएगा ।
333. पापाचरण करने वाले के जीवन में भय, शोक, चिंता, क्लेश, दुःख और अशांति आती ही है ।
334. ऐसा कोई पाप नहीं जिसे नाम जप और भजन से नष्ट नहीं किया जा सकता । अगर ऐसा न हो तो इस जन्म के और पूर्व जन्म के संचित पाप के कारण यह मनुष्य जीवन ही व्यर्थ चला जाएगा ।
335. हम नाम जप करते हैं तो वह सीधे प्रभु के श्रीकमलचरणों में जाकर हमारे नाम से जमा हो जाते हैं ।
336. प्रभु का नाम जप वैसे पापों का नाश करता है जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी अंधकार का नाश करते हैं ।
337. मानव जन्म में भगवत् प्राप्ति करने का हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ।
338. भगवत् चिंतन के साथ शयन होना सर्वश्रेष्ठ शयन होता है ।
339. नाम जप और भजन हमारी सभी इंद्रियों को अंतर्मुख कर देती है जो कि एक बहुत बड़ी उपलब्धि और श्रेष्ठ अवस्था होती है ।
340. हम जिसमें भी दोष दर्शन कर रहे हैं तो निश्चित माने वह दोष हमारे भीतर भी छिपा हुआ है नहीं तो वह दोष का दूसरों में हमें दर्शन नहीं होगा, यह सिद्धांत है ।
341. हमें निर्दोष दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए जिससे किसी में दोष दर्शन हमें नहीं हो ।
342. प्रभु को प्रसन्न करने वाले आचरण ही हमसे हो, इसका विशेष ध्यान जीवन में हमें रखना चाहिए ।
343. इंद्रियों की खिड़की बंद करके सत्संग की बुहारी लगाएंगे तो हमारे मन के विकार साफ होंगे ।
344. प्रभु की स्मृति में रहने का हमें अभ्यास करना चाहिए यानी प्रभु हमें लगातार याद रहे यह अभ्यास जीवन में निरंतर होना चाहिए ।
345. सुख की जीवन में लालसा करने वाला ही जीवन में दुःख को भोगता है क्योंकि सिक्के के दूसरे तरफ सुख के साथ दुःख भी साथ ही आता है ।
346. कलियुग का युग धर्म है कि बुरी बातें जीवन में बहुत तीव्रता से आ जाती है ।
347. सभी परिस्थिति, स्थान, वस्तु, व्यक्ति को कलियुग ने स्पर्श करके रखा है । कलियुग का प्रभाव सभी पर होता है । इस युग के प्रभाव से केवल प्रभु कृपा पात्र भक्त ही अछूता होता है ।
348. कलियुग में सब अशुद्ध हो गया है, केवल एक प्रभु का नाम ही शुद्ध है जो कलियुग की अशुद्धि को भी शुद्ध करने की क्षमता रखता है ।
349. बिना प्रभु नाम जप के इस कलियुग में जीव का कल्याण अन्य कोई साधन नहीं कर सकता ।
350. प्रभु के नाम जप के बिना इस कलियुग में जीव की सद्गति संभव ही नहीं है ।
351. कहीं पर भी जाएं, कहीं तक भी जाएं, बाहर तो सुख है ही नहीं । सुख जिसने भी पाया है भीतर अंतरात्मा में प्रभु भक्ति के कारण ही पाया है ।
352. जिसका संसार में कोई नहीं और कुछ नहीं उसे किसी बात की फिक्र नहीं, वही सच्चा बादशाह है ।
353. चाहत जाने से ही जीवन की चिंता भी मिटती है ।
354. जब तक संसार में हम किसी को या किसी चीज को अपना मानेंगे उसे पाने की या खोने की फिक्र बनी रहेगी ।
355. कान से केवल प्रभु की पवित्र करने वाली वार्ता और सत्संग ही सुनना चाहिए ।
356. हम पाप को छुपाते हैं तो पाप बढ़ता है और पुण्य को प्रकट करते हैं तो वह घटता है यानी दोनों तरफ ही हानि होती है । सिद्धांत यह है कि हमें पुण्य छुपाने चाहिए तो वह बढ़ेगा और पाप प्रकट करने चाहिए यानी बताने चाहिए तब वह घटेगा ।
357. जो किसी युक्ति और सामर्थ्य से नहीं हो सकता वह प्रभु के आशीर्वाद से तत्काल हो जाता है ।
358. कथा के शब्दों के साथ कभी-न-कभी प्रभु हमारे कानों के माध्यम से प्रवेश करेंगे । इसलिए हमें भगवती शबरीजी की तरह रोज मार्ग बुहारना चाहिए यानी कानों का मार्ग सत्संग सुनकर रोजाना बुहारना चाहिए ।
359. हम प्रभु को जब चाहे मिल नहीं सकते पर जब चाहे याद तो अवश्य ही कर सकते हैं ।
360. प्रभु को आधी रात भी पुकारें तो प्रभु उत्तर देंगे । संसार को आधी रात को पुकारें तो संसार झिड़क देगा और अपना दरवाजा हमारे लिए बंद कर लेगा ।
361. प्रभु अपने नाम के आधे उच्चारण पर ही दौड़कर चले आते हैं ।
362. प्रभु भजन करने का हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी है ।
363. प्रभु हर दावे और वादे को निभाते हैं । प्रभु से कोई वादा करवाएं तो भी प्रभु उसे निभाते हैं । संसार न दावे को निभाता है न वादे को निभाता है ।
364. निश्चिंत वे भक्त होते हैं जिन्हें विश्वास होता है कि करने वाले प्रभु उनके लिए करते आए हैं और करते रहेंगे ।
365. जब-जब हम करते हैं हम उसका फल भोगते हैं इसलिए कर्तापन से मुक्त हो जाना चाहिए और प्रभु के श्रीहाथों की कठपुतली बन जाना चाहिए ।
366. एक बार कहकर नहीं बल्कि सच में प्रभु के आश्रित होकर देखें क्योंकि कहना एक बात है और होना एक अलग बात है ।
367. संत प्रभु से कुछ मांगते नहीं इसमें उनकी बड़ाई वे नहीं मानते क्योंकि वे कहते हैं कि प्रभु ने कभी मांगने का अवसर ही जीवन में आने नहीं दिया । हमेशा योगक्षेम का वहन किया है ।
368. हम तो प्रभु का क्या लाड़ लड़ाते हैं । लाड़ देखना है तो प्रभु का देखें कि वे अपने भक्तों का कैसा अनोखा लाड़ लड़ाते हैं ।
369. प्रभु नाम रूपी निधि की जीवन में खूब कमाई करनी चाहिए ।
370. प्रभु के मार्ग पर अपने को मिटाना होता है तब प्रभु मिलते हैं ।
371. प्रभु से एक मांगें तो वे दस देते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि इससे सस्ते में पीछा छूटा । कोई नहीं मांगता तो प्रभु को स्वयं को ही उसे प्रदान करना पड़ता है ।
372. भक्त के कल्याण का संकल्प प्रभु तत्काल कर लेते हैं ।
373. भक्ति परम उत्साह और परम धैर्य वाला मार्ग है ।
374. प्रभु तक जाने का मार्ग वही है जिस पर पूर्व में भक्त चले हैं । वह मार्ग युग के साथ बदलता नहीं है ।
375. प्रभु का नाम जप और कीर्तन जीवन में होता रहे तो एक भी पाप टिक नहीं पाएगा । यह पाप नाश का अचूक साधन है ।
376. प्रभु का नाम जप पाप ही नहीं, पाप करने की प्रवृत्ति को भी नष्ट कर देता है ।
377. आज तक संसार में भोगों को भोगकर कोई भी स्थाई रूप से सुखी नहीं हुआ है ।
378. प्रभु के नाम जप से हमारा अध्यात्म बल जागृत होता है ।
379. मन केवल सोच सकता है पर बुद्धि के हस्ताक्षर बिना कुछ नहीं कर सकता । इसलिए मन कोई गलत विचार लाए तो बुद्धि को उसमें सहमति नहीं करने दें । यह बुद्धि के सात्विक होने पर ही संभव है जो केवल प्रभु भजन से होगा ।
380. प्रभु में श्रद्धा रखने से हमारा ही मंगल होगा और किसी विपरीत परिस्थिति के कारण प्रभु में अश्रद्धा हुई तो वह हमारा पातक बनेगा पर प्रभु को हमारी अश्रद्धा से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।
381. हमें जैसे प्रभु रखें उसमें ही राजी रहना चाहिए ।
382. केवल प्रभु कृपा का ही जीवन में भरोसा होना चाहिए ।
383. हम कर्म के परिणाम को भोगने पर विश्वास रखते हैं तो हमारा उद्धार कभी नहीं हो पाएगा क्योंकि जन्मों-जन्मों से इतना संचित कर्म जमा है । करोड़ बार जन्म लेकर भी कर्म भोगेंगे तो भी हम नहीं निपट पाएंगे । फिर उपाय क्या है ? जो हमारे कर्मों के भंडार में ही आग लगा दे वह प्रभु की कृपा है । प्रभु की कृपा से ही हम कर्मों के भोग भोगने से मुक्त हो सकते हैं और इस तरह जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छूट सकते हैं ।
384. हमारी बुद्धि प्रभु से युक्त हो जानी चाहिए ।
385. हमारे जीवन में हमें प्रभु के अलावा अन्य कोई भरोसा नहीं होना चाहिए ।
386. कर्म हमें माया रचित संसार में ही घुमा सकता है पर भक्ति हमें सीधे प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचा देती है ।
387. मन की उदासी प्रभु के चिंतन से दूर करें न कि विषय भोग में लिप्त होकर उसे दूर करने का प्रयास करें ।
388. विषय भोग में लगने पर हमारा अध्यात्म बल क्षीण होता है ।
389. मन प्रसन्न होता ही परमात्मा के चिंतन से है, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
390. भजन रूपी धन हम जितना भी इकट्ठा करेंगे वह हमारे द्वारा अर्जित किया महाबल है ।
391. भजन करते-करते प्रभु की रसमयी श्रीलीलाओं में प्रवेश होकर उनका आनंद हमें मिलने लगता है ।
392. संत सच्ची बात कहते हैं कि प्रभु के सानिध्य को छोड़कर संसार में कहीं भी सुख नहीं है ।
393. मन में कोई भी संसार की वासना रखेंगे तो हमारा पुनर्जन्म निश्चित है ।
394. कौन-सी श्वास आखिरी होगी किसे पता है, इसलिए हर श्वास पर प्रभु नाम जप करना चाहिए ।
395. हर कार्य के बीच में प्रभु को लें, नहीं तो आप फंस जाएंगे ।
396. मृत्यु से पहले अपनी सभी वासनाओं को, चाहे वह सतवासना ही क्यों न हो, उसे प्रभु के सामने रखकर भूल जाएं, उसे नष्ट कर दें, नहीं तो उसके लिए फिर एक जन्म लेना पड़ेगा ।
397. इष्टदेव, मंत्र, नाम जप का नाम को कभी नहीं बदलना चाहिए, तभी वे सिद्ध होते हैं ।
398. हर सत्कर्म गुप्त रखना चाहिए नहीं तो उसका फल क्षीण हो जाता है । सत्कर्म गुप्त रखने से ही उसका फल हमें इहलोक और परलोक में मिलता है ।
399. कोई बिरला होता है जो सत्संग के प्रभाव से अपने भीतर के कपट को मिटाकर निर्मल मन का बन जाता है ।
400. अधर्म का आचरण करने वाला अंत में कष्ट पाता ही पाता है ।
401. जैसे ही संसार से अपेक्षा की रस्सी हम काट डालते हैं हमें भीतर से प्रभु का एहसास होता है और सुख का अंकुर फूटता है ।
402. गणिका पिंगला ने रात्रि में सोचा कि पर पुरुष की प्रतीक्षा कर रही हूँ पर मेरे भीतर परम पुरुष परमात्मा विराजमान हैं । ऐसा विचार आते ही आनंद उसके भीतर से फूट पड़ा ।
403. जिसने संसार से अपेक्षा का त्याग कर दिया और प्रभु से भी अपेक्षा छोड़ दी तो प्रभु भी ऐसे निष्काम साधक के पीछे-पीछे चलते हैं । संत श्री एकनाथजी की ऐसी व्याख्या है ।
404. जीवन में प्रभु को छोड़कर संसार में किसी से भी अपेक्षा रखने पर हमें लाचारी आती है ।
405. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी के परमाणु से उस गणिका का चित्त शुद्ध हो गया । संतों का इतना प्रभाव होता है । यह विशेषता संतों की है क्योंकि ग्राहक नहीं मिलने पर वैराग्य इस बार ही कैसे आया जबकि पहले भी कई बार ऐसा हुआ होगा कि ग्राहक नहीं मिला होगा तब तो उस गणिका के वैराग्य भाव नहीं आया । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी के समक्ष होने का प्रभाव है कि ऐसा वैराग्य आ गया । ऐसी व्याख्या संतों ने की है ।
406. एक क्षण का सत्संग भी जीव को तार देता है ।
407. प्रभु अपनी गोदी में बैठाना चाहते हैं श्री ध्रुवजी को इसलिए श्री ध्रुवजी को उनकी सौतेली माता से कहलवाया कि प्रभु की आराधना करो और मेरे गर्भ से जन्म लो तो फिर पिता की गोद में बैठ सकोगे । प्रभु आराधना के बीज सौतेली माता से प्रभु ने डलवाए, यह प्रभु का अनुग्रह था ।
408. छोटा बच्चा भी अपना मान अपमान को समझता है इसलिए प्रभु कहते हैं कि किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिए ।
409. संसार में किसी को भी रोते हुए देखो तो जरुर पूछ लेना कि आपके लिए मैं क्या कुछ कर सकता हूँ । कुछ नहीं भी कर पाए तो भी उसे रोते हुए व्यक्ति को लगेगा कि किसी ने तो मेरे आंसू पोछने की इच्छा प्रकट की । इतना भाव ही उसे खुशी प्रदान कर देगा और प्रभु हम पर प्रसन्न हो जाएंगे ।
410. अपेक्षित माता का गरीब बालक बहुत जल्दी परिपक्व हो जाता है जबकि ऊँचे कुल के बच्चे जल्दी परिपक्व नहीं होते ।
411. दुःख पचाना कठिन होता है पर सुख पचाना उससे भी ज्यादा कठिन होता है ।
412. छोटे और मासूम बच्चे सारी बात सही-सही बोलते हैं क्योंकि झूठ बोलने की कला थोड़े बड़े होने पर ही आती है । इसलिए छोटे और मासूम बच्चे प्रभु को प्रिय होते हैं ।
413. जिसका संसार में कोई नहीं होता उसके श्रीभगवान होते हैं, यह श्रीध्रुव वाक्य है ।
414. मनुष्य को कल्याण हेतु प्रभु आराधना करना अनिवार्य है पर प्रभु की आराधना करते हुए किसी के लिए भी अमंगल नहीं चाहना, बुरा विचार भी किसी के बारे में नहीं लाना जिसने हमें कष्ट भी दिया हो । क्योंकि हम कष्ट अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण ही पाते हैं । सुनीति माता ने श्री ध्रुवजी को ऐसा उपदेश दिया ।
415. श्री ध्रुवजी को कहाँ पता है कि कहाँ जाना है, यह भी पता नहीं कि क्या करना है । एक बात का पक्का पता है कि प्रभु को पाना है । प्रभु को पाने हेतु कहाँ जाना और क्या करना दोनों बातें पाँच वर्ष के श्री ध्रुवजी को पता नहीं थी । फिर प्रभु ने देवर्षि प्रभु नारदजी के रूप में सद्गुरु उनके जीवन में भेजे ।
416. राजा श्री परीक्षितजी ने जब कहा कि घर त्याग के बाद श्री ध्रुवजी अनाथ हो गए तो प्रभु श्री शुकदेवजी ने आपत्ति की और कहा कि श्रीजगन्नाथ ने जिसका हाथ पकड़ लिया वह अनाथ कैसे हो सकता है ?
417. जीव के चरण जब प्रभु की तरफ पहली बार बढ़ते हैं तो उसी समय से प्रभु उसे संभालते हैं और उसका पूरा दायित्व प्रभु उस समय से ले लेते हैं ।
418. संसार के सभी भक्तों के लिए श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु का वचन है योगक्षेम वहन करने का कि अगर मेरे लिए और मेरे विश्वास पर निकल पड़े तो मैं तुम्हारे साथ हूँ, ऐसा प्रभु कहते हैं ।
419. जिन वस्तु की जीवन में आवश्यकता होती है वह भक्तों के जीवन में उन्हें पहले से ही तैयार मिलती है । यह प्रभु की अनुकंपा होती है ।
420. प्रभु केवल अनुभव के विषय हैं, वाणी के विषय नहीं हैं ।
421. प्रभु के अस्तित्व को जानना, अनुभव करना है तो भक्ति करें - यही केवल और एकमात्र रास्ता है प्रभु को अनुभव करने का ।
422. भक्तों को कदम-कदम पर प्रभु के दुलार का अनुभव होता रहता है ।
423. हम प्रभु के अंश हैं इसलिए भक्ति करने पर प्रभु के गले से लगने का अधिकार प्रभु ने सबको दिया हुआ है ।
424. प्रभु के अलावा किसी से अपेक्षा नहीं रखनी, आशा नहीं रखनी तो लाचारी गई और जीवन में मौज-ही-मौज । यही जीवन की जीत है ।
425. जब जीवन में ऐसी परिस्थिति आती है कि कोई साथ नहीं देता तो सबको प्रभु की याद आती ही है । इसलिए जीवन में पहले से ही प्रभु को याद करते रहना चाहिए ।
426. प्रभु ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को श्री ध्रुवजी के पास भेजा प्रभु मार्ग दिखाने हेतु । सूत्र यह है कि जीवन में प्रभु अनुकंपा से संत आते हैं प्रभु का मार्ग दिखाने के लिए ।
427. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने परीक्षा ली, बहुत तरह से वन का डर दिखाया, तप का कठिन मार्ग है यह बताया पर श्री ध्रुवजी अटल रहे और इस कारण वे प्रभु को प्राप्त कर पाए ।
428. श्री ध्रुवजी ने कहा प्रभु कब मेरे पर अनुकंपा करेंगे यह प्रभु जाने, मेरा काम प्रभु मार्ग पर पहला कदम बढ़ाने का है ।
429. वन के जानवरों का डर था श्री ध्रुवजी को पर उससे भी बड़ा विश्वास था प्रभु पर कि प्रभु रक्षा जरूर करेंगे ।
430. जीवन रहे या न रहे पर प्रभु प्राप्ति तो मैं इसी जन्म में करूँगा, यह श्री ध्रुवजी का प्रण था ।
431. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने अपने हाथ श्री ध्रुवजी के मस्तक पर रखे और कहा कि धन्य हो कि तुमने संसार का सर्वोत्तम मार्ग चुना है । जीवन में प्राप्त करने वाला सर्वोत्तम पुरुषार्थ प्रभु की भक्ति ही है, ऐसा देवर्षि प्रभु श्री नारदजी की व्याख्या है ।
432. प्रभु के श्रीकमलचरणों को कभी भूलना नहीं, प्रभु की भक्ति को जीवन में कभी त्यागना नहीं । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने यह दो सूत्र मानव जीवन हेतु दिए ।
433. जैसे ही देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से भगवती जमुना माता का नाम सुना कि उसी मार्ग पर आगे भगवती जमुना माता का तट है श्री ध्रुवजी के हाथ जुड़ गए । उनको ऐसा संस्कार उनकी माता से कथा सुनने पर मिला था और उन्होंने देखा था कि भगवती जमुनाजी का नाम कथा में आते ही उनकी माँ के हाथ जुड़ जाते थे । सूत्र यह है कि बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि भगवती तुलसी माता, भगवती गंगा माता, गौ-माता, भारत माता का नाम सुनते ही बच्चों के हाथ जुड़ जाए ।
434. श्री ध्रुवजी को प्रभु ध्यान करने हेतु देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु के श्रीरूप का वर्णन किया, प्रभु के श्रीगुणों का वर्णन किया ।
435. प्रभु दया के सागर हैं और अपने भक्त पर दया करने हेतु सदा उत्सुक रहते हैं एवं तत्पर रहते हैं ।
436. पहले ध्यान करना, फिर ध्यान में मन नहीं लगे तो जप करना, जप में मन नहीं लगे तो पूजा करना यानी सब इंद्रियों को प्रभु से जोड़ने का मार्ग देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने दिखाए ।
437. देवर्षि प्रभु श्री नारद जी ने द्वादश अक्षर मंत्र प्रदान किया भक्त श्री ध्रुवजी को ।
438. पूजा हेतु थोड़ा जल, कुछ पुष्प और कुछ भी नहीं मिले तो मात्र तुलसी दल से प्रभु की पूजा करना देवर्षि प्रभु श्री नारद जी ने ऐसा श्री ध्रुवजी को कहा ।
439. साधन मार्ग पर मौन रहना एक रहस्य है और मेरे साधन की प्रभु रक्षा करेंगे यह पूर्ण विश्वास रखना यह दूसरा रहस्य है । यह दो रहस्य देवर्षि प्रभु श्री नारद जी ने श्री ध्रुवजी को बताए ।
440. श्रीमद् देवी भागवतजी में लिखा है कि प्रभु श्री यमराजजी रो पड़े भगवती सावित्रीजी की पतिव्रता की भावना को देखकर ।
441. प्रभु की कृपा से ही सदैव हमारा कल्याण संभव है ।
442. साधना के समस्त सूत्र प्रभु ने श्री ध्रुवजी को देवर्षि प्रभु श्री नारदजी द्वारा प्रदान कराए । सूत्र क्या है ? प्रभु साधन मार्ग पर बढ़ना चाहिए, साधन सूत्र स्वतः ही प्रभु कृपा से कहीं-न-कहीं से मिल जाएंगे । शास्त्रों से, सत्संग से कहीं से भी मिल जाएंगे ।
443. साधन के उत्तम स्तर पर पहुँचने पर प्रभु जरूर मिलते हैं ।
444. पहले मास में तीन दिन के बाद एक बार आहार बाकी सब समय जप और ध्यान में बीतता था श्री ध्रुवजी का ।
445. प्रभु का साधन संसार के प्रपंच छोड़कर ही हो सकता है । कोई कहे कि दुनियादारी भी करूँगा और प्रभु को भी प्राप्त करूँगा, यह कभी भी संभव होने वाला नहीं है ।
446. लोगों को संतोष देने के लिए सिद्धांतों से समझौता करने की आदत कभी नहीं बननी चाहिए ।
447. प्रभु के लिए हमारा भाव दूषित नहीं हो और शुद्ध रहे तो कलियुग हमारे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा ।
448. कलियुग उन्हीं का विनाश करता है जो प्रभु से विमुख हो जाते हैं ।
449. श्रद्धा और विश्वास जितना प्रभु में बढ़ेगा उतना ही प्रभु अपना अनुभव हमें देंगे ।
450. जब हम भक्ति से बढ़कर किसी तत्व को मानते हैं और भक्ति छोड़ देते हैं तभी विकार और विपत्ति हमें घेर लेते हैं ।
451. पाप कर्म या तो भोगकर और यह भजन से ही कटता है, अन्य कोई उपाय नहीं है । यह परम सत्य है ।
452. हमारा मंगल करने की नाम जप में अपार सामर्थ्य है ।
453. महाबल जो प्रभु को भी अधीन कर ले वह प्रभु के नाम जप में ही है ।
454. शास्त्रों, ऋषियों, संतों और भक्तों की कथनी और कहनी अगर हम जीवन में उतारेंगे तो हमारा मंगल हो जाएगा ।
455. शारीरिक बल हमें काम, क्रोध से नहीं बचा सकता पर केवल आध्यात्मिक बल ही बचा सकता है । पर हम सत्संग से आध्यात्मिक बल नहीं लेते और शारीरिक बल प्राप्त करने के लिए आकर्षित होते हैं और प्रयत्न करते हैं ।
456. प्राणनाथ प्रभु ही सभी जीवों के प्राणों का पोषण करते हैं ।
457. माया को कभी भी हमारी श्रीहरि निष्ठा को भेदने नहीं देना चाहिए ।
458. प्रभु का स्पर्श अमृत स्वरूप है जिसमें हमारा मंगल करने का असीम सामर्थ्य है ।
459. भक्त की दीनता ही प्रभु को भक्त का सबसे प्रिय गुण लगता है ।
460. प्रभु के अतिरिक्त हम कुछ भी पाने का प्रयत्न करते हैं तो मानो अपनी पीड़ा की ही व्यवस्था हम करते हैं ।
461. संसार का थोड़ी देर का सुख बड़ी देर का दुःख पीछे छोड़कर जाता है ।
462. अपनी चाहत को संसार से हटाकर प्रभु की तरफ मोड़ देना चाहिए ।
463. कथा कान से सुनकर फिर एकांत में अपने मन में उसका चिंतन करना चाहिए तभी कथा सुनना सार्थक होगा ।
464. कानों से कथा सुनने से बड़ा गहरा और गंभीर प्रभाव हमारी चेतना पर पड़ता है । इसलिए प्रभु ने भी श्रवण भक्ति का सबसे पहले प्रतिपादन किया है ।
465. कान रूपी इंद्रिय को सबसे पहले भक्ति में लगाना चाहिए क्योंकि कान से ही प्रभु की वार्ता भीतर जाती है और सुन-सुनकर ही प्रभु के लिए मन में आकर्षण होता है ।
466. चिंतन से हमारा स्वभाव बनता है फिर संस्कार बनता है ।
467. शब्द भी एक पुकार प्रकार का आहार है जो हम कानों से ग्रहण करते हैं । इसलिए वह शब्द प्रभु के विषय में होना चाहिए क्योंकि तभी वह सात्विक और शुद्ध प्रभाव करेगा ।
468. प्रभु को जानकर परम आनंद और परम शांति की प्राप्ति हमें होती है ।
469. सत्संग हमें सिखाता है कि संसार में रहकर संसार से असंग और प्रभु से संग कैसे किया जाए ।
470. जीव की सच्ची संपत्ति प्रभु में उसकी श्रद्धा और प्रभु में उसका विश्वास है ।
471. प्रभु में श्रद्धा और विश्वास रखने वाला जीव सहज में ही प्रभु की कृपा का पात्र हो जाता है ।
472. भक्ति मार्ग बहुत ही सरल है और बहुत ही सहज है ।
473. एक भी लिया हुआ प्रभु का नाम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है ।
474. हमारा प्रपंच का स्वभाव बन गया है उसे बदलकर भजन का स्वभाव बनाने वाला धन्य होता है ।
475. नाम जप का परिणाम बहुत ही मंगलकारी होता है ।
476. केवल और एकमात्र प्रभु की कृपा का भरोसा होना, यह पूर्ण शरणागति से संभव है ।
477. जीवन में आई विपत्ति हमारी प्रभु के प्रति शरणागति को पुष्ट करती है ।
478. विपत्ति रूपी प्रसाद मिलना उस जीव पर प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है । ऐसा शास्त्रों और संतों का मत है ।
479. प्रभु केवल हमारा मन हमसे मांगते हैं ।
480. प्रभु के न्याय में तनिक भी चूक की संभावना नहीं होती है ।
481. प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कहा है कि मैं मुक्ति आसानी से देता हूँ पर दुर्लभ भक्ति का दान आसानी से नहीं देता ।
482. प्रभु कहते हैं कि मैं केवल प्रेम से संतुष्ट होता हूँ, प्रेम ही पाने की आकांक्षा रखता हूँ और प्रेम का ही दान करता हूँ ।
483. पुण्य कमाना आसान होता है पर पाप छोड़ना कठिन होता है ।
484. पाप करने की प्रवृत्ति मन छोड़ दे तो यह जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
485. संसार तो मिला मिलाया है, प्रयास तो जीवन में भक्ति के लिए, संकल्प तो भक्ति करने के लिए ही करना पड़ता है ।
486. संसार से तो मुक्त होने के लिए प्रयास और संकल्प करना पड़ता है ।
487. भक्ति का संकल्प मन में हुआ और दो कदम भक्ति मार्ग पर चल पाए, यह प्रभु की बहुत बड़ी कृपा ही है ।
488. प्रभु के सुख के लिए अपनी श्रेष्ठ वस्तु प्रभु को अर्पण करनी चाहिए ।
489. जब तक जीव कर्ता भाव रखता है प्रभु द्रष्टा बनकर देखते हैं । कर्तापन छोड़ते ही प्रभु की कृपा मिलती है ।
490. जीव की मन, वचन और कर्म से पूर्ण शरणागति होनी चाहिए, तभी प्रभु हस्तक्षेप करते हैं ।
491. प्रभु का सानिध्य आत्मा का परमानंद हमें देता है ।
492. प्रेम के लिए संसार की तरफ नहीं बल्कि केवल प्रभु की तरफ देखें ।
493. जितना श्री तुलसीजी की श्री मानसजी ने लोगों को तारे हैं, उतने तारे आकाश में भी नहीं है ।
494. संकट और सुख दोनों में ही हमारी वृत्ति प्रभु की तरफ ही जानी चाहिए । दोनों स्थिति में हमें प्रभु को नहीं भूलना चाहिए ।
495. संसार का चिंतन छोड़कर प्रभु का चिंतन करना ही सच्चा अध्यात्म है ।
496. बुद्धि में भागवतिक प्रकाश नाम जप से ही आएगा ।
497. अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए किया गया कर्म, कर्म कहलाता है । पर सत्कर्म जो प्रभु को अर्पित करके किया जाता है वह कर्मयोग बन जाता है ।
498. मनुष्य जन्म में नवीन प्रारब्ध की रचना सत्कर्म से की जा सकती है । पशु पक्षी को प्रारब्ध भोगने पड़ते हैं पर मनुष्य भक्ति रूपी सत्कर्म करके अपना निर्धारित प्रारब्ध बदल सकता है । यह सिर्फ मनुष्य योनि में ही संभव है ।
499. अविनाशी केवल भजन होता है जो कभी भी नष्ट नहीं होता ।
500. अपने गुण देखकर दूसरों के दोष देखने वाला साधक अहंकार के कारण बहुत बुरी तरह से गिरता है । पर दोष दर्शन से बड़ा कोई पाप नहीं है ।
501. पर दोष दर्शन और पर दोष का किसी के सामने कथन हमारी साधना को बहुत बुरी तरह से गिराता है ।
502. प्रभु के यंत्र बन जाना श्रेष्ठ है । फिर यंत्र का कोई संकल्प नहीं होता जैसे यंत्री चलाते हैं वैसे ही चलता है ।
503. दही बिलोने बैठे और बीच में छोड़कर चल दिए तो वह न दूध रहा, न दही रहा और न ही घी बना, कोई काम का नहीं रहा । इसी तरह संसार का प्रेम बीच में छोड़ जाने वाला प्रेम है । सच्ची प्रीत को निभाना और अंत तक निभाना तो केवल प्रभु ही जानते हैं ।
504. जब तक जीवन में दूसरा कुछ रहा, दूसरा कोई रहा तब तक प्रभु से प्रेम संबंध नहीं है ।
505. जिसको प्रभु के नाम जप में सुखानुभूति नहीं होती उसका मन कितना मैला है, यह सोचना चाहिए ।
506. अगर भजन नहीं हो रहा तो जीवन में पक्का माने कि विषय चिंतन ही हो रहा है ।
507. बिना श्रीहरि के शरण गए संसार में सुख कदापि नहीं मिलेगा ।
508. हम कहते हैं कि बहुत समय है भजन कर लेंगे पर सत्य यह है कि बहुत देर हो गई है । अब समय बहुत अल्प बचा है । इसलिए आज से, अभी से ही भजन में लग जाना चाहिए ।
509. भजन की सुध न आए और संसार करने में ही हमारा समय खराब हो जाए, यही तो माया करवाती है और सफल भी होती है । कुछ बिरले भक्त ही माया की इस चाल को समझ पाते हैं ।
510. प्रभु ही मेरे हैं क्योंकि सत्य में केवल प्रभु ही मेरे हो सकते हैं ।
511. कथा श्रवण से भी सौ गुना आनंद उसके मनन और चिंतन में होता है, जो हम नहीं करते ।
512. संसार के व्यवहार में पड़ा हुआ मन मैला ही रहेगा ।
513. नाम जप से प्रभु और माता को सुख देने की चेष्टा करनी चाहिए । प्रभु और माता की प्रसन्नता इसमें ही है ।
514. प्रभु पर अपना सब कुछ न्यौछावर करके प्रतिपल भक्त न्यौछावर होता रहता है ।
515. प्रभु अपने शरणागत का पूर्ण रूप से निर्वाह करते हैं ।
516. शरणागति की प्रभु की नौका में बैठकर भवसागर पार करने वाला आज तक कोई डूबा नहीं, न आगे कभी कोई डूबेगा ।
517. प्रभु का आश्रय और नाम जप बस इतना करने पर कोई भी हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
518. जगत के व्यवहार को रोककर भक्त प्रभु का दुलार करने में अपना जीवन व्यतीत करता है ।
519. भगवत् अनुराग आना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
520. काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या और अहंकार - यह भजन के ठग हैं । यह ठग हमें भजन नहीं करने देते ।
521. भजन कर लें, करके दुनिया से बचा लें और फिर पचा लें तो भगवत् प्राप्ति संभव हो जाती है ।
522. त्याग में शांति है, भोग भोगने में शांति नहीं है । त्याग में तृप्ति है, भोग भोगने से नए भोग भोगने के लिए अतृप्ति बनी रहती है ।
523. हम प्रभु के श्रीकमलचरणों में बिके हुए अशुल्क दास हैं । यही एक भक्त का सच्चा परिचय होता है ।
524. जब कोई काम, क्रोध, लोभ का वेग आए और खुद नहीं संभाल पाएं तो दोनों हाथ ऊपर करके प्रभु को पुकारें कि प्रभु काम का वेग आ रहा है, इसे शांत कर दें । प्रभु बड़े दयालु और कृपालु हैं, वे हमें बचा लेंगे । पर हमारा उस प्रकार का भाव होना चाहिए तभी प्रभु तक वह पुकार पहुँचेगी ।
525. पहले धर्म प्रधान होता था और भोग गौण होते थे । अब उल्टा है कि भोग प्रधान हो गए और धर्म गौण हो गया है ।
526. जीवन का उद्देश्य भगवत् प्राप्ति सदा प्रकाशित रहना चाहिए पर आज वह ढ़क गया है ।
527. भगवत् नाम जप में रुचि और विश्वास होना चाहिए तो फिर बेड़ा पार है ।
528. आज जो कलियुग में भगवत् दर्शन में देरी हो रही है उसका एक मुख्य कारण यह है कि हमें प्रभु के नाम जप में पूर्ण विश्वास नहीं है । नाम अपने नामी यानी प्रभु को प्रकट कर देगा यह विश्वास हमें नहीं है इसलिए हम दृढ़ता से नाम जप नहीं करते ।
529. किसी भी प्रकार प्रभु का नाम जप हो जाए तो उसका फल अमोघ है ।
530. रोकर प्रभु से प्रभु का प्रेम और दर्शन मांगना चाहिए । रोकर प्रभु से प्रभु को मांग लेना चाहिए ।
531. प्रभु से संसार कभी नहीं मांगना चाहिए । संसार पूर्व में मांग कर ही हम चौरासी लाख योनियों में भटक रहे हैं और फिर हम वही संसार प्रभु से मांग रहे हैं ।
532. प्रभु से यही मांगे कि ऐसी बुद्धि बना दें कि कुछ मांगने की कामना ही हमारे हृदय में कभी उत्पन्न न हो ।
533. अपने को दीन बनाना चाहिए, तिनके से भी दीन भाव रखने पर प्रभु अति प्रसन्न होते हैं ।
534. प्रभु से अनन्य प्रेम होना चाहिए यानी केवल प्रभु से ही प्रेम होना चाहिए ।
535. प्रभु की सेवा और प्रभु का दर्शन प्रभु से हमें मांगना चाहिए ।
536. हम प्रभु को नहीं मांगते, प्रभु से संसार मांगते हैं - यह कितनी बड़ी विडंबना है ।
537. संसार मिलने पर प्रभु की दासी माया हमें थपेड़े पर थपेड़े लगाती रहती है ।
538. संसार हमारा हितैषी है यह मानकर हम बेवकूफ बन रहे हैं । हमारे सच्चे हितैषी तो ब्रह्मांड में केवल और केवल प्रभु ही है ।
539. प्रभु के उपकार का हम पार नहीं पा सकते । इसलिए अपने रोम रोम को प्रभु का कृतज्ञ मानना चाहिए ।
540. शास्त्र और संत भगवत् उपदेश करके हमारा कल्याण करते-ही-करते हैं ।
541. जितना भी जानना, सुनना और समझना है वह इसी बात के लिए है कि अंत समय प्रभु की याद आ जाए । अंत में हमारी मति की गति प्रभु के श्रीकमलचरणों में हो ।
542. प्रभु की कथा आत्मा को शुद्ध करने वाली, अंतःकरण को प्रसन्न करने वाली, चित्त को निर्मल करने वाली अमोघ औषधि है ।
543. भक्ति देकर प्रभु ने हम पर कितनी ही बड़ी कृपा की है । कब से हम यानी कितने अनंत जन्मों से भटक रहे थे और कब तक यानी कितने अनंत जन्मों तक भटकते रहते अगर प्रभु की भक्ति रूपी कृपा इस जीवन में प्राप्त न होती ।
544. हमें भक्ति करके मरना नहीं है, भक्ति करके जीवन मुक्त होकर प्रभु के धाम जाना है ।
545. उन प्रभु का नाम लें जिनके भय से भय भी भयभीत रहता है ।
546. प्रभु की सत्ता का विश्वास शास्त्र और संत ही जनमानस को कराते हैं ।
547. प्रभु के नाम लेने से भक्त निर्भय हो जाता है ।
548. भक्ति का पहला लक्षण है निर्भयता ।
549. पुरुषार्थ करना है तो छोटी चीज यानी संसार को पाने के लिए नहीं बल्कि अलौकिक भक्ति, जो हमारा परम मंगल करती है, उसे पाने के लिए करना चाहिए ।
550. दुनिया का सबसे खूबसूरत संगीत हमारे हृदय की धड़कन है जो प्रभु की अनुपम रचना है । इस संगीत के बिना हम जीवित रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
551. भगवान की भक्ति वह सुरक्षा कवच है जिसे कोई भी बुरी शक्ति भेद नहीं सकती ।
552. प्रभु सबसे अधिक किसी से स्नेह करते हैं तो अपने भक्तों से करते हैं ।
553. भक्ति ही केवल हमें निर्भय करने वाला साधन है ।
554. नाम जपने से हमारे अंदर में आध्यात्मिक बल आएगा ।
555. अपवित्र मन से राग होता है और पवित्र मन से त्याग होता है ।
556. प्रभु की कृपा प्राप्त किए बिना मनुष्य जन्म पूरा हो गया तो कोई लाभ हम मनुष्य जन्म में नहीं ले पाए ।
557. संसार का चिंतन छूटे और प्रभु का चिंतन हो, यही सच्चा योग है ।
558. मन प्रभु के चिंतन में और सानिध्य में सबसे ज्यादा मग्न होता है, ऐसा संतों और भक्तों ने अनुभव किया है ।
559. प्रभु हर समय हमारे साथ हैं, प्रभु सर्वत्र हैं, प्रभु सबमें हैं, प्रभु सबके हैं, सभी पर प्रभु की कृपा है - ऐसा मानना चाहिए ।
560. प्रभु किसी कण, किसी क्षण में न हो तो मैं डरूँ पर भक्त इसलिए नहीं डरता क्योंकि कोई कण, कोई क्षण नहीं जब प्रभु की दृष्टि उस पर नहीं हो ।
561. प्रभु से विमुख होने पर अच्छे-से-अच्छे को भयभीत होना पड़ता है । अंदर-ही-अंदर मन उसे डराता रहता है ।
562. जीवन में प्रभु पर ही पूर्ण भरोसा रखना चाहिए ।
563. हमारे सारे आचरण प्रभु को समर्पित होने चाहिए ।
564. किसी भी स्थिति में प्रभु का विस्मरण नहीं हो, यही एक लक्ष्य रखना चाहिए और यह अखंड भजन और नाम जप से ही संभव है ।
565. जैसे ही महाबलशाली प्रभु का नाम हमारे हृदय में जाता है तो सब विकार निकलकर भागते हैं ठीक वैसे ही जैसे बलशाली हाथी तालाब में प्रवेश करता है तो सभी अन्य जीव जंतु भागते हैं ।
566. परमार्थ चढ़ाई चढ़ाता है और विषय सुख नीचे फिसलाता है । चढ़ने में मेहनत होती है, नीचे फिसलने में कोई श्रम नहीं होता । इसलिए हमें परमार्थ मुश्किल लगता है और विषय सुख हमें आकर्षित करते हैं ।
567. कोई भी प्रभु की शरणागति का भाव लेकर आए तो प्रभु द्वारा उसे स्वीकार करने में कभी कोई हिचक नहीं होती ।
568. हमारे जैसे प्रभु के पास अनेक हैं पर प्रभु जैसा हमारे पास और अन्य कोई भी नहीं है ।
569. भक्त के पास संतोष रूपी परम धन होता है ।
570. भक्त की हर परिस्थिति में रक्षा करना प्रभु सदा से अपना कर्तव्य मानते आए हैं ।
571. आप सहें और दूसरों के दोष को जानकर भी जगत से छिपाएं - ऐसा जीव प्रभु को प्रिय होता है ।
572. प्रभु के श्रीकमलचरण परम विश्राम दायक हैं ।
573. प्रभु हमारे सुख के लिए ही श्रीलीलाएं करते हैं ।
574. प्रभु के निकट आते ही एक अदभुत शांति और आनंद की अनुभूति हमें होती है ।
575. जो आँखों से दिखाई देता है, जहाँ तक संसार में मन और बुद्धि जाती है, यहाँ तक कि जिस सांसारिक चीज की हम कल्पना भी करते हैं वह सब मिटने वाला है । अविनाशी तो केवल और केवल प्रभु ही हैं ।
576. जब कभी जीवन में प्रभु को पाने की प्रबल इच्छा होती है तब जीवन में हमारे साथ ऐसी घटना घटती है कि संसार उसी समय छूट जाता है ।
577. जो श्रीमद् भगवद् गीताजी में भी नहीं मिलेगा वह भी प्रभु के अंतिम उपदेश जो श्री उद्धवजी को प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण के एकादश स्कंध में दिया उसमें मिलेगा ।
578. संसार कहता है यह करो, वह करो पर प्रभु कहते हैं सब छोड़ो और मेरे बनकर रहो, मेरे से प्रेम करो - यह प्रभु का अंतिम उपदेश श्री उद्धवजी को । यह माला, यह मंत्र, यह वेदजी सब छोड़कर सिर्फ प्रभु कहते हैं मेरी भक्ति करो - यह प्रभु का अंतिम मत है ।
579. श्री ध्रुवजी दूसरे महीने में छह दिन में एक बार पत्तों का आहार लेते थे बाकी सब समय ध्यान और तप करते थे ।
580. श्री ध्रुवजी तीसरे माह से नौ दिन में एक बार जल का आहार लेने लगे और बाकी समय ध्यान और तप करने लगे ।
581. श्री ध्रुवजी ने चौथे मास के आते-आते केवल वायु का आहार लेने लगे और बारह दिन में एक बार श्वास ग्रहण करते थे ।
582. आज के समय में भी पांच-छह संत ऐसे हैं जो चौबीस घंटे में मूँगफली का बस एक दाना, इतना ही चबाना । ऐसे संत कुछ वर्षों पूर्व हुए हैं जिन्होंने साधना से इतनी जागृति कर ली कि चालीस वर्षों तक पानी नहीं पिया, अन्न नहीं लिया और नींद भी नहीं ली । ऐसा कैसे संभव हुआ ? प्रभु साधन के मार्ग पर प्रभु की शक्तियों का जागरण हमारे भीतर हो जाता है । श्री ध्रुवजी ने यह बात की पुष्टि की कि मैं पांच वर्ष का बालक यह नहीं कर सकता था, मुझे पता है कि प्रभु आपकी शक्तियां ही मेरे से यह करवा रही थी ।
583. कोई काम न हो तो भी आलस्य में पड़े रहने की आदत मनुष्य को बेकार बना देती है । कोई काम नहीं है तो भी कुछ तो करो पर आलस्य कभी जीवन में नहीं करना चाहिए ।
584. आज भी ऐसे संत श्री वृंदावनजी में हैं जो प्रभु और माता के श्रीरास के दौरान के संवाद को रोज सुनते हैं ।
585. प्रभु बातचीत के विषय नहीं, अनुभव करने के विषय हैं ।
586. श्री ध्रुवजी ने देखा कि प्रभु अभी भी नहीं मिले तो उन्होंने एक पग पर खड़े होकर एक सांस ली और प्रण किया कि दूसरी सांस तभी लूंगा जब प्रभु मिलेंगे । उन्होंने श्वास रोक ली और पूरी पृथ्वी की वायु रुक गई ।
587. प्रभु कृपा तो प्रभु के दो नाम लेने पर भी होगी पर प्रभु साक्षात्कार तो प्रभु के लिए सब कुछ त्यागे बिना कभी नहीं होगा ।
588. वेदांत का मूल सिद्धांत है कि सभी जीव जंतु आपस में संबंधित है । एक संत ने कोई संकल्प किया तो सारे संसार पर उसका प्रभाव पड़ता है । जैसे श्री ध्रुवजी ने अपनी श्वास रोक ली तो पूरे विश्व के प्राणियों की श्वासें रुक गई, ऐसा इसलिए कि प्रभु तत्व सबमें समान रूप से विद्यमान है ।
589. श्री ध्रुवजी को दर्शन देने प्रभु चले - एक अर्थ । श्री ध्रुवजी का दर्शन पाने प्रभु चले – यह दूसरा अर्थ प्रभु श्री शुकदेवजी की व्याख्या से निकलता है ।
590. अपने भक्तों के दर्शन की तीव्र लालसा प्रभु को भी होती है - यह सिद्धांत है ।
591. प्रभु पहुँचे तो श्री ध्रुवजी के नेत्र बंद थे । प्रभु श्री ध्रुवजी के नेत्र खुलने की प्रतीक्षा करने लगे जैसे भक्त प्रभु के मंदिर खुलने की प्रतीक्षा करता है । श्री ध्रुवजी ने अपने ध्यान बल से मानो प्रभु की मनोमय मूर्ति अपने हृदय में निर्माण कर ली थी और उसी में लीन हो गए थे । सूत्र यह कि हमें भी अपने मन में प्रभु की मनोमय मूर्ति निर्माण करनी चाहिए ।
592. प्रभु ने अपने रूप को श्री ध्रुवजी के अंतःकरण से हटाया तो श्री ध्रुवजी के नेत्र खुले तो प्रभु के उसी रूप का दर्शन हुआ जो उनके अंतःकरण में दर्शन हो रहे थे । सूत्र यह है कि जब भी प्रभु के दर्शन होंगे तो पहले मन में होंगे, फिर नेत्रों से होंगे ।
593. श्री ध्रुवजी प्रभु के सौंदर्य से अभिभूत हो गए, प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर गए, उठे, फिर गिरे, फिर उठे, फिर गिरे, ऐसा करके बार-बार दंडवत प्रणाम किया ।
594. प्रभु श्री शुकदेवजी प्रभु के रूप का वर्णन करते-करते बार-बार शब्द बदलते हैं । पहले कहा श्री ध्रुवजी ने प्रभु को देखा, फिर कहा नहीं नहीं टकटकी लगाकर देखा, नहीं नहीं नेत्रों को प्याले बनाकर रूप माधुर्य को पीते गए । फिर प्रभु श्री शुकदेवजी ने शब्द बदला कि श्री ध्रुवजी ने नेत्रों से प्रभु को चूम लिया, फिर शब्द बदला नहीं नहीं नेत्रों से आलिंगन किया, नेत्रों से प्रभु के रूप को अपने अंदर बंद कर लिया । भगवती शबरीजी की भी यही दशा हुई । प्रणाम करती प्रभु के श्रीकमलचरणों में तो प्रभु के श्रीमुख का सौंदर्य ध्यान में आता, ऊपर उठती श्रीमुख देखने के लिए तो प्रभु के श्रीकमलचरणों की कोमलता याद आती, फिर प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिरती तो श्रीमुख की याद आती, फिर ऊपर देखती तो श्रीकमलचरणों की याद पुनः आती । पुनः उठती गिरती, फिर उठती गिरती, पुनः उठती पुनः गिरती ।
595. प्रभु ने अपने श्रीशंख को श्री ध्रुवजी के कपोल को छुवाया, प्रभु समझ गए कि श्री ध्रुवजी मेरी स्तुति करना चाहते हैं पर उन्हें शब्द नहीं मिल रहे । और फिर श्री ध्रुवजी ने वह अमर स्तुति कर दी । सूत्र क्या है - प्रभु द्वारा शब्द प्रदान करने पर ही हम प्रभु की स्तुति कर सकते हैं । जितने भी संतों ने प्रभु की स्तुति या स्तोत्र रचे हैं वह सब प्रभु कृपा से प्रभु द्वारा शब्द प्रदान करने के कारण ही हुआ । हमारा सामर्थ्‍य नहीं कि हम प्रभु की वंदना तक कर पाए ।
596. भक्त ने सदैव ही भगवान को प्रमाणित किया है । जगत के लिए भगवती मीराबाई से बड़ा कोई प्रमाण नहीं प्रभु श्री कृष्णजी के होने का और गोस्वामी श्री तुलसीदासजी से बड़ा कोई प्रमाण नहीं प्रभु श्री रामजी के होने का ।
597. जीव की जरूरत में अगर कोई काम आते हैं तो वे केवल प्रभु ही काम आते हैं ।
598. प्रभु कितना परिश्रम करते हैं एक जीव को भजन के मार्ग पर चलाने के लिए जिससे उसका मंगल और कल्याण हो सके ।
599. भक्त का संकल्प प्रभु का ही संकल्प होता है ।
600. विकारों को अध्यात्म के द्वारा ही रोका जा सकता है, अन्य कोई भी उपाय नहीं है ।
601. श्री ध्रुवजी प्रभु से कहते हैं कि उनका मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में भ्रमर की तरह फंस जाए । भक्त भ्रमर की तरह प्रभु के श्रीकमलचरणों में उलझे रहना चाहता है ।
602. श्री ध्रुवजी प्रभु से कहते हैं कि आपकी कथा में वह रस है जो स्वर्ग में भी नहीं है, स्वर्ग तो क्या श्री बैकुंठजी में भी नहीं है ।
603. श्री ध्रुवजी ने प्रभु से कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा पूरा जीवन सत्संग में व्यतीत हो, ऐसी कृपा कर दें ।
604. निरंतर प्रभु की भक्ति करूं और प्रभु के भक्तों का सानिध्य हमें प्राप्त हो, ऐसा भाव भक्त अपने हृदय में रखता है ।
605. प्रभु भक्ति की मस्ती जीवन में चढ़ जानी चाहिए, यह कृपा प्रभु कर दें फिर चाहे भवसागर से पार नहीं करें क्योंकि भवसागर से पार तो यूं ही हो जाएंगे अगर मन प्रभु की भक्ति में लग गया ।
606. प्रभु गुणानुवाद की अमृत कथा की मस्ती जीवन में आनी चाहिए । कोई भी भगवत् भक्त कभी भी संसार रस के पीछे नहीं पड़ा ।
607. भक्त प्रभु से मुक्ति नहीं मांगते क्योंकि भक्ति के बल पर मुक्ति तो मिलना तय है । ऐसा इसलिए कि मुक्ति तो भक्ति माता की दासी है ।
608. श्री ध्रुवजी ने कुछ नहीं मांगा पर फिर भी प्रभु ने उन्हें लौकिक पिता की गोद में बैठने का अधिकार और पिता का राज्य, फिर श्रीध्रुव लोक का अखंड राज्य दे दिया ।
609. पाँच वर्ष के बालक श्री ध्रुवजी ने छह महीने का साधन कर प्रभु को प्राप्त कर लिया । हम पचास वर्षों से माला फेर रहे हैं और अभी माला फेरना भी नहीं सीख पाए ।
610. तीव्र भक्ति का अर्थ है कि भक्ति का वेग तीव्र होगा तो प्रभु बहुत जल्दी मिलेंगे ।
611. प्रभु की प्राप्ति हो जाए उसमें सब कुछ की प्राप्ति है ।
612. श्री ध्रुवजी को लौटकर पश्चाताप हुआ कि प्रभु से श्रीध्रुव लोक मिला, यह ठीक नहीं हुआ । प्रभु से प्रभु को प्राप्त नहीं करके श्रीध्रुव लोक क्यों प्राप्त किया, इस कारण उन्हें पछतावा हुआ ।
613. भक्ति करने के समय मन में कोई भी भावना रखेंगे तो प्रभु वह चीज दे देंगे पर खुद को नहीं देंगे । भक्ति में मन में कोई प्रतिक्रिया यानी भक्ति की क्रिया से कुछ इच्छा नहीं रखनी चाहिए ।
614. संत और महात्मा भक्ति द्वारा कुछ नहीं चाहते, कुछ नहीं मांगते । केवल भक्ति का प्रवाह प्रभु के श्रीकमलचरणों की तरफ बहता रहे, यह चाहते हैं ।
615. भक्त और भगवान एकरूप हो जाते हैं, वे दो नहीं रहते । ध्यान करने वाला और जिनका ध्यान किया, वे दोनों एक हो जाते हैं ।
616. भक्ति अनुभूति की बात है, यह बोलकर दिखाई नहीं जा सकती – यह संत श्री ज्ञानेश्वरजी का मत है । फिर कौन भक्ति महारानी की व्याख्या करने का सामर्थ्य रखता है ।
617. प्रभु के दर्शन करके श्री ध्रुवजी जब लौट रहे थे तो उनके लौकिक पिता दौड़कर शोभा यात्रा लेकर दोनों रानियों के साथ यानी श्री ध्रुवजी की माता और सौतेली माता और भाई उत्तम के साथ आए । सूत्र यह है कि परमपिता मिल जाए तो फिर प्रतिकूलता भी स्वागत करती है, प्रभु कृपा का परिणाम है कि प्रतिकूलता भी अनुकूलता में बदल जाती है ।
618. प्रभु श्री ध्रुवजी से प्रसन्न हो गए इसलिए श्री ध्रुवजी जहाँ भी जाएंगे प्रभु की समस्त शक्तियां सदैव के लिए उनके साथ जाती हैं । सूत्र यह है कि भक्त के पीछे प्रभु की शक्तियां चलती हैं ।
619. संसार काजल की कोठरी है, कितना भी संभाल कर रहें फिर भी कालिख तो लगेगी ही । श्री ध्रुवजी ने प्रभु दर्शन के बाद राज्य किया और एक यक्ष के द्वारा उनके सौतेले भाई उत्तम को मारने पर श्री ध्रुवजी ने अलकापुरी में यक्षों पर आक्रमण किया और बहुत बड़ी यक्ष सेना को मार दिया । फिर उन्हें पश्चाताप हुआ कि एक यक्ष की गलती पर मैंने इतनी मार काट क्यों की ? श्री ध्रुवजी ने तुरंत संसार त्यागने का निर्णय लिया ।
620. जब श्री ध्रुवजी संसार छोड़कर जाने लगे तो मृत्यु देव आए और यह कहा कि यह मृत्यु लोक है, मुझे तो आपने प्रभु कृपा से जीत लिया इसलिए मैं मस्तक झुकाकर बैठा हूँ, मृत्यु के मस्तक पर पैर रखकर श्री ध्रुवजी चले ।
621. किसी के दोष दर्शन नहीं करना, किसी को लघु नहीं मानना, नहीं तो यह दोष दर्शन और लघु मानने का भाव हमें ही गिरा देगा ।
622. यह मांग जागृत हो गई कि हमें प्रभु ही चाहिए तो यह मांग जीवन की अन्य सभी मांगों को मिटा देती है । जीवन में अन्य कोई भी मांग फिर बचेगी नहीं ।
623. हमारे भीतर अन्य कोई इच्छा न रहे, केवल हमारे प्रभु ही हमें प्यारे लगें, यही प्रभु से मांगना चाहिए ।
624. हमारे कितने ऐसे अपराध होते हैं जिनको करुणावान प्रभु मानते ही नहीं, उनकी तरफ दृष्टि या ध्यान ही नहीं देते । यह प्रभु की जीव पर कितनी विलक्षण करुणा होती है ।
625. किसी में भी दोष दर्शन होने पर भी उसकी निंदा न करें । यह माने कि संसार के नाटक में कोई तमोगुण का खेल खेल रहा है जैसे किसी फिल्म में कोई बदमाश का रोल कर रहा है ।
626. कोई भक्त या संत मरते समय रोए नहीं और याद नहीं किया कि मेरा बेटा कहाँ है, बेटी कहाँ है । वे हंसते-हंसते प्रभु को याद करते हुए तृप्ति का अनुभव लेकर गए ।
627. जो अपने को संसार का मानता है और जो संसार को अपना मानता है उन दोनों के बंधन कटते नहीं हैं । मैं केवल श्रीभगवान का ही हूँ और केवल श्रीभगवान ही मेरे हैं - ऐसा मानने वाले का बंधन कटता है ।
628. मेरी पत्नी, पुत्र, पुत्री यह सब दुनिया के नाटक करते समय दिखाना पर मन से यह मानना कि मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं ।
629. सांसारिक वस्तुओं के लिए भावना नहीं रखनी चाहिए कि यह मेरी है, यह मेरी है । सिर्फ प्रभु के लिए यह भावना रखनी चाहिए कि प्रभु मेरे हैं ।
630. सांसारिक वस्तुओं का मृत्यु पर वियोग होने ही वाला है उसे कोई रोक नहीं सकता पर जो व्यक्ति ऐसे सांसारिक वस्तुओं का पहले ही मन से त्याग कर देता है, जो अंत में तो छूटने वाली ही है, पहले ही मन से छोड़ दिया वही श्रेष्ठ है ।
631. यज्ञों से, कर्मकांड से मुक्ति नहीं होती । मुक्ति सिर्फ भक्ति से ही संभव है ।
632. समर्थ गुरु वह है जो शिष्य के भीतर उतर कर भी बात उसके गले उतार दे । शिष्य का स्तर नीचे हो तो भी गुरु अपनी बात उसके गले उतार दे ।
633. दर्शन शास्त्र और वेदांत के सिद्धांत को कथा और कहानी के रूप में रसमय बनाकर पुराणों में परोसा गया है ।
634. दो हंस, एक आत्मा और एक परमात्मा उड़ रहे थे । आत्मा ने एक नगरी देखी, वहाँ जाना चाहा, परमात्मा ने कहा कि जाओ पर फंसना मत, मुझे भूलना मत । आत्मा नगरी में गया, वहाँ एक युवती को देखकर फंसा, उसने संसार किया, फिर बच्चे हुए, इतने में उसके राज्य पर आक्रमण हुआ, मरते-मरते विचार कर रहा था कि मेरी पत्नी का क्या होगा । पत्नी के चिंतन से मरा तो अगले जन्म में स्त्री बना । उसका विवाह एक पुरुष से हुआ, पुरुष का देहांत हुआ तो वह आत्मा जो स्त्री रूप में थी सती होने आई । एक संत मिले, बोले पागल हो, आत्मा क्या कर रहे हो, संत परमात्मा ही थे, वे बोले कि हम दोनों हंस थे । तुम आत्मा संसार में क्यों फंस गए ? हम दोनों आत्मा और परमात्मा मित्र हैं । आत्मा अपनी गलती को समझ गया और दोनों हंस उड़ गए ।
635. सारांश यह है कि आत्मा जीव का बुद्धि से विवाह हुआ, बेटे और बेटी हुए, यह सब संकल्प और विकल्प हैं जो हमारे मन में जीवन भर उठते रहते हैं । नव द्वार का शरीर पर काल मृत्यु का आक्रमण हुआ । 360 रात्रि और 360 दिन यानी 720 सैनिक ने आक्रमण किया । पंच प्राण जो शरीर की रक्षा करता है वह काल के आक्रमण से बेहाल हो जाता है । ऐसी स्थिति में फिर भी उसे अपनी साथी परमात्मा की याद नहीं आती और उसे अपनी बुद्धि की याद आती है । जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ाने के लिए जो परमात्मा को याद करता है फिर प्रभु आते हैं उसे जीव को याद दिलाने के लिए कि तुम कहाँ फंस गए हो, तुम तो मेरे अंश हो, फिर दोनों जीव और “शिव” दोबारा मिल जाते हैं ।
636. संसार से जीव का कोई संबंध नहीं था फिर भी संसार में फंस गया । जीव का संबंध सिर्फ परमात्मा से है ।
637. संत जीवन मुक्ति यानी संसार से मुक्त हो जाते हैं, प्रभु से एकरूप हो जाते हैं और जीवन काल में भी उसका आनंद लेते हैं ।
638. जैसे पिता को कैसे मनाना है यह माता को पता है वैसे ही प्रभु को कैसे मनाना यह संतों को पता होता है ।
639. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में चौबीस गुरुओं की प्रभु श्री दत्तात्रेयजी की कथा साधक के लिए बहुत उपयोगी है ।
640. जितनी संसार से अपेक्षा यानी आशा अधिक उतना दुःख अधिक, जितनी अपेक्षा यानी आशा कम उतना ही दुःख कम, यह सिद्धांत है ।
641. मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखूँगा, इस बात पर जिसका मन स्थिर हो गया उसकी पारमार्थिक उन्नति होकर ही रहेगी ।
642. भक्त भगवान के पीछे-पीछे चले यह भक्ति मार्ग है । पर भक्ति मार्ग पर ऐसा भक्ति बल विकसित हो जाता है जिससे प्रभु भक्तों के पीछे-पीछे चलते हैं क्योंकि प्रभु कहते हैं श्री उद्धवजी को कि भक्त के पैर से उठने वाली धूल से मैं (प्रभु) पवित्र हो जाता हूँ । यह प्रभु की बलिहारी है । प्रभु को ऐसा लोक दृष्टि में कहना नहीं चाहिए पर प्रभु डंके की चोट पर कहते हैं । भला प्रभु को कौन पवित्र कर सकता है ? वे पवित्रतम हैं पर मर्यादा को लांघकर प्रभु बोलते हैं जो भक्तों को भी अच्छा नहीं लगता कि प्रभु इतनी बड़ाई करें पर प्रभु दिखाना चाहते हैं कि मैं भक्तों को कितना महान मानता हूँ ।
643. सर्वश्रेष्ठ भक्तों का एक लक्षण प्रभु बताते हैं कि अपेक्षा रहित नित्यम् यानी कभी-कभी नहीं सदैव अपेक्षा रहित रहना ।
644. जो जीव किसी से अपेक्षा नहीं रखता वह परमार्थ का धन लूट ही लेता है । संत श्री एकनाथजी की ऐसी व्याख्या अपेक्षा रहित साधकों के लिए है ।
645. अध्यात्म का मूल सूत्र है मैं सबका भला करूँगा पर किसी से कुछ भी अपेक्षा कभी नहीं रखूँगा ।
646. संतों ने यहाँ तक कहा है कि किसी बुरे आदमी की निंदा करने से उसकी बुराई कुछ मात्रा में आकर हमसे चिपक जाती है । इसलिए सहनशील बने और किसी की भी निंदा न करें ।
647. जो संसार में किसी के लायक नहीं रहता, वही प्रभु के लायक रहता है - यह सिद्धांत है ।
648. संसार सिर्फ लौकिकता देखता है । अगर हम अलौकिक प्रभु के मार्ग में लगे हैं तो हम संसार के लिए किसी काम के नहीं रहते ।
649. अगर किसी की प्रभु की भक्ति सच्ची हो तो प्रभु पल भर में प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूल कर देते हैं ।
650. प्रभु की दया का द्वार तो सदा ही सबके लिए खुला ही रहता है ।
651. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने एक दृश्य देखा कि एक पक्षी के पीछे बहुत सारे अन्य पक्षी पड़ गए । वे उस पक्षी को बैठने नहीं देते, उड़ने नहीं देते । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने गौर से देखा तो ध्यान में आया कि उस पक्षी की चोंच में मांस का टुकड़ा था । सभी पक्षियों का प्रयत्न था कि वह चोंच के मांस को झपटकर ले ले । वे सब उस पक्षी को नोचते हैं, उसे शांति से बैठने नहीं देते । उस पक्षी ने अंत में उस मांस के टुकड़े को छोड़ दिया । सभी पक्षी उस मांस के टुकड़े के पीछे भागे, झगड़ने लगे और वह पक्षी निश्चिंत होकर पेड़ पर जाकर बैठ गया और सब तमाशा देखने लगा । मांस का टुकड़ा छोड़ते ही उसे शांति प्राप्त हो गई और बाद बाकी सभी पक्षी अशांत हो गए । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने देखा कि मांस के टुकड़े के कारण सभी पक्षी ने उस पक्षी पर आक्रमण किया, उसे दौड़ाया पर जैसे ही मांस का टुकड़ा छोड़ा वह मौज में आ गया ।
652. जीवन में बहुत सारे संसार के पदार्थों को पकड़ने से हमारा जीवन दुःख में आता है । मनुष्य की पकड़ने की वृत्ति होती है । ज्यादा-से-ज्यादा पकड़ कर पास में रखूँ । साधक को ऐसी कोई चीज नहीं पकड़नी चाहिए जिससे अशांति हो । हम पद, संपत्ति को पकड़ना चाहते हैं, जहाँ ऐसा होता है वहाँ हम आनंद से दूर होते जाएंगे । साधक को ऐसे पदार्थ को छोड़ देना चाहिए । प्रभु श्री शुकदेवजी तो उससे भी आगे की बात कहते हैं कि नहीं-नहीं छोड़ना नहीं चाहिए, उसे ग्रहण ही नहीं करना चाहिए । छोड़ेंगे तो तब जब ग्रहण किया जाएगा । यहाँ प्रभु श्री शुकदेवजी ने उसे ग्रहण नहीं करने की शिक्षा दी है ।
653. कुछ ग्रहण नहीं करने के कारण संतों का उद्धार होता है और जो संत ग्रहण कर लेते हैं उनका उद्धार तो दूर उनका पतन हो जाता है क्योंकि वे संग्रह में फंस जाते हैं ।
654. सच्चे संत माला कितनी फेरी यह गिनते हैं पर कुछ संत धन कितना आया यह गिनते हैं । हम परमार्थ में कहाँ जाने के लिए चले हैं और संसार के संग्रह में कहाँ फंस गए, यह हमें देखना चाहिए ।
655. एकनाथी भागवतजी का रोजाना चिंतन करना चाहिए । यह सरल श्रीग्रंथ है । श्री ज्ञानेश्वरीजी से भी सरल श्रीग्रंथ है । संत कहते हैं कि एकनाथी भागवतजी का पाठ करना श्री ज्ञानेश्वरीजी के पाठ करने जैसा है ।
656. जीवन में उत्तम साधक को अपनी स्वयं की शांति और आनंद पर हावी होने वाली कोई भी चीज का त्याग करना चाहिए, तभी वह उत्तम साधक कहलाता है और प्रभु की भक्ति कर पाता है ।
657. एक पद के लिए बहुत सारे लोग प्रयास करते हैं, खटपट होती है और सबके बीच बुद्धिमान वह है जो अपनी आत्म शांति के लिए उस पद की दौड़ से ही बाहर हो जाता है ।
658. एक संत को उनके गुरुजी ने महामंडलेश्वर बनाया । उन संत ने गुरु आज्ञा का पालन किया पर गुरुजी से कह दिया कि बारह वर्षों बाद वह उस पद को छोड़ देगा । बारह वर्षों बाद छोड़ दिया । सूत्र यह है जो पद हमें चाहिए नहीं उस पर भी हमें बैठाया गया तो वह पद हम पर कभी हावी नहीं हो सकता, हमारी शांति को नष्ट नहीं कर सकता अगर पद का लालच हमें नहीं है । पद का लालच है तो वह पद हमें फंसाएगा ।
659. संसार तभी हमें झुकाएगा जब हम संसार को उपभोग बुद्धि से देखेंगे । उपभोग बुद्धि नहीं तो संसार कभी हमें नहीं झुका पाएगा ।
660. प्रभु को व्यक्ति के गुण प्रिय होते हैं, उसका दिखावा प्रिय नहीं होता ।
661. एक कर्मचारी एक सेठजी की बहुत ईमानदारी और मेहनत से सेवा करता था । उसकी पदोन्नति होती गई और अंत में सेठजी ने उसे अपना हिस्सेदार बना लिया । अन्य सब कर्मचारी चिढ़ गए । उन्होंने गुट बनाया और सब उसको हटाने के लिए तत्पर हो गए । उनके ध्यान में एक बात आई कि 15-20 मिनट वह कर्मचारी एक कमरे में रोजाना अकेला जाता है । सबने सोचा कि वह रुपया इकट्ठा करके वहाँ रखता है, एकांत में बैठकर गिनता है । वार्ता सेठजी के पास पहुँची । वह कर्मचारी सेठजी के पास गया और इस्तीफा देना चाहा । सेठजी ने उसे बंद कमरे में 15-20 मिनट का रहस्य पूछा । उसने कहा कि वह समय मेरा सबसे महत्वपूर्ण समय होता है इसलिए मैं किसी को नहीं आने देता । उसने कहा कि सबको बुलाएं मैं दिखाऊँगा कि मैं क्या करता हूँ । सब लोग पहुँचे । उस कमरे में एक पेटी थी जिसमें ताला लगा था । उसने खोला तो पेटी के अंदर एक फटी हुई कंबल, एक फटी हुई धोती, एक टूटी हुई चप्पल थी । सेठजी ने पूछा यह क्या है ? वह बोला कि जब वह आया था तो उसके पास यह था फिर प्रभु कृपा हुई और उसकी प्रगति हुई और आज सेठजी की तरह वह गाड़ी में सूट-बूट पहनकर घूमता है । उसने कहा कि मैं रोज आकर प्रभु कृपा का दर्शन करता हूँ और प्रभु से यही मांगता हूँ कि गाड़ी, सूट-बूट मेरे पर प्रभाव नहीं डालें । अगर जरूर पड़े तो शांति से मैं यह फटे कंबल, धोती और चप्पल दोबारा धारण कर सकूं । मैं प्रभु से यही प्रार्थना रोजाना करता हूँ । उसका संतोष देखकर सबकी आँखें नम हो गई ।
662. जब हम संसार की संपत्ति को नहीं पकड़ते हैं तो हम उन्नति को पकड़ लेते हैं क्योंकि हमारी शांति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
663. छोटे बालक को देखकर हम सीख सकते हैं अगर उसकी तरह हमारी मनोवृत्ति हो जाए । छोटा बालक झगड़ा और मान-अपमान को भुला देता है । सुबह झगड़ा हुआ, दोपहर को भुलाकर फिर खेलने चला जाता है । बालक के कारण परिवार वालों ने आपस में झगड़ा कर लिया और वह झगड़ा दस वर्षों तक चला । हम बीस वर्षों पहले की बात भी याद रखते हैं, बीस वर्षों पहले का झगड़ा याद रखते हैं पर श्रीमद् भागवतजी की कल की सुनी कथा भी हम भूल जाते हैं ।
664. बीस वर्षों का कचरा रखकर क्या लाभ होगा ? हम घर में झाड़ू लगाकर कचरा बाहर फेंकते हैं और फिर वापस घर में संभाल कर उसे रखें और अगर अलमारी में कचरा का संग्रह करें तो जीवन में वह कभी काम नहीं आएगा । अगर वह घर में रहेगा तो घर का कचरा कीटाणु को निर्माण करता है । वैसे ही मानसिक कचरा हमारे विकारों को निर्माण करता है, अशांति को निर्माण करता है और हमें प्रभु से दूर कर देता है ।
665. सूत्र यह है कि भूतकाल के कचरे को लेकर अगर हम वर्तमान काल को दूषित करते हैं तो हमारे जैसा कोई मूर्ख नहीं है । छोटा बच्चा भूतकाल की बात भूल जाता है और वर्तमान का आनंद लेता है । क्या हम भी उस तरह से वर्तमान का आनंद ले सकते हैं ?
666. पुरानी बातें को याद रखना स्मृति के दो प्रकार होते हैं । हमें तात्विक तथ्य को याद रखना चाहिए पर भावनात्मक तथ्य और पुरानी बातों को कि कब गुस्सा आया था, कब कुछ गलत हुआ था, उन सबको भूल जाना चाहिए ।
667. हम देश, रुपया, चुनाव की चिंता रखते हैं, महंगाई की चिंता रखते हैं और हम चिंताक्रांत रहते हैं । छोटे बालक को देखे, कोई चिंता नहीं, उसी संसार में रहता है, उसे देश, रुपया, चुनाव, महंगाई की कोई चिंता नहीं । हमें भी बच्चे की तरह निश्चिंत रहने की कला सीखनी चाहिए । किसी चिंता को मन में प्रवेश नहीं करने दें ।
668. क्या हम अपना मन छोटे बालक जैसा नहीं बना सकते । ऐसा करने पर ही हम आनंद का अनुभव कर सकेंगे । दो प्रकार के लोग चिंता से मुक्त हो जाते हैं । एक वे जो प्रभु की साधना कर ऊँ‍‍ची अवस्था प्राप्त कर ली और सिद्ध महात्मा हो गए और दूसरा जो छोटे बच्चे के मन जैसा अपने मन को बना लेता है यानी निर्मल मन वाले बन जाते हैं जो प्रभु को प्रिय होते हैं ।
669. वर्तमान का विचार किया जाए, वर्तमान में ही रमण किया जाए वही चिंता मुक्त रहेगा और आनंद की अनुभूति करेगा । हम वर्तमान काल में कभी नहीं रहते, हम या तो भूतकाल की बात याद करके दुःखी होते हैं और या भविष्य काल के डर से चिंताक्रांत रहते हैं । प्रभु की भक्ति करने वाले को न भूतकाल और न भविष्य काल प्रभावित करता है ।
670. मैं वर्तमान में हूँ, मेरा भाव भी वर्तमान में रहेगा - यह तय कर लिया तो छोटे बालक की तरह हम सदैव प्रफुल्लित रहेंगे और प्रभु की भक्ति कर पाएंगे ।
671. एक संत वर्तमान में रहते थे । हर 5 मिनट में प्रवचन में ठहाका मारकर हंसते थे ।
672. एक संत मंच पर किसी मंत्री के साथ बैठे थे । संत ठहाका मार कर हंसने लगे तो मंत्री बोले इतना हंसने वाला महात्मा मैंने कभी नहीं देखा । संत बोले संसार के बादशाह यानी प्रभु के प्रिय संत ही हंस सकते हैं, अन्य कोई इतना हंस नहीं सकता ।
673. जीवन में कोई संपत्ति नहीं, दो कपड़े, दो कोपीन, एक कंबल, एक कमंडल - ऐसे प्रभु के भरोसे रहने वाले महात्मा ही हंसते हैं । संसार में रहकर संग्रह करने वाला चिंताग्रस्त ही रहेगा, कभी नहीं हंस पाएगा ।
674. जीवन को आनंदमय बनाने हेतु हमारे श्रीग्रंथ हमारा मार्गदर्शन करते हैं ।
675. हमारे श्रीग्रंथ मृत्यु के बाद मुक्ति में विश्वास नहीं रखते, वे जीवनमुक्त यानी जीते जी मुक्त होने में विश्वास रखते हैं ।
676. मूल आनंद हमारे भीतर है । मूल आनंद का स्त्रोत हमारे भीतर है पर उसके बाहर आने का रास्ता हमने बंद कर रखा है ।
677. हमारे यहाँ उपासनाएं तो बहुत है पर जो प्रभु की सेवा करते हैं वे ही श्रेष्ठ होते हैं । उसमें भी बालरूप में प्रभु की सेवा सबसे श्रेष्ठ है । पर बालरूप में प्रभु से कुछ मांगना नहीं चाहिए । हम छोटे बालक को देते हैं, उससे मांगते नहीं है । बालरूप में प्रभु की सेवा है तो प्रभु को सेवा दें, मांगना है तो जगतपिता के रूप में प्रभु से मांगे । एक भी संत ने बालकृष्ण प्रभु से कुछ नहीं मांगा, सिर्फ बालकृष्ण प्रभु को प्रेम करके रिझाया ।
678. प्रभु में विश्वास करें तो हमारी चिंता जाएगी, तभी चिंता भागेगी । प्रभु में विश्वास नहीं और मान लिया कि चिंता नहीं जाएगी तो फिर चिंता कभी नहीं जाएगी ।
679. छोटे बालक कभी चिंता नहीं करते, क्या हम कभी छोटे बालक के सामने चिंता की बात बताते हैं । वैसे ही बालकृष्ण प्रभु को कभी चिंता की बात नहीं बतानी चाहिए क्योंकि उनका स्वभाव बालरूप में चिंता रहित रहने का है ।
680. अध्यात्म शास्त्र की अंतिम उपलब्धि है चिंता मुक्त रहने की कला है ।
681. श्रीमद् भगवद् गीताजी में अंत में प्रभु ने कहा कि चिंता रहित रहो, मेरी शरण में आ जाओ । सूत्र यह है कि प्रभु के होते चिंता करना प्रभु के अस्तित्व में विश्वास की कमी होना है ।
682. भक्ति को समझने वाले भक्त को अगर कम मिलेगा तो भी वह उससे काम चलाएगा पर चिंता कभी नहीं करेगा ।
683. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने एक बालिका से साधना की कला सीखी । एक छोटी कन्या की सगाई हुई थी और अचानक एक दिन घर में अकेली थी तो ससुराल वाले लोग कहीं जा रहे थे वे मिलने आ गए । भोजन कम बचा था तो उस कन्या ने चावल लेकर कूटना आरंभ किया । हाथ में चूड़ियां थी जो बजने लगी तो उस कन्या को लगा कि ससुराल वाले सोचेंगे कि घर में काम करने वाला कोई नहीं है । पहले कन्या को विवाह के पूर्व कामों से मुक्त रखने की परंपरा थी । ऐसा सोचकर उस कन्या ने चूड़ियां उतारना आरंभ किया । जितनी चूड़ियां उतारी उतनी आवाज कम हुई । दो चूड़ियां बची, आवाज बहुत कम हो गई । फिर उस कन्या ने एक और चूड़ी उतार दिया अब एक चूड़ी बची और पूरी आवाज बंद हो गई । प्रभु दत्तात्रेयजी ने कहा कि मुझे संदेश मिल गया कि बहुत सारे साधन वाले लोगों को इकट्ठा करके साधन नहीं करना चाहिए, कलह होगा । जमावड़ा हुआ तो कलह होगा, गुटबाजी होगी । साधन करना हो तो एकांत में करें । उत्तम साधक वह है जो अकेला साधन करे ।
684. जिसको अपने व्यक्तिगत काम के लिए दास पर निर्भर होना पड़ता है उस जीव का जीवन बेकार है ।
685. ज्यादा साधक होंगे तो झगड़ा करेंगे, दो होंगे तो भी गप लगाएंगे जैसे दो चूड़ियां भी कन्या की बज रही थी ।
686. साधन और ध्यान में अकेला होना चाहिए । पढ़ाई करते वक्त दो लोग होने चाहिए । प्रवास या यात्रा में तीन लोग होने चाहिए और व्यापार, खेती या दुकान में चार लोग होने चाहिए । यह भारतीय शास्त्र मत है ।
687. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहीं जा रहे थे तो एक राजा की शोभा यात्रा आ रही थी । ताम-झाम पूरी थी, गाना बजाना था पर एक लोहार एक बाण की नोक बना रहा था । उस लोहार ने एक बार भी गर्दन उठाकर देखा तक नहीं । पीछे से राजसेवक आए, चौराहा था तो उस लोहार से पूछा कि राजा की शोभा यात्रा कौन-सी तरफ गई है । लोहार ने कहा कि मुझे पता नहीं, मैंने ध्यान नहीं दिया । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मैंने सीख लिया ध्यान कैसे करना चाहिए । इतना एकाग्र होकर ध्यान किया कि आसपास क्या हो रहा है उसका भान तक नहीं रहा । तल्लीन होकर ध्यान किया । किसी भी काम में तल्लीन होकर उससे करना चाहिए । सूत्र यह है कि चित्त की एकाग्रता प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने लोहार से सीखी ।
688. साधक हेतु साधना करने के लिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण में चौबीस गुरुओं की कथा जैसा सुंदर मार्गदर्शन कहीं नहीं मिलेगा ।
689. एक आसन पर बैठकर प्रभु की साधना करने से एकाग्रता ज्यादा होती है ।
690. पूजा करते वक्त पूजा की वस्तु के बारे में सोचना चाहिए यानी प्रभु के विषय की बात ही सोचें । उस विषय से बाहर की बात नहीं सोचें ।
691. प्रभु में तल्लीन होना है तो हर काम में तल्लीन होने का अभ्यास करना चाहिए । सूत्र यह है कि जो काम कर रहे हैं उसमें रमने का अभ्यास करें, एकाग्रता का अभ्यास करें तो वह पूजा में भी लागू होगा । यह सतोगुण की वृद्धि करेगा । जो विकास सतोगुण की वृद्धि से होता है वह अन्य कैसे भी नहीं हो सकता ।
692. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने सांप से सीखा कि कुत्तों का झुंड होता है पर कहीं चार-पाँच सांप का झुंड हमने नहीं देखा होगा । सर्प का स्वभाव है कि एकांत में रहना । अन्य सब जीव अपना घर बनाते हैं पर सर्प अपना घर या बिल नहीं बनाता । चूहे का खुदा हुआ बिल को ही सांप अपने घर में परिवर्तित कर देता है । हम घर को अपना मानते हैं, रंग-रोगन, बिजली सब झमेला अपने माथे लेते हैं पर हम घर को अपना नहीं माने तो जो परिवार वाला है वह अपना मानेगा और रंग-रोगन, बिजली सबका झमेला उसके माथे रहेगा । कलियुग में साधुओं का भी आधा जीवन आश्रम खड़े करने में चला जाता है । सबसे बड़ा साधक कौन ? जिसने अपना कुछ भी खड़ा नहीं किया । ऐसे महात्मा होते हैं जिनके अनुयाइयों में झगड़ा होता है और महात्मा का आधा जीवन उनके मतभेद मिटाने में चला जाता है । हम प्रभु की भक्ति करने के लिए निकले थे और क्या करने लगे संसार के झमेले में फंसकर । इसलिए उत्तम साधु का लक्षण होता है कि मेरा कुछ भी नहीं, मेरा शरीर भी मेरा नहीं, मेरे क्या - मेरे तो सिर्फ प्रभु ।
693. हम संसार के प्रपंच में फसेंगे नहीं तो अशांति कभी नहीं आएगी । हमारे देश के उत्तम साधक ऐसे जीवन जी कर गए हैं । वे प्रमादी नहीं थे, संसार से असावधान भी नहीं थे ।
694. जैसे भैंसा गाड़ी के सामने बैठा है तो गाड़ी रोक कर उसे उठाना पड़ता है पर सांप को कभी भगाना नहीं पड़ता वह स्वतः ही भाग जाता है । ऐसे ही साधक को जहाँ भी लगे कि उसका एकांत भंग हो रहा है उसे वहाँ से निकल जाना चाहिए ।
695. भक्त के जीवन में प्रतिकूलता आने का एकमात्र कारण है कि प्रभु उस भक्त का यश जग में प्रकट करना चाहते हैं ।
696. प्रभु अपनी कृपा और अनुग्रह का परिचय सदैव देते आए हैं और देते रहेंगे ।
697. भक्त प्रभु से जितना प्रेम करता है प्रभु उससे कितने अधिक गुना ज्यादा भक्त से प्रेम करते हैं ।
698. भक्त के लिए प्रभु के हृदय में अगाध प्रीति होती है ।
699. भक्त का प्रेम उन परम स्वतंत्र प्रभु को भी कोमल प्रेम की डोर में बांध देता है ।
700. लोगों से बेशक रिश्ते कमजोर हो पर प्रभु से रिश्ता अगर मजबूत है तो प्रभु हमें किसी के कदम में कभी झुकने नहीं देंगे ।
701. हम कब और क्या परमार्थ का साधन करते हैं इसका किसी को पता नहीं होना चाहिए । संत कहते हैं कि क्या सांप की दिनचर्या हमें पता होती है वैसे ही हमारी परमार्थ की दिनचर्या किसी को पता नहीं होनी चाहिए ।
702. क्या सांप का शब्द कभी हमने सुना है । गौ-माता का शब्द रंभाना, कुत्तों का शब्द भौंकना हम सुनते होंगे पर सांप बोलता है पर इतना धीमे, इतना अल्प कि हमें सुनाई भी नहीं देता । सूत्र यह है कि उत्तम साधन को कम से कम और बहुत धीमे स्वर में बोलना चाहिए । स्वामी श्री रमणजी महर्षि बारह वर्ष बाद अपनी माँ से मिले तो मात्र दो शब्द बोले ।
703. साधन मार्ग पर संसार का कोई जीव का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है । सबको अपने-अपने साधन मार्ग पर अकेले ही चलना पड़ता है ।
704. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने मकड़ी से सीखा कि जहाँ घर पर साफ सफाई नहीं होती, मकड़ी जाल बना लेती है । मकड़ी अपने भीतर से तंतु निकालती है उससे जाल बनाती है फिर उसी तंतु को अपने में निगल लेती है । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने कहा कि ऐसे ही प्रभु ने संसार का निर्माण अपने से किया, उसमें वे जीवात्मा बनकर खेल रहे हैं और फिर वे अपने में लीन कर लेते हैं । सूत्र यह है कि एक प्रभु के अलावा अन्य कोई तत्व संसार में है ही नहीं ।
705. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने भृंगी नमक कीड़े से सीखा कि वह मिट्टी का घर बनाता है और एक छिद्र छोड़ देता है । फिर वह एक छोटे कीड़े को छिद्र में डालता है और उस कीड़े को दंश करता है । कीड़े को वेदना होती है फिर भृंगी उसे मिट्टी के घर के छिद्र को मिट्टी से बंद कर देता है । फिर वह भृंगी बाहर चक्कर लगाकर आवाज करता रहता है । भीतर वह छोटा कीड़ा उस आवाज को सुनकर डरता रहता है और भीतर बंद रहता है । डर के कारण वह छोटा कीड़ा भृंगी का ध्यान करते-करते भृंगी बनकर उस छिद्र को तोड़कर बाहर निकलता है । डर के कारण भृंगी का स्मरण करने से वह कीड़ा भृंगी बन गया । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहते हैं कि सिद्धांत यह है कि हम दिन-रात जिनको याद करते हैं उनके जैसे बन जाते हैं । इसलिए कभी शत्रु को याद नहीं करना चाहिए सिर्फ जीवन में प्रभु को ही याद करना चाहिए । हम जिनका ध्यान करते हैं उनके गुण हमारे भीतर बैठते जाते हैं । इसलिए प्रभु का ध्यान करने से प्रभु के सद्गुण हमारे भीतर उतर आएंगे ।
706. प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने देखा कि अपनी देह यानी शरीर को ध्यान से देखने से ध्यान आता है कि वह कितना गंदा है, जल्दी ही मरेगा और सड़ेगा । इस मानव देह का उपयोग प्रभु साक्षात्कार हेतु करना चाहिए क्योंकि देह में सब कुछ गंदगी भरा हुआ है पर इसमें एक बहुत अच्छी बात यह है कि यह प्रभु तक पहुँचने का सबसे बड़ा साधन है ।
707. एक सांप ने एक मेंढक को पकड़ा उस समय भी मेंढक अपने मुँह में मक्खी को निगलना चाहता था । वैसे ही काल के मुँह में हम फंसे हैं फिर भी संसार को निगलना चाहते हैं ।
708. एक पुरुष की बहुत पत्नियां होने पर लड़ाई-झगड़ा और खिंचाई होती है । वैसे ही हमारे एक मन को हमारी सभी इंद्रियां खींचती हैं, रगड़ती हैं । हमारी आँखें मन को रूप दिखाकर ललचाती है, जिह्वा मन को स्वाद में ललचाती है और सभी इंद्रियां मन को अपनी तरफ खींचती हैं ।
709. वही धन्य है जो भोगों को देखना ही त्याग दे और परमात्मा प्राप्ति को ही अपना परम लक्ष्य बनाकर रखें ।
710. पता नहीं कितने जन्मों के पश्चात यह मनुष्य देह प्राप्त हुआ है । हमारा परम कल्याण इसी देह से संभव है, अन्य कोई देह से नहीं हो सकता । इसलिए सावधान होकर मानव देह का उपयोग प्रभु सेवा में करना चाहिए, भोगों में नहीं करना चाहिए । जिसने ऐसा किया वह धन्य हुआ, जिसने नहीं किया वह चिंतायोग्य है ।
711. तप के दो प्रधान विघ्न होते हैं कामिनी और कंचन । देवराज श्री इंद्रदेवजी अप्सरा और श्री कामदेवजी को तप भंग करने भेजते हैं । तप से मनुष्य देवतागण से ऊपर उठ जाता है इसलिए देवतागण तप भंग करने का प्रयास करते हैं ।
712. महाभारतजी में भगवती गांधारी ने एक मांसपिंड को जन्म दिया । प्रभु श्री वेदव्यासजी ने कहा कि इसमें सौ जीवात्मा हैं इसलिए शीतल जल की धारा छोड़ी गई । सौ टुकड़े हुए, एक-एक टुकड़े को एक-एक घड़े में अभिमंत्रित घी में डाल कर रखा गया और सौ कौरवों का जन्म हुआ । इससे पता चलता है कि उस समय का विज्ञान कितना प्रगतिशील था ।
713. शास्त्रों में संसार करना गलत नहीं कहा गया है और माना गया है । पर मरते दम तक संसार करना गलत माना गया है, यह शास्त्र मत है ।
714. प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों को प्रवचन दिया कि मनुष्य जीवन का हेतु क्या है, इसका सर्वप्रथम विचार करना चाहिए । हम संसार में क्यों आए हैं ? इसका हेतु हमें पता चलना चाहिए । हमें लक्ष्य का पता होना चाहिए । मनुष्य जीवन भोग-विलास हेतु नहीं क्योंकि भोग-विलास पशु, पक्षी योनि में भी उपलब्ध है । शारीरिक भोग जैसे आहार, निद्रा, भोग और मैथुन सभी योनियों में उपलब्ध है पर मनुष्य जन्म से अखंड ब्रह्मानंद प्राप्त किया जा सकता है । बाकी सभी योनियां भोग योनि है, ब्रह्मानंद का भाग्य तो सिर्फ मनुष्य योनि में जन्म लेने पर ही प्राप्त होता है । महाभारतजी में कहा गया है कि मनुष्य योनि से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं ।
715. मन जिस प्रकार के विचार करेगा वैसे ही कर्म करेगा । जैसे कर्म करेगा वैसी ही वासनाएं निर्मित होगी ।
716. कहीं से भी मनुष्य के हाथ में भक्ति का एक तंतु प्राप्त हो जाए, संसार के दलदल में फंसे मनुष्य को बस भक्ति की रस्सी मिल जाए । प्रभु से प्रेम करने का एक क्षण मिल जाए तो वह जीवन के दलदल से तर जाएगा । किसी को प्रभु के नाम की रस्सी, किसी को प्रभु की कथा की रस्सी, किसी को प्रभु के श्रृंगार की रस्सी । मुख्य बात यह है कि रस्सी चाहे लाल हो, पीली हो, हरी हो मगर वह रस्सी होनी चाहिए । भक्ति की रस्सी हमें मिल जाए तो संसार रूपी दलदल से हम बाहर आकर प्रभु तक पहुँच जाएंगे । प्रभु श्री ऋषभदेवजी का यह सारभूत उपदेश है ।
717. सभी के जीवन के अंत में मौत आनी है । मौत से बचाने वाला कोई नहीं । उस समय सभी संबंध असंबंध हो जाते हैं, पिता अपिता, माता अमाता, पत्नी अपत्नी हो जाती है ।
718. संसार में दो प्रकार के लोग हैं । संसार के दलदल से ऊपर उठकर प्रभु तक पहुँच जाऊँ ऐसे साधक हैं और दूसरा मौज मस्ती में जीवन लगाकर अपने को बुद्धिमान मानने वाले भोगी पुरुष हैं ।
719. स्वामी श्री विवेकानंदजी को यह बार-बार जीवन में सुनने को मिलता था कि स्नातक हो और अपना जीवन व्यर्थ बिता रहे हो । दिखने में सुंदर हो, पढ़े-लिखे हो, संसार क्यों नहीं बसाया, कमाया क्यों नहीं । पर स्वामीजी सोचते थे कि इन बेचारों को यह नहीं पता कि भोग प्रवृत्ति का कोई अंत नहीं है । इन्हें पता नहीं कि कमाने खाने से भी ऊपर एक जीवन है जो ब्रह्मानंद प्राप्ति का है ।
720. थोड़ी-सी ईर्ष्या और द्वेष के लिए हम जीवन भर अपना कीमती समय दूसरों से लड़ने में बिता देते हैं, यह कितना गलत है ।
721. बस केवल प्रभु को राजी रखें, दुनिया को तो वैसे भी राजी नहीं रख सकते, कोई-न-कोई हमसे नाराज रहेगा ही ।
722. दूसरों को दुःख देने से बड़ा कोई पापाचरण नहीं है ।
723. सुख में फूले नहीं और दुःख में प्रभु को भूले नहीं ।
724. बहुत छोटा-सा कर्म यदि निष्काम है, तो वह श्रेष्ठ है । बहुत बड़ा कर्म यदि सकाम इच्छा से किया गया है, तो वह गौण है ।
725. प्रभु जिसके रक्षक हों उसे जीवन में कोई परास्त नहीं कर सकता ।
726. मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है ।
727. जैसे जल को नीचे गिरने में कोई श्रम नहीं होता पर ऊपर चढ़ाने में ऊर्जा और उपकरण दोनों चाहिए । वैसे ही जीवन को नीचे गिराने में कोई श्रम नहीं होता पर जीवन का उत्थान के प्रयास हमें करने पड़ते हैं और उसके लिए शक्ति चाहिए और यह शक्ति प्रभु भक्ति से ही मिलती है ।
728. जीवन में पतन भी हो सकता है और भजन भी हो सकता है । हमें चुनना होता है कि हमें क्या करना है । ज्यादातर लोग संसार के विषय भोग का चयन कर पतन का मार्ग चुन लेते हैं ।
729. हम आसन जमाकर बैठ जाएं तो भी हमारा मन नहीं बैठता । मन इतना चंचल है कि वह संसार में भटकता ही रहता है ।
730. मन को स्वस्थ रखना सबसे अहम बात है जो हम नहीं कर पाते । शरीर को स्वस्थ रखने से भी बहुत ऊँ‍‍ची स्थिति है कि मन को स्वस्थ रखना, उसे रुग्ण नहीं होने देना ।
731. मन के सब संकल्पों का त्याग किए बिना प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा मन स्थिर हो ही नहीं सकता ।
732. संसार का व्यवहार हमें व्यर्थ के चिंतन में डाल ही देता है ।
733. सत्य के दर्पण से संसार को देखेंगे तो लगेगा कि इतनी मेहनत इस नाशवान संसार के व्यवहार के लिए हम क्यों कर रहे हैं ?
734. प्रभु ही जगत में एकमात्र सत्य हैं, इस एक बार तो जीवन में मानना ही पड़ेगा । यह हमारे ऊपर है कि यह दृष्टि हमें कब मिलती है ।
735. भक्त कभी प्रभु के किसी कार्य का यश नहीं लेते, यश तो सदैव प्रभु का ही होता है । यह तथ्य भक्त जानते हैं और मानते हैं ।
736. संसार के सम्मान को स्वीकार कर लिया तो वह सम्मान एक दिन बंधन बन जाता है ।
737. सुखनिधान प्रभु को छोड़कर संसार के दुःख में जीव कैसे रमा हुआ रहता है । प्रभु से भी जीव संसार के रूप में सदैव दुःख ही मांगता रहता है ।
738. अपने दोषों को दूसरे से छुपाने से उसका बल बढ़ता है और वे हमें परास्त करते हैं ।
739. कोई हमें दंड नहीं दे सकता, केवल हमारे किए हुए कर्म ही हमें दंड देते हैं ।
740. नाम जप करने वाले जीव को प्रभु हर विपत्ति से बचा लेते हैं ।
741. भगवत् नाम का बल हमें हर प्रतिकूलता से बचाकर निकल लेता है ।
742. भगवत् भरोसा जीवन में दृढ़ करके रखना चाहिए ।
743. भगवत् आश्रय दृढ़ है तो ठीक समय में प्रभु का चमत्कार हो जाएगा ।
744. चरित्र पवित्र और मन निष्काम है तो प्रभु प्राप्ति जीवन में पक्की है पर यह नाम जप और भक्ति से ही संभव है ।
745. जगत का चिंतन छोड़ना है और भगवत् चिंतन करना है । बस इससे ही हमारा मंगल हो जाएगा और लोक-परलोक दोनों सुधर जाएंगे ।
746. अपने परम मंगल के लिए प्रभु के नाम की शरण ले लेनी चाहिए ।
747. सभी संतों और भक्तों ने प्रभु नाम की महिमा गाई है क्योंकि उन्होंने इसके सामर्थ्य का अनुभव अपने जीवन में किया है ।
748. कलियुग का धर्म प्रभु के नाम जप में निवास करता है, ऐसा संत मत है ।
749. श्रीहरि की वार्ता सुनते-सुनते हमें प्रभु से प्रेम हो जाता है इसलिए वह सुनते ही रहना चाहिए ।
750. इस युग और काल में जीवन जीने का सहारा केवल प्रभु का नाम ही है ।
751. श्रीमद् भागवतजी महापुराण परमहंसों और संतों की संहिता है । यह दाम और नाम कमाने के लिए नहीं है ।
752. प्रभु के भजन में ही सर्वोत्तम सुख है और यही जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है ।
753. यकीन करें कि प्रभु के फैसले हमारी इच्छाओं से कहीं बेहतर होते हैं ।
754. अग्नि में घी डालने पर वह बढ़ती है वैसे ही भोग भोगने से भोग की चाह और बढ़ेगी ।
755. भोगों को भोगकर संसार में आज तक कोई भी कभी तृप्त नहीं हो पाया है ।
756. किसी की निंदा न सुनें, न करें और न ही किसी में दोष दर्शन करें । जो जीव ऐसा कर पाता है वह प्रभु को बहुत प्रिय होता है ।
757. प्रभु से सच्चे पश्चाताप पूर्वक क्षमा मांगने से सृष्टि में जितने भी अपराध हमसे हुए हैं वह सब क्षमा हो जाते हैं ।
758. मायाकृत आकर्षण से बचकर भगवत् आकर्षण में अपने जीवन को अर्पण करना चाहिए ।
759. जब हम शिकायत करने लायक नहीं थे यानी नवजात बच्चे थे तब भी प्रभु हमारी व्यवस्था कर रहे थे तो बड़े होने पर उनसे कभी भी, किसी भी प्रतिकूलता की शिकायत नहीं करनी चाहिए ।
760. प्रभु सर्वज्ञ हैं इसलिए करोड़ों माता जैसा दुलार हमें देते हैं और भक्त हृदय कभी शिकायत नहीं करता क्योंकि प्रभु कभी शिकायत का मौका ही उसे नहीं देते ।
761. प्रभु के विधान पर कभी भी, कतई भी अश्रद्धा जीवन में नहीं होनी चाहिए ।
762. कुछ समय केवल प्रभु के पास अकेले बैठने की आदत डालनी चाहिए ।
763. जब भजन में रस आएगा तभी वह स्वभाव बनेगा क्योंकि मन को किसी भी क्रिया में रस चाहिए ।
764. भजन में रस आएगा तो निरंतर भजन होगा और होता रहेगा ।
765. अपनी कसौटी हमें खुद बनानी पड़ती है और उस कसौटी पर जीवन में खरा उतरना पड़ता है ।
766. भक्त के पर्वत जैसे पाप को प्रभु राई जितना फल देकर टाल देते हैं ।
767. संसार में जो सुंदर दिखाई दे रहा है वह सदा वैसे रहने वाला नहीं है इसलिए उसकी सुंदरता में उलझना नहीं चाहिए ।
768. प्रभु का स्वभाव है कि वे भक्त से दूर नहीं रह सकते ।
769. जीव जब निर्दोष बने तब सोचे कि प्रभु के पास जाऊँ तो ऐसा नहीं होता । इसलिए प्रभु उस जीव के दोष के साथ स्वीकार करते हैं और फिर उसे अपनी कृपा से निर्दोष बना देते हैं ।
770. जीव प्रभु के सामने अपना दोष स्वीकार कर ले तो प्रभु उस जीव को उसके दोषों समेत स्वीकार कर लेते हैं ।
771. प्रभु इतनी कृपा हम पर करते रहते हैं पर हम उस कृपा को ग्रहण ही नहीं कर पाते ।
772. जब कोई धर्म के रास्ते पर चलना चाहता है तो माया प्रतिकूल व्यवहार जगत से करवाती है । पर जो प्रतिकूल व्यवहार सह जाता है और धर्म और भक्ति के मार्ग को नहीं छोड़ता उसे साक्षात प्रभु की कृपा मिलती है ।
773. सभी भक्तों की सदैव से प्रभु ही रक्षा करते आए हैं ।
774. अध्यात्म की शक्ति से ही जीवन में सहनशीलता आ सकती है, अन्य कोई भी उपाय नहीं है ।
775. भजन ही हमारे जीवन में हमें शीतलता प्रदान करता है ।
776. अध्यात्म के साधक की दूरदर्शी योजना होती है । संसार अंत में मानता है कि उनका मार्ग ही सही था और संसारी का मार्ग गलत था ।
777. प्रभु में अत्यंत श्रद्धा रखनी चाहिए, छोटी-मोटी बातों को सह लेना चाहिए, प्रभु सर्वत्र विराजमान हैं इसका भान रखना चाहिए, पूजा रोज करनी चाहिए, प्रभु कथा का नित्य श्रवण करना चाहिए, प्रभु के नाम-रूप-लीला-धाम का वर्णन अपने मुँह से करना चाहिए, जीवन में एक नियम बना लेना चाहिए कि किसी के साथ भी बैर नहीं करूँगा, सिद्धांत यह है कि बैर नहीं करने वाला प्रभु को अत्यंत प्रिय होता है । यह सिद्धांत बनाना चाहिए कि कोई मेरा बुरा करे तो भी मैं किसी का बुरा नहीं करूँगा, देह और घर की आसक्ति को हमें कम करना चाहिए, जितनी आसक्ति अधिक होगी उतना दुःख अधिक होगा, यह सूत्र है । स्वयं को जाने कि मैं कौन हूँ, स्वयं को जानने हेतु एकांत सेवन करना चाहिए, संयम का पालन करना चाहिए और अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए । यह अति उत्तम उपदेश प्रभु श्री ऋषभदेवजी का है ।
778. प्रभु श्री ऋषभदेवजी सिर्फ अमृत उपदेश नहीं करते बल्कि जीवन में उसका पालन करके दिखाते हैं । अपने सौ पुत्रों को उपदेश करके तुरंत सब कुछ त्याग कर वन के लिए चल पड़े, अवधूत बन गए, जीवन में फिर कोई उपदेश नहीं किया, जो मिल गया खा लिया, जो मिल गया पी लिया, नहीं मिला तो नहीं लिया, उनका संसार के अधीन जीवन अब प्रभु के अधीन हो गया ।
779. संतों के जीवन में सिद्धियां सेवा करने हेतु तैयार खड़ी रहती है कि हमारा उपयोग करें पर संत कभी सिद्धियों का उपयोग नहीं करते क्योंकि यह प्रभु को पाने के मार्ग में बाधा बनती है ।
780. प्रभु श्री ऋषभदेवजी जब वन गए तो एक समय वन में आग लगी, वन को जलते हुए देखा, फिर स्वयं के शरीर को जलते हुए देखा, उठकर भागे नहीं, उफ तक नहीं की क्योंकि वे जानते थे कि शरीर मैं नहीं हूँ, देह मात्र एक साधन है । संत शरीर से ममता नहीं रखते, वे उसका प्रभु तक पहुँचाने के लिए उसका उपयोग मात्र करते हैं । हम देह भाव का चिंतन करने वाले हैं पर संत देह भाव को त्यागने वाले हैं, यह कितना बड़ा फर्क है ।
781. प्रभु श्री ऋषभदेवजी प्रभु श्री नारायणजी के अवतार हैं । उन्होंने जैन धर्म की शुरुआत नहीं की जबकि उनको जैन धर्म का पहला सूत्रधार माना गया है । जैन धर्म की शुरुआत प्रभु श्री ऋषभदेवजी से प्रभावित होकर उनके उपदेश को मान्य करते हुए उस समय के एक राजा ने किया पर प्रभु श्री ऋषभदेवजी का उपदेश जैन धर्म का सूत्र बना ।
782. जैसे ही राजा देखते थे कि उत्तराधिकारी हेतु पुत्र तैयार हो गया तो राज्य सौंपकर तपस्या हेतु वन में चले जाते थे । भारत तपस्या वाला देश रहा है, मौज मस्ती वाला देश कभी नहीं रहा ।
783. अत्यंत संपदा को त्याग कर लोग बुढ़ापे में तीर्थ में निवास करते हैं, यह गौरवशाली भारतीय परंपरा थी ।
784. राजा श्री ऋषभदेवजी चक्रवर्ती राजा थे, पूरे विश्व के एकमात्र राजा थे और वन में गए तो नौकर-चाकर लेकर नहीं गए, कंद मूल खाए, वल्कल वस्त्र धारण किया, खुले आसमान के नीचे सोए ।
785. संत बैठते हैं पूजा करने हेतु पर पूजा करना ही भूल जाते हैं इतने भाव विभोर हो जाते हैं । प्रभु के विषय में बोलने बैठे पर भाव विभोर हो गए और शब्द विसर्जित हो जाते हैं । प्रभु के लिए भाव में पहुँचकर पूजा सार्थक, नाम जप सार्थक और कथा भी सार्थक होती है । भाव के बल पर जीव प्रभु को अपना बना सकता है । श्री ज्ञानेश्वरीजी की यह अमृत ओवी है । यह अवस्था श्री भरतलालजी को प्राप्त हुई थी जब प्रभु श्री रामजी के लिए श्रेष्ठतम भाव उन्होंने रखा था ।
786. साधन मार्ग पर उत्थान के बाद पतन भी हो सकता है, इसलिए ऐसे साधक की कथा पढ़नी चाहिए जो साधन में ऊपर उठे, फिर गिरे, गिरकर फिर उठे । उनके गिरने का कारण देखना चाहिए, समझना चाहिए और फिर उठने की शक्ति देखनी चाहिए ।
787. अपने मन में दया का विस्तार हुआ क्या, हमारे आचरण में शुद्धि आई क्या, यह हमें जाँच करनी चाहिए । हमारी भक्ति सार्थक तब होगी जब ऐसा संभव होगा ।
788. पहले जड़ भरतजी प्रभु की आराधना तन्मयता से करते थे पर हिरण के बच्चे के आने के बाद प्रभु आराधना तो चली पर एकाग्रता चली गई । अब मन हिरण के बच्चे में फंसा रहा, यह उनकी साधना के पतन का कारण बना ।
789. प्रभु गणितज्ञ नहीं हैं इसलिए माला की संख्या को सिर्फ नहीं देखते बल्कि उसके भीतर के भाव को ही देखते हैं और ग्रहण करते हैं ।
790. जड़ भरतजी का अंतिम चिंतन हिरण के बच्चे का था इसलिए पुनर्जन्म हिरण के रूप में हुआ, पशु योनि में जाना पड़ा । देह त्याग पर जिस पदार्थ का चिंतन हम करते हैं उस योनि में जन्म हमें पाना पड़ता है । यह श्रीवाक्य प्रभु द्वारा श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा गया है ।
791. जड़ भरतजी को हिरण योनि के बाद फिर मनुष्य जन्म मिला तो वे सचेत हो गए कि इस मानव जीवन का पूरा उपयोग करूँगा, इस बार कोई गलती नहीं करूँगा ।
792. जड़ भरतजी की पहले जन्म में भूल क्या थी ? उन्होंने दया की हिरण के बच्चे पर, क्या दया करना गलत था, क्या उनका पतन दया के कारण हुआ - नहीं । वे दया को मोह में बदल दिए, मोह कर बैठे । जड़ भरतजी करने गए थे दया पर हो गया मोह - यह उनके साथ दुर्घटना हो गई ।
793. जड़ भरतजी की गलती थी कि जब हिरण का बच्चा मिला तो उन्होंने माना कि प्रभु इच्छा से मिला है, यह ठीक था । पर जब हिरण का बच्चा गया तो वे मोह के कारण रोए, व्यथित हो गए जबकि उनको सोचना चाहिए था कि प्रभु इच्छा से मिला और अब प्रभु इच्छा से चला गया । उन्हें अप्रभावित रहना चाहिए था ।
794. मृग को प्यार किया और प्रभु को भूल गए यह जड़ भरतजी की सबसे बड़ी गलती थी । सूत्र यह है कि प्रभु का विस्मरण जीव का सबसे बड़ा प्रमाद होता है ।
795. हम जिस देश में, जिस वेष में रहें, जिस संसार में, जिस परिवार में, जिस घर-बार में रहें, जिस भोग में, जिस योग में, जिस रोग में रहें, हमें हरदम प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए ।
796. सभी पापों का शिरोमणि पाप है प्रभु का विस्मरण करना ।
797. जीवन में ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे प्रभु को भूल जाएं । प्रभु की स्मृति के साथ किया सब कुछ अच्छा । प्रभु को भूलकर किया काम पतन का कारण बनता है ।
798. अच्छा करने के चक्कर में पिछले जीवन में हिरण के बच्चे के मोह के कारण बुरा हो गया इसलिए नए जन्म में जड़ भरतजी ने बचपन से ही कुछ नहीं करने का निर्णय ले लिया ।
799. अध्यात्म विद्या भारत का परम धन है ।
800. समय का दान करना, वित्त से बड़ा दान माना गया है ।