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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 29

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. मानव जीवन का जितना बड़ा और सुंदर प्रबंध भारत में है उतना कहीं नहीं है । भारत में चार आश्रमों में सुंदर विभाजन जीवन का किया गया है ।
002. भक्ति हर दुर्वासना को उपासना में बदल देती है । यह सामर्थ्‍य केवल भक्ति में ही है ।
003. अगर बुद्धि और मन प्रभु में लगा है तो मन के चंचल होने का फिर कोई कारण ही नहीं बचता ।
004. जैसे अपने दाँत से जिह्वा कट जाए तो दाँत के लिए कोई अमंगल की भावना हमारे हृदय में जागृत नहीं होती । वैसे ही संत हृदय में किसी के लिए कभी भी अमंगल की भावना जागृत नहीं होती क्योंकि सभी में उन्हें अपने प्रभु के दर्शन जो होते हैं ।
005. मन हमारा स्वामी नहीं है, हमारे स्वामी प्रभु हैं । इसलिए मन की गलत बात पर कभी हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए, कभी स्वीकृति नहीं देनी चाहिए ।
006. मैं प्रभु का “भी” हूँ - यह गलत है । मैं प्रभु का “ही” हूँ - यह सत्य है । आरंभ करें “भी” से पर हमें पहुँचना है “ही” तक ।
007. मन लगे या न लगे भजन का अभ्यास जीवन में करते ही रहना चाहिए ।
008. भजन एक-न-एक दिन हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए ।
009. नाम जप से जीवन की निरर्थक चीजें हमें स्वतः ही छोड़कर चली जाती हैं ।
010. संसार के रिश्तों की प्रीति झूठी होती है, केवल प्रभु से ही प्रीत सच्ची होती है ।
011. जीवन में पूर्णता तो पूर्ण प्रभु से मिलने पर ही प्राप्त होती है ।
012. जब जीवन में एक प्रभु का मार्ग ही बचता है तो ही हमें परमानंद की अनुभूति होती है । मार्ग के अन्य भी विकल्प होंगें तो वह अनुभूति नहीं होगी । एक ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए - केवल प्रभु ।
013. नाम भगवत् सानिध्य प्रदान करता है । नाम जपने का अर्थ है प्रभु का संग करना ।
014. जब हमारी जिह्वा पर प्रभु का नाम होता है तो हम प्रभु के पास होते हैं और प्रभु हमारे पास होते हैं ।
015. अपने साधन को कठोर बनाने से हम लंबा नहीं चल पाएंगे । साधन मार्ग पर साधन को सुगम बनाना चाहिए तो ही हम उसमें सफल होंगें ।
016. प्रभु नाम जप से हम सदा प्रभु के पास, प्रभु के सानिध्य में रह सकते हैं ।
017. त्रिभुवन का धन देने पर भी जो आधे क्षण के लिए भी प्रभु की स्मृति न छोड़ें उन्हें महाभागवत कहते हैं ।
018. जैसे भी हम हों वैसे प्रभु के समक्ष जाना चाहिए । प्रभु को दिखावा और छिपाव एकदम पसंद नहीं है ।
019. मन की दृष्टि में जिसका मूल्य समाप्त हो जाता है मन उसे छोड़ देता है और मन की दृष्टि में जिसका मूल्य है मन उसे पकड़ कर रखता है, यह सिद्धांत है ।
020. श्रद्धा और विश्वास के दो नेत्र से ही प्रभु के दर्शन होते हैं ।
021. भक्त को एक प्रभु के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए, केवल और केवल प्रभु ही चाहिए ।
022. प्रभु की माया के पास जीव को लुभाने के लिए अनेक खिलौने हैं । दूसरी बात जीव का मन इतना दुर्बल है कि माया के खिलौने में फंस ही जाता है ।
023. प्रभु के अतिरिक्त कोई भी नहीं चाहिए, कहीं भी नहीं जाना और कुछ भी नहीं करना । इतनी तैयारी जीवन में एक दिन होनी ही चाहिए ।
024. हमारी आत्मा जन्मों-जन्मों से प्रभु के श्रीकमलचरणों में जाकर विश्राम पाना चाहती है ।
025. माया से सदैव डरकर ही रहना चाहिए क्योंकि माया बहुत प्रबल है जो हमें प्रभु से दूर कर देती है ।
026. उत्तम भक्ति का निरूपण करने वाला तथ्य यह है कि केवल प्रभु प्राप्ति की एकमात्र कामना जीवन में होनी चाहिए ।
027. भक्त केवल प्रभु के सुख का ही विचार जीवन में करता है । उसकी खुद की कोई भी सुख की अभिलाषा नहीं होती है ।
028. जीवन में भक्ति भावना को प्रगाढ़ करके चलना चाहिए ।
029. प्रभु की कृपा के बिना माया को जीतना पूर्णतया असंभव है । यह सिर्फ प्रभु कृपा से ही संभव होता है ।
030. मन पर विजय पाना है तो मन को प्रभु शरण में ले जाना ही पड़ेगा ।
031. मन प्रभु को अर्पण करने पर हमारी जीत पक्की है । प्रभु की जीव से एक ही मांग है कि अपना मन प्रभु को अर्पण कर दें ।
032. भक्ति मार्ग पर चलते हुए संसार की निंदा सहना, यही कलियुग का तप है ।
033. जीवन में शांति की प्राप्ति करवाने के लिए एकमात्र प्रभु ही समर्थ है ।
034. भजन करे बिना दुःख मिटाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है ।
035. बीते समय को ही याद करने में वर्तमान की श्वासों को लगाना मूर्खता है ।
036. संसार में राग का जो त्याग कर दे वही बैरागी है, चाहे वह कोई संसारी हो या विरक्त हो ।
037. “अपना” शब्द केवल प्रभु के लिए ही जीवन में प्रयोग करें क्योंकि अपने सिर्फ प्रभु ही हैं ।
038. हमारे सबसे बड़े प्रेमी प्रभु ही हैं ।
039. जो केवल प्रभु में अपने अस्तित्व को समर्पित कर चुका है ऐसे महाभागवत बहुत कम होते हैं, बहुत दुर्लभ होते हैं ।
040. वैसे तो सब में प्रभु हैं पर जिसने अपने हृदय में प्रभु को प्रकाशित कर दिया वही महाभागवत होता है ।
041. अपनी चाह को प्रभु की चाह में मिला देना चाहिए ।
042. जो प्रभु तक आना चाहता है प्रभु उसके लिए कोई-न-कोई व्यवस्था करके उसकी इच्छा को साकार करते हैं ।
043. भजन का उद्देश्य शुद्ध हो तो प्रभु भजन के लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण करते हैं ।
044. प्रभु की कृपा सागर की लहर जैसी बनकर हमारी नैया को भवसागर के किनारे ले आती है ।
045. चाह संसार की हुई तो पतन है, चाह प्रभु की हुई तो भजन है । चिंतन संसार का हुआ तो कामना है और वही चिंतन प्रभु का हुआ तो भक्ति भावना है ।
046. बालक की पात्रता, अपात्रता, योग्यता, अयोग्यता का विचार किए बिना जैसे माता उसकी जरूरत की पूर्ति करती है वैसे ही प्रभु भी अपने भक्तों की हर जरूरत की पूर्ति करते हैं ।
047. भक्त के जीवन में प्रभु की कृपा कभी भी बाधित नहीं होती ।
048. प्रभु के नाम का आश्रय जीवन में लेकर चलेंगे तो प्रभु कृपा से प्रभु के धाम पहुँच ही जाएंगे ।
049. प्रभु के लिए अपनी श्रद्धा और विश्वास की हानि किसी भी सूरत में कभी भी नहीं होने देनी चाहिए ।
050. जीवन में केवल प्रभु पर ही एकमात्र निर्भर रहना चाहिए ।
051. प्रभु की सेवा का संस्कार जीवन में सदैव ही होना चाहिए ।
052. प्रभु से किसी भी चीज का आग्रह नहीं करें तो प्रभु का परम अनुग्रह मिलेगा ।
053. जीवन में सत्संग के पल प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होते हैं ।
054. भक्त प्रभु के प्राणों के प्राण होते हैं । इतना मान प्रभु अपने भक्तों को देते हैं ।
055. जिनके जीवन में भक्ति होती है उनके जीवन के अभाव उन्हें पीड़ित नहीं करते ।
056. हमें माया का भक्त नहीं बल्कि मायापति प्रभु का भक्त बनना चाहिए ।
057. हमें सदैव प्रभु की कृपा दृष्टि में रहने का प्रयास करना चाहिए ।
058. भजन से भय, भ्रम, दुविधा सब मिट जाती है क्योंकि भजन करने वाले को प्रभु का परम आश्रय जो प्राप्त होता है ।
059. जिसको प्रभु स्वीकार कर लेते हैं फिर जगत का कोई भी उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता, कोई भी कुदृष्टि उठाकर उसे देख तक नहीं सकता ।
060. संसार के दुःखों को हंसकर सहना चाहिए, रोना ही है तो केवल प्रभु के प्रेम में रोना चाहिए ।
061. प्रभु नाम जप में मौन बहुत ही सहायक होता है ।
062. अपने सुने हुए सत्संग की मुख्य बातों को लिखना चाहिए । लिखे हुए सत्संग के नोट को बार-बार पढ़ना चाहिए और उसका चिंतन करना चाहिए ।
063. वाणी से जो बोला वही हृदय में हो और उसी का आचरण भी हो । वाणी से कुछ, हृदय में कुछ, आचरण में कुछ और - यह सर्वथा गलत है । मन, वचन और कर्म एक होना चाहिए ।
064. कभी भी अपने को प्रभु से अलग नहीं मानना चाहिए ।
065. अगर भगवत् प्राप्ति करनी हो तो जीवन में एकांत होना चाहिए । मन का एकांत यानी प्रभु के अलावा कोई चिंतन नहीं, यही एकांत का सही अर्थ है ।
066. किसी की भी निंदा करेंगे तो प्रभु की कृपा नहीं मिलेगी और बिन प्रभु कृपा के माया हमें अपने मायाजाल से मुक्त नहीं होने देगी ।
067. शरणागति और भक्ति प्रभु के बारे में श्रवण से ही प्रारंभ होती है ।
068. प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण, प्रभु के नाम जप और प्रभु के रूप का ध्यान - यह तीनों बातें बहुत जल्दी प्रभु प्रेम प्रकट कर देती है ।
069. प्रभु के नाम जप में हमारे सभी संचित पापों का क्षय करने की अदभुत क्षमता है ।
070. जो कुछ भी हम करते हैं और जो कुछ भी हमारे पास है उसे प्रभु अर्पित कर देना चाहिए तो वह अविनाशी बन जाता है ।
071. प्रभु को अपना प्राण प्रियतम मानने के लिए संसार में जहाँ-जहाँ भी हमने ममता की है उसे समेटना पड़ेगा ।
072. प्रभु के परम लाड़ले भक्त के रूप में कोई बिरला ही होता है ।
073. प्रभु के लिए कुछ भी करना असंभव और दुर्लभ नहीं है ।
074. वे बड़े भाग्यशाली होते हैं जो जीवन में प्रभु से ही केवल प्रेम करते हैं ।
075. भक्त आपस में मिलते हैं तो परस्पर प्रभु की ही वार्ता करते हैं ।
076. भक्त को संसार के प्रपंची और भोगी लोगों में कोई रुचि नहीं होती, भक्त उनसे दूर ही रहता है ।
077. भक्ति से हमारे दोष समाप्त हो जाते हैं और हम प्रभु के निकट पहुँच जाते हैं ।
078. जीवन में सकारात्मक परिवर्तन सिर्फ भजन और प्रार्थना से ही संभव है ।
079. अपने राष्ट्र के प्रति प्रियता का भाव सदैव हमें अपने हृदय में रखना चाहिए ।
080. बुरे आचरण वाले से घृणा नहीं करनी चाहिए उस जीव को अपने बुरे आचरण पर घृणा हो जाए, यह व्यवस्था करनी चाहिए । यह केवल सत्संग से ही संभव है ।
081. संतों के द्वारा बुराई का नाश होता है, बुराई करने वाले का नाश नहीं होता ।
082. प्रारब्ध जब पटकनी मारता है तो सबको प्रभु की याद स्वतः ही आ जाती है ।
083. पापाचरण करके अंत में कौन आज तक सुखी हुआ है ?
084. जिस जीवन में भगवत् प्राप्ति कर सकते थे उसे हमने गलत कर्मों और आचरणों में लगा रखा है, यह कितनी निंदनीय बात है और हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
085. प्रभु की कृपा दृष्टि भक्त पर सदा बनी रहती है ।
086. मंदिर में दर्शन करने वालों की भीड़ होती है, लोग कैसे भी आगे आकर दर्शन करने का प्रयास करते हैं पर एक संत यह भाव देते हैं कि पीछे वालों पर सबसे पहले प्रभु की दृष्टि पड़ती है ।
087. जो अपने को छुपा कर रखता है, अपने भक्ति भाव को छुपा कर रखता है, प्रभु की कृपा दृष्टि उस पर पड़ती है ।
088. संसार के संबंध, संपत्ति का बाहुल्य प्रभु में हमारा पूर्ण विश्वास नहीं होने देता ।
089. आँखों से, कानों से कुसंग हो जाए तो मन रोगी हो जाएगा । इसलिए बुरा न देखना चाहिए और बुरा न सुनना चाहिए ।
090. साधक हमेशा विचार करके संग करें क्योंकि गलत संग उसका पतन करा देता है ।
091. हमें जीवन में केवल प्रभु का ही एक भरोसा होना चाहिए ।
092. काम, क्रोध, मद, लोभ से बचने का अध्यात्म ही एकमात्र साधन है ।
093. धन से, पद से, लौकिक व्यवहार कुशलता से कभी किसी को सुख नहीं मिल सकता । सुख मिलेगा तो प्रभु की भक्ति से जुड़ने पर - यह सिद्धांत है ।
094. पूरा समाज ही असंतोष में भटक रहा है । कितना धन मिलने के बाद भी असंतोष, कितने भोग भोगने के बाद भी समाज में असंतोष बना हुआ है ।
095. पुण्य बल से धन और पद मिल सकता है पर सत्संग केवल प्रभु कृपा से ही मिलता है ।
096. प्रभु के शरणागत होते ही हम तत्काल निर्भय हो जाते हैं ।
097. जो मन संसार के विषयों की तरफ जा रहा है उसे खींचकर भगवान में लगाना है, यही अध्यात्म का मर्म है ।
098. विषयों में लगा हुआ मन हमारा शत्रु है और प्रभु में लगा हुआ मन हमारा मित्र है ।
099. हमें दृष्टा बने रहना है पर हमारा मन हमें भोक्ता बना देता है ।
100. प्रभु का स्वभाव है कि अपने शरणागत का कभी भी पतन नहीं होने देते ।
101. अध्यात्म की दृष्टि से सोने वाले को सत्संग से जगाना पड़ता है पर जो सोया हुआ ही नहीं है उसे जगाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती ।
102. जितना-जितना लोग आपको अपने से दूर करते जाएंगे, मानना कि प्रभु का अनुग्रह हो रहा है । लोग सम्मान करने लगें तो मानना हम फंस रहे हैं । उत्तम साधक को सम्मान नर्क जैसा लगता है ।
103. संसारी बहिर्मुख यानी बाहर की तरफ माया को देखने वाला होता है और संन्यासी अंतर्मुख यानी भीतर परमात्मा को देखने वाले होते हैं ।
104. संसार हमें गन्ने की मशीन के जैसे गन्ने को डालकर रस निकलता है, बार-बार निकलता है, अंतिम कण तक निकलता है वैसे ही संसार हमारा रस निकालता है और हमें अंतिम कण तक चूसता है ।
105. जड़ भरतजी किसी को भी कोई काम के लिए मना नहीं करते पर ऐसा काम बिगाड़ते कि उन्हें कोई काम के लिए बोलता ही नहीं । यह जड़ भरतजी की युक्ति मुक्त होने के लिए थी । हमें संसार मीठी-मीठी बातें कहकर, हमारी बड़ाई करके कोल्हू के बैल की तरह काम करवाता है ।
106. प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि माया को विवेक की तलवार से झट से काटो, एक बार में काटो, धीरे-धीरे माया से नहीं निकल पाओगे । एक बार में माया के बंधन को काटना पड़ेगा तभी माया से निजात मिलेगी ।
107. जिसकी मान-अपमान की भावना तीव्र होती है कि मेरा मान हो, अपमान नहीं मिले, वे जीवन भर दुःखी ही रहते हैं । जिनको मान-अपमान की परवाह नहीं वे ही जीवन में सुखी होते हैं ।
108. सबका भान रखेंगे तो आत्म-चिंतन कब कर पाएंगे ।
109. भक्ति करने वाले को संसार का भान नहीं रखना चाहिए । संसार में कौन क्या कहेगा, क्या सोचेगा, यह भान रखेंगे तो भक्ति नहीं कर पाएंगे ।
110. एक दार्शनिक को साठ वर्ष में घूमते-घूमते हुए तो किसी से टक्कर में मुलाकात हुई, टक्कर मारने वाले ने पूछा कौन है ? दार्शनिक ने बोला कि साठ वर्षों से यही चिंतन कर रहा हूँ कि मैं कौन हूँ ?
111. एक रेलवे स्टेशन से एक संत ट्रेन में बैठे, ट्रेन चली तो उन्होंने पूछा कि यह मुंबई जाती है, किसी ने कहा कि यह बड़ौदा जाती है तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं बड़ौदा चला जाऊँगा । मुंबई जाकर भी भिक्षा मांगनी है, बड़ौदा जाकर भी भिक्षा ही मांगनी है । यह संत की मौज होती है ।
112. निर्जीव यानी मरे हुए मनुष्य को चिता जलाती है और सजीव यानी जिंदा मनुष्य को चिंता जलाती है ।
113. शास्त्र कहते हैं कि पत्नी की परीक्षा गरीबी में होती है, संपत्ति में नहीं । मित्र की परीक्षा आपत्ति के समय होती है । योद्धा की परीक्षा युद्धभूमि में होती है और साधु की परीक्षा मौत के समय होती है कि मौत की घड़ी को देखकर साधु के मन में क्या शांति भाव है ।
114. जड़ भरतजी को जब बलि के लिए तैयार किया गया तो वह शांत भाव से बैठे रहे तब भगवती माता को आकर हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने जड़ भरतजी को बचाया ।
115. जैसे हम भगवती गंगा माता के प्रवाह को देखते हैं वैसे ही साधक संसार के प्रवाह को दृष्टा के रूप में देखता है ।
116. ज्ञानी के पास कोई प्रमाण पत्र नहीं होते । कौन-सा प्रमाण पत्र था स्वामी श्री रमणजी महर्षि के पास, कौन-सा प्रमाण पत्र था संत श्री रामकृष्णजी परमहंस के पास । जिनके पास प्रमाण पत्र हैं वे सच्चे ज्ञानी नहीं, वे पंडित हो सकते हैं पर ज्ञानी नहीं ।
117. गुणातीत वह है कि जो हो रहा है उसे रोकता नहीं, जो नहीं हो रहा है उसे करता नहीं । जैसे पानी की क्यारी को बंद कर देते हैं तो पानी दूसरी तरफ चला जाता है, दूसरी तरफ बहने लग जाता है । दूसरी क्यारी बंद कर देते हैं तो तीसरी तरफ जाने लगता है । पानी कभी शिकायत नहीं करता उसे जहाँ बहा दिया, बह गया । वैसे ही गुणातीत कोई शिकायत नहीं करता, जो भी हुआ उसे मान्य कर लिया, जो नहीं हुआ उसे भी मान्य कर लिया । संत श्री ज्ञानेश्वरजी की गुणातीत की यह अदभुत व्याख्या है ।
118. संसार की बातों को सुनकर भक्त अपनी चाल नहीं बदलते, संसार की बात सुनकर चाल बदलेंगे तो संसार कहीं का भी नहीं छोड़ेगा ।
119. जो जिज्ञासु है वही ज्ञान का सच्चा अधिकारी है, यह प्रभु कहते हैं ।
120. तलवार से शरीर के टुकड़े संभव हैं पर जीवात्मा शरीर नहीं है इसलिए कोई भी जीवात्मा को मार नहीं सकता । जिस जीवात्मा की मृत्यु हो नहीं सकती उस जीवात्मा को कोई मार नहीं सकता, यह वेदांत का सूत्र है ।
121. आज महापुरुष कम हो रहे हैं क्योंकि महापुरुषों के महापुरुषत्व को समझने वाले भी नहीं रहे हैं । यह कलियुग का प्रभाव है ।
122. आत्मा का पूर्ण विश्राम परमात्मा में ही है ।
123. प्रभु जिस जीव को स्वीकार करते हैं फिर उसका कभी त्याग नहीं करते ।
124. एक काव्य की रचना लोक रंजन के लिए होती है और एक भक्ति काव्य की रचना लोक मंगल के लिए होती है । यह कितना बड़ा फर्क है ।
125. प्रभु हमारे तन, मन, धन और प्राणों के स्वामी हैं ।
126. प्रभु से प्रेम करने का अधिकार पाना ब्रह्मांड की सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि है ।
127. प्रतिकूलता में भक्ति शीघ्र फलीभूत होती है, यह सभी भक्तों का अनुभव रहा है ।
128. जिसने सत्संग का जीवन में आश्रय लिया है, प्रभु उसके निकट चले आते हैं ।
129. जिसने भी प्रभु को पाया है उसने जीवन में प्रभु के गुणों को गाया है ।
130. कुछ ऐसा जीवन में करें जिससे कि प्रभु हमसे प्रसन्न हो जाएं ।
131. भक्त प्रभु का यंत्र बनकर ही संसार में आता है ।
132. संसार के सुख में प्रभु की विस्मृति कभी नहीं होने देनी चाहिए ।
133. सत्संग में सुख मिलने लग जाएगा तो संसार में सुख बुद्धि नष्ट हो जाएगी ।
134. हमारे दुःख का कारण संसार में सुख की आशा करना ही है ।
135. प्रभु को भूल गए, यही विपत्ति की जड़ है । प्रभु स्मरण में हैं, यही जीव की सबसे बड़ी संपत्ति है ।
136. संसार का सुख सबसे पहले प्रभु को ही भुला देता है ।
137. भक्ति के कारण जब संभालने वाले प्रभु हैं तो भूलने और भटकने की चिंता नहीं करें ।
138. भक्ति के कारण जब उठाने वाले प्रभु होंगे तो साधन मार्ग में गिरने से मत डरें ।
139. श्रीहरि की कथा श्रीहरि से ही मिलाती है । कथा का अन्य कोई उद्देश्य नहीं रखना चाहिए नहीं तो हमसे चूक हो जाएगी ।
140. श्री रामचरितमानसजी में गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने प्रभु को प्रकट किया, एक के लिए नहीं, अनेक के लिए नहीं बल्कि प्रत्येक के लिए ।
141. किसी भी भक्त की यात्रा में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभु श्री महादेवजी की कृपा अवश्य फलीभूत होती है तभी वह भक्ति में सफल होता है ।
142. अपने जीवन में जो सुंदर है, श्रेष्ठ है उसका भोग प्रभु को लगाएं, उसे प्रभु को निवेदन करें ।
143. कोई भी स्वार्थ का और परमार्थ का कार्य ऐसा नहीं जिसकी श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्री रामचरितमानसजी द्वारा पूर्ति नहीं होती । सबकी पूर्ति यह तीनों श्रीग्रंथ करते हैं ।
144. मन, वचन और कर्म से प्रभु के हो जाएं क्योंकि प्रभु से ज्यादा हमें प्रेम करने वाला ब्रह्मांड में कोई भी नहीं है ।
145. प्रभु को नित्य प्रतिदिन साष्टांग दंडवत प्रणाम करने वाला कभी भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता ।
146. अपने को प्रभु को समर्पित कर दिया तो फिर अपनी चिंता नहीं करनी, प्रभु का चिंतन करना चाहिए ।
147. जिह्वा से नाम, हाथों से सेवा और हृदय से प्रभु का दृढ़ आश्रय जीवन में होना चाहिए ।
148. प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्पर्श होते ही त्रिभुवन की सारी संपत्ति त्याज्य लगती है ।
149. माता जब चलती है तो उनके पाजेब और नूपुर की आवाज से दिव्य मंत्र प्रकाशित होते हैं ।
150. भक्तों के जीवन में सिद्धियां आती है पर वे प्रभु का दासत्व यानी दास बने रहने पर ध्यान देते हैं और सिद्धियों की तरफ ध्यान ही नहीं देते ।
151. संत एक कठोर व्यंग करते हैं कि नाली के कीड़े को अमृत कुंड में डालने पर वह वहाँ से निकलना चाहेगा क्योंकि उसका सुख नाली में ही है जिससे उसे वंचित किया जा रहा है । वैसे ही संसारी को विशेष सुख से वंचित करने पर वह तड़पेगा क्योंकि उसी का उसे जन्मों-जन्मों से अभ्यास है और इसलिए उसे वही चाहिए ।
152. जीवन भर अगर भोग चिंतन ही किया है तो बुढ़ापे में भी भगवत् चिंतन नहीं होगा, भोग चिंतन ही होगा ।
153. इंद्रियों की विलासिता ही हमारे से पाप आचरण करवाती हैं ।
154. एक जन्म के संसार के रिश्तों में हम फंसे रहते हैं और इस तरह असली और शाश्वत प्रभु से हमारा सनातन रिश्ता कमजोर पड़ जाता है ।
155. यह हमारी परीक्षा होती है कि हमारा सबसे प्रिय कौन है - संपत्ति, परिवार या फिर प्रभु ।
156. प्रभु का नाम जप ही हमारी अशांति को नष्ट करने में एकमात्र सक्षम है ।
157. प्रभु का सतत नाम जप हमें महाभागवत बना देता है ।
158. सत्संग से हृदय का दर्पण साफ हो जाता है और बुराई करना तो दूर, बुराई के समीप जाना भी बर्दाश्त नहीं होता ।
159. परमार्थ में हम अकेले ही होते हैं क्योंकि जगत और परिवार हमारा इस मार्ग में विरोध ही करता है ।
160. भक्त के आंसू केवल भगवान के लिए ही निकलते हैं, अन्य किसी के लिए नहीं । यह भक्त की पहचान होती है ।
161. प्रभु को भी भक्त के प्रेम का लोभ, इच्छा भूख और तृष्णा रहती है ।
162. यह इस युग का धर्म है कि इस युग में केवल नाम जप का ही प्रभाव है और नाम जप से ही सब कुछ संभव है ।
163. भक्ति समर्थ है हमें भगवान तक ले जाने के लिए और अगर हम न चल पाए तो भगवान को हम तक लाने के लिए ।
164. भक्ति प्रायः भगवान को अनुग्रह करने के लिए भक्त तक लाती है ।
165. प्रभु केवल माखन ही नहीं चुराते बल्कि अपने भक्तों की पाप राशि भी चुरा लेते हैं ।
166. भक्त प्रभु से कहता है कि प्रभु उसे अपने पतितपावन श्रीकमलचरणों की रज बनाकर स्वीकार करें ।
167. भक्त प्रभु से कहता है कि आप स्वीकार करें तो भी मैं केवल आपका हूँ और स्वीकार नहीं करें तो भी मैं केवल आपका ही हूँ ।
168. कलियुग की निंदा बिलकुल नहीं करें क्योंकि प्रभु प्राप्ति के लिए इससे अच्छा और सुलभ कोई युग नहीं है ।
169. संसार के भोगों में सुख नहीं है, यह भ्रम जिनका नष्ट हो गया है वे ही सच्चे भाग्यवान हैं ।
170. दुःख हमारे जीवन के प्रारब्ध का क्षय करता है इसलिए दुःख को भी प्रभु कृपा ही माननी चाहिए ।
171. प्रभु की एक बड़ी कृपा होती है कि जीवन में रोजाना सत्संग प्राप्त होता रहता है ।
172. रोज सत्संग सुनने से प्रभु प्राप्ति के लिए उत्साह रोज प्रबल होता रहता है ।
173. जो प्रभु की सतत कृपा का अनुभव करता है प्रभु उसके भीतर सद्गुणों का खजाना खोल देते हैं ।
174. जब तक संसार की कामनाओं से विरक्ति नहीं होती संसार हमें फंसाए रखेगा ।
175. भक्ति से केवल भगवत् प्राप्ति की ही चाह और लक्ष्य रखना चाहिए, अन्य कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए ।
176. भारतवर्ष सदा से संतों और महात्माओं का देश रहा है ।
177. प्रभु के लिए जिज्ञासा मन में उठनी एक बात है पर उस जिज्ञासा को भक्ति के ज्ञान से पूर्ति करना विशेष बात होती है ।
178. एक-एक पैसे मांगकर श्रीग्रंथ खरीदना और उस श्रीग्रंथ को सिर पर रखकर दूर ले जाकर किसी से पढ़वाने हेतु आग्रह करना, ऐसी जिज्ञासा प्रभु के ज्ञान हेतु संत श्री गुलाबरावजी महाराज में थी ।
179. भाग्यवान जीव को प्रभु हेतु जिज्ञासा चुप बैठने ही नहीं देती ।
180. जो जिज्ञासु है वही प्रभु के ज्ञान का सच्चा अधिकारी है जैसे अन्न की सार्थकता तब है जब कोई भूखा उसे खाता है ।
181. दार्शनिक सुकरात ज्ञान के लिए सदैव असंतुष्ट रहते थे । एक विषय पर इतना बारीक चिंतन करते थे कि छह-छह महीने उनका चिंतन चलता था ।
182. श्री नचिकेता ने स्वर्ग के सुख, अप्सरा के सुख का त्याग किया जब प्रभु श्री यमराजजी ने उनको इसका प्रस्ताव दिया । वे आत्म ज्ञान के प्रश्न ही पूछने पर अड़े रहे और नचिकेता के लिए प्रभु श्री यमराजजी को अपना ज्ञान का खजाना खोलना पड़ा ।
183. अनेक लोगों को अध्यात्म का सामान्य ज्ञान भी नहीं होता । कुछ लोगों को ही अध्यात्म का विशेष ज्ञान होता है ।
184. अध्यात्म में क्या नहीं करना चाहिए, इसका भी ज्ञान होना चाहिए ।
185. जितना-जितना सकामता के कारण हम प्रभु से मांगने हेतु जाएंगे, उतना-उतना अध्यात्म से हम दूर होते जाएंगे ।
186. लाखों की आध्यात्मिक भीड़ में कुछ ही सच्चे आध्यात्मिक होते हैं और उनमें से भी एक-आध ही आकर प्रभु तक पहुँचता है । श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के ऐसे श्रीवचन हैं ।
187. देह के साथ किया किसी व्यवहार का प्रभाव आत्मा पर नहीं होता ।
188. वेदांत सूत्र समझने हेतु दृष्टांत और उदाहरण हमेशा सरल ही देने चाहिए जिससे सुनने वाले के समझ में आ जाए ।
189. जब हम चावल पकाते हैं तो सीधा आग में नहीं डालते । अग्नि पर बर्तन, बर्तन में जल, जल में चावल होते हैं । बाहर की अग्नि की गर्मी बर्तन को गर्म करती है फिर पानी गर्म होता है फिर जल की गर्मी चावल को पकाती है । अग्नि की गर्मी बर्तन और जल के माध्यम से चावल तक पहुँचती है । वैसे ही विषयों का परिणाम मन पर, मन का प्रभाव बुद्धि पर और बुद्धि का प्रभाव आत्मतत्व पर होता है । यह प्रश्न राजा रहूगण का था जिसके जवाब में बताया गया कि विषयों का प्रभाव आत्मतत्व पर होता है ।
190. एक संत आजीवन मंदिर या गौशाला में रुकते थे । एक बार कोई मंत्री उनसे मिलने आए । संत ने मंत्री के यहाँ जाना स्वीकार नहीं किया । संत ने मना कर दिया मैं तो यही गौशाला में बैठा हूँ, सामने दरी बिछी है, आना हो तो आकर मिल लें । मंत्री भी सामान्य जिज्ञासु बनकर गए और गौशाला में मुलाकात की और ज्ञान लेकर लौटे । सूत्र यह है कि घड़ा सीधा लेकर जाएंगे तो ही पानी भरेगा पर घड़ा उल्टा लेकर जाएंगे तो खाली-का-खाली वापस आ जाएगा ।
191. हम दुनिया के सामने बड़े हो सकते हैं पर आत्म सिद्ध संत के पास हम साधारण बनकर जाएंगे तो ही हमें ज्ञान मिलेगा । ऐसे ही प्रभु की कृपा पाने जाना हो तो अभिमान दूर रखकर जाना चाहिए ।
192. सच्चे ज्ञान का ग्राहक मिले तो ज्ञान का भंडार खोलना चाहिए । बंजर भूमि में श्रेष्ठ बीज कभी नहीं डालने चाहिए । श्रेष्ठ बीज उस उपजाऊ जमीन में डालना चाहिए जहाँ से बड़े होकर वे फल-फूल उगाकर देंगे ।
193. जड़ भरतजी का ज्ञान यह है कि बाहर के पदार्थ सत्य होते तो उनका परिणाम आत्म तत्व पर जरूर होता । पर ज्ञानी बाहर दिखने वाले पदार्थ को सत्य नहीं मानते । बाहर दिखने वाले और सत्य दिखने वाले सभी पदार्थ हमारे मन का खेल है, मन का विलास मात्र है । इसको मन की वासनाओं ने रचा हुआ इंद्रजाल है, ऐसा मानना चाहिए । यह मिथ्या है इसलिए आत्म तत्व इससे प्रभावित नहीं होता ।
194. जैसे फिल्म के दृश्य पर्दे पर सत्य होते हैं पर हैं मिथ्या । वैसे ही संसार के दृश्य भी मिथ्या हैं । अगर फिल्म को हम सत्य मानते तो क्या पर्दे पर जलने वाली आग हमें जलाती है और क्या वहाँ का पानी हमें भिगोता है ।
195. फिल्म के दृश्य इतनी तेज चलाए जाते हैं कि हमें सत्य प्रतीत होते हैं । वे सब इतने वेग के कारण हमें सत्य प्रतीत होते हैं ।
196. अपनी प्रशंसा की चाह होने पर हम भगवत् प्राप्ति की योग्यता को खो देते हैं ।
197. जब कुछ गलत बोलने का अवसर आए तो मौन व्रत उस समय स्वीकार कर लेना चाहिए ।
198. जब कुछ गलत करने का अवसर आए तो स्वयं को धिक्कार देना चाहिए कि मन कैसे गलत करने की सोच रहा है ।
199. नेत्र, कान और जिह्वा को जो वश में रखता है, वही सच्चा साधु है ।
200. बिना प्रभु को अर्पित कोई चीज को ग्रहण करना पाप है और प्रभु को अर्पित करके ग्रहण करना प्रसाद है ।
201. प्रभु का चमत्कार देखें कि संसार में इतनी आवाजें हैं कि अगर हम उसे पूरा सुन पाते तो पागल हो जाते । इसलिए एक निर्धारित कंपन वाली आवाज ही मनुष्य सुन सकता है । हमारे कान की रचना प्रभु ने ऐसी करी है कि निर्धारित कंपन से ज्यादा या कम कंपन वाली आवाज हम सुन ही नहीं सकते हैं ।
202. जैसे वेग से चलकर फिल्म पर्दे पर हमें असली होने की प्रतीति कराती है वैसे ही प्रभु की माया हमें संसार को वेग से चलाकर दृश्य दिखाती है और सच्चा प्रतीत होने का भान कराती है ।
203. जैसे हम सपना देखते हैं, सपने में मिठाई खाते हैं, उस मिठाई का निर्माता कौन, उसमें जो सामग्री गिरी वह कौन लाया, किसने खाया, किसको अच्छा लगा । वेदांत का सिद्धांत कि जैसे सपने में असत्य मिठाई को हम सत्य मान लेते हैं वैसे ही हमारे भीतर की वासना के कारण माया हमें संसार का असत्य दृश्य दिखाती है जिसको हम सत्य मान लेते हैं । सूत्र यह है कि जितनी हमारी वासनाएं अधिक होगी उतना हमको संसार अधिक अच्छा लगेगा ।
204. जैसे स्वप्न से जगने के बाद सब झूठ लगता है, स्वप्न देखते समय सब सच्चा लगता है वैसे ही अज्ञान की निद्रा जब तक रहेगी संसार रूपी स्वप्न हमें सत्य लगेगा । सर्वोत्तम ज्ञानी जो जग जाता है उसको संसार झूठा लगता है जैसे जगने पर हमें स्वप्न झूठा प्रतीत होता है । प्रभु श्री महादेवजी सबसे बड़े ज्ञानी हैं जो भगवती पार्वती माता को अपना अनुभव बताते हैं कि प्रभु ही जगत में सत्य है, बाद बाकी सब कुछ सपना है, मिथ्या है ।
205. यह वेदांत का सिद्धांत है कि जगत को कभी भी हम सत्य नहीं कह सकते ।
206. भक्त को पूरा संसार प्रभुमय ही दिखता है ।
207. ज्ञानी भक्त को संसार की प्रतीति तो होती है, अपने बेटे का बेटा, पत्नी, पैसा, सांसारिक व्यवहार पर उसके अंतःकरण पर कोई प्रभाव नहीं होता । जैसे हम सांप मानते हैं पर प्रकाश में देखते हैं तो रस्सी दिखाई देती है वैसे ही संसार अज्ञानी पर प्रभाव करता है पर ज्ञानी भक्त पर कोई प्रभाव नहीं होता । ज्ञानी भक्त के लिए संसार नष्ट हो जाता है, अब संसार उस पर प्रभाव नहीं करता । जैसे रस्सी जलती है तो पूरी जल भी जाए तो उसकी आकृति राख के रूप में भी वैसी रहती है वैसे ही ज्ञानी भक्त को संसार जली हुई रस्सी की तरह दिखता है, जिसका कोई उपयोग नहीं ।
208. भक्ति रूपी ज्ञान जो प्राप्त कर लेता है उसको सब तरफ और कण-कण में प्रभु ही दिखते हैं ।
209. एक गरीब बहन ने अपनी धनी बहन से शादी में पहनने के लिए हीरे का हार मांगा । वह खो गया, सोचा कि अब क्या करें । वैसा ही हार बाजार से खरीदने के लिए जाएंगे तो कर्ज चढ़ जाएगा तो उन्होंने 10 वर्ष तक कष्ट झेलकर कमाई की और वैसा हार खरीदा । सिर्फ एक दिन की हार की मौज लेने के लिए 10 वर्ष तक कष्ट झेले । फिर हार ले जाकर बड़ी बहन को दिया और पूरी बात बताई तो बड़ी बहन ने कहा कि जो मैंने हार दिया था वह नकली था । नकली हार के लिए तुमने 10 वर्ष गंवा दिए । हम भी संसार के पीछे दौड़ते हुए 80-90 वर्ष गंवा देते हैं । संसार तो मिथ्या है पर उसको हम 80-90 वर्ष सच्चा मानकर मिथ्या संसार में गंवा देते हैं ।
210. संसार में रम कर अज्ञानी सुख-दुःख झेलता रहता है पर ज्ञानी भक्त संसार में नहीं रमने के कारण सुख-दुःख से निर्लेप और मुक्त रहता है ।
211. ज्ञानी पुरुष की दृष्टि से संसार असत्य होने के कारण उसके आत्म तत्व पर कोई प्रभाव नहीं डालता, यह जड़ भरतजी का राजा रहूगण को उपदेश ।
212. जगत असत्य होता तो जगत की प्रतीति नहीं होती, भान नहीं होता । सूत्र यह है कि जिसको सत्य भी नहीं कह सकते, असत्य भी नहीं कह सकते उसे कहते हैं मिथ्या । इसलिए वेदांत ने जगत को मिथ्या कहा है ।
213. अज्ञान कैसे जाएगा, ज्ञान कैसे मिलेगा, तपस्या से ज्ञान कभी प्राप्त नहीं होता, योग-यज्ञ-हवन से हमें ज्ञान नहीं मिलता । वेदांत कंठस्थ करने से ज्ञान नहीं मिलता, आराधना करने से भी ज्ञान नहीं मिलता । फिर कैसे मिलेगा ? प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं प्रभु की कृपा होगी तो ज्ञान मिलेगा । यह श्रीमद् भागवतजी महापुराण का अमर श्लोक है । पढ़ने से ज्ञान प्राप्त नहीं होता, यह सिद्धांत है । पढ़ने से हमें जानकारी मिल सकती है पर ज्ञान और ब्रह्म विद्या तो एकदम अलग है और उनका मिलना असंभव है । वे तभी मिलते हैं जब प्रभु की तीव्र भक्ति होती है । केवल भक्ति ही नहीं, तीव्र भक्ति से ज्ञान मिलता है । तीव्र भक्ति से ही शास्त्र अपना ज्ञान खोल देते हैं और हमें ज्ञानदान देते हैं । शास्त्र को पढ़कर लिया हुआ ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं है । शास्त्र का सच्चा ज्ञान सिर्फ प्रभु भक्ति के कारण ही मिलता है ।
214. ज्ञान का उपाय क्या है ? श्रीशिव महापुराण में कथन है कि प्रभु की कृपा ही ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र उपाय है ।
215. प्रभु की सेवा अपने आप सभी देवताओं को मिल जाती है । प्रभु सभी देवताओं के मूल हैं । देवतागण प्रभु की शाखाएं हैं । जैसे हम वृक्ष की जड़ में जल देते हैं तो एक-एक पत्ते को जल नहीं देना पड़ता, मूल को सींच देते हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु सबके मूल हैं ।
216. सभी ऋषि, सभी आचार्य, सभी संत और सभी शास्त्र एकमत हैं कि प्रभु ही सबके मूल हैं ।
217. निद्राधीन व्यक्ति को जगाने हेतु कोई जगा हुआ होना चाहिए, सोया हुआ व्यक्ति दूसरे सोए हुए व्यक्ति को कैसे जगा सकता है । इसलिए संत और भक्त संसार को जगाने आते हैं ।
218. एक व्यक्ति का पत्नी से झगड़ा हो गया । उसे ट्रेन पकड़कर सुबह 5 बजे जाना था । उसे पता था कि मैं स्वयं नहीं जाग सकता । पत्नी से बोलचाल बंद थी तो एक कागज की स्लिप पर उसने रात में लिखकर पत्नी के लिए छोड़ दिया कि सुबह 4 बजे जगा देना । पत्नी ने भी तकिया के पास स्लिप लिखकर रख दी कि 4 बज गए, उठ जाओ । उसे जगाया नहीं गया और उसकी ट्रेन छूट गई । एक पति का कागज पर लिखना और पत्नी का कागज पर लिखना इससे कोई नहीं जगता । इसलिए एक संसारी दूसरे संसारी को नहीं जगा सकता । तभी प्रभु भक्तों और संतों को पृथ्वी पर जन मानस को जगाने के लिए भेजते हैं ।
219. संत श्री एकनाथजी ने श्री एकनाथी भागवतजी में नौ गुणों की कंठा यानी माला जिसके गले में होती है उसे प्रभु कृपा मिलती है । नौ गुणों की व्याख्या प्रभु प्राप्ति हेतु की गई है ।
220. जरूरत होगी तो प्रभु मार्गदर्शन हेतु किसी सद्गुरु को जीवन में जरूर भेज देंगे ।
221. बिना प्रभु को अर्पित न भोजन करना चाहिए, न जल पीना चाहिए और न ही वस्त्र ग्रहण करना चाहिए ।
222. रस्सी सांप दिखे यह माया है । रस्सी, रस्सी दिखे और सांप, सांप दिखे, यह विवेक है ।
223. जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है सब एक दिन मिटने वाला है । इसलिए अविनाशी प्रभु की शरण में ही जाना चाहिए ।
224. बिगड़ी बात बनाएंगे तो वह केवल और केवल प्रभु ही बनाएंगे ।
225. प्रभु हमें अपनी सेवा करने का अवसर देते हैं । ऐसा प्रभु सेवा का अवसर बड़े भाग्य से ही मिलता है ।
226. भक्त के जीवन में प्रारब्धवश संकट आएंगे पर संकट को हरने प्रभु भी तत्काल किसी रूप में आएंगे ।
227. मिलने वाले दुःख किसी दूसरे द्वारा हमें पहुँचाए जाते हैं पर वे होते हमारे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप हैं ।
228. जैसे हम किसी दुकान में सड़े फल का सौदा करके आए और दुकानदार अपने आदमी से वह सौदा हमारे घर भिजवाए तो हम उस आदमी से झगड़ा करने लग जाएं कि सड़ा हुआ फल क्यों लाए हो । उस आदमी का काम फल पहुँचाना था, सौदा तो हमने ही दुकान पर किया था । इसी तरह पूर्व कर्मों से दुःख हमने ही तैयार किए हैं अब उसे इस जन्म में पहुँचाने वाला कोई भी बन सकता है । हमें उससे झगड़ने पर कोई लाभ होने वाला नहीं है ।
229. हमारी आसक्ति संसार में है तो वह हमें नर्क का दर्शन करा देती है और वही आसक्ति प्रभु में हो जाए तो वह हमें प्रभु के धाम भेज देती है ।
230. एक भक्त देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी को प्रसन्न करने के लिए श्रीराम नाम लिखकर बेलपत्र प्रभु के शिवलिंग पर चढ़ाते थे । यह कितना सुंदर भाव है ।
231. कार्य करना हमारे हाथ में है पर उसका सफल होना प्रभु के श्रीहाथ में होता है ।
232. कार्य करने में सावधान रहें, प्रभु द्वारा दिए उसके फल से प्रसन्न रहें, यह बात अगर जीवन में सीख ली तो जीवन जीना ही सीख लिया ।
233. सत्संग से हमारा बिगड़ा मन सुधर जाता है ।
234. सुख-दुःख भक्त के जीवन में आते हैं पर उसका स्पर्श नहीं कर पाते क्योंकि वह भक्त प्रभु से जुड़ा हुआ होता है ।
235. भक्त अपनी भक्ति के कारण भीतर से भी तृप्त होता है ।
236. प्रभु सेवा में इतना आनंद है कि वह आनंद कभी हमें प्रभु सेवा करते हुए थमने या थकने नहीं देता ।
237. सतोगुण जीवन में बढ़ाएं, वह बढ़ेगा प्रभु की सेवा से और प्रभु के चिंतन से ।
238. जो प्रभु को हमारे लिए प्रिय लगता है वही देने का प्रभु से निवेदन करें ।
239. प्रभु की दो प्रकार की कृपा होती है । पहली, अनुकूल कृपा और दूसरी, प्रतिकूल कृपा जिसमें जगत से ठोकर लगती है । जो इस प्रतिकूल कृपा को संभाल लेता है, वह प्रभु का बन जाता है ।
240. जिस कर्म को प्रभु की प्रसन्नता के लिए किया जाता है वह कर्म भक्ति बन जाता है ।
241. जिस भाग्यवान की सभी इंद्रियां प्रभु से जुड़ गई हैं, वह गोपी है । श्रीगोपी बने बिना गोपीनाथ प्रभु नहीं मिलेंगे ।
242. मृत्यु की तैयारी नहीं होने के कारण हमें मृत्यु से भय लगता है, नहीं तो अगर हमने जीवन में भक्ति की है तो प्रभु के धाम में प्रभु के श्रीकमलचरणों में ले जाने वाली मृत्यु होती है ।
243. जो माया के खिलौने से खेलने में रत हैं उस अभागे जीव पर प्रभु कृपा नहीं होती ।
244. अगर प्रभु की भक्ति जीवन में नहीं की तो इहलोक और परलोक दोनों जगह हमारी दुर्गति कोई नहीं रोक सकता ।
245. अगर जीवन में भक्ति है तो जीवन में हार भी जाएं तो प्रभु हारी बाजी भी जिता देंगे ।
246. एक बार प्रभु की शरण में हो जाएं तो प्रभु पतित नहीं होने देंगे क्योंकि प्रभु पतितपावन हैं ।
247. हमारे में भोगों की भूख है पर हमें भगवत् प्राप्ति की भूख होनी चाहिए ।
248. जब शरीर स्वस्थ है तो ही प्रभु में मन लगाने का उत्तम मौका है, नहीं तो बाद में वृद्ध अवस्था में पछताना ही पड़ेगा ।
249. इस बार मनुष्य का बढ़िया शरीर मिल गया तो बढ़िया भक्ति का साधन करके इसका सदुपयोग करना चाहिए नहीं तो अगली बार दंड स्वरूप घटिया योनि का शरीर मिलेगा ।
250. मन से, वचन से, शरीर से किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है जो प्रभु को बहुत प्रिय है । इसमें भी मन से किसी का बुरा नहीं चाहना यह सबसे जरूरी व्रत है ।
251. प्रभु हमारे धन से नहीं, हमारे रूप से नहीं बल्कि केवल हमारे सद्गुणों से रीझते हैं ।
252. अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, चोरी न करना, कपट न करना - यह पांच व्रत जो धारण करता है प्रभु को वह जीव अतिशय प्रिय होता है और उसको भक्ति करने पर निश्चित भगवत् प्राप्ति होती है ।
253. शरीर से रति करके, शरीर के रिश्तेदारों से रति करके हमें कुछ मिलने वाला नहीं है । इसलिए रति केवल प्रभु से ही होनी चाहिए ।
254. जिसमें जितनी सहनशीलता है वह भजन मार्ग में उतना ही सफल होगा ।
255. दुःखों से ठोकर खाने पर ही हमें प्रभु की मधुर याद जीवन में आती है ।
256. पहले काम करते-करते नाम जप करें फिर नाम जप होते-होते काम होने लगेगा ।
257. प्रभु हमारे कान के माध्यम से ही हमारे हृदय में प्रवेश करते हैं । अगर प्रभु के स्वभाव और प्रभाव के बारे में श्रवण नहीं किया तो आँखों से दर्शन करने पर भी प्रभु की प्रभुता का हमें भान नहीं हो पाएगा ।
258. पहले प्रभु याद आने लगते हैं और फिर सदा याद रहने लगते हैं ।
259. भक्ति प्रभु मिलन के लिए पात्र बनाने के लिए भक्त का सद्गुणों से श्रृंगार करती है ।
260. प्रभु की विस्मृति के कारण ही तो जीव को सभी दुःख जीवन में झेलने पड़ते हैं ।
261. प्रभु को देखकर प्रभु के हो जाने की इच्छा होती है, इतना अदभुत आकर्षण प्रभु का है ।
262. प्रभु का नाम सुनते ही जीव का जागरण होता है, प्रभु के दर्शन करते ही जीव का आकर्षण होता है और प्रभु का अनुभव करते ही जीव का समर्पण होता है ।
263. प्रभु का प्रभाव जानने पर इच्छा होगी कि प्रभु हमारे हो जाएं और प्रभु का स्वभाव जानने पर इच्छा होगी कि हम उनके हो जाएं ।
264. हमारा सर्वस्व प्रभु पर न्यौछावर कर देना इस जीवन का हेतु, इस जीवन की सफलता और इस जीवन का फल होता है ।
265. हमारा मैला मन प्रभु को निवेदन करने योग्य नहीं है इसलिए भक्ति उसे स्वच्छ करती है जिससे मन का निवेदन मनमोहन प्रभु को हो जाए ।
266. हमें प्रभु की कृपा का दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रभु की कृपा से ही हमारा उद्धार संभव होगा, नहीं तो हमारे साधन में कतई शक्ति नहीं कि वह हमारा उद्धार करवा दे ।
267. प्रभु के अशुल्क सेवक होने का भाव जीवन में जागृत होने पर सभी दुःखों से निवृत्ति मिल जाती है क्योंकि हमारा दायित्व हमारे मालिक प्रभु का बन जाता है ।
268. प्रभु के दास को प्रभु कभी उदास नहीं रहने देते, यह प्रभु का व्रत है ।
269. भक्त प्रभु से कहता है कि दूसरों के हाथों से सागर भी नहीं चाहिए और प्रभु एक बूंद भी दे दें तो उस भक्त के लिए वह बूंद भी सागर समान है ।
270. मृत्यु का डर प्रभु के आश्रय को दृढ़ करता है ।
271. जो हमने पकड़ रखा है वह मरने पर सब छूटेगा । इसलिए केवल प्रभु के नाम को पकड़ें जो मृत्यु पर भी नहीं छूटेगा ।
272. हमारा मन भोगों को भोगने की बहुत गलत सलाह हमें सदैव देता रहता है ।
273. जीवन की हर स्थिति में जो भजन कर लेता है वही सबसे चतुर कहलाता है । धन कमाना, पद-प्रतिष्ठा कमाना, दुनियादारी करने में चतुरता नहीं है ।
274. भोग भोगने से हमारी बुद्धि इतनी चंचल हो जाती है कि धर्म-अधर्म का भी विवेक नहीं रह पाता ।
275. भोग भोगने से आज तक किसी की भी तृष्णा शांत नहीं हुई है अपितु भोग भोगने की लालसा बढ़ती ही गई है ।
276. प्रभु का नाम जप अपने आप में परिपूर्ण साधन है ।
277. प्रभु के नाम जप से अन्य सभी साधन जैसे पूजा, यज्ञ, तीर्थ, दान, वेदाध्यन का फल प्राप्त हो जाता है ।
278. भोग भोगने की इच्छा को नहीं रोक पाए तो यह वैसा ही है जैसे कि बिच्छू के डंक से बचने के लिए सांप के बिल में हाथ डाल दिया ।
279. सच्चा भक्त प्रभु से मोक्ष नहीं मांगता, सिर्फ यही मांगता है कि कभी भी माया सुख या दुःख में प्रभु का विस्मरण नहीं करा दे ।
280. प्रभु का नाम जप मंगल का भी मंगल करने का सामर्थ्य रखता है ।
281. प्रभु का नाम जप पाप नष्ट करके हमारे हृदय में प्रभु प्रेम प्रकाशित कर देता है ।
282. प्रभु के नाम जप में रुचि होना बहुत भाग्य की बात होती है ।
283. प्रभु नाम जप में श्रद्धा और विश्वास नहीं भी है तो भी वह आपको तार देगा ।
284. नाम जप से हमारे सभी पापों के पहाड़ का विध्वंस हो जाता है ।
285. भाव रोग से मुक्त होने का उपाय प्रभु नाम जप ही है ।
286. माया की घोर अंधेरी रात में प्रभु का नाम पूर्ण प्रकाश प्रदान कर देता है जिससे जीवन का अंधकार नष्ट हो जाता है ।
287. प्रभु के नाम जप को संतों ने मोक्ष मंदिर का प्रवेश द्वार बताया है ।
288. हर युग में नाम जप का विशेष महत्व रहा है पर कलियुग में तो यही एकमात्र आधार है ।
289. नाम जापक को भवसागर पार नहीं करना पड़ता, भवसागर ही उस नाम जापक के लिए सूख जाता है ।
290. प्रभु का नाम प्रभु की तरह ही सर्वसामर्थ्यवान है ।
291. भाव से किया हुआ भजन बहुत जल्दी लाभ देता है ।
292. अपवित्र अवस्था में भी प्रभु का नाम जप हमें परम पवित्र कर देता है ।
293. प्रभु कहते हैं कि मेरा नाम लेने पर उस नाम जापक का सब भार प्रभु ले लेते हैं, इस तरह नाम जापक को सदा के लिए प्रभु निश्चिंत कर देते हैं ।
294. नाम जापक की इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करने की बात प्रभु करते हैं । सात पीढ़ी पूर्व की, सात पीढ़ी आगे आने वाली और उसके ननिहाल की सात पीढ़ी का उद्धार प्रभु कर देते हैं ।
295. नाम जापक को प्रभु तत्काल हर चिंता और भय से अभय कर देते हैं ।
296. प्रभु अपने भक्तों का इतना दुलार करते हैं कि यह वाणी या लेखन का विषय नहीं है ।
297. अंतःकरण को परम पवित्र प्रभु का नाम ही करता है ।
298. प्रभु कहते हैं कि सब चिंता प्रभु पर छोड़ दें और केवल नाम जप करें ।
299. हर भक्त के पीछे प्रभु का सुरक्षा विधान चलता है ।
300. जीवन में अन्य बल, अन्य आश्रय होने पर प्रभु हस्तक्षेप नहीं करते ।
301. जीवन में निष्काम बनकर ही हम प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं । हम सकाम बने रहना चाहते हैं और प्रभु हमें निष्काम देखना चाहते हैं ।
302. कोटि जन्मों के अपराध प्रभु नाम जप से नष्ट हो जाते हैं ।
303. रोकर प्रभु को पुकारें और जीवन में कभी भी प्रभु को नहीं बिसारना चाहिए ।
304. अपने बल का भरोसा रखने पर हम जीवन भर मझधार में ही गोते खाते रहेंगे ।
305. अगर प्रभु नाम जप प्रेम से करते रहेंगे तो आवागमन मुक्त हो जाएंगे और शोक एवं संताप रहित हो जाएंगे ।
306. जीवन की डोर प्रभु को सौंप देने से हमारा जीवन रथ भी प्रभु चलाएंगे ।
307. कोई भी प्रभु के लिए नियम धारण करेगें तो एक दिन माया द्वारा उसकी परीक्षा होगी । अगर हम उत्तीर्ण हो गए तो आगे उस नियम को बनाए रखने में प्रभु की मदद सदैव मिलती रहेगी ।
308. जीवन की परीक्षा उत्तीर्ण होकर साधन पथ पर आगे बढ़ाने के लिए होती है ।
309. श्री नरसी मेहताजी जीवन भर मानते थे कि उनकी व्यवस्था का भार प्रभु ने ले रखा है । इसलिए वे अपनी कोई व्यवस्था को लेकर कभी चिंतित नहीं होते थे ।
310. प्रभु से शिकायत की नहीं बल्कि प्रभु को धन्यवाद कहने की आदत डालनी चाहिए ।
311. जिन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों में सच्चा प्रेम हो वही हमारे असली रिश्तेदार होते हैं ।
312. साधन वही करना चाहिए जो हमें प्रभु के निकट लेकर जाए ।
313. जीव का सच्चा विश्राम प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है ।
314. हम सारी ऊर्जा संसार के व्यवहार में गंवा देते हैं और परमार्थ के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती ।
315. जीवन में समय व्यर्थ नहीं करें । प्रभु का नाम जप करके अपने समय का सदुपयोग करें ।
316. संसार व्यापार करने के लिए है पर हम उससे प्रेम करते हैं । प्रभु प्रेम करने के लिए हैं पर उनसे हम सकाम होकर मांग मांगकर व्यापार करते हैं ।
317. जीवन में चिंता वही व्यक्ति करेगा जो भक्ति नहीं करता । जो प्रभु की भक्ति करता है वह कभी चिंताक्रांत नहीं होता ।
318. प्रभु से एक बार तार जुड़ जाए तो प्राणों की बाजी लगा दें यह देखने के लिए कि कहीं किसी भी वजह से फिर वह तार टूट न जाए ।
319. जिसके जीवन में समय व्यर्थ के कामों में जाता है वह साधक नहीं है । जिसका समय प्रभु के लिए साधन में जाए वही सच्चा साधक है ।
320. जिसके जीवन में सत्संग नहीं है वह भूल कर रहा है तो माफी योग्य है पर जिसके जीवन में सतत सत्संग है वह भूल करे तो वह भूल आत्मघातक होती है ।
321. प्रभु अपनी अहेतु की कृपा करके हमें स्वीकार करते हैं । हमारी कोई योग्यता नहीं स्वीकार होने के लिए ।
322. प्रभु का सहज स्वभाव है कि वे हमें भवसागर से तार देते हैं ।
323. प्रभु का स्वभाव और प्रभाव ध्यान में रखेंगे तो माया हमें कभी परास्त नहीं कर पाएगी ।
324. हमारे चिंतन का कार्य है कि हम प्रभु और माता की करुणा, दया और कृपा का चिंतन जीवन में करते रहें ।
325. मनुष्य का सबसे महान गुण भगवत् प्रेम का होता है ।
326. केवल प्रभु कृपा ही हमें संसार के मायाजाल से बाहर निकाल सकती है ।
327. प्रभु की थोड़ी-सी भी आराधना, थोड़ी-सी भी सेवा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है, यह सिद्धांत है ।
328. आज भी ऐसे पशु दिखते हैं जो पूर्व जन्म में अर्जित प्रभु कृपा के कारण इस जन्म में संतों के संग चिपके रहते हैं । एक साँड़ श्री वृंदावनजी के श्री बिहारीजी के मंदिर में आरती के समय आता था । पहले लोगों ने उसे पीटा, उसने पिटाई खाई पर रोज आना नहीं छोड़ा । रोज पिटाई होती फिर भी रोज आता । अंत में पीटने वालों ने माना कि यह पूर्व जन्म का कोई भक्त है । फिर सब उसे प्रणाम करने लगे ।
329. अध्यात्म की दृष्टि से सारा संसार एक जंगल के समान है । इस जंगल में जीवात्मा आत्मानंद का धन लेकर चलता है । बड़े-बड़े डाकू जैसे काम, क्रोध, मद, लोभ इस धन को लूटने हेतु छिपकर बैठे हैं । जंगल में हंसरूपी संतों की संगति कभी मिलती है तो हमारा जीवन धन्य होता है । कभी मृगजल यानी भोगों का स्थान दिखता है जहाँ जाते हैं तो कुछ नहीं मिलता । जीव को इस आत्मानंद के धन को लेकर इस संसाररूपी जंगल को पार करना है तब प्रभु से मिलन होता है । उसे सिर्फ जंगल पार करना है अपने आध्यात्मिक धन को बचाते हुए पर जीव काम, क्रोध, मद, लोभ रूपी डाकुओं के चुंगल में फंसकर अपना आत्मानंद का धन लुटा बैठता है ।
330. श्री जड़ भरतजी का उपदेश कि किसी से बैर नहीं करना चाहिए, जितना बैर करेंगे उतनी अशांति जीवन में होगी । सबसे मैत्री रखना चाहिए । प्रभु आराधना का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । प्रभु आराधना ज्ञान के बल पर करना इसलिए सत्संग कभी नहीं छोड़ना चाहिए । प्रभु को ज्ञान से जानकर फिर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । शास्त्रों को पढ़ना चाहिए और प्रभु कृपा का कवच पहन कर रखना चाहिए ।
331. देवर्षि प्रभु श्री नारदजी द्वारा जम्बूद्वीप के भारत खंड में प्रभु श्री नारायणजी की आराधना होती है । ऐसा वर्णन श्रीमद् भागवतजी महापुराण में आता है ।
332. नर्क का अस्तित्व है, वे काल्पनिक नहीं हैं । जीवात्मा के पाप का क्षय करने के लिए दंड देने की व्यवस्था नर्क में की गई है ।
333. जीव द्वारा किए जाने वाले कर्म का कभी नाश नहीं होता, उसका फल मिलना तय ही है । कुछ भी करके उसे टाला नहीं जा सकता, यह सिद्धांत है ।
334. जो कर्म हमने किए नहीं थे उसका फल कभी भी गलती से भी हमें नहीं मिलेगा, यह सिद्धांत है ।
335. जो पाप हमने किए हैं उसका दंड यातनाओं के रूप में नर्क में मिलता है ।
336. नर्क को भोगने हेतु जीवात्मा को एक यातना शरीर वहाँ मिलता है । मानव शरीर तो यही पृथ्वी पर जला दिया जाता है । इसलिए दूसरा यातना शरीर वहाँ मिलता है ।
337. एक दृष्टान्त से समझें । जैसे मोबाइल का हैंडसेट (शरीर) और सिमकार्ड (जीवात्मा) होता है । जो पोस्टपेड मोबाइल का बिल आता है वह सिमकार्ड पर आता है, हैंडसेट पर नहीं आता । हमने कॉल किया है हैंडसेट से पर बिल आएगा सिमकार्ड पर । बिल सिमकार्ड से चिपका हुआ रहता है । मोबाइल हैंडसेट बदलने से भी बिल चुकाना ही पड़ता है क्योंकि बिल का रिकॉर्ड सिमकार्ड के साथ चलता है । वैसे ही जीवात्मा का पाप और पुण्य उसके साथ चलता है, शरीर के साथ नहीं चलता ।
338. जैसे हम बढ़िया हैंडसेट (मानव शरीर) का सही उपयोग नहीं करते तो हमें दूसरा घटिया हैंडसेट दे दिया जाता है, वैसे ही हमें दूसरा शरीर पशु-पक्षी, वनस्पति का मिलता है ।
339. जीव के पापों को धोने का काम प्रभु श्री यमराजजी के यमदूत नर्क में करते हैं ।
340. जैसे हम विदेश जाते हैं तो पहले उस देश की किताबें पढ़ते हैं कि वहाँ क्या-क्या ले जाना है, क्या क्या उस देश में त्याज्य है । वैसे ही श्री गरुड़ पुराणजी जरूर सुनें कि नर्क में क्या-क्या चलता है, क्या संसार से ले जाएंगे तो यातना भोगनी पड़ेगी । क्या किया जाए तो हम उस यातना से बच पाएंगे ।
341. जैसे कपड़ों को गर्म पानी में डाला जाता है, फिर साबुन से धोया जाता है, फिर डंडों से पीटा जाता है, फिर चक्र में घुमाया जाता है, फिर सुखाया जाता है । वैसे ही नर्क में हमें गर्म खौलते तेल में डालते हैं, फिर पिटाई होती है, फिर चक्र में घुमाया जाता है, कांटों के बीच से रगड़ा जाता है, फिर ताप में सुखाया जाता है, फिर पूरी तरह जीवात्मा साफ हो जाता है ।
342. राजा श्री परीक्षितजी प्रभु श्री शुकदेवजी से पूछते हैं कि नर्क की सफाई के अलावा कोई सुलभ उपाय बताएं जिससे जीवात्मा की सफाई हो सकती है । इसके उत्तर में प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु की भक्ति ही एकमात्र उपाय है ।
343. अट्ठाईस प्रमुख नर्कों का वर्णन श्रीमद् भागवतजी महापुराण में मिलता है । बहुत सारे नर्क हैं पर मुख्य अट्ठाईस नर्कों का वर्णन किया गया है । इससे अधिक नर्कों का वर्णन श्री गरुड़ पुराणजी में मिलेगा ।
344. नर्कों का वर्णन क्यों किया गया है ? अगर प्रेम से प्रभु में मन नहीं लगे तो भय के कारण प्रभु से जुड़ जाएं । भय के कारण जीवन के अध्यात्म को व्यवस्थित करना, इसके वर्णन का उद्देश्य है ।
345. नर्क जाने जितना पाप हमने कर लिया फिर भी नर्क नहीं जाना पड़े, इसका उपाय क्या है, राजा श्री परीक्षितजी ने पूछा । इसके जवाब में प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि कलियुग में प्रभु का नाम जप और प्रभु की भक्ति ही इसका एकमात्र उपाय है ।
346. किसी के किसी दोष की निंदा करेंगे तो वह दोष हमारे भीतर जागृत हो जाएगा । इसलिए परनिंदा से बचना चाहिए ।
347. सम्मान मिलने पर उदासीनता और अपमान मिलने पर मुस्कुराहट, तभी हमारा परमार्थ सही चल रहा है, ऐसा मानना चाहिए ।
348. अपने प्राण और श्वासों को प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए ।
349. प्रभु भक्त का कार्य या तो स्वयं आकर करते हैं या किसी निमित्त के द्वारा करवाते हैं ।
350. प्रभु की कथा हमारे कानों को, मन को और आत्मा को यानी सबको प्रिय लगती है ।
351. प्रभु की कथा में अनुराग होना एक बहुत बड़ी भक्ति है, देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने अपने भक्ति सूत्र में ऐसा कहा है ।
352. प्रभु के कोमल स्वभाव और अतुलनीय प्रभाव को कथा के माध्यम से जानेंगे तो तत्काल इच्छा होगी कि प्रभु हमारे हो जाएं और हम प्रभु के हो जाएं ।
353. पहले हम अपना दोष देख नहीं पाते, देख पाते हैं तो स्वीकार नहीं कर पाते, स्वीकार कर लेते हैं तो सुधार नहीं पाते और सुधार नहीं कर पाते तो जगत से अपने दोषों को छिपाते फिरते हैं ।
354. भगवत् कृपा और शक्ति जब हमारे अनुकूल हो जाती है तो बड़ी-से-बड़ी विपदा भी नष्ट हो जाती है ।
355. प्रभु को जो अर्पण करेंगे वह अनंत गुना बढ़कर वापस हमारे पास आएगा, यह सिद्धांत है ।
356. प्रभु की चाह जीवन में अन्य सभी चाहों को खत्म कर देती है ।
357. संसार के भोगों में सुख नहीं है पर फिर भी उसके कारण ही हम बंधन को प्राप्त होते हैं ।
358. चाहे जैसी परिस्थिति आए प्रभु के आश्रय का त्याग जीवन में कभी भी नहीं करना चाहिए तभी हम उस परिस्थिति में जीत पाएंगे ।
359. किसी भी तरह मन को प्रभु में लगाए रखने का अभ्यास जीवन में करना चाहिए ।
360. संसार को हमारे मन की आवश्यकता नहीं, धन और तन की आवश्यकता है और प्रभु केवल हमारे मन को ही चाहते हैं ।
361. भक्ति में तन बिगड़ जाए तो चलेगा पर मन सही होना चाहिए ।
362. प्रभु का स्वभाव का अनुभव होने पर इच्छा होती है कि हमारा प्रेम प्रभु से हो जाए ।
363. प्रभु के संदेश उसके पास आते हैं जो प्रभु के बन जाते हैं ।
364. प्रभु का स्मरण ही प्रभु का सानिध्य हमें प्रदान करता है ।
365. संसार के समुद्र में सुख-दुःख की लहरें उठती ही रहेंगी ।
366. जो आनंद स्वरूप प्रभु का गुण गाएगा वह सदैव आनंद में ही रहेगा ।
367. कर्म का बंधन प्रभु के स्मरण से ही कट सकता है ।
368. जीव का सबसे बड़ा दुःख यह होता है कि वह संसार में फंसकर प्रभु से दूर हो जाता है ।
369. हम एक जन्म में इतने कर्म करके कर्मफल बना लेते हैं कि उसे भोगने के लिए वह जन्म छोटा पड़ जाता है और वह संचित कर्म के रूप में आगे आने वाले जन्मों में भोगना पड़ता है ।
370. संत प्रभु को रसिक नहीं रसिकशेखर कहते हैं ।
371. सभी सद्गुणों के आचार्य प्रभु ही हैं ।
372. बड़े-से-बड़े योगियों के भी ध्यान में प्रभु नहीं आते पर भक्त को वे ही प्रभु अति सुलभ हो जाते हैं ।
373. प्रभु से प्रेम में भक्त की सदैव विजय होती है । भक्त प्रभु के प्रेम को पाने में सदा सफल होता है ।
374. भक्त सनातन रूप से प्रभु के समीप रहते हैं ।
375. प्रभु की एक मुस्कान कोटि-कोटि श्री चंद्रदेवजी की चांदनी से भी ज्यादा ठंडक हमारे अंतःकरण को प्रदान करती है ।
376. किस पाप के लिए किस नर्क में जाना पड़ता है और क्या-क्या यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, इसका विस्तृत वर्णन हमारे शास्त्रों में दिया गया है ।
377. प्रायश्चित कर्म से हम उस पाप से मुक्त हो जाते हैं और उसकी नर्क गति से बच जाते हैं । प्रायश्चित का इतना बड़ा सामर्थ्य है ।
378. जहाँ नर्क का वर्णन मिलेगा वहीं उसे टालने हेतु प्रायश्चित कर्म का भी वर्णन मिलेगा ।
379. अनेक बार कर्मकांड इसलिए सफल नहीं होते क्योंकि हम उसके साथ संकल्प बहुत सारे जोड़ देते हैं जैसे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य इत्यादि । संकल्प ज्यादा होने के कारण वह कर्मकांड सफल नहीं हो पाते । एक विशेष हेतु कर्मकांड होना चाहिए तब उसका असर बहुत होता है ।
380. राजा श्री परीक्षितजी कहते हैं कि जैसे हाथी मौज-मस्ती में स्नान करता है पर बाहर निकलते ही सूंड से धूल डालकर गंदा हो जाता है, इसी तरह प्रायश्चित के बाद पाप तो नष्ट हो गए पर वह पाप की वासना यानी पाप करने की प्रवृत्ति वैसी ही रही । वह वासना फिर पाप करवाए बिना नहीं रहेगी । यह तो हाथी का स्नान और फिर धूल डालने जैसी बात हुई ।
381. प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि पाप की वासना को खत्म करने के लिए अपनी जीवन शैली बदलनी पड़ेगी । उस जीव को जीवन में एक-एक करके व्रत लेना पड़ेगा, नया नियम जोड़ना पड़ेगा । प्रभु के चरणामृत लेने का नियम, झूठ नहीं बोलने का नियम, बुराई के त्याग का नियम, एकादशी के व्रत का नियम, रोज माला करने का नियम, शास्त्रों का पाठ का नियम । सूत्र यह है कि एक-एक बुराई का त्याग एक-एक अच्छाई के नियम को ग्रहण करने से होगा । ऐसे छोटे-छोटे नियम जीवन में बनाने चाहिए तो जीवन शैली थोड़े समय में बदल जाती है ।
382. प्रभु के लिए नियम लेने पर धीरे-धीरे हमारी आदतें बदलती जाती है, यह सिद्धांत है ।
383. हम चैतन्य हैं, चैतन्य जो भी संकल्प करता है उसे पूरा करने की क्षमता प्रभु उसे देते हैं ।
384. एक साथ पचास नियमों की सूची बनाएंगे तो हम उसमें असफल हो जाएंगे । धीरे-धीरे नियम को जोड़ना चाहिए । हर जन्मदिन पर एक बुरी आदत को छोड़ने का नियम और एक अच्छी आदत का संकल्प लेने का नियम, यह कितना अच्छा तरीका है ।
385. ऋषियों और संतों के आलोक में अपने जीवन को जाँचना चाहिए । उनके जीवन से अपने जीवन का मिलान करना चाहिए ।
386. अगर छोटे-छोटे नियम हर हफ्ते और हर महीने लेते चले जाएंगे तो वर्ष भर में हमारा कल्याण हो जाएगा ।
387. श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने धीरे-धीरे करने को “अभ्यास” की संज्ञा दी है ।
388. यदि श्रद्धा के साथ नियम और व्रत लेते हैं तो तीन प्रकार के पाप जो मन, वाणी और कर्म से होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं ।
389. एकादशी के एक-एक व्रत से पाप नष्ट होते हैं । एक-एक प्रभु नाम लेने से पाप नष्ट होते हैं । एक बार भगवती गंगा माता में डुबकी लगाने से पाप नष्ट होते हैं । एक-एक बार मंदिर में प्रभु दर्शन करने जाने से पाप नष्ट होते हैं ।
390. जिसके जीवन में नियम नहीं और व्रत नहीं वह मनुष्य कहलाने योग्य ही नहीं है ।
391. प्रभु की कृपा जीवन में सर्वोपरि कृपा होती है । इससे बड़ी कोई भी कृपा नहीं है ।
392. प्रभु का स्वभाव ही कृपा प्रधान है इसलिए अनाधिकार जीवों पर भी प्रभु स्वभाव वश कृपा करते ही रहते हैं ।
393. भक्ति हमें प्रभु के समक्ष प्रेम पंक्ति में बैठा देती है ।
394. हमारे साधन को देखकर नहीं बल्कि प्रभु की कृपा से ही हमें प्रभु का सानिध्य मिलता है ।
395. प्रभु की कृपा हमें माया के प्रभाव से सदैव बचाती है ।
396. प्रभु की आज्ञा में न चलना प्रभु की कृपा का अनादर करना होता है ।
397. भगवत् चिंतन हो और जगत चिंतन न हो तो ही हम प्रभु की प्राप्ति कर पाएंगे ।
398. प्रभु को छोड़ जगत में अन्य का चिंतन शास्त्रों ने निषेध किया है ।
399. श्वासें कितनी कीमती हैं यह अस्पताल में ऑक्सीजन लगने पर पता चलता है । इन कीमती श्वासों को प्रभु नाम जप के अलावा किसी में नहीं लगाना चाहिए ।
400. अंतिम समय कब है यह हमें पता नहीं, अगली योनि कौन-सी मिलेगी यह हमें पता नहीं इसलिए हमें अपने वर्तमान मनुष्य जीवन को भक्ति करके संभालना चाहिए ।
401. संत श्री तुकारामजी कहते हैं कि जो दिन में प्रभु का प्रसाद या चरणामृत ग्रहण नहीं करता वह पशु तुल्य ही है । शास्त्र कहते हैं कि सुबह सबसे पहले प्रभु चरणामृत लेने का नियम बनाना चाहिए ।
402. पुराने पाप से मुक्त होने का और नए पाप नहीं करने का सबसे सरल और उच्चतम उपाय प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपने मन को एकाग्र करना और अपने मुँह से प्रभु का मंगल नाम लेना है । प्रभु की भक्ति में इतना बड़ा सामर्थ्य है कि चारों ओर पाप का कोहरा निर्माण हो गया हो तो भी जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के उदय होने पर कोहरा छंट जाता है वैसे ही भक्ति के सूर्य उदय होने पर पाप का कोहरा छंट जाता है । नियम और व्रत लेना मोमबत्ती जैसा है जो काम चलाने हेतु थोड़ी-सी रोशनी देकर मार्ग दिखाता है पर प्रभु की भक्ति प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की तरह भास्कर रूपी है जो पूरी रोशनी कर देता है ।
403. श्री अजामिलजी सदाचारी ब्राह्मण थे, बाल्यकाल में उनका पवित्र जीवन था, शास्त्रों का अध्ययन किया था, शीलवान थे, लोग उनके गुण की प्रशंसा करते थे, कभी झूठ नहीं बोलते थे, नित्य हवन करते थे और माता-पिता की सेवा करते थे । जन्म से श्री अजामिलजी पापी नहीं थे, वे बचपन से जवानी तक धार्मिक वृत्ति के थे फिर उनके जीवन में एक मोड़ आया । अपने पिताजी की आज्ञा के कारण यज्ञ समिधा लेने हेतु वे वन में गए और लौटते वक्त एक युवक-युवती को मदिरापान करके काम-क्रीड़ा करते हुए उन्होंने देखा । मन उत्तेजित हुआ, वे घर आए और गड़बड़ यह हो गई कि वह युवती की आकृति उनके मन में बैठ गई, काम-क्रीड़ा का बुरा विचार उनके मन में बैठ गया । बहुत प्रयास किया निकालने का पर नहीं निकला । फिर वे उस युवती के पास गए । बहुत अच्छी पत्नी घर में थी फिर भी उस युवती के पास गए, उसके पास रहने लगे और मदिरापान करने लगे । एक गलत दृश्य ने उनका सत्यानाश कर दिया ।
404. एक गलत दृश्य ने श्री अजामिलजी के नित्य धर्म के कर्म बंद कर दिए, माता-पिता और पत्नी को उन्होंने घर से निकाल दिया उस युवती के कहने पर और उसके चुंगल में फंस गए । उस वेश्या को अपने घर पर ले आए, पाठ-पूजा और अध्ययन सब छूट गया । कई-कई दिनों तक स्नान नहीं करते थे । धर्मशास्त्र सबसे पहले पवित्रता और शौचाचार सिखाता है । श्री अजामिलजी का कैसा शुद्ध जीवन था और अब कैसा अशुद्ध हो गया । बाहर जाने लगे जुआ खेलने के लिए, फिर घर में ही जुआखाना बना लिया । इतनी पतित अवस्था में भी प्रभु की कृपा फिर जीवन में कैसे आती है देखें । एक प्रभु कृपा की किरण आई और अपने सबसे छोटे बेटे के जन्म पर एक संत के कहने पर उसका नाम “नारायण” रख दिया ।
405. श्री अजामिलजी अपने पुत्र नारायण से बहुत प्यार करते थे । दिन में बार-बार नारायण नाम का उच्चारण होने लगा । प्रभु का नाम किसी भी निमित्त से निकल जाए तो हमारा काम हो गया क्योंकि प्रभु का नाम में पाप नाश की असीम शक्ति है । प्रभु का नाम “प्रभु का नाम है” यह भूमिका से लेने पर ही पाप का नाश होगा, यह सिद्धांत नहीं है । सिद्धांत यह है कि किसी भी भूमिका से प्रभु का नाम लिया जाए, चाहे शत्रु भाव से लिया जाए, अनजाने में लिया जाए तो भी वह पाप क्षय करेगा । जैसे चीनी की जगह नमक मुँह में डाल दिया तो नमक का काम नमकीन करना है तो वह करेगा ही, चाहे भूल कर भी और गलती से डाला गया हो तो भी वह नमकीन करेगा । वैसे ही प्रभु का नाम का गुण-धर्म है पाप को भस्म करना, यही इसका मुख्य सामर्थ्‍य है ।
406. किसी भी निमित्त से प्रभु का नाम लिया जाए तो वह पाप को जलाएगा । केवल एक नाम चयन करके उसका प्रभाव देखें । उस जीव का पाप क्षय स्वतः होने लगेगा । मौत की घड़ी पर यमदूतों को देखकर श्री अजामिलजी ने अपने बेटे नारायण को पुकारा । प्रभु श्री नारायणजी के पार्षद आ गए । यमदूतों ने यमपाश फेंका आत्मा खींचने के लिए तो प्रभु पार्षदों ने उन्हें रोका । यमदूतों ने श्री अजामिलजी की पाप की सूची गिनाई । श्री अजामिलजी ने जब सुना तो वे दंग रह गए । इतने पाप उन्होंने कर लिए इसका उन्हें आभास भी नहीं था, उनके पाप का घड़ा इतना भर गया था । फिर यमदूतों ने नर्क का वर्णन किया कि क्या-क्या यातनाएं वहाँ मिलेगी । श्री अजामिलजी थर-थर कांपने लगे, बहुत सारे पाप ऐसे थे जो श्री अजामिलजी करके ही भूल गए थे ।
407. यमदूतों की बात सुनकर प्रभु पार्षद बोले कि यह सब तो ठीक है पर प्रभु का नाम ले लिया तो यमदूत नहीं ले जा सकते, यह सिद्धांत है । यमदूतों ने कहा कि यह तो अपने बेटे को पुकार रहा था तो प्रभु पार्षद बोले कि यह नाम तो सर्वप्रथम प्रभु का है । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि बात तो यमदूतों की सही थी पर प्रभु अपने भक्तों को बचाने हेतु तर्क बदल देते हैं । सूत्र यह है कि प्रभु कृपा करने हेतु छोटी-सी बात की अपेक्षा रखते हैं कि उस बात के बल पर प्रभु अपनी कृपा हम तक पहुँचा दें । प्रभु इंतजार करते हैं कृपा करने का, एक अवसर पाने का पर हम इतने पक्के हैं कि प्रभु की कृपा को पाने का एक छोटा-सा मौका भी जीवन में प्रभु को नहीं देते । प्रभु मौका तलाशते हैं कृपा करने का और हम सत्कर्म नहीं करके प्रभु को कृपा करने का एक भी मौका नहीं देते । यह पूरी हमारी गलती है अगर प्रभु कृपा हमारे जीवन में नहीं हो रही ।
408. अब श्री अजामिलजी यमदूतों और प्रभु पार्षदों के संवाद याद करके खूब रोए । अपने पापों को याद करके वे खूब रोए । भयंकर पश्चाताप हुआ, अपने जीवन से घृणा आने लगी, खूब रोए और भयंकर पश्चाताप उन्होंने किया । उन्होंने प्रभु की नाम की महिमा को जाना जिसके बल पर प्रभु पार्षद ने आकर उन्हें बचा लिया । एक विश्वास हो गया कि मेरा पाप कितना भी भयंकर हो मगर उसे धोया जा सकता है - प्रभु की भक्ति से । रात्रि में ही श्री अजामिलजी घर से निकल गए, वेश्या और अपने पुत्रों की तरफ देखा तक नहीं, उनका मोह खत्म हो गया । अब जिह्वा पर सिर्फ एक नाम था प्रभु का और वे श्री हरिद्वार की तरफ रवाना हुए । प्रभु में विश्वास था कि अंधकार में भी चला जाऊँगा तो सही जगह प्रभु पहुँचा देंगे । श्री अजामिलजी अंधेरे में प्रभु पर विश्वास करके चले और स्वतः ही भगवती गंगा माता के पवित्र तट पर श्री हरिद्वार पहुँच गए । एक नियम ले लिया कि अपनी वाणी से अब दूसरा कुछ भी नहीं बोलूँगा सिर्फ एक नाम निकलेगा नारायण-नारायण-नारायण ।
409. श्री अजामिलजी को कोई पूछता कि कहाँ से आए हो तो वे कहते – नारायण, कोई पूछता कि क्या खाओगे तो वे कहते - नारायण । सबसे अपने आपको अलग कर लिया, एक प्रभु से अपना नाता जोड़ लिया । वृद्ध हो गए, एक दिन भगवती गंगा माता में स्नान करते हुए देखा कि प्रभु पार्षद विमान लेकर आ रहे हैं । वे वही प्रभु पार्षद थे जिन्होंने उन्हें नर्क जाने से बचाया था । प्रभु पार्षद ने उनसे कहा कि तुमने हमारी और यमदूतों की बातों का बहुत सही अर्थ निकाला । प्रभु का नाम लेने का नियम और व्रत बना लिया, अब तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए हैं तो आप प्रभु के धाम चलने की तैयारी करो । शरीर भगवती गंगा माता में गिर गया, चेतना प्रभु के धाम चली गई । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि पुत्र को निमित्त बनाकर श्री अजामिलजी के मुँह में प्रभु का नाम आया और उस एक नाम ने उनका उद्धार कर दिया । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि जो श्रद्धा से प्रभु का नाम लेने लगा उसके उद्धार में कोई शंका ही नहीं है । प्रभु का नाम सर्वोपरि है, यह सूत्र प्रभु श्री शुकदेवजी यहाँ बताते हैं ।
410. यमदूतों ने प्रभु श्री यमराजजी के पास पहुँचकर पूरी बात बताई । प्रभु श्री यमराजजी बोले कि ऐसे घरों में कभी मत जाना, मैं भी वहाँ नहीं जा सकता जहाँ प्रभु का नाम लिया जाता है । जो प्रभु का नाम जपता है, मरण अवस्था में प्रभु उसके सिरहाने आकर खड़े हो जाते हैं । यह रहस्य प्रभु श्री यमराजजी ने अपने दूतों के आगे खोला । प्रभु इसलिए सिरहाने खड़े होते हैं कि यमदूत नहीं आ पाए और वह जीवात्मा सभी प्रकार के डर और मृत्यु के डर से मुक्त हो जाए ।
411. प्रभु श्री यमराजजी कहते हैं कि उन्हें पकड़-पकड़कर नर्क लाना जिनकी जिह्वा से प्रभु का नाम नहीं लिया जाता, जो प्रभु का चिंतन नहीं करते और जो प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम नहीं करते ।
412. यह सूत्र है कि आवश्यकता नहीं कि श्रद्धा से ही प्रभु का नाम लें, किसी भी अवस्था में, किसी भी हेतु से लिया गया प्रभु का नाम समस्त पापों का क्षय करता है फिर कोई भी पाप बच ही नहीं सकता ।
413. प्रभु के नाम में जितना पाप दहन करने की शक्ति है उतना पाप करने की शक्ति मनुष्य में भी नहीं है, एक जन्म में नहीं जन्मों-जन्मों में नहीं है ।
414. प्रभु का नाम प्रभु की सभी शक्तियों को लेकर चलता है । प्रभु की जितनी शक्तियां हैं उनकी संपूर्ण शक्ति एक प्रभु के नाम में समाहित होती है ।
415. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में किसी एक प्रभु के नाम का आग्रह नहीं है । संत श्री ज्ञानेश्वरजी कहते हैं कि प्रभु के सहस्त्रनाम है, यह प्रभु द्वारा प्रदत्त सहस्त्र नौकाएं हैं, किसी में भी बैठ जाएंगे तो हम तर जाएंगे ।
416. जगत चिंतन का फल है अशांति, चिंता और दुःख ।
417. जितना नाम जप करेंगे उतनी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होगी और उतने ही हम निर्विकार होंगे ।
418. जिस साधक में भोग बुद्धि के त्याग की प्रवृत्ति है, वह भक्ति में बहुत जल्दी सफल होता है ।
419. सब यज्ञों में श्रेष्ठ जप यज्ञ है, ऐसा प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहा है ।
420. प्रभु के नाम जप करने का अधिकार प्रभु ने सबको दिया है ।
421. नाम जपने में ही आसक्ति होनी चाहिए, जो ऐसा कलियुग में कर पाता है वही सर्वोत्तम साधक है ।
422. बिना फल की आशा करे भक्ति करें तो सभी फल स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं ।
423. संसारी का मन भागता है पर साधक एक भी श्वास प्रभु स्मरण बिना नहीं जाने देता ।
424. प्रभु नाम जप में जगत मंगल करने का सामर्थ्य है । प्रभु का आकर्षण करने की शक्ति भी नाम जप में है ।
425. जो प्रभु का एक बार शरणागत हो गया उसका अमंगल कोई नहीं कर सकता ।
426. कर्म से दूसरे कर्मबंधन को खत्म नहीं कर सकते । क्या ताला से ताला खुलता है – नहीं, उसके लिए चाबी चाहिए । वैसे ही कर्मबंधन को नष्ट करने के लिए प्रभु की शरणागति और उसके तहत कर्म प्रभु को अर्पण करना चाहिए ।
427. हमारी बाहर की दौड़ समाप्त होनी चाहिए और हमें अंतर्मुखी होना चाहिए ।
428. संसार हमें बड़ा माने इसमें हमें लाभ नहीं बल्कि हानि ही है क्योंकि यह अहंकार को जन्म देता है ।
429. आत्म-कल्याण ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ और परमार्थ है ।
430. जिसने आत्म-कल्याण किया है उसने जगत में आकर अपनी सबसे बड़ी सेवा की है, ऐसा मानना चाहिए क्योंकि हम संसार में आकर सब कुछ कर लेते हैं अपने आत्म-कल्याण के अलावा ।
431. मन बहुत शक्तिशाली है वह हमें कथा, सत्संग, माला जप करते-करते कहाँ-कहाँ ले जाता है । मन को नियंत्रित करने के लिए उसे भक्ति से प्रभु में लगाना ही पड़ेगा । भक्ति हमें वह आतंरिक शक्ति देती है जिससे हम शक्तिशाली मन को भी नियंत्रित कर सकते हैं ।
432. प्रभु की माया के पास हमें प्रलोभन देने के लिए बड़े-बड़े खिलौने हैं ।
433. वही कृतार्थ होता है जो प्रभु प्राप्ति के लिए जीवन में कंचन, कामिनी और कीर्ति तीनों का त्याग कर देता है ।
434. स्वाध्याय की एक संत ने व्याख्या की है कि स्वयं की किताब पढ़ना यानी स्वयं को पढ़ना ।
435. पाप करके जो सुख भोगा वह तो भोगकर खत्म हो गया पर पाप की गठरी जन्मों-जन्मों के लिए हमारे सिर पर आ गई । यह कितनी बड़ी मूर्खता है जो जीव जीवन में करता ही रहता है ।
436. रोग और शोक ही विषय भोग का अंतिम फल होता है ।
437. एक भटके जीव को भक्ति में लगा दिया तो एक करोड़ गोदान का फल मिलता है । यह शास्त्र मत है ।
438. श्रीमद् भगवद् गीताजी का सिद्धांत है कि अपना उद्धार स्वयं के प्रयास से ही होता है, कोई अन्य हमारा उद्धार नहीं कर सकता ।
439. जो जीव भगवत् मार्ग का पथिक होता है देवर्षि प्रभु श्री नारदजी उसके किसी भी आपत्ति-विपत्ति में उपस्थित होकर उसका मार्गदर्शन करते हैं ।
440. प्रभु की दया का द्वार सदैव खुला रहता है, मंदिर का द्वार समय पर बंद हो जाता है पर प्रभु की दया का द्वार कभी बंद नहीं होता ।
441. कोई भी ऐसा पतित नहीं है जो प्रभु की शरण में आया हो और प्रभु ने उसका उद्धार न किया हो ।
442. सत्संग प्रभु की कृपा के द्वार तक हमें ले जाने का मार्ग है ।
443. प्रभु की कृपा से ही हमारी बिगड़ी बनना संभव है ।
444. प्रभु ने अगर स्वीकार नहीं किया तो हमारा ठिकाना हमें कहीं भी नहीं मिलेगा ।
445. संसार के चक्रवर्ती राजा के ताज से भी ज्यादा प्रभु की गुलामी बढ़िया है ।
446. भक्त के जीवन में प्रतिकूलता आने का एक कारण यह है कि प्रभु उस भक्त का यश संसार में प्रकाशित करना चाहते हैं ।
447. भक्त जितना प्रभु से प्रेम करता है प्रभु उसे अथाह गुना ज्यादा प्रेम अपने भक्त से करते हैं ।
448. जो प्रभु के नाम, रूप, लीला, धाम में आसक्त हो जाते हैं उन पर माया अपना प्रभाव नहीं डालती ।
449. जो प्रभु से विमुख हैं उन्हें माया सबसे पहले भ्रमित करके नचाती है ।
450. प्रभु और प्रभु का नाम जप के अलावा कोई भी हमारे कर्मबंधन का नाश नहीं कर सकता ।
451. ब्रह्मांड में सत्य तो केवल और केवल प्रभु ही हैं बाकी सब माया का खेल है ।
452. जगत में हमारे कष्ट को कोई मिटा सकता है तो वे केवल प्रभु ही हैं, जो ऐसा कर सकते हैं ।
453. नाम जप करते रहें फिर जीवन में उसका चमत्कार देखें ।
454. प्रभु की शरण में नहीं रहने पर काम, क्रोध, मद, लोभ जब चाहे खेल-खेल में हमें परास्त कर सकते हैं ।
455. प्रभु नाम जापक के जीवन में भी प्रारब्ध के दुःख आएंगे पर कोई भी दुःख उसे परास्त नहीं कर पाएगा ।
456. नाम जप होने पर दुःख की व्यथा और दुःख का कष्ट नहीं होगा ।
457. नाम जप करते रहें तो एक दिन ऐसा आएगा जब दुःख का लेश मात्र भी नहीं बचेगा ।
458. जीवन में इहलोक और परलोक दोनों को मंगलमय बनाना है तो प्रभु का नाम पकड़ लें । नाम जप से ही यह एकमात्र संभव होता है ।
459. नाम जप से ऐसा कुछ नहीं जिसको सिद्ध न किया जा सके ।
460. प्रभु का नाम प्रभु का निरंतर चिंतन कराता है और इस चिंतन से ही भगवत् प्राप्ति हो जाती है ।
461. जिसके रक्षक प्रभु होते हैं उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
462. कोई जन्मों-जन्मों में इतना पाप इकट्ठा नहीं कर सकता जितना प्रभु के एक नाम में पाप भस्म करने का सामर्थ्य है ।
463. प्रभु में विश्वास सबसे बड़ी चीज होती है । यह विश्वास ही प्रभु के द्वारा असंभव को संभव करवा देता है ।
464. हमें धन कमाने का लोभ आया पर भजन की कमाई का लोभ कभी नहीं आया, यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
465. कभी जीवन में सम्मान हो तो प्रभु की कृपा, जो मेरे ऊपर प्रभु की है, उस कृपा का सम्मान हो रहा है - ऐसा मानना चाहिए ।
466. प्रभु ही हमारे आरंभ हो, प्रभु ही हमारे मध्य हो और प्रभु ही हमारा विश्राम हो ।
467. घर से निकले तो बड़े भाव से पांच बार प्रभु का नाम स्मरण करके निकले, कभी अमंगल नहीं होगा ।
468. प्रभु का यशगान कान में पड़ना ही मंगल का सूचक होता है ।
469. बहुत भाग्यशाली होते हैं वे जो नित्य सत्संग सुनकर प्रभु का यशगान सुनते हैं ।
470. शरणागति की बहुत बड़ी महिमा है । शरणागत हुआ जीव निश्चित भगवत् कृपा पात्र होता है ।
471. अपने सारे आचरण और व्यवहार भगवत् अर्पण कर देना चाहिए ।
472. प्राण चाहे चले जाएं पर धर्म विरुद्ध आचरण नहीं करेंगे, सदा प्रभु के उपदेशों के अनुकूल आचरण करेंगे - ऐसा संकल्प जीवन में लेना चाहिए ।
473. शरणागति पर विश्वास तब बनेगा जब हम पक्का समझेंगे कि प्रभु हर परिस्थिति में हमारी रक्षा करेंगे ।
474. अगर हम शरणागत हो गए तो प्रभु हमारे जीवन काल का और जीवन के बाद का भी भार अपने ऊपर ले लेते हैं ।
475. ऋषि सब जानते हैं पर जगमंगल के लिए खुद निमित्त बनकर जन उपयोगी प्रश्न पूछते हैं ।
476. प्रभु का नाम कब लेना चाहिए इसका कोई नियम प्रभु ने या शास्त्रों ने नहीं बनाया है । हम कभी भी, किसी भी परिस्थिति में नाम लेने के लिए स्वतंत्र हैं ।
477. श्रीवेदों से भी प्रभु का नाम उच्च स्थान रखता है, ऐसा संतों का कहना है ।
478. जिसका आचार अच्छा नहीं उसको भी नाम लेने का अधिकार है । यज्ञ का अधिकार सबको नहीं होता पर नाम लेने का अधिकार सबको है ।
479. हर साधन के नियम होते हैं । कब और कैसे साधन किया जाए, खूब सारे नियम जुड़े हुए होते हैं पर प्रभु के नाम जप में कोई भी नियम कृपालु प्रभु ने नहीं जोड़ा है ।
480. प्रभु नाम का कोई नियम नहीं, सूतक में भी लेना चाहिए क्योंकि मरने पर भी चार लोग प्रभु का नाम लेकर ही कंधा देकर श्मशान ले जाते हैं । नाम के लिए कोई सुआ, सूतक में शुद्धता की आवश्यकता नहीं है ।
481. ऋषि श्री वाल्मीकिजी से पूछें कितना शुद्ध नाम लिया था, “राम” तक नहीं बोल पाए थे । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने कहा कि उल्टा बोले मरा-मरा, जो रोज वे डाकू थे और बोलते थे और ऋषि श्री वाल्मीकिजी नाम जप के प्रभाव से परम त्रिकालदर्शी और ब्रह्मऋषि बन गए ।
482. ऋषि श्री वाल्मीकिजी में “म” बोलने की और “रा” बोलने की क्षमता थी तभी वे “मरा” बोल पाए । पर “राम” क्यों नहीं बोल पाए क्योंकि उनके भीतर से पाप निकलकर उनका गला अवरुद्ध कर दिया क्योंकि पापों को पता होता है कि “राम” निकलते ही उन्हें भस्म होना पड़ेगा ।
483. जैसे किसान बीज देखकर नहीं डालता उल्टा-सीधा कैसे भी बीज गिर गया उपजाऊ भूमि में तो फसल उगेगी ही । वैसे ही प्रभु का नाम उल्टा-सीधा कैसे भी लिया जाए वह पुण्य का उदय कराएगा ही और पाप को काटेगा ही ।
484. खूब सारी सूखी घास या कपास जमा कर रखी हो और एक अग्नि की चिंगारी लग जाए तो सब भस्म होने में देर नहीं लगती । वैसे ही हमारे पापों के कपास रूपी पहाड़ को एक प्रभु का नाम भस्म कर देता है, ऐसा संत श्री ज्ञानेश्वरजी कहते हैं ।
485. कलियुग में यज्ञ, तपस्या, कर्मकांड सभी अपूर्ण फल देते हैं क्योंकि कोई साधन पूर्णता से नहीं किया जा सकता । सिर्फ प्रभु नाम ही पूर्णता से लिया जा सकता है ।
486. प्रभु की भक्ति के बिना कोई साधन की पूर्ति कभी नहीं हो सकती, यह सिद्धांत है ।
487. जाने के समय यानी मृत्यु बेला पर क्या हम होश में रहेंगे, क्या हम अस्पताल में रहेंगे इसलिए अंत समय प्रभु नाम लेने का सपना नहीं देखें । अभी से ही नाम लेना शुरू कर देना चाहिए । अंत समय जिह्वा हिले या न हिले, किसे पता है ।
488. कलियुग में संतों ने कहा है कि श्रीहरि नाम केवलम्, संतों ने “केवलम्” शब्द का उपयोग किया है कि केवल और केवल श्रीहरि नाम ही हमें भव पार करने में एकमात्र सक्षम है ।
489. कलियुग में सर्वोपरि साधन जो है वह प्रभु का नाम जप और नाम कीर्तन ही है ।
490. अपने को भाग्यवान उस दिन मानना चाहिए जब नाम की महिमा हमारे समझ में आ जाए और प्रभु का नाम हमारे मुँह से निकलना आरंभ हो जाए । यह कोटि-कोटि शास्त्रों के सार की बात है ।
491. मुमुक्षु जीव जो मुक्त होकर संसार से प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचना चाहता है वे कलियुग में बहुत अल्प ही होते हैं ।
492. मायापति प्रभु की शरण में जाने पर ही माया से मुक्ति मिल सकती है ।
493. प्रभु की कृपा होती है तभी शास्त्रों और संतों की वाणी में विश्वास जागृत होता है ।
494. भोगों में फंसा जीव प्रभु को और प्रभु के ऐश्वर्य और सामर्थ्‍य को नहीं जान पाता ।
495. भगवत् चर्चा जीवन में निरंतर सुनते रहने पर मन बहुत जल्दी प्रभु से एकाकार होकर पवित्र हो जाता है ।
496. इंद्रियों को खुला रखने पर भक्ति भाव उड़ जाता है जैसे डिबिया का ढक्कन खोलकर रखने पर कपूर उड़ जाता है ।
497. बंधन का मुख्य हेतु इच्छा है । साधन का हेतु इच्छा रहित हो जाना है ।
498. सर्वत्र रहने वाले और सर्वज्ञ प्रभु सब जानते हैं । उन्हें हमें कुछ बताने की जरूरत नहीं कि हमारी क्या इच्छा है । उनकी इच्छा को मान्य करना सबसे बड़ी बात है ।
499. शास्त्र कहते हैं कि भक्त को आवश्यकता बाद में होती है पर प्रभु व्यवस्था पहले ही कर देते हैं । आवश्यकता से पहले व्यवस्था, यह प्रभु का भक्तों के लिए नियम होता है ।
500. जैसे अभी सहज प्रेम विषयों से है वैसे ही सहज प्रेम प्रभु से हो जाना चाहिए, तभी हमारा कल्याण संभव है ।
501. कलियुग में सर्वसम्मति से सब संत कहते हैं कि केवल प्रभु का नाम जप और नाम कीर्तन करना चाहिए । अन्य युगों में ध्यान, कर्मकांड, यज्ञ प्रधान साधन होते थे पर कलियुग में एक ही साधन है प्रभु का नाम जप और नाम कीर्तन ।
502. प्रभु को पाने का अमोघ यानी बिना चुकने वाला साधन है - प्रभु का नाम जप और नाम कीर्तन ।
503. प्रभु का कोई भी मंदिर दिखे तो अपने आप हाथ स्वतः ही जुड़ जाने चाहिए, यह सबसे बड़ी आदत मनुष्य में होनी चाहिए ।
504. सत्तासी दिन के युद्ध के बाद भी रावण नहीं मारा गया तो प्रभु श्री रामजी ने श्री आदित्यहृदय कवच का तीन बार पाठ किया । प्रभु यह सिखाने हेतु पाठ करते हैं कि कवच का महत्व क्या है - अपनी रक्षा और आसुरी शक्ति का विनाश ।
505. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री नारायण कवच का प्रतिपादन मिलता है ।
506. स्वयं प्रभु की पूजा और सेवा से जो फल मिलता है वह दूसरे से करवाने पर कम मिलेगा । सूत्र यह है कि प्रभु की पूजा और सेवा स्वयं करनी चाहिए ।
507. मंत्र के उच्चारण में गलती से बचना चाहिए । सूत्र यह है कि कर्मकांड में और यज्ञ में मंत्रोच्चारण की गलती, संकल्प की गलती उल्टा फल दे देती है ।
508. अपात्र व्यक्ति को बड़प्पन मिलता है तो वह बड़प्पन को पचा नहीं पाता क्योंकि पचाने की क्षमता उसमें नहीं होती ।
509. प्रभु श्री महादेवजी के यहाँ कोई नियम लागू नहीं होते क्योंकि वे देवों के देव श्रीमहादेव हैं और सब कुछ करने में परम समर्थ हैं ।
510. खानदानी व्यक्ति धन पाने पर उछलता नहीं पर जो नया पैसा वाला है वह उछलता है ।
511. संसार में सर्वोत्तम बात यह है प्रभु की भक्ति करना । प्रभु श्री महादेवजी ने भगवती पार्वती माता और सभी ऋषियों और संतों को श्री कैलाशजी में धर्म चर्चा में यह बात कही ।
512. प्रभु श्री महादेवजी धर्म चर्चा में कहते हैं कि जो प्रभु श्री नारायणजी की भक्ति करे, वही श्रेष्ठ है । प्रभु श्री नारायणजी देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से कहते हैं कि प्रभु श्री महादेवजी की भक्ति करने वाला ही श्रेष्ठ है । देखें, दोनों प्रभु एक दूसरे के लिए कितना श्रेष्ठ भक्ति भाव रखते हैं ।
513. श्री महामृत्युञ्जय मंत्र का प्रभाव है कि श्री शिव महापुराणजी में कथा आती है कि विधिपूर्वक ऋषि श्री दधीचिजी ने रात-दिन महामृत्युञ्जय की आराधना आजीवन किया तो प्रभु श्री नारायणजी का सुदर्शन चक्र भी उनकी परिक्रमा करके वापस आ गए ।
514. जीवन को ब्रह्म ज्ञान के लिए योग्य बनाना पड़ता है, पढ़कर ब्रह्म ज्ञान नहीं मिलता ।
515. जप, उपासना, व्रत और प्रभु का नाम लेते-लेते शरीर भीतर से बदलता है । शरीर का प्रभाव ही अलग हो जाता है । उदाहरण स्वरूप ऋषि श्री दधीचिजी की हड्डियों में साधन के कारण इतना बल आ गया कि उनका वज्र हेतु उपयोग हुआ ।
516. कभी कोई अपनी इच्छा न रखें, प्रभु की रजा में ही राजी रहना सबसे श्रेष्ठ होता है ।
517. जो केवल अपनी ही वासनाओं की पूर्ति चाहता है उसे संत राक्षस कहते हैं क्योंकि राक्षस का आचरण ऐसा ही होता है ।
518. श्रीहरि कृपा ही हमें पतित होने से सदैव बचाती रहती है ।
519. नाम जप हमारे मन को निर्विकार कर देता है और निर्विषय कर देता है ।
520. त्रिभुवन में प्रभु नाम जापक की कभी भी पराजय नहीं होती ।
521. ऐसा कोई कर्म जीवन में नहीं करें जिससे हमारी दुर्गति हो जाए ।
522. प्रीति पूर्वक प्रभु नाम जप करना चाहिए । केवल संख्या पूरी करने के लिए नहीं बल्कि प्रीति पूर्वक जप होना चाहिए ।
523. जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है वैसे ही नाम के पीछे नामी प्रभु चलते हैं ।
524. शास्त्र कहते हैं कि प्रभु सदैव अपने नाम का अनुगमन करते हैं ।
525. प्रभु के नाम का निरंतर जप करने वालों के चरणों में आनंद लोटने लगता है ।
526. मृत्यु किसी को पसंद नहीं । एक संत एक कथा सुनाते थे कि एक बुढ़िया ने दुःख पाते हुए एक बार जंगल में लकड़ी उठाते समय कह दिया कि इससे तो मौत आ जाए तो अच्छी है । उसी समय यमदूत आ गए तो बुढ़िया ने कहा कि मैं मरना नहीं चाहती । यमदूत बोले कि आपने ही तो बुलाया था तो बुढ़िया ने कहा कि मैंने तुम्हें लकड़ी का बोझ उठाने के लिए बुलाया था । बुढ़िया ने बात बदल दी । इससे यह साबित होता है कि मृत्यु कोई नहीं चाहता पर मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है ।
527. श्री नेमीशरणजी तीर्थ में ऋषि श्री दधीचिजी को स्नान कराने सभी तीर्थ आए और मिश्रित हो गए, नाम पड़ा मिश्रित तीर्थ । वहाँ सभी तीर्थ आज भी एक रूप से उपस्थित हैं ।
528. दूसरे का नाम अपने से बड़ा न हो इसलिए श्री इंद्रदेवजी ने पहले वृत्रासुर को मारने के लिए अपने शूल का प्रयोग किया, सोचा अगर वज्र से मारूँगा तो इसमें नाम ऋषि श्री दधीचिजी का हो जाएगा, जो श्री इंद्रदेवजी नहीं चाहते थे । पर फिर अंत में सब तरफ से हारने के बाद उनको वज्र का ही प्रयोग करना पड़ा ।
529. पूजा का नियम है कि जो फूल पूजा करते वक्त जमीन में गिर जाए उसे प्रभु को अर्पण नहीं करना चाहिए ।
530. असुर भी प्रभु के श्रीहाथों से मरना सहर्ष स्वीकार करते हैं । वे सोचते हैं कि अब प्रभु के श्रीहाथों मरने में ही भलाई है, जीवन जीने में अब भलाई नहीं है । अपने अंतिम समय असुर ऐसी तैयारी कर लेते हैं क्योंकि प्रभु के श्रीहाथों से मृत्यु से बड़ा कुछ नहीं है । मृत्यु तो होनी ही है पर प्रभु के श्रीहाथों हो गई तो तर जाएंगे, यह भाव असुरों में भी होता है ।
531. वृत्रासुर की प्रभु से अंतिम प्रार्थना, यह भक्ति का प्रतिपादन करता हुआ अदभुत श्लोक श्रीमद् भागवतजी महापुराण का है । भक्ति का इससे सुंदर वर्णन कहीं नहीं मिलेगा । इस श्लोक का संत श्री ज्ञानेश्वरजी पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा । वृत्रासुर मुक्ति नहीं मांगता है और कहता है कि भूल कर भी प्रभु मुझे मुक्त मत करना । मुझे वापस जन्म देकर पृथ्वी पर भेजें आपकी सेवा करने का सौभाग्य देकर, नहीं तो आपके दासों का दास बनाकर उनकी सेवा करने के लिए । सूत्र यह है कि प्रभु अपने भक्तों यानी दासों को बहुत प्रेम करते हैं और अपने से भी ज्यादा उन्हें मान देते हैं ।
532. कर्मकांड में नियम की शिथिलता नहीं चलती, नियम का पालन करना ही होता है । सकाम उपासना के लिए नियम जरूरी है । नियम की शिथिलता निष्काम भक्ति में चलती है । भक्ति में नियम पालन करना अनिवार्य नहीं है । जो भक्त कर दे वही नियम बन जाता है पर पहले वैसा शुद्ध भक्त बनना पड़ता है ।
533. सकाम कर्मकांड में कड़े नियम का पालन करते हैं तो देवतागण भी छेड़छाड़ नहीं कर सकते । भक्ति में तो देवता कभी छेड़छाड़ करने की सोच भी नहीं सकते ।
534. निष्काम भक्ति में शास्त्रों को बाजू में रख दें क्योंकि यह भाव प्रधान प्रक्रिया है । भक्ति सिर्फ भाव की भूख का नाम है, कोई शास्त्र नियम लागू नहीं होता ।
535. जूठे मुँह रात्रि में सोना शास्त्रों में दोष युक्त माना गया है ।
536. सायंकाल में सोना शास्त्रों में दोष युक्त माना गया है ।
537. सकाम कर्म करने वाला गलती करता है तो वह बड़ा दयनीय बन जाता है ।
538. अपने कल्याण हेतु व्रत करें तो ठीक पर दूसरों का अकल्याण हेतु क्रिया कर्म या व्रत अंत में अपना ही नुकसान करता है, यह सिद्धांत है ।
539. हमारा पुण्य कैसे नष्ट होता है और विनाश कैसे होता है, यह देखें । गौ-माता और ब्राह्मण को सताने पर, शास्त्रों में शंका रखने पर, भक्तों को कष्ट देने पर पुण्य तुरंत नष्ट हो जाएंगे । प्रभु श्री नारायणजी ने कहा कि जब हिरण्‍यकशिपु मेरे भक्त प्रह्लाद को सताएगा तब उसके पुण्य तुरंत नष्ट हो जाएंगे । सूत्र यह है कि भक्त को कष्ट पहुँचाने से पुण्य तत्काल नष्ट हो जाते हैं ।
540. नाम जप करने पर एक-न-एक दिन प्रभु की अनुभूति होकर ही रहती है ।
541. बस भाव से प्रभु को पुकारे तो हर संकट से रक्षा हो जाएगी । श्रीहरि का पूरा उच्चारण नहीं कर पाए थे श्री गजेंद्रजी पर उनकी मुक्ति ग्राह से पहले ही हो गई ।
542. भगवती द्रौपदीजी के समय विलंब केवल इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अन्यों का आश्रय ले रखा था । जब सब आश्रय छोड़ प्रभु को पुकारा तो प्रभु ने तुरंत लाज की रक्षा की ।
543. नाम जप से जीवन का पूर्ण परिवर्तन हो जाता है ।
544. आज तक जो भी अध्यात्म जीवन में ऊँचाई पर पहुँचा है वह कलियुग में नाम जप से ही पहुँचा है ।
545. जिसकी कोई कामना नहीं होती और वह नाम जप करता है वह प्रभु को अत्यंत प्रिय होता है ।
546. चारों युगों में नाम जप का प्रभाव छाया है पर कलियुग की तो विशेष बात है कि प्रभु प्राप्ति नाम जप से ही होगी ।
547. प्रभु पर भरोसा करने में कभी भी चूक नहीं करनी चाहिए ।
548. प्रभु के पूर्ण भरोसे से ही भगवत् प्राप्ति संभव होती है ।
549. प्रभु ने आज तक किसी के भाव और विश्वास को कभी नहीं तोड़ा है ।
550. संसार का सुख समाप्त भी होता है और पीछे दुःख भी छोड़कर जाता है ।
551. संसार का सुख हमारे जीवन को पराधीन बनाता है ।
552. तन, मन और बुद्धि सब संसार के सुख के साथ समझौता कर लेते हैं पर हमारी आत्मा को प्रभु का सानिध्य पाकर ही सुख और प्रसन्नता मिलती है, अन्य कोई साधन से ऐसा संभव नहीं है ।
553. आत्म-कल्याण का एक संत ने एक सुंदर अर्थ किया है कि आत्मा जो परमात्मा से मिलना चाहती है उसे भक्ति करके सहयोग करना ही सच्चा आत्म-कल्याण है ।
554. प्रीति तो केवल और केवल प्रभु से ही करनी चाहिए ।
555. प्रेम का बीज हमारे हृदय में है, सत्संग की बाड़ लगानी पड़ेगी और भजन के जल से उसे सींचना पड़ेगा तब वह प्रेम का बीज प्रभु के लिए अंकुरित होगा ।
556. मन का स्वभाव है कि मन उसके पीछे ही भागता है जिसे वह मूल्यवान समझता है । अभी वह संसार को मूल्यवान समझता है । पर संतों और भक्तों का मन प्रभु को सबसे मूल्यवान मानता है और प्रभु के पीछे उनका मन रहता है । यह कितना बड़ा फर्क है ।
557. जीवन में सत्संग आ गया तो मानव जीवन में मानो वसंत ऋतु आ गई ।
558. मानव जीवन हमें जीवन धन प्रभु की प्राप्ति के लिए ही मिला है ।
559. दुर्भाग्य काफी बार जीवन का दरवाजा खटखटाता है पर सौभाग्य भी एक-दो बार जीवन का दरवाजा जरूर खटखटाता है । हम सौभाग्य के समय दरवाजा खोलने से चूक जाते हैं ।
560. प्रभु की कृपा की प्राप्ति करने में हमें जीवन में कभी भी चूकना नहीं चाहिए ।
561. मंत्र जाप करने से मंत्र की शक्ति हमारे साथ चलती है और मंत्र के देव की अनुभूति भी जीवन में एक-न-एक दिन होती है ।
562. एक प्रभु के नाम का सहारा ही जीवन में सच्चा सहारा होता है ।
563. प्रभु के अलावा किसी से भी हृदय से अपनापन जीवन में नहीं रखना चाहिए ।
564. भक्ति में अनन्यता होना परम साधन है और निश्चित प्रभु प्राप्ति करवाती है ।
565. जिन्हें प्रभु की प्राप्ति की लगन लग गई है उन्हें संसार के भोग विष के समान लगते हैं ।
566. भगवत् प्राप्ति की जीवन में चाह हो जाना पूर्व जन्मों के बहुत पुण्यों के प्रभाव से ही संभव होता है ।
567. प्रभु की भक्ति, सेवा और चिंतन में अपने जीवन को अर्पण करना चाहिए ।
568. असत संसार का चिंतन छोड़कर सत् प्रभु का चिंतन ही जीवन में करना चाहिए ।
569. अहंकार ही भगवत् प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक तत्व होता है ।
570. शास्त्र कहते हैं कि किसी को नष्ट होना होता है तो वह संसार के भोगों में लिप्त हो जाता है ।
571. जीवन के हर क्षण को प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए ।
572. जो भक्ति करता है उसमें संसार के लिए वैराग्य और प्रभु के लिए प्रेम जागृत हो जाता है ।
573. यह पक्का सिद्धांत है कि किसी भी युग में आत्मा परमात्मा को प्राप्त करके ही तृप्त होती है ।
574. सत्संग नित्य करते रहने से जीवन में सुधार होकर ही रहता है, यह सत्संग की महिमा है ।
575. शास्त्र हमें संसार के प्रपंच से मोड़कर प्रभु भजन की प्रेरणा देते हैं ।
576. प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण को ग्रहण करने पर ही जीव का कल्याण होता है ।
577. ब्रह्मांड में सबसे उत्तम कमाई प्रभु के नाम जप की ही कमाई है ।
578. हमारे जीवन में सबसे मूल्यवान प्रभु ही होने चाहिए ।
579. पूरे ब्रह्मांड में सबके मूल में प्रभु ही हैं ।
580. प्रभु के रूप, सद्गुण और श्रीलीला का गान जीवन में करते रहना चाहिए ।
581. माया का हमारे मन को हरण करने वाला आकर्षण केवल हमें प्रभु से विमुख करने के लिए ही है । यह पूरी तरह से दिखावटी है और इसमें कोई सार नहीं है ।
582. प्रभु के रूप के आकर्षण के आगे संसार के सभी रूप फीके हैं ।
583. प्रभु का नाम रूपी धन के आगे त्रिलोकी की संपत्ति भी तुच्छ है ।
584. हमारा मन विषय सुख में, संसार में लगता है उसे वहाँ से हटकर प्रभु में लगाना चाहिए ।
585. हमारे ही सामर्थ्य से हमारी इंद्रियां हमें पतन मार्ग पर ले जाकर हमारा नाश करा देती है ।
586. अगर जीवन में प्रभु का नाम जप है तो हमारी बुद्धि को कोई भी विपरीत नहीं कर सकता ।
587. हमें कहाँ जाना है वह ठिकाना पक्का होना चाहिए तभी हम वहाँ पहुँचेंगे । हमारा ठिकाना प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही होना चाहिए ।
588. सब कुछ जीवन में है पर भजन नहीं है तो वह जीव शास्त्र दृष्टि से दुखिया ही है ।
589. हमें मनुष्य बनाकर प्रभु की भक्ति करने के लिए ही भेजा गया है । उसके अलावा हम जो भी करते हैं वह हमसे अपेक्षित नहीं है ।
590. मनुष्य जन्म पाकर जो प्रभु का भजन नहीं करता उसकी दुर्गति पक्की है ।
591. प्रभु के अलावा कोई हमारा जीवन में साथ देने वाला नहीं है ।
592. एक दिन मरना है, जिसने मृत्यु के लिए भजन रूपी तैयारी कर ली उसने अपना जन्म सफल कर लिया ।
593. संसार में सबसे श्रेष्ठ भक्ति करने वाला जीव ही होता है ।
594. तृष्णा ऐसी पिशाचिनी है जो भोगे हुए भोग का आकर्षण पैदा करके पुनः उसे भोगने की इच्छा पैदा करती है ।
595. भक्त के जीवन में भय नहीं होता क्योंकि सर्वत्र उसे अपने प्रभु की अनुभूति होती रहती है तो भय कहाँ टिकेगा ।
596. महा भागवत् उन्हें कहते हैं जिनको त्रिभुवन की राजलक्ष्मी देने पर भी वे आधे क्षण के लिए भी प्रभु को नहीं भूलते और त्रिभुवन की राज लक्ष्मी और प्रभु में प्रभु को अनन्यता से चुनते हैं ।
597. नित्य निरंतर प्रभु के श्रीकमलचरणों का चिंतन जीवन में करना चाहिए ।
598. प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है पर दीनों का इस दरबार में विशेष आदर होता है ।
599. शरणागत का प्रभु कभी त्याग नहीं करते, उसे उसके हर डर से प्रभु तत्काल अभय कर देते हैं ।
600. सद्गुणों को जीव में भक्ति भरती है । केवल भक्ति के कारण ही जीव में सद्गुण आते हैं ।
601. विषय और वासना की दुर्गंध का हमें इतना अभ्यास हो गया है कि हमें वही दुर्गंध में रहना अच्छा लगता है ।
602. जिसका अपनापन केवल प्रभु से हो गया, वही सच्चा भाग्यवान है ।
603. हमारा मन या तो जगत को अपना मानेगा या जगतपिता प्रभु को अपना मानेगा । मन एक है इसलिए हमारा मन दोनों को एक साथ अपना नहीं मान सकता ।
604. हमें प्रभु अपने लगें, प्रिय लगें, प्रभु से ऐसी कृपा करने का निवेदन करना चाहिए ।
605. सबसे बड़ी लोक सेवा यह है कि सबको भक्ति मार्ग के लिए प्रेरित किया जाए ।
606. किसी को भी तकलीफ देंगे तो वह हमारे भजन की हानि करेगा क्योंकि जिसको हम सता रहे हैं उसके भीतर भी हमारे प्रभु ही विराजमान हैं ।
607. प्रभु के सद्गुणों का चिंतन करने से वे गुण प्रभु कृपा से हमारे भीतर भी उतरने लग जाएंगे ।
608. हमें अपनी वाणी और समय को व्यर्थ कभी नहीं करना चाहिए और उसका उपयोग प्रभु के लिए करना चाहिए ।
609. जो अपने समय को भजन नहीं करके संसार के विषय भोग में बर्बाद करता है, एक दिन समय भी उसे बर्बाद कर देता है ।
610. जिससे न लोक सुधरना, न परलोक सुधरना, ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए । वह कृत्य व्यर्थ ही होता है ।
611. आनंद के सिंधु प्रभु को छोड़कर आनंद और कहीं नहीं मिलेगा ।
612. प्रभु केवल हमारे मन को ही मांगते हैं । इसलिए मन प्रभु को ही अर्पण करना चाहिए ।
613. सनातन धर्म का गौरव है कि हमें अपनी रुचि के अनुसार साधन उपलब्ध हैं ।
614. सुखी तो वही है जिसने अपने मन को प्रभु में लगा दिया ।
615. प्रभु के और माता के एक ही प्राण, दृष्टि, स्वभाव, मन सब कुछ एक हैं । कहने को बस दो हैं पर हैं एक ही ।
616. भगवत् चरित्र गायन और पठन में जिनका मन नहीं लगता उनका खुद का मन कभी पवित्र नहीं होगा ।
617. मन और बुद्धि संसार की तरफ जाती है तो पापाचरण करवाती है और वही मन और बुद्धि जब प्रभु में लगती है तो हमें परम आनंद मिलता है ।
618. प्रभु का सुयश हमेशा हमारे कानों में जाना चाहिए, तभी हमारा अंतःकरण पवित्र होगा ।
619. भक्त और संत भगवत् चर्चा बिना नहीं रह सकते ।
620. भगवत् चर्चा बहुत ही अमृतमयी होती है ।
621. मानव शरीर केवल भगवत् प्राप्ति के लिए ही मिला है क्योंकि इसी मानव शरीर से ही भगवत् प्राप्ति एकमात्र संभव है ।
622. प्रभु श्रीमद् भागवतजी महापुराण में श्री उद्धवजी से कहते हैं कि जो मानव शरीर प्राप्त करके भगवत् प्राप्ति नहीं करता वह बाद में सिर पीट-पीटकर पछताते हैं ।
623. जो संसारी ने कमाया है वह संसार में ही रह जाने वाला है । इसलिए अगर भगवत् प्राप्ति नहीं की तो उस जीव ने अपना मानव जीवन और जन्म ही व्यर्थ कर लिया ।
624. प्रभु ने करुणा करके मानव शरीर हमें उनकी प्राप्ति के लिए दिया है ।
625. प्रभु का बल भक्त का सबसे बड़ा बल होता है ।
626. संसार की आसक्ति केवल प्रभु की शरण होकर नाम जप करने से हटती है । कलियुग में प्रभु की शरण होकर नाम जप के अलावा संसार की आसक्ति हटाने का कोई अन्य उपाय नहीं है ।
627. भोग चिंतन, भोग दर्शन, भोग श्रवण और भोग क्रिया से हमें बचना चाहिए नहीं तो हमारा पतन निश्चित है ।
628. भोग भोगकर कभी भी शांति मिलने वाली नहीं है क्योंकि भोग और भोगने की तृष्णा जागृत करती है ।
629. प्रभु कहते हैं कि सत्संग जीव को प्रभु मार्ग पर चलने के लिए भीतर से दृढ़ बनाता है ।
630. जिसको जीवन में सत्संग नित्य मिलता है उसे मानना चाहिए कि प्रभु उस पर असीम कृपा बरसा रहे हैं । सत्संग मिलना प्रभु की बहुत बड़ी कृपा का फल होता है ।
631. लोभ संसार के लिए बढ़ता है तो हमसे पाप करवाता है और वही लोभ भगवत् कार्य जैसे नाम जप, सत्संग के लिए बढ़ता है तो वह हमारा उद्धार करवाता है ।
632. संसार का राग छूट जाए और प्रभु में अनुराग हो जाए, यह सत्संग करवा देता है ।
633. श्रीगोपीजन हमेशा प्रभु का चिंतन करती थीं । यही उनका साधन था जिस कारण सभी ऋषि और मुनि भी उनको नमन करते हैं ।
634. सत्संग हमारे संसार से आवागमन का नाश करने वाला साधन है ।
635. शरणागत भक्त का पूरा-का-पूरा भार प्रभु उठाते हैं ।
636. कलियुग के जीव के पास अपने आत्म-कल्याण के लिए बड़ा अल्प समय होता है ।
637. जिसके रक्षक स्वयं प्रभु हों उसका अहित और अमंगल कौन कर सकता है ?
638. संसार की भीड़ में रहकर भी मन से एकांत में रहना चाहिए तभी शांति, आनंद और प्रभु के सानिध्य की अनुभूति होगी ।
639. प्रभु पूरा मान अपने भक्त को देते हैं और भक्त उस मान को सवाया करके प्रभु को वापस अर्पण कर देता है ।
640. सत्संग का कोई एक शब्द भी हमारी चेतना को लग जाएगा तो हमारा जीवन ही बदल जाएगा ।
641. नित्य सत्संग सुनते-सुनते जीव का जीवन ही बदल जाता है ।
642. मानव जन्म की उत्तम कमाई नाम जप की कमाई ही है ।
643. उत्तम जन्म मानव जन्म मिला, उत्तम स्थान भारतवर्ष में जन्म मिला फिर भी भगवत् प्राप्ति नहीं की तो यह हमारा बहुत बड़ा दुर्भाग्य है ।
644. पूर्व का शोक, वर्तमान का मोह और भविष्य के भय का सत्संग नाश करता है ।
645. सत्संग के द्वारा अपना दोष दर्शन होने पर अपना जीवन ही बदल जाता है ।
646. जीव की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह प्रभु को ही भूल गया है ।
647. जो नित्य प्रभु की भक्ति करता है वह जहाँ जाता है वहाँ मंगल और आनंद की वर्षा होती है ।
648. बहुत मानव जन्म हमने बिगाड़े हैं, एक मानव जन्म यानी यह जन्म प्रभु के नाम करके तो देखें फिर प्रभु कैसा चमत्कार जीवन में करते हैं इसकी कल्पना भी हम नहीं कर पाएंगे ।
649. संसार को अपना माना तो संसार बंधन देगा । संसार को अपना नहीं माना तो वह कोई बंधन नहीं दे सकता ।
650. मलिन हृदय में संसार के भोग विलास की लालसा जागृत होती रहती है ।
651. जितनी अपनी शक्ति को भोगों में नष्ट करेंगे उतनी वह घटती जाएगी । जितनी अपनी शक्ति का परमार्थ में उपयोग करेंगे उतनी वह बढ़ती जाएगी ।
652. प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ कर रखें क्योंकि माया का ऐसा प्रभाव है कि वह हमें कहाँ उठाकर फेंक दे, पता भी नहीं चलेगा ।
653. जीवन में केवल भरोसा प्रभु का ही होना चाहिए ।
654. प्रभु साक्षात्कार होते ही माया का प्रभाव और जन्म-मरण का चक्र सदैव के लिए खत्म हो जाता है ।
655. अपना गुण नहीं गाना चाहिए और दूसरों के दोष दर्शन नहीं करना चाहिए, दोनों ही करना गलत है ।
656. श्रीहरि भक्ति में दिखावा नहीं होना चाहिए नहीं तो सच्ची भक्ति छूट जाएगी और दिखावे वाली भक्ति ही रह जाएगी ।
657. कोई भी कामना या वासना जीवन में रहेगी तो प्रभु प्राप्ति नहीं होगी ।
658. कभी भी भक्त के रूप में हमारा यश हो, यह प्रभु से नहीं मांगना चाहिए । ऐसा यश का अभिमान हमें प्रभु से दूर कर देता है ।
659. अध्यात्म का बल ब्रह्मचर्य से बहुत बढ़ जाता है । इसलिए ब्रह्मचर्य का इतना महत्व है और ब्रह्मचर्य को इतना ऊँ‍चा स्थान दिया गया है ।
660. संतोष उस जीव में ही जगता है जिसकी भगवत् शरणागति पक्की होती है । उस जीव को कल की चिंता नहीं होती क्योंकि प्रभु पर अटूट विश्वास और भरोसा होता है ।
661. जब तक प्रभु के श्रीकमलचरणों का अखंड चिंतन नहीं होगा तब तक हमें जीवन में आनंद प्राप्त नहीं हो सकता ।
662. केवल प्रभु का नाम, रूप, श्रीलीला, धाम ही सत्य हैं बाकी सभी मायाकृत हैं, जो नष्ट होंगें ।
663. मायाकृत संसार हमें दुःख, अशांति, चिंता, शोक और व्याकुलता ही देगा ।
664. सत्संग का समय हमारे जीवन का परम मंगल समय होता है ।
665. शास्त्र वचन पर और ऋषियों के वचन पर हमें जीवन में पूर्ण विश्वास होना चाहिए ।
666. कपट का एक शब्द भगवत् प्राप्ति में अंतर डाल देता है । जैसे एक बूंद खटाई एक दूध की बाल्टी में गिरा दें तो पूरा दूध को फाड़ देगा ।
667. अपराध स्वीकार कर लें तो ही हम उस अपराध से आगे जीवन में बच पाएंगे ।
668. काल के एक प्रहार पर परिवार, संपत्ति सब यही संसार में छूट जाएगी ।
669. जो भगवत् मार्ग में हमें लगाए वही हमारे जीवन का सच्चा हितैषी होता है ।
670. जन्म-मरण के चक्र को तो केवल अनन्य भक्ति ही रोक सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
671. धन्य वे हैं जिन्होंने अपने जीवन की धारा को भगवत् प्राप्ति के लिए मोड़ दी ।
672. अहंकार रखते हुए आज तक कोई भी भक्ति में सफल नहीं हो पाया है । भक्ति में सफल दीनता वाला व्यक्ति ही होता है जिसमें लेशमात्र भी अहंकार नहीं हो ।
673. हर वर्ण, हर आश्रम में रहने वाले का कर्तव्य है भक्ति करना क्योंकि हम पृथ्वी लोक में मनुष्य बनाकर भक्ति करने के लिए ही भेजे गए हैं ।
674. जो मनुष्य जन्म पाकर भजन नहीं करता उसे दंड मिलता है और वह अपने वर्ण और आश्रम से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में नीच योनियों में जाता है ।
675. जहाँ भी मंगल हो रहा है वह केवल और केवल प्रभु की कृपा से ही हो रहा है ।
676. जगत के एकमात्र आधार सर्वाधार प्रभु ही हैं ।
677. जीवन को मंगलमय और सार्थक बनाना है तो प्रभु की शरणागति ही उसका एकमात्र उपाय है ।
678. अगर हम होश में रहकर भक्ति करते हैं तो कलियुग में भगवत् प्राप्ति की बहुत बड़ी सुविधा है ।
679. सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और प्रभु को कभी भूलना नहीं चाहिए ।
680. पचास वर्षों की सांसारिक कमाई से एक दिन की एक श्वास भी हम नहीं खरीद सकते ।
681. प्रभु के यहाँ क्षमा उन्हें मिलती है जो दोबारा जीवन में पाप नहीं करते ।
682. संसार करके भजन को बिगाड़ना नहीं चाहिए । संसार से विरक्त होकर भजन को बढ़ाना चाहिए । जीवन में भजन को एकत्रित करना चाहिए क्योंकि भजन ही जीवन का सार है ।
683. अगर थोड़ा-सा भी पाखंड स्वीकार किया तो कलियुग हमारे मस्तक पर सवार हो जाएगा और हमें नष्ट कर देगा ।
684. जब हम अधर्म आचरण करने लगेंगे तो कलियुग हमारी बुद्धि पर सवार होकर हमें नष्ट कर देगा ।
685. यह दृढ़ निश्चय इस जीवन में कर लेना चाहिए कि इसी जन्म में भगवत् प्राप्ति करनी है, उससे पहले रुकना ही नहीं है ।
686. जगत के विषय सुख में ही हमारा मन फंसा हुआ है, यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है ।
687. भगवत् सेवा का अवसर अधिकतर लोग अपने जीवन में खो देते हैं ।
688. प्रारब्ध हमारी भक्ति की साधना को कभी भी बाधित नहीं कर सकता । यह शक्ति प्रारब्ध को प्रभु ने नहीं दी है ।
689. संतों और भक्तों का पूरा जीवन जगत मंगल के लिए ही होता है ।
690. भक्त कभी उत्साह रहित नहीं हो सकता क्योंकि भक्तिरूपी साधन से बहुत बड़ा सामर्थ्‍य और बल उसको मिलता है ।
691. जवानी ही कमाने का और गंवाने का समय होता है । हमें भक्तिरूपी कमाई करनी चाहिए और सांसारिक भोगों में लिप्त होकर जीवन नहीं गंवाना चाहिए ।
692. एक बार जो प्रभु पर निर्भर हो जाता है प्रभु उसका योगक्षेम वहन करके उसका मंगल और कल्याण कर देते हैं ।
693. कलियुग भगवत् प्राप्ति का बहुत बढ़िया समय है, ऐसा सभी संतों का मत है ।
694. विषयी पुरुषों की वार्ता से सदैव दूर ही रहना चाहिए नहीं तो वह हमें सांसारिक प्रपंच में फंसा देंगें ।
695. प्रभु से संसार की अनुकूलता नहीं बल्कि भक्तिरूपी साधन के लिए अनुकूलता मांगनी चाहिए पर हम उल्टा ही मांगते हैं ।
696. हम नहीं चाहे तो हमारा कल्याण कोई भी नहीं कर पाएगा । अपने कल्याण के लिए भक्तिरूपी साधन हमें ही करना पड़ेगा ।
697. आगे कलियुग में ऐसा समय आएगा जब हम भजन ही नहीं कर पाएंगे, इतनी प्रतिकूलता जीवन में होगी । इसलिए कलियुग के वर्तमान चरण में भक्ति करके भगवत् प्राप्ति कर लेना ही सबसे श्रेष्ठ है ।
698. भगवत् चिंतन से ही मन पवित्र होता है । मन पवित्र करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
699. भगवान की प्राप्ति के लिए स्वयं ही भजन करना पड़ेगा तभी भगवान की प्राप्ति संभव होगी ।
700. संसार के विषय भोग में हमने अपने अनंत जन्म समर्पित कर दिए, अब प्रभु के लिए एक जन्म यानी यह जन्म समर्पित करके देखें, क्या दिव्य गति हमारी होती है ।
701. एक बार जो प्रभु की शरणागति ग्रहण कर लेता है प्रभु सदैव के लिए उसके बन जाते हैं ।
702. जिनके हृदय में प्रभु के लिए प्रेम प्रकट हो गया प्रभु उनके अधीन हो जाते हैं ।
703. हमारे भजन में बीते हुए एक-एक क्षण को प्रभु कभी भूलते नहीं । प्रभु इतने करुणामय और दयालु हैं ।
704. प्रभु ही हमारे हर सात्विक मनोरथ की पूर्ति करते हैं ।
705. जिसका कोई नहीं होता उसके केवल प्रभु ही होते हैं ।
706. जीवन में प्रभु ही हमें निर्विकार कर सकते हैं ।
707. भगवत् प्रेम जिसके हृदय में आ गया प्रभु उस जीव से बहुत प्रेम करने लग जाते हैं ।
708. जो रोज-रोज प्रभु का सत्संग सुनता है उसके जीवन में प्रभु मिलन की इच्छा जागृत हो जाती है ।
709. हृदय में प्रभु के लिए व्याकुलता होने पर भगवत् साक्षात्कार के लिए हम प्रस्तुत हो जाते हैं ।
710. प्रभु कहते हैं कि मैं मेरे भक्तों को त्रिभुवन को पावन करने वाला बना देता हूँ ।
711. प्रभु प्राप्ति बहुत सरल है क्योंकि हम प्रभु के अंश हैं और मानव जीवन प्रभु ने भक्ति का साधन करके उनकी प्राप्ति करने के लिए ही दिया है ।
712. प्रभु शरणागति होने पर हमारी लाज प्रभु को रखनी ही पड़ती है ।
713. प्रभु का भरोसा न छूटे और प्रभु का नाम नहीं छूटे तो प्रभु मिलन जीवन में पक्का है ।
714. प्रभु कृपा पाने के हमारे कोई लक्षण नहीं हैं पर करुणानिधान प्रभु फिर भी हमारे पर अहेतु की कृपा करते ही रहते हैं ।
715. भक्ति मार्ग के दो किनारे हैं - एक अनन्यता का और दूसरा दीनता का । अनन्यता और दीनता होने पर भक्ति में बहुत जल्दी प्रगति होती है ।
716. अनन्यता का अर्थ है प्रभु के अलावा जीवन में कोई अन्य का भरोसा नहीं ।
717. प्रभु का ही एकमात्र आश्रय जीवन में लेकर रखना चाहिए ।
718. प्रभु की कृपा बिना जीव को विश्राम कहीं भी नहीं मिल सकता ।
719. प्रभु से प्रीत का स्वरूप यह है कि प्रभु का किया हुआ हर विधान साधक को बड़ा मीठा लगने लगता है ।
720. प्रभु हमारे लिए जो भी विधान करते हैं हमारे मंगल के लिए ही करते हैं ।
721. तन, मन और प्राण प्रभु को ही समर्पित कर देना चाहिए ।
722. शरणागत होकर शरणागति के विरुद्ध आचरण कभी भी जीवन में नहीं करना चाहिए ।
723. प्रभु केवल अपनापन और समर्पण से प्राप्त होते हैं ।
724. प्रभु के पक्ष में ही सदैव रहना चाहिए । संसार के पक्ष में कभी भी नहीं रहना चाहिए ।
725. भजन बल जगत का सबसे बड़ा बल होता है ।
726. प्रभु हमारे पक्ष में होंगे तो तलवार गले तक आकर भी माला बन जाएगी ।
727. प्रभु का नाम हमारे समस्त भय का नाश करने के लिए सदैव तैयार रहता है ।
728. भगवत् चिंतन करने से हमारी चिंता का भार प्रभु ले लेते हैं ।
729. जो नाम स्मरण करता है उसका मंगल-ही-मंगल सुनिश्चित हो जाता है ।
730. मृत्यु हमें भजन के लिए समय नहीं देगी इसलिए अभी से ही जीवन में भजन आरंभ करना चाहिए ।
731. विश्व के कितने भी भोग या सभी भोग भोग लें तो भी अतृप्ति बनी ही रहेगी ।
732. संसार में सबसे दुर्लभ मनुष्य जीवन है और मनुष्य जीवन में सबसे दुर्लभ सत्संग है ।
733. हमारे चित्त को प्रभु में ही समर्पित होना चाहिए ।
734. हमारा चित्त भगवत् चिंतन करने लगे तो भक्ति में बहुत जल्दी प्रगति करता है ।
735. बिना प्रभु को अर्पण किए कुछ भी नहीं पाना चाहिए ।
736. मंदिर में प्रभु के दर्शन मात्र से हमारे पाप नष्ट होने लगते हैं ।
737. प्रभु को भोग लगा हुआ प्रसाद का एक कण का भी अपमान नहीं होना चाहिए ।
738. प्रभु के श्रीचरित्र गायन से हम पवित्र होते हैं ।
739. माया का प्रभाव है कि हम कहते हैं मेरा परिवार, मेरी संपत्ति और भक्ति का प्रभाव है कि हम कहते हैं कि मेरे प्रभु । यह कितना बड़ा फर्क है ।
740. धन्य है वे जीव जिनको जीवन में निरंतर सत्संग प्राप्त होता रहता है ।
741. संसारी भोग को नहीं भोगते बल्कि भोग ही उनको भोग लेता है ।
742. जवानी में भजन नहीं हुआ तो बुढ़ापे में आधि-व्याधि के कारण भजन नहीं हो पाएगा ।
743. प्रभु अपने आश्रित को स्वप्न में भी भय नहीं होने देते ।
744. अगर प्रभु के सिवा अंदर से हमारा अपना कोई नहीं हो तो फिर प्रभु का चमत्कार जीवन में देखें ।
745. भोगानंद में हम लिप्त रहते हैं और हमें परमानंद तक की यात्रा करनी है ।
746. एक भगवत् नाम ही अविनाशी होता है यानी एक भी भगवत् नाम का कभी नाश नहीं हो सकता ।
747. प्रभु का नाम जीव पर बहुत असीम कृपा करता है इसलिए ही उसकी बहुत बड़ी महिमा है ।
748. जिनकी जिह्वा पर प्रभु का नाम आ जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता । नाम का इतना बड़ा सामर्थ्य है ।
749. प्रभु जितना हमसे प्रेम करते हैं उसका अंश मात्र भी संसार के रिश्तेवाले हमसे नहीं कर सकते ।
750. किया हुआ सत्संग का फल कभी नष्ट नहीं होता । कब सत्संग की बात याद आ जाए और हमारा मंगल कर दे यह किसी को पता नहीं ।
751. प्रभु की करुणा और दया पर जीवन में निरंतर भरोसा रखना चाहिए ।
752. आज धन से जीवन में सुविधा तो खूब बढ़ गई है पर शांति और आनंद लुप्त हो गया है ।
753. जीवन में सब कुछ मिल जाता है पर प्रभु का निश्छल प्रेम किसी बिरले भक्त को ही मिलता है ।
754. संसार के लोगों से आशा नहीं रखकर एकमात्र प्रभु से ही जीवन में आशा रखनी चाहिए ।
755. संत कहते हैं कि प्रभु रोज भोजन करने से पहले ध्यान लगाकर देखते हैं कि कहीं कोई उनका भक्त तो भूखा नहीं है । प्रभु को तसल्ली होने पर ही प्रभु अपना भोजन ग्रहण करते हैं ।
756. भक्त के पास एक ही बल होता है और वह है भगवत् कृपा का बल ।
757. शोक और संताप जीवन से हटाना हो तो प्रभु नाम का आश्रय जीवन में लेना ही पड़ेगा ।
758. जीवन में प्रभु के हरदम होकर रहें और प्रभु का नाम हरदम लेते रहें तो ही हमारा मंगल और कल्याण होगा ।
759. भक्त को प्रभु प्यारे हैं तो प्रभु को भी भक्त परम प्यारे होते हैं ।
760. जीवन का परम लक्ष्य प्रभु की भक्ति ही होनी चाहिए ।
761. सत्संग से प्रभु में आस्था और विश्वास दृढ़ होता है ।
762. हमारी पुकार में भाव आते ही वह तुरंत प्रभु तक पहुँच जाती है ।
763. निरंतर यह अनुभव करते रहना चाहिए कि प्रभु की कृपा मेरे ऊपर अपार रूप से बरस रही है । मैं ऊपर-नीचे, आगे-पीछे से सर्वत्र भगवत् कृपा में डूबा हुआ हूँ ।
764. भक्त के हृदय में भगवान रहते हैं और भगवान के हृदय में भक्त रहते हैं ।
765. जीवन में प्रभु ही हमारे आधार और विश्वास बन जाने चाहिए ।
766. संसार का आकर्षण तभी तक लुभाएगा जब तक उससे बहुत श्रेष्ठ प्रभु का आकर्षण हमें नहीं हो जाता ।
767. प्रभु के भरोसे का बल जीवन में हमेशा होना चाहिए ।
768. जब प्रभु परख लेते हैं कि इस भक्त में मेरे अतिरिक्त कोई कामना नहीं बची है तो फिर प्रभु उसे तत्काल अपना लेते हैं ।
769. जीव स्वभाव से ही कुटिल होता है इसलिए ही प्रभु से सहज प्रेम संबंध बना पाने से वंचित रह जाता है ।
770. जीवन में प्रभु की भक्ति नहीं की तो सब कुछ जीवन में किया शून्य ही है ।
771. प्रभु के लिए प्रेम में रोने वाला ही प्रभु के श्रीकमलचरणों का प्रेम प्राप्त करता है ।
772. भक्ति का भाव ही जीव का कल्याण करने में परम समर्थ है ।
773. भक्त की आशा और विश्वास की डोरी को प्रभु कभी नहीं तोड़ते ।
774. प्रभु सभी को उसकी योग्यता और आवश्यकता से अधिक ही देते हैं ।
775. भक्त का एकमात्र सहारा भगवान ही होते हैं ।
776. मनुष्य देह पाकर कुछ करने योग्य है तो वह प्रभु की भक्ति ही है ।
777. प्रभु से बड़ा कोई दाता नहीं । संसार का दाता तो केवल अपने धन का दान करता है पर प्रभु तो अपने प्रिय भक्तों को अपने स्वयं का ही दान कर देते हैं ।
778. एक बार जिसे प्रभु ने अपना लिया उसे प्रभु कभी नहीं छोड़ते ।
779. जो प्रभु की शरण में आ जाता है उसकी चाह और चिंता प्रभु मिटा देते हैं ।
780. सकामता के कारण जीव परमार्थ मार्ग में ऊँ‍चा नहीं उठ पाता । इसलिए निष्कामता जरूरी है परमार्थ मार्ग की ऊँचाई पर पहुँचने के लिए ।
781. भजन से ही हमारी बुद्धि शुद्ध होती है ।
782. जिसके राग, द्वेष और चाह नहीं हो तो वह सच्चा संत है ।
783. भोग और संग्रह करने वाला कभी प्रभु प्राप्ति नहीं कर सकता ।
784. प्रभु प्राप्ति के लिए भक्ति में तीव्रता बहुत आवश्यक है ।
785. जिस जिसने प्रभु से सच्चा प्रेम किया है उसने प्रभु का अनुभव जीवन में पाया है ।
786. आँखों के अंधे को जगत नहीं दिखता, विवेक के अंधे को श्रीजगदीश नहीं दिखते ।
787. आजकल कलियुग का प्रभाव है कि जीवन में पाप से बचने की विचारधारा ही नष्ट हो गई है ।
788. आजकल हमारे कर्म धर्म से विपरीत हो रहे हैं और हम फल अनुकूल चाहते हैं जो कभी नहीं हो सकता । कर्म ठीक होने पर ही अनुकूल फल मिलता है ।
789. भक्त चिंता नहीं करता क्योंकि वह प्रभु को अपना परम रक्षक मानता है ।
790. जीवन में गिरे हुए को उठाने का काम केवल जगत में प्रभु ही करते हैं ।
791. हमारा उत्थान प्रभु की मर्जी के अनुसार चलने में है । हमारा पतन अपने मन के अनुसार चलने में है ।
792. केवल अनन्य भक्ति से ही प्रभु के दर्शन संभव हैं ।
793. प्रभु की एक मुस्कान पर भक्त अपना हृदय प्रभु को समर्पित कर देता है ।
794. प्रभु को प्राप्त करने का एक मोल है कि निरंतर प्रभु के लिए प्रेमाश्रु की धारा बहती जाए ।
795. संतों ने अपने अनुभव में प्रभु को पूर्ण कृपा समुद्र पाया है ।
796. जीवन में सात्विक सिद्धांतों को दृढ़ करके रखना चाहिए ।
797. प्रभु का सेवक प्रभु के श्रीकमलचरणों में बैठना चाहता है पर प्रभु उसे अपने हृदय में बैठने का अधिकार देते हैं ।
798. भक्ति भक्त को जीवन में निर्भय कर देती है ।
799. भक्ति का स्वर प्रभु तक पहुँचता ही है ।
800. जगत का चिंतन छूटने पर ही हमारा कल्याण होगा क्योंकि तभी भगवत् चिंतन संभव होगा ।