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BHAKTI VICHAR CHAPTER NO. 07

प्रभु प्रेरणा से संकलन द्वारा - चन्द्रशेखर कर्वा
हमारा उद्देश्य - प्रभु की भक्ति का प्रचार
No. BHAKTI VICHAR
001. प्रभु के यहाँ सभी के साथ पूरा-पूरा न्याय होता है ।
002. जिसका कोई नहीं होता उसके भी प्रभु होते हैं ।
003. जीव बुद्धि से भगवत् कथा नहीं सुनी जानी चाहिए । भगवत् कथा भगवत् बुद्धि रखकर ही सुननी चाहिए ।
004. जहाँ भगवत् चर्चा नहीं होती हो वहाँ जाना ही नहीं चाहिए । जहाँ भगवत् चर्चा और भगवान की भक्ति हो वहीं जाना चाहिए ।
005. प्रभु से हमें कहना चाहिए कि मेरी इच्छा यह है पर आगे जो करना हो वह आप अपनी इच्छा अनुसार करें जो कि मुझे स्वीकार है । प्रभु की रजा में ही हमें राजी होना चाहिए ।
006. सारे ब्रह्मांड के मालिक प्रभु का ही हमें एकमात्र सहारा होना चाहिए ।
007. प्रभु का हर निर्णय हमें स्वीकार होना चाहिए । हर निर्णय प्रभु का स्वीकार करेंगे तो जीवन में कभी कोई क्लेश नहीं होगा ।
008. जिसका प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम है उसको परम परमार्थ मिल गया है ।
009. मन से, वाणी से और शरीर से प्रभु की भक्ति करना परम परमार्थ है ।
010. प्रभु श्री रामजी के नाम की व्याख्या यह है कि वे सबका मंगल-ही-मंगल करते रहते हैं ।
011. संतों ने प्रभु के श्रीकमलचरणों की दस श्रीअंगुलियों की भी अलग-अलग भावों से वंदना की है ।
012. जो संसार से स्नेह रखेगा वह संसार के तापों में जलेगा । जो प्रभु से स्नेह रखेगा वही शीतल रहेगा ।
013. सुखी बनना है तो यह मानना ही पड़ेगा कि संसार में कोई भी मेरा नहीं है, सिर्फ प्रभु ही मेरे हैं ।
014. दोषयुक्त व्यक्ति भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचकर निर्दोष बन जाते हैं ।
015. जगत में श्रीहरि नाम ही एकमात्र अमृत है । इसे छोड़कर संसार के विषयों के विष को क्यों पिया जाए ?
016. जीवन में श्रीहरि नाम नहीं लिया तो जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं है ।
017. प्रभु केवल अपने भक्तों से प्रेम करते हैं और भक्त केवल अपने प्रभु से प्रेम करते हैं ।
018. जीवन की व्यथा मिटानी हो तो प्रभु कथा का मनन जरूरी है ।
019. जिस मंत्र में विश्वास नहीं वह मंत्र कभी लाभ नहीं देगा । इसलिए प्रभु मंत्र पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ।
020. प्रभु जब जीव पर कृपा करते हैं तो उसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य तुरंत दे देते हैं । यही प्रभु की सच्ची कृपा होती है ।
021. हम पर यदि किसी का अधिकार है तो केवल प्रभु का ही अधिकार है ।
022. श्रीपुराण कभी भी पुराने नहीं पड़ते ।
023. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमेशा भक्तों के सामने नवीन भाव प्रकट करता है ।
024. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को नया बनकर रहने में ही आनंद आता है ।
025. जो कथागंगा में डुबकी लगाता है उसे कथागंगा पावन और पवित्र कर देती है ।
026. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को सुनने की इच्छा करने मात्र से प्रभु का अनुग्रह हमें मिल जाता है । अभी सुना नहीं, केवल सुनने की सच्ची इच्छा करने मात्र से भी कल्याण हो जाता है । यह श्रीग्रंथ इतना महान है ।
027. संसार की चाहत चली जाती है तो हमारी चिंताएं मिट जाती हैं । जिसे संसार से कुछ नहीं चाहिए वही सच्चा शहंशाह है ।
028. हमारे जीवन धन प्रभु हो जाने चाहिए ।
029. श्रीग्रंथों में वर्णित धर्म हमारी क्रिया में उतर जाए तभी वे सार्थक हैं ।
030. मनुष्य जीवन का कल्याण भगवत् प्राप्ति में ही है ।
031. हमें अपनी आँखों, जिह्वा और नासिका पर अनुशासन होना चाहिए ताकि हम उन्हें प्रभु की तरफ मोड़ दें ।
032. जितना ध्यान हम भोगों का रखते हैं उतना ध्यान अगर हम भजन का रखें तो हमारा निश्चित कल्याण हो जाएगा ।
033. श्रीमद् भागवतजी महापुराण श्री वेदजी के भावार्थ को प्रकट करने वाला श्रीग्रंथ है ।
034. समस्त ज्ञान का सार प्रभु ही हैं ।
035. दुनिया में सच्चा भाग्यशाली वही है जो प्रभु से जुड़ गया हो । जो धन, प्रतिष्ठा और पद से जुड़ा है वह अभागा ही है ।
036. प्रभु का भजन करते वक्त हमें दुनिया को भूल जाना चाहिए ।
037. संसार के सब कार्य और सब कुछ छोड़कर भी हमें भगवत् भजन करना चाहिए ।
038. सुख और दुःख मन की कल्पना मात्र हैं । जो मन ने अच्छा मान लिया वह सुख है, जो मन ने बुरा मान लिया वह दुःख है । सुख और दुःख कुछ नहीं होते यह हमारी मान्यता मात्र होती है ।
039. जब प्रभु कृपा होती है तभी हमें सत्संग का चस्का लगता है ।
040. प्रभु का नाम जुबान से उच्चारण होने पर उस समय हृदय में बसे पाप निकल भागते हैं ।
041. हमें प्रभु भजन करके ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए ।
042. संसार से भाव संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि इससे रसीला जीवन कुछ नहीं हो सकता और ऐसा करने पर ही प्रभु मिलते हैं ।
043. प्रभु बुद्धि के विषय नहीं बल्कि भक्ति के विषय हैं । इसलिए हम प्रभु को बुद्धि से नहीं जान सकते ।
044. प्रभु श्री महादेवजी को भोलेनाथ कहा गया है क्योंकि उनसे ज्यादा भोले देव कोई नहीं हैं ।
045. प्रभु श्री महादेवजी सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देव हैं और एक जल की धारा के प्रसन्न हो जाते हैं, ऐसे आशुतोष हैं ।
046. संत कहते हैं कि प्रभु श्री महादेवजी को ना कहना कभी आता ही नहीं ।
047. प्रभु श्री महादेवजी से बड़ा दानी कोई नहीं है ।
048. जिसको प्रभु ने त्याग दिया उसे संसार में कहीं भी सहारा नहीं मिल सकता ।
049. प्रभु को छोड़कर किसी की ताकत नहीं कि वह हमारे दुःख को मिटा दें अन्यथा हमारे हिस्से में मिले दुःख हमें ही भोगने पड़ते हैं ।
050. प्रभु के श्रीकमलचरणों को अपने हृदय में धारण करके प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
051. हमारे जीवन की उलझनों को प्रभु ही सुलझाते हैं ।
052. हमें एक दिवस में चौबीस घंटे हमारे प्रभु ने दिए हैं । हम उनमें से कितने घंटे वापस प्रभु को देते हैं यह हमें देखना चाहिए ।
053. सबसे प्राचीन एवं सबसे वैज्ञानिक धर्म सनातन धर्म ही है ।
054. प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिंतन का सबसे पहले विधान है । संत प्रभु विग्रह का दर्शन करते वक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों का दर्शन सर्वप्रथम प्रभु विग्रह में करते हैं ।
055. प्रभु हमें शोक सागर से निकालकर आनंद सागर में ले जाते हैं ।
056. नर श्रीलीला करते वक्त प्रभु श्री कृष्णजी के जीवन में इतने संकट आए पर फिर भी प्रभु सदैव मुस्कुराते हुए ही मिलेंगे । प्रभु का जीवमात्र को संदेश है कि जीवन में सदैव प्रसन्न रहना चाहिए ।
057. सदैव प्रसन्न रहना प्रभु की भक्ति का एक अंग है क्योंकि प्रभु सदैव मुस्कुराते हुए ही रहते हैं ।
058. हमें दुःख में भी सुख की खोज करने की कला आनी चाहिए । पर हम इसके विपरीत सुख में भी दुःख खोज लेते हैं ।
059. हमें सर्वत्र प्रभु के दर्शन करने चाहिए । सबमें प्रभु के दर्शन करने की कला हमें आनी चाहिए ।
060. चिंता से प्रभु चिंतन तक की यात्रा का नाम ही तो भक्ति है ।
061. प्रभु चिंतन करने से कभी दुर्विचार मन में आ ही नहीं सकते ।
062. जैसे आँखों के पास आँखों की पुतली, भौहें, माथा, गाल, मुँह और दांत होते हैं पर बिना दर्पण के आँखें उन्हें देख नहीं सकतीं । वैसे ही आत्मा के सबसे करीब प्रभु हैं पर बिना भक्ति के दर्पण के आत्मा प्रभु के दर्शन नहीं कर सकती ।
063. भक्ति का आरंभ प्रभु में विश्वास से होता है, भक्ति का मध्य प्रभु से संबंध जोड़ने से होता है और भक्ति की पराकाष्ठा प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण यानी आत्मनिवेदन से होती है ।
064. प्रभु नाम के जप की महिमा असीम है ।
065. प्रभु अपने भक्तों का सदैव ध्यान रखते हैं । यह प्रभु का व्रत है ।
066. सच्चे भक्तों को भोजन और आवास की चिंता कभी नहीं करनी चाहिए । यह व्यवस्था प्रभु द्वारा उनके लिए स्वतः ही कर दी जाती है ।
067. भक्तों को चिंता सिर्फ प्रभु भजन करने की ही होनी चाहिए ।
068. प्रभु का गुणानुवाद अपनी वाणी से नित्य करना चाहिए क्योंकि हमें चाहिए कि प्रभु हमारी वाणी के अलंकार बनें ।
069. जो दिखने चाहिए वे सत्य प्रभु हमें दिखते नहीं हैं । जो नहीं दिखना चाहिए वह मिथ्या संसार हमें दिखता है जो कि भ्रम मात्र है ।
070. प्रभु हर जगह हैं पर माया के कारण प्रभु हमें दिखते नहीं ।
071. भक्त से जब भक्त मिलता है तो भगवत् भाव की ही चर्चा होती है ।
072. प्रभु का स्वभाव इतना मधुर है कि ऐसा मधुर स्वभाव प्रभु के अलावा कहीं भी सुना या देखा नहीं जाता ।
073. हमारे दुःख का कारण हमारी दुष्ट इंद्रियां हैं । हम इंद्रियों की सेवा करते-करते थक जाते हैं पर इंद्रियां कभी तृप्त नहीं होतीं ।
074. एक बार जो परिवार, पुत्र, पत्नी के चक्कर में फंस जाता है तो छूटना बड़ा मुश्किल होता है । प्रभु कृपा से ही कुछ बिरले ही छूट पाते हैं ।
075. भगवत् प्राप्त पुरुष ही परिवार, पुत्र, पत्नी से ऊपर उठ पाते हैं ।
076. जो एक प्रभु से जुड़ जाता है वह सबसे जुड़ नहीं पाता, यह सिद्धांत है ।
077. जब प्रभु से राग हो जाता है तो संसार से राग छूट जाता है । यह सिद्धांत है कि एक से राग जोड़ने पर दूसरे से राग छूट जाता है । इसलिए प्रयत्नपूर्वक प्रभु से राग हो ऐसा प्रयास करना चाहिए ।
078. भक्तों का आभूषण है कि उन्हें सहना आता है और सबके लिए उनके हृदय में करुणा होती है ।
079. भक्त प्रभु के अतिरिक्त किसी पर आश्रित नहीं रहता । वह एक प्रभु को छोड़कर किसी से कुछ आशा नहीं रखता ।
080. भक्तों के जीवन में प्रभु का गुणगान सुनने की आदत होती है । भक्त को कोई भी प्रभु कथा सुनाने वाला मिल जाए तो उससे प्रभु कथा सुनते हैं और कोई सुनने वाला मिल जाए तो उसे प्रभु कथा सुनाते हैं ।
081. प्रभु प्रसन्न होते हैं तो धन देते हैं । प्रभु अति प्रसन्न होते हैं तो धन छीनकर अपनी भक्ति दे देते हैं, यह सिद्धांत है ।
082. जिस पर प्रभु सच्चा अनुग्रह करते हैं प्रभु उसका धन छीन लेते हैं और अपनी भक्ति दे देते हैं । यह प्रभु ने श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कहा है ।
083. प्रभु अनुग्रह होने पर ही सत्संग और भक्ति मिलती है ।
084. प्रभु की कथा हमारा जीवन परिवर्तन कर देती है । प्रभु की कथा हमारे मन में प्रभु के लिए श्रद्धा निर्माण करती है । फिर प्रभु के लिए हमारे जीवन में भक्ति और प्रेम अधिक हो जाता है ।
085. प्रभु से एकतरफा प्रेम करें । यह मानें कि अभी हमारा जीवन इतना पवित्र नहीं हुआ कि प्रभु हमसे प्रेम करें पर हमें प्रभु से एकतरफा प्रेम करना आरंभ कर देना चाहिए ।
086. प्रभु से अनन्य प्रेम करना ही भक्ति है ।
087. जो प्रभु का जैसा भजन करता है प्रभु भी उस भक्त का वैसा ही भजन करते हैं ।
088. भक्ति कभी कामना वाली नहीं होनी चाहिए । निष्काम भक्ति ही सच्ची एवं सर्वश्रेष्ठ भक्ति है ।
089. निष्काम भक्त प्रभु के कुछ देने पर भी प्रभु से कुछ नहीं लेते । प्रभु मोक्ष भी देते हैं तो भी भक्त वह नहीं लेता । वह प्रभु की भक्ति निरंतर करता रहे, यही वरदान प्रभु से चाहता है ।
090. प्रभु के लिए श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ होनी चाहिए । प्रभु में श्रद्धा और प्रभु में विश्वास दोनों साथ-साथ होगा तभी हमारा कल्याण होगा ।
091. एक बार तन्मयता से प्रभु श्री महादेवजी का नाम लेने वाले को प्रभु मोक्ष दे देते हैं । दो बार तन्मयता से प्रभु श्री महादेवजी का नाम लेने वाले के प्रभु ऋणी हो जाते हैं । प्रभु श्री महादेवजी इतने परम उदार हैं ।
092. सहज प्रसन्न होने वाले एक ही देव हैं और वे हैं देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी ।
093. प्रभु अपने भक्तों के अपराध को सदैव माफ करते हैं जो सच्चा प्रायश्चित प्रभु के समक्ष करते हैं ।
094. शास्त्र वाक्यों पर हमारी दृढ़ निष्ठा सदैव होनी चाहिए ।
095. भक्त अपने को छुपाता है, अखबार में छपाता नहीं है ।
096. प्रभु अपने प्रति किए अपराध को क्षमा कर देते हैं पर अपने भक्तों के प्रति किए गए अपराध को कभी क्षमा नहीं करते ।
097. संसार का धन कमाना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना आध्यात्म का धन कमाना महत्वपूर्ण है ।
098. प्रभु को खिला हुआ फूल चढ़ता है, मुरझाया हुआ फूल नहीं चढ़ता । ऐसे ही अपनी खिली हुई जवानी प्रभु को समर्पित करनी चाहिए क्योंकि बुढ़ापा तो हमारा मुरझाया हुआ फूल है ।
099. प्रभु की एक-एक रोमावली में कोटि-कोटि ब्रह्मांड समाए हुए हैं ।
100. भारत भूमि जैसी पुण्य भूमि पूरे संसार में कहीं भी नहीं है । इसलिए ही तो श्री देवतागण भी पवित्र भारत भूमि में ही मनुष्य जन्म चाहते हैं ।
101. चाहे भक्ति की बात कर लें, चाहे मोक्ष की बात कर लें या चाहे आध्यात्मिक ज्ञान की बात कर लें सदैव पश्चिम देशों ने भारत की तरफ ही इनके लिए देखा है ।
102. जो श्री वेदजी में प्रतिपादित है, जो श्री वेदजी में कहा गया है वही धर्म है । जो श्री वेदजी में वर्जित है वह अधर्म है ।
103. श्री वेदजी की किसी ने रचना नहीं की, उनका कोई रचयिता नहीं है । श्री वेदजी साक्षात प्रभु द्वारा उच्चारित प्रभु की वाणी है और प्रभु द्वारा ही प्रतिपादित है ।
104. कैसे भी भगवत् नाम का उच्चारण हो जाए, चाहे गलती से, चाहे आलस्य से, चाहे भाव से, चाहे अभाव से, कैसे भी हो जाए वह हमारा उद्धार-ही-उद्धार करेगा ।
105. प्रभु अपने दास से भी ज्यादा अपने दास के दास से प्रेम करते हैं । जैसे बेटे से पोता प्यारा होता है और मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है वैसे ही प्रभु को अपने भक्त के दास ज्यादा प्यारे होते हैं । इसलिए ही प्रभु को अपने भक्तों से भी ज्यादा प्रभु श्री हनुमानजी के भक्त प्यारे हैं ।
106. मनुष्य जन्म मिला ही हमें भगवत् प्राप्ति के लिए है ।
107. इन्हीं आँखों से प्रभु के दर्शन हो सकते हैं, इन्हीं हाथों से प्रभु को छुआ जा सकता है, ऐसा करने के लिए बस सिर्फ भक्ति की जरूरत है ।
108. जब तक हम प्रभु के पास नहीं जाते तब तक हमें शांति मिलने वाली नहीं है । कुछ भी कर लें प्रभु के पास जाए बिना शांति मिलना पूर्णतया असंभव है ।
109. कैसे भी जीवन में प्रभु का चिंतन हो जाए, चाहे वह कामना से हो, चाहे क्रोध से हो, चाहे भय से हो, चाहे प्रेम से हो पर जैसे भी हो अगर चिंतन प्रभु का हो जाता है तो वह हमारा निश्चित कल्याण करता है ।
110. प्रभु से अगर हम डरेंगे तो हमारा डरना भी भजन बन जाता है ।
111. संबंध किसी भी प्रकार से रखें पर रखें प्रभु के साथ ही ।
112. किसी भी उपाय से चिंतन प्रभु का ही जीवन में करना चाहिए ।
113. प्रभु जिसको संभालते हैं उसका बाल भी बाँका नहीं होता चाहे पूरा जग ही उसका बैरी क्यों न हो जाए ।
114. प्रभु जब बचाने को आते हैं तो कहीं भी, कैसे भी बचा लेते हैं ।
115. भगवती मीराबाई को विष में भी प्रभु श्री गोविंदजी के दर्शन हुए तो विष भी उनको कैसे हानि पहुँचा सकता था ।
116. प्रभु भक्ति से जितना प्रसन्न होते हैं उतना अन्य किसी भी साधन से प्रसन्न नहीं होते ।
117. हमें काम, क्रोध, मद और लोभ से भी ज्यादा डर अहंकार का होना चाहिए क्योंकि कई बार अहंकारी नहीं होने का भी हमें अहंकार हो जाता है ।
118. लोभ हो जीवन में तो उसकी दिशा बदलने की जरूरत है । रुपया कमाने के लोभ को बंद करके उसे प्रभु नाम धन कमाने का लोभ बना देना चाहिए ।
119. भक्त अपने जीवन के समय को कभी व्यर्थ नहीं गंवाते । हमें अपने समय को खाली नहीं छोड़ना चाहिए और उसे प्रभु सेवा, भजन और कथा में व्यस्त रखना चाहिए ।
120. श्रीमद् भागवतजी महापुराण को ज्ञानयज्ञ एवं श्रेष्ठतम सत्कर्म की संज्ञा दी गई है ।
121. ज्ञान, वैराग्य और भक्ति महलों में नहीं रहते । वे वैष्णवों के हृदय में रहते हैं ।
122. भाग्यशाली वह है जिसके अंतःकरण में प्रभु के लिए प्रेम है, भक्ति है । भाग्यशाली वह नहीं जिसके पास धन है ।
123. संत मानते हैं कि प्रभु का अवतार सदैव भक्ति के कारण होता है यानी भक्तों को अपना सानिध्य देने के लिए प्रभु प्रकट होते हैं ।
124. मन, वाणी और काया से हम जो पाप करते हैं उन पापों से श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा सुनने से हम पापमुक्त हो जाते हैं ।
125. सब सुख सबको कभी नहीं मिल सकते । दुःख जीवन में जरूरी है क्योंकि दुःख आता है तभी प्रभु याद आते हैं ।
126. उदासी संत और संसारी दोनों को घेरती हैं । संत उदासी से परेशान नहीं होते पर उदासी संसारी को परेशान करके रख देती है ।
127. प्रभु श्री हनुमानजी जिसके साथ हैं वह जीवन में कभी भी उदास नहीं रहता ।
128. प्रभु श्री हनुमानजी सिर्फ भक्ति का ही एक नाता मानते हैं ।
129. जो भक्त होगा वह जीवन के तापों से जलने से बच जाएगा । प्रभु श्री हनुमानजी ने पूरी लंका जला दी पर श्री विभीषणजी के घर को नहीं जलाया ।
130. बोलना हमारी जरूरत होनी चाहिए परंतु बोलना हमारी आदत बन जाती है ।
131. जीवन में सदैव शुभ संकल्प ही लेना चाहिए ।
132. प्रभु श्री हनुमानजी सदैव प्रसन्न रहते हैं । हमें भी प्रभु श्री हनुमानजी का भक्त होने के नाते सदैव प्रसन्न ही रहना चाहिए ।
133. प्रभु श्री हनुमानजी सदैव अहंकार रहित रहते हैं क्योंकि अहंकार होते ही प्रभु हमें अपने से दूर कर देते हैं ।
134. जब हमारी प्रशंसा हो तो भी उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित कर देनी चाहिए जैसे प्रभु श्री हनुमानजी ने की जब प्रभु ने लंका से आने के बाद स्वयं उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
135. मन, कर्म और वचन के भेद मिटाने से प्रभु प्रसन्न होते हैं । जो मन ने सोचा वही वचन कहे और वही कर्म जीवन में करना चाहिए ।
136. जीवन में प्रभु का नाम भी लेना चाहिए और प्रभु का काम भी करना चाहिए ।
137. भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि उस भक्त की प्रशंसा प्रभु को करनी पड़े ।
138. जो प्रभु शरण में आता है प्रभु उसे कभी नहीं ठुकराते । यह प्रभु का व्रत है ।
139. जिसके जीवन में प्रभु श्री हनुमानजी हों उसे प्रभु तुरंत स्वीकार करते हैं ।
140. विपरीत परिस्थिति में प्रसन्न रहना प्रभु श्री रामजी से और प्रभु श्री कृष्णजी से सीखना चाहिए ।
141. शरीर पवित्र होता है प्रभु सेवा से, मन पवित्र होता है प्रभु चिंतन से, वाणी पवित्र होती है प्रभु के गुणानुवाद से और कान पवित्र होते हैं प्रभु के कथा श्रवण से ।
142. प्रभु सच्चे भक्तों के पास बिना बुलाए स्वतः ही चले आते हैं ।
143. मन की कामनाएं कभी पूरी नहीं हो सकतीं । एक पूरी होती है तो दूसरी जन्म ले लेती है ।
144. प्रभु साधन और पुरुषार्थ से नहीं मिलते । प्रभु जब भी मिलते हैं तो अपनी कृपा से मिलते हैं । जब हम साधन और पुरुषार्थ करते जाते हैं तो प्रभु कृपा करते हैं और फिर प्रभु मिलते हैं ।
145. संत व्याख्या करते हैं कि श्रीगोपीजन वे हैं जो अपने प्रत्येक इन्द्रियों से प्रभु रस का पान करती हैं ।
146. अगर प्रभु से अभक्त भी जुड़ जाते हैं तो वह भी इतने सामर्थ्यवान हो जाते हैं कि स्वयं के उद्धार के साथ दूसरों का उद्धार करने का भी सामर्थ्य उनमें आ जाता है ।
147. जब तक वाणी रहे प्रभु का गुणगान उससे गाए, जब तक कान रहे प्रभु की कथा सुनने में उसे लगाएं ।
148. प्रभु श्री कृष्णजी के प्रति गोप और श्रीगोपीजन का इतना भारी प्रेम का भाव था कि प्रभु के बाल रूप में सुरक्षा के लिए एक पल में वे श्रीगोकुल को छोड़कर श्रीवृंदावन चल दिए । अपना बसा बसाया घर, कामकाज छोड़कर श्रीगोकुल से श्रीवृंदावन जा बसे । प्रभु की सुरक्षा के लिए एक क्षण में निर्णय लिया ।
149. गोपों को भरोसा था कि जब प्रभु हमारे साथ हैं तो हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता इसलिए वे कौतूहल में अजगर के मुँह में भी घुस गए ।
150. जो प्रभु ने हमें योग्यता दी है उस योग्यता का उपयोग प्रभु के लिए ही करना चाहिए ।
151. हमें गाने की योग्यता अगर प्रभु ने दी है तो प्रभु के लिए गाना चाहिए इससे हमारा वह प्रयास भजन बन जाता है ।
152. भक्त के सामने भक्ति के कारण भगवान भी हार मान लेते हैं ।
153. ईश्वर अपनी ईश्वरता भी भक्तों पर न्यौछावर कर देते हैं ।
154. प्रभु की श्रीरासलीला काम विजय लीला है ।
155. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के आवरण यानी पर्दे को कृपा करके प्रभु अपने भक्तों के लिए हटा लेते हैं ।
156. संपूर्ण ऐश्वर्य, संपूर्ण श्री, संपूर्ण धर्म, संपूर्ण ज्ञान और संपूर्ण वैराग्य यह पांच जिनमें हैं वे ही भगवान कहलाते हैं ।
157. भगवती राधा माता कृपारूपिणी हैं ।
158. नेत्र उनके ही सुंदर हैं जिनके नेत्रों में प्रभु बसते हैं ।
159. श्रीगोपीजन ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भी प्रभु के लिए परित्याग कर दिया ।
160. श्रीरास में शामिल होने के लिए श्रीगोपीजन अपने मन को प्रभु प्रेम में सजाकर प्रभु के पास आईं थीं ।
161. प्रभु हमारे जीवन धन, हमारे सर्वस्व और हमारे सब कुछ हो जाने चाहिए ।
162. ज्ञान केवल हमें प्रभु तक जाने का प्रकाश देता है पर भक्ति हमें प्रभु को ही प्रदान कर देती है ।
163. जीवन में प्रभु के होने पर दुनिया में हमें किसी से भी कुछ लेना-देना नहीं होता ।
164. जो मोक्ष भी नहीं चाहते केवल प्रभु को चाहते हैं प्रभु उन्हें अपने स्वयं को ही प्रदान कर देते हैं । इसलिए संत मोक्ष की भी कामना नहीं करते ।
165. प्रभु को छोड़कर किसी से प्रेम करने पर अंत में रोना ही पड़ेगा । इसलिए केवल प्रभु ही प्रेम करने योग्य हैं ।
166. सिर्फ एक प्रभु के साथ ही प्रेम संबंध है जो कि सदा सर्वदा आनंद देने वाला होता है ।
167. संसार का कोई भी संबंध अंत में दुःख ही देता है । इसलिए संबंध केवल और केवल प्रभु के साथ ही रखना चाहिए ।
168. प्रेम हमें प्रभु से जोड़ता है, अभिमान हमें प्रभु से तोड़ता है ।
169. प्रभु जब श्रीबृज में प्रकट हुए तो श्रीबैकुंठ से भी ज्यादा श्रीबृज की जय-जयकार होने लगी ।
170. प्रभु का अशुल्क दास बनना चाहिए यानी बिना मोल का दास बनना चाहिए ।
171. हमारा जीवन पूरा हो जाएगा पर प्रभु की कथा कभी पूरी नहीं हो सकती ।
172. प्रभु कथा का दान करने वाला सबसे बड़ा दानी है ।
173. रोते तो हम भी हैं धन के लिए, परिवार के लिए पर श्रीगोपीजन प्रभु दर्शन के लिए रोती थीं । रोना भी है तो प्रभु के लिए प्रेम में रोना चाहिए ।
174. श्रीगोपीजन से प्रभु कहते हैं कि विधाता की भरपूर उम्र पाकर भी मैं यानी प्रभु श्रीगोपीजन से कभी उऋण नहीं हो सकता ।
175. जो सब जीवों में प्रभु का वास देखे वही सच्चा भागवत् यानी भक्त है ।
176. भगवत् भजन ही माया से बचने का एकमात्र उपाय है ।
177. हमारे मन में दुनिया के लिए वैराग्य और प्रभु के लिए अनुराग होना चाहिए ।
178. संसार के विषयों से मन बंधा हुआ है तो बंधन है और संसार के विषयों से मन छूटा हुआ है तो मुक्ति है ।
179. मन प्रभु से बंधा है तो संसार में रहते हुए भी हम मुक्त हैं ।
180. कलियुग में प्रभु कीर्तन से मुक्ति मिलती है । कलियुग में बड़े अवगुण हैं पर एक महान गुण जिसके कारण राजा परीक्षितजी ने कलियुग को रहने दिया वह यह है कि कलियुग में प्रभु को पाना बहुत सरल है ।
181. श्रीमद् भागवतजी महापुराण प्रभु श्री गोविंदजी हैं । प्रभु श्री गोविंदजी ही श्रीमद् भागवतजी महापुराण हैं ।
182. भक्तों के क्लेश को प्रभु हरते हैं इसलिए प्रभु का एक नाम श्रीहरि है ।
183. जो सर्वदा विद्यमान रहे, जो सर्वदा अपरिवर्तनीय रहे वही सत् स्वरूप प्रभु हैं ।
184. जो चेतन स्वरूप हैं वही चित्त और आनंद स्वरूप प्रभु हैं ।
185. आनंद जहाँ भी है वह प्रभु के कारण ही है ।
186. प्रभु के श्रीचरित्र को सुनने से आनंद की प्राप्ति होती है ।
187. प्रभु कथा सुनने का फल है कि दुःख जीवन से भाग जाता है ।
188. प्रभु कथा सुनने तथा सुनाने के लिए हमें अपने शरीर के साथ-साथ अपने मन को भी कथा में बैठाना चाहिए ।
189. प्रभु अपने भक्तों के लिए अनुपम, अद्वितीय और अलौकिक हैं ।
190. कलियुग में अनीति के अर्थ यानी धन में बहुत सारे अनर्थ छुपे हुए होते हैं ।
191. प्रभु के रूप माधुर्य को जो देखता है वह बावरा ही हो जाता है ।
192. प्रभु सबको स्वीकार करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं ।
193. कथा सब सुनते हैं पर कथा को पकड़ने की क्षमता सबकी अलग-अलग होती है । कथा को ग्रहण सब लोग अलग-अलग प्रकार से करते हैं ।
194. जो प्रभु आश्रय में रहते हैं उनका कोई भी, कभी भी बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
195. शास्त्र ही जीवन में प्रमाण होने चाहिए । जीवन में शास्त्रीय बातों को ही ग्रहण करना चाहिए ।
196. शास्त्र प्रभु के सद्गुण, स्वभाव और प्रभाव का वर्णन करते हैं ।
197. जिनको समाज में कोई स्वीकार करने वाला नहीं था उन 16100 कन्याओं को प्रभु ने पत्नी रूप में स्वीकार किया और उनसे ब्याह किया और प्रभु की पत्नी होने के कारण वे हमारी माताएं बन गईं । यह क्रांतिकारी कार्य प्रभु श्री कृष्णजी ने किया ।
198. श्रीमद् भागवतजी महापुराण कल्पवृक्ष है । जिस घर में श्रीमद् भागवतजी महापुराण रहती है वहाँ मंगल-ही-मंगल होता रहता है ।
199. प्रभु की कोई भी सेवा छोटी या बड़ी नहीं होती है, सेवा तो सेवा होती है । मंदिर में पुजारी द्वारा आरती करने का जो फल है वही मंदिर में सेवक द्वारा झाड़ू लगाने का भी फल है ।
200. कोई सेठ नहीं कहेगा कि यह गरीब मेरा सखा है । पर प्रभु जो सेठों के सेठ हैं वे शान से कहते हैं कि श्री सुदामाजी मेरे सखा हैं ।
201. एक बार अपनाने के बाद प्रभु उस जीव का कभी भी त्याग नहीं करते ।
202. धन आने के बाद हम अपने जीवनधन प्रभु को भूल नहीं जाए इसलिए प्रभु अपने सच्चे भक्तों को धन नहीं देते ।
203. पूर्वकाल में मानसिक पाप का भी दंड हुआ करता था ।
204. मानसिक पुण्य यानी मन से की हुई प्रभु की पूजा या सेवा का कलियुग में फल मिलता है ।
205. शरीर से हम जो भी कर्म करते हैं उसे प्रभु की आराधना मानकर करना चाहिए ।
206. कलियुग में मानसिक पाप का दंड नहीं है पर मानसिक पुण्य का फल मिलता है । इसलिए छप्पन भोग मानसिक रूप से प्रभु को अर्पण कर सकते हैं । मानसिक रूप से श्री शिवलिंगजी पर क्विंटल भर देशी गौ-माता का शुद्ध दूध हम चढ़ा सकते हैं । मानसिक रूप से अर्पण करने पर उसका फल अवश्य मिलेगा, कलियुग की यह महिमा है । यह दिव्य गुण सिर्फ कलियुग में है ।
207. अन्न प्रभु को भोग लगते ही अन्न नहीं रह जाता बल्कि प्रसाद बन जाता है ।
208. कोई भी आभूषण, वस्त्र, भोजन पहले प्रभु को समर्पित करना चाहिए तो उसके सभी दोष दूर हो जाते हैं और फिर उसे प्रभु प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए ।
209. सभी चीजों को प्रभु का प्रसाद बनाकर ही जीवन में स्वीकार करना चाहिए ।
210. प्रभु अपनी कृपा बरसाने के लिए किसी भी रूप में आ सकते हैं ।
211. जैसे एक पिता अपनी बेटी को याद दिलाता रहता है कि तुम्हें पराए घर जाना है वैसे ही संसार हमारा मायका है और संत हमें सावधान करते रहते हैं कि एक दिन हमें प्रभु के परमधाम जाना है ।
212. प्रभु के हर नाम के साथ एक-न-एक श्रीलीला जुड़ी हुई हैं ।
213. सारे जगत में हमें जगत के नाथ यानी श्रीजगन्नाथ के दर्शन करने चाहिए ।
214. मनुष्य जन्म हमें प्रभु को जानने के लिए ही मिला है ।
215. हमारी आवश्यकता जितनी कम होगी हमारी आंतरिक शांति उतनी अधिक होगी ।
216. प्रभु ने अपने शरणागतों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की है ।
217. प्रभु ने अपने शरणागत की रक्षा का व्रत लिया है और प्रभु कभी अपने व्रत को भंग नहीं करते ।
218. जैसे बीमा कंपनी प्रीमियम लेकर बीमा करती है वैसे ही प्रभु शरणागत की रक्षा करते हैं जिसकी प्रीमियम भक्ति है ।
219. जब तक हम प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ग्रहण नहीं करते तब तक किसी भी सूरत में हमारा कल्याण होने वाला नहीं है ।
220. प्रभु का यश श्रवण करते-करते ही जीव का मंगल हो जाता है ।
221. हम अपने प्रयास से कुछ भी नहीं कर सकते । हम जो भी साधन करते हैं वह प्रभु कृपा से ही कर पाते हैं ।
222. प्रभु की कृपा का अंक 1 है उसके आगे साधन के शून्य जोड़ दें तो संख्या बन जाती है । जैसे प्रभु कृपा के अंक 1 के आगे जप का शून्य जोड़ने पर संख्या 10 बन जाती है, फिर भजन का शून्य जोड़ने पर संख्या 100 बन जाती है, फिर पूजा का शून्य जोड़ने पर संख्या 1000 बन जाती है । पर प्रभु की कृपा का 1 अंक हटते ही सभी साधन यानी जप, तप, भजन, सेवा, पूजा के शून्य बस शून्य ही रह जाते हैं ।
223. हमें अपने विवेक के प्रकाश से आत्म निरीक्षण करना चाहिए और अपने आपको देखना चाहिए कि जैसा श्रीग्रंथ आदेश देते हैं वैसा हम कर रहे हैं या नहीं ।
224. प्रभु कथाओं को सुनने से निश्चित लाभ होता ही है ।
225. हमारे रोम-रोम से प्रभु का नाम निकलना चाहिए । भक्तों ने ऐसा करके दिखाया है ।
226. प्रभु अपने भक्तों के इतने अधीन हो जाते हैं कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते । भक्त श्री अर्जुनजी के अधीन होकर प्रभु सारथी बने और युद्ध में नीचे आसन पर बैठे और श्री अर्जुनजी को ऊँचे आसन पर बैठाया ।
227. भक्त श्री सुदामाजी को प्रभु ने अपने आसन पर बैठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठे ।
228. श्रीमद् भगवद् गीताजी में पहले कारण बताया गया है फिर उसका निवारण बताया गया है ।
229. प्रभु मन के रोगों के सबसे बड़े मनोचिकित्सक हैं । प्रभु ने श्री अर्जुनजी की श्रीमद् भगवद् गीताजी के उपदेश से चिकित्सा की ।
230. भौतिकवादी युग में जो सुविधाएं बढ़ी है उससे हमारी पांचों इंद्रियां बेकाबू हो गईं हैं । बाजार में देखने की, सुनने की, सूंघने की, स्पर्श करने की चीजें अत्यधिक हो गई हैं ।
231. श्रीमद् भगवद् गीताजी हमें जीवन जीने की कला सिखाती हैं ।
232. मनुष्य जीवन चौरासी लाख योनियों में श्रेष्‍ठतम जीवन है ।
233. श्रीमद् भगवद् गीताजी एक अति समर्थ श्रीग्रंथ है जो हमारे जीवन को आनंदमय बना देता है ।
234. संसार की कोई भी घटना हमें दुःखी नहीं कर सकती । हम अपनी वृत्ति से ही दुःखी होते हैं ।
235. श्रीमद् भगवद् गीता माता हमारे भारत देश का गौरव है ।
236. श्रीमद् भगवद् गीताजी के मुख्य श्रोता वे हैं जो अशांत हैं और जीवन में शांति चाहते हैं ।
237. जिस पर प्रभु श्री महादेवजी की कृपा नहीं होती वह प्रभु श्री रामजी के तत्व को नहीं पा सकता । प्रभु श्री महादेवजी की सेवा का फल है कि प्रभु श्री रामजी के श्रीकमलचरणों में हमारी भक्ति दृढ़ हो जाती है ।
238. प्रभु श्री महादेवजी परम-परम कल्याण करने वाले देव हैं ।
239. मनुष्य जीवन को भौतिक संसाधनों में उलझाकर व्यर्थ नहीं करना चाहिए ।
240. जीवन में हर समय प्रभु की स्मृति बनी रहनी चाहिए ।
241. प्रभु को जीवन में प्राप्त नहीं किया और अन्य सब कुछ भी प्राप्त कर लिया तो भी वह सब प्राप्त किया हुआ व्यर्थ है ।
242. जो जीव प्रभु की शरणागति ले लेते हैं वे प्रभु की माया का पार पा लेते हैं ।
243. प्रभु को प्रणाम करने का बड़ा महत्व है । प्रभु को प्रणाम करना हमारे पापों का क्षय करता है ।
244. प्रभु ने मनुष्य जीवन इसलिए दिया है कि हम उसका उपयोग कर प्रभु तक पहुँच सकें ।
245. प्रभु का चरणामृत अकाल मृत्यु को हर लेता है और सभी व्याधियों का नाश करता है ।
246. जब किसी वस्तु को प्रभु ग्रहण कर लेते हैं तो वह प्रसाद बन जाती है । प्रभु का प्रसाद पाने का बड़ा महत्व शास्त्रों में कहा गया है ।
247. प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान करने से हमारे जीवन के क्लेश दूर हो जाते हैं ।
248. अपनी जिह्वा का उपयोग केवल प्रभु कीर्तन, प्रभु नाम जप और प्रभु का यशगान गाने के लिए करना चाहिए ।
249. प्रभु के अलावा जीवन में कोई हमारे काम आने वाला नहीं है ।
250. प्रभु के नाम में इतनी अदभुत शक्ति है कि कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो प्रभु का नाम स्मरण करने से उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवत् धाम जाने योग्य बन जाता है ।
251. भगवत् नाम से ही भगवत् धाम हमें मिल सकता है ।
252. प्रभु अकारण करुणा करने वाले हैं । उन्हें तो बस निमित्त चाहिए भक्तों पर कृपा करने के लिए ।
253. जीवन में निरंतर प्रभु की स्मृति बनी रहनी चाहिए और प्रभु का चिंतन होते रहना चाहिए ।
254. प्रभु की कृपा उन सब पर होती है जो प्रभु का चिंतन करते हैं ।
255. प्रभु को केवल और केवल भक्ति ही प्रिय है ।
256. प्रभु की भक्ति करने के लिए प्रभु ने सभी को समान अधिकार दिया हुआ है । कोई भी प्रभु की भक्ति कर सकता है ।
257. दैत्य कुल में जन्म लेने वाले भक्त श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की भक्ति की और प्रभु के परम प्रिय हो गए ।
258. गर्भ में सत्संग मिलने का प्रभाव था कि भक्त श्री प्रह्लादजी बचपन से ही भगवत् भक्ति में तल्लीन रहते थे ।
259. भक्त श्री प्रह्लादजी स्वयं निरंतर भगवत् चिंतन करते रहते थे और जो भी उनके पास जाता था उसे प्रभु चिंतन के लिए प्रेरित करते थे ।
260. जब भक्त श्री प्रह्लादजी के बालक मित्र खेलते थे तो उस समय भी वे प्रभु कीर्तन और प्रभु नाम जप करते थे । इतनी भक्ति भक्त श्री प्रह्लादजी में थी ।
261. भक्त श्री प्रह्लादजी का एक ही काम था निरंतर प्रभु का स्मरण करते रहना ।
262. प्रभु की स्मृति सभी विपत्तियों का नाश करने वाली होती है ।
263. भक्तों के संपर्क में जो भी आता है वे उसे भी प्रभु मार्ग पर मोड़ देते हैं ।
264. भगवत् भक्ति की शुरुआत श्रवण से होती है । प्रभु के बारे में सुनने से प्रभु से अनुराग होता है ।
265. जिसको प्रभु का पूर्ण विश्वास है उस जीव का कोई भी जगत में कुछ नहीं बिगाड़ सकता । पर्वत से गिरते हुए भक्त श्री प्रह्लादजी को प्रभु ने अपनी बांहों में थाम लिया और उन्हें न जाने कितनी विपत्तियों से बचाया ।
266. जिसको प्रभु का भरोसा और जिसको प्रभु का सहारा है उसको मझधार में भी किनारा मिल जाता है ।
267. भगवत् भक्तों का सहारा स्वयं प्रभु बन जाते हैं ।
268. जो प्रभु पर आश्रित हो जाता है और एक कदम प्रभु की तरफ बढ़ाता है तो प्रभु का व्रत है कि प्रभु दस कदम उसकी तरफ बढ़ाते हैं ।
269. जब भवसागर में तैरता हुआ जीव प्रभु के सन्मुख होता है तो प्रभु उसे उठाकर भवसागर के उस पार उतार देते हैं ।
270. अपनी निष्ठा अपने आराध्य पर दृढ़ होनी चाहिए ।
271. प्रभु को सच्चे हृदय से पुकारने की जरूरत है तो प्रभु तत्काल दौड़े चले आते हैं ।
272. प्रभु जिसका हाथ पकड़ते हैं फिर उसे कभी छोड़ते नहीं । उसे अपने गले लगाकर प्रभु उसके सब कष्ट हर लेते हैं ।
273. प्रभु दया के सागर और कृपा के सिंधु हैं ।
274. भक्त श्री प्रह्लादजी और श्री विभीषणजी दैत्यों के बीच रहते हुए भी प्रभु में आसक्त थे और प्रभु का नाम सदा उनकी जिह्वा पर रहता था ।
275. जिह्वा हमें प्रभु नाम उच्चारण हेतु ही मिली है । जिह्वा का एक ही काम है प्रभु का नाम लेना पर हम इसका उपयोग व्यर्थ की बातें करने में करते हैं ।
276. हमें अपने आराध्य पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए । अपने आराध्य की कृपा पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए ।
277. प्रभु के सच्चे भक्तों पर प्रभु की अदभुत कृपा होती है ।
278. प्रभु का नाम जपने वालों को कोई भय या कष्ट नहीं सताते ।
279. हमारी दृष्टि प्रभु दर्शन करने की होनी चाहिए । जीवन में प्रभु की अनन्य भक्ति होनी चाहिए और सर्वत्र प्रभु के दर्शन होने की पात्रता जीवन में आ जानी चाहिए ।
280. प्रभु के भक्त को कोई कष्ट देता है तो प्रभु उसे सहन नहीं करते हैं और प्रभु को क्रोध आ जाता है ।
281. भक्त जैसा चाहता है वैसा प्रभु से करवा लेता है क्योंकि प्रभु भक्त के अधीन होते हैं । यह भक्ति की महिमा है ।
282. जीवन में कोई कष्ट आए तो जगत से नहीं कहें बल्कि श्रीजगदीश से कहें ।
283. जगत अधूरा है केवल जगतपति ही पूरे हैं ।
284. आनंद के बाद परमानंद और परमानंद के बाद ब्रह्मानंद होता है जहाँ तक केवल भक्ति की ही पहुँच है ।
285. प्रभु नाम जपने से ही जीवन में विश्राम मिलता है ।
286. प्रभु जीव पर कृपा करने के लिए कोई-न-कोई बहाना खोज कर किसी-न-किसी को उस कृपा को पहुँचाने का निमित्त बना ही देते हैं ।
287. संकट उनके टलते हैं जो प्रभु में पूर्ण विश्वास रखते हैं ।
288. संकट का डर रखना और प्रभु में विश्वास रखना यह दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं । प्रभु में विश्वास है तो संकट का डर नहीं रहेगा । यह सिद्धांत है ।
289. संतों और भक्तों ने जो भक्ति का मार्ग दिखाया है उसका अनुसरण जीवन में हमें करना चाहिए ।
290. जैसे एक पुष्प कोमल है, सुंदर है और सुगंधित है यानी एक ही पुष्प में तीन गुण है वैसे ही प्रभु सत् स्वरूप, चित् स्वरूप और आनंद स्वरूप हैं ।
291. सत्संग का अर्थ है कि प्रभु की संगति करना यानी प्रभु का संग करना ।
292. प्रभु का स्वाभाविक गुण है कि बिलकुल दोष रहित होना ।
293. प्रभु सद्गुणों के सागर हैं । प्रत्येक सद्गुण प्रभु में विद्यमान हैं ।
294. प्रभु का ध्यान करने से प्रभु के सद्गुण हमारे भीतर भी उतर आते हैं ।
295. प्रभु संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं और सभी जीवों में व्याप्त हैं ।
296. प्रभु जीव को अपने प्रभाव से इतना आकर्षित कर लेते हैं कि जीव को प्रभु की ओर आकर्षित होना ही पड़ता है । इसलिए ही प्रभु का एक नाम प्रभु श्री कृष्णजी है ।
297. केवल प्रभु ही एकमात्र चिंतन करने योग्य हैं ।
298. प्रभु का वाणी से निरूपण नहीं किया जा सकता । वाणी प्रभु का वर्णन करने में सक्षम नहीं क्योंकि श्री वेदजी भी प्रभु का वर्णन करते हुए नेति-नेति कहकर शांत हो जाते हैं ।
299. प्रभु भक्त के पवित्र हृदय में ही अपना निवास बनाते हैं । यह सिद्धांत है ।
300. जिनके हृदय में विकार नहीं और जिनका हृदय पवित्र है उनके हृदय में ही प्रभु अपना स्थाई निवास श्रीमद् भगवद् गीताजी में बताते हैं ।
301. भक्ति का अनुगमन करते हुए प्रभु स्वयं भक्त के हृदय में आ बसते हैं ।
302. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी कहते हैं कि हमारा हृदय प्रभु का भवन है पर इसमें आतंकवादी विकार आ बैठे हैं । श्री तुलसीदासजी प्रभु से निवेदन करते हैं कि प्रभु आप आएं जिससे यह काम, क्रोध, मद और लोभ आदि विकार स्वतः ही भाग जाए ।
303. एक संत ने एक बहुत सुंदर उपमा दी है कि एक सेठजी ने एक बंगला बनाया और फिर उसका एक हिस्सा किराए पर दिया । किराएदार गलत निकले । किसी ने मधुशाला बना ली, किसी ने जुए का अड्डा बना लिया और किसी ने वेश्यालय बना लिया । सेठजी दुःखी हो गए । फिर एक पुलिसवाला उस शहर में आया । उसके सरकारी मकान की मरम्मत हो रही थी तो सेठजी ने उसे अपने घर पर रख लिया । उस पुलिसवाले के आते ही अन्य सब गलत किराएदार भाग गए । इसी तरह प्रभु जब हमारे मन मंदिर में आएंगे तो काम, क्रोध, मद और लोभ आदि विकार अपने आप अपना स्थान खाली करके भाग जाएंगे ।
304. प्रभु श्री कृष्णजी और प्रभु श्री रामजी सदैव मानव चरित्र करते हुए प्रसन्न रहते मिलेंगे । समस्या दोनों ने बहुत देखी पर दोनों मुस्कुराते हुए रहे ।
305. प्रभु ने मानव लीला में दुःख का भी सुख की तरह स्वागत किया । प्रभु ने अपने आचरण में ऐसा प्रत्यक्ष करके दिखाया ।
306. सच्चे संत कहते हैं कि दान लेने से अपना पुण्य नष्ट होता है । इसलिए जहाँ तक हो दान नहीं लेना चाहिए ।
307. जितना भजन करेंगे उतना दान के दोष और दान लेने वाले के दोष को हम दूर कर पाएंगे । अगर भजन नहीं हुआ तो दान लेने वाला दान के दोष में डूब जाएगा ।
308. जो कण-कण में व्यापक रूप से निवास करते हैं वे ही वासुदेव प्रभु हैं ।
309. पौंड्रक ने बहरूपिया बनकर प्रभु का रूप लिया । प्रभु ने श्री उद्धवजी से कहा कि इसने मेरा कितना चिंतन किया होगा मेरे जैसा रूप बनाने के लिए इसलिए प्रभु ने उसके चिंतन से प्रसन्न होकर उसे अपने धाम भेज दिया । इतनी अदभुत और विलक्षण करुणा प्रभु में है ।
310. प्रभु की कथा में इतना भाव आना चाहिए कि श्रोता शब्द के भाव में बह जाए और वक्ता इतने भाव में आ जाए कि उसके शब्द ही शांत हो जाए ।
311. इंद्रियों की वृत्ति से सदैव विरक्त रहना चाहिए ।
312. जिसका हाथ प्रभु ने थाम लिया हो उस भक्त को निश्चिंत हो जाना चाहिए । उसे फिर चिंता की जरूरत नहीं क्योंकि सिद्धांत यह है कि शरणागत को अपनी चिंता त्याग देनी चाहिए क्योंकि उसकी पूर्ण चिंता प्रभु को होती है ।
313. हमें सदा प्रभु के अनुकूल बनकर ही रहना चाहिए ।
314. जैसा प्रभु चाहते हैं हमें वैसा ही व्यवहार करना चाहिए ।
315. जो हमारे प्रभु को पसंद नहीं जैसे छल, कपट प्रभु को नहीं भाते वह हमारे जीवन में नहीं होने चाहिए ।
316. मैं प्रभु का हूँ और प्रभु मेरे हैं यह संबंध होने के नाते यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रभु मेरी रक्षा सदैव करेंगे ।
317. जिन प्रभु पर हमें पूर्ण विश्वास होना चाहिए उन प्रभु पर हम विश्वास नहीं करते और संसार पर हम विश्वास करते हैं ।
318. हमें प्रभु की कृपा का सदैव जीवन में लाभ लेना चाहिए ।
319. प्रभु पर विश्वास होते ही प्रभु दया करके हमें पापमुक्त कर देते हैं ।
320. प्रभु को अपना रक्षक मानकर प्रभु का वरण कर लेना चाहिए । वरण करते ही हमारी जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है ।
321. हमें केवल एक बार ही हृदय की गहराई से कहना है कि प्रभु मैं अभी से केवल और केवल आपका ही हूँ ।
322. प्रभु का बनकर रहने वाले का पूरी त्रिलोकी में कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
323. भजन करने में अगर मन नहीं भी लगे तो भी करते रहने से प्रभु कृपा करते हैं ।
324. अपने आप को डंडे की तरह सीधा प्रभु के श्रीकमलचरणों में डाल देना चाहिए ।
325. भक्त के जीवन में जितना भक्ति भाव बढ़ेगा उतनी विनम्रता उसकी वाणी और व्यवहार में आती चली जाएगी ।
326. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी प्रभु श्री हनुमानजी का परिचय देते हुए उनके गुण गिनाते-गिनाते थक गए और अंत में कह दिया सकल गुण निधानं ।
327. जो भक्त प्रभु को अपना सर्वस्व मान लेता है प्रभु उसके पीछे-पीछे चलते हैं ।
328. हमें अपेक्षा सिर्फ प्रभु से रखनी चाहिए । संसार से कभी कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए ।
329. जिन प्रभु का हमने वरण किया है मांगना है तो उन प्रभु से ही मांगना चाहिए ।
330. हमें प्रभु के सभी रूपों से एक बात मांगनी चाहिए कि हमारे इष्ट में हमारा अनुराग दिनों-दिन बढ़ता चला जाए ।
331. प्रभु जो करेंगे अच्छा ही करेंगे, यह पूर्ण विश्वास प्रभु पर हमें होना चाहिए ।
332. जो संतोषी है वह सबसे बड़ा धनवान है । जिसकी चाह बनी हुई है वह दरिद्र है । शास्त्रों का यह मत है ।
333. जो पूर्ण विश्वास प्रभु पर रखता है वह जीवन में सदैव मौज में रहता है ।
334. भक्तों के पास जो प्रभु धन होता है वह कोई नहीं लूट सकता और वह दिनों-दिन बढ़ता ही जाता है ।
335. हमें संसारी धन की रक्षा करनी पड़ती है परंतु हमें प्रभु नामरूपी धन की रक्षा नहीं करनी पड़ती अपितु प्रभु नामरूपी धन ही हमारी रक्षा करता है ।
336. जिनको श्रीराम नाम के रत्न का मूल्यांकन जीवन में समझ में आ जाता है वे उसे कमाने में ही अपना जीवन लगा देते हैं ।
337. प्रभु सिर्फ उन्हें अर्पण की जाने वाली वस्तु का प्रेम देखते हैं, वस्तु नहीं देखते केवल उसके भीतर छिपा प्रेम भाव देखते हैं ।
338. प्रभु उनके खास बन जाते हैं जो प्रभु से विशेष प्रेम करते हैं ।
339. जीवन भर हमें प्रभु का ही बनकर रहना चाहिए ।
340. श्री महाभारतजी के युद्ध का निर्णय उस दिन ही हो गया जिस दिन श्री अर्जुनजी ने अपने रथ की बागडोर प्रभु को सौंप दी और प्रभु ने बागडोर अपने हाथों में ले ली । दुर्योधन ने प्रभु की सेना ले ली और श्री अर्जुनजी ने बिना अस्त्र उठाने के प्रण के साथ प्रभु को स्वीकार किया । युद्ध का निर्णय उसी समय हो गया ।
341. प्रभु की अत्यंत बड़ी नारायणी सेना का विश्वास दुर्योधन ने किया और प्रभु की उपेक्षा की इसलिए वह युद्ध हार गया ।
342. प्रभु पर भरोसा श्री अर्जुनजी की प्रवृत्ति है । भौतिकता पर भरोसा दुर्योधन की प्रवृत्ति है । हमें देखना है कि हम किस प्रवृत्ति के हैं ।
343. सभी सद्गुणों से बड़ा सद्गुण भक्तिरूपी सद्गुण है ।
344. जीव का कोई भी सद्गुण भक्ति के बिना प्रभु को नहीं सुहाता ।
345. श्री अर्जुनजी के यह भाव थे कि मुझे सिर्फ प्रभु चाहिए, अन्य कुछ मिले या न मिले उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ।
346. प्रभु सबसे पहले । मेरा सुख, परिवार, विद्या, शरीर सब बाद में । यह भाव जीवन में स्थिर होना चाहिए ।
347. मुझे सबसे पहले प्रभु चाहिए, यह दृढ़ भावना जीवन में होनी चाहिए ।
348. प्रभु श्री कृष्णजी का साथ श्री अर्जुनजी के पास अगर नहीं है तो यह बात श्री अर्जुनजी सह ही नहीं सकते थे ।
349. सभी सद्गुणों का शिरोमणि सद्गुण है भक्ति ।
350. भक्ति सर्वोच्च जीवन मूल्य है ।
351. भक्ति का जीवन के आरंभ में, मध्य में और अंत में कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए ।
352. मनुष्य की पहचान सिर्फ प्रभु से होनी चाहिए ।
353. मैं कौन हूँ, मैं भगवान का हूँ । यही एकमात्र पहचान जीव की होनी चाहिए ।
354. अनेक बुराइयों वाला जीव भी अगर भक्ति में लग जाता है तो भक्ति उन बुराइयों को नष्ट कर देती है ।
355. भक्ति आने के बाद ज्ञान और वैराग्य स्वतः ही बिना बुलाए चले आते हैं ।
356. जीवन में सदैव प्रभु का ही चयन करना चाहिए ।
357. दिनभर प्रभु की याद सताने लग जाए तो यह विश्वास करना कि भक्ति परिपक्व हो रही है । प्रभु कृपा कर रहे हैं, यह हमें उस समय मानना चाहिए ।
358. नदियां जैसे सागर से मिलकर अपनी पहचान खो देती हैं वैसे ही भक्त भगवान से मिलकर अपनी पहचान खो देते हैं ।
359. भक्त भगवतमय हो जाते हैं । वे केवल भगवान के ही रह जाते हैं ।
360. प्रभु के साथ कोई-न-कोई संबंध जीवन में जरूर जोड़ना चाहिए । राजा श्री जनकजी ने प्रभु के साथ ससुर का संबंध जोड़ा क्योंकि पिता का संबंध पहले ही महाराज श्री दशरथजी के साथ जुड़ चुका था । ससुर का संबंध बचा हुआ था जो राजा श्री जनकजी ने प्रभु को देखते ही तुरंत प्रभु के साथ जोड़ लिया ।
361. श्री लक्ष्मणजी ने जब देखा कि मिथिलावासी प्रभु का दर्शन करना चाहते हैं तो उन पर अनुग्रह करने के लिए उन्होंने प्रभु से कहा कि मैं श्रीमिथिला नगरी देखना चाहता हूँ । ऋषि श्री विश्वामित्रजी से आज्ञा लेकर प्रभु श्रीमिथिला नगरी देखने को निकले और सबको अपने दर्शन देकर धन्य किया । इस प्रकार श्री लक्ष्मणजी ने सभी मिथलावासियों पर उपकार किया ।
362. भक्तों की यह चेष्टा रहती है कि जो भी जीव उनके संपर्क में आए उसको भक्ति के पथ पर कैसे लाया जाए ।
363. प्रभु के दर्शन से ही हमारे नेत्र सफल होते हैं ।
364. मनुष्य को प्रभु ने बुद्धि देकर स्वतंत्र कर दिया जो मनुष्य करना चाहे वह मनुष्य कर सकता है । जो कर्म वह करता है उसका फल उसे मिलता है ।
365. हम एक मच्छर को भी मारते हैं तो उसकी चीत्कार हमें सुनाई नहीं देती पर उसकी चीत्कार प्रभु को सुनाई देती है ।
366. प्रभु ही जगत के दुःख को समझते हैं ।
367. प्रभु जगत को धर्म का मार्ग दिखाने के लिए अवतार लेते हैं ।
368. श्री रामावतार अनुकरण का विषय है । श्री कृष्णावतार चिंतन का विषय है ।
369. हम सत्कर्म करते हैं तो प्रभु हमारी बुद्धि को और भी अधिक प्रकाशित करते हैं ।
370. प्रभु पर संदेह करने वाला प्रभु का भक्त नहीं हो सकता ।
371. प्रभु अपने भक्त के अभिमान को एक पल के लिए भी नहीं सह सकते ।
372. प्रभु हमारे लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं और बदले में हमसे कुछ भी नहीं चाहते । संसार में प्रभु के अलावा ऐसा करने वाला और कोई नहीं है जो हमारे लिए सब कुछ करे और बदले में हमसे कुछ भी नहीं चाहे ।
373. श्रीभीष्म पितामह ने मृत्युशय्या पर लेटे-लेटे प्रभु के हजार नामों से यानी सहस्त्रनाम से प्रभु का अर्चन किया था ।
374. हमें अपनी मति यानी बुद्धि प्रभु को अर्पित कर देनी चाहिए ।
375. पूरे त्रिभुवन में कोई भी प्रभु के समान सौंदर्यवान नहीं है ।
376. जो जीव मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ भी प्रभु को अपने सामने ध्यान में रखता है उससे बड़ा सौभाग्यशाली और कोई नहीं ।
377. प्रभु का स्मरण मृत्युशय्या पर आ जाए ऐसा नसीब बड़े सौभाग्यवान का ही होता है ।
378. प्रभु को कभी भी अपने से अलग नहीं करना चाहिए ।
379. जीवन में कुछ भी काम करें पर स्मरण हर समय केवल प्रभु का ही रखना चाहिए ।
380. हमें सदा प्रभु की भक्ति में ही तल्लीन रहना चाहिए ।
381. जैसा जीवन प्रभु ने हमें दिया है उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए ।
382. अपने वैराग्य को हृदय में धारण करके रखना चाहिए ।
383. प्रभु की कथा का रसास्वादन करना प्रभु से प्रेम करने का सबसे सर्वोत्तम और सरलतम उपाय है ।
384. प्रभु की कथा सुनकर उसका मनन जरूर करना चाहिए ।
385. जीवन की व्यथा प्रभु कथा सुनने से समाप्त हो जाती है ।
386. किसी भी विपत्ति में हमें प्रभु शरण में चले जाना चाहिए ।
387. संसार में ऐसा कोई नहीं जिसके जीवन में प्रश्न न हो और उसका उत्तर प्रभु से उसने चाहा न हो ।
388. प्रभु न तो यज्ञ, पूजा या भजन से मिलते हैं, प्रभु तो सिर्फ भक्ति से ही मिलते हैं ।
389. प्रभु अपने को अर्पण किए भोग के अंदर झाँककर देख लेते हैं कि उसमें अर्पण करने वाले का भाव छिपा है कि नहीं ।
390. वही पूजा और भजन सार्थक है जो हमारे मन में प्रभु के लिए भाव का निर्माण कर दे ।
391. हमारे भीतर प्रभु के लिए भाव की प्रधानता होनी चाहिए ।
392. सच्ची भक्ति में प्रभु के लिए भाव की प्रधानता सदैव होती है ।
393. श्रीगोपीजन के सभी कर्म भाव प्रधान थे । वे सदैव प्रभु के लिए अपने मन में सर्वोत्तम भाव रखती थीं ।
394. हमें प्रभु भक्ति का पावन प्रचार करना चाहिए ।
395. काम, क्रोध, मद और लोभ से हमारी रक्षा सिर्फ प्रभु ही कर सकते हैं । अन्य सभी विकारों से भी हमारी रक्षा सिर्फ प्रभु ही कर सकते हैं ।
396. हमें दुःख में सबसे ज्यादा प्रभु का स्मरण होता है इसलिए भगवती कुंतीजी ने प्रभु से दुःख की याचना की ।
397. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमारा कल्याण करने वाली प्रभु और प्रभु भक्तों की कथा है ।
398. प्रभु जब भक्ति के कारण एक बार जीवन में आ जाते हैं तो फिर कभी हमें छोड़कर वापस नहीं जाते ।
399. प्रभु से कभी भी कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए ।
400. सुदामापुरी बनने के बाद भक्त श्री सुदामाजी और अधिक निष्ठा से प्रभु के भजन में लग गए । प्रभु द्वारा प्रदान वैभव से वे विचलित नहीं हुए ।
401. संसार का धन तुच्छ है । प्रभु नामरूपी धन ही श्रेष्‍ठतम धन है ।
402. प्रभु श्री महादेवजी एवं प्रभु श्री विष्णुजी एक दूसरे के पूरक हैं ।
403. एक संत का भाव है कि प्रभु के पास मन नहीं है क्योंकि प्रभु के मन को भगवती राधा माता ने चुरा रखा है । इसलिए प्रभु अपने भक्तों से उनका मन मांगते हैं । भक्तों का निर्मल मन इसलिए प्रभु को अतिशय प्रिय है ।
404. प्रभु परमानंद देने वाले हैं । जहाँ प्रभु हैं वही परमानंद होता है ।
405. प्रभु को केवल पकड़ना आता है, प्रभु को छोड़ना नहीं आता । इसलिए प्रभु एक बार भक्तों को पकड़ लेते हैं तो फिर उन्हें कभी छोड़ते नहीं ।
406. प्रभु इतने कृपालु हैं कि पूतना को भी मुक्ति दी और साथ ही पूतना ने जितने बालकों को तब तक मारा था उन सबको भी मुक्ति दे दी ।
407. जिसको प्रभु अपना लेते हैं उसका जीवन भी महक जाता है और मृत्यु भी महक जाती है । पूतना को जब जलाया गया तो उसके शरीर से सुगंध निकली ।
408. प्रभु जैसी दया और करुणा कौन कर सकता है कि जहर देने वाली पूतना को भी मुक्ति दे दी ।
409. प्रभु कारण रहित दयालु हैं । प्रभु को यह नाम गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने दिया है । हम दूसरे पर दया करने का कारण देखते हैं पर प्रभु अकारण ही कृपा और दया बरसाते हैं ।
410. प्रभु जैसा दया और कृपा का स्वभाव न किसी का सुनने में आता है और न ही देखने में आता है । इतने दयालु और कृपालु प्रभु हैं ।
411. शकटासुर लीला में भगवती यशोदा माता ने शकट को यानी माया को ऊपर और प्रभु को नीचे रख दिया । हम जीव भी ऐसा ही करते हैं कि प्रभु को नीचे और मायातीत चीजों को जीवन में ऊपर रख देते हैं । यह एकदम गलत है । इसलिए ही भक्त जब ऐसा करता है तो प्रभु शकट को लात मारते हैं और उसे उलटा देते हैं यानी भक्त को माया रहित कर देते हैं ।
412. सांसारिक भय पर प्रभु की भक्ति सदैव विजयी होती है ।
413. प्रभु के अनंत रूप, अनंत नाम और अनंत चरित्र हैं ।
414. प्रभु श्री कृष्णजी के नाम का अर्थ है कि जो भक्तों के चित्त को खींच ले, चित्त का आकर्षण कर ले ।
415. जो भक्त प्रभु को सब कुछ समर्पित कर देते हैं, प्रभु भी कह देते हैं कि केवल वही भक्त मेरे अपने हैं ।
416. प्रभु का नाम गाने वाले को प्रभु अपनी ओर खींच लेते हैं ।
417. कलियुग में जितना हो सके हमें प्रभु नाम का आश्रय लेना चाहिए ।
418. प्रभु श्री कृष्णजी के नाम में "क" के नीचे जो हलंत की मात्रा है उसकी व्याख्या करते हुए संत कहते हैं कि जैसे मछुआरे का कांटा होता है जिसमें मछली फंस जाती है वैसे ही प्रभु श्री कृष्ण के "क" के नीचे हलंत नुमा कांटा है जिसमें भक्त फंस जाते हैं ।
419. जितना रस प्रभु की भक्ति में है उतना रस संसार में कहीं भी और किसी में भी नहीं है । ऐसा भक्तों का अनुभव है ।
420. प्रभु की हर श्रीलीला भक्त के भाव के अनुसार होती है । जैसा भक्त चाहता है वैसा ही प्रभु करते हैं ।
421. जब-जब भी भक्त भाव से बुलाते हैं प्रभु आते हैं क्योंकि भावविभोर होकर प्रभु को आना ही पड़ता है ।
422. श्रीगोपीजन को आनंद देने के लिए प्रभु उनके घर जाकर माखन चुराते थे । श्री नंदबाबा के यहाँ नौ लाख गौ-माताएं थीं । वहाँ दूध, दही और माखन की कोई कमी नहीं थी । फिर भी प्रभु श्रीगोपीजन को आनंद देने के लिए उनके घर जाकर माखन चुराते थे ।
423. प्रभु कभी ऊंच-नीच नहीं देखते, कभी किसी से भेदभाव नहीं करते ।
424. शरीररूपी मटकी में हमारा हृदय ही माखन है । प्रभु जब माखन खाने आते हैं तो मटकी जरूर तोड़ते हैं । संकेत यह है कि प्रभु जब हृदयरूपी माखन खाने आएंगे तो शरीररूपी मटकी को फोड़ देंगे यानी शरीर में आवागमन से सदैव के लिए हमारी आत्मा को मुक्ति मिल जाएगी और फिर हमें कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ेगा ।
425. प्रभु अपने आश्रितों को बड़ा आदर देते हैं ।
426. प्रभु के स्मरण में ही जीवन का आनंद छिपा हुआ है ।
427. प्रभु सिर्फ चाहते हैं कि याद सिर्फ प्रभु को करें । काम संसार का करें पर उस समय याद प्रभु को ही करें ।
428. शास्त्र को ही हर स्थिति में अंतिम प्रमाण मानना चाहिए ।
429. जो प्रभु के श्रीकमलचरणों से लिपट जाता है वह भय रहित हो जाता है ।
430. प्रभु की कथा प्रभु की प्राप्ति के लिए सुनी जानी चाहिए ।
431. हमारी ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय अगर दूषित भी हो जाए तो भी हमारा बाल बाँका नहीं होगा अगर हम अपने मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लिपटा कर रखेंगे ।
432. मन बड़ा चंचल और बलवान है इसलिए उसे प्रभु में लगाने से ही वह नियंत्रण में रहेगा ।
433. हम मायाधीन हैं और प्रभु मायापति हैं, यह कितना बड़ा फर्क है ।
434. बड़े-बड़े ऋषि भी प्रभु को जानने का प्रयास करने पर मोहित हो जाते हैं ।
435. प्रभु को जानना भी चाहिए और उससे भी जरूरी है प्रभु को जीवन में अपना सब कुछ मानना भी चाहिए ।
436. श्रीमद् भागवतजी महापुराण हमारा कल्याण-ही-कल्याण करती है ।
437. दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के तापों को श्रीमद् भागवतजी महापुराण समाप्त कर देती है ।
438. प्रभु के प्रत्येक नाम में दुनिया के सभी भय, रोग और शोक को दूर करने की शक्ति है ।
439. तन का रोग हो, मन में शोक हो या धन का भय हो फिर भी हमें कष्ट या दुःख न हो यह हमें श्रीमद् भागवतजी महापुराण सिखाती है ।
440. परमानंद चाहिए तो सच्चिदानंद प्रभु को ही जीवन में पकड़ना पड़ेगा ।
441. अपने मन को वहाँ ले जाना चाहिए जहाँ प्रभु की चर्चा होती हो ।
442. प्रभु हमारे प्राणों के आधार यानी प्राणाधार हैं ।
443. प्रभु के नाम का आश्रय लेने से सभी शोक, रोग और भय का नाश हो जाता है ।
444. प्रभु के पास श्री, ऐश्वर्य और कीर्ति सब कुछ की परिपूर्णता है ।
445. जगत से आशा नहीं रखनी चाहिए, जगतपति प्रभु से ही आशा रखनी चाहिए ।
446. कलियुग में प्राणी मात्र का एक ही कर्तव्य होना चाहिए कि प्रभु के नाम को पुकारना और प्रभु नाम का आश्रय लेना ।
447. सर्वत्र मदद करने वे ही आ सकते हैं जो सर्वत्र मौजूद हों और ऐसे केवल प्रभु ही हैं ।
448. जो भक्ति माता का आश्रय लेते हैं उनके जीवन में ज्ञान और वैराग्य स्वतः ही चल कर आ जाते हैं । उन्हें ज्ञान और वैराग्य के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता और न ही अलग से प्रयास करना पड़ता है ।
449. सभी में एक प्रभु का दर्शन करना चाहिए । प्रणाम सभी देवों को करना चाहिए पर सबमें दर्शन अपने एक इष्ट का करना चाहिए ।
450. अपने इष्ट को कभी भी बदलना नहीं चाहिए ।
451. प्रभु की भक्ति अनन्य होनी चाहिए ।
452. दर्शन प्रभु के सभी रूपों का करें पर उनमें दर्शन अपने इष्ट का ही करें ।
453. अनन्य भक्ति सिर्फ एक प्रभु की करनी चाहिए । अगर भक्ति प्रभु श्री कृष्णजी की है तो प्रभु श्री रामजी के श्रीहाथ में भी हमें बांसुरी दिखनी चाहिए । अगर भक्ति प्रभु श्री रामजी की है तो प्रभु श्री कृष्णजी के श्रीहाथ में भी हमें धनुष-बाण दिखना चाहिए ।
454. अगर जीवन में मांगना ही पड़े तो प्रभु से मांगें, अन्य किसी से मत मांगें, केवल अपने इष्ट से ही मांगें ।
455. जैसे भगवती मीराबाई ने प्रभु श्री कृष्णजी से भक्ति और प्रेम का संबंध बनाया वैसे ही हमें अपने इष्ट से भक्ति और प्रेम का संबंध बनाना चाहिए ।
456. श्रीमद् भागवतजी महापुराण भागवत यानी भगवान के भक्तों की कथा है । इसलिए वह भगवत् कथा नहीं भागवत कथा है ।
457. श्री अर्जुनजी ने जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आते हुए देखा तो उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र नहीं चलाया अपितु प्रभु को पुकारा । उनको अपने ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा प्रभु पर भरोसा था ।
458. जब भगवती उत्तरा ने देखा कि अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र आ रहा है तो उन्होंने अपने सास-ससुर को नहीं पुकारा बल्कि तुरंत प्रभु को पुकारा । सिद्धांत यह है कि विपत्ति में हर समय प्रभु को ही पुकारना चाहिए क्योंकि सबसे जल्दी प्रभु ही आएंगे, अन्य कोई भी नहीं आ सकता ।
459. प्रभु हर जगह हैं पर अपनी माया के द्वारा छुपे रहते हैं ।
460. भगवती कुंतीजी ने मांगा कि एक विपत्ति जाने से पहले दूसरी विपत्ति आ जाए । उन्होंने मांगा कि जीवन में दुःख और विपत्ति सदा बनी रहे क्योंकि विपत्ति में प्रभु का संग सदा मिलता है ।
461. जिसने जीवन में प्रभु का भजन नहीं किया हो उसे मृत्यु की बेला पर एक लाख बिच्छू के डंक मारने जितनी पीड़ा झेलनी होती है ।
462. सतयुग का धाम श्री बद्रीनाथजी, त्रेता का धाम श्री रामेश्वरजी, द्वापर का धाम श्री द्वारकाजी और कलियुग का धाम श्री जगन्नाथ पुरीजी । इस प्रकार चारों धामों की महिमा है ।
463. प्रभु श्री कृष्णजी शब्दब्रह्म के रूप में श्रीमद् भागवतजी महापुराण में विराजते हैं । इसलिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण को मात्र पोथी नहीं समझना चाहिए ।
464. जिस पर प्रभु प्रसन्न होते हैं उसे धन नहीं बल्कि सद्बुद्धि देते हैं जिससे वह मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सके ।
465. जुए में, मदिरा में, वेश्यालय में, हिंसा में और छल, कपट, चोरी एवं बेईमानी से अर्जित धन में कलियुग का वास है ।
466. जिसको प्रभु अपनाते हैं उस पर प्रभु संसार का दाग लगा कर छोड़ देते हैं जिस कारण दुनिया की नजर उस पर नहीं जाती और वह सिर्फ प्रभु की नजरों में ही रहता है ।
467. प्रभु से कभी चतुराई नहीं करनी चाहिए ।
468. प्रभु के भक्त कलिकाल में भक्ति का प्रचार करते हैं ।
469. श्रवण भक्ति यानी प्रभु के बारे में बचपन से सुन-सुनकर भगवती रुक्मिणी माता प्रभु से प्रेम करने लग गई । श्रवण भक्ति का इतना बड़ा महत्व है ।
470. एक बार जो सच्चे मन से प्रभु की कथा सुन लेता है उसे प्रभु से प्रेम हो जाता है और वह अपना सब कुछ प्रभु पर न्यौछावर कर प्रभु का हो जाता है ।
471. ब्रह्माण्ड में सब जगह केवल एक प्रभु की ही सत्ता है ।
472. प्रभु को कोई बंधन में नहीं बांध सकता । जब प्रभु चाहते हैं तो ही वे भक्ति के बंधन में आते हैं ।
473. हमारी वाणी हमेशा प्रभु का गुणगान करती रहनी चाहिए ।
474. प्रभु संसार के सभी प्राणियों से प्रेम करते हैं ।
475. शरण में आए हुए शत्रु को भी प्रभु कभी नहीं त्यागते ।
476. भक्त सिर्फ प्रभु के श्रीकमलचरणों की धूलि चाहते हैं ।
477. हमें सदैव प्रभु की कीर्ति का गान करते रहना चाहिए ।
478. प्रभु के स्वरूप का दर्शन करना ही हमारी आँखों का एकमात्र धर्म होना चाहिए ।
479. भक्त श्री सूरदासजी पर प्रसन्न होकर प्रभु और माता ने एक बार प्रकट होकर उन्हें नेत्रदान दिया । श्री सूरदासजी ने जी भरकर हर तरफ से प्रभु और माता का दर्शन किया । फिर प्रभु से निवेदन किया कि यह नेत्र ज्योति अब वापस ले लें । प्रभु ने पूछा क्यों ? श्री सूरदासजी ने कहा कि अब इन नेत्रों ने आप दोनों का दर्शन कर लिया फिर इनसे अब अन्य कुछ देखने की इच्छा ही नहीं है । श्री सूरदासजी ने कहा कि अब इन नेत्रों को वे संसार दिखाना भी नहीं चाहते ।
480. प्रभु पतितों को पावन करने वाले हैं ।
481. जिन्हें समाज ने स्वीकार नहीं किया उन अजामिल, गीध और गणिका को भी प्रभु ने स्वीकार किया ।
482. शरण में आए हुए को प्रभु कभी नहीं त्यागते । शरणागत की रक्षा का प्रभु का व्रत है ।
483. ऐसा कोई रोग, शोक और भय नहीं जिसका समाधान श्रीमद् भागवतजी महापुराण नहीं करती ।
484. जब सब तरफ से विश्वास टूट जाए तो भी अंतिम विश्वास प्रभु का ही होना चाहिए ।
485. कलियुग में प्रभु का नाम ही शब्द ब्रह्म है । इसलिए कलियुग में केवल प्रभु नाम ही आधार है ।
486. ऐसा कुछ भी नहीं जिसका निदान श्रीमद् भगवद् गीताजी में नहीं किया गया हो ।
487. प्रभु अपने भक्तों को निरंतर याद करते रहते हैं ।
488. जब जीवन में संतोष धन आता है तो अन्य धन धूलि समान हो जाते हैं ।
489. प्रभु श्वास-श्वास से हमारे हृदय में प्रवेश करते हैं और हमारे भीतर रमण करते हैं ।
490. मानव जीवन का सबसे बड़ा लाभ प्रभु की भक्ति करना है ।
491. भक्त और भगवान भक्ति के कारण एक डोर से बंध जाते हैं ।
492. प्रभु श्री शुकदेवजी ने सीधे श्री सुदामाजी का संबोधन नहीं किया बल्कि प्रभु का नाम उनके आगे जोड़कर श्री सुदामाजी का संबोधन किया । श्री सुदामाजी के नाम के आगे प्रभु नामरूपी विशेषण लगा । इतने बड़े भक्त श्री सुदामाजी हैं ।
493. अधूरी वासना और तृष्णा को लेकर जो मरता है उसे बार-बार अलग-अलग योनि में जन्म लेना पड़ता है ।
494. प्रभु का न्याय सदैव बड़ा ही अदभुत और विलक्षण होता है ।
495. जीवन हमें भोगों को भोगने के लिए नहीं मिला है ।
496. संतोष जीवन में न आए तो यह जीवन क्लेश बन जाता है ।
497. प्रभु भी अपने भक्त का इंतजार करते हैं ।
498. प्रभु सदैव अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले कार्य करते हैं ।
499. प्रभु को पदार्थ नहीं हमारा प्रेम चाहिए, प्रभु को वित्त नहीं हमारा चित्त चाहिए ।
500. प्रभु का स्वभाव है कि भक्तों पर राजी हो जाए तो अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं ।
501. प्रभु के जैसा कृपालु और दयालु पूरी त्रिलोकी में कोई नहीं है ।
502. भक्ति करने वाला जीव कभी लौटकर संसार में वापस नहीं आता ।
503. भक्ति जगाने का सबसे सरल उपाय प्रभु की कथा का श्रवण है जिसमें श्रीमद् भागवतजी महापुराण सबसे अग्रणी है ।
504. धरती पर सबसे भाग्यशाली वह व्यक्ति है जिसके हृदय में भक्ति महारानी विराजती हैं ।
505. हम भक्ति के द्वारा प्रभु की अनुभूति कर सकते हैं ।
506. संत व्यक्ति का जीवन कठिन होता है पर अंत भला होता है । दुर्जन व्यक्ति का जीवन अच्छा होता है परंतु अंत बहुत बुरा होता है ।
507. श्री सनतकुमारजी एवं अन्य ऋषिजन नित्य श्रीमद् भागवतजी महापुराण कथा का श्रवण करते हैं । वे बारह महीने प्रभु कथा का श्रवण करते रहते हैं ।
508. ऋषि श्री सनकादिकजी सर्वदा श्रीहरि स्मरण का जाप करते रहते हैं ।
509. भक्ति का मंत्र और मुक्ति का मंत्र - "श्री हरि शरणम्" है ।
510. श्रीमद् भागवतजी महापुराण कथा के प्रथम कथा व्यास श्री सनकादिक ऋषि थे । आयोजक देवर्षि प्रभु श्री नारदजी थे और श्रोता भगवती भक्ति महारानी और उनके पुत्र ज्ञान और वैराग्य थे । इससे पता चलता है कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण की कथा कितनी दिव्य है ।
511. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से सारे गलत कर्म और गलत प्रारब्ध नष्ट हो जाते हैं ।
512. हमें सब कुछ भूलकर, यहाँ तक कि स्वयं को भी भूलकर प्रभु कथा का श्रवण करना चाहिए ।
513. शब्दब्रह्म से परब्रह्म तक की यात्रा श्रीमद् भागवतजी महापुराण है ।
514. संसार उसी का नाम है जहाँ सदैव अभाव रहता है । परिपूर्ण तो केवल प्रभु ही हैं ।
515. संसार में भी परिपूर्णता केवल प्रभु सानिध्य से ही मिलेगी ।
516. ब्रह्म के लिए तर्क भी नहीं करना चाहिए, कुतर्क तो बहुत दूर की बात है ।
517. आनंद तो केवल एकांत में रहकर प्रभु भजन करने में ही है ।
518. जिसने प्रभु श्री कृष्णजी के माधुर्य रस का पान कर लिया उसे संसार से विरक्ति हो जाती है ।
519. परमानंद तो केवल भक्त को ही मिलता है, चक्रवर्ती राजा को भी नहीं मिलता ।
520. हमें मानव जीवन भगवत् अनुभूति के लिए ही मिला है ।
521. हमें शरीर, पुत्र, पौत्र, पत्नी, धन-संपत्ति के मोह का त्याग करना चाहिए, इनमें ममत्व बुद्धि का त्याग करना चाहिए ।
522. प्रभु ही हमारे एकमात्र आश्रय होने चाहिए ।
523. लौकिक व्यवहार का त्याग करके प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही मन लगाना चाहिए ।
524. नित्य प्रतिदिन भगवत् कथा का श्रवण करते रहना चाहिए ।
525. जिस घर में श्रीमद् भागवतजी महापुराण के एक श्लोक का भी चिंतन रोजाना होता है वह घर श्रीबैकुंठ बन जाता है ।
526. जीवन में भगवत् कथा का रसपान नित्य करना चाहिए ।
527. संसार में भिन्न-भिन्न आसक्तियों के कारण हमारा बंधन होता है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण के श्रवण से एक-एक दिन में आसक्तियां खत्म होती चली जाती हैं । सच्चे भक्त की सात दिनों में सभी आसक्तियां छूट जाती हैं । इतना बड़ा सामर्थ्य श्रीमद् भागवतजी महापुराण में है ।
528. हमें अपने आत्म उद्धार के लिए ही प्रभु की कथा सुननी चाहिए । केवल व्यवहारिक दृष्टि से यानी संसार को व्यवहार दिखाने के लिए कथा का सेवन करने से कोई बड़ा लाभ नहीं होता ।
529. प्रभु कथा श्रवण करके उसका नित्य चिंतन और मनन करना चाहिए ।
530. प्रभु की कथा को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए ।
531. भगवत् श्रीकमलचरणों में प्रभु से भक्ति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ।
532. प्रभु से कहना चाहिए कि आप मुझ पर प्रसन्न हों । कथा श्रवण के बाद प्रभु से यह निवेदन जरूर करना चाहिए ।
533. समस्त शास्त्रों का सार भगवत् भक्ति ही है ।
534. सारी दुनियादारी को छोड़कर मन को प्रभु के भजन में लगाना चाहिए ।
535. प्रभु के लिए जो अपना सब कुछ समर्पित कर देते हैं, प्रभु भी स्वयं को ऐसे भक्तों पर समर्पित कर देते हैं ।
536. प्रभु केवल हमारा प्रेम चाहते हैं । इसलिए प्रभु से प्रेम करना चाहिए ।
537. प्रभु से कभी कुछ मांगना नहीं चाहिए क्योंकि प्रभु को पता है कि हमारी क्या आवश्यकता है ।
538. चाहे जीवन में दुःख हो या सुख हो, प्रभु का स्मरण जीवन में निरंतर करते रहना चाहिए ।
539. प्रभु से सिर्फ प्रेमाभक्ति ही मांगनी चाहिए । अन्य कुछ भी नहीं मांगना चाहिए, यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं मांगना चाहिए ।
540. जो प्रभु को भजता है, प्रभु भी उनको भजते हैं ।
541. श्रीगोपीजन प्रभु प्रेम के जीवंत उदाहरण हैं ।
542. जो प्रभु से प्रेम करते हैं प्रभु भी उनसे अधिक उन्हें प्रेम करते हैं ।
543. भक्तों के जीवन में जितने भी कष्ट आते हैं उनकी भक्ति उतनी ही दृढ़ होती चली जाती है ।
544. भक्ति करने वाले को लोग रोकेंगे और टोकेंगे पर भक्त किसी के रोके नहीं रुकता ।
545. जो भजन में बाधक हैं उसका संग जीवन में छोड़ देना चाहिए ।
546. हमारा प्रभु से प्रेम होगा तो प्रभु हमारे समक्ष प्रकट भी होंगे और हमें अपनी अनुभूति भी देंगे ।
547. मुख से लिया प्रभु का नाम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता ।
548. भक्ति हमें जीवन में बहुत ऊपर लेकर जाती है ।
549. भक्ति का स्थान सबमें सबसे ऊँ‍चा है ।
550. भक्ति के द्वारा ही हम प्रभु के दिव्य स्वरूप का दर्शन कर पाते हैं ।
551. भक्ति में अनन्यता होनी चाहिए ।
552. जैसे एक पतिव्रता स्त्री के लिए उसके पति ही सब कुछ हैं वैसे ही एक सच्चे भक्त के लिए उसके प्रभु ही सब कुछ होते हैं ।
553. प्रभु जिनके रक्षक होते हैं उनका कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकता ।
554. हमारे साथ कुछ भी जाने वाला नहीं, सिर्फ प्रभु की भक्ति ही साथ जाएगी ।
555. भक्ति जब पराकाष्ठा तक पहुँचती है तो भक्त को हर श्वास में प्रभु की अनुभूति होने लगती है ।
556. जो भक्त प्रभु के सानिध्य के बिना एक पल भी नहीं रह सकता वही सबसे श्रेष्ठ भक्त है ।
557. भक्तों को प्रभु का एक पल भी अगर अनुभव नहीं होता है तो उन्हें ऐसा लगता है कि मानो उनके प्राण प्रभु बिना निकल जाएंगे । भगवती कुंतीजी इसका जीवंत उदाहरण हैं जिन्होंने प्रभु के स्वधाम जाने की सूचना मिलते ही अपने प्राण त्याग दिए ।
558. जब हम प्रभु के शरणागत हो जाते हैं तो प्रभु हमारी संपूर्ण जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं ।
559. प्रभु अपने भक्तों को इतना मान देते हैं कि स्वयं को भक्तों का दास मानते हैं और भक्तों को अपना मुकुटमणि मानते हैं ।
560. प्रभु का गुणगान करना जीवन में कभी नहीं भूलना चाहिए ।
561. जीवन में ऐसा कर्म करना चाहिए जिसे माता के गर्भ में आकर दोबारा हमें कष्ट नहीं भोगना पड़े । वैसे भी मरते समय भी इतना कष्ट होता है इसलिए दोबारा उसे भोगना न पड़े ऐसा साधन करना चाहिए और यह साधन केवल भक्ति ही है ।
562. श्रीमद् भागवतजी महापुराण के एक-एक श्लोक इतने अदभुत हैं कि ऋषियों को वे समाधि से निकालकर उनको श्रीमद् भागवतजी के रस में डूबो देते थे ।
563. अपने शत्रुओं को भी दया करके मुक्ति देने वाला प्रभु के अलावा अन्य कोई नहीं हो सकता ।
564. हमें भौतिकवाद से ऊपर उठकर अध्यात्म की तरफ मुड़ना चाहिए ।
565. जीवन की सबसे बड़ी कमाई यह है कि अंत समय में हमें प्रभु की याद आ जाए ।
566. अंतिम समय प्रभु को याद करते ही मुक्ति मिल जाती है । इसलिए जीवनभर प्रभु को याद करना चाहिए तो ही अंतिम समय हमें प्रभु की याद आएगी ।
567. प्रभु को याद करके शयन करने पर निद्रा में भी प्रभु की झांकी के ही दर्शन होंगे ।
568. अंत समय प्रभु को याद करने से प्रभु धाम की प्राप्ति होती है ।
569. नर शरीर अनमोल है जो कि प्रभु कृपा से हमने पाया है । इसे दुनिया के प्रपंच में पड़कर हमें व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए और दुनिया के प्रपंच में पड़कर प्रभु को बिसारना नहीं चाहिए ।
570. मानव जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति ही है ।
571. हमें इंद्रियों के नौकर बनकर नहीं वरन इंद्रियों को अपना नौकर बनाकर रखना चाहिए तभी हम जितेंद्रिय बन सकते हैं ।
572. आत्म साक्षात्कार के समय हमारे हृदय में ही हमें प्रभु के दर्शन होंगे ।
573. प्रकृति भी उच्च कोटि के भक्तों की सेवा करती है ।
574. केवल प्रभु का ही स्मरण और चिंतन करना चाहिए । इससे हमें आनंद-ही-आनंद की अनुभूति होगी ।
575. शरणागति ही हमें केवल प्रभु तक पहुँचा सकती है ।
576. वासना रहने पर हमें पुनः संसार में लौटकर आना ही पड़ेगा ।
577. जिन नेत्रों से प्रभु दर्शन नहीं किए वे नेत्र बेकार हैं, जिन कानों से प्रभु की कथा श्रवण नहीं किया वे कान बेकार हैं और जिन मुँह ने प्रभु का गुणानुवाद नहीं गाया वह मुँह बेकार है ।
578. जब तक हम अपने कर्मों को प्रभु को समर्पित करके प्रभु की शरणागति नहीं लेते तब तक हमें आवागमन से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
579. प्रभु से प्रार्थना करें कि हमारे दूर जाने पर भी प्रभु हमसे दूर कभी नहीं जाएं ।
580. प्रभु से उनकी दया और कृपा की याचना करनी चाहिए ।
581. भक्ति ऐसी करनी चाहिए कि प्रभु भी हमें याद करें ।
582. जो प्रभु को ही अपना सब कुछ मानता है प्रभु भी उनको याद करते रहते हैं ।
583. हमें अपने सभी कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करने चाहिए ।
584. हमें कभी जगत को यह नहीं बताना चाहिए कि हम प्रभु के कितने बड़े भक्त हैं । भक्ति सदैव छिपानी चाहिए ।
585. जितना बाहर झांकने की प्रवृत्ति बढ़ेगी उतना अपने भीतर झांकने की प्रवृत्ति कम होती जाएगी । इसलिए हमें बाहर झांकने की प्रवृत्ति को कम करना चाहिए और अंतर्मुखी होना चाहिए ।
586. प्रभु का सच्चा दर्शन यह है कि भक्त उनके स्वरूप को देखकर अपनी सुध-बुध खो दें ।
587. प्रभु भक्तों को सदैव नित्य नूतन दिखते हैं ।
588. प्रभु की प्रसन्नता जब भोग में आ जाती है तो वह भोग प्रसाद बन जाती है ।
589. प्रभु भावग्राही हैं यानी भाव को ग्रहण करने वाले हैं ।
590. प्रभु साक्षात्कार के बाद प्रभु से कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । सच्ची भक्ति प्रभु से कुछ भी नहीं चाहती ।
591. आनंद संसार में नहीं है, वह तो प्रभु के सानिध्य में ही है ।
592. इंद्रियों को विषयों से मोड़कर प्रभु की तरफ ले जाना चाहिए ।
593. इंद्रियों को रोकना कठिन है पर मोड़ना आसान है । इसलिए इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ना चाहिए ।
594. श्रीमद् भागवतजी महापुराण में भक्त और भगवान के पावन चरित्र समाहित हैं ।
595. प्रभु के श्रीकमलचरणों में जाने से इहलोक और परलोक दोनों आनंदमय बन जाते हैं ।
596. प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु हमें ऐसी बुद्धि दे जो प्रभु को कभी भी नहीं भूले ।
597. प्रभु भक्त श्री ध्रुवजी को दर्शन देने नहीं अपितु प्रभु भक्त श्री ध्रुवजी के दर्शन करने आएं, ऐसी संत व्याख्या करते हैं ।
598. मानव शरीर प्रभु ने हमें अपनी भक्ति करने के लिए एवं शरणागति प्राप्त करने के लिए दिया है ।
599. प्रभु के प्रसन्न होने पर ब्रह्माण्ड में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
600. हमें अपने सभी कर्म प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही करने चाहिए ।
601. प्रभु को भूल जाना सबसे बड़ी विपत्ति है और प्रभु को याद रखना सबसे बड़ी संपत्ति है ।
602. दशरथनंदन श्रीराघव और यशोदानंदन श्रीमाधव दोनों एक ही हैं ।
603. प्रभु की शरणागति लेने पर हम सहज में ही भवसागर से पार हो पाएंगे ।
604. प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि जिसमें हमारा हित हो वही दें । प्रभु श्री महादेवजी से ऐसी प्रार्थना करने पर वे प्रभु श्री हरिजी की भक्ति हमें प्रदान करते हैं ।
605. समस्त वैष्णव भक्तों में प्रभु श्री महादेवजी को श्रेष्‍ठतम माना गया है ।
606. प्रभु के सानिध्य के बिना कहीं भी और कभी भी विश्राम नहीं मिलेगा ।
607. जिनकी अटूट भक्ति प्रभु के श्रीकमलचरणों में है ऐसे भक्तों की कथा श्रीमद् भागवतजी महापुराण में है ।
608. जो संसार में आसक्त होते हैं वे ही संसार के बंधन में आते हैं ।
609. मानव शरीर लौकिक सुख भोगने के लिए नहीं मिला है ।
610. मानव शरीर भगवत् भजन करके अनंत और आनंद प्राप्त करने के लिए मिला है ।
611. प्रभु भक्ति में कोई बाधा डाले तो उसका तत्काल त्याग कर देना चाहिए ।
612. थोड़ी-सी भी की हुई भगवत् आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती ।
613. भक्त की रक्षा प्रभु स्वयं करते हैं ।
614. प्रभु भक्ति हमें जीवन मुक्त करती है । मृत्यु मुक्ति से भी बड़ी जीवन मुक्ति होती है यानी जीवन के रहते ही मुक्त होना जो भक्ति करती है ।
615. जिसकी कोई संसारी इच्छा नहीं रहती वही सच्चा शहंशाह है ।
616. आनंद स्वरूप प्रभु हमारे भीतर हैं इसलिए हमें बाहर संसार में आनंद नहीं मिल सकता ।
617. सौ किलोमीटर दूर से भी श्रद्धा और भावना से भगवती गंगा माता को याद किया जाए तो भी हमारे पाप भस्म हो जाते हैं ।
618. पुण्य का निर्णय श्री धर्मराजजी करते हैं, पाप का निर्णय श्री यमराजजी करते हैं । दोनों एक ही देव हैं पर दो कार्य अलग-अलग रूप में करते हैं ।
619. एक संत ने एक बहुत सुंदर शरणागति का भाव रखा कि मैं अपने प्रयास से प्रभु आपका दर्शन करने में असमर्थ हूँ, प्रभु आपकी कृपा होगी तभी आपका दर्शन मेरे लिए संभव हो पाएगा ।
620. प्रभु से हमारे प्रमुख नौ संबंध हो सकते हैं । माता, पिता, सखा, दास, शरणागत इत्यादि-इत्यादि । जरूरी यह है कि कोई-न-कोई एक संबंध प्रभु से जीवन में जोड़ लेना चाहिए ।
621. शरणागत भक्त का प्रभु पर अधिकार हो जाता है ।
622. एक बार जो प्रभु की शरण में आ जाए तो प्रभु उसे तत्काल अभयदान दे देते हैं । यह प्रभु की श्री रामावतार में प्रतिज्ञा है ।
623. प्रभु से जीव के नाते अनेक होते हैं । हम जिस भी नाते से प्रभु को मानें, प्रभु उसी नाते को स्वीकार कर लेते हैं ।
624. भक्त वह है जो सबको भगवान से जोड़ने का प्रयत्न करता है ।
625. अपने जीवन को प्रभु का बना देना चाहिए ।
626. संसार की सभी विद्याओं से मोक्ष देने वाली विद्या सर्वोपरि विद्या है ।
627. जिसको प्रभु चाहते हैं वही भक्त प्रभु को जान और पहचान पाता है ।
628. प्रभु करुणानिधान है यानी दूसरे के दुःख को देखकर प्रभु दुःखी हो जाते हैं ।
629. संत और भक्त भक्ति का प्रचार करके परोपकार और परहित का कार्य करते हैं ।
630. श्री रामचरितमानसजी की हर चौपाई एक मंत्र स्वरूप है ।
631. सद्गुरूदेव हमारे संसार के भवबंधन को काटकर हमें श्रीहरि को प्राप्त कर लेने की राह दिखाते हैं ।
632. मानव शरीर बड़े भाग्य से हमें मिला है । यह हमें अपने परलोक को सुधारने के लिए मिला है ।
633. प्रभु श्री रामजी की कथा श्री चंद्रदेवजी के समान है और चकोररूपी संत और भक्त उसका पान करते हैं ।
634. करोड़ों पुण्य जब उदय होते हैं तब हमें प्रभु कथा सुनने का अवसर मिलता है और हमारा मन प्रभु कथा सुनने के लिए तन्मय होता है ।
635. प्रभु श्री रामजी की कथा के सर्वप्रथम रचयिता प्रभु श्री महादेवजी हैं ।
636. प्रभु कथा वाचन से भी ज्यादा आनंद प्रभु कथा श्रवण में आता है ।
637. कथा सुननी हो तो हमें नीचे आना पड़ता है । प्रभु श्री महादेवजी को कथा सुनने की इच्छा हुई तो वे श्री कैलाशजी पर्वत से नीचे उतर कर सागर तट पर ऋषि श्री अगस्त्यजी के आश्रम पर आए ।
638. बार-बार हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण एवं श्री रामचरितमानसजी की कथा सुनते हैं तो भी हमें हर बार कथा में नया मिलता है । हर कथा नवीन होती है, यह शाश्वत सिद्धांत है । कोई भी दो कथा एक जैसी नहीं हो सकती । हर कथा में ग्रहण करने योग्य हमें जरूर मिलेगा ।
639. प्रभु कथा सुनने से जीव को परम सुख मिलता है ।
640. ऋषि श्री अगस्त्यजी ने प्रभु कथा सुनाकर प्रभु श्री महादेवजी से प्रभु श्री रामजी की भक्ति मांगी । ऋषि श्री अगस्त्यजीजी का कितना श्रेष्ठ आचरण था कि कथा दक्षिणा के रूप में भक्ति मांग ली क्योंकि प्रभु श्री रामजी की भक्ति देने में प्रभु श्री महादेवजी सबसे अग्रणी हैं ।
641. भगवत् कथा को मन के एकांत में श्रवण करने से अधिक लाभ होता है ।
642. हमें तीर्थ में जाकर प्रभु के स्वरूप को ग्रहण करना चाहिए । हमें तीर्थ में अन्य कुछ मौज-मस्ती की चीजों को ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
643. प्रभु के श्रीकमलचरणों में ध्यान लगाकर संसार के सभी भोगों को त्याग देना चाहिए ।
644. बहुत काल तक प्रभु कथा का श्रवण किया जाए तो निश्चित प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीति हो जाती है ।
645. प्रभु सेवा में हम लगे रहें तो हमारी आवश्यकता प्रभु स्वत: ही पूरी करते हैं ।
646. प्रभु किसी का कभी भी अपने ऊपर थोड़ा-सा भी ऋण नहीं रखते ।
647. प्रभु की छवि नेत्रों में ऐसे बसा लेनी चाहिए कि हम जिधर देखें उधर ही प्रभु के दर्शन हों ।
648. प्रीति यानी प्रेम केवल प्रभु से ही करना चाहिए ।
649. प्रभु कथा सुनते रहने से नित्य प्रभु में प्रीति बढ़ती जाएगी ।
650. प्रभु कथा सुनते रहने से एक दिन प्रभु हृदय में अवश्य प्रकट होंगे ।
651. संसार में एक ही देव यानी प्रभु श्री महादेवजी ही हैं जो कि इतनी जल्दी प्रसन्न होते हैं ।
652. प्रभु ही हमारे माता-पिता हैं इसलिए वे हम पर दया और कृपा करते रहते हैं ।
653. जब प्रभु चाहते हैं तभी जीव प्रभु को प्राप्त कर सकता है ।
654. जो अनन्य भाव प्रभु के लिए रखते हैं वे कभी भी प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से भटक नहीं सकते ।
655. जिनका चित्त प्रभु में लग जाता है उनके कर्म कभी उनको बंधन में नहीं डाल सकते ।
656. संसार के सामने नहीं, प्रभु के सामने ही अपने सुख और दुःख निवेदन करना चाहिए ।
657. हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण में रहना चाहिए ।
658. प्रभु अपने शरणागत की गलती को भी माफ कर देते हैं ।
659. भगवान अपनी भगवत्ता् छुपाते हैं और सरल बने रहते हैं जिससे भक्त से आत्मीय रिश्ता बना रहे ।
660. प्रभु की कथा और प्रभु का नाम जप जो भारत भूमि में है वह श्री बैकुंठजी में भी नहीं है । इसलिए संत भारत भूमि को श्री बैकुंठजी से भी श्रेष्ठ मानते हैं ।
661. जीव को प्रभु प्राप्ति में बाधक उसके पाप और पुण्य होते हैं । पाप और पुण्य का क्षय होने पर ही प्रभु मिलन संभव है ।
662. जो प्रभु को प्रिय है वही पुण्य है । जो प्रभु को अप्रिय है वही पाप है ।
663. जिस प्रकार भी हम भजें चाहे पिता, सखा या स्वामी मानकर पर सिर्फ प्रभु को ही भजना चाहिए ।
664. जीव मात्र का प्रेम केवल प्रभु के लिए ही होना चाहिए । उस प्रभु प्रेम को किसी भी चीज से अवरूद्ध नहीं होने देना चाहिए ।
665. जब हम सभी कामनाओं से और वासनाओं से रिक्त हो जाते हैं तो ही प्रभु हमें साक्षात्कार के लिए बुलाते हैं ।
666. दुनिया के सभी सुखों का परित्याग करके हमें प्रभु के पास जाना चाहिए ।
667. शरणागत में अगर दोष भी हैं तो भी प्रभु उसे अपनाते हैं ।
668. भक्ति के कारण जो प्रभु प्रेम होता है वह उत्कृष्ट और सर्वोपरि प्रेम होता है ।
669. दुनिया के सारे संबंध अनित्य हैं, केवल प्रभु से ही हमारा जो संबंध है वही नित्य है ।
670. दुनिया के लोग शरीर बंधु हैं, प्रभु हमारे आत्म बंधु हैं । शरीर का संबंध दुनिया वालों के साथ रख सकते हैं पर आत्मा का संबंध केवल और केवल प्रभु के साथ ही होना चाहिए ।
671. अगर भक्त में किसी भी प्रकार का अभिमान आ जाए तो प्रभु अपने भक्त के अभिमान को रहने नहीं देते क्योंकि यह प्रभु मिलन में सबसे बड़ी बाधा होती है ।
672. प्रभु भक्त के मान को रखते हैं पर उसके अभिमान को नष्ट कर देते हैं ।
673. हमें प्रभु से प्रभु को ही मांगना चाहिए, प्रभु से अन्य कुछ भी नहीं मांगना चाहिए ।
674. प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी प्रभु से की गई याचना हमें प्रभु से दूर कर देती है ।
675. प्रभु जैसा दयावान दुनिया में कोई नहीं और हमारे जैसा दयापात्र दुनिया में कोई नहीं, ऐसी भावना सदैव जीवन में रखनी चाहिए ।
676. हमें प्रभु का अशुल्क दास बनकर रहना चाहिए ।
677. प्रभु की शरण में आने से हमारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।
678. प्रभु के श्रीकमलचरण हमारे पापों को नष्ट करने वाले हैं । इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों का सदैव जीवन में आश्रय लेकर रहना चाहिए ।
679. प्रभु की कथा अमृत है और भक्तों के लिए यह जीने का सहारा है ।
680. प्रभु की कथा हमारे सभी पापों को धोने वाली होती है ।
681. श्रीगोपीजन को प्रभु श्री कृष्णजी की दर्शन लालसा ही रहती थी, अन्य कोई लालसा प्रभु से नहीं रहती थी । इसलिए श्रीगोपीजन की प्रेमाभक्ति सबसे श्रेष्ठ है ।
682. प्रभु अपने भरोसे में रहने वालों को कभी नीचे नहीं गिरने देते ।
683. प्रभु का संकल्प जब हमारे संकल्प से मिलता है तभी कोई कार्य होता है ।
684. प्रभु से सदैव सद्बुद्धि की याचना करनी चाहिए ।
685. भौतिक वस्तुएं कभी भी हमें सच्चा सुख नहीं दे सकतीं ।
686. आनंद केवल प्रभु के सानिध्य में ही है, संसार में आनंद नहीं है ।
687. श्रीहरि के चरणामृत को पीने से हमारे दुःख दूर होते हैं ।
688. जिसमें हमारा हित होगा, मंगल होगा और कल्याण होगा प्रभु हमें वही देंगे ।
689. प्रभु की कृपा और दया में कभी कोई कमी नहीं होती ।
690. प्रभु की नजरों से कभी नहीं गिरना चाहिए । ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिए जिससे हम प्रभु की नजर से गिर जाए ।
691. बालरूप में प्रभु श्री रामजी और प्रभु श्री कृष्णजी का स्वरूप एक जैसा है । फर्क सिर्फ एक है कि प्रभु श्री रामजी गंभीर हैं और प्रभु श्री कृष्णजी चंचल हैं ।
692. मर्यादा देखना हो तो प्रभु श्री रामजी के अवतार में देखें । ऐश्वर्य देखना हो तो प्रभु श्री कृष्णजी के अवतार में देखें ।
693. प्रभु श्री कृष्णजी का ऐश्वर्य देखें कि जन्म के छठे दिन पूतना का उद्धार किया और अपने बाल्यकाल में ही कितने राक्षसों को मारा । इतना अदभुत ऐश्वर्य ।
694. प्रभु के दर्शन और प्रभु के नाम जप में खूब आनंद का अनुभव करना चाहिए ।
695. प्रभु के श्रीनेत्रों में दया, कृपा और करुणा भरी हुई है ।
696. सारे जगत के माता और पिता प्रभु ही हैं ।
697. संत कहते हैं कि श्री वेदजी के सोलह हजार मंत्रों को यानी ऋचाओं को प्रभु ने पत्नी रूप में स्वीकार किया और इस तरह प्रभु की सोलह हजार पत्नियां हुईं ।
698. प्रभु की शरण में आना जीव के कल्याण का सूत्र है ।
699. सारे शास्त्रों का निचोड़ यह है कि प्रभु का भजन जीवन में करना चाहिए ।
700. सभी कर्मों के मूल स्थान में प्रभु को रखना चाहिए ।
701. प्रभु की कभी परीक्षा नहीं लेनी चाहिए, ऐसा करना जीव का बहुत बड़ा पातक होता है ।
702. प्रभु मान नहीं चाहते अपितु अपने सभी भक्तों को मान देना चाहते हैं ।
703. प्रभु इतने करुणानिधान हैं कि शत्रुओं को भी सद्गति दे देते हैं ।
704. जितने दिनों का जीवन मिला है उसका सदुपयोग प्रभु भक्ति करने में ही करना चाहिए ।
705. जीवन को भगवतमय बनाना चाहिए ।
706. प्रभु स्वयं अपने भक्तों के लिए भक्ति मार्ग का निर्वाह करते हैं । भक्त अगर भक्ति मार्ग से डगमगा भी जाता है तो प्रभु उसके भक्ति के उपक्रम को निभाते हैं और उसे सफल करते हैं ।
707. प्रभु को सच्चे मन से याद करके प्रभु की भक्ति करें तो प्रभु स्वयं अपने आप का भी दान दे देते हैं ।
708. हमें अपने स्वार्थ के लिए भक्ति नहीं करनी चाहिए नहीं तो भक्ति में दोष लगता है ।
709. जो पूरे संसार को देते हैं वे ही प्रभु अपने भक्तों की सभी जरूरतों की स्वतः ही पूर्ति करते हैं । इसलिए प्रभु से कुछ मांगने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए ।
710. मानव जीवन का सबसे बड़ा लाभ प्रभु साक्षात्कार प्राप्त करना है अन्यथा जानवर और मानव में फर्क ही क्या है ?
711. प्रभु जिसे अपनाते हैं उसका स्मरण प्रभु सदैव करते हैं ।
712. प्रभु की शरण में आने पर प्रभु शरणागत के प्रारब्ध को नष्ट कर देते हैं । प्रारब्ध नष्ट होने पर ही मुक्ति संभव होती है ।
713. भक्ति से और प्रेम से प्रभु को थोड़ा भी दिया जाए तो प्रभु उसे बहुत मानते हैं ।
714. प्रभु वस्तु ग्राही नहीं, भाव ग्राही हैं ।
715. भक्त श्री सुदामाजी का एक मुट्ठी चिउड़े लेकर प्रभु ने जैसे ही भोग लगाया और डकार ली तो पूरा ब्रह्मांड ही तृप्त हो गया ।
716. जो प्रभु ने दिया उसको याद करके प्रभु के कृतज्ञ बनना चाहिए । जो नहीं मिला उस अभाव को याद करके प्रभु से मांगना नहीं चाहिए ।
717. प्रभु के कुछ नहीं देने के बाद भी भक्त श्री सुदामाजी प्रभु का उपकार-पर-उपकार मानकर वापस लौटे । यही भक्ति का सूत्र है ।
718. भक्त श्री सुदामाजी ने यह माना कि प्रभु ने उन पर बहुत बड़ी कृपा की इसलिए उन्हें धन नहीं दिया क्योंकि धन पाकर वे प्रभु को भुला देते और प्रभु प्राप्ति के मार्ग से दूर हो जाते । यह सोचकर भक्त श्री सुदामाजी अति आनंदित हुए ।
719. हर जन्म में हमें प्रभु से ही अपना शाश्वत संबंध मानना चाहिए ।
720. भक्त श्री सुदामाजी ने अपने हाथ को प्रभु की सेवा करने के लिए प्रेरित किया, आँखों को प्रभु दर्शन के लिए प्रेरित किया, जिह्वा को प्रभु भजन के लिए प्रेरित किया और मन को प्रभु ध्यान के लिए प्रेरित किया जब प्रभु ने उन्हें अपार सुदामापुरी के रूप में संपत्ति दे दी । प्रभु से अपार संपत्ति पाने के बाद भी उन्होंने अपनी किसी भी इंद्रियों को सुखभोग के लिए प्रेरित नहीं किया ।
721. प्रभु हमेशा जीव को उनसे प्रेम करने की ही शिक्षा देते हैं ।
722. प्रभु अपने से भी ऊपर अपने भक्तों को मानते हैं ।
723. प्रभु से आशा रखने पर हम परम सुखी होते हैं । संसार से आशा रखने पर हम परम दुखी होते हैं ।
724. भगवत् अनुभव असंग अवस्था में ही होता है यानी बिना किसी के संग, एकांत में रहने से ही भगवत् अनुभव होता है ।
725. जब प्रसिद्धि मिल जाती है तो हम प्रभु से दूर हो जाते हैं । इसलिए प्रसिद्धि को हाथ जोड़कर त्यागना चाहिए । प्रसिद्धि के चक्कर में सच्चे भगवत् भक्त कभी नहीं पड़ते ।
726. श्रीमद् भागवतजी महापुराण प्रभु का स्वरूप है । इसलिए जो श्रीमद् भागवतजी महापुराण का श्रवण सच्चे भाव से नित्य करते रहेंगे प्रभु उनको हृदय में सदैव अपनी अनुभूति देते रहेंगे ।
727. प्रभु कथा श्रवण करने से पाप हमें छोड़कर जाने लग जाते हैं ।
728. संसार के विषयों के बारे में सुनने से विषय हमारे हृदय में बस जाएंगे । इसी तरह प्रभु के बारे में सुनने से प्रभु हमारे हृदय में आकर बस जाएंगे । यह सिद्धांत है ।
729. पशु जो खाते हैं उसकी जुगाली करते हैं । मनुष्य जो सुनते हैं उसकी जुगाली करते हैं यानी उसी को आत्मसात करते हैं । इसलिए मनुष्य जन्म पाकर प्रभु की कथा सुनना सबसे आवश्यक है ।
730. कलियुग में प्रभु कथा ही प्रभु का सच्चा ठिकाना है ।
731. जिन बातों का चिंतन हम दिन में करते हैं वही रात्रि में हमारी निद्रा में आती है । इसलिए दिन में प्रभु का चिंतन करना चाहिए तो स्वप्न में भी प्रभु की झांकी के दर्शन होंगे ।
732. प्रभु के श्रीकमलचरणों की धूलि अति पावन और शोक रहित करने वाली है । तभी भगवती अहिल्याजी ने अपनी मुक्ति के लिए प्रभु के श्रीकमलचरणों की धूलि की मांग की ।
733. हमें अपने अवगुण कभी प्रभु से छुपाने नहीं चाहिए ।
734. प्रभु के सामने छुपाना हो तो अपने गुण को छुपाना चाहिए, अवगुण को कभी नहीं छुपाना चाहिए । पर हम उल्टा करते हैं अपने अवगुण को छुपाते हैं और गुणों का बखान प्रभु के सामने करते हैं ।
735. हमारा मन प्रभु कृपा के बिना निर्मल नहीं हो सकता ।
736. प्रभु के भक्त अपनी मौज के लिए प्रभु का गुणगान गाते हैं, वे दुनिया को दिखाने के लिए नहीं गाते ।
737. प्रभु कारण रहित दयालु है यानी बिना कारण दया और कृपा करने वाले हैं ।
738. जो प्रभु का भजन नहीं करता उससे बड़ा दरिद्र दुनिया में कोई नहीं है ।
739. हम अपना अनमोल जीवन यूं ही गंवा रहे हैं । हमारी मंजिल प्रभु के श्रीकमलचरण हैं और हम संसार की तरफ जा रहे हैं ।
740. प्रभु अपने भक्तों के चित्त को चुराने वाले चित्तचोर हैं ।
741. प्रभु श्री रामजी नीति और प्रीति दोनों में परिपूर्ण हैं ।
742. श्री लक्ष्मणजी को अगर कोई कहता कि वे श्रीदशरथ पुत्र हैं तो वह इतने प्रसन्न नहीं होते पर जब कोई कहता कि वे श्री रामजी के छोटे भ्राता हैं तो इस परिचय से वे अति प्रसन्न हो जाते । सूत्र यह है कि हमें भी यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए की हम प्रभु के हैं । इसके अतिरिक्त दूसरे कोई परिचय से हमें प्रसन्न नहीं होना चाहिए ।
743. हमारे द्वारा हुए किसी भी अच्छे कार्य का श्रेय हमें खुद कभी नहीं लेना चाहिए । हमें यही कहना चाहिए कि यह श्री ठाकुरजी ने करवाया है ।
744. प्रभु श्री महादेवजी कहते हैं कि वे लोग अभागे हैं जो प्रभु भजन को छोड़ कर संसार के विषयों में अनुराग रखते हैं ।
745. संसार के लिए कभी रोना नहीं चाहिए । अगर रोना ही है तो श्रीहरि को पाने के लिए रोना चाहिए ।
746. प्रभु को याद करके रोना सबसे श्रेष्ठ है । आंसू सिर्फ प्रभु के लिए बहने चाहिए तभी वे आंसू सार्थक और महत्व रखने वाले होंगे ।
747. प्रभु से प्रेम करना चाहिए क्योंकि यह जीवन बड़ा अमूल्य है । एक दिन भी प्रभु प्रेम के बिना व्यर्थ नहीं करना चाहिए ।
748. प्रभु की कथा गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने प्रसिद्धि के लिए नहीं, अर्थ के लिए नहीं, मोक्ष के लिए नहीं लिखी । उन्होंने श्रीहरि से सबका प्रेम हो जाए इसके लिए प्रभु की कथा लिखी और अपनी लेखनी को पावन करने के लिए प्रभु की कथा लिखी ।
749. कथा वाणी को पवित्र करने के लिए कही जानी चाहिए और अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए सुनी जानी चाहिए ।
750. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी की अगर कोई संसारी कामना होती तो श्री रामचरितमानसजी इतनी प्रसिद्ध कभी नहीं होती । कोई कामना नहीं थी इसलिए श्री रामचरितमानसजी इतनी प्रसिद्ध हुई ।
751. प्रशंसा से पुण्य का ह्रास होता है ।
752. सच्चे भक्त कभी भगवान से कुछ नहीं मांगते । प्रभु ही ऐसे भक्तों को कहते रहते हैं कि मुझे कुछ करने का अवसर तो दो ।
753. जो प्रभु को जान जाता है उसको फिर दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता क्योंकि वह प्रभु का हो जाता है ।
754. छोटा बालक जो बोलता है उसकी माँ उसे तुरंत समझ लेती है । इसी तरह प्रभु भी अपने भक्तों की हर बात को तुरंत समझते हैं ।
755. कलियुग को पार करना है तो उसके लिए केवल श्रीहरि नाम ही एकमात्र उपाय है ।
756. स्वार्थ की बात मांगने पर प्रभु दें या न दें पर परमार्थ मांगने पर प्रभु वह अवश्य देते हैं ।
757. सच्चा परमार्थ यह है कि मन, कर्म और वचन से प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारी प्रीति हो जाए ।
758. हर समय प्रभु का चिंतन बना रहे तो हमारा जीवन धन्य हो जाता है ।
759. माया यानी जो नहीं है उसे हम पाने की चेष्टा करते हैं और प्रभु जो हमारे हैं उन्हें पाने की चेष्टा हम नहीं करते ।
760. प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा प्रेम सदा के लिए बना रहे, यही हमें प्रभु से मांगना चाहिए ।
761. हमारे मन पर अधिकार सिर्फ प्रभु का है, यहाँ तक कि हमारे परिवार का भी अधिकार हमारे मन पर नहीं है । इसलिए मन सिर्फ प्रभु को ही देना चाहिए ।
762. प्रभु के श्रीकमलचरणों में हमारा मन सहज रूप से लगा रहे, ऐसा प्रयास हमें जीवन में करना चाहिए ।
763. जैसे एक छोटे बालक की बात उसके सांसारिक पिता सुनते हैं वैसे ही प्रभु अपने भक्तों की बात परमपिता के रूप में सुनते हैं ।
764. जिसने प्रभु श्री रामजी को सच्चे रूप में जाना वह प्रभु श्री रामजी का होकर ही रहेगा । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
765. हम प्रभु का दिया हुआ धन ही मंदिर में चढ़ावे में प्रभु को वापस देते हैं तो इसमें क्या बड़ी बात है । बड़ी बात इसमें है कि हम अपना मन प्रभु को दें ।
766. प्रभु को देना ही है तो प्रभु को अपना मन देना चाहिए ।
767. जब तक जीवन रहे तब तक प्रभु को भजते रहना चाहिए ।
768. श्री रामचरितमानसजी, श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी का चिंतन करने से जीवन की सभी समस्याएं सुलझ जाती हैं, ऐसा संतों का एकमत है ।
769. जैसे पेड़ को काटकर पेड़ के पत्ते को रखना संभव नहीं या जल से निकालकर मछली को रखना संभव नहीं वैसे ही प्रभु श्री रामजी के बिना श्री भरतजी का अस्तित्व नहीं । यह बात श्री भरतलालजी ने स्वयं भगवती कैकेयी माता को कही ।
770. जिनको प्रभु प्रिय न हो उन लौकिक रिश्तों का मन से त्याग कर देना चाहिए ।
771. श्री भरतलालजी कण-कण में प्रभु श्री रामजी के दर्शन किया करते थे ।
772. आत्म साक्षात्कार के बाद भी हमें कभी असावधान नहीं होना चाहिए । उसके बाद हमारी भक्ति दुगुनी वेग से होनी चाहिए ।
773. प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु छोटे-से-छोटे व्यक्ति को भी बढ़ाई देते हैं । श्री निषादराजजी, श्री केवटजी और भगवती शबरी माता इसके साक्षात उदाहरण हैं ।
774. श्री केवटजी ने प्रभु से कहा कि आप आज्ञा दें तो वे प्रभु के श्रीकमलचरणों को धोएं । संत इस प्रसंग का भाव बताते हैं कि भक्त की ताकत नहीं कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँच पाए । इसलिए प्रभु कृपा और प्रभु आज्ञा होगी तभी भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँच सकते हैं ।
775. हमें प्रभु से स्वार्थ रहित प्रेम करना चाहिए ।
776. हमारे सगे से सगा भी अगर प्रभु विरोधी है तो उसका तुरंत मन से त्याग कर देना चाहिए ।
777. संत कहते हैं कि प्रभु भक्तों से कभी छुप नहीं सकते । प्रभु लाख कोशिश करें फिर भी भक्त उन्हें ढूंढ ही लेते हैं ।
778. प्रभु का बहुत बड़ा कृपा पात्र ही भक्ति कर पाता है ।
779. प्रभु भक्तों को कभी नहीं भूलते । प्रभु भक्तों को कभी भूल ही नहीं सकते, यह शाश्वत सिद्धांत है ।
780. घर की पवित्रता घर में मंदिर से होती है ।
781. सब संपत्ति प्रभु की दी हुई है, इसलिए अपनी संपत्ति का उपयोग प्रभु के लिए ही करना चाहिए ।
782. वस्तु के पीछे छुपा समर्पण का भाव प्रभु ग्रहण करते हैं । वस्तु प्रभु ग्रहण नहीं करते क्योंकि वस्तु की प्रभु को कोई जरूरत नहीं होती ।
783. श्रीबृज मंडल के पशु-पक्षी भी प्रभु से प्रेम किया करते हैं ।
784. जीवन में केवल प्रभु दर्शन लालसा रखनी चाहिए ।
785. प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के वश में सदैव होते हैं ।
786. प्रभु हर जगह मौजूद हैं इसलिए जहाँ भक्त पुकारे वहाँ प्रभु प्रकट हो जाते हैं ।
787. बुढ़ापे की व्याधि से केवल प्रभु ही रक्षा कर सकते हैं । बुढ़ापे की व्याधि को हराना चाहते हैं तो प्रभु शरण में जाना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है ।
788. प्रभु जिनको पकड़ते हैं उनको तब तक नहीं छोड़ते जब तक उनका उद्धार नहीं हो जाता ।
789. देवतागणों को भी दुर्लभ ऐसा मानव जीवन पाकर हमें प्रभु को पाने का प्रयास करना चाहिए ।
790. हमारा चित्त प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगा रहना चाहिए ।
791. हमें अपनी बुद्धि प्रभु में स्थिर करके रखनी चाहिए ।
792. प्रभु में मन लगने पर हमारा चित्त अपने आप ही शांत हो जाता है ।
793. संसार मे लगा चित्त दुःख भोगता है क्योंकि संसार दुःखालय है पर प्रभु में लगा चित्त सदैव सुख भोगता है ।
794. प्रभु के श्रीकमलचरणों में डूबे चित्त को फिर संसार में जाने का मन ही नहीं करता ।
795. प्रभु अपने प्रिय भक्तों को सब कुछ देते हैं । प्रभु ऐसी कोई चीज अपने पास नहीं रखते जो अपने भक्तों को नहीं देते ।
796. संसार की विपत्ति उठाए बिना प्रभु भक्ति नहीं मिलती क्योंकि हम प्रभु के पास विपत्ति में ही जाते हैं ।
797. प्रतिकूलता में ही प्रभु का स्मरण तीव्रता से होता है ।
798. प्रभु को जो भूल गया वह जीव विपत्ति में होता है । प्रभु की भक्ति में जो डूबा रहता है उसके पास ही प्रभु प्रेम की सबसे बड़ी संपत्ति होती है ।
799. जिनको आध्यात्मिक ज्ञान समझ में आ जाता है वे प्रभु के भजन में लग जाते हैं ।
800. संत कहते हैं कि सांसारिक काम करते हुए भी भजन करते रहना चाहिए ।